चीनी कोठी सिद्दीक़ आलम अनुवादः रिज़वानुल हक़
09-Apr-2017 02:47 AM 4882

अदालत फिर से खुल गयी है। मगर मैं कुछ दिनों से अदालत नहीं जा रहा हूँ। मेरे सारे मुकदमों की तारीखें आगे बढ़ा दी गयी हैं। सत्र जज एक लम्बी छुट्टी पर चले गये हैं। कमरे की दोनों खिड़कियाँ खुली हुई हैं। बाहर बड़ी तेज धूप है जिसमें कुछ कव्वे पेड़ की शाखों पर बैठे पर सुखा रहे हैं। तेज़ हवा में हर हल्की चीज़ काँप रही है, यहाँ तक कि लौटते मानसून के बादल भी आसमान पर तितर-बितर हो रहे हैं, मेरे टेबिल लैम्प के नीचे पेपर वेट्स के बोझ से दबे हुए काग़ज़ात फड़फड़ा रहे हैं, जैसे अपनी आज़ादी चाहते हों। सूरज डूबने से पहले काकू लौट आते हैं। उनके साथ कुछ मोअक्किल हैं। कुछ देर बाद में काकू को अन्दर बुलाता हूँ।
‘काकू, मैं थक गया हूँ। आप ज़रा उन लोगों से निपट लो।’
‘घबराओ मत। यह तुम्हारा मामला नहीं है। मैंने उन्हें किसी दूसरे काम से बुलाया है। मगर एक लड़का तुमसे मिलने आया है, इफ़्तेख़ार नाम है उसका। वह तुम्हारे लिए कोई ख़त लाया है, मगर यह ख़त वह तुम्हें ख़ुद देना चाहता है। क्या तुम उससे मिलना चाहोगे?’
‘उसे अन्दर भेज दीजिए।’
‘सलाम अलैकुम।’ वह कहता है और आगे बढ़कर मेरे सामने मेज़ पर एक सफ़ेद लिफ़ाफ़ा रख कर फिर से चार कदम पीछे हटकर खड़ा हो जाता है। एक पल के लिए मैं उसके चेहरे की तरफ देखता हूँ। उसकी आँखों में उदासी की वही कैफि़यत है जो मैंने पहली मुलाकात पर देखी थी। मैं लिफ़ाफ़े को उठा लेता हूँ और उलट-पलट कर उसका जायज़ा लेता हूँ। उस पर कुछ भी लिखा हुआ नहीं है। लिफ़ाफ़ा काफ़ी बड़ा है।
‘बैठ जाओ’, मैं हाथ उठाकर इफ़्तेख़ार की तरफ देखे बगैर उसे बैठने का इशारा करता हूँ। वह मेज़ की तरफ मुँह किये रखी कुर्सियों में से सबसे पीछे की कुर्सी पर आदर के साथ बैठ जाता है और जबकि मैं इस लिफ़ाफे़ के बारे में सोच रहा हूँ, वह कहता है -
‘आप इसे अकेले में पढ़ना चाहेंगे ?’
‘यह तुम किस बुनियाद पर कह रहे हो ? मैं लिफ़ाफ़ा मेज़ पर रख देता हूँ।
‘उन्होंने कहा तो न था, मगर मेरा ख़्याल है वह चाहते थे कि मैं यह ख़त आप तक पहुँचा दूँ। वह ख़त इस लिफ़ाफ़े में मैंने डाला है।’ इफ़्तेख़ार ने सर झुकाते हुए कहाः ‘वह अब इस दुनिया में न रहे।’
कमरे में खामोशी छा गयी है जिसमें दीवारगीर घड़ी की टिक-टिक काफ़ी तेज़ सुनायी दे रही है।
‘कोई हादसा हो गया था ?’ मैं झिझकते हुए लिफ़ाफ़ा वापस उठा लेता हूँ।
‘नहीं वह बहुत दिनों से बीमार चल रहे थे।’
‘मुझे अफ़सोस है आखिरी बार मैंने उन्हें देखा था तो वह बिलकुल सेहतमन्द थे। शायद बूढ़े लोगों के बारे में कुछ कहना मुश्किल होता है।’ मैं लिफ़ाफ़े का हाशिया कैंची से काटकर ख़त बाहर निकालता हूँ।
यह ख़त कई पृष्ठों का है। मगर न इसमें किसी सम्बोधन का नाम है, न लिखने वाले के दस्तख़त। इसकी तारीख भी किसी दूसरे कलम से लिखी गयी है। मैं सिर उठाकर इफ़्तेख़ार की तरफ देखता हूँ। ‘इसे पढ़ लूँ ?’ इस पर मेरा नाम लिखा हुआ नहीं है, क्या इसे पढ़ना ठीक रहेगा ? ख़त भी काफ़ी लम्बा है।’
‘यह उनका आखिरी ख़त है। मुझे किसी दूसरे ख़त की जानकारी नहीं।’
‘तुम थोड़ी देर के लिए बरामदे में मेरा इन्तज़ार करोगे ?’
‘शायद मुझे जाना चाहिए।’
‘नहीं,’ मैं कहता हूँ। मुझे तुम्हारी ज़रूरत पड़ सकती है। घबराओ मत, मैं ज़्यादा वक़्त नहीं लूँगा। यह मेरे लिए थोड़ा-सा अजीब है।’ उसके बाहर चले जाने के बाद मैं ख़त के पन्नों को सिलसिलेवार पलट-पलट कर देखता हूँ। पन्नों पर नम्बर नहीं डाला गया है, वे सिफऱ् एक पिन के ज़रिए नत्थी हैं और बिखर जाने पर सही क्रम से सजाना मुश्किल हो सकता है। मैं उन्हें स्टेपलर की मदद से नत्थी कर देता हूँ और क्रमवार उन पर नम्बर डाल देता हूँ। यह मेरे लिए हैरत की बात है। बरसों बाद मैं उर्दू में किसी की लिखावट पढ़ रहा हूँ। बूढ़े की लिखावट हैरतअंगेज़ हद देखने के लायक है, मगर जैसा कि मैंने इफ़्तेख़ार को बताया था, उस पर सम्बोधक का नाम है, न उससे रिश्ते का कोई शब्द, न ख़त लिखने वाले के दस्तख़त। मैं अपनी कुर्सी खुली हुई खिड़की की तरफ खींचकर उसका पर्दा एक कोने में उड़स देता हूँ। मैं इस ख़त को कुदरती रोशनी में पढ़ना चाहता हूँ, चाहे इसकी जो भी वजह हो।
मुझे उम्मीद है अब तक मेरी मौत की खबर तुम तक पहुँच चुकी होगी। तुम्हें इस पर हैरत हो रही होगी कि आखिर इस खुदकुशी के नोट के लिए मैंने तुम्हारा ही क्यों चुनाव किया ? यह नोट मैं पुलिस के नाम भी लिख सकता था मगर जब तक तुम ख़त नहीं पढ़ लेते हो इसकी तह तक पहुँच नहीं सकते। इसलिए मैं चाहता हूँ कि किसी नतीजे पर पहँुचने से पहले तुम इस ख़त को पढ़ लो।
तुम पर हमले की खबर से मैं थोड़ा-सा चैंका ज़रूर था मगर फिर मैंने अपने तरीके से छानबीन की और मैंने महसूस किया कि ये हमला कोई अप्राकृतिक नहीं था, बल्कि मुझे इस पर हैरत है कि एक तज़ुर्बेकार वकील होने की हैसियत से यह तुम्हें पहले क्यों नज़र नहीं आया। शायद हम कितने भी बुद्धिमान हो जाएँ, अपने व्यक्तिगत मामलों में हम बेवकूफ ही साबित होते हैं।
खैर, शायद मुझे तुम्हारे मामले में ज़्यादा दखल नहीं देना चाहिए। जब भी मैं हमारी पहली मुलाकात के बारे में सोचना हूँ तो मुझे हैरत होती है कि किस तरह हमारी पूरी गुफ़्तगू पायल (बिल्ली का नाम) के गिर्द घूमती रही थी और फिर हम कभी इस विषय से बाहर निकल न पाये। ऐसा नहीं था कि बिल्लियों को कभी मेरी जि़न्दगी में कोई खास अहमियत हासिल रही हो। मैंने जिस तरह की जि़न्दगी गुज़ारी है उसमें इस तरह की हाॅबी के लिए कोई जगह नहीं थी। सही से देखा जाए तो मैं ख़ुद किसी जानवर से कम न था जिसे ख़ुद भी पता नहीं होता कि उसने जाने-अनजाने कितनी जि़न्दगियाँ बरबाद की होंगी। मगर शायद इन्सान के साथ यह भी एक अजीब मामला है कि वह दूसरों पर जितना सितम तोड़ता है वह उतना ही अकेला होता चला जाता है और ख़ुद मेरे साथ कुछ ऐसा ही हुआ था। अपनी नौकरी के आखि़री दिनों में ख़ुद मेरे आफि़स के साथी मुझे दूसरी नज़रों से देखने लगे थे।
मैं जानता हूँ आखि़री बार तुमने जब मेरी बिल्लियों को देखा था तो तुम्हें उन्हें पिंजड़ों के अन्दर देखकर कितनी हैरानी हुई थी और होनी भी चाहिए। बिल्लियाँ ऐसी जानवर नहीं जिन्हें पिंजड़े में रखने के बारे में सोचा जाए। सही से देखा जाए तो मुझे ख़ुद नहीं मालूम मुझे उन्हें पिंजड़े में रखने का ख़्याल क्यों आया ? कब मैंने अपना पहला पिंजड़ा खरीदा ? और किस तरह पिंजड़ों और उनके अन्दर बिल्लियों की संख्या बढ़ती चली गयी ? शायद पायल की घटना से मेरे होश खो गए थे और एक तरह से मैं पायल से बदला ले रहा था या शायद मैं वाकई बिल्लियों से किसी ऐसे बच्चे की तरह प्यार करने लगा था जो अपने मनपसन्द खिलौने को दुनिया की नज़रों से छिपाकर रखने के जुनून में उसे तोड़ डालता है, कभी अपनी लापरवाही की वजह से और कभी इसलिए भी ताकि कोई दूसरा उसका मालिक़ न बन बैठे, जैसा कि उस बच्चे ने मेरी पायल के साथ किया था। मगर जैसा कि तुमने देखा होगा (और मुझे यकीन है कि तुमने ज़रूर देखा होगा) कि अपनी बिल्लियों के लिए मैंने कमरे को साफ़ रखने में कोई कसर उठा नहीं रखी थी। यही नहीं, मैं उनके खाने-पीने का भरपूर ख़्याल रखा करता जिसमें इफ़्तेख़ार मुझे मदद दिया करता, बल्कि उसने बिल्लियों को अजीब-ओ-ग़रीब नाम भी दे डाले थे जिन्हें मैंने गड्डमड्ड करना शुरू कर दिया था। जिसका मुझे एहसास भी था। एक तरह से पायल को खो देने की वजह से मेरी जि़न्दगी में जो खालीपन आ गया था इस घर को खरीदकर जिसके अन्दर मैं अपनी मर्जी की तमाम चीज़ें कर सकता था जिसमें बिल्लियों को पिंजरे में डालने का काम भी शामिल था, वह खालीपन भर गया था। क्या तुम्हें यक़ीन आएगा कि अपने इस काम से मुझे जाने क्यों लग रहा था जैसे वाकई मैंने अपनी जि़न्दगी का उद्देश्य पा लिया हो।
कभी-कभार मैं किसी बिल्ली को पिंजड़े से निकाल कर उसके गले में पट्टा डाल देता और उसके साथ दरिया की तरफ सैर को निकल जाता। काश तुमने उस वक़्त देखा होता कि मेरा सीना गर्व से कितना तना हुआ होता। मैंने तुम्हारी बहुत तलाश की, मगर जैसा कि बाद में उसका खुलासा हुआ तुम किसी दूसरी दुनिया में खो चुके थे और तुम्हारे पास दरिया के किनारे मटरगश्ती का वक़्त न था। तो दिन गुजरते गए और एक तरह से मैं तुम्हें भूल-सा गया था कि अचानक एक दिन मैंने तुम पर हमले की ख़बर सुनी जो पूरे शहर में जंगल की आग की तरह फैल गयी थी। मैंने जब भी तुम्हारे पास आने के बारे में सोचा तुम्हारे जुमले ने मुझे रोक दिया कि हर चीज़ की एक खास जगह होती है, तुमने कितना ठीक कहा था कि मैं तुम्हारे चैम्बर में आता तो तुम्हें अच्छा न लगता। शायद तुम्हें अपना ये जुमला याद न हो। हम अपनी बातें जिनका तआल्लुक हमारी अपनी निजता से न हो ज्यादातर भूल जाया करते हैं। उस वक़्त जब तुमने ये बात कही थी तो ये मेरी समझ में न आया था, मगर अब मुझे तुम्हारे जुमले का मतलब समझ में आ गया है। तुमने ठीक कहा था, दरिया के अलावा हम किसी दूसरी जगह एक-दूसरे को शायद समझ न पाते क्योंकि अगर उस दरिया को हटा लिया जाए तो हमारे बीच कुछ भी नहीं चलता। तो मैं अपनी बिल्लियों के बारे में बता रहा था जिनकी संख्या में दिन-ब-दिन इज़ाफ़ा होता जा रहा था, यहाँ तक कि तीन दर्जन से भी ज्यादा बिल्लियाँ मेरे घर में पिंजड़ों के अन्दर रहने लगीं।
ये बिल्लियाँ कभी-कभार आपस में बिला वजह या शायद उनकी अपनी कोई वजह रही हो, लड़ने-झगड़ने लगतीं जिसके लिए कोई वक़्त तय न था, मगर पिंजड़ों के अन्दर होने की वजह से उनके पास सिवाय पिंजड़े की तीलियों को झिंझोड़ने, अपने नाखूनों से उन्हें खुरचने के और कोई रास्ता न होता। मगर मैं उनका शोर सुनकर जब भी कमरे में आता वह एकसाथ चुप हो जातीं। शायद उन्हें इस बात की उम्मीद होती कि मैं उनके लिए खाने की कोई चीज़ लाया हूँ, या शायद उनके अन्दर ये उम्मीद जाग उठती कि आज किसी खुशनसीब की दरिया के किनारे सैर की बारी है। मेरे किरायेदार मेरे खि़लाफ़ शिकायत के बारे में सोच रहे थे जो मैं उनके चेहरों पर देख सकता था मगर वह शिकायत करते तो आखिर किससे क्योंकि अब तो मैं उनका मकान मालिक हो चुका था। तो लोग मेरी बिल्लियों के, उनके शोर के, उस बदबू के जो तमामतर सफ़ाई के बावजूद हवा में रह जाती है, धीरे-धीरे आदी होते गए, बल्कि मुझे ऐसा महसूस होने लगा जैसे अब बिल्लियों को भी क़ैद में रहने की आदत पड़ने लगी थी। उनके बीच झगड़ा खत्म हो गया था तो तुम समझ रहे हो न मैं क्या कह रहा हूँ, उनके साथ मेरी जि़न्दगी इस तरह गुजर रही थी जैसे ये बिल्लियाँ ही अब मेरी सारी कायनात थीं और यह हक़ीक़त भी थी।
मगर फिर एक दिन ऐसा हुआ कि मैंने तमाम पिंजड़े खोलकर बिल्लियों को आज़ाद कर दिया और वह खिड़कियों और दरवाज़ों के रास्ते (जिन्हें मैंने पाटों पाट खोल दिया था) मुहल्ले के अन्दर ग़ायब हो गयीं। शायद तुम्हारे अन्दर यह सवाल सिर उठा रहा होगा कि एक तो तुम्हें इन बिल्लियों को पिंजड़े में डालने में कोई तुक न था और फिर उन्हें अचानक आज़ाद कर देने के पीछे क्या वजह हो सकती थी ? आखिरकार मैंने ऐसा क्यों किया ? क्या एक दिन अचानक मेरे अन्दर का ज़मीर जाग गया था या मुझे एहसास हो गया था कि मैंने बिल्लियों को पिंजड़े में रखकर उनके साथ बेइन्साफ़ी की थी ? या किसी बीमारी के खौफ़ से मैंने किसी डाॅक्टर के मशविरे पर ऐसा किया था ? या क्या मैं उनके खर्चे सम्भाल नहीं पा रहा था ? दरअसल अब जो मैं तुम्हें बताने वाला हूँ उसका सम्बन्ध इसी बात से है और इसके साथ ही तुम्हारी समझ में यह बात भी आ जाएगी कि आखिर मैंने यह आखि़री ख़त तुम्हें ही लिखने की ज़ेहमत क्यों उठायी ?
तुम मेरा घर देख चुके हो, तुमने यह भी देखा होगा कि मैं उन ही दो कमरों में रहता आ रहा था जिनमें से एक के अन्दर मैंने किरायेदार के तौर पर अपने आखि़री बीस साल गुज़ारे थे। दो कमरे (जिनमें से एक को मैंने बिल्लियों के लिए छोड़ रखा था) एक बरामदा, एक बावर्चीख़ाना और एक स्नानघर। यूँ मुझे उन दो कमरों से ज़्यादा की ज़रूरत भी नहीं थी। तो एक तरह से मैंने एक भरपूर जि़न्दगी गुज़ारनी शुरू कर दी। मैं बैंक से अपनी पेन्शन उठाता, किराएदारों से किराया वसूलता, अपनी फि़क्स्ड डिपाजि़ट से होने वाली आमदनी पर इन्कम टैक्स भरता और हर रोज़ किसी बिल्ली के गले में पट्टा डालकर दरिया के किनारे सैर करने निकल जाता। ये उन ही दिनों की बात है कि एक दिन मेरे साथ एक अजीब-ओ-ग़रीब वाकया पेश आया।
वह दिन मैं कभी नहीं भूल सकता क्योंकि उस दिन अचानक मेरी जि़न्दगी में एक नए अध्याय का इज़ाफ़ा हो गया था। उस रात थोड़ी-सी बारिश हो रही थी। बादलों की वजह से आसमान अँधेरा पड़ा था। इफ़्तेख़ार की लाई हुई रोटियाँ खाकर मैं सोने की कोशिश कर रहा था जब अचानक मुझे बिल्लियों के कमरे से खुसुर-पुसुर की आवाज़ें सुनायी देने लगीं जैसे कुछ लोग दबी आवाज़ में बातें कर रहे हों। मैंने जागकर रोशनी जलाई, इस खुसर-पुसर को थोड़ी देर तक सुनता रहा और फिर बिस्तर से उठकर दूसरे कमरे के दरवाज़े पर गया जो खुला हुआ था। मैंने महसूस किया कि बल्ब जलाने से पहले ही खुसुर-पुसुर गायब हो चुकी थी। शायद वह जो कोई भी रहे हों उन्हें मेरे पैरों की आहट मिल गयी थी। बल्ब के जलते ही मैंने देखा सारी बिल्लियाँ अपने पिंजड़ों में खड़ी या बैठी मेरी तरफ ताक रही थीं। मेरी समझ में कुछ न आया कि वह आवाज़ किस तरफ से आ रही थी। बल्ब बुझाकर मैं अपने कमरे में लौट आया। मैंने सोचा शायद ये मेरा वहम हो या शायद पिंजड़ों की तीलियों के साथ बिल्लियों के जिस्मों की रगड़ से पैदा होने वाली आवाज़ को मैंने खुसुर-पुसुर के रूप में सुन लिया हो। मैंने दीवार की तरफ चेहरा करके सोने की कोशिश की। देखते-देखते एक घण्टा गुजर गया। मैं नींद लाने के सारे हथकण्डे आज़मा चुका था मगर मुझे नींद नहीं आ रही थी। लेकिन फिर खिड़की से ठण्डी-ठण्डी हवा आने लगी। मेरे पपोटे बोझिल होने लगे और मैं नींद के जाल में डूबता गया। एक तरह से मैं पूरी तरह से सो चुका था, जब मुझे एक बार फिर दूसरे कमरे से खुसुर-पुसुर की आवाज़ें सुनायी दीं मगर इस बार ऐसा लग रहा था जैसे वह मेरी नींद के अन्दर से आ रही हों। इस बार आवाज़ें कुछ तेज़ भी थीं। मेरी आँखें खुल गयीं। मैं हल्की नींद सोने का आदी हूँ। शायद यह बरसों तक पुलिस के महकमे में रहने का नतीजा है या शायद बूढ़ों की नींद ही ऐसी होती है। तो आँखें खोलकर मैं बिस्तर से उतर आया और दूसरे कमरे में दाखि़ल होकर एक बार फिर बल्ब जला दिया। आवाजें फौरन गायब हो गयीं। तमाम बिल्लियाँ अपने पिंजड़ों में दुबकी पड़ी मेरी तरफ ताक रही थीं बल्कि मैं देख रहा था कुछ बिल्लियाँ मुझे देखकर भी न देखने की अदाकारी कर रही थीं। एक बार फिर बत्ती बुझाकर मैं अपने कमरे में लौट आया। इस बार मैंने किवाड़ एक दूसरे से भिड़ा तो दिए मगर मेरा पूरा ध्यान दूसरे कमरे की तरफ केन्द्रित था। काफ़ी वक़्त गुज़र गया, मगर मुझे कोई आवाज़ सुनायी न दी। मुझे पता न चला कब मेरी आँखें लग गयी थीं। मुझे याद नहीं कितना वक़्त गुज़र चुका था। मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे नींद में मैं तरह-तरह की आवाज़ें सुन रहा हूँ। मेरी आँखें खुल गयीं। जबकि दूर की किसी मस्जि़द से लाउड स्पीकर पर अज़ान की आवाज़ आ रही थी। बिल्लियों के कमरे से ज़ोर-ज़ोर से बातें करने की आवाजें़ आ रही थीं। मैंने अपने कान खड़े कर दिए। इस बार बिल्लियों के कमरे में लोग आपस में ज़ोर-ज़ोर से बातें कर रहे थे। मैं दबे पाँव चलते हुए दरवाजे़ पर आया और उसके किवाड़ खोले बगैर उस पर अपना दाहिना कान लगा दिया। अन्दर से वाकई इन्सानी आवाजें़ सुनायी दे रही थीं। इसमें बच्चे-बूढ़े, मर्द-औरतें सभी शामिल थे। मगर ये ऐसी आवाजे़ं न थीं कि उन्हें पूरी तरह इन्सानी कहा जा सके।
‘मैं अब भी कहता हूँ, हम उस पर हमला कर सकते हैं,’ एक भारी गले की आवाज़ उभर रही थी, ‘हमें सिर्फ़ इस पिंजड़े से बाहर निकलने का रास्ता ढूँढ़ना होगा फिर हम सारे पिंजड़े खोल सकते हैं।’’
वह जो कोई भी हो वह ठीक कह रहा था क्योंकि पिंजड़े सिफऱ् बाहर से बन्द थे, जिनके फाँसे उनके क्षेत्रों में पड़े हुए थे।
‘तुम इस तरह हमें बगावत के लिए उकसा नहीं सकते’ एक महिलाई आवाज़ उभरी, जैसे उसके सब्र का बाँध टूट रहा हो। ‘वह हमारा कितना ख्याल रखते हैं।’
‘क्या तुम इस क़ैद की जि़न्दगी से खुश हो ?’ मोटे गले की आवाज़ फिर से उभरी। ‘चैबीसों घण्टे पिंजड़े में बन्द, यही जि़न्दगी चाहती हो तुम ? क्या हम इसी दिन के लिए पैदा हुए थे?’
मेरे ख़ुदा, मेरा सीना काँपने लगा। क्या ये मुमकिन है कि बिल्लियाँ इन्सानों की तरह आपस में बातें कर रही हों ? मुझसे रहा न गया और मैंने कमरे में दाखि़ल होकर स्विच बोर्ड की तरफ हाथ बढ़ाकर रोशनी कर दी।
तमाम बिल्लियाँ पिंजरों के अन्दर जाग रही थीं। उनमें काफ़ी हलचल नज़र आ रही थी। उन्हें मेरी मौज़ूदगी का एहसास तो हो गया था मगर थमने में थोड़ा-सा वक़्त लग गया। अब वह अपने-अपने पिंजड़े में खड़ी मेरी तरफ देख रही थीं। मैंने बारी-बारी से हर एक पिंजड़े का निरीक्षण किया। तक़रीबन तमाम बिल्लियों की आँखें जल रही थीं जिनमें मेरे लिए एक अजीब अजनबियत की छाया नज़र आ रही थी, जैसे मैं बिना इज़ाज़त उनके दरमियाँ चला आया हूँ।
‘सो जाओ’, मैंने एक लकड़ी उठाकर उससे पिंजड़ों की तीलियों को खखोरते हुए कहा। ‘क्या वाकई तुम लोगों की कोई पंचायत चल रही थी ?’
बिल्लियाँ चुपचाप खड़ी एकटक मेरी तरफ देख रही थीं और फिर एक-एक करके वह अपनी जगह जमकर रह गयीं। कई बिल्लियों ने आँखें बन्द करके चेहरे पर दोनों पंजे रख लिए जैसे वह अपने किसी काम पर शर्मिन्दा हों। मैंने दूसरी बिल्लियों से नज़रें मिलाने की कोशिश की, मगर वह मुझसे आँखें मिलाने से परहेज़ कर रही थीं। आखिरकार मैं बल्ब बुझाकर एक बार फिर अपने कमरे में लौट आया। उसके बाद मैं सारी रात जागता रहा मगर फिर दूसरे कमरे से कोई आवाज़ सुनायी न दी। बिल्लियों के कमरे में कब्रिस्तान जैसा सन्नाटा पसरा हुआ था।
इस वाकये को कई दिन गुजर गए। मैंने कमरे से कोई आवाज़ नहीं सुनी। मैंने सोचा यह सब मेरा वहम था। शायद मैं बूढ़ा हो रहा हूँ, मेरे कान बजने लगे हैं और बिल्लियाँ कुछ ज़्यादा ही मेरे दिल-ओ-दिमाग़ पर हावी हैं। मगर एक रात फिर से मेरी नींद खुल गयी क्योंकि दूसरे कमरे में एक लम्बी बहस छिड़ चुकी थी और ऐसा लग रहा था कि इस बहस में सारी बिल्लियाँ शामिल हों। मैंने कमरे में दाखि़ल होकर बल्ब रोशन किया तो मुझे तमाम पिंजड़ों में काफ़ी हलचल नज़र आयी। लगभग सभी बिल्लियों की आँखें चमक रही थीं, उनकी बाँछों से राल टपक रही थी और ज़्यादातर बिल्लियाँ सामने के दोनों पैर पिंजड़े की दीवार को मज़बूती से थामे खड़ी बेचैन नज़र आ रही थीं।
‘ये तुम लोग मेरी पीठ पीछे क्या बातें कर रहे हो ?’ मैंने पिंजड़ों को थपथपाते हुए मसखरेपन के साथ कहा। बिल्लियाँ अपने-अपने पिंजड़े के अन्दर बहुत पीछे की तरफ दुबक कर बैठ गयी थीं और जो खड़ी थीं उन्होंने अपने सिरों को कन्धे पर मोड़ रखा था। ‘अगर तुम लोग मेरे बारे में बातें कर रहे थे जो कि मुझे यक़ीन है कि तुम कर रहे थे तो मैं हाजि़र हूँ।’ मैं देर तक कमरे के अन्दर दोनों दीवारों के बीच घूमता रहा। पिंजड़ों की तरफ ताक़ते हुए मेरी आँखों से चिंगारियाँ बरस रही थीं। बिल्लियाँ काफ़ी शर्मशार नज़र आ रही थीं बल्कि कुछ बिल्लियों ने तो अपने दोनों बाजुओं के अन्दर अपने चेहरे तक छुपा लिए थे।
आखिरकार मैं अपने में लौट गया। मैंने सोचा, शायद बिल्लियों के सिलसिले में मैं कुछ ज़्यादा ही संवेदनशील हो रहा हूँ। मगर फिर हर रात उनकी आवाज़ें सुनायी देने लगीं। मैं उठकर अँधेरे में दरवाजे़े पर खड़ा उनकी बातें सुना करता। वह हमेशा मेरे बारे में बातें करतीं, अपनी आज़ादी के बारे में बातें करतीं, मगर ऐसा लग रहा था जैसे इस सम्बन्ध में उनमें एक राय बन नहीं पा रही हो। जैसे वह दो गिरोहों में बँट गयी हों जैसा कि इन मामलों में हमेशा होता है, एक गिरोह आज़ादी के लिए बेचैन था और उसके लिए वह कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार था, जबकि दूसरा गिरोह अपनी रोज़मर्रा की जि़न्दगी से बिलकुल सन्तुष्ट नज़र आ रहा था, उन्हें सिर्फ़ अपने खाने-पीने से मतलब था या फिर हो सकता है कि उन्हें अपनी आज़ादी का यक़ीन न हो और वह कोई ख़तरा मोल लेना न चाहता हो। मगर मैं जब भी कमरे में दाखि़ल होता बल्ब जलने से पहले ही मेरी आहट के साथ वहाँ सन्नाटा छा जाता।
‘सुनो’, एक दिन मैंने कमरे में दाखि़ल होकर रोशनी करते हुए कहा।
‘तुम लोग मुझसे सीधे-सीधे बात क्यों नहीं करते ? इस मामले में मैं ही सही आदमी हूँ। जो कुछ तुम्हारे दिमाग़ में चल रहा है उन्हें उगल क्यों नहीं देते ? मगर बिल्लियाँ सिफऱ् मेरी तरफ देखतीं। शायद उन्हें मुझ पर भरोसा न था। एक आध म्याऊँ या एक आध गुर्राने की आवाज़ के अलावा मुझे कुछ न हाथ आता। तो इस तरह मेरे दिन गुज़र रहे थे। मैं रात-रात भर सो नहीं पाता और जब किसी बिल्ली के गले में पट्टा डालकर दरिया की तरफ निकल जाता तो मुझे इसका एहसास खाए जाता कि यह वही बिल्लियाँ हैं जो रात के वक़्त इन्सानों की तरह आपस में बातें किया करती हैं, मेरे खिलाफ़ साजि़श रचाया करती हैं। आखिर एक दिन मुझसे रहा न गया और मैंने बिल्लियों को काफ़ी जली-कटी सुनायी। मैंने उनसे कहा कि वह एहसान फरामोश हैं और जैसा कि बिल्लियों के बारे में कहा जाता है वह वाकई उस पर पूरी उतरती हैं कि उन्हें सिर्फ़ अपने अलावा किसी चीज़ से मतलब नहीं होता।
बिल्लियाँ मेरी बातें गौर से सुन रही थीं, मगर उनके अन्दर किसी किस्म की प्रतिक्रिया सामने नहीं आई। फिर एक रात एक अजीब वाकया पेश आया। मैंने महसूस किया कि अब तमाम बिल्लियाँ ख़ामोश रहने लगी हैं। कई रातें बल्कि कई हफ़्ते गुज़र गए मगर उनकी ख़ामोशी बरकरार रही। अब तो मुझे उनकी आवाज़ों के मुकाबले उनकी ख़ामोशी से घबराहट हो रही थी तो एक रात मुझसे रहा न गया और मैं उनके कमरे के अन्दर दाखि़ल हो गया।
‘शायद तुम लोग कुछ कहना चाहते हो ?’ मैंने कहा- ‘यही वक़्त है। तुम लोग अपने दिल की बात मुझसे कह सकती हो।’
बिल्लियाँ एकटक मेरी तरफ देखती रहीं। आज उनकी पूँछ तक नहीं हिल रही थी।
‘तो ठीक है...’ मैंने कहा। ‘...अब जो मैं करने वाला हूँ उसके लिए तुम लोग मुझे जि़म्मेदार ठहरा नहीं सकते। साफ़ बात ये है कि अपने हिसाब से मैंने तुम लोगों के लिए काफ़ी कोशिश की। तुम लोग ये नहीं कह सकते कि तुम लोगों के लिए मेरे प्यार में कोई खोट था। मगर शायद मैं गलती पर था। मुझे जान लेना चाहिए था कि आज़ादी, इन्सान ही नहीं बल्कि तुम जानवरों के लिए सबसे बड़ी दौलत होती है। यूँ भी मैं तुम लोगों की बक-बक से तंग आ गया हूँ। शायद मैं ही ग़लत था। शायद मुझे तुम लोगों को पिंजड़े में डालना नहीं चाहिए था। तो साथियो, अलविदा, तुम लोग अपनी दुनिया में जाने के लिए आज़ाद हो। ये मेरे साथ तुम लोगों की आखिरी रात है।’
और हालाँकि ये आधी रात का वक़्त था। मैंने अपने घर के तमाम दरवाजे़े और खिड़कियाँ खोल डालीं, तमाम पिंजड़ों के दरवाजे़ खोल दिए। ज़्यादातर बिल्लियाँ कमरे के दरवाज़े खुले होने के बावजूद कई घण्टों तक पिंजड़ों के अन्दर बैठी रहीं या कमरे में इधर-उधर टहलती रहीं। कुछ बिल्लियाँ एक कोने से दूसरे कोने तक चक्कर लगाते हुए इस तरह बार-बार सिर उठाकर मेरी तरफ देख रही थीं जैसे मेरा इरादा भाँप रही हों। बल्कि कई बिल्लियाँ तो अपने लिए फर्श पर एक सुरक्षित कोना चुनकर सिर और पैरों को फैलाकर गहरी नींद में भी चली गयी थीं। मैं उनके दरम्यान अपने स्टूल पर बैठा रात भर चाय पीता रहा या किसी सोई हुई बिल्ली को उठाकर अपनी गोद पर रखकर प्यार करता। फिर एक-एक करके पिंजड़े खाली होने लगे। अब ज्यादातर बिल्लियाँ जाग गयी थीं। वह फर्श पर चक्कर लगाते हुए अपनी पूँछों को अजीब अन्दाज़ से मोड़ते-मरोड़ते हुए मेरी तरफ देख रही थीं, अँगड़ाई ले रही थीं जैसे आज़ादी के एहसास को अन्दर तक महसूस कर रही हों, जैसे ये आज़ादी कोई भौतिक वस्तु हो जिसे वह टटोलकर देखना चाहती हों, समझना चाहती हों कि वाकई इसका अस्तित्व है भी कि नहीं। मैंने सोचा, शायद मेरी मौजूदगी उनके लिए किसी तरह की मनोवैज्ञानिक रुकावट पैदा कर रही है। तो मैं अपने बिस्तर पर चला गया। थोड़ी देर बाद मैं बिल्लियों के कमरे में आया तो मैंने देखा कमरा आधा खाली हो चुका था और बाकी बिल्लियाँ एक-एक करके तेज़ी के साथ दरवाजे़ और खिड़कियों से गायब हो रही थीं। मगर बीच-बीच में देर तक ये मामला रुक जाता। मैं एक कुर्सी पर बैठा ये सब देखता रहा। आखि़री बिल्ली तक पहुँचने में काफ़ी वक़्त लग गया। आसमान बिलकुल साफ़ हो चुका था, जब मुझे आखि़री बिल्ली खिड़की पर नज़र आयी। वह एक भूरे रंग की बिल्ली थी जिसकी दोनों आँखों के गिर्द काले पपोटे थे। उसने जबकि उसका जिस्म दो सलाखों के बीच आधा बाहर और आधा अन्दर था, मुड़कर मेरी तरफ़ देखा, अपने कान एक-दूसरे से सटाए, एक हल्की-सी म्याऊँ की और बाहर कूदकर गली के अन्दर ग़ायब हो गयी।
मैं बुरी तरह थक चुका था। मैंने तमाम खिड़कियाँ और दरवाज़े बन्द किए और किसी मुर्दे की तरह अपने बिस्तर पर गिर पड़ा। उस वक़्त मुझे एक अजीब अकेलेपन का एहसास हो रहा था। आज पहली बार मैं महसूस कर रहा था जैसे दुनिया में मेरा कोई भी नहीं है। देर तक आँसू मेरे गालों पर बहते रहे जिससे मेरा तकिया लगभग सराबोर हो चुका था जब मुझ पर धीरे-धीरे एक अद्र्ध निद्रा छाने लगी। उस दिन मुझे काफ़ी गहरी नींद आयी।
मुझे इस बात का पता चल चुका था कि अब एक नई शुरुआत हो चुकी है। मेरा शक सही निकला। अब हर रात बिल्लियों की आवाजें़ मुझे सुनायी देने लगीं। कभी खिड़की से, कभी दूसरे कमरे से, कभी छत से और कभी जीने की तरफ से और कभी खुद मेरे दीवान के नीचे घुसकर मेरे बारे में बातें किया करतीं और ये इतना ज़्यादा होने लगा कि मुझे खिड़कियाँ और दरवाज़े बन्द करके सोने की आदत डालनी पड़ी। मगर इसका नतीजा और भी बुरा निकला। अब उन्होंने उनके पल्लों को थपथपाना, उन्हें अन्दर की तरफ ढकेलना शुरू कर दिया था, बल्कि अब तो उनकी गुस्सैली म्याऊँ और दहाड़ें भी सुनायी देने लगी थीं और ये मामला कभी-कभार सारी-सारी रात चलता रहा। मैं दरवाज़ा खोलता, खिड़कियों के पट बाहर की तरफ ढकेलता, मगर मुझे कुछ गायब होती हुई परछाइयों के अलावा कुछ दिखाई न देता। उसके बाद काफ़ी वक़्त तक सन्नाटा छाया रहता। मगर आँखें बन्द करते ही फिर से आवाजें़ आ धमकतीं। यह कुछ ऐसा था कि कोई भी इन्सान पागल हो सकता था। मैं अगर दरवाजे़ और खिड़कियाँ खोलकर रखता तो बिल्लियाँ अन्दर आ आतीं और बातें किया करतीं और बन्द करके रखता तो वह लगातार उन पर दस्तक दिया करतीं। आखिरकार मुझसे रहा न गया। मैं अपने बिस्तर के सिरहाने एक डण्डा रखने लगा। अब जब भी किसी दरवाजें़ या खिड़की पर दस्तक शुरू होती मैं उस पर डण्डा खटखटाने लगता। कई बार दरवाज़ा खोलकर मैं बाहर भी निकल आता मगर हर बार बिल्लियाँ दीवार फाँदकर गायब होती नज़र आतीं। तो मामला यहाँ तक पहुँच गया कि सूरज के डूबते ही मैं शकों से घिरने लगता। मैं रात-रात भर रोशनियाँ जलाकर खिड़कियों और दरवाज़ों को खोलकर इन्तज़ार करता। मगर जब तक मैं जाग रहा होता वह नज़र न आतीं। मगर आँख लगते ही आ मौजूद। एक तरह से उन लोगों ने मेरे साथ आँख-मिचोली खेलना शुरू कर दिया था। आज उन चीज़ों को चार महीने हो चुके हैं।
मैं हर रात जागते रहने से तंग आ गया हूँ। मैंने फैसला कर लिया है कि इस घर को बेच डालूँगा। मगर उसके लिए वक़्त लगता है और फिर कौन ऐसा घर खरीदना चाहेगा जिसके चप्पे-चप्पे पर किरायेदारों का कब्जा हो। खुद मेरी तबियत खराब रहने लगी है। अब मेरे लिए ये मुमकिन नहीं कि इन तकलीफदायक रातों को झेल सकूँ। हैरत की बात ये है कि मेरे किरायेदारों को, मेरे पड़ोसियों को ये बिल्लियाँ नज़र नहीं आतीं। उनका ख़्याल है कि ये मेरे दिमाग़ का फि़तूर है। मगर यकीन करो, वह हर रोज़ आया करती हैं मुझे नहीं मालूम वह क्यों आती हैं ? बदले के किस जज़्बे से वह आती हैं या मुहब्बत का कौन-सा आकर्षण उन्हें मुझ तक खींच कर लाता है, मगर वह आया करती हैं, उनके पंजों के निशान तुम मेरे बिस्तर पर, मेज़ पर, कुर्सियों पर, दीवारों पर हर जगह देख सकते हो बल्कि उस वक़्त जबकि मैं तुम्हें ये ख़त लिख रहा हूँ वे बन्द खिड़की के बाहर दहाड़ लगा रही हैं। आज पहली बार इस ख़त को लिखते हुए मुझे महसूस हो रहा है कि एक इन्सान की तरह मैं जीने में नाकाम रहा हूँ। शायद ये इसका नतीजा है कि मैंने इन बिल्लियों के अन्दर पनाह लेने की कोशिश की। इससे लापरवाह कि हम इन्सानों और इन बिल्लियों के अन्दर कोई मूल्य समान नहीं है। आज मैं यह भी जान गया हूँ कि हम इन्सानों ने इस दुनिया पर बिना वजह के अपना अस्तित्व हावी कर रखा है और हम इसके अलावा अपने इन्सान होने का और कोई सुबूत पेश नहीं कर सकते कि इस दुनिया से अपना मनहूस साया उठाकर हमेशा-हमेशा के लिए विदा हो जाएँ। ये बिल्लियाँ मुझे इसी बात की याद दिलाती हैं कि हम इन्सान और कुछ नहीं इस ज़मीन पर ट्रेसपासर हैं।
वक़्त हो रहा है। मेरा सफ़र का इन्तज़ाम मुकम्मल है। किसी भी दिन मैं इस नश्वर दुनिया से कूच कर सकता हूँ, किसी भी दिन! काश! इससे पहले तुमसे मुलाकात हो जाती। काश! तुम तक ये खत पहुँच जाए।
‘क्या तुम एक और एहसान मुझ पर करोगे ?’
‘हाँ-हाँ, कहिए।’
‘मुझे उनकी कब्र तक ले जा सकते हो ?’
‘आप अभी चलना चाहेंगे ? वैसे मेरे बग़ैर भी उनकी कब्र को पहचानने में परेशानी नहीं होगी।’
‘अच्छा! और वह किस तरह ?’
इफ़्तेख़ार अपनी जगह खामोश खड़ा रहा।
‘ठीक है हम रास्ते में बातें कर सकते हैं। बस दो मिनट इन्तज़ार करो।’
हम कब्रिस्तान के रास्ते पर थे तो धीमी-धीमी हवा चल रही थी जिसमें चिडि़यों की चहक थी। एक साफ़-सुथरा दिन अपने ख़ात्मे पर था। नीले आसमान पर सफ़ेद बादल तेज़ी से गुजर रहे थे। शहर में मुसलमानों का एक ही कब्रिस्तान था जो रेलवे लाइन से लगा हुआ था। उसका लोहे का फाटक खोलते ही, जिस पर कभी ताला नहीं लगता, हम लोगों ने देखा सारा कब्रिस्तान पौधों और झाडि़यों की वजह से जंगल हो रहा था। यह हर साल बरसात के बाद हो जाया करता। इन झाडि़यों के बारे में एक अजीब परम्परा थी। जब बरसात पूरी तरह गुज़र जाती, उन्हें हमारे शहर के एक खास मोहल्ले के ग़रीब मुसलमान मर्द-औरत, बूढ़े-बच्चे आकर साफ़ कर दिया करते, चाहे उसके लिए उन्हें हफ़्तों लग जाएँ। इसके लिए वह किसी से कोई पैसा कुबूल न करते।
‘तुम यहाँ आते रहते हो ?’ मैंने इफ़्तेख़ार से पूछा।
‘हाँ, यहाँ हमारे बहुत सारे रिश्तेदार दफ़न हैं। मैं उन्हें पसन्द करता था।’
‘मुझे पता है। मेरे भी तमाम लोग इसी कब्रिस्तान में रहते हैं।’
झाडि़यों के दरम्यान चलते हुए हम एक बूढ़े बरगद के साए में पहुँच गए जहाँ पर एक पक्की कब्र बनी हुई थी। यह कब्र काफ़ी पुरानी थी। इससे लगी हुई एक नई कब्र के सामने इफ़्तेख़ार ठहर गया। इस कब्र को देखते ही मेरी आँखें हैरत से खुली की खुली रह गयीं और इफ़्तेख़ार की बात भी समझ में आ गयी। कब्र पर बहुत सारी बिल्लियाँ बैठी हुई थीं या चल रही थीं। कई बिल्लियाँ झाडि़यों से निकल कर कब्र की तरफ बढ़ रही थीं और कई वापस झाडि़यों के अन्दर लौट रही थीं। हम दोनों को देखते ही बिल्लियाँ तितर-बितर होने लगीं और देखते-देखते कब्र खाली हो गयी।
‘ये बिल्लियाँ, क्या इनका इसी जगह ठिकाना है ?’ मैंने हैरत से इफ़्तेख़ार की तरफ़ देखा।
‘मैं जब भी आया हूँ इन्हें इस जगह पाया है। कब्र खोदने वाले ने इन्हें भगाने की बहुत कोशिश की मगर बेकार।’ इफ़्तेख़ार ने फातिहा के लिए हाथ उठाते हुए कहा, ‘इनकी संख्या कम या ज़्यादा होती रहती है मगर मुझे याद नहीं मैंने इनके बग़ैर इनकी कब्र को कभी देखा हो।’
हम कब्रिस्तान में दस मिनट तक रहे होंगे। फातिहा पढ़कर हम वापस हो रहे थे जब हमने बिल्लियों को एक-दो की संख्या में झाडि़यों से निकल-निकलकर कब्र की तरफ वापस आते देखा।
‘क्या ये इनकी पाली हुई बिल्लियाँ हैं ?’ मैंने पूछा।
‘नहीं, मैं उन बिल्लियों को पहचानता हूँ।’ इफ़्तेख़ार ने जवाब दिया ‘ये दूसरी बिल्लियाँ हैं।’

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