‘नक्षत्रहीन समय में’ कवि का होना रघुवीर चैध्ारी
29-Dec-2019 12:00 AM 3221

हिन्दी के मूधर््ान्य कवि-समीक्षक, संस्कृतिचिन्तक श्री अशोक वाजपेयी का 15वाँ कविता-संग्रह ‘नक्षत्रहीन समय में’ पढ़कर ऊर्जा का अनुभव हुआ, बाद में प्रश्न हुआः अशोकजी जीवनभर कविता को बल्कि कला मात्र को नक्षत्र मानते रहे, कालजयी कला की इन्हें गहरी पहचान है, तब वर्तमान समय में इन्हें किसी अन्य प्रकार के नक्षत्र की अपेक्षा बल्कि अनिवार्यता क्यों महसूस हो रही है?
वर्तमान सांस्कृतिक संकट कलारूपी नक्षत्र को बुझा देगा? असम्भव! परन्तु विवेक क्षीण हो सकता है। उस विवेक की मूच्र्छा टूटे, चतुराइभरी चुप्पी टूटे, यही चाहता है कवि-मनीषी।
एक ऐतिहासिक अनुभव है कि नकारात्मक समय में- उध्ाार जमाने में कला की ऊर्जा सतेज़ हुई है।
सिद्धान्तविहीन, परिणामलक्षी राजनीति समाज को विभाजित करती दिखायी दे तब अशोकजी जैसे कर्मशील सारस्वत को-कलासंवधर््ाक आयोजक को पीड़ा तो होगी ही। यह पीड़ा पत्रकारिता और हास्यविनोद के द्वारा आसानी-से व्यक्त की जाती है, परन्तु वह सतही रह जाती है। अशोकजी मनोरंजन नहीं चाहते, मनोमन्थन चाहते हैं। कविता सिद्ध हो या न हो, पर लक्ष्य तो ऊँचा ही रखना है। जोखि़म उठाना है। इसके लिए निर्भीकता और साहस की पूँजी पहले से है। पचास वर्ष से लिख रहे हैं, जानते हैंः
‘हमारा समय कविता के लिए अनुकूल समय नहीं है लेकिन यह भी सही है कि प्रायः कोई भी समय कविता के लिए अनुकूल नहीं होता। कविता इस अनुकूलता के अभाव में ही अक्सर सम्भव होती हैः वह समय की सारी प्रतिकूलता से जूझकर और उसे अतिक्रमित करने का दुस्साहस करती रहती है।’
(पृ.7, एक अधर््ा सदी)
केवल कविता ही नहीं, साहित्य की सभी विध्ााएँ विषम परिस्थितियों में अध्ािक सक्रिय दिखायी देती हैं, उपलब्ध्ाियाँ जो भी हों। उपलब्ध्ाियाँ कालातीत होती हैं।
अज्ञेय, मुक्तिबोध्ा, शमशेर को अशोकजी कविता के तीन दरवाज़े मानते हैं। समान्तर रूप से मैं वह ग्रन्थ भी पढ़ रहा हूँ। ‘नक्षत्रहीन समय में’ के आरम्भ में 11 गद्यखण्ड हैं, जो चिन्तनात्मक होने के साथ कहीं-कहीं काव्यात्मक हैं। कुछ वाक्य रेखांकित होते गए।
‘कविता सचाई पर खुलती है...
कविता भाषा में खुलती है...
हर कविता अध्ाूरी सचाई का आख्यान है... (2)
कविता हिंसा का प्रतिरोध्ा करती है। (4)
कविता अकेले को समुदाय से जोड़ती है और
समुदाय में अकेले की जगह बचाती है... (5)
कविता रास्ता नहीं दिखाती क्योंकि ज़्यादातर
तो उसे खुद रास्ते की तलाश होती है।’ (10) (पृष्ठ 9 से 13)
अशोकजी की कई पूर्ववर्ती कविताओं में शुद्ध सौन्दर्यबोध्ा के प्रति पक्षपात झलकता है। मेरे पीएच.डी. छात्र अमृत प्रजापति तीन दशक पूर्व अशोकजी की कविताओं का अध्ययन कर रहे थे, उसी दौरान मैं इनके बिम्बविध्ाान से प्रभावित हुआ। ‘वह नहाती है’ श्ाृंगार के भावतल पर अपूर्व बिम्बों की रचना करती है ः
‘मेरा प्रेम छूता है जल को@जल उसकी देह के दिगम्बर वैभव को-
प्राचीन तन्वंगी@अनन्त के ओसारे में@कवि के गवाक्ष के नीचे लज्जारूण जल से...।’ (पृ. 19, आविन्यो)
निजी दृष्टिपात परलक्षी बनकर समय और स्थल में विस्तृत होता है, स्नानागार नदीतट बनता है।
128 पृष्ठ के प्रस्तुत संकलन में अशोकजी का मुख्य प्रश्न है-
‘इस घिरते गाढ़ होते अँध्ोरे में
क्या कहीं कोई रोशनी इसकी एक नन्हीं-सी दरार पुकारती है?’ (पृ. 17)
रोशनी कहीं दिखाई नहीं देती- ऐसा कथन निरा गद्य होता, कविता बनती है उस नन्हीं-सी दरार की पुकार के अंकन से। दृश्य बारीक बनकर श्राव्य अनुभव करवाता है। यह बिम्ब दो इन्द्रियों के समवेत कार्य का संकेतक है। एक छोटी कविता में ऐसे एक-दो बिम्ब भावक को कवि के कथ्य से जोड़ते हैं। ‘बढ़ती लाचार या चतुर चुप्पी’ के उल्लेख द्वारा अशोकजी सांस्कृतिक संकट का निर्देश करते हैं। आज की राजकीय परिस्थिति इन्हें प्रश्नाकुल बनाती है, भारत की राजनीति तथा पक्षों के चरित्र के विषय में इन्हें बहुत कुछ कहना है, परन्तु इनकी कविता सीमित दायरे में पाठक को बाँध्ाती नहीं, रोशनी की नन्हीं-सी दरार की ध्ाार से गाढ़ अँध्ोरे को-नक्षत्रहीन अँध्ोरे को काटने की चुनौती देती है।
कुछ तो हो पाया है।
‘मैं सोच भी नहीं पाया
कि जल्दी-से
कुछ तारे और नक्षत्र अपने झोले में भर सकता था
जहाँ मैंने शब्द भर लिये थे।
यह तो ग़नीमत है
कि मैं जल्दी में भी कुछ शब्द तो ले आया
अन्यथा ख़ाली हाथ आता
और ख़ाली हाथ जाता।’ (पृ. 23)
कवि नक्षत्र के स्थान पर शब्द ला पाया, यह भी कोई छोटा आश्वासन नहीं है, क्योंकि पता नहीं कब शब्द नक्षत्र बन जाएँ। शब्द को शक्ति देता है समय-शब्द अपना मार्मिक संकेत गँवा बैठते हैं तब समय उनकी खोई शक्ति लौटाता है
समय बोलता है अब भी
कविता की कम होती जाती जगहों से,
शब्दों में मन्द पड़ते अन्तःकरण से (पृ. 26)
शाब्दिक अकर्मण्यता भी प्रस्तुत संकलन की अन्तरंग गूँज है। ‘शब्द बहुत दूर हो गए हैं’ रचना द्विमार्गी है। हमारे शब्दों ने हमें छोड़ दिया है? या हम जानबूझकर चुप हैं? परिस्थितिजन्य भय से या स्वार्थवश? वृक्ष के रूपक में बारीकी है ः
‘हम वृक्ष इन दिनों आई
ललछौंही-सी हरीतिमा को
उस पर बैठे पक्षी की नीली काया के सुगठन को,
उस पर रेंगते कीड़ों की कतार को
पूरी तरह देख नहीं पाते।’ (पृ. 33)
हम देखकर भी पूरा देख नहीं पाते, देखने का संकल्प गँवा बैठे हैं।
अज्ञेयजी ने कहा थाः ‘दुःख सबको माँजता है; पर आज के समाज को दुःख द्वारा सम्भव आन्तरिक विकास नहीं चाहिए।’ ‘अपने हिस्से’ रचना उपभोक्ता-सभ्यता का विवेकपूर्ण मूल्यांकन हैः
इध्ार सुख ने इतनी जगहें हथिया ली हैं
और दुःख को इतना पिछवाड़े ढकेल दिया है
कि ऐसा भ्रम आम है
कि सुख बढ़ रहा है, दुःख घट रहा है!
सुख-दुःख इतने शत्रु नहीं थे पहले
और कई बार वे साथ होते थेः
पर अब सुख आततायी है
और दुख को हमेशा खदेड़ता रहता है। (पृ. 38)
अर्थान्तरन्यास शैली की इस रचना के अन्त में जो निष्कर्ष है, उसमें भी वैचारिक ताज़गी हैः ‘थोड़ा-सा सुख@थोड़ा-सा दुःख@उनके बीच भी बहुत कुछ@जिसे हम नाम नहीं दे पाते।’ (पृ. 35)
‘नक्षत्रहीन समय मेंः पाँच कविताएँ- इस उध्ाार ज़माने की झाँकी करवाने हेतु लिखी गई हैं, किन्तु इनका समय-निरपेक्ष पाठ भी सम्भव है। कवि या कोई सर्जक कलाकार अपनी विवशता स्वीकार कर सकता हैः
‘हम रास्ता नहीं हैं
जिन पर से चलकर कोई भूला-भटका
अपने घर पहुँच सकता है!’ (पृ. 43)
इस रचना का आरम्भ पढ़कर लगता है कि कवि यहाँ विचार या कथ्य की घोषणा नहीं करेंगे। सर्जन के आरम्भ में अशोकजी कलात्मक बिम्ब रचते थे, उसका सातत्य है यहाँः
‘हमने ध्यान नहीं दिया
पत्तियाँ ध्ाीरे-ध्ाीरे अपनी लय में झर रही थीं
हलकी-सी बारिश थी
जिसमें पदचापें सुनाई नहीं देती थीं।’
झरती पत्तियाँ, हलकी-सी बारिश और पदचाप-रहित नीरवता के द्वारा एक साथ विविध्ा इन्द्रियों का व्यत्यय जगाते बिम्ब का विध्ाान होता है। कविता के पाँचवें चरण का अन्त मुख्य हैः ‘हम तो अपने नक्षत्रहीन@बुझे तारों और बेसाफ़ रंगवाले समय में@कविता में बचे-खुचे रंग खोज रहे हैं।’ आक्रोश, हताशा और आश्वासन मिलाकर संमिश्र कथ्य निवेदित करते हैं। न होने में भी जो होना है। कवि मानों प्रतिकार भूलकर तात्त्विक भूमिका के निकट पहुँचते हैंः ‘हम ‘हैं’ और ‘नहीं’ हैं’ के बीच@भुरभुरी रेत है@ जो ध्ाीरे-ध्ाीरे समय के पार खिसक रही है।’ (पृ. 88) फकीर कहेंगेः सब हवा है, सब ध्ाुँआँ है परन्तु कवि ध्ारती से जुड़ा है अतः होने-न-होने के बीच भुरभुरी रेत का अस्तित्व उसे लक्षित होता है। ‘अब इतना’ की आखिरी पंक्ति हैः ‘और कविता कुछ थामने-बचाने की कोशिश में लगी है।’ (पृ. 47)
‘एक पंक्ति की तेरह कविताएँ’ उल्लेखनीय है।
यहाँ कवि वक्रता की सहायता से चिन्तन को काव्यात्मक बना पाए हैंः ‘शब्द में समा नहीं सकता संसारः संसार से परे नहीं हो सकता शब्द।’ (पृ. 48) और अन्तिमः ‘प्रार्थना एक वृक्ष है जिसकी हर पत्ती गुनगुनाती है पर अपने लिए कुछ नहीं माँगती।’ (पृ. 49)
प्रस्तुत संग्रह की कुछ छोटी कविताएँ स्मृति में अंकित हो जाती हैं। देवता मन्दिर के गर्भगृह के अध्ािपति हैं, बाहर के सौन्दर्य से अनभिज्ञ हैं। कवि देवता के भीतरी अस्तित्व को कबूल करने से पूर्व बाह्य सृष्टि का सौन्दर्य देखता है, अध्ािक भाग्यवान हैः
‘मन्दिर की चैकोर छत पर
बिछ गई है शिरीष के फूलों की हरी-पीली चादर
अन्दर बैठे देवताओं को इसकी कोई खबर नहीं।’ (पृ. 51)
अनुगामी कविता ‘एक चिडि़या हरी डाल पर बैठी है’- गीत की आवर्तन-शैली में लोकदर्शन करती है। अशोकजी की विशेषता है कि इनके अनुगामी वाक्य का हम अनुमान नहीं कर सकते, इस कारण भी ताज़गी का अनुभव होता है। ‘अब बचा क्या है?’ का पहला चरण हैः
‘समय अध्ािक न बचा हो
सपने तो बचे हैं।’ (पृ. 55)
‘पूछना चाहता हूँ’ रचना का आरम्भ देखिएः
‘मैं पूछना चाहता हूँ सूर्यास्त से
उस बच्ची के बारे में जो मलबे के नीचे दबी रहकर भी बच गई।’ (पृ. 58)
‘उठाए हूँ पृथ्वी’ दीर्घ कविता है। यहाँ प्रत्यक्ष रूप में तो पृथ्वी है ही, संकल्पना के रूप में भी है। एक समर्थ कवि ही ऐसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में इतनी सारी क्रियाओं का विनियोग कर सकता है। यहाँ तीनों काल और पूरा ब्रह्माण्ड चिन्तनशील दृश्यात्मकता के द्वारा जुड़ते हैं अैर एक निष्कर्ष तक पहुँचते हैं- ‘कविता ही मेरी पृथ्वी है।’
‘आततायी की प्रतीक्षा’ प्रतिकार प्रध्ाान रचना है। प्रजातन्त्र किसी आततायी के द्वारा नष्ट होता है? या प्रजाजन भी जि़म्मेदार हैं? कवि स्पष्ट हैंः
‘यह कहना मुश्किल है कि वह खुद आ रहा है
या कि लोग उसे ला रहे हैं।’ (पृ. 75)
इसी दौर में ‘अब हम’ रचना की कुछ पंक्तियाँ देखेंः
‘हमारा न होना साबित है,
अपने होने को साबित करने की हमें अब दरकार नहीं...
वैसे अब हमें सच की ख़ास ज़रूरत नहीं,
झूठ से काम अच्छा निकलता है,
सह सच जैसा अडि़यल भी नहीं है।’ (पृ. 79)
यहाँ व्यंग्य पाठक का सद्भाव जीत लेता है। ‘वे’ रचना में व्यंग्य के साथ अन्याय और हिंसा के प्रति आक्रोश भी है। अपना समय केवल नक्षत्रहीन नहीं, अपराध्ाी भी है। शोभायात्रा बच्चे को शवयात्रा लगती है। (पृ. 82) कई पंक्तियाँ आगे बढ़ने से रोकती हैंः ‘कविता छोटे मुँह बड़ी बात करके ही कविता होती है।’ (पृ. 90)
‘भले हमारे बोलने से शायद ही फ़र्क पड़ता
पर हम चुप रहे यह चतुराई है।’ (पृ. 93)
‘हर बार सच नहीं जीतता’ (पृ. 97) कहते वक्त भी कवि की अन्तरतम अभिलाषा तो यही हैः सत्य जीतता है, संगठित सत्य जीतता है। देखिएः
‘कुछ सुस्ता लें तो फिर उस ओर जाएँगे...
हार का भी कोई-न-कोई गीत तो होगा!’ (पृ. 104)
‘हर रोज़’ की नास्तिवाचक स्थापनाओं में भी संकेत तो विध्ाायक हैं- जागरूक पाठक के लिए। ‘इतने’ रचना का प्रत्येक वाक्य चुभता हैः ‘शब्द इतने कम क्यों? भय इतना अध्ािक क्यों?’... ‘अपनी विफलता में हमें इतना चैन क्यों?’ (पृ. 112) ‘अच्छे दिन तब आएँगे’ भले ही मुखर रचना हो, है प्रासंगिक और विचारपूर्णः
‘जब अखबार और चैनल पूँछ नहीं हिला रहे होंगे। जब अपने से असहमत का सम्मान करने की आदत होगी... मदद हर मोड़ पर पेड़ की तरह मिलेगी।’ (पृ. 117)
‘अब भी’ जैसी रचनाएँ छात्रों के पाठ्यक्रम में स्थान पानी चाहिए।
‘हारा हुआ भी आगे चलता है
हारा हुआ आदमी भी आदमी बना रहता है।’ (पृ. 118)
‘फिर आवाज़ दो’- कैसी आवाज़? जो सपनों पर भरोसा करने को कहती है। ‘खिड़की पर भोर आई है।’ (पृ. 127) उस भरोसे का संकेत है।
तुम्हारी खिड़की पर एक चिडि़या आयी है
अपने पंखों पर पूरी भोर लिये हुए
खोलो खिड़की
ताकि ‘बहुत नीला’ ‘प्रात नभ’
अन्दर आ सके।
खिड़की पर भोर आई है।
नक्षत्रहीन समय में ( अशोक वाजपेयी )
राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली
प्रकाशन वर्ष - 2016

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