06-Apr-2017 08:45 PM
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मैं बिस्तर पर करवटें बदल रहा था, इस वजह से नहीं कि मेरे दिमाग़ में उलझन थी या दिल में कसक थी। कभी कभी शाम ढलते ही और बिस्तर पर जाने के पहले एहसास हो जाता है कि आज की रात नींद न आएगी। मुझे कैफ़ी आज़मी के मिसरे याद आये, लेकिन ये ख़्याल में न आ सका कि मैंने उन्हें कब और कहाँ पढ़ा थाः
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आएगी
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
हम हिन्दुस्तानियों के लिये गर्मी से बहुत ज़्यादा सर्दी तकलीफ़देह है (कम से कम मेरा यही ख़्याल है) लेकिन हम गर्म मुल्क के रहने वाले, मई-जून की कठोर धूप में चुटियल मैदानों में नंगे पाँव चलने वाले, हमें गर्मी... उफ़ गर्मी... लगता है आसमान से आग बरस रही है.... ज़मीन यूँ तप रही है कि दाना डालो तो भुन जाए... वह धूप है कि चील अण्डा छोड़ती है (ये मुहावरा मैंने बचपन में कहीं पढ़ा था, अब सुनने में भी नहीं आता, लेकिन उसी वक़्त से मुझे फि़क्र रहती थी आखि़र चील ही क्यों? और अण्डे छोड़ने के क्या मानी हैं। अगर ये कि चील अण्डे पर बैठी थी और अब उसे अण्डे को सेने की ज़रूरत है भी नहीं कि गर्मी के मारे अण्डा ख़ुद ही से जाएगा, तो फिर बहुत-से परिन्दे ऐसे होंगे, बेचारी चील ही क्यों? शायद इसलिये कि चीलें सिफऱ़् मई-जून में अण्डा देती हैं? मगर ये बात कुछ दिल को लगती नहीं।) उस वक़्त तो नहीं समझ सका था, लेकिन ज़रा भाषा विज्ञान की शुद बुद हुई तो मालूम हुआ कि जु़बान यूँ ही अलल टप होती है। शब्द ‘अलल टप’ से अब शायद बहुत-से लोग वाकि़फ़ न हों, इसलिये इसका जैसा-तैसा अँग्रेजी तर्जुमा ंतइपजतंतल अर्ज़ किये देता हूँ (जैसे इस शब्द के जानने वाले बहुत-से होंगे)... बचपन में एक बार ‘अल्फ़ लैला’ (अब इसको क्या कीजिए कि बहुत-से पढ़े लिखे लोग इसे ‘अलिफ़ लैला’ समझते हैं, यानी शायद अलिफ़ बे की वह किताब जिसे लैला पढ़ती थी।).... ख़ैर, मैं इसी अल्फ़ लैला की सिन्दबाद जहाज़ी वाली कहानी फ़ारसी में पढ़ रहा था। कहानी यूँ शुरू होती थी कि उस दिन इस क़द्र गर्मी और तपिश थी कि ‘जिगर हर्बा मी सोख़्त।’ भला ये ‘हर्बा’ कौन है? मौलवी साहब ने बताया कि इसे उर्दू में गिरगिट कहते हैं (बल्कि हमारी तरफ़ तो इसे ‘गिरगिटान’ कहते थे, शायद इसलिये कि इस तरह गिरगिट और ज़्यादा ज़हरीला मालूम होता था।) उस वक़्त भी मुझे ये फि़क्र लगी थी कि आखि़र बेचारा गिरगिटान ही क्यों? और भी तो ऐसे जानवर होंगे जिन्हें गर्मी बहुत लगती होगी? लेकिन ये गुत्थी अब तक न सुलझ सकी। मुझे ज़ुवलोजी पढ़नी चाहिए थी। (आजकल बहुत-से लोग इसे ‘जूलाजी’ कहते हैं। फिर फ़र्क़ क्या पड़ता है? ज्ञान तो वही है।)
कैफ़ी साहब मरहूम की नज़्म (अगर ये नज़्म उनकी है) के दो मिसरों ने मुझे कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया। ये बहरहाल हक़ीक़त थी कि मुझे नींद नहीं आ रही थी, और हवा भी कुछ गर्म थी। आखि़रे अप्रैल की रात थी, मई, जून न सही, और मैं अपने पूर्वजों के गाँव के पूर्वजों के मकान के दरवाज़े पर दूर तक फैली हुई खिली ज़मीन पर नीम के नीचे सो रहा.... नहीं, बल्कि सोने की कोशिश कर रहा था। पुराने ढंग का भारी पलंग जिसे कई लोग मिल कर मेरी ख़ातिर उठा कर अन्दर मेरी दादी के कमरे से ले आये थे। इसकी निवाड़ अभी अच्छी हालत में थी, दादी के ज़माने की दरियाँ और चादरें भी उपलब्ध थीं। दादी का ज़माना? अब उनको ख़ुदा के साये में गये हुए छः से ज़्यादा दहाइयाँ गुज़र चुकी थीं। ख़ानदान के लड़के लड़कियाँ जो अब लगभग तमाम दुनिया में फैले हुए थे, उनके लिये साठ बरस से बहुत कम की मुद्दत भी इतिहास के पहले का ज़माना मालूम होती थी। फ्ऱैंक करमोड ने कहीं लिखा है कि आजकल के विद्यार्थी के लिये हर किताब इतिहास के पहले के ज़माने की है अगर वह पन्द्रह, या इससे ज़्यादा बरस पहले लिखी गयी थी।
दादी के ज़माने में उनके पलंग, बल्कि सभी के पलंग, खटमलों का मुख़्यालय थे। तमाम रात उन्हें काटते गुज़रती थी मगर हम लोगों की रात बेखटके जाती थी क्योंकि हमारी नींदे ऐसी न थीं कि कोई खटमल, कोई मच्छर, उन पर जीत हासिल कर सके, या उनकी दीवारों में ज़रा-सी रुकावट ही डाल दे। लेकिन मीर का शेर अक्सर मेरे एक चचाज़ाद भाई की जु़बान पर अक्सर रहता था।
आखि़रश शाम से हो शब बेदार
खेलता हूँ मैं खटमलों का शिकार
ख़ुदा जाने उस पलंग में खटमलों के कितने शहर, कितने कि़ले, कितनी चहार दीवारियाँ अब भी बाक़ी होंगी। मुझे तो अभी कुछ ख़ामोशी ही लग रही थी लेकिन इस ख़ामोशी का कुछ एतबार नहीं। न जाने कब, किस तरफ़ से हमला कर दे। मुझे याद आया कि अमरीका के कुछ दक्षिणी शहरों में हिन्दुस्तान पाकिस्तान के लोग ट्रैफि़क पुलिस वालों को इसीलिये खटमल कहते हैं कि ख़ुदा जाने कहाँ से बिलकुल अचानक आकर आपका पीछा करने लगते हैं। और अगर एक बार वह आपके पीछे लग गये, आप उनसे बच नहीं सकते। वह आपका चालान करके ही के छोड़ेंगे।
1. अल्लाह ताला अपने किसी बन्दे के तवील ज़माने को मुख़्तसर कर देता है, जबकि वह ज़माना दूसरों के लिए मुख़्तसर नहीं होता है।
हमारे पूर्वजों के घर के आगे कोई मुख्य दरवाज़ा या चहार दीवारी न थी। पता नहीं क्यों। दूर तक बंजर ज़मीनें, कुछ खेत और दो चार पुराने पेड़ थे। रात में बाहर सोने वालों को विस्तार बल्कि गै़र दिलचस्प लेकिन बेपरवाह विस्तार का एहसास होता था। (ये बात मैं अपनी तरफ़ से कह रहा हूँ, क्योंकि उस वक़्त भला कौन दस बरस के बच्चे पर अपनी प्रतिक्रिया ज़ाहिर करता, और ख़ुद मैं कभी अकेला खुले में सोया न था।) मुझे तो वह सारा दृश्य मुझसे, यानी हम इंसानों की जि़न्दगी से बेपरवाह लगता था। जैसे उसे कोई ग़रज़ न हो कि यहाँ कौन-सो रहा है, कौन जाग रहा है, कौन जल्द उठने वाला है, कौन दिन चढ़े तक सोता रहेगा। लेकिन ज़रा ठहरिए। उस ज़माने में हमारे दरवाज़े पर सोने वालों में किसकी मजाल थी कि दिन चढ़े तक सोता रहता? और कुछ नही ंतो बदलती हुई हवा के बेख़्वाबी, रात के ख़त्म हो जाने के बाद उसका लगातार हल्का पड़ता दबाव, उसकी बेचैन आवाज़ में कमी, अँधेरे की आहिस्ता, बहुत आहिस्ता, शिकस्त खायी हुई, आसमान के आखि़री छोर के धीरे धीरे नज़दीक आते चलने का एहसास, जो चेतना की किसी बहुत गहरी सतह पर कालिख की ठोस दीवार का किसी बहुत ही नामहसूस लेकिन यक़ीनी अमल के असर से मटमैले पत्तों और सरकण्डों की डालियों के घने और फिर हल्के हरे कम्पनों में बदलता दिखायी देता है, ये सब और बहुत-सी बातें शब्दों में जिनका बयान नहीं हो सकता, उनके होते हुए खुले आसमान तले फैली हुई ज़मीन पर सोने वाला दिन चढ़े तक सो भी कहाँ सकता था?
अब हमारे भी शहरों में आसमान पर्दे से ढका रहने लगा है। और में उस जगह से आया था जहाँ अगर कभी सितारे दिखायी दे जाएँ तो इसे क़ाबिले-जि़क्र वाक़्या ख़्याल किया जाता है। और यहाँ की हालत न पूछिए। आधा चाँद आसमान पर नीम की छोटी पत्तियों का झुरमुट बनाये हुए पेड़ की शाख़ें, हवा ज़रा-सी भी सनकी तो चाँद की एक आध किरन मुझ तक पहुँच ही जाती। मुझे नासिख़ का शेर याद आया ः
हिज्र में अब किस तरफ बेयार जाऊँ बाग़ को
सारे पत्तों को बना देती है ख़ंजर चाँदनी
मेरे वतन रिहाइश और अधिकार में तो हम लोग काम के लिये निकलते थे तो रोशनी पूरी तरह फैली न होती थी। किसी को बीस मील जाना था, किसी को पच्चीस मील, किसी को और भी दूर। साहिबे-हैसियत और हम लोगों से भी ज़्यादा काहिलतर लोगों के पास हेलीकाप्टर थे। वह हम लोगों से बहुत बाद में निकलते तो थे, लेकिन लिफ़्ट के ज़रिए छत पर जाने के पहले वह अपने सोने के कमरों या खाने के कमरों में होते। चाँद उन्हें भी न दिखायी देता। और वापसी तक तो सब के लिये शाम अच्छी तरह फूल ही चुकी होती थी। सब लोग ऊपर के माहौल से बेख़बर (बशर्ते कि कहीं आँधी न आयी हो) अपनी अपनी सुरक्षित दुनियाओं में वापस चले जाते थे।
‘जि़न्दा ग़ुनूदगी’ (जि़न्दा अर्ध निद्रा) मुझे राबर्ट लुई स्टीवेन्सन (त्वइमतज स्वनपे ैजमअमदेवद) की बात याद आयी। फ्राँस के पठारी भागों में तनहा घूमते फिरने और जगह जगह का जायक़ा चखने के बाद (जिसमें खुले आसमान के नीचे कई रातें गुज़ारने का मज़ा भी शामिल था।) उसने एक यात्रा वृतान्त जैसी छोटी-सी किताब लिखी। उसमें खुले में रात गुज़ारने का बयान एक जगह लिखा है और ऐसा लिख दिया है कि मैं सौ बरस कोशिश करूँ तो भी नहीं लिख सकता। इसी में ये सूक्ति स्पअपदह ैसनउइमत (जि़न्दा अर्ध निद्र्रा) भी है। मगर मैं कहाँ का शाइर या अफ़साना निगार कि स्टीवेन्सन या किसी और की तरह लिखने का अरमान रखूँ। मसूद हसन रिज़वी अदीब साहब मरहूम ने लिखा है कि उन्होंने स्टीवेन्सन का असर क़ु़बूल किया है। बेशक। उनका गद्य ऐसा सँवरा और सजल है और रवानी से भरपूर है कि बस पढ़ते जाइये।
नींद तो मुझे बहरहाल न आ रही थी। मुझे याद आया कि हमारे घर के सामने कुछ फ़ासले पर, यानी सुब्हानअल्लाह दादा के मकान के पीछे एक बड़ा छतनार और फैला हुआ पेड़ था। ये याद नहीं कि काहे का पेड़ था, बस रातों को ऐसा लगता था कि वह पेड़ कुछ नज़दीक आ गया है। हम लोगों में मशहूर था कि इस पेड़ पर एक बरम रहता है जो हर आने जाने वाले को और ख़ास कर आठ दस बरस की उम्र के लड़कों को ललचायी हुई नज़र से देखता रहता है। तो वह क्या चाहता है? इस बात का जवाब किसी के पास न था। अलग अलग क़यास आराइयाँ थीं। कोई कहता वह जिसको पकड़ ले उसे भी अपनी तरह का बरम बना लेगा। और इसीलिये उसे लड़कों की ज़्यादा हवस थी कि वह आसानी से बरम बन जाएँगे। कोई कहता नहीं, उसके बदन पर खाल और हड्डियाँ हैं, और कुछ नहीं है। उसकी योजना हमेशा यही रहती है कि किसी को पकड़ पाये तो उसका गोश्त अपने बदन पर चढ़ा ले। लड़कों को पसन्द करने की इच्छा यही थी कि उनका गोश्त नर्म होता है। एक लड़का कहता था कि नहीं, वह बरम किसी वजह से इस पेड़ में कै़द है। उसे किसी इंसान की ज़रूरत इसलिये है कि वह रातों को उस पर सवार हो कर दूर दूर के गाँव जाकर मवेशियों और इंसानों का ख़ून कर सकता था। सुना गया कि एक बार बरम ने एक नौजवान किसान को पकड़ ही लिया था। उसने कहा कि तू मेरी रातों की सवारी बन जाए तो मैं तुझे घोड़े की तरह ताक़तवर बना दूँगा। दिन भर अपनी खेती किसानी आसानी से करते रहियो। किसी झगडे़ लड़ाई में भी कोई तुझ पर क़ाबू न पा सकेगा। वह किसान उसके चंगुल से छूटा कैसे, ये बात किसी को न मालूम थी। शायद हमारे दादा ने उसे कोई तावीज़ पहना दिया था कि ऐसे ही किसी संकट में काम आये।
सुना है बहुत दिन पहले हमारे दादा का एक कारिन्दा रातों को खलिहान की हिफ़ाज़त पर तैनात था। एक दिन वह ठिठुरता, काँपता आया, जैसे उसे जाड़ा देकर बुख़ार चढ़ा हो। उसने दादा से कहा कि मौलवी जी, मैं अब खलिहान की रखवाली न करूँगा। सामने वाले पेड़ में एक बेताल आ गया है। वह मुझे रात दाँत दिखा-दिखा कर ख़ुखि़याता रहा और कहता रहा कि कल तुझे न छोड़ूँगा। दादा ने उसकी पीठ ठोंकी और एक तावीज़ उसे लिख दिया और कहा कि ले इसे गले में पहन ले। जा, अब वह बैताल तेरा कुछ न बिगाड़ेगा। और ऐसा ही हुआ। हमारे एक बड़ी उम्र के चचाज़ाद भाई क़सम खाकर कहते थे कि दादा ने तवीज़ में भोजपुरी ज़ुबान में ये लिखा था कि देखो जी, ये आदमी हमारा रखवाला है। कोई इससे हरगिज़ कुछ छेड़ न करे।
ख़ुदा जाने ये बयान सच्चा है कि झूठा, लेकिन मुझे इस बात में कोई शक नहीं घर के सामने का बरम वाला पेड़ रात को नज़दीक इसलिये लगता था कि वह बरम इसी पेड़ को अपनी सवारी बना डालने की कोशिश में उसे कुछ आगे पीछे करता रहता था।
आज रात वह घना काला पहाड़ जैसा पेड़ मुझे दिखायी न देता था। सामने सुब्हान अल्लाह दादा का घर तिमंजिला हो गया था और पीछे का तमाम मैदान, तमाम पेड़ों और पत्थरों की आबादियाँ नज़र से ओझल हो गयी थीं। सुबह अगर मैं बच रहा तो दिन की चमकती नीली धूप में जाकर इस पेड़ को ज़रूर देखूँगा।
बच रहा? क्या मतलब? क्या मैं ख़र्च हो रहा हूँ, या घटता जा रहा हूँ कि बच रहने की बात मेरे दिमाग़ में आयी? मैं तो बस कल भर के लिये यहाँ हूँ। शायद नींद के किसी झोंके में ‘बच रहा’ कह गया था। यहाँ कोई डर की बात तो है नहीं। और अजीब बात ये है कि बचपन में इन सब भूत, बेताल, बरम, चुड़ैल वगै़रह की बातों से हमें (या कम से कम मुझे) मौत का ख़ौफ़ न आता था। वह ख़ौफ़ अजब तरह का था, किसी दूसरे जीव के क़ब्जे़ में चले जाने का, गिरफ़्तार हो जाने का ख़ौफ़, अंजानी वस्तु का ख़ौफ़, मौत उनमें से किसी हिसाब में न थी। बेशक हम लोगों ने सुनसान या अजनबी घरों पर भूत पे्रत का साया होने के बारे में कई डरावनी कहानियाँ पढ़ी थीं और उनमें से अक्सर का अंजाम किसी निडर व्यक्ति की मौत पर होता था, लेकिन अपने असली और सच्चे भूत-प्रेतों से हमें मौत का डर न था।
मिसाल के तौर पर एक कि़स्सा जो मैंने पढ़ा था, वह इस तरह था कि एक शख़्स किसी अजनबी जगह मेहमान उतरता है, और उसे रात रहने के लिये जो कमरा दिया जाता है, वह उसे नापसन्द करके बख़्याल ख़ुद एक ज़्यादा अच्छे माहौल वाला कमरा लेता है, जबकि मेज़बान उससे मना करता करता है कि इस कमरे में किसी भूत-पे्रत का साया है। ख़ैर, वह मेहमान हँसी ख़ुशी उस कमरे में रात गुज़ारने के लिये जाकर कमरा अन्दर से बन्द कर लेता है। जब दिन चढ़ आने के बहुत देर बाद तक दरवाज़ा नहीं खुलता और न दरवाज़ा खटखटाने का कोई नतीजा निकलता है तो दरवाज़ा तोड़ कर लोग अन्दर दाखि़ल होते हैं। मेहमान वहाँ मौजूद तो है, लेकिन वह घुटनों के बल है, उसके दोनों हाथ आगे बढ़े हुए हैं, गोया वह किसी चीज़ को रोकना या पीछे धकेलना चाहता है। या किसी चीज़ से मिन्नत कर रहा है कि और आगे न आओ। उसकी आँखें बन्द हैं लेकिन चेहरा ख़ौफ़ की शिद्दत से टेढ़ा हो रहा है। मेज़बान उसे जल्द से जल्द अस्पताल ले जाता है लेकिन रास्ते ही में मेहमान की मौत हो जाती है।
इस तरह की ख़ुराफ़ात से हम लोगों का दिमाग़ उन दिनों किसी भूत बंगला जैसी चीज़ से कम न था। अब मैं ख़्याल करता हूँ तो ज़्यादा ख़ौफ़ (कम से कम मुझे) जुनून का था, कि ऐसी बातें मुझ पर गुज़रें तो मैं होश-ओ-हवास खो कर पागल या दीवाना हो जाऊँगा। मुझे सड़क पर घूमने वाले पागल या कम अक़्ल लोगों और शराब के नशे में चूर लोगों से बहुत डर लगता था। हमारे शहर मेें एक औरत सड़कों पर आवारा फिरती थी, ख़ुदा मालूम बूढ़ी थी कि अधेड़, लेकिन उसकेे सर पर थोड़े बहुत बाल जो थे वह काले थे। एक गन्दा कचीला-सा कुर्ता और वैसा ही आड़ा पायजामा उसका लिबास थे। वह पान बेइन्तेहा खाती, उसके मुँह से पान की पीक मुसलसल टपकती रहती थी और उसका गिरेबान दूर तक बिलकुल लाल रहता था। एक बार मैं अपने ख़्यालों में गुम (उस वक़्त मैं कोई दस बरस का था लेकिन ख़्यालों में गुम रह कर रास्ता चलना मेरी आदत थी। उस ज़माने में सड़कों पर सिफऱ़् पैदल मुसाफि़र, या साइकिल सवार या इक्का दुक्का रिक्शे और यक्के होते थे) कहीं से चला आ रहा था कि घर के पास ही अचानक किसी चीज़ से टकरा गया। चैंक कर ऊपर देखा तो वही मजनूना थी। देखने में तो उस पर इस बात का कोई असर न था कि मैं उससे टकरा गया था। वह मुझे बिलकुल ख़ाली आँखों से देख रही थी लेकिन रास्ता उसने फिर भी न छोड़ा था। मेरे मुँह से हल्की-सी चीख़ निकल गयी और उसका रास्ता काटकर मैं अन्धाधुन्ध घर को भागा।
मैं भी कितना ज़्यादा बचकाना मिज़ाज का शख़्स हूँ। इतनी उम्र होने को आयी लेकिन छः साढ़े छः दहाई पहले की वह सब बातें कहीं न कहीं दिल में बैठी हुई हैं। वो इतनी दूर भी नहीं हैं कि उनको खींचकर होश की सतह पर आ जाने में कुछ देर लगे या सोचना और ख़ुद को खंगालना पड़े। एक ज़माने में मुझे भूत-प्रेत, गै़रअक्ली, प्रकृति के विपरीत बातों और घटनाओं, ख़ौफ और घिनौनेपन वाले वाक़यात (मिसाल के तौर पर आदमख़ोरी) पर आधारित कहानियाँ पढ़ने का बहुत शौक़ था। अब भी मेरे पास ऐसी कहानियों के संग्रह और उपन्यासों का ख़ज़ाना है, हालाँकि एक बार मैंने जगह की कमी की वजह से ऐसी बहुत सारी किताबें दूसरों को दे डालीं। (जिसका अब तक मुझे अफ़सोस है) फिर भी, इस वक़्त मेरे पास अच्छी ख़ासी लाइब्रेरी बाक़ी रह गयी जिसमें वक़्त वक़्त पर इज़ाफ़ा ही होता रहा है।
मुझे नींद तो आ रही है, लेकिन बहुत ही हल्की-सी। शायद ये नींद नहीं है, मेरा थका हुआ दिमाग़ है। अँग्रेज़ शाइर टामस लव पीकाॅक की बहुत-सी नज़्में भूतों के बारे में हैं। पीकाॅक भला ये भी कोई नाम हुआ, मगर अँग्रेज़ों में ऐसे, बल्कि इनसे भी बढ़कर अजीब नाम होते हैं। एक और शाइर साहब का नाम था जान ड्रिंगवाॅटर और लाँग और शाॅर्ट नाम तो अब भी बहुत सुनने में आते हैं। ब्लैक ;ठसंामए ठसंबाद्ध व्हाइट ;ॅीपजमए ॅपहीजद्ध ग्रे ;ळतंलए ळतमलद्ध डार्क ;क्ंताद्ध ग्रीन ;ळतममदए ळतममदमद्ध ये नाम भी दुर्लभ नहीं हैं। टाइगर और स्नेक मैंने नहीं देखे, लेकिन अठारवीं सदी के मशहूर नाटक लेखक शेरिडन के सबसे कामयाब नाटक में एक किरदार स्नेक नाम का है, मगर ख़ैर वह तो हास्य और व्यंग के तौर पर रचित नाम था। लीजिए मैं तो नामों की ख़तौनी लेकर बैठ गया (या पड़ गया)।
तो पीकाॅक साहब की जो नज़्म मुझे बहुत पसन्द थी, अफ़सोस कि अब मुझे उसके दो ही तीन मिसरे याद हैं। नज़्म में एक भूत है जो एक हसीना पर आशिक़ है। वह हर रात उसके सिरहाने आकर एक गीत गाता है कि ‘मर जा, अरे मर जा।’ नज़्म का ख़ात्मा याद नहीं, लेकिन शुरू के चन्द मिसरे याद हैं ः
। हीवेज जींज सवअमक ं संकल ंिपतए
ैवजि इल उपकदपहीज ंज ीमत चपससवू ेजववकए
म्अमत ेपदहपदह “क्पमए वी क्पमण्”
उस वक़्त, बल्कि आज भी जो बात मुझे इस नज़्म में सबसे हैरतनाक लगती है, वह ये नहीं कि कोई भूत किसी लड़की पर आशिक़ हो जाए। हमारे यहाँ तो औरतों पर प्रेतात्मा, शेख़ सद्दू, जिन, परी आते ही रहते हैं। (हज़रत ग़ौसी अली शाह साहब के यहाँ लोग ऐसे मामलों में तावीज़ माँगने आते थे। आप तावीज़ दे तो देते, लेकिन अक्सर फ़रमाते कि अँग्रेज़ की औरतों पर कोई जिन या प्रेतात्मा क्यों नहीं आती? अँग्रेज़ का इक़बाल बुलन्द है इसलिये उसकी औरतें भी महफ़ूज़ हैं। बात तो मज़ेदार है, लेकिन मेरे ख़्याल में असल मामला विश्वास का है। और एक बात ये भी है कि ग़ौसी अली साहब का भी मतलब शायद ये रहा होगा कि ये सब विश्वास की बात है अँगेज़ को जिन और परी और शेख़ सद्दू वगै़रह पर नहीं, लेकिन भूत और आत्मा पर विश्वास है और उसका विश्वास है कि इनका असर औरतों पर या मर्दों पर नहीं बल्कि घरों पर होता है। हमारा विश्वास, इस्लामी विश्वास के मुताबिक़, भूत प्रेत पर नहीं, लेकिन जिनात परी वगै़रः पर है।)
मेरे लिये पीकाॅक साहब की नज़्म में असल हैरत अंगेज़ बात ये थी कि उस भूत को पूरा यक़ीन था कि उसकी माशूक़ा मर कर भूत (या भूतनी?) ही बनेगी। ख़ुदा ही जाने। उनकी एक नज़्म और थी जिसमें दो भूतों की मुलाक़ात होती है तो एक पूछता है, कहो क्या हाल है? दूसरा कहता है, पता नहीं जी, मैं तो कल ही मरा हूँ। उर्दू में ये मामला सच्चाई से परे लगता है। लेकिन अँग्रेज़ शाइर ने हल्के से हास्य के साथ ख़ौफ़ या सनसनी की थरथरी भी रख दी थी। (शायद इसलिये कि अँग्रेज़ क़ौम के साथ साथ अँग्रेज़ी ज़ुबान भी भूतों पर विश्वास रखती है।)
अभी सुबह नहीं होने वाली। हमारे घर के पीछे एक ख़ासा बड़ा तालाब था जिसे लोग ‘गढ़ी’ कहते थे। अब मुझे ख़्याल आता है कि ‘गढ़ा’ की स्त्रीलिंग के एतबार से तो ‘गढ़ी’ ‘बहुत छोटा गढ़ा’ के मानी में होना चाहिए था। इतने बड़े तालाब को ‘गढ़ी’ कहने के क्या मानी हैं। लेकिन मेरी मरहूमा माँ भी अपने पूर्वजों के तालाब को, जिसमें मछलियाँ ख़ूब होती थीं, गढि़या कहती थीं। ़ज़ुबान के खेल निराले हैं। बहरहाल हमारी गढ़ी में मछलियाँ नहीं, लेकिन जोंकें, घोंघे और पानी के चींटे बेशुमार थे। ये पानी के चींटे भी ख़ूब थे, निहायत दुबले पतले, बिलकुल जैसे वह तंग और पतली और लम्बी, हल्की बादबानी नावें जिन्हें ‘निनास‘ कहते हैं, या जैसे कश्मीरी शिकारे, बेहद हल्के-फुल्के। काला-भूरा रंग जिसे स्टील ग्रे कहिए, और इतनी लम्बी लम्बी टाँगें जैसे वह सरकस के जोकरों की तरह पाँव में बाँस बाँधें हुए हों। वह पानी की सतह पर इतनी तेज़ दौड़ते जैसे दौड़ के मैदान में गिरे हाऊण्ड कुत्ते दौड़ते हैं। मुझे अब ये तो नहीं याद कि वह कितनी दूर तक दौड़ते दौड़ते निकल जाते थे (गढ़ी काफ़ी चैड़ी थी, या मुझे वह चैड़ी लगती थी।) मुझे याद नहीं कि कोई चींटा कभी इस पार से उस पार पहुँचता हुआ दिखायी दिया हो। लेकिन वह जानवर बिलकुल नन्हें मुन्ने और हल्के फुल्के थे और गढ़ी का पानी भी कुछ बहुत साफ़ न था, इसलिये अगर वह उस पार निकल भी गये होते तो मुझे नज़र न आ सकता था कि वह उस किनारे पहुँच ही गये हैं। लेकिन जहाँ तक मुझे याद आता है उनकी दौड़ यही कोई दो ढाई फ़ुट की होती थी और मुझे एक छोटे-से पानी को अलग करने वाले हिस्से में दौड़ते-भागते नज़र आते थे, अपने प्रति एक अजब महत्व का एहसास और ख़ुद अपनी बड़ाई का रंग लिये हुए जैसे वह सारा पानी उन्हीं के लिये बनाया गया था। अक्सर मैं देखता कि वह एक तरफ़ दौड़ते हुए गये, फिर अचानक कन्नी काट कर किसी तरफ़ निकल गये। चराग़ाहों में कुलेलियाँ करते हुए हिरन के बच्चों और घोडे़ के बच्चों की तरह उन्हें एक दम क़रार न था।
अपनी दौड़ में डूबे हुए चींटों को कभी कभी मैं सोचता कि जंगी जहाज़ हैं और जंगी तैयारियों में लगे हैं। या समुन्दर पार करने वाले हल्के जहाज़ हैं जिन्हें कुछ गिने चुने मुसाफि़रों को ले जाना और वापस ले आना होगा। ऐसी सोच के वक़्त जहाज़ रानी और मुहिम तै करने और जोखिमों को हँसते खेलते पूरा कर लेने का सनसनी खे़ज़ एहसास भी शामिल हो जाता था। चूँकि मैंने उन्हेें कभी डूबते न देखा था, इसलिये मुझे यक़ीन था कि वह बड़े माहिर जहाज़ी हैं, सिन्दबाद जहाज़ी की तरह नहीं हैं कि जिसका जहाज़ आये दिन तूफ़ानी हो जाया करता था।
घोंघे वहाँ बहुत थे, गोल, लम्बे, टेढ़े बदनों वाले, जैसे किसी साधू के सर पर लिपटी हुई लम्बी जटाएँ। मुझे कभी उनसे दिलचस्पी न हुई। कहाँ वह मेरे साहसी और ख़ूबसूरत और हवा की रफ़्तार वाले चींटे और कहाँ ये भोंडे, भदेसल, एक जगह पड़े रहने वाले घोंघे। कभी कभी मेरा हाथ लग जाता तो बड़े चिपचिपे और गिलगिले मालूम होते। (नहीं, उनमें से कुछ ख़ुश्क भी होते थे।) आखि़र वह थे ही किस काम के? पानी में रहने वाले (ऐसा मेरा ख़्याल था) लेकिन पानी पर तैरने से कतराने वाले। दरिया के किनारे वह लम्बोतरे, हल्के फुल्के और सफे़द गुलाबी रंग के घोंघे और ही चीज़ थे जिनके दर्शन मुझे बहुत ही कम होते थे क्योंकि हमें दरिया पर जाने की सख़्त मनाही थी। और उन दरियाई घोंघों की बड़ी ख़ूबी ये थी कि वह मुर्दा होते थे, इसलिये उनसे कोई ख़तरा या किसी चिपचिपाहट, किसी घिन के एहसास का ख़तरा न था।
जोंकें तो मैंने शायद वहाँ देखी नहीं, लेकिन गोल, मन्दिर नुमा घोंघों के नीचे से दो लम्बी, लाल, मटमैली भूरी पतली ज़ुबानें-सी कभी कभी निकल आती थीं। मेरे गाँव वाले साथी मुझे ख़बरदार करते थे कि उन्हें कभी हाथ न लगाना, क्योंकि ये भी जोंक की तरह ख़ून निकाल लेती हैं, सरपत की तेज़ पत्ती की तरह या छोटे-से धारदार चाक़ू के फल की तरह ये तुम्हारे बाज़ुओं या हाथ पर लम्बी-सी ख़ूनी लकीर छोड़ जाएँगी। अब मुझे ख़्याल आता है कि ये सब बच्चों का झूठा ख़ौफ़ या शरारतभरा ढोंग था, क्योंकि अब मुझे मालूम है कि वह लम्बी-सी धागे जैसी चीज़ें दरअस्ल घोंघे के पाँव हैं।
उस गढ़ी के किनारे, हमारे मकान के पिछवाड़े की तरफ़, और इतना नज़दीक कि मैं रातों को उसकी (दिन को) चमकीली (रात को) काली पत्तियों में हवा को शोर मचाते, लम्बी-लम्बी साँसें भरते, बन्द कमरे में अपने पलंग पर से गुज़रते सुनता और महसूस करता था। वे रातें मेरे लिये बड़ी क़यामत की होती थीं। मेरी माँ तो दादी के घर में दूसरी बहुओं के साथ खाना पकाने, खिलाने, और खाने में लगी रहतीं। और मेरे बाप रात की नमाज़ (शायद ईशा, शायद मग़रिब) के बाद दादा की महफि़ल में देर तक बैठे रहते। ख़ुदा मालूम क्या-क्या बातें करते होंगे। लड़ाई के दिन थे (मेरा ख़्याल है वह साल 1943 या 1944 रहा होगा), इसलिये लड़ाई में अँग्रेज़ों की जीत या हार के चर्चे ज़रूर होते होंगे, और चूँकि सारा घराना बहुत मज़हबी था, इसलिये अल्लाह रसूल की बातें भी होती होंगी। ज़ाहिर है कि सब लोग मुझे अपने बाप के घर में पूरी तरह सुरक्षित और गहरी नींद में हर ख़ौफ़ और हर अस्तित्व से बेख़बर समझते होंगे। घर, जिसके एक सिरे पर, गढ़ी की परली तरफ़ एक सुनसान शौचालय था जिसे कोई इस्तेमाल न करता था, लेकिन वह बन्द भी न रहता था, मगर गढ़ी की तरफ़ उसमें कोई खिड़की या दरवाज़ा न था, इसलिये उसे हर तरह सुरक्षित समझा जाता था। चारों तरफ़ ऊँची दीवार भी थी, ख़ास कर पीपल के पेड़ और गढ़ी की तरफ़, और जिसका दरवाज़ा शायद खुला रहता होगा, लेकिन उस घर की परिस्थिति ऐसी थी कि दरवाज़े पर आने वाला कई लोगों की निगाह में रहता (या कम से कम मेरे बाप माँ का यही ख़्याल रहा होगा)। ऐसे हालात में आठ नौ साल केे समझदार, स्कूल जाने वाले और अँग्रेज़ी पढ़ने वाले लड़के के लिये किसी ख़ौफ़ की बात घटित होना मुमकिन ही कहाँ था?
लेकिन आह, मेरे माँ बाप को क्या मालूम था कि वही पीपल का पेड़ जो दिन को बहुत दोस्तदार और ख़ुशगवार और हरियाला सायादार पड़ोसी था, शाम फूलते ही दुश्मन, और मुझसे ख़ुदा जाने किस क़ुसूर का बदला लेने या ख़ुदा जाने कब की दुश्मनी निकालने पर आमादा, ख़ून ख़ुश्क कर देने वाला भुतहा बन जाता था। और वे हवाएँ, जिन्हें वह बार बार मुझे धमकाने के लिये मेरे सर के ऊपर, मेरी छत के ऊपर, सरपट दौड़ने वाले घोड़े की तरह दौड़ाता था। और क्या रात के वक़्त वह सारे घोंघे और वे मेरे दोस्त चींटे, और शायद पानी की तह में ख़ुफि़या जि़ंदगियाँ गुज़ारने वाले जीव, सब उस पीपल पर चढ़ कर चुड़ैल और जिन्नात बन जाते थे? या शायद वह पीपल का घना, लम्बा, ग्रान्डियल पेड़ ही कोई जिन्नात बन जाता था? या हवाओं के शोर का फ़ायदा उठाते हुए कोई चुड़ैल, कोई बरम, कोई पिशाच, चुपचाप पीपल से उतर कर मुझको दबोचने ही वाला होता था?
ख़ुदा जाने पीपल के पेड़ में इतनी ताक़त कहाँ से आती थी। आज भी इस ताक़त का प्रदर्शन मैं इस तरह देखता हूँ कि शहर में जहाँ अब मैं रहता हूँ, एक पीपल वहाँ से कम से कम एक डेढ़ मील की दूरी पर सड़क के उस पार खड़ा है। वहाँ कई पेड़ और भी हैं, जैसे कि सड़कों पर होते हैं। आँधी तो एक तरफ़, तेज़ हवा भी शहर के इस हिस्से में कभी कभी ही बहती है। लेकिन मेरे घर की कोई दीवार, लान का कोई भाग, अन्दरूनी आँगन का कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं जहाँ पीपल के पौधे तकलीफ़देह और परेशान करने वाले अन्तराल से न उग आते हों। हज़ार बार उखड़वाता हूँ, सैकड़ों बार ख़ुद नोंच कर फेंकता हूँ, लेकिन तौबा कीजिए, वह कहाँ हार मानते हैं। मैं हार मानते मानते रह जाता हूँ। जानता हूँ कि इन पौधों को अगर बढ़ने दिया गया, ये जानलेवा दीवार, छत, सबको तोड़ फोड़ डालेंगे। इसलिये हर महीने दो महीने माली को टोकता हूँ, दूसरों की हिम्मत बढ़ाता हूँ कि भाई इन्हें ठहरने मत देना। मगर वह फिर आ जाते हैं। पीपल न हुआ, एडगर एलन पो की नज़्म ‘द रेवन’ का वह कुछ शैतानी सा परबत काग हुआ जिसे नज़्म का बयान करने वाला हज़ार कोशिश और उत्साह के बावजूद अपनी खिड़की, बल्कि यूँ कहें कि अपने सीने से हटा न सका था।
हर रात मेरी और पीपल के छतनार, दुश्मन, भूत जैसे काले रंग, गै़र इंसानी अस्तित्व और पचासों रेलगाडि़यों के एक साथ किसी पुल पर गुज़रने के शोर जैसा हंगामा करने वाली हवाओं से जंग होती। और सुबह को वह पीपल वही पहले जैसा सायादार, ठण्डा, और हल्की मिठास लिये हुए गोल गोल छोटे छोटे फलोें वाला घर बन जाता। न जाने कितनी दोपहरें अपने माँ बाप की आँख बचा कर वहाँ मैंने अपने साथियों के साथ पीपल की गोंदनियाँ चुनने और मज़े ले ले कर खाने में गुज़ारी हैं। एक बार मेरे एक साथी ने ग़लती से बकरी की एक मेंगनी भी गोंदनी समझ कर मुँह में डाल ली थी। (मैं आपको यक़ीन दिलाता हूँ वह मैं नहीं था)। यह घटना हम लोगों के लिये थोड़ी बहुत तफ़री का सबब बनी ज़रूर थी, लेकिन हमें ये भी मालूम था कि इसकी ख़बर हमारे बड़ों को लग गयी तो बड़ी डाँट (और शायद मार भी) पड़ेगी, इसलिये हम लोगों ने बहुत जल्दी ही इस विषय को अपनी गुफ़्तगू से बाहर कर दिया।
आज ख़ुदा जाने कितनी मुद्दत बाद मैं गाँव में वापस आया हूँ। कल मुझे दादा की ज़मीन पर नये बने स्कूल का उद्घाटन करना है। दादा के दरवाज़े पर नीम का पेड़, जिसके नीचे ख़ानदान के लोगों के साथ गाँव का हर अजनबी मुसाफि़र खाना खाता था, अब नहीं है। जिस पेड़ की छाँव में इस वक़्त मैं लेटा हुआ सोने की कोशिश कर रहा हूँ, उसकी उम्र मुश्किल से तीस चालीस बरस होगी। वह गढ़ी और वह पीपल तो इस तरह अस्तित्व से दूर हो चुके हैं जैसे कभी थे ही नहीं। हम तो जैसे यहाँ के थे ही नहीं ख़ाक थे आसमाँ के थे ही नहीं जोन ईलिया ने हिजरत के परिदृश्य में कहा था। इन बेचारों को क्या मालूम कि हम लोग जो यहीं के थे और कहीं न गये, हम लोगों का सारा बचपन, सारा लड़कपन, तमाम उठती हुई जवानियाँ, तमाम दोस्तियाँ और दुश्मनियाँ उन पेड़ों के साथ गयीं जो कट गये, उन ताल तलय्यों के साथ डूब गयीं जो सूख गये, उन राहों से उठा ली गयीं जिन पर घर बन गये। ऐ तू जो शहर के बाहर खड़ा इस तरह बेतहाशा रो रहा है, बोल तूने अपनी जवानी के साथ क्या किया? मुझे वर्लेन के मिसरे याद आये। लेकिन मैंने तो कुछ करके दिखाया है, मैं आज दूर शहर से बुलाया गया हूँ कि स्कूल की इमारत का उद्घाटन करूँ। मैं अब कुछ काफ़ी महत्वपूर्ण आदमी हूँ, वह छोटा-सा लड़का नहीं जो दिल ही दिल में अपने बाप से नाराज़ रहता था कि रात के खाने के बाद मुझे आम और ख़रबूज़ों में से उतना हिस्सा क्यों नहीं मिलता जितना मैं चाहता हूँ? लेकिन इस गली से किसी ने न कहा था कि जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं। मैं तो यहीं का था, या शायद नहीं था। भला कौन अपने दिल में और सर पर उन भूत प्रेतों, चुड़ैलों, जिन्नातों, तेज़ चलकर डराती हुई हवाओं और भयानक मुस्कराहट मुस्करा कर दूर से इशारा करके बुलाने वाली बलाओं का पीला, गन्दा, काला ख़ून लिये लिये फिर सकता था।
मगर वह दुनिया हर तरफ़ हैरान करने वाली, हर तरह से जुर्रतों को आवाज़ देने वाली, हर लम्हा विस्तार और गहराईयों का एहसास दिलाने वाली दुनिया थी। जिस बैतुलख़ला (शौचालय) का जि़क्र मैंने अभी किया (ख़ुदा जाने क्यों हम लोग भी उसे बैतुलख़ला कहते थे पाख़ाना नहीं) उसके बारे में मशहूर था कि अगर कोई चालीस दिन तक लगातार उसमें जाकर ‘सलाम अलैकुम’ कहे तो इकतालीसवें दिन उसकी मुलाक़ात एक जिन्नात से हो जाएगी जो वहीं रहता है। मैंने सुना था कि एक बार एक साहब ने चालीस दिन तक ‘सलाम अलैकुम’ वहाँ जाकर कहा तो इकतालीसवें दिन सचमुच एक शख़्स उन्हें नज़र आया जो था तो इंसानों जैसा, लेकिन उसका क़द आसमान को छूता हुआ मालूम हो रहा था। बैतुलख़ला की छत बहुत ऊँची न थी, लेकिन उस वक़्त इतनी ऊँची, इतनी ऊँची हो गयी थी कि ठीक से नज़र न आती थी। ‘व अलैकुम अस्सलाम’ एक बड़ी गूँजती हुई-सी आवाज़ आयी, जैसे बहुत बड़ा नक़्क़ारा बज उठा हो, या जैसे कोई बहुत बड़ा, बहुत ही बड़ा साँड डकार रहा हो।
उसके बाद क्या हुआ, ये बताने वाला कोई न था। लेकिन वह पीपल अब फिर मेरे सामने है... नहीं, पीपल नहीं, लगता है कोई शख़्स कहीं बुलन्दी से उतर रहा हो, शायद नीम के उस पेड़ से जिसके तले मैं सो रहा हूँ। धुँधली, लम्बी सूरत, नहीं बहुत लम्बी नहीं, लेकिन कुछ घनी-घनी-सी। और वह पीपल अब उसके पीछे है और उस पीपल से अब कुछ नीली, कुछ काली-सी रोशनी फूट रही है। बहुत हल्की रोशनी, लेकिन वह सूरत, वह पीपल का पेड़... नहीं, वह इंसानी सूरत, मुझे साफ़ दिखायी देती है। कोई इंसान है, डरने की क्या बात है? कोई बूढ़ा, पुराना मुसाफि़र होगा जो यहाँ रात के लिये जगह माँगने आया है। सुबह को चला जाएगा। मगर, मगर उसके कपड़े तो बहुत ही पुराने ज़माने के हैं। हम लोग ऐसे मौक़े पर ‘दकि़यानूसी’ लफ़्ज़ इस्तेमाल करते थे, अब बहुत दिन से ये लफ़्ज़ सुनने में नहीं आया।
अजनबी आकर मेरे पलंग की पाइंती खड़ा हो गया है। नहीं, मैं उसे अपने पलंग पर रोने न दूँगा। रोने? नहीं सोने। हरगिज़ सोने न दूँगा। मैं चाहता हूँ उठकर उससे पूछूँ, कौन हो तुम? और साथ ही सामने कोई पचास क़दम दूर परदादा की मस्जिद में सोये हुए अज़ान देने वाले शख़्स को आवाज़ दूँ। लेकिन मेरा बदन कुछ अकड़-सा गया है। आवाज़ के अज़लात (मांस पेशियाँ) (अज़लात भी क्या फि़ज़ूल लफ़्ज़ है, जैसे बहुत सारे मोटे पतले तार झनझना गये हों।) में वह लचक नहीं रह गयी जिसके ज़रिए आवाज़ बनती है।
गर्मी तो कुछ ख़ास नहीं है, लेकिन मेरे सारे बदन मेें, ख़ास कर माथे पर, गिरेबान और बग़ल में अजीब तरह की तरी है। मुझे चाहिये कि उठ कर पसीना सुखाऊँ, हो सके तो कहीं से पंखा झलने के लिये किसी चीज़ का इन्तज़ाम करूँ।
रौशनी अब इस अजनबी के पीछे ही नहीं, उसके चारों तरफ़ भी है। अब मैं उसे अच्छी तरह देख सकता हूँ। ये कम्बख़्त कुछ बोलता क्यों नहीं? दरम्याना क़द, गठा हुआ बदन, सर पर भारी लेकिन मज़बूत बँधी हुई पगड़ी, काले कपड़े की, जिसमें सफ़ेद धारियाँ हैं। बदन पर सूती शलूका, कुछ ऊँचा लेकिन आस्तीनदार। कपड़े का रंग इस वक़्त तै करना मुश्किल है। शलूके पर आधी आस्तीनों का अंगरखा किसी फूलदार मोटे कपड़े का, जै़न के कपड़े का ऊँचा पायजामा, पिण्डलियों पर चुस्त लेकिन कमर के नीचे ढीला। पायजामे की लम्बाई पिण्डलियों के नीचे तक नहीं है। कमर में एक दुपट्टा बहुत तंग कसा हुआ। उसमें एक ख़ंजर या छुरा लगा हुआ। (ये कोई ख़ूनी क़ातिल वगै़रा तो नहीं?) लेकिन ख़ंजर म्यान में है। म्यान बहुत सादा किसी लकड़ी या सींग की बनी हुई है। ख़ंजर का क़ब्ज़ा भी बेल बूटों से ख़ाली है। पाँव में जूतियाँ हैं कि नहीं, पता नहीं लगता। गले में छोटा-सा हार किसी पत्थर का, लेकिन क़ीमती या चमकदार नहीं। मूँछें कुछ कुछ लम्बी लेकिन बहुत घनी नहीं, हाँ मुँह के दोनों तरफ़ उन्हें बल दे रखा था। दाढ़ी एक मुट्ठी से कम लेकिन काफ़ी नुमाँया और तिल चावली। डाकू तो नहीं लगता। और डाकू इस तरह चुपके-चुपके तने तनहा थोड़ा ही आ जाते हैं।
मैंने दोबारा उठना चाहा, लेकिन फि़जूल। आवाज़ भी इस तरह बन्द थी, गला उसी तरह ख़ुश्क था।
‘बन्दगी अर्ज़ करता हूँ हुज़ूर, ख़ाने-दौराँ, आली जाह। मिज़ाज सरकार का कैसा है?’
अजीब सी आवाज़ थी कुछ खोखली सी। लहजा भी हमारी तरफ़ का न था। लेकिन पश्चिमी जि़लों वाला जैसा भी न था। लगता था ये शख़्स मुद्दतों फ़ारसी बोलने वालों के साथ या आस-पास रहा हो। पच्छिम वाले ज़रा ठहर-ठहर कर बोलते हैं। ईरानी, यानी आज के ईरानी, अल्फ़ाज़ को तेज़ी से अदा करते हैं। इस शख़्स की भी अदायगी ज़रा तेज़ थी। हाव भाव बदन में चाटुकारिता के बावजूद लहजे में कुछ ताक़त और सख़्ती थी।
नींद का एक झोंका आया। मेरी आँखें बन्द होती चली गयीं, हवा भी ठण्डी और मीठी हो गयी थी।
दूसरा अध्यायः
ख़ुदावन्दे-आलम सिकन्दर सुल्तान लोधी इब्ने-सिकन्दर सुल्तान लोधी फ़रमाँ रवाँ बीस साल से मुल्के-हिन्दुस्तान, पंजाब, दोआबा-ए-हिन्द और पूरब और बंगाले से बुन्देलखण्ड तक के इलाक़े पर निहायत शान और दिल जमई और इंसाफ़ और इरादे और शान के साथ थे। ये आखि़री बरस (1517) उनकी बाबरकत हुकूमत का था। लेकिन ख़बर किसी को क्या थी कि इक़बाल सिकन्दरी का यह सूरज अब आखि़री किनारे पर है। रोम शहर के आगे पूरब में इस्लामी हुकूमत का केन्द्र, ठण्डक देने वाला शहर, यानी हज़रते देहली को छोड़कर ख़ुदावन्दे आलम ने एक नया शहर ग्वालियर से कुछ ऊपर देहली के दक्षिण में आगरा नाम का सन 1504 में बनवा कर उसे अपनी राजधानी ठहराई थी। ख़ुदावन्दे-आलम का ज़्यादातर वक़्त नये शहर की सजावट और विस्तार में ख़र्च होता था। सारी हुकूमत में दबदबा ख़ुदावन्दे-आलम के बल पर अम्न ओ अमान हर तरफ़ था। कहीं भी, कुछ भी लम्बी चैड़ी शानदार सल्तनत में घटित होता, ख़ुदावन्दे-आलम को पलक मारते में ख़बर उसकी लग जाती थी। लोगों में विश्वास था कि ख़ुदावन्दे-आलम हुज़ूर सुल्तान सिकन्दर के क़ब्ज़े में कई मुअक्किल हैं, जैसाकि कहा जाता है क़ब्ज़े में सिकन्दर ज़ुल्फ़क़रनैन के भी थे। और ये मुअक्किलों सुल्तान सिकन्दर के, उन्हें आगाह और बाख़बर पूरी तरह से रखते थे। किसी को मजाल ज़ुल्म करने की न थी।
मैं गुल मुहम्मद, उम्र कोई पचास साल (सही उम्र वालिदा को मेरी मालूम थी लेकिन अब वह मुद्दत हुई इस दुनिया में नहीं हैं) अपने पूर्वजों के गाँव से बाप अपने के साथ देहली आ गया था। उस वक़्त मेरा लड़कपन था, खुशहाली के दिन थे। बाप ख़ाने जहाँ लोधी जो मशहूर आलम मसनद अली ख़ान के नाम से थे, उनकी डेवढ़ी पर उम्र भर दरबान रहे। मैं अकेली औलाद, खेलने खाने से फ़ुर्सत न मिलती थी। इसलिये बाप मेरे ने मुझे ख़ाने जहाँ के दूसरे नौकरों के बच्चों के साथ हवेली के मौलवी के सुपुर्द कर दिया। इसके बाद उम्र अभी ग्यारह ही बरस की थी कि मुझे ज़माने में मशहूर शेख़ अस्र शाह अल्लाह दिया साहब जौनपुरी के बेटे जिगर बन्द शेख़ भिखारी साहब देहलवी के मदरसे में डाल दिया गया। तीन चार बरस तक मदरसे में ख़ूब कटाई मंझाई हुई। शेख़ भिखारी साहब को तक़रीर से ज़्यादा तहरीर से दिलचस्पी थी, इसलिये असली काम तालीम का उनके शागिर्दों के सुपुर्द था। मैंने जहाँ तक हो सका पढ़ाई मेहनत से की। थोड़ा बहुत लगाव शेरगोई से था, इसलिये मुतव्वल और अलमुअजम और बाद में असरारूल बलाग़ा और एजाज़ अलक़ुरआन और अलबयान वअत्तबईन में थोड़ी बहुत महारत हासिल किया। बाक़ी अक़्ली से हासिल ज्ञान हो या परम्परा से हासिल ज्ञान, एक ज़रा-सा तारों की पहचान का इल्म और फ़ार्म के इल्म के सिवा कुछ मेरे पल्ले न पड़ा।
मैंने हज़रत शेख़ जमाली कंबूह की खि़दमत में हाजि़री देनी शुरू की और शेर कहने की कला के कुछ गुर उनसे हासिल किये। लेकिन मुझमें कमाल शेरगोई का हक़ीक़त में न था। एक दिन मेरी ग़ज़ल को काटते हुए उन्होंने फ़रमाया।
‘मियाँ साहब, तुम शाइर नहीं हो सकते, मैं देख रहा हूँ तुम्हारा शौक़ तैराकी और कुश्ती में है, तुम्हारे लिये सिपहगिरी का पेशा ठीक रहेगा।’
मुझे बुरा तो बहुत लागा। अफ़सोस भी बेहद हुआ, लेकिन इसको क्या कीजिए कि हज़रत शेख़ ने मुझे बहुत बार जमुना के किनारे पर पतंग उड़ाते, या बाबा सुल्तान जी साहब की बाउली में तैराकी करते, या उस्ताद भूपति राय माहिर कुश्तीगीरी की खि़दमत में हाजि़र होते भी देखा था। बसन्त फूलती या मीलाद शरीफ़ के दिन आते या होली का त्योहार होता, मैं हर उस जगह मौजूद रहता जहाँ सैर और गुलछर्रों के मौक़े उपलब्ध होते। हज़रत शेख़ का आना जाना कहाँ न था, तुग़लक़ाबाद से लेकर कोटला फि़रोज़शाह तक उनके शागिर्द फैले हुए थे। सुबह से शाम तक वह अपनी पालकी में शहर की सैर करते या शागिर्दों और अक़ीदतमन्दों के दीवान ख़ानों में शेर ओ सुख़न की महफि़लों के सद्र मजलिस होते। उन्हें ख़ूब मालूम था कि बन्दा नहीं टलने वाला गुल मोहम्मद जैसा था, अपने शौक़ और अपने लहू व आदतों को छोड़ने वाला मैं न था।
इस तरह न तो मैं शाइर बन सका, न ही विद्वान। बस ये ज़रूर था कि अरबी-फ़ारसी का हल्का फुल्का ज्ञान, थोड़ा बहुत गणित का ज्ञान, जो मैं हासिल कर सका था, मेरे बहुत काम आया। अपने खिलन्दरे दोस्तों में तो मैं मौलाना गुल मुहम्मद देहलवी के नाम से मशहूर हो गया था। बाप का घर सोने और खाने के लिये, और देहली का शहर सैर सपाटों और खेल कूद के लिये, फिर और क्या चहिए था। ये ज़रूर है कि बाप ने शादी मेरी बरस अट्ठारह की उम्र में कर दी। बीबी और गृहस्थी से लगाव मुझे इतना ही था जितना किसी ऐसे जवान को होता है जिसे शहर की हवा लग गयी हो।
बाप के होते फि़क्र बाल बच्चों की किसे होती। कभी कभी तीज त्योहार के ज़माने में घर हो लिये, घर वाली के लिये शीराज़ी जूतियाँ, भागलपुरी नैनू और बनारसी कमख़्वाब हाथ में गठरी में बाँधे, बच्चों के लिये मथुरा और बदाऊँ के पेड़े, जो देहली में ख़ूब मिलते थे। हाण्डियों में रखवाये और चाँद निकलने के कुछ पहले घर पहुँच लिये। मेरी शादी के तीसरे साल बाप ने अचानक मर्जे़-फिरंग में जान दी। फि़रंगी तो हमारे यहाँ दूर-दूर तक न था। लेकिन कहते हैं कि अब से दूर एक बार सारे मुल्के-फि़रंग में मर्ज़ प्लेग का फैला और ऐसा फैला कि मुसाफि़रों, या शायद जिन्नातों और शैतानों के माध्यम से पूरब के शहरोें में भी जगह-जगह ठहर गया हो। तब से हर दो चार साल बाद किसी न किसी इलाक़े में हिन्दुस्तान के ये ख़तरनाक मर्ज़ फूट पड़ता और सैकड़ों जानें लेकर ही जाता। उस वक़्त से लोग प्लेग को मर्ज़े फि़रंग कहने लगे।
एक वचन ये भी है कि दरअसल मर्जे़ आतश्क मर्जे़-फि़रंग है, क्योंकि यह बला भी उन्हीं दयार और शहरों से हम तक पहँुची थी। लेकिन ये वचन ज़्यादा सच्चा नहीं है। मैंने सुना है कि शैख़ुर्रईस और इमाम राज़ी की किताबों में भी जि़क्र आतश्क का है। इस तरह आतश्क की सूरत को मर्ज़े फि़रंग क्योंकर कोई कहवे।
बाप के मरने का ग़म मैंने बहुत किया। और दूसरा उतना ही बड़ा ग़म रोज़गार हासिल करना और ख़ानदान की परवरिश करना था। कई मेरे मरहूम बाप की नौकरी और वसीले के रिश्ते यहाँ भी काम आये। ख़ाने जहाँ लोधी ने जब मेरी बदहाली सुनी और देखी तो मुझे ख़ाने दौराँ असद ख़ान इब्ने मुबारक ख़ान की टुकड़ी में अहदी बहाल करा दिया।
सुन रहे हो साहब, आप सुन रहे हो न?
‘हाँ सुन रहा हूँ,’ मैंने लापरवाही से कहा और दूसरी करवट सो गया। या शायद सोने की कोशिश करने लगा। रात कुछ ठण्डी-सी हो रही थी। मैंने बिस्तर की चादर में ख़ुद को लपेट लेने की कोशिश की।
अहदी से आपको ये गुमान न हो कि मैं मुग़ल बादशाह जलालुद्दीन अकबर के ज़माने के अहदियों में शामिल हो गया। अकबर बादशाह उस वक़्त कहाँ था। और अकबर के अहदी तो यूँ समझिए आपके वज़ीफ़ा पाने वाले कि़स्म के शख़्स थे, मुफ़्त की रोटी तोड़ते थे। ख़ुदावन्दे-आलम सुल्तान सिकन्दर इब्ने सुल्तान सिकन्दर के अहदी फ़ौजी होते थे। सुल्तान के हर वक़्त के जाँनिसार और दिन रात सीना सुपुर करने को तैयार। हमें अपना घोड़ा, अपनी ढाल तलवार, ख़ंजर, फ़ौजी कपड़े और असलहा की देख भाल का इन्तज़ाम ख़ुद करना पड़ता था। इसके बदले ख़ुदावन्दे-आलम के दरबार से माहाना दर से रक़म मिलती थी। और सर छुपाने को ख़ेमा या बड़े बड़े घर मिलते थे जिनमें दस दस या और भी ज़्यादा अहदियों के सोने का इन्तज़ाम रहता था।
कहने को मैं नौकर था ख़ाने दौराँ असद ख़ान इब्ने-मुबारक ख़ान का, लेकिन दर हक़ीक़त आक़ा मेरा ख़ुदावन्दे-सुल्तान सिकन्दर था। ख़ाने दौराँ की जि़म्मेदारी सिफऱ् इतनी थी कि बख़्शी फ़ौज तक मुझे पहँुचाना और इस बात की ज़मानत कोतवाल के सामने लेना कि मैं बदमाशों में से न था और न कभी मैंने साथ किसी भी हुकूमत के बाग़ी का दिया था। अगर मुझसे कोई जुर्म होता, या मैं फ़जऱ् को अदा करने में लापरवाह पाया जाता तो पहली जवाबदेही उन्हीं की थी। मुझे जो सज़ा मिलनी थी वह तो मिलती ही।
जब मेरा बाप इस दुनिया से सिधारा तो सुल्तान ख़ुदावन्दे-आलम इब्ने सुल्तान सिकन्दर लोधी को तख़्ते-सुल्तानी पर बैठे हुए दस साल हो चुके थे। चार दाँगे-आलम में सुल्तान का दबदबा था। सल्तनत के दबाव की शोहरत और सिक्का और ऐलानों का पालन हिन्द से सिन्ध तक, पँजाब से बंगाल तक और देहली से धूर समुद्रा था। सुल्तान की हक़ परस्ती और इंसाफ़ परस्ती की एक घटना उन दिनों हर ख़ास ओ आम की ज़ुबान पर थी। कि संभल के इलाक़े में एक ग़रीब किसान को अपने खेत में एक दिन एक कांसे का घड़ा मिला जिसमें सुल्तान अलाउद्दीन के ज़माने की पाँच सौ सुल्तानियाँ, यानी सोने के सिक्के थे। संभल के सूबे के हाकिम को मालूम हुआ तो उसने फ़ौरन सुल्तानियाँ ज़ब्त कर लीं। बेचारा किसान सुल्तान के दरबार में किसी न किसी तौर हाजि़र हुआ और उसने अजऱ्ी की तो संभल के हाकिम से जवाब माँगा गया। उस बदकि़स्मत ने हुकूमत के सामने ये जवाब भेजा कि ख़ुदावन्दे-आलम की पाक खि़दमत में अजऱ् किया जाए कि वह किसान निकम्मा शख़्स है और हरगिज़ लायक़ और हक़दार इस ख़ज़ाने का नहीं।
ख़ुदावन्दे-आलम ने फ़रमान सादिर फ़रमाया कि ऐ अहमक़, जिसने ये ख़ज़ाना इस ग़रीब को दिया है वह मुझसे और तुझसे ज़्यादा जानने वाला है कि कौन किस मेहरबानी का हक़दार है। अशरफि़याँ उस ग़रीब को फ़ौरन फेर दी जाएँ वर्ना सुल्तान के ग़ज़ब की आग तुझे दम के दम में नर्म बिस्तर से ज़मीन के गर्म बिस्तर पर सुला देगी। संभल का हाकिम इतना शर्मिंदा हुआ कि अशफिऱ्यों की गागर ख़ुद लिये हुए उस किसान बच्चे की झोंपड़ी पर पहुँच गया और सौ तिनके अपनी तरफ़ से दे कर उसने किसान से राज़ी नामा लिखवाया।
एक बार थानेसर के इलाके़ से ख़बर आयी कि हिन्दुओं ने एक एक प्राचीन तालाब का नव निर्माण करके वहाँ मेला एक हर महीने लगाना शुरू किया है और पूजा पाठ भी करते हैं और घण्टा और शंख भी बजते हैं। बस इस सन्दर्भ में सुल्तान का हुक्म क्या सादिर होता है? सुल्ताने वाला शान ने सबसे बड़े मुफ़्ती से मशविरा करके फ़रमान लिखवाया कि वह अपने मज़हब पर हैं, इसलिये जब तक उनके विश्वास और परम्परा की वजह से कोई ख़तरा अम्न ओ अमान के लिये न हो, उनसे हरगिज़ कुछ एतराज़ न किया जाए।
सल्तनत के इन्तज़ाम में हुशियारी और ख़बरदारी की ग़रज़ से हज़रते देहली और उसके आस पास में अस्सी हज़ार हथियार बन्द फ़ौज हर वक़्त तैयार रहती थी। कहीं से ज़रा भी बदअम्नी की ख़बर आयी सुल्तान के फ़ौजी हरकत में आ गये। तुग़लक़ाबाद, ग़यासपुर, बेग़मपुरा, सीरी और केलूखेड़ी जो सल्तनत के पुराने शहर थे। इन सबमें मैदान विस्तृत मैदान व ऊँचा व फैला हुआ देख कर फ़ौजों के ख़ेमों के लिये मुक़र्रर कर दिये गये थे। मैं जिस फ़ौज में था वह ग़यासपुर से ज़रा और किनारे जमुना पर निवास करती थी। इस नदी को जिनने देखा है वही इसके विशाल पाट का अंदाज़ा लगा सकते हैं। बरसातों में नदी पर महासागर का गुमान होने लगता। ग़ाजि़याबाद में हिण्डन के दूसरे किनारे से कुछ आगे दक्षिण की तरफ़ से लेकर और ओखले तक सारा इलाक़ा पानी से भर जाता। इसी बुनियाद पर इस इलाक़े को ख़ल्क़े अल्लाह व्यंग से पटपड़गंज कहने लगी थी, हालाँकि वहाँ मच्छरों, पिस्सुओं, जोंकों और दूसरे नुक़सान देह कीड़ों के सिवा गंज (ख़जाना) के नाम पर कुछ न था।
वल्लाह, वह भी क्या ज़माने थे। बारह बरस में मेरी माहाना तनख़्वाह बारह तिनके से बढ़ते-बढ़ते बीस हो गयी थी। उस ज़माने में पाँच तिनका माहाना ख़र्च करने वाले उजले ख़र्च से रहते थे। सुल्तान बहलोल लोदी को अल्लाह बख़्शे, उनका जारी किया हुआ ताँबे का सिक्का बहलोली कहलाता था। वह अब भी चलता था और उसमें ताक़त इतनी थी कि आदमी यहाँ से कोल तक का सफ़र अपने घोड़े के साथ करता तो एक बहलोल उसके लिये काफ़ी होता। मुझे अपने घोड़े के साज़ ओ सामान, घोड़े की देखभाल करने वाला, हथियारों की देखभाल पर बहुत ख़र्च करना पड़ता था, फिर भी मैं हर महीने तीन से चार तिनके घर भिजवा दिया करता था। शराब की लत मुझे न थी, लेकिन बाज़ारों और रण्डियों पर कुछ ख़र्च तो लाजि़म ही आता था और ऐसी महफि़लों में कुछ शराब कुछ नक़्ल तो बहरहाल ज़रूरतों में थी। मौलाना गुल मोहम्मद अब ज़रा पीछे छूट गये थे और गुल मोहम्मद हथियारबन्द सिपाही कुछ आगे आ गये थे।
अब सुल्तान सिकन्दर का ये इक्कीसवाँ जुलूस का सन था। मेरी बेटी बारह बरस की होकर तेरहवीं में लगी थी। घर से ख़बर आयी कि उसकी सगाई और फिर ब्याह आने वाली बरसात से पहले हो जाए तो ख़ूब हो। मुझे बुलाया गया था कि जाकर सब मामलात तै कर दूँ। हालाँकि ख़ुदावन्दे आलम सुल्तान सिकन्दर इब्ने सुल्तान सिकन्दर ने शरीअत शरीफ़ की पाबन्दी पर बहुत कुछ ज़ोर दिया था, लेकिन हम उन तरफ़ों के गँवार मुसलमानों में हिन्दुओं की बूबास अभी बहुत कुछ बाक़ी थी। जुमा के सिवा हर दिन हम लोग हिन्दुआनी धोती पहनते थे। जुमे को अलबत्ता दूबर का ढीला सफ़ेद पायजामा गाढ़े का और महमूदी का कुर्ता पहना जाता था। हमारी औरतें घर से बाहर निकलती थीं लेकिन लम्बा घूँघट काढ़ कर। हर घर में एक सन्दूक़ था जिसमें दीवाली और दशहरे और ईद बक़रीद शबबरात के लिये सँभाल कर रखा जाता था। शादी की रस्में बहुत कुछ हिन्दुआना थीं। कन्यादान या दहेज़ की सूरत न थी लेकिन लड़के वाले शादी से पहले मंँगनी लेकर ज़रूर आते और इस मौक़े पर शादी से कुछ ही कम ख़र्च होता। निकाह के बाद रूख़सती (जिसे हम लोग गौन या गौना कहते थे) अक्सर बहुत देर से होती थी। हिन्दुओं की तरह हमारे यहाँ बचपन की शादी की परम्परा तो न थी लेकिन मँगनी फिर निकाह फिर गौन की रस्में कुछ न कुछ समयान्तराल से होती थीं।
जेठ निकल कर अषाढ़ आने वाला था जब मैंने घर जाने का इरादा किया। तीन साढ़े तीन सौ तिनकों का इन्तज़ाम मैंने कर लिया था कि शादी के ख़र्च इससे भला कम क्या होंगे। इरादा था कि शाम होने से पहले लेकिन अस्र के बाद चल निकलूँ कि मौसम ठण्डा हो चुका होगा। एक मंजि़ल करते-करते सूरज डूबने लगेगा, कहीं कोई अच्छी सराए देख कर रात गुज़ार लूँगा और सुबह ठण्डे-ठण्डे अपने गाँव नंगल ख़ुर्द पहुँच लूँगा। सफ़र का सामान बहुत थोड़ा रखा, तोहफ़ा वगै़रह की ज़रूरत न थी कि सारा सामान शादी और शादी की दूसरी रस्मों के लिहाज़ से घर की औरतों ही को ख़रीद करना था। सवारी के लिये घोड़ा था ही, और कुछ ज़रूरत सिपाही को न थी। मेरा रास्ता नहरे-फि़रोज़ शाही के बाएँ किनारे से लगा हुआ कई कोस चल कर फिर नहर से कट जाता था।
वज़ीरपुर पर नहर फि़रोज़शाही ख़ुद ही मुड़ कर करनाल और हिसार की तरफ़ रवाँ हो जाती थी। दोनों तरफ़ घने पेड़ और आती बरसात के बादलों की धँुधली रौशनी ने नहर के दोनों तरफ़ अर्धअन्धकार सा पैदा कर दिया था। एक जगह मोड़ इतना ज़्यादा था कि मोड़ के पहले और बाद के दोनों सिरे नज़र न आते थे। मोड़ में दाखि़ल हो जाएँ तो जैसे दोनों तरफ़ की राह बन्द हो जाती थी। लेकिन ख़तरा कोई न था। हुकूमत में सुल्ताने वाला शान की राहें सब सुरक्षित थीं। और ये जगह तो हज़रते देहली से कोई पाँच ही छः करोह थी। दर हक़ीक़त मेरे लिये जगह रात के पड़ाव की यहाँ से बहुत दूर न थी। मैं घोड़े पर सवार गुनगुनाता दुलकी चलता चला जा रहा था। सामने एक पुलिया थी जिसके नीचे नाला अभी सूखा था। पुलिया के दूसरी तरफ़ एक बुढि़या, निहायत तबाह हाल नज़र आयी, मुझे देखते ही उसने कुछ दुआ देने वाले लहजे में मगर ज़रा बुलन्द आवाज़ में पुकारा।
अकेले दुकेले का अल्लाह बेली!
फिर उसने बहुत ग़रीबी भरे लेकिन फिर भी तेज़ आवाज़ में मुझसे कहाः
अल्लाह की राह में कुछ दे दो बेटा। बेवा दुखिया पर तरस खाओ।
मैंने सोचा, सफ़र में हूँ, नेक काम के लिये जा रहा हूँ, इस वक़्त इसे कुछ दे दूँ तो नेक शगुन होगा। फिर मैंने घोड़ा धीमा किया, रास को बुढि़या की तरफ़ मोड़ कर झुका, शलूके की जेब में हाथ डाला कि कुछ निकाल कर बुढि़या को दे दूँ। एक बार किसी ने मुझे पीछे से धक्का दिया। मैं गु़स्से में उसकी तरफ़ मुड़ कर गाली देने वाला था कि किसी और ने एक धक्का और दिया। मैं बेक़ाबू होकर बाईं तरफ़ को लड़खड़ाया। घोड़ा लड़खड़ाने लगा। रास मेरे हाथ से निकल गयी। घोड़ा लड़खड़ाकर किधर गया, ये मैं न देख सका कि किसी ने इतनी देर में मेरे सर पर काला कपड़ा डाल कर मुझे अन्धा कर दिया। कपड़ा इतना मोटा और पसीने की बदबू से भरा हुआ था कि मुझे उबकाई आ गयी और मेरी साँस रुकने लगी। कपड़ा फ़ौरन मेरी गरदन पर कस दिया गया तो मैं समझा कि ये बटमार हैं। जान न बचेगी, मेरी बेटी का क्या होगा। मैंने कमर से ख़जर निकालना चाहा कि एक दो को ख़त्म ही कर दूँ। ये क़र्म साक़ नहीं जानते कि किसके घर बयाना दिया है। एक दो को तो मार ही कर मरूँगा।
मेरी साँस अब बिलकुल ही रुकी जा रही थी। उबकाइयों और ख़ंजर निकालने के लिये हाथ-पाँव मारने की कोशिश में साँस टूटी जाती थी। मैंने पूरी ताक़त से चिल्लाकर उन हरामज़ादों को माँ की गाली देनी चाही लेकिन अब तक मेरी मश्कें भी कस ली गयी थीं। फिर टाँगें बाँध कर मुझे ऐसा बना दिया गया था जैसे बकरे को जि़बह करके उसकी टाँगें बाँध कर कहीं और ले जाते हैं। मेरी कमर में मियानी बँधी हुई थी। उसे निहायत सफ़ाई से काट कर निकाल लिया गया। घोड़े के हिनहिनाने की आवाज़ सुनायी दी, फिर किसी ने उसको चुमकारा और चुप किया। घोड़ों की चोरी में भी ज़ालिम इस ग़ज़ब के तजुर्बेकार थे कि देखने में घोड़ा भी पलक झपकते में राम हो गया। सारा काम मुकम्मल ख़ामोशी में हुआ था। फिर मेरे सर पर से कपड़ा खींच लिया गया लेकिन इसके पहले कि मैं कुछ कर सकता, मेरे मुँह में एक और कपड़ा, पहले से भी ज़्यादा बदबूदार घुटनभरा, ठूँस कर साथ ही साथ आँखों पर पट्टी बाँध दी गयी। फिर कुछ दौड़ते हुए क़दमों और घोड़े की हल्की टाप की आवाज़। दोनों आवाज़ें बहुत जल्द मद्धम होकर ग़ायब हो गयीं। किसी के साँस लेने की भी आवाज़ न सुनायी दे रही थी, बात करने या खँासने खंखारने या हँसने की तो बात ही क्या थी। मैं ये तो समझ ही गया कि ये दूसरे दजऱ्े के तजुर्बेकार बटमार हैं और वह बुढि़या उनसे मिली हुई थी। लेकिन ये भी था कि वह मुझे जान से मारना न चाहते थे। उनका मंशा महज़ ये थी कि मुझे बग़ैर हाथ पाँव का करके छोड़ दें और इतनी दूर निकल जाएँ कि मैं उनका पीछा न कर सकूँ और न किसी को ख़बर उनके बारे में कर सकूँ।
मुझे अफ़सोस से बढ़कर गुस्सा था कि मैं सारी दुनिया में माने हुए सुल्तान की सारी दुनिया में मानी हुई फ़ौज का सिपाही और यूँ किसी कछुए की तरह पकड़ लिया जाऊँ कि रक्षा अपनी में एक वार भी न कर सकूँ। लानत है ऐसी सिपहगिरी पर, थू है ऐसी सुल्तानी पर कि जनता यूँ बेखटके दिन दहाड़े लुट जाए। मैं यहाँ यूँ ही मजबूर पड़ा रहा तो क्या पता रात में किसी जानलेवा जानवर का शिकार हो जाऊँ। क्या ख़बर मुझे कोई और बटमार क़त्ल करके जो कुछ मेरे बदन पर कपड़े और थैली में सत्तू और जलेबियाँ हैं और शलूके की जेब में चन्द सिक्के बहलोली हैं उन्हें भी लेकर चम्पत हो जाए। मैंने चीख़ना चाहा, लेकिन बदबूदार कपड़ा मेरे हलक़ तक यूँ ठुँसा हुआ था कि मैं अगर बोलने की कोशिश में मुँह या हलक़ पर कुछ ज़्यादा ज़ोर डालता तो कपड़ा शायद मेरे हलक़ के अन्दर ही उतर जाता। वक़्त कितना गुज़र गया था, मुझे इसका कुछ इल्म न था। मग़रिब (सूरज डूबने पर होने पर होने वाली नमाज़) तो हो ही चुकी थी। लेकिन कहीं दूर से भी अज़ान की आवाज़ या मन्दिरों में घण्टे की पुकार, या चराग़ाह से वापस होते किसान या चरवाहे के साथ मवेशियों के रेवड़ों की घण्टियों की आवाज़ कुछ भी न सुनायी देती थी। दाना दुन्का चुनकर अपने घोंसलों को लौटने वाली चिडि़यों के झुण्ड अगर थे तो या तो अभी वापस न हो रहे थे या वह भी शाम की तनहा लालिमा में चिपचिपाते निकल गये थे। या अगर आवाज़ कोई सुनाई देने वाली थी भी तो ज़ोर से चिल्लाने की कोशिश से मेरे कानों में साएँ-साएँ इतना ज़्यादा होने लगी थी कि कुछ सुन लेना मुश्किल था।
क्या बहुत देर हो गयी थी? क्या अब कोई आने वाला नहीं है? अभी अभी मैंने शेर की दहाड़ सुनी थी क्या? शेर तो इस इलाक़े में थे नहीं, हाँ गुलदार बहुत थे। गुलदार तो जमुना के किनारे की कछारों में देहली से करनाल तक छोटे साँडों की तरह बेरोक टोक घूमते थे। और भेडि़ये भी। गुलदारों की तो हिम्मतें इतनी खुली हुई थीं कि देहली के आसपास में जो आबादियाँ घर बदलने की वजह से ज़रा छिदरी हो जातीं, उनके ख़ाली घरों में गुलदार आबाद हो जाया करते थे। यहाँ तो मैं जमुना के किनारे से दूर था। सुल्तान फि़रोज़ शाह स्वर्गीय ने ये नहर बनवायी ही इसीलिये थी कि जमुना का पानी जिन इलाक़ों में पहुँचता नहीं है वहाँ इस नहर के ज़रिए पहुँच जाए। लेकिन यहाँ भी अब दरख़्तों के घनी छाया और नहर की नमी ने कछार जैसा माहौल बना दिया था। सुल्तान फि़रोज़ को अल्लाह ने जन्नत में ऊँचा स्थान ज़रूर दिया होगा। उन्होंने इस रास्ते में, और कोल की राह में जगह जगह शाही सराएँ बनवायी थीं जहाँ कोई भी मुसाफि़र कुछ रक़म दिये बगै़र ठहर सकता था। और अच्छा ही था कि उन्होंने ये हुक्म दिया था कि सरायों का ख़र्च तमाम ख़ज़ान-ए-सुल्तानी से अदा हो, वर्ना मुझ जैसे लुटे पिटे मुसाफि़र को तो राह में एक वक़्त की रोटी और सर छुपाने के लिये छत के लाले पड़ जाते।
मैंने बहुत चाहा कि राह के किसी पत्थर से रगड़ कर अपने हाथों को बन्दिश से आज़ाद कर लूँ। लेकिन एक तो इस अँधेरे में पत्थर कहाँ मिलता, फिर मेरी आँखों पर अँधेरी जो चढ़ी हुई थी और हाथ पीठ पर बँधे हुए थे। पाँव के बन्द को रगड़ कर काटने की कोशिश में जगह जगह ख़राशों के सिवा कुछ हाथ न लगा था। क्या सब लोगों को ख़बर हो गयी थी कि ये राह बटमारों ने हथिया ली है और शाम ढले आना इधर उन्होंने छोड़ दिया था? कुत्ते भी न भौंकते थे, या शायद गीदड़ों का एक झुण्ड कहीं खेत में शोर मचा रहा था। कभी कभी चीन मुल्क के राजदूत हमारे मुल्क में आते थे तो उनके सिपाहियों से मैं सुनता था कि उनके यहाँ हर्ब के उसूल के विशेषज्ञों ने कुछ ऐसा फ़न ईजाद किया है कि जब हाथों और पाँव को उनके बाँधते हैं तो वह बदन को अपने कुछ इस तरह फैला लेते हैं कि कैसा ही बन्द हो, बँधने के बाद ढीला हो जाता है क्योंकि बदन फिर अपनी हालते असली पर आ जाता है। इस तरह अगर कभी उन्हें कोई बाँध कर बिलकुल बेचारा भी कर दे तो वह बन्धनों के ढीला होने के कारण, ख़ुद को ज़रा-सी कोशिश के बाद रिहा करा लेते हैं। अफ़सोस कि मुझे वह फ़न आता न था और अगर आता भी क्या होता? मैं तो बेख़बरी में मार लिया गया था।
रात तो बेशक हो चुकी होगी। कहीं दरख़्तों के पीछू कुछ खुसुर-पुसुर तो नहीं हो रही है? कहीं वह हरामी वापस तो नहीं आ रहे हैं? ये कुछ आवाज़-सी कैसी है? मैंने बहुत ग़ौर से सुनना चाहा, लेकिन कानों में कुछ साएँ साएँ अब भी हो रही थी। हाँ, ये कुछ नयी-सी आवाज़ थी। ठहर ठहर कर आ रही थी। कहीं किसी मन्दिर में घण्टा तो नहीं बज रहा? नहीं, ये तो गहरी और दूर तक फैलने वाली आवाज़ थी। टन... टनन... टन... ज़रा रुक रुक कर... कोई हाथी सवार इधर आ रहा था... मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा। शायद मेरी जान बच ही जाएगी। हाथी की घण्टियों की आवाज़ नज़दीक आयी, आहिस्ता हुई ठहर गयी।
‘मोअतबर सिंह, ज़रा देखना। ये राह में क्या पड़ा हुआ है?’ मज़बूत, ठहरी हुई आवाज़, लेकिन किसी फ़ौजी ओहदेदार या शाही कारिन्दे की नहीं, बल्कि किसी ऐसे शख़्स की थी जो ऐश ओ इशरत में पला बढ़ा रईसज़ादा हो। ‘नहीं, अभी उतरो नहीं, पास से देखो।’
मैंने हाथ पाँव हिलाने की कोशिश और तेज़कर दी कि महावत समझ ले कि मैं जि़न्दा हूँ।
‘आलीजाह, लगता है डाकुओं ने किसी को घायल करके डाल दिया है।’ बहुत ही अदब लेकिन कुछ डरी डरी-सी आवाज़ आयी।
‘अच्छा? कोई ज़ख़्मी है? हाँ शायद इसका कोई दुशमन इसे यहाँ नहर में फेकने ला रहा था, हमको देखकर भाग निकला। हाथी ज़रा और पास ले चलो।’
‘हुजू़र कहीं कोई चाल इसमें न हो,’ आवाज़ अब और भी डरी हुई-सी थी ‘ऐसा तो नहीं कि हमें ही धोखे से कुछ.... कुछ कर डालने का चक्कर हो.... या...’
मैंने अपनी कशमकश और तेज़ कर दी। इस बार मैं कुछ गीं गीं सी आवाज़ निकालने में भी कामयाब हो गया।
‘चाल? चाल भला इसमें क्या होगी? तुम भी अजब थड़ोले आदमी हो, मोतबर सिंह। हम हाथी सेे उतरेंगे नहीं तो हमें कोई कुछ क्या कर देगा। और अगर तीर का निशाना बनाना होता तो अब लग कई तीर चल चुके होते। चलो, नीचे उतरो। इस ग़रीब की हालत मालूम करो।’
‘सरकार.... ’ मोतबर सिंह के लहजे में कुछ शक और बहुत सारा डर था।
मैं अपनी ग़ीं ग़ीं और तेज़ करने की कोशिश कर रहा था।
‘ऐ मियाँ तुम बिलकुल ही बोदे निकले। अच्छा यूँ करो। हाथी को ज़रा और आगे ले जाकर कहो कि सूँड से इस आदमी को उठाकर ऊपर मेरे पास ले आओ। चलो, शाबाश।’
मोतबर सिंह ने हाथी को कुछ आगे बढ़ाया, लेकिन कितना, इसका मुझे अंदाज़ा न हो सका। लेकिन मोतबर सिंह ने हाथी से सरगोशी में कुछ कहा, और कई बार कहा। फिर मुझे लगा कि कोई बहुत ही ताक़तवर और कई गज़ लम्बा मोटा अजगर मुझे बाँह कर लपेट कर बिलों में अपने उठाये लिये जा रहा है। मैंने सहम कर ख़ुद को छोटा करने की कोशिश की, लेकिन कहाँ मैं और कहाँ वह ज़बरदस्त बादलों जैसा ज़ोर। आन की आन में हाथी ने मुझे रईस के हौदे के आगे महावत और मालिक के बीच की जगह में धाँस दिया। बला से जगह तंग थी लेकिन अब मैं जान जाने से बच निकला था।
मोतबर सिंह ने, या शायद मालिक ने भी उसका हाथ बटाया, मुझे आसानी से इस सड़ाँध से भरे और शायद तेल और थूक से भी चिकटे हुए मेरे हलक़ में ठँसे हुए कपड़े और आँख की पट्टी से आज़ाद कर लिया गया। हालाँकि मुझे अपनी आवाज़ दोबारा हासिल करने में कुछ वक़्त लगा। थूक को मुश्किल से घँूटते हुए मैंने हाथी सवार के सवाल के जवाब में मुख़्तसर लफ़्ज़ों में अपनी बिपदा कह सुनायी।
‘तो सिपाही जी, तुम दोहरे ख़ुशनसीब थे। उन भड़वों ने तुम्हें जि़न्दा छोड़ दिया और फिर हम इधर आ निकले।’
‘बन्दे का बाल बाल आपके एहसान से गुँधा रहेगा। मैं तो समझा था कि शेर भेडि़या कोई न कोई मुझे खा ही लेगा।’
‘ख़ैर, मुसीबत तो आयी थी मगर बच गये . . . हुआ सो हुआ। मैं बहादुर गढ़ जा रहा हूँ। वहाँ तक आसानी से तुम्हें पहुँचा दूँगा। आगे तुम्हारा जो जी चाहे। बहादुर गढ़ में भी रात गुज़ारने का इन्तज़ाम हो सकता है।’
‘बन्दा परवरी है आपकी। बहादुरगढ़ तक बहुत ठीक रहेगा अगर हिफ़ाज़त में जनाब की चला चलूँ। कल सुबह देहली वापस चला जाऊँगा।’ मैंने ठण्डी साँस भरी और दिल में उबलते हुए रंज को दबाते हुए कहा।
‘बहुत मुनासिब। मोतबर सिंह आगे बढ़ो। और हाँ, सिपाही गुल मोहम्मद, एक बार ख़ूब ग़ौर से देख लो, कुछ तुम्हारा यहाँ छुट तो नहीं रहा?’
‘छूटने को अब क्या रहा है जनाब। बन्दगाने-हुज़ूर ने जान बचा ली, मैं इसी पर ख़ुश हूँ। हाथी को आगे बढ़ने का हुक्म फ़रमाएँ।’
रास्ते में मालूम हुआ कि हाथी सवार का नाम स्वामी रघुराज बहादुर सिंह था। वह अपने किसी रिश्तेदार की शादी में शामिल होने की ग़रज़ से बहादुर गढ़ के कहीं आगे तशरीफ़ ले जा रहे थे। बहादुर गढ़ में उन्होंने मुझे एक सराए के सामने उतार दिया। दोबारा बन्दगी और शुक्रिया अदा करके मैंने उनसे विदाई ली।
अगले दिन मैं देहली आ गया। मेरे शलूके में चार छः बहलोली जो बचे रह गये थे वह ख़र्च के लिये काफ़ी से ज़्यादा थे। एक बहलोली में सोला तिनके और एक तिनके में चैंसठ छदाम होते थे। मैंने एक बहलोली भुनायी और सराए के ख़र्च और बैलगाड़ी के सफ़र के ख़र्च बहुत आसानी से अदा किये। बैलगाड़ी में मेरे साथ चार मुसाफि़र थे। ख़ुदा का शुक्र भेजता हूँ कि उनमें से किसी को जिज्ञासा और कुरेद की बीमारी बहुत न थी। न उन्होंने पूछा कि मैं बहादुरगढ़ किस आयोजन में आया था और न मैंने ज़ाहिर किया।
तीसरा अध्यायः
देहली में कुछ न बदला था। मेरी ही मति बदल गयी थी। मैं तीन साढ़े तीन सौ तिनके का इन्तज़ाम इतनी जल्द कहाँ से करता? मेरे साथी सिपाही मुझसे ज़्यादा ख़र्चीले और ख़ाली हाथ थे। ख़ानेदौराँ उन दिनों ख़ुदावन्दे-आलम के अन्तिम संस्कार में आगरे में तशरीफ़ रखते थे। ख़ाने-जहाँ शायद किसी मुहिम पर गये हुए थे। उन्हीं दोनों से मुझे कुछ उम्मीद हो सकती थी। भिखारी शाह साहब से कुछ मदद मिल सकती थी, लेकिन कहते शर्म आती थी कि खि़दमत उस्ताद की करने की जगह उन्हीं से खि़दमत लूँ। और सिपहगिरी में आने के बाद आना जाना भी मेरा तरफ़ मदरसे के बहुत कम हो गया था। और ये भी था कि मैं मोटा मुशटण्डा हथियारबन्द सिपाही, चार को मार के फिर कहीं चोट खाने का दावा रखने वाला, और इतनी आसानी से चन्द बेहक़ीक़त डकैतों का शिकार हो जाऊँ, ये तो मुँह छिपाने की बात थी न कि हर किसी से बताने की।
दिन बहुत चढ़ आया था जब मैं अपने ख़ेमे में पहुँचा। ख़ुशकि़स्मती से कम ही लोग उस वक़्त बाहर दिखायी देते थे। मुमकिन है नवाब के यहाँ हाजि़री के लिये बुलाये गये हों। मैंने अपने ख़ेमे मेें क़दम रखा था कि मेरे क़रीबी दोस्त मोहम्मद आलम बिहारी ने पुकारा कि ‘ओए तू यहाँ कैसे? तुझे तो नंगल ख़ुर्द में होना था।’
मजबूरन मैंने उसकी तरफ़ निगाह की। वह अपनी चैकी पर कुछ लेटा कुछ बैठा हुआ था। उसके हाथ में लम्बी-सी तस्बीह थी।
‘मोहम्मद आलम, तुम? अभी तक बाहर नहीं गये? जी तुम्हारा माँदा है क्या?’
‘नहीं, सब ठीक है। मैंने एक मिन्नत मानी थी उसे ही पूरी करने में लगा हूँ। मगर तुम वापस कैसे आ गये? सब ख़ैर तो है?’
‘मेरे मेहरबान, ख़ैर होती तो यहाँ क्यों होता। मैं तो लुट लुटा कर घर आ गया।’
‘अजी बुझौलें क्यों बुझाते हो, बताओ क्या गुज़री तुम पर?’
जबरन सारा कि़स्सा आलम को सुना दिया। मगर मेरी कहानी ख़त्म होने के पहले ही वह बोल उठाः
‘अरे रे रे, अरे रे रे, तो तुम उस शैतान बुढि़या और उसके तीनों इबलीस बच्चों के हाथ पड़ गये। अजी मैं समझे हुए था तुम उनके बारे में जानते हो। यहाँ का तो बच्चा बच्चा जाने है...’
‘अजी क्या जाने है? तुम यूँ ही अमीर ख़ुसरो की तरह पहेलियाँ कहोगे कि कुछ बताओगे भी?’
‘यारा मेरे, मैं वल्लाह ये समझे हुए था कि तुम जानते हो। नहीं तो मैं ख़ुद तुम्हें आगाही दे देता कि वज़ीरपुर के आगे नहर के मोड़ पर मामलात साँझ के फूलते ही शंका से भर जाते हैं। वह कम्बख़्त डायन, पुलिया के एक तरफ़ बैठी हुई बज़ाहिर भीख माँगा करती है। परली तरफ़ पुलिया के नीचे उसके तीनों हराम के जने पोशीदा रहते हैं। जब तीन या ज़्यादा मुसाफि़र गुज़रते हैं तो वह पुकारती है, ‘जमात में सलामत है!’ और जब दो या एक मुसाफि़र होता है तो पुकारती है ‘अकेले दुकेले का अल्लाह बेली!’ और ये इशारा सुनकर वह तीनों ब्रह्म राक्षस की तरह बेचारे राहगीर को आ लेते हैं। किसी को जान से वह कभी नहीं मारते, लेकिन लूट कर उसे बाँध कर वहीं मरने के लिये छोड़ कर चम्पत हो जाते हैं।’
‘ला हौल विला क़ूव्वत,’ मैं बड़बड़ाया। ‘मुझे ही उनका निशाना बनना था। पर अब क्या करूँ? इतनी रक़म तिनके कहाँ से लाऊँ। कौन देगा मुझे और दे भी दे तो अदा कहाँ से करूँगा?’ मैंने अफ़सोस करते हुए कहा।
‘अजी मियाँ जी, देने वाले तो बहुतेरे है। किसी भी साहूकार किने चले जाओ। माल ही माल है। लेकिन माल के पहले वह खाल खिंचवा लेगा।’
‘तो फिर मैं क्या करूँ?’ मैंने झूँझल में आकर तेज़ लहजे में कहा। ‘मार मरूँ तो मेरी बेटी कौन ब्याहेगा?’
मोहम्मद आलम कुछ चुप-सा हो गया। मैं भी दिल ही दिल में शर्मिन्दा हो रहा था कि बेवजह इसे झिड़क दिया। वह बेचारा तो मेरी मदद ही करना चाहता था। पर जब अल्लाह ही को मंज़ूर न हो तो बन्दे का क्या चारा। अफ़सोस और रंज में यूँ ही हैरान परेशान हो रहा था, मुझे ऐसे संकट के समय में दोस्तों और नेक सलाह मशविरे की ज़रूरत थी।
थोड़ी देर बाद आलम ने सर उठाया और कुछ शर्मिन्दा-सी मुस्कराहट मुस्करा कर बोला। ‘क्यों न हम लोग दोस्तों से अपना हाल कहें। थोड़ा थोड़ा करके बहुत न सही, कुछ तो हो जाएगा।’
‘न, न बाबा। बिलकुल न। बेटी को क्या मुँह दिखऊँगा? बेटी सुन लेगी कि जमावारी चन्दा लेकर उसका ब्याह हो रहा है तो वह कुछ खा कर सो रहेगी।’
‘ऐ लो मैं चन्दे को कब कह रहा हूँ। मैं तो कह रहा था कि सबसे थोड़ा थोड़ा उधार बटोर के...’
‘कौन मान के देगा कि उधार भी चन्दे की तरह बटोरे जाते हैं? मैं भी न मानूँगा और अगर मैं मान भी गया तो दुनिया को क्या समझाता फिरुँगा... सँवरे भाइयो, ये ख़ैर खै़रात नहीं, चन्दा है। तौबा तौबा, मुझे बातों में न उड़ाओ मोहम्मद आलम साहब।’ मुझे रोना सा आ गया।
मोहम्मद आलम ने मुझे ग़ौर से देखा। शायद उसे भी लगा कि मेरा प्याला भरने को है। उसने सर झुका लिया। शायद वह मुझसे आँखें चार करने से कतरा रहा था। मैंने गुस्से में अपनी पगड़ी उतार कर पटक दी और कहा, ‘घर जाता हूँ। वहाँ अपनी औरत के मायके वालों के सामने हाथ फैलाऊँगा। फिर पूरी उम्र उसके सामने नक्कू बना रहूँगा... अबे हरामज़ादे आलम तूने मुझे आगाह क्यों न कर दिया था कि वह जगह...’
‘नरमी से काम ले भाई,’ आलम ने सर उठाये बगै़र कहा। ‘अपनी बोटियाँ नोचने से क्या पाएगा?’
‘तो क्या करुँ, तेरा ख़ून पी जाऊँ?’
वह हल्की-सी हँसी हँसा, ‘इससे कुछ बनता हो तो अभी ले मैं नब्ज़ पर खंजर से नश्तर किये देता हूँ। पी ले।’
मैंने सर पर दो हथ्थड़ मारे और कहा, ‘अच्छा ठीक है। मैं फ़ौरन नंगल ख़ुर्द चला जाता हूँ। हो सो हो।’
आलम एक लम्हा चुप रहा, फिर ज़रा ठहर ठहर कर बोला, ‘उस्ताद एक बात है... पर तू ख़फ़ा तो न होगा?’
मैंने मुँह बना कर कहा, ‘इससे कुछ काम बने तो वह भी कर देखेंगे।’
‘नहीं ज़रा ध्यान से सुन। तूने... अमीर जान का नाम सुना है?’
‘कौन, वही अमीर जान जयपुर वाली जो रईसों जैसे ठाठ से रहती है?’
‘हाँ हाँ, बिलकुल वही। गुल ख़ान तुमने सुना है कि वह तुम से मुसीबत के मारों की मदद बेखटके करती है?’
‘मदद? वह क्या मदद करेगी, है तो वही कस्बन मालज़ादी। वह हथियाती है न कि मुट्ठी खोलती है।’ मैंने झल्ला कर कहा। ‘उसकी कोई इज़्ज़त और मान भी है?’
‘अमाँ सुनो तो सही, ज़रा छुरी तले दम लो,’ आलम ने शायद देख लिया था कि मैं उसकी बात सुनने को तैयार हूँ, इसलिये अब वह बेखटके बोल रहा था।
‘सुन तो रहा हूँ, क्या तुम्हारी बग़ल में घुस जाऊँ?’
‘कहा ये जाता है कि वह पैदाइशी कस्बन नहीं है। किसी ग़रीब पर इज़्ज़तदार माँ बाप की बेटी है। सूरत शक्ल, हुनर, सुघड़ापा, सब कुछ होते हुए भी कोई उसका हाथ थामने को तैयार न था।’
‘तो फिर? ये सब मुझसे ज़्यादा कौन जाने है? मेरी व्यथा मुझसे बढ़कर कौन जानेगा।’
‘फिर ये कि एक ढोंगी शरीफ़ज़ादे ने उसका रिश्ता आखि़रकार माँगा और बहुत ज़ोर देकर माँगा। अन्धे को क्या चहिए दो आँखें। बाप माँ ने कुछ पूछे समझे बग़ैर उसके हाथ पीले कर दिये।’
वह चुप हो गया, शायद उसे मेरा ख़्याल आ गया था कि कहीं हम भी ऐसा ही न करने वाले हों। मैं भी चुप रहा। कि़स्से का अंजाम कुछ कुछ समझ में मेरी आ रहा था।
आलम ने सर झुकाये झुकाये कुछ कहाः
‘उन शरीफ़ज़ादे ने उस बच्ची को जी भर के ख़राब किया, फिर यहाँ लाकर एक कोठे पर बेच दिया। घर वालों को ख़बर हुई तो बाप ने तो नहीं, पर माँ ने बहुत बुलवाया, दूध का वास्ता दिया, मगर उसको न जाना था न गयी। और जल्द ही उसने सारी देहली जीत ली। अब किसी के हाँ जाती नहीं है....’
मैंने अचानक बात को समझा और अपनी जगह से उठ कर बोलाः
‘तो इसी वजह से अमीर जान...’
‘बिलकुल। यही बात है। उसे मालूम हो जाए कि तुम पर क्या बिपदा पड़ी है तो वह बेखटके तुम्हें क़जऱ् दे देगी।’
‘पर... वहाँ जाऊँ कैसे? और वह मेरी बात को क्या यूँ ही मान लेगी?’
‘मैं साथ चलने को तैयार हूँ। फि़रोज़ शाह मरहूम के कोटले से ज़रा उधर उसकी शानदार हवेली है। दरवाज़े पर हाथी झूमते हैं।’
‘कोई माध्यम, कोई ज़रिआ भी तो हो।’ मैंने मायूस लहजे में कहा। ‘उसके पास मुझ जैसे बीसियों पहुँचते होंगे। उसे क्या पता कि मैं चोर हूँ कि ठग हूँ।’
‘तुम्हारा बाप ख़ानेजहाँ के यहाँ नौकर था। ख़ानेजहाँ वहाँ जाते आते हैं। शायद अपने बाप का जि़क्र और उनका नाम और ख़ानेदौराँ से हमारा माध्यम.... क्या पता काम बन जाए। सब लोग एक साँ थोड़ी हैं। पोली पोली आँच पूर्वजों की होती है।’
मैं सोच में डूब गया। मेरे आगे राह कोई न थी। अमीर जान के यहाँ ख़ाने जहाँ जैसे लोग पहुँचते हैं तो मेरे लिये क्या अपमान है। मैं भी उन कूचों से नाआशना न था। अलबत्ता मेरी उड़ान अमीर जान जैसों के कोठों तक न थी। काम अगर बन गया तो बहुत ख़ूब और अगर न, तो मेरा कुछ न बिगड़ेगा। जितना बिगड़ना था सो तो बिगड़ ही चुका।
मैंने ठण्डी साँस ली। ‘कब चलोगे?’
‘बस अभी। नेक काम में पछतावा और शोर हँगामा कैसा? अपनी मन्नती नमाज़ मैं वापस आकर पूरी कर लूँगा और तुम्हारा काम बन गया तो हुज़ूरे ग़ौस अलवरा को सवाब भेजने के लिये एक वज़ीफ़ा और पढ़ूँगा।’
‘अल्लाह तुम्हें इस नेकी का सिला दे। ये एहसान तुम्हारा मुझ पर रहा।’
‘एहसान काहे का कभी तुम भी काम आओगे। चलो उठो अब देर न करें।’
अमीर जान की हवेली, या कि़ला देख कर होश मेरे उड़ गये। अल्लाह अल्लाह इतना बुलन्द मकान भी किसी को हासिल हो सके है। बहुत बड़ा ऊँचा फाटक, दोनों तरफ़ सुरक्षा चैकी, सुरक्षा चैकी के ऊपर दो मंजि़ला हुजरे जो शायद संगी साथियों के लिये होंगे। सुरक्षाकर्मियों में कोई मर्द न था, कोई हिन्दी भी न था। लम्बी तड़ंगी बहुत मज़बूत हाथ पैर वाली, क़ज़ाकि़स्तान या तुर्किस्तानी नस्ल की। हथियारबन्द और पूरी बारह औरतों का दस्ता। गोरे लेकिन लेकिन गर्म किये हुए ताँबे जैसे तमतमाते हुए गाल, बादाम की तरह आँखें, कसी हुई छातियाँ, तंग शलूकों से उभरे हुए डण्डा बटते हुए बल्कि उगले पड़ते हुए, बर में चुस्त पायजामे, इस क़द्र चुस्त कि रानों पर गोया मढे़ हुए हों। लेकिन ऐसे नहीं कि जिस्म की नुमाइश की झलक भी हो। शलूके की आस्तीनें कलाइयों तक, दामन पेट के ज़रा नीचे तक, इस तरह कि किनारे दामन के दुपट्टे से कुछ ढक गये थे। सरों पर ज़री की टोपी और कमर में ज़र निगार दुपट्टे के सिवा कोई सजावट उनके बदन पर न थी। शलूका, पाजामा, दुपट्टा सब कालापन लिये हुए नीले रंग के थे, ताकि तासुर मर्दाना ख़ूबसूरती का और भी बढे़। टोपियाँ आसमानी मख़मल की थीं, मगर सोने से इतनी ज़्यादा लिपी हुई थीं कि नीला रंग बहुत कम दिखायी देता था। सब बिलकुल तनी हुई खड़ी थीं। और आती जाती दुनिया को ग़ुरूर से भरी निगाहों से देख रही थीं।
दरवाज़े पर वाक़ई दो हाथी ख़ौफ़नाक और ऊँचे झूम रहे थे। झूलें उनकी ज़रबफ़्त और कमख़्वाब की, उन पर आसमानी मख़मल से मढ़ा हुआ और चाँदी के डण्डों वाला हौदा। हाथियों के लम्बे-लम्बे दाँतों पर आठ-आठ चैड़े सोने के। भँसोण्डों पर ज़ाफ़रानी रंग के नक्श ओ निगार, मस्तकें गेरू से रंगी हुई, ताँबे की जगमगाती घण्टियाँ, हाथी दोनों फाटक के दोनों तरफ़ जमुना के रूख़ पर खड़े हुए थे। कोई आधे कोस, या कुछ कम के फ़ासले पर दरिया और उसके घाट, और सतह पर नदी के तैरती हुई कश्तियाँ और जहाज़ साफ़ नज़र आते थे।
अपनी ओहदेदार का इशारा पाकर, या शायद आप ही आप, एक लौंडी आगे आयी और मुझसे बेझिझक आँखें मिला कर बोलीः
‘कहिये?’
मैंने अटक अटक कर मुद्दे का इज़हार किया कि मैं ग़रीब सिपाहीपेशा और मुसीबत का मारा हूँ, मिलना चाहता हूँ।
‘और ये आपके साथ हैं, क्यों?’
मैंने मोहम्द आलम का परिचय कराया, तो उसने ज़रा हिम्मत करके मुस्करा कर हम लोगों का रिश्ता ख़ानेजहाँ और ख़ानेदौराँ से ज़ाहिर किया।
कहीं से कोई इशारा पाकर एक लौंडी अन्दर गयी। हम लोग यूँ ही धूप में खड़े रहे। किसी ने हमें क़रीब आने या बैठ जाने की दावत नहीं दी। अमीर जान की हवेली जिस गली में थी उसमें एक ही दो घर और थे, इसलिये लोगों का आना जाना बहुत कम था। बस एक शरबते इत्र की दुकान थी और एक फूलों के गजरे वाला सामने अपना ठीहा जमाये हुए था। मैंने सोचा, एक मोतिया और गुलाब का हार मैं भी ख़रीद लूँ, नज़्र कर दूँगा। लेकिन दरवाज़ा न खुला। ख़ुदा मालूम इसका क्या मतलब निकाला जाए। मेरी हस्ती ही क्या थी, एक अंजाना-सा सिपाही जिसका सारा परिचय उसके मालिकान थे।
हम खड़े सूखते रहे, बड़ी देर बाद मैं मायूस होकर वापस होने की सोच ही रहा था कि अन्दर से बुलावा आ गया। जल्द-जल्द हाथों से पसीना पोंछ कर और हाथों को चुपके-चुपके दुपट्टे पर सुखा करके हम अन्दर गये।
मैंने समझा था कि सुरक्षा चैकी के अन्दरूनी दरवाज़े के बाद तीन तरफ़ वाली बारादरियाँ होंगी, बीच में चमन होगा, ज़रा-साया और ठण्डक का माहौल होगा। लेकिन वहाँ तो दाएँ हाथ को एक तंग लेकिन ऊँचा-सा ज़ीना था और हमारे सामने एक लम्बा गलियारा था जिसमें जगह-जगह रोशनदान थे और ताक़ों में चराग़ रौशन थे।
हम चलते चले गये। ख़ुदा ख़ुदा करके गलियारा ख़त्म हुआ। फिर एक दालान और कुछ कमरे, एक कमरे में हमें ठहरा दिया गया। कुछ इन्तज़ार खींचने के बाद फिर बुलावा आया। अब हम एक बड़े दरबार में थे। अल्लाह-अल्लाह शिल्पकारी और सजावट इस दरबार की भला कौन बयान कर सके है। और सच पूछिए तो मुझे आँख उठाने की हिम्मत न हो रही थी। बस यही कह सकँू हूँ कि हर तरफ़ रौशनी बेशुमार हो रही थी। जगह-जगह क़ुमक़ुमे और कँवल रौशन थे।
‘तसलीमात’ एक बहुत ही मीठी लेकिन साफ़ और झाँझन-सी बजती हुई आवाज़ में किसी ने कहा। ‘आप ख़ानेजहाँ लोदी मसनदे-अली ख़ान की सरकार में नौकर हैं?’
‘जी... जी नहीं। मेरा बाप उनसे सम्बन्धित था। हम दोनों दरअस्ल ख़ानेदौरां असद ख़ान बिन मुबारक बहादुर के फ़ौजी दस्ते में सिपाही हैं।’
रुक-रुक कर, सर झुकाये झुकाये, मैंने अपनी राम कहानी सुनायी। इस दौरान थोड़ा बहुत देखने की हिम्मत पड़ी लेकिन मैं अमीर जान का हुलिया नक़्शा बयान करने से मजबूर हूँ। उनकी पीठ की तरफ़ दो ख़ास लौंडियाँ पंखा झल रही थीं, दाएँ बाएँ बाहर वालियों जैसी दो लौंडियाँ अदब से खड़ी थीं। कोई सामान वहाँ नाचने गाने का नज़र न आता था। पीतल के बड़े बड़े पिंजड़ों में कई अच्छी आवाज़ वाली चिडि़याएँ ज़रूर थीं, लेकिन मैं उनमें से किसी को पहचान न सका। मुझे ख़्याल आया कि स्वर्गीय हज़रत फ़ीरोज़शाह तुग़लक़ के बारे में मशहूर था कि उन्होंने अपने कोटले के सामने एक अलग इमारत में दुनिया जहान के अजीब जानवर और इंसान और लाखों करोड़ों बरस पहले के जानवरों और चिडि़यों की हड्डियाँ जमा कर रखी थीं।
हमारा पूरा हाल सुनकर अमीर जान ने पीठ की तरफ़ खड़ी हुई एक नौकरानी को इशारा किया। वह किसी बग़ल के दरवाज़े से बाहर गयी और थोड़ी देर भी न हुई थी चार बटुए लेकर हाजि़र हुई दूसरे इशारे पर वह बटुए उसने मेरे हाथ की तरफ़ बढ़ाए। मैंने एक बेचैन तबियत में डूब कर हाथ बढ़ाया और बटुओं को ले लिया।
‘ये चार सौ तिनके हैं। साढ़े तीन सौ जो आपने गँवाए और पचास मेरी तरफ़ से आपकी बेटी को दहेज़ कु़बूल कीजिए।’
‘मैं... म... मगर ये क़र्ज़ फ़ौरन अदा न कर सकूँगा।’
‘पचास तो क़र्ज़ है ही नहीं, बकि़या के लिये आपको अधिकार है। आपकी नियत साफ़ हो, ये शर्त है।’
मैं कुछ और अर्ज़ करने वाला था कि अमीर जान ने मुँह फेर लिया और उनकी नौकरानियों ने झुक कर हमें सलाम किया, ये जैसी हमारी विदाई थी।
मेरी लाडली ब्याही गयी और बड़ी धूम धाम से ब्याही गयी। श्री रघुराज बहादुर सिंह को भी मैंने अपनी माँ की दुआओं के साथ दावत भेजी। उन्होंने एक दुपट्टा बनारसी, पाँच तिनके और मिठाई भेजी। सुल्ताने आली मक़ाम के फ़रमान के मुताबिक़ मैंने पूरा लिहाज़ इस बात का रखा कि कोई रस्म गै़रशरई न हो, यानी ऐसी न हो जो महज़ हिन्दुओं में होती हो। एक बात फिर भी ऐसी थी जो मुसलमानों में होती थी, पर कम, और वह ये कि निकाह के कई महीने बाद रूख़सती हुई। निकाह के दस ही बीस दिन बाद ख़बर उड़ी कि सुल्ताने वाला शाने ख़ुदावन्दे आलम सिकन्दर लोदी आगरे से देहली की राह में ख़ुदा से जा मिले। इन्ना लिल्लाह व इन्ना इलैहे राजेऊन। इस शान ओ शौकत और दबदबे का सुल्तान आसमान की आँख अब क्या देखेगी। देहली से आगरे इन्तक़ाल में शायद इसके लिये नेक शगुन न था। आगरा इतना कुछ न बन सका जितना मेरे स्वर्गीय सुल्तान की तमन्ना थी। और देहली उन्हें बार बार उनकी शान ओ शौकत के कम होने का कारण बनती। हालाँकि सुल्तान की सेहत अब गिरती जा रही थी, लेकिन किसी के शान गुमान में भी न था कि अंजाम जि़न्दगी का इतनी नज़दीक है। कुछ लोग कहते थे कि देहली न छूटती तो शायद जान भी न छोड़नी पड़ती। ये हादसा देहली की राह ही में घटित हुआ था।
सुल्तान के स्वर्गीय होने पर हुकूमत के साथियों में बदलाव होना ही था। न मालूम ख़ानेजहाँ अब कौन बनता और ख़ानेदौराँ का पद किसे मिलता और असद ख़ान बहादुर की क्या हैसियत बन्दगाने आली के मुबारक दरबार में होती। मैं बहाना रुख़्सती का करके सारी मुद्दत घर पर ही रुका रहा। रुख़सती के बाद मैं जोरू अपनी को समझाता रहा कि सिक्का ए ख़ुतबा बदला है, देखें अभी क्या सामने आता है। ख़ान असद ख़ान की टुकड़ी शायद रहे न रहे। जब वह बुलवा भेजेंगे, चला जाऊँगा। अभी मुझे खेती बाड़ी देखने दो, कुछ आराम करने दो। फिर देखेंगे।
चैथा अध्यायः
एक साल गुज़र गया। फिर दो साल। कहते हैं दामाद की तक़दीर दर हक़ीक़त बेटी की तक़दीर होती है। मेरी बेटी इतनी भागवान निकली कि उसके मियाँ की बढ़ईगिरी बहुत जल्द और बहुत अच्छी चल निकली। उनका गाँव नंगल ख़ुर्द के पास ही था, इसलिये उन्हें हमारे यहाँ आते रहने में कोई परेशानी न थी। फिर दामाद से परिचय हासिल करके लोग मेरे पास सिपहगिरी के फ़न, कुश्ती के दाँव पेच, तलवार और भाला की देखभाल और बनावट के तरीके़ सीखने आने लगे। मुझे घर बैठे रहने का अच्छा बहाना हाथ आया, और उससे बढ़कर ये कि अमीर जान का क़र्ज़ अदा कर सकने का बहाना निकल आया। मैं अपने ऊपर रहता तो ये क़र्ज़ तीन कि चार साल में भी अदा न हो सकता था। सिपहगिरी का हाल मैं आपको सुना चुका हूँ कि आराम था लेकिन दौलत न थी। मुझे अल्लाह की ज़ात से उम्मीद थी वापस देहली जाऊँगा तो अपने सब शौक़ बन्द करके जैसे भी हो हर महीने चार तिनके बचाऊँगा। घर भेजना भी एक तिनका कम कर दूँगा। इस तरह अगर नई मुसीबत कोई न आ घेरती तो छः सात बरस में अदायगी की सूरत बन सकती थी। अब यहाँ मुझे जो काम मिलने लगा और घर की खेती में इतना पैदा होने लगा कि मुझे अलग से कुछ लगाना न पड़ता था उसने आसानियाँ बड़ी पैदा कर दीं। बेटी का ख़र्च कुछ था नहीं, सिवाए इसके कि तीज त्यौहार, पैदाइश, शादी ब्याह पर कुछ देना दिलाना पड़ता। बेटा मेरा भी अब बड़ा होकर बहनोई के पास काम सीखने लगा था।
तीसरा साल ख़त्म होने को था जब मैंने देखा कि अब मैं बहुत जल्द अमीर जान का क़र्ज़ चुका सकुँगा। ख़ुदा वन्दे आलम इब्राहीम लोदी ने राजधानी देहली फेर लिया था। लेकिन ख़ानेजहाँ और ख़ानेदौराँ के पद अब लग ख़ाली थे। मैंने सुना कि सुल्तान का ख़्याल था कि उनके बड़े-बड़े ओहदेदारों के बग़ैर ही सुल्तानी का काम चल सकता है। मेरे ख़ान ने शायद अपनी टुकड़ी दोबारा नहीं बनायी थी, या शायद बनायी हो तो मुझे बुलवाया न था। आलम बिहारी की तरफ़ से भी कुछ पत्र व्यवहार न था। शायद वह टुकड़ी ख़त्म ही हो गयी हो, मैंने सोचा।
मेरी बेटी को अल्लाह ने एक चाँद-सा बेटा दिया तो नया मौक़ा ख़ुशियों का हम सब के हाथ लगा। मैंने दिल में कहा कि ये देहली वापस जाने और अमीर जान का क़जऱ् अदा करने के लिये अच्छा शगुन है। अबकी बार जाडे़ में बारिशें थीं। मौसम बहुत ख़ुशगवार और तरोताज़ा करने वाला था। मैंने अल्लाह का नाम लिया, इमाम ज़ामिन बाज़ू पर बँधवाया, मेरी माँ ने किसी हिन्दू देवी का सदक़ा भी उतारा और मैंने सुबह के वक़्त देहली जाने का प्रण किया। सन 1520 बकरीद गुज़ारकर जि़ल हज का महीना ख़त्म पर था। कँुवार का महीना लग चुका था। दिन भी ख़ूब चमक रहा था, पर आसमान पर कहीं कहीं बादलों की झलक मौसम की सर्दी का ध्यान दिलाती थी। चील कव्वे गौरय्या पेड़ों और आसमानों में शोर मचाती फिरतीं कि सर्दियाँ अब वापस आने वाली हैं। बाग़ों में मोरों की बहुतायत थी। काले तीतर अपने अपने भट से निकल कर इतराते फिर रहे थे। तन्दुरूस्त, ऊँची और बड़ी नील गायें, बारह सिंहे, छरेेरे चीतल, काँकर, लम्बी पेचदार सींघों वाले काले, ठिगने चैसिंघे, सभी तरह के हिरन हर मोड़ पर और हर खुली जगह पर दिखायी देते और आँखों को ठण्डक पहँुचावते। घोड़ा मेरे पास था नहीं, और यूँ भी लम्बी रक़म साथ लेकर तनहा चलने का ख़मियाज़ा मैं खींच चुका था। अब वाक़ई समूह में सलामती थी।
दूसरे दिन मैं देहली पहुँचा। दुनिया पहले जैसी लग रही थी। सुल्तान नया था तो क्या हुआ, शहर तो वही था। फि़रोज़ शाह मरहूम के कोटले के पहले कुछ आबादी न थी। मटका शाह साहब की दरगाह, फिर पुराना कि़ला, और उनके दरम्यान कहीं बीबी फ़ातिमा साम की दरगाह, सब कुछ यूँ ही था। मटका शाह साहब की दरगाह पर अब भी हिजड़े और औरतें पहले की तरह झाड़ू लगाते, दर्शन करने वालों को पानी पिलाते, बाबा निज़ामुद्दीन साहब सुल्तान जी के गुण गाते। सब वैसा ही था। मेरे सुल्तान सिकन्दर लोधी साहब का मज़ार पूरा होने के क़रीब था। सुल्तान बहलोल लोधी मरहूम तो बहुत दूर ख़्वाजा क़ुतुब साहब के कुछ पहले ज़रा हट कर हमेशा की नींद सो रहे थे लेकिन उनका सिक्का अभी भी जारी था।
मुझे उम्मीद तो न थी, लेकिन एक ख़्याल-सा था कि ख़ानेदौराँ की पिछली टुकड़ी अभी मौजूद होगी तो शायद मेरा दोस्त भी वहीं मिल जाए और रात ठहरने का सहारा हो जाए। मोटी रक़म मेरी म्यानी में थी, उसे साथ लिये-लिये फिरना, या किसी अंजानी सराए में ले जाना और रात गुज़ारना, कुछ बहुत दिलचस्प बात न थी। ग़यासपुर भी पहले की तरह वहीं था। लेकिन ख़ानेदौराँ की सेना की टुकड़ी का कहीं पता न था। इधर-उधर पूछा तो पता लगा कि ख़ाने दौराँ का भड़ाइच किसी मुहिम पर भेज दिया गया है लेकिन उनकी फ़ौज और टुकड़ी कहाँ होंगे, इस बारे में कुछ भी कहना मुश्किल था। मजबूर होकर मैंने फि़रोज़शाही सराए में रात रहने की ठानी। सबसे क़रीबी सराए तुग़लक़ाबाद की सरहद पर बदरपुर में थी। वहाँ से देहली बहुत दूर थी और कोटला फि़रोज़शाह, जिसके पिछवाड़े वाले गाँव फि़रोज़ाबाद में जाकर मुझे अमीर जान का क़जऱ् उतारना था, और भी दूर था। पर मरता क्या न करता, अब पुराने दोस्तों को कहाँ ढूँढ़ूँ, सराए की भटियारिन ही की मेहमानदारी पर गुज़ारा कर लूँगा।
सुबह हुई तो मैंने ध्यान रोज़ से ज़्यादा अपने हुलिये की तराश ख़राश और उसे दुरूस्त करने में लगाया। सबसे पहले तो मियानीं को टटोल कर देखा था कि सलामत है कि नहीं। शुक्र है सब मौजूद था। अमीर जान का क़र्ज़ चुकाने या शायद उनको देखने का शौक़ इस क़दर था कि मैं बिना नाश्ता ही निकल खड़ा हुआ। कई मील का फ़ासला था, एक घोड़ा किराये पर लिया और आम फि़रोज़ाबाद हुआ।
सफ़र में एक घण्टे से कुछ ऊपर लगा। जमुना पर चहल पहल वैसी ही थी। पर ये क्या? वह हवेली तो कुछ ख़ाली-ख़ाली-सी लग रही थी। न वे पहाड़ जैसे लम्बे लोग थे, न वे क़नीज़ें, न वह सामने इत्र और फूल बेचने वाले थे। या अल्लाह ये माज़रा क्या है। कुछ देर यूँ ही खड़ा फि़क्र में डूबा रहा। क्या उन्होंने हवेली छोड़ दी, कि देहली ही छोड़ दी? किसी से शादी करके शौहर के पास तो नहीं उठ गयीं। वालिदैन ने राज़ी करके उन्हें जयपुर वापस बुला लिया क्या?
मजबूर होकर एक भले मानूस उधर से गुज़रे और मुझे चुपचाप किसी फि़क्र में डूबा देखकर ठिठके और बोले।
‘क्या जनाब को कहीं जाना हैं, रास्ता भूल गये हैं।’
‘जी नहीं... ऐसा तो कुछ नहीं। वह.... बात ये है कि सामने वाली हवेली में....।’
‘अमीर जान को पूछते हैं आप। हज़त वह तो अल्लाह को प्यारी हुईं।’
‘अल्लाह को प्यारी... क्या बात कहते हैं जनाब। मैं जब मिला था, वह अच्छी ख़ासी जवान जहाँ तन्दुरूस्त थीं। यहाँ हवेली पर शान और ही थी।’
‘थी साहब मन। मगर अर्सा कोई साल एक का हुआ कि उनका बुलावा आ गया।’
‘क्यों... कैसे..? माफ़ी चाहता हूँ, जिरह आप से नहीं कर रहा हूँ। इत्मिनान अपना चाहता हूँ कि कहीं कुछ... ’
‘जी नहीं मिंया साहब, कहीं कुछ और नहीं। सब कुछ वहीं हुआ।’ उन्होंने दरिया की तरफ़ इशारा करके कहा।
‘जी, मैं समझा नहीं।’
‘बात ये हुई कि उन्होंने अपने लिये एक मोरपंखी नयी बनवायी थी। उसे उतरवाने की दरिया में जल्दबाज़ी उन्हें बहुत थी। लोगों ने कहा कि थोड़ा इन्तज़ार करें, नदी इन दिनों चढ़ाई पर है। पर औरत ज़ात जि़द्दी तो होती है, फिर आप जानो उनके नाज़ उठाने वाले बेशुमार। मोरपंखी को साज़ ओ सामान से सजा करके उसमें कुछ और लोगों के साथ बैठीं और रस्सा खोलने का हुक्म दिया। नदी क्या थी कि गुस्से में देव थी। पानी के रेले पर रेले आ रहे थे। अभी ठीक से आगे भी न आये थे कि एक ज़ोर की लहर आयी और मोरपंखी को बीच मंझधार में खींच ले गयी। फिर तो ये जा, वो जा। मोरपंखी की बिसात ही क्या? आनन फ़ानन में हिचकोले खाने लगी और इसके पहले कि मरजिए और मल्लाह पानी में उतरें-उतरें, कश्ती में सवार सब लोगों की कश्तिए-जि़न्दगी तूफ़ानी हो गयी। सब ख़त्म हो गया।’
‘इन्ना लिल्लाह व इन्ना इलैह राजेऊन।’ मैंने ग़म भरे लहजे में कहा। ‘लाइलाहा इल अन्त सुब्हानका अनी कुन्ता मन अलज़ालेमीन’ मुझे हज़रत यूनुस की कु़रआनी दुआ याद आयी।
मगर अमीर जान को किसी मछली ने नहीं निगला था। उन्हें तो मछली के ठिकाने को अपना ठिकाना बनाना बदा था।
‘लाश नहीं मिली?’ मैंने हिम्मत करके पूछा।
‘मिली। तीसरे दिन आप ही आप किनारे आ लगी।’
‘कहाँ दफ़्न हुईं? क्या जयपुर ले जायी गयीं।’
‘नहीं, वसीयत उनकी थी कि जब भी मैं मरूँ मुझे सैयदी मौला साहब के मज़ार के सामने वाले क़ब्रिस्तान में दफ़्न किया जाए। वही हुआ।’ एक लम्हा चुप रह कर उन्होंने ठण्डी साँस ली। ‘अल्लाह बख़्शे बड़ी नेक बीबी थीं।’
‘सुना है डूब मरने वाले शहीद होते हैं।’
‘उनका मामला अल्लाह के हाथ में है।’ उन्होंने सुनसान हवेली की तरफ़ सर का हल्का-सा इशारा करते हुए कहा।
‘हम सबको वहीं जवाबदेही करनी है। मैं शुक्रगुज़ार हूँ कि आपने तकलीफ़ उठायी, सब हाल बयान फ़रमाया। वर्ना मैं तो भटकता ही रहता।’
हम दोनों ने हाथ मिलाये। फिर वह अपनी राह चल दिये। मैं खड़ा सोचता रहा। अब अमीर जान का क़जऱ् तो अदा होगा नहीं। इन तिनकों का क्या करूँ और ख़ुद कहाँ जाऊँ? शायद सबसे पहला फ़जऱ् मेरा तो ये है कि क़ब्र पर उनकी जाऊँ और फ़ातिहा पढ़ूँ। सैयदी मौला साहब का मज़ार और उसके सामने का क़ब्रिस्तान मुझे ख़ूब जाना बूझा था। निज़ामुद्दीन साहब सुल्तान जी की दरगाह के कुछ ही दूर था, बीच में खुली ज़मीन रेगिस्तान की तरह थी। इसके ज़रा आगे ग़यासपुर का गाँव था। फूलों की वजह से क़ब्रिस्तान काफ़ी ख़ूबसूरत था। चकोर और कबूतर और फ़ाख़्ताएँ झुण्ड के झुण्ड हर तरफ़ याहू और ग़ुटरगू़ँ करते, दाना चुनते नज़र आते थे। मोर भी बहुत थे। कभी-कभी तीतर, लोमडि़याँ और ख़रगोश भी दिखायी दे जाते। बाबा सुल्तान जी साहब के नाम पर लगायी हुई प्याऊ पर पानी हर वक़्त मौजूद रहता। फ़ातिहा पढ़ने वाले हर वक़्त ही आते जाते रहते थे। मैं अभी चला चलूँ तो यह काम पूरा हो जाए। फिर हज़रत सुल्तान जी साहब और अमीर ख़ुसरो के आस्ताने पर दीदार कर लूँगा।
घोड़ा मेरे पास था ही, मैं फ़ौरन चल पड़ा। सैयदी मौला साहब के मज़ार पर रौनक़ इन दिनों कुछ कम रहती थी। मुझे उनके उरूज के ज़माने याद आये। लोग बताते हैं कि उन्हें अध्यात्मिक शक्ति हासिल थी। रोज़ एक अशरफ़ी से कम न ख़र्च करते थे। ख़ास मौक़ों पर और भी दाद और इनाम थे लेकिन कम कर दो आमदनी का कोई दिखने वाला साधन न था। दूसरे पीर फ़क़ीरों की तरह वह दान, नज़राना, हदिया वग़ैरा कुछ क़ुबूल न करते थे। वह कौन थे, कहाँ से आये थे, ये भी खुलता न था। सैयदियों की नस्ल से होने की वजह से बहुत लम्बे तड़ंगे और काले रंग के थे। और सैयदियों से अलग दाढ़ी निहायत लम्बी, घनी और घूँघरवाली थी। आँखें हर वक़्त लाल रहती थीं। कहते हैं दिन हो या रात, हर वक़्त कोई न कोई उनके पास बैठा रहता था और सब देखते थे कि वह किसी वक़्त सोते नहीं हैं। बहुत-से बहुत किसी वक़्त ख़ानक़ाह में किसी पाये से टेक लगा कर कुछ देर को आँखें बन्द कर लेते थे लेकिन किसी भी नये शख़्स की आहट पर आँखें खोलकर उसकी तरफ़ ध्यान देते थे। वह ख़ुद भी असलहा बाँधते थे और दूसरों को भी कहते थे कि सुन्नत (पैगम्बर मुहम्मद की जि़न्दगी का तरीक़ा) है। आदमी के लिये बेहतर है कि कोई भी सुन्नत न छूटे।
वह किसी रईस, किसी फ़ौजी ओहदेदार, किसी सुल्तानी साहिबे एख़्ितयार, यहाँ तक कि सुल्ताने- वक़्त के वहाँ भी न जाते थे। धीरे धीरे उनके यहाँ इतना जमावड़ा जमने लगा और सब के सब असलहाबन्द, कि कोतवाले-शहर को शक होने लगा कि ये कुछ करने वाले तो नहीं हैं। सुल्तान जलालुद्दीन खि़लजी का ज़माना था, सुल्तान को कोतवाली पर्चा लगा कि सैयदी मौला के लच्छन बुरे मालूम होते हैं। सुल्तान जलालुद्दीन हालाँकि निहायत नर्म दिल और सुलहपसन्द हाकिम था, लेकिन बार बार के अख़बार के पर्चों और फिर उसके अपने-अपने मुख़बिरों की सूचनाएं यही कहती थीं कि सैयदी मौला के मुरीद सभी हथियार बन्द रहते हैं। कुछ फ़ातिहा का नज़राना नहीं लाते लेकिन खाना सबको पेट भर मिलता है। उनकी ख़ानक़ाह में आने वालों की संख्या बढ़ती जाती है।
सुल्तान रोज़-रोज़ की ख़बरों से घबरा गया और उसने अनेकों बार सैयदी मौला को दरबार में बुलवाया। लेकिन वह कहाँ सुनने वाले थे। अब सुल्तान का शक यक़ीन में बदल गया कि दाल में कुछ काला है। उसने अपने दरबारी मुफ़्ती से फ़तवा मँगवाया कि सज़ा ऐसे शख़्स की क्या हो जो बार-बार बुलवाने पर भी दरबारे-सुल्तानी में हाजि़र नहीं होता। मुफ़्ती साहब को सुल्तान की ख़्वाहिश ख़ूब मालूम थी। उन्होंने अतीउल्लाह व अतीउलरसूल व ऊली अलअम्र मर मनकुम की दलील पर फ़तवा दिया कि ऐसे शख़्स का क़त्ल करना ज़रूरी है। सुल्तान को तो बस शरई बहाने की तलाश थी। उसने फ़ौरन सैयदी मौला इन्साफ़ करने वाले सुल्तान का हुक्म न मानने के जुर्म में क़त्ल करा दिया और उनकी ख़ानक़ाह लुटवा कर खुदवा डाली और ऐलान करा दिया कि सैयदी मौला के मुरीद फ़ौरन तौबा करें वर्ना सुल्तान के क़हर के लायक़ क़रार दिये जायंगे।
अल्लाह की शान, जहाँ मेला लगा रहता था और हलवे की डेगें गर्म होती थीं और नान के तन्दूर दहकते थे वहाँ अब परिन्दा भी पर न मारता था। दिल वाले साहबों की आँखें भर आयीं। कुछ ने तो खुले बन्दों कहा कि सुल्तान ने अच्छा नहीं किया। बेगुनाह ख़ून रंग लाये बगै़र न रहेगा। और यही हुआ। कुछ ही मुद्दत गुज़री थी कि सुल्तान के सगे भतीजे अलाउद्दीन ने कड़ा के स्थान पर क़त्ल उसे कराके लाश गंगा नदी में फिकवा दी। ताज तो उसका एक मछेरन के हाथ लगा लेकिन सर कहीं न मिला। सैयदी मौला का मज़ार फिर से नया बना और जि़यारतगाह ख़ास ओ आम हुआ और अब लग यूँ ही है। लेकिन आज ढाई सौ बरस बाद भी मज़ार पर शहीद का जलाल इतना ज़्यादा बरसता है कि कोई देर तक वहाँ ठहरता नहीं। मैंने मज़ार के सामने से गुज़रते-गुज़रते सलाम किया और नियत की कि अमीर जान के यहाँ फ़ातिहा ख़्वानी के बाद आप के मज़ार पर फ़ातिहा पढ़ँूगा। फिर खि़दमते सुल्तान जी में हाजि़र हूँगा।
क़ब्र ढूँढ़ना अमीर जान की हरगिज़ मुश्किल न था कि क़ब्र के कुछ ही फ़ासले पर पानी की प्याऊ थी। हालाँकि इस वक़्त सन्नाटा था, लेकिन मज़ार का शिलालेख मैं फ़ौरन पहचान गया। ताक़ में कालिख का दाग़ बहुत हल्का था, जैसे चराग़ यहाँ कभी ही कभी जलता हो। मैं अचानक बेहाल हो गया। आह जि़न्दगी में क्या क्या रौनक़ें थीं और अब क्या हालत है? शुरू और आखि़र फ़ना ही फ़ना है। करम करने वाला ख़ुदा सबका अंजाम बखै़र करे। लेकिन ये क्या, परली तरफ़ क़ब्र एक जगह से खुली हुई नज़र आ रही थी। हाए अफ़सोस बिज्जू और कफ़न चोर यहाँ भी बाज़ नहीं आते। मैंने इधर उधर नज़र दौड़ायी कि कुछ झाड़ी झण्डी घास फूस हो तो मिट्टी पत्थर मिला कर खुली हुई क़ब्र को बन्द कर दूँ। चन्द लम्हों में सब इकट्ठा हो गया। और मैं क़ब्र की उस खुली हुई जगह के ऊपर आया कि एहतेयात से उसे पाटने की कोशिश करूँ। लेकिन मैं डर कर पीछे हट गया। क़ब्र के अन्दर रौशनी-सी थी। अन्दर कोई चोर था क्या? लेकिन ऐसा दिलावर चोर कहाँ जो क़ब्र के अन्दर चराग़ ले कर जाए। मैंने दूर ही दूर से आँखें गड़ा कर देखा। कुछ हरे से रंग की रौशनी थी, आँखें ठण्डी हुई जा रही थीं। हिम्मत करके मैं दोबारा नज़दीक गया, लेकिन इसके पहले मैंने चारों तरफ़ निगाह दौड़ायीं कि कोई और नज़र आ जाये तो उससे मदद के गुज़ारिश करूँ। कोई भी नहीं था। सारे चकोर, कबूतर, मोर सब बिलकुल चुप हो गये थे। जैसे सूरज ग्रहण के अँधेरे में जानवर और परिन्दे चुप हो जाते हैं। मुझे और भी डर लग रहा था लेकिन वह रौशनी मुझे अपनी तरफ़ खींचती-सी लग रही थी। अब जो ग़ौर से देखा तो रौशनी कुछ बढ़-सी गयी थी और लगता था कि क़ब्र की खुली जगह में किसी ने मेरे लिये मशाल रख दी हो। लेकिन दिन चढ़ कर अब आधे दिन के क़रीब था।
ऐसे में मशाल की क्या वजह हो सके है? मुझे बुलाना उद्देश्य था तो.... लाहौल विला कूव्वत, यह मैं क्या सोच रहा हूँ। क़ब्र में से कोई किसी को बुलाता है और मैं हूँ भी कौन कि मुझे बुलाया जाये। मैं अमीर जान के साथ सरसरी जान पहचान का भी दावेदार न हो सकता था। तो क्या यह भूत-प्रेत का कारनामा है? मेरी जु़बान पर बेएख़्ितयार आयतल कुर्सी जारी हो गयी। फिर मैंने क़ुरआन शरीफ़ की आखि़री दो आयतें पढ़ीं। फिर आयतल कुर्सी की तिलावत की। अचानक मेरे दिल में ख़्याल आया कि क़ुरआनी आयतें इतनी पढ़ ही चुका हूँ। उन्हीं को फ़ातिहा क़रार देकर सवाब भेज दूँ और उल्टे पाँव... मगर इस रौशनी में अज़ब-सी कशिश है। या यह सब मेरा वहम है। क्या मालूम सैयदी मौला साहब जैसा कोई पहुँच वाला यहाँ भी दफ़्न हो और किसी वज़ह से असर उनका मुझ पर हो रहा हो। यहाँ से चल लेना ही.... मैंने जल्द-जल्द दिल ही दिल में अमीर जान को ईसाले-सवाब किया। या अल्लाह अगर यह कोई कारनामा भूत-प्रेत का कि क़ुरआनी आयतें या ख़ुदा न करे अज़ाब क़ब्र का है तो अपने हबीब के सदके़ तो इस अपनी नाचीज़ बन्दी को इस मुसीबत से इस क़हर से निज़ात दे दे। मैंने मिन्नत मानी कि अगर मुझे मालूम हो जाए कि अमीर जान पर कोई क़हर नहीं है और यह रौशनी भूत-प्रेत वाली नहीं है तो यहाँ से उठते ही सुल्तान जी साहब के मज़ार पर पूरे साढ़े तीन सौ तिनकों की डेग़ पकवा कर मोहताजों को खिलाऊँगा। मगर दिल मेरा यहाँ से जाने को नहीं भी चाह रहा है। ज़रा और झुक कर देखूँ कि अन्दर क्या है। अब जो ग़ौर करता हूँ तो क़ब्र के बग़ल में कोई दरार नहीं बल्कि चोर दरवाज़ा-सा है बिलकुल ठीक-ठाक बना हुआ। और रौशनी भी कुछ ऐसी है जैसे कई शम्मएँ फ़ानूसों में रौशन हों। और यह तो कुछ ज़ीना-सा है अन्दर उतरने का, जैसा कि तहखानों में होता है। मेरे क़दम ख़ुद-बख़ुद उठते जा रहे हैं, बढ़ते जा रहे हैं। मैं चोर दरवाज़े में दाखि़ल हो गया हूँ। अब मैं नीचे उतर रहा हूँ। कहीं वह चोर दरवाज़ा बन्द न हो जाएगा? मुझे अलादीन का जादुई चराग़ याद आया। जब अलादीन ने चराग़ देने से इंकार किया तो उसके मामूँ.... नहीं... उसके चाचा ने गुफ़ा का दरवाज़ा बाहर से बन्द कर दिया था। अगर यह चोर दरवाज़ा भी बन्द हो गया तो?.... लेकिन मुझे कौन-सी चीज़ वहाँ से लाके किस चाचा मामा को देनी है, मुझे काहे का डर लेकिन अगर दरवाज़ा बन्द न हुआ, ग़ायब हो गया? फिर मैं वापस क्यों कर आ सकूँगा? वापस लौट चलते हैं। अभी तो चोर दरवाज़े से आती हुई बाहर की रौशनी दिखायी दे रही है, अभी वक़्त है।
पाँचवा अध्यायः
बहुत बड़ा, दूर तक फैला हुआ, बाग़। उसमें नहरें और हौज़ और मरमरीं फ़व्वारे छलछलाते हुए हल्के केवड़े की मिलावट लिये हुए, माहौल नम, पानी की बूँदों से रौशन। शाख़ों में बुलबुलें और कई ऐसे परिन्दे जिन्हें मैं पहचानता नहीं, चहचहाहट पूरे माहौल में ठण्डी फुवारें छोड़ रही थीं। लालिमा लिये हुए बालों वाली गिलहरियाँ पेड़ों में आँख मिचैली खेल रही हैं। सामने हरे-भरे मैदान-सा माहौल, सफ़ेद हिरन, चीतल, ख़रगोश, मोर सुरख़ाब आ आ कर हौज़ से पानी पी रहे हैं। एक हिरन पानी पीते-पीते ठिठक कर रुक गया है और लम्बी मोहिनी गर्दन को मोड़ कर बड़ी-बड़ी हैरत में डूबी आँखों से कुछ देख रहा है। दूर आसमान में बड़े-बड़े परिन्दे, उक़ाब और सीमुर्ग़ जैसे लेकिन उनसे किसी को शिकार बनने का ख़ौफ़ नहीं एक दो उक़ाब कभी ग़ोता मार कर नीचे आ जाते हैं तो उनका साया पानी में पड़ता है, हिरन शायद इसी से भौंचका हो गया है।
अजब पुर बहार बाग़ है कि बहार को भी इस बहार पर दाग़ है। हरे भरे और फलते फूलते दरख़्त, जोबन पर गुलाब, नसरीन और नस्तरन के फूल फ़न के माहिर माशूक़ों की तरह, सर्व और शमशाद के पेड़ ऐसे कि जिनसे महबूब के क़द की याद आए, चमन के फूलों का रंग ऐसा है जैसे फूलों जैसे बदन वाली महबूबाओं के गाल, हवाए सर्द चल रही है, मुहब्बत की हवा के नश्शे से लड़खड़ाती है, हर एक शाख़ दरख़्त से टकराती है। लेकिन दबे पाँव चल रही है। ख़्याल है कि ऐसा न हो पाँव की धमक से गर्द उड़े और फूल के गालों पर पड़े। नहरें सैकड़ों आब ओ ताब से जोश में हैं, बहार पर हर चमन, जाम ओ सुराही मौजूद, अमरूद के फल अपने रंग पर हैं, लाला के फूल रूपी जाम शराबे शबनम से भरा है, और मुश्क ओ अंबर की उसमें ख़ुशबू है। चकोर ख़जूर और सर्व के दरख़्तों पर सैकड़ों रौनक़ों और सजावटों के साथ बैठे हैं। ख़ुदा की आवाज़ को बुलन्द कर रहे हैं, मज़हबी क़लन्दर कू कू की आवाज़ से दर्द मन्द हैं। साफ़ साबित होता है कि कोई दरवेश गोशा नशीं याहू! याहू कर रहा है। जिस्म पर मिट्टी का लिबास पहने है, हर वक़्त यादे इलाही में मसरूफ़ है। उसकी सदाए हक़ से दुनिया की नापायदारी को समर्पित है।
(नवशेरवाँ नामा, जि़ल्द अव्वल, लेखकः शेख़ तसद्दुक़ हुसैन पेज 19)
मैं बढ़ता चला गया। हैरत की बात ये भी देखी कि सारे बाग़ में बाग़बानियाँ ही बाग़बानियाँ थीं, एक से बढ़ कर एक ख़ूबसूरत, और मर्द बाग़बान कोई न था। नज़र की सीमा से ज़रा उधर एक बहुत बड़ी इमारत थी। मैंने दो ही चार क़दम बढ़ाये थे कि इमारत बिलकुल नज़दीक आ गयी। अमीर जान की हवेली, हूबहू जैसी मैं देहली में अभी देख कर चला आ रहा था। फ़र्क़ सिफऱ् ये था कि सच्ची हवेली भूरे और कालेपन के साथ लाल पत्थर की थी। और ये हवेली सफ़ेद संगमरमर की थी। जैसे ठण्डे दूध से भरी चीनी की सुराही, इतनी तरी और ख़ुनकी थी कि जी चाहता था उठा कर मुँह में रख लीजिए। सामने हाथी वैसे ही झूम रहे हैं। थोड़ी दूर पर जमुना वैसे ही बह रही है। घाट पर नहाने वाले कोई नहीं हैं लेकिन बजरे, बादबानी कश्तियाँ, हवा के ज़ोर से चलने वाले जहाज़, सब सामान्य रूप से चल चल रहे थे। हम लोग पहली बार हवेली असली पर गये थे तो दिन का वक़्त था लेकिन इस वक़्त शाम लगती थी। क़नीज़ो का कहीं पता न था। मैं बेधड़क अन्दर चला गया। वैसा ही गलियारा, दाईं तरफ़ वैसा ही तंग और ऊँचा ज़ीना, लेकिन इस बार हर तरफ़ वही हल्की हरी, कुछ नीली गुलाबी रौशनी, रौशनी। गर्मी या हरारत का बिलकुल एहसास न था। इस बार जी ने कहा कि गलियारे में धंसने से पहले ज़ीनों पर चढ़कर देखूँ वहाँ से क्या नज़र आता है।
उम्मीद के खि़लाफ इस बार ज़ीना बिलकुल रौशन था। जैसे रौशनी मेरे पीछे-पीछे हो, साथ-साथ हो कि जहाँ जाऊँ वहाँ रौशनी पहले ही पहँुच जाए। मुझे बड़ा डर लगा। ये क्या रहस्य है? जिन्नाती करिश्मा है या कुछ जादू या जादूगरी का चक्कर है। मुझे आगे बढ़ते ही जाना था, न जाने क्यों वापसी का ख़्याल अब मेरे दिल से निकल गया था। पेचदार ज़ीना लेकिन तंग नहीं, जैसे कि क़ुतब साहब की लाट के अन्दर जाने के लिये ज़ीने तंग थे। तो क्या ये लाट थी और बहुत मोटी, चैड़ी? मैंने सीढि़याँ गिननी शुरू कीं। मगर जल्द ही गिनती भूलने लगी। हर दस बीस ज़ीना चढ़ने पर लगता मैं गिनती भूल गया हूँ। याद करने की कोशिश करता तो और भी फि़क्र होती कि सीढि़याँ गिनना बल्कि सीढि़याँ चढ़ना दुरूस्त है भी कि नहीं। कितनी भी सीढि़याँ चढ़ लूँ, अंजाम कुछ न होगा। मेरा जी मतलाने लगा इस ख़्याल से अब मैं क़यामत तक सीढि़याँ ही चढ़ता रहुँगा लेकिन अब तो वापसी की भी हिम्मत न थी। मैंने एक शख़्स के बारे में सुना था कि उसने शर्त बदी कि सामने वाले बहुत ही ऊँचे पेड़ की फुनंग तक चढ़ जाऊँगा। पेड़ इतना लम्बा-चैड़ा था कि फुनगी भी उसकी बहुत मोटी मालूम होती थी। लेकिन जब वह ऊपर पहुँचा तो क्या देखता है कि फुनगी तक पहुँचने के लिये जिस डाल पर चढ़ना ज़रूरी था, वह टूटी हुई है। आगे जाना गै़रमुमकिन हो गया था। उसका दिल मायूसी से भर गया लेकिन उसने घूम कर नीचे देखा तो ज़मीन बहुत दूर लगी, इतनी दूर कि उसके पाँव काँपने लगे। इतनी दूर नीचे किस तरह उतरूँगा मैं। उसका दिल मायूसी और ख़ौफ़ से भर गया और वह चिल्लाने और रोने लगा कि बचाओ-बचाओ मैं गिरा जाता हूँ। आखि़रकार उसके दोस्तों और गाँव वालों ने सीढि़याँ लगा कर और रस्सियाँ ऊपर फेंक कर उसे हज़ार ख़राबियों से नीचे उतारा।
लेकिन यहाँ तो कोई दोस्त कोई गाँव वाला नहीं है। मेरा क्या होगा? अचानक ज़ीने ख़त्म हो गये, सामने खुली हुई छत थी जिस पर वही रौशनी फैली हुई थी। मैं चार क़दम आगे बढ़ा। दूर कु़तुब साहब की लाट साफ़ नज़र आती थी। तो मैं अभी उसी क़ब्रिस्तान में हूँ? सामने मेरे एक बारादरी मरमरीं, दालान में एक दरवाज़ा खुला और मैं अन्दर चला गया।
वही मंजर, क़सम है अल्लाह की बिलकुल वही मंजर था। अमीर जान किसी सुल्तान की तरह तख़्त पर बैठी थी, पीछे दो लौंडी मोरछल लिये हुए, दाएँ-बाएँ कनीज़ें। कहीं पर्दे की पीछे अरग़नूँ बज रहा था। कोई धीमे सुरों में गा रहा था। हल्के सुरों की बूँदियाँ पड़ रही थीं। हर तरफ़ इत्र की धीमी धीमी फुहार बरस रही थीं। दूर कहीं चिडि़याँ चहचहा रही थीं। लेकिन इस बार मैंने पहचाना कि वह लाल थे जो बरसात में ख़ूब बोलते हैं। लगता था सीटी उनकी छत के ऊपर से आ रही हैं।
‘ल... ली... लीजिए, मैं आप क... का क़ क़जऱ्ा व... वापस करने... ’मुश्किल से मेरे मुँह से निकला।’
लेकिन मेरी बात ख़त्म होने के पहले ही अमीर जान जैसे ख़्वाब से चैंकीं। उनके चेहरे पर ग़ुस्सा और लापरवाही की झलक साफ़ ज़ाहिर थे। वह सारी नर्मी चेहरे की और मुखड़े की नज़ाकत सख़्ती में बदल गयी।
‘तुम यहाँ कैसे आये? तुम यहाँ क्यों आये? चलो, फ़ौरन बाहर निकलो।’ उन्होंने कुछ इस तरह कहा जैसे मुझे पहचानती ही न हों।’
‘जी... मैं...गुल मोहम्मद हँू, ख़ानेदौराँ के टुकड़ी में मुलाजि़म हूँ... मुलाजि़म था। आपने...’
अब उनका नज़रअंदाज़ करना और भी ज़ाहिर होने लगा था। उन्होंने न सिफऱ़् चेहरा फेर कर बल्कि पहलू मेरी तरफ़ से मोड़ कर लौंडियों की तरफ़ देखा और माथे पर शिकन डालकर हुक्म दिया।
‘खड़ी देखती क्या हो? जानती हो किसी ग़ैर को यहाँ आने की इजाज़त नहीं। इसे धक्के देकर निकालो, दफ़ा करो इसे।’
दोनों में से एक लौंडी ख़ंजर हाथ में लेकर मेरी तरफ़ बढ़ी, दूसरी ने हल्के से ताली बजायी तो कई और भी पर्दे के पीछू से निकल आयीं। पहली लौंडी चार क़दम में मेरे सामने आ गयी थी और मैं मारे तआज्जुब और ख़ौफ़ के वहीं जम कर रह गया था। फिर उस ख़ंजर वाली औरत का हुस्न भी ऐसा था कि रईस भी अच्छे-अच्छे हैरान हो जावें।
‘चलो महल ख़ाली करो, वर्ना पेट में ख़ंजर उतार दूँगी।’ उसने सर्द लहज़े में कहा और इशारा दरवाज़े की तरफ़ किया।
मुझ पर जैसे ख़्वाब की दुनिया छायी थी। इरादा और अक़्ल मिट गयी थी। उस ख़ंजर चलाने वाली पर से नज़र न हटती थी। इतने में कई और बाँदी जो पर्दे से बाहर आयी थीं, मेरे चारों तरफ़ घेरा बना कर खड़ी हो गयी थीं। उनमें से एक हब्शी थी, मुझसे बहुत ज़्यादा लम्बी थी। उसने मेरा कन्धा हिलाया जैसे सोते को जगाते हैं और हल्के से मुझे धक्का दिया।
मैं जैसे आप से आप चल पड़ा और आप से आप ही ज़ीने से उतर गया। इस बार ज़ीने पेचदार न लगते थे।
वही हब्शी मेरे पीछू-पीछू आयी। रौशनियाँ पहले ही की तरह मेरा पीछा कर रही थीं। नीचे अन्दरूनी दरवाज़ा बाहर की तरफ़ खुलता था। हब्शी ने दरवाज़े को अपनी तरफ़ खींचकर खोला और खिलन्दरे-से अंदाज़ में मेरी पीठ थपथपाकर हल्के-से बाहर धकेला जैसे अपने अंदाज़ से कह रही हो कि अगर वक़्त और जगह मुनासिब होती तो....
मुख्य दरवाज़े के सामने वह बाग़ अब न था। या शायद मैं किसी और दरवाज़े से बाहर किया गया था। नग़मों और चहल पहल से फि़जा़ गूँज रही थी। मैंने घबरा कर पीछे मुड़ कर तरफ़ हब्शी के देखा, लेकिन वहाँ कोई न था। दरवाज़ा इस तरह बन्द हो गया था जैसे कभी खुला ही न था।
बाज़ार, बहुत रौशन और चमक दमक भरा बाज़ार। हुस्न इस बाज़ार का क्या बयान करूँ। जवान हसीनाएँ, ख़ूबसूरत, हसीन और सुन्दर, हर तरफ़ ऐेंडते फिरते हैं। चादरों में से जिनके हुस्न की रौशनी फूटती है ऐसी ख़ूबसूरत औरतें, पालकियों और डोलियों के झरोखों से लगी हुई बड़ी बड़ी काली, शरबती, जामुनी आँखें, कभी-कभी झलक मार देती हैं तो दिल-दिमाग़ में ठण्डक दौड़ जाती है। दुकानें सामान और माल और तिजारत के सामान से पटी पड़ी हैं। भीड़ ख़रीददारों, मोल भाव करने वालोें की और आज़ाद टहलते हुए बेफि़करों की। बीच में बाज़ार के एक नहर, ताज़ा ख़ुशगवार पानी की रवाँ, उसके दोनों तरफ़ पेड़ फूलों और फलों से लदे हुए। मगर कोई उनमें फूल नहीं चुन सकता था। पके हुए और मीठे फलों शाही मुलाजि़म चुन चुन कर तोड़ते और मूँज के सबद में इकट्ठा करते हुए। नहर का पानी घास फूस से पूरी तरह पाक, आयीने की तरह। बाग़बानियाँ गिरी हुई पत्तियों और पंखुडि़यों को जाल में समेटती हुई। क्या मजाल जो कोई बेख़्याली में भी कोई तिनका, कोई घास, कोई चिथड़ा, नहर में डाल दे। बाज़ार का हिसाब रखने वालों का यह भी एक काम है। सौंटे लिये हुए फिरते हैं। जहाँ किसी ने एक चिथड़ा भी गिराया, सौंटा लहरा के उससे कहा कि उठा, वर्ना पीठ लहूलुहान कर दूँगा।
दूर बाजा़र के एक सिरे पर आसमाँ महल जनाब, लाल पत्थर का बना हुआ जैसे कोई जवाँ हुस्न और हट्टा-कट्टा हो जिसके गालों से जवानी का ख़ून टपक रहा हो। उसके सामने खुला मैदान जिसमें भाँत-भाँत के लोगों की बेशुमार भीड़ हो। हालाँकि बाज़ार में दुनिया जहान की तोहफ़ा-तोहफ़ा चीज़ें बिक रही थीं, मेरे पाँव ख़ुद बख़ुद उस महल की तरफ़ खिंच गये जिसके सामने मेला सा लगा हुआ था। तीन तरफ़ नहर, सामने से खुला हुआ वह चैक न था, नमूनों और अचम्भों का ख़ज़ाना था। मैंने पीछे मुड़ कर देखा कि अमीर जान की सफ़ेद हवेली और वह बाग़ और हरियाली नज़र आते हैं कि नहीं। मगर वहाँ तो दूर तक बाज़ार ही बाज़ार था। सामने तुरही और शहनाई बज रही थी, एक तरफ़ मुर्गे़ लड़ाये जा रहे थे। एक तरफ़ ठेले पर ठठ्र-सा बाँध कर चिडि़यों के रहने बसने के लिये खोखे और चट्टियाँ लगी हुई थीं। तरह तरह की पालतू चिडि़याँ, लाल, पिदड़ी, कोयल, बुलबुल, हज़ार गुला, पेलक, सफ़ेद चकोर, लाल चकोर, फ़ाख़्ता, लाल और काले रंग की महोकी, और न जाने कितने उन्हीं की तरह के जानवर, चलते फिरते बसेरों में और उनके आस-पास उड़ते फिरते थे। लगता ही न था कि उन्हें जंगल से पकड़ कर सधाया गया होगा।
तानपुरे पर सुर सध रहे हैं। घुँघरू की छुन-छुन, छुना-छुन भी धीरे-धीरे सुनायी दे जाती है। फ़ारसी अरबी पढ़ा होने की वजह से मुझे शेर ओ शायरी से थोड़ा बहुत शौक़ एक ज़माने में ज़रूर था, पर गाने बजाने, नाच और गीत से सिफऱ् तमाशााइयों और शौक़ीनों वाला रिश्ता था। सुरीली आवाज़ सुनकर ध्यान बेशक चला जाता था। मैंने नज़र उठाकर देखा तो एक बड़े से लकड़ी के चबूतरे पर फ़र्श बिछा हुआ, और उसके ऊपर पाल की छत, चारों तरफ़ गज़रों और फूल हार का जोश। सारा माहौल रौशनियों से झिलमिला रहा था। लकड़ी के चबूतरे पर एक बारा चैदह बरस की उम्र की गुडि़या के हुस्न और गाने के जलवों के फ़रेब के लिये काफि़र व मोमिन तैयार हो रहे हैं।
वह काफि़र हुस्न पर थी अपने मग़रूर सरापा मिस्ले-बकऱ् शोल-ए-तूर
भरा सीने में जोशे नौजवानी ज़ुबाँ मसरूफ़ लफ़्ज़ लनतरानी
क़द मौजूँ सरापा नूर में गर्क़ बरंग मिसरा बरजस्ता ए बर्क़
अयाँ हर अज़ू से शाने-क़यामत सरापा जान ओ ईमान क़यामत
दमे रफ़्तार गिरता है क़दम पर बजाए साया रंग रूए-महशर
वह काफि़र ज़ुल्फ़ या दूद जिगर है दिले ज़ाहिद से भी तारीकतर है
ग़ज़ब है जाके फिर आना उधर का असर है ज़ुल्फ़ में तारे नज़र का
वह पेशानी कि का बद्र मुश्ताक़ दरख़्शां कौकब इक़बाले उश्शाक़
हमेशा देख कर शाम ओ सहर को कहे ली साजिदें शम्स ओ क़मर को
हर इक अबरू है तेग़े ख़ुश नज़्ज़ारा सरापा जौहरे मौजे इशारा
दमे जुंबिश अदा उस फि़तनागर की मुबारकबाद है ज़ख़्मे जिगर की
ख़ुमार आलूदगी आँखों से पैदा नज़र से कैफे़ मस्ताना हवैदा
निगाह मस्त फिरती है जिधर को ग़शी आती है मायूस नज़र को
वह मिज़गाँ वक़्ते आराइश करें घर दिले-आयीना में मानिन्द जौहर
किनारे बाम ओ रूख़सारए पुर नूर नज़र आते थे जैसे शोलए तूर
यही कहता है हर मुश्ताक़ मुज़तिर सवा नेज़े पे है ख़ुरशीदे महशर
दहन गिरदाबे सहबाए मानी जु़बाँ मौजे शराबे लन तरानी
तबस्सुम बन के हर लब से हवेदा तक़ाज़ा शोखि़ए तबा जवां का
ज़न्खदाँ जलवागर मानिन्दे गिरदाब बरंगे-आबे गौहरे ख़ुश्क ओ सैराब
सिफ़त गरदन की अफ़जूँ हौसले से वही जाने जो लग जाए गले से
हर इक शाना बरंगे दस्तए गुल जि़यारत गाह सुब्हे ईदे बुलबुल
अयाँ सीने से आग़ाज़े जवानी नमूँ पिस्ताँ की ग़म्माज़ जवानी
नज़ाकत से अजब आलम कमर का गुमाँ सबको रगे तारे नज़र का
किसी सूरत नज़र आती नहीं साफ़ मगर है ख़ल्क़ को मीम कमर नाफ़
हर इक ज़ानू तरब अँगेज़ उश्शाक़ बज़ाहिर जफ़्त ख़ूबी में मगर ताक़
नुमायाँ पायचे से साक़े पुर नूर तहे फ़ानूस जैसे शमए काफ़ूर
बहारे हुस्न है जोशे सफ़ा से अयाँ रँगे हिना है पुश्ते पा से
(नवशेरवाँ नामा, जि़ल्द अव्वल, लेखकः शेख़ तसद्दुक़ हुसैन पेज 258-259)
उसके बाद मुझे ख़बर न लगी कि उस क़ातिले दुनिया ने कब तक जलवे दिखाये, उसने क्या गाया और क्या नाचा। अगर नंगलख़ुर्द न होता और मेरे बीवी बच्चे न होते.....
मुझे झिरझिरी सी आयी। आँख-सी खुल गयी। क्या वह ख़्वाब की सोहबत थी? नहीं, अभी लोग पहले ही की तरह आ जा रहे थे, तमाशबीन भी कई मौजूद थे। एक तरफ़ तलवारबाज़ अपने फ़न की नुमाईश कर रहे थे, एक तरफ़ रीछ वाला अपने रीछ और उसके बच्चे के साथ जमावड़ा लगा रहा था। हसीनों और माशूक़ों का जोश पहले की तरह था। मुझे अब चलना चाहिए। कल सुबह तक तै करना है कि देहली में रहूँ या गाँव वापस जाकर ज़रा बची हुई रक़म को किसी कारोबार में लगाऊँ?
मगर वापसी किस तरह और किधर से हो? यहाँ तो सारे कारख़ाने जिन्नाती से लगते थे। क्या मुझे कु़दरते-ख़ुदा से किसी नये शहर में पहुँचा दिया गया है और मुझे अब यहीं रहना है? फिर मेरे घर बार बीवी-बच्चों, बूढ़ी माँ, उन सबका क्या होगा? पर ये शहर नया शहर है कि कुछ और? अगर नया शहर है तो मैं अमीर जान की क़ब्र में दाखि़ल होकर यहाँ क्योंकर पहुँचा। और अमीर जान की हवेली के कोठे से जो शहर मुझे दिखता था वह तो देहली ही था... क़ुतुब साहब की लाट और कहीं तो है नहीं। माना जो नदी मैंने देखी वह जमुना न थी, मगर वह लाट तो क़ुतुब साहब ही की थी। क्या पता क़ुदरत के कारख़ाने में कहीं कोई और क़ुतुब साहब भी हों, उनकी लाट भी हो, बस वह सुल्तान व हाकिम न हों जो देहली में हो गुज़रे थे। और क्या पता वह हाकिम भी हों, हो गुज़रे हों। तो अमीर जान मुझे क्योंके मिलें? और यहाँ क्योंके मिलें? क्या अमीर जान भी एक से ज़्यादा थीं और जो यहाँ मरीं वह कोई और थीं।
बात समझ में कुछ न आती थी। मेरा सर चकराने लगा। मैंने घबरा इधर-उधर निगाह की। कोई बफऱ् वाला कु़फ़ली वाला या कोई अत्तार मिले तो इलाज अपने सर के चक्कर आने का करूँ। मगर दाएँ-बाएँ जल्द-जल्द सर घुमाने से घूम और भी बढ़ी। मैं चक्कर खाकर गिरा और बेहोश हो गया।
पता नहीं मैं कब तक बेहोश रहा। मुझे तो लगा कि फ़ौरन ही तबीयत बहाल आ गयी है, मगर जब आँख खुली तो वह मेला न था। अमीर जान की क़ब्र के चोर दरवाजे को जाती हुई सड़क लेकिन साफ़ दिखती थी। मैं सरपट सड़क पर दौड़ा कि कहीं फिर हालत ख़राब न हो जाए। बहुत जल्द ज़ीने उतरकर मैं चोर दरवाज़े से बाहर आ गया। मैंने देखा तो नहीं, मगर मुझे लगाा कि मेरे पीछे दरवाज़ा बन्द हो गया और वह रौशिनयाँ भी ग़ायब हो गयीं। कुछ दूर पर सैयद भूरे शाह साहब या शायद बाबा निज़ामुद्दीन सुल्तान जी साहब की चैखट पर बहुत ऊँचाई पर एक दिया लेकिन रौशन था।
छठा अध्यायः
शाम नहीं... बिल्कुल नहीं... शाम का कोई वक़्त न था। मैं इस कब्र (जो भी इसे कहें) के अन्दर बहुत-से बहुत दो या ढाई घड़ी रहा था और जब दाखिल हुआ था तो ज़्यादा से ज़्यादा चार घड़ी दिन चढ़ा था। ज़ोहर (दोपहर की नमाज़) का वक़्त भी दूर था, मग़रिब (सूरज डूबने) का क्या सवाल था। मैंने घबरा कर देखा। सारे कब्रिस्तान में झाडि़यों, झण्डियों, काँटेदार झड़बेरियों, बर्रूओं और मेंहन्दी के घने झुण्ड से ढके हुए ज़मीन के टुकड़ों के सिवा कुछ नज़र नहीं आता था। कब्रें सब मिट चुकी थीं या अगर थीं तो झाड़ और झाडि़यों तले दब कर गायब हो चुकी थीं। मैंने हैरान होकर अमीर जान की कब्र की तरफ देखा। मगर वहाँ तो कई कब्र न थी। माना कि उनके मज़ार की शिलालेख बहुत ऊँची न थी। लेकिन दिखायी देती थी। अब तो यहाँ कुछ भी न था। और वह सुल्तान जी के नाम पर लगायी हुई वह प्याऊ और उससे मिला हुआ कुआँ किधर था? यहीं बस यहीं तो था। इसी प्याऊ से मैंने अमीर जान की कब्र की पहचान की थी।
मैंने घबराकर अन्धाधुन्ध भागना शुरू किया लेकिन साफ़ रास्ता क्या, तंग जगह भी न दिखायी देती थी। और अगर कहीं अफरा तफरी में पाँव मेरा कुएँ में जा रहा हो... मैं रुक गया, जैसे किसी ने भागते घोड़े की रास खींच ली हो। मगर यहाँ से बाहर तो निकलना ही था। क्या रात यहीं गुज़ारूँगा और खुदा जाने किन किन तरह की बलाओं और भूत प्रेतों और जिन्नातों को शिकार बन जाऊँगा। मैंने जी कड़ा करके फिर अपने आस पास देखा। वह कुआँ तो अब हरगिज़ वहाँ न था। शायद उसका पानी टूट गया हो तो किसी ने बन्द करा दिया हो। म... मगर... मगर इतनी जल्दी क क... कैसे सूख गया होगा आज सुबह ही की तो बात है कि मैं कुएँ में... नहीं... नहीं कब्र में उतरा था... न जाने कौन-सी मनहूस घड़ी थी वह जब मैंने... मैंने... क्या? मैंने तो कुछ भी न किया था। कजऱ् ही तो लिया था। मैं न दुनिया में पहला सिपाही और न पहला शख़्स बेटी ब्याहनी का जो बाप हो। क्या बेटी को ब्याहने के लिये कजऱ् लेना कुछ गुनाह है?
मैंने फूँक-फूँक कर देख भाल कर कदम रखना शुरू किया। जिस ऊँची रोशनी का जि़क्र मैंने किया है कि कब्र.... कब्र से बाहर आकर जिसे मैंने देखा था, उसे खूब ध्यान में रखकर उसकी तरफ चलने लगा। चलने क्या लगा, कहीं खुद को खींच कर आगे बढ़ाता, कहीं दोनों हाथों पर पगड़ी लपेट कर अपने हाथों से काँटों में रास्ता बनाता। कहीं सचमुच चारों हाथ पाँव के बल, सर और मुँह को छुपा कर बस अंदाज़ा लगा कर आगे बढ़ता। इन कटीले रास्तों बल्कि नरक के रास्तों में बिच्छू तो क्या होंगे लेकिन ज़हरीले गिरगिटों और साँपों का डर बेशक था। पर मैं तो तकदीर अपनी पहले ही ठोंक चुका था। साँप से डसवाना आप को मंज़ूर था मगर इस कब्रिस्तान में बल्कि इस रण में भी ठहराना मंज़ूर न था।
किसी तरह मैं बाहर आया, अँधेरा खूब फैल चुका था। अब जब मैं ज़मीन की सतह पर था वह रौशनी कुछ और साफ़ दिखायी पड़ती थी। सैयदी मौला साहब की मज़ार कहीं दरख्तों के पीछे छुपी हुई थी। मैंने उसी रोशनी को रास्ते की मशाल बना कर बढ़ना शुरू किया। हज़रत सुल्तानउल औलिया की दरगाह और सैयदी मौला साहब के मज़ार के बीच में सिफऱ् भूरे साहब थे और बाकी सब जंगल था। भूरे शाह साहब की भी एक झलक अब दिखायी दी। इक्का दुक्का चराग़ रौशन थे मगर वह ऊँची रौशनी अभी दूर थी। जंगल में पहले एक पगडण्डी उन दोनों को मिलती थी पर वह अब कुछ सड़क-सी बन गयी थी। इक्का दुक्का मज़ार और दरवाज़े भी नज़र आते थे। पहले, पहले क्या मानी? क्या मैं यहाँ बहुत देर के बाद आया हूँ?
सुल्तान जी साहब का दरवाज़ा सामने था। बुलन्द रौशनी की किरनों ने दरगाह की चैखट को रौशन कर दिया था। लोग आ जा रहे थे। बहुत-से लोग मग़रिब की नमाज़ पढ़ कर हज़रत अमीर खुसरो की दरगाह पर कव्वालियाँ सुन रहे थे। कुछ तो फ़ारसी में कव्वालियाँ थी और कुछ किसी ऐसी जु़बान में थीं जिसे मैं हिन्दी के तौर पर समझ लेता था लेकिन मुझे लगा कि मैं उसे बोल नहीं सकता। मगर ये मुल्क तो हिन्दी ही है, यह शहर तो देहली ही है..... अच्छा इन लोगों के लिबास भी कुछ अलग थे। बड़ी मोहरी के दो पाटों का पायजामा, सर पर पगड़ी, लेकिन बदन पर कुर्ते के ऊपर कोई लिबास था जिसकी आस्तीनें आधी थीं और कुछ की आस्तीनें पूरी तो थीं लेकिन ऊपर से लम्बाई में आधी कटी हुई थीं। हम लोगों से उलट उनके कुर्ते रंगीन, फूलदार और पायजामे रंगीन धारियों वाले कपड़ों के थे। मैंने गौर किया तो कपड़े न सूती थे न रेशमी, कुछ मिलवाँ बनावट के थे। मुझे वे कपड़े खूबसूरत मगर अजीब लगे क्योंकि हम लोगों में मर्द हमेशा रंगीन लेकिन भारी रंगों वाले माशी, कालापन लिये हुए हरे, मोंगिया, तेलिया रंग के कुर्ते पायजामें पहनते थे। हाँ, पगडि़याँ हमारी तरह उन लोगों में से किसी की काली, किसी की सफ़ेद, और ज़्यादातर लोगों की रंगीन धारीदार थीं।
मैं हैरत में डूबा आसमान की तरह ऊँची दरगाह के सामने खड़ा एक एक का मुँह तक रहा था। कुछ लोगों ने मेरे कपड़ों या मेरी सूरत को अजनबी जानकर कभी कभी कनखियों से मुझे देखा। शायद एक दो ऐसे भी थे जो ठिठके, लेकिन ठहरा कोई नहीं। आखिर मैंने हिम्मत करके एक शख़्स को भला आदमी जानकर सलाम के इशारे से रोका।
‘ऐ साहब! ज़रा एक बात बताइएगा।’
अजनबी शख़्स मुझे गौर से देखता हुए ठहर गया। मैं कोई माँगने वाला तो हो नहीं सकता था, मुसाफि़र मुमकिन था। उसने नर्म लहज़े में कहाः
‘जी फरमाइए। क्या खिदमत कर सकता हूँ?’
उसके लहज़े में लोच और मिठास थी। आवाज़ के उतार चढ़ाव में जल्दबाज़ी या गुरूर बिलकुल न था। उनके मुकाबले मेें मुझे हरयाणवी लहज़ा अख्खड़ और खराब लगा। मुुझे ऐसा लगा जैसे मैं उन लोगों की तरह हिन्दी न बोल सकूँगा। गड़बड़ा कर मैंने फ़ारसी में कहाः
‘आकाए मन, ई शहर देहली बाशद या न?’ (मेरे आका, यह शहरे-देहली है या नहीं?) मुझे अपनी फ़ारसी अपनी हिन्दी से बेहतर लगी।
अजनबी ने हल्की-सी मुस्कराहट के साथ कहाः
‘च खुशगुफ्तीद आकाए मन सलामत। ईं शहर अलबत्ता देहली मी बाशिद। गुमान तां चीस्त?’ (मेरे आका, क्या खूब फरमाया आपने। सलामत रहिए। ये तो शहरे-देहली ही है। आपने क्या गुमान किया?)
‘मगर... मगर ईं हमा चन्दा मतलून अस्त अज़ आँ देहली कि मामी शुना खतीम।’ (मगर... मगर ये तो उस देहली से कितना बदला हुआ है जिसे मैं जानता हूँ।)
‘क़ुरबान शुमा, आगा पास अज़ चन्द मुद्दत तशरीफ़ ईं जा आवरदा बाशीद?’ (आप पर कुरबान आका, आप कितनी मुद्दत बाद यहाँ तशरीफ़ लाये होंगे?
मैं उसके जवाब में क्या कहता। मुझे घबराहट और दिमागी उलझन की वजह से बड़े ज़ोर का चक्कर आया और फिर मैं दोबारा होश खो बैठा।
जब मुझे होश आया तो मैं अपने अजनबी एहसान करने वाले के घर के बाहरी दालान में लेटा हुआ था। हकीम आके मुझे एक बूटी सुँघा कर और कोई ठण्डक देने वाली दवा मेरे मुँह में डाल के जा चुके थे। दवा का ज़ायका अब भी मेरे मुँह में था। बीमारी की पहचान ये थी कि आँत की कमज़ोरी और एक मुद्दत से बिना खाये पिये रहने की वजह से बुखार आँत से जिगर की तरफ़ बढ़ गया जिसकी बुनियाद पर जिगर की उलझन ने दिमाग को प्रभावित किया, वरना मुझे मिर्गी या उसके जैसा कोई बहुत तकलीफ़देह मरज़ न था। मैं खुश हुआ कि मुझे अपनी असलियत बताने की ज़रूरत भी न पड़ी थी। मेरे अजनबी एहसान करने वाले ने, जिनका नाम मुझे मालूम हुआ कि हमीददुद्ीन था, शक किया कि मै मुसाफि़र था। देहली से सबसे दूर की जो जगह मुझे मालूम थी, वह मुल्के सिन्ध में एक कस्बा ईसा खील था। इसलिये मैंने यही बताया कि मैं ईसा खील में एक रईस के दरवाज़े पर सिपाही था। अपने हालात की बेहतरी की तलाश में देहली कल ही आया था। और फि़रोज़शाही सराए में ठहरा था। रास्ता भूल जाने की वजह से और दिमागी उलझन की वजह से मैं अपनी सराए वापस न जा सकता था और रहबर की तलाश में था कि अपने ठहरने की जगह पहुँच जाऊँ।
हमीददुद्ीन ने सोचा कि मज़ार सुल्तान जी पर मेरी ऊट पटाँग बातें दरअसल मेरी परेशानी और रास्ता भटक जाने के कारण थीं। हिन्दी लहज़ा अलग होना और फ़ारसी बातचीत में मेरी रवानी की वजह भी यही थी कि मैं सिन्ध का था और पूरब पहली बार आया था। लेकिन देर से मेरी आँते खाली थीं इसका क्या मतलब हो सकता था, उसने तआज्ज़ुब किया हो। उससे ज़्यादा तआज्ज़ुब तो मुझे था। आखिर सिफऱ् आज सुबह ही मैंने कुछ न कुछ खाया था और अमीर जान से मिलने चल खड़ा हुआ था। उनके मज़ार में (शायद वह मज़ार था या कुछ और) मुझे मुश्किल से दो ढाई घडि़याँ लगी थीं। ऐसे शख़्स को कई दिन का भूखा तो न कह सके हैं।
मेरी पहली मुश्किल यह थी कि इस मामले को कैसे सुलझाऊँ कि मैं देहली में तो था लेकिन वह देहली अजनबी मेरे लिये बड़ी हद तक थी। ऐसा क्यों? ये आसान लगा कि हमीदुद्दीन से बातचीत का सिलसिला यूँ छेडूँ कि मेरा राज़ न खुले कि मैं दर हकीकत कहाँ का था और यह मुझ पर खुल जाए कि हकीकत इस वक़्त देहली शहर की क्या है? शुक्र अल्लाह का कि मेरा यह कहना कि मैं ईसा खील में दरवाज़े का सिपाही था, मेरे लिये आसानी भी पैदा कर गया। हमीदुद्दीन ने जवाब में कहाः
‘बहुत खूब तो जनाब एक तरह से हमपेश मेरे हैं।’
‘जी वह क्यों कर?’
‘मैं भी घुड़सवार सिपाही हूँ, खानेदौराँ अब्दुस्समद खान साहब की ड्योढ़ी पर तैनात हूँ।’
‘ड्योढी’ यह शब्द मेरे लिये नया था लेकिन ‘खानेदौराँ’ से तो मैं खूब वाकिफ़ था।’
‘तो क्या असद खान बिन मुबारक खान अब खाने दौरानी से हट गये?’
‘असद खान बिन मुबारक खाँ? ये खानेदौराँ कब थे, मुझे नहीं मालूम। अब्दुस्समद खान तो फि़रदौस आरामगाह मुहम्मद शाह बादशाहे-गाज़ी के वक़्तों से खानेदौराँ हैं।’
मेरा सर फिर चकराने लगा। मैंने खुद को बहुत काबू में करने की कोशिश करते हुए पूछाः
‘तो क्या खुदावन्दे आलम इब्राहीम लोदी अब सुल्ताने-देहली नहीं हैं?’
एक शिकन गहरी हमीदुद्हीन के माथे पर आयी। वह कुछ समय के बाद बोले।
‘आप शायद कुछ भूलते हैं साहेब। इब्राहिम लोदी नाम का बादशाह तो यहाँ कभी नहीं हुआ...... हाँ बाबर बादशाह ने एक सुल्तान इब्राहिम लोदी को शिकस्त दे कर मुल्के हिन्द उससे तलवार के ज़ोर से ले लिया था। इब्राहिम लोदी पानीपत में दफ़्न हैं।’
एक बार मेरी आँखों के सामने फिर गहरा अँधेरा छा गया। इब्राहिम लोदी मेरे खुदावन्दे आलम, मेरे सुल्तान आली मकाम दफ़्न हैं पानीपत में? और ये शाह व बादशाह का क्या जि़क्र है? हमारे हाकिम खुद को सुल्तान हमेशा कहते और लिखते थे।
मेरे रंग को बदलता देख हमीदुद्दीन ने कहाः
‘जनाब का मिजाज़ अभी भी खफ़ा नज़र आता है। मेरी समझ में तो आप कुछ खा लें और यहीं लेट रहें। क्या फ़रमाया था जनाब ने, फि़रोज़शाही सराए? इस नाम की सराए से बन्दा वाकिफ़ नहीं है। लेकिन एक अरब सराए कुछ फासले पर ख़्वाजा साहब से मिली हुई है। वह मगर अब मुहल्ला आवासीय है, सराए नहीं। मुमकिन है वहाँ कुछ मालूम हो जाए। कल वहाँ जाकर देखेंगे।’
‘जहाँ हम हैं इस जगह का नाम क्या फ़रमाया था आपने मेरे दिल्ली हमदर्द?’
‘जी, यह बदरपुर के बाहरी इलाके में खिड़की गाँव है। यहाँ की मस्जि़द का जि़क्र आपने सुना हो शायद।’
‘खिड़की! मेरा मन बल्लियों उछला, ये जगह तो मेरे ज़माने में शहर से बिलकुल बाहर थी। और लाट फि़रोज़शाह की और कोटला फि़रोज़शाह का यहाँ से बहुत दूर थे। अब मेरा यह बहाना कि मैं राह भूल गया था, और जायज़ मालूम होगा। मगर शुक्र खुदा का कि उस वक़्त की चीज़ें बहुत-सी बाकी हैं। शायद फि़रोज़शाही सराए भी तुगलक़ाबाद और बदरपुर की सरहद पर अभी बाकी हो। मगर मेरे सुल्तान इब्राहीम से लेकर अब तक ज़माना कितना गुज़र चुका है, ये कैसे मालूम हो? जब मैं घर से चला था सन 1520 था, अब किस अटकल से मालूम करूँ कि यह कौन-सा सन् है? अभी चुप ही रहना बेहतर है। मैं ज़ुबान और दिमाग पर पूरी तरह काबू रखे रहूँ, इसी में बेहतरी है। कल तक कुछ न कुछ खुल जाएगा। क्या मालूम वह सराए भी अब भी वहीं हो?
अल्लाह हमीदुद्दीन का भला करे, उनकी दरख्वास्त पर मैंने चन्द निवाले खाये और वहीं बाहरी दालान में लेट रहा। मैंने उन्हें राज़ी कर लिया कि कल दिन चढ़ते ही मैं एक घोड़ा किराये पर लेकर देहली चला जाऊँगा (न जाने उस बेचारे घोड़े पर क्या बीती जिसे मैंने कब्रिस्तान के बाहर छोड़ा था। कोई ले ही गया होगा। उस सराए वाले को शिकायत रह गयी होगी जिससे मैंने घोड़ा किराये पर लिया था।) हमीदुद्दीन को मैंने पूरी तरह यकीन दिलाया कि अब मुलाकात हो गयी है तो इन्शाअल्लाह कायम रहेगी। मैं कल तनहा ही देहली चला जाऊँगा।
घोड़ा मैंने किराये पर ले तो लिया पर ये शक मुझे खाये जा रहा था कि बेचारे इस बेज़ुबान का भी वही हश्र न हो जो कल वाले घोड़े का हुआ था। मैं जान बुझ कर सैयदी मौला साहब के मज़ार और उस कब्रिस्तान से हो कर गुज़रा जहाँ कल वाला वाक़्या पेश आया था। मज़ार के चारों तरफ कुछ आबादी थी, दिखावे में कुछ खानाबदोशों ने कभी वहाँ रिहायश बनायी थी और वहीं रह पड़े थे। सारी आबादी पर खानाबदोशों की जि़न्दगी के तरीके ज़ाहिर थे। औरतें बेपर्दा, लगभग, आधा जिस्म नंगा, ऊँचा लहंगा और उस पर एक हल्की-सी चादर जिसके पीछे बदन साफ़ नज़र आता था। नंगे सर, नंगे पाँव, कानों और नाक में बड़े बड़े बाले और नथ। घर का सारा कामकाज करती हुई, मर्द चारपाई पर ऐंड़ते हुए और किसी किस्म की नलकी को एक बन्द प्याले में डाले हुए नलकी को मुँह में लेकर गुड़गुड़ाते और धुआँ छोड़ते हुए, तौबा कैसी गन्दी हरकत थी। मगर सामने के कब्रिस्तान में कोई कब्र, कोई मज़ार, कोई मज़ार की देखभाल करने वाला न था। मेरा दिल काँप उठा। कल मैं यहीं था। यह कौन-सी जगह है मेरे अल्लाह। क्या अमीर जान नामी कोई थी भी कि नहीं? क्या खुद मैं हूँ कि नहीं? क्या मैं कोई भूत या आवारा बेघर बार आत्मा हूँ? मगर हम मुसलमानों को भूत पर विश्वास है न आवारा आत्माओं पर। हमारा विश्वास कब्र पर, सज़ा पर, स्वर्ग और नर्क पर है और हश्र (वह जगह जहाँ मरने के बाद सारे लोग फिर जि़न्दा उठाये जाएँगे) पर है। हम में से केाई कभी भूत प्रेत शैतान बुरी आत्मा नहीं बनता। लाहौल विला कूवत, अल्लाह मुझे माफ़ करे। इस वक़्त जो हो रहा है, शायद किसी बुज़ुर्ग का दुष्प्रभाव है। मुझे सब्र करना और हालात के खुलने का उम्मीदवार रहना चाहिए।
गयासपुर, सीरी कीलोखेड़ी, ये सब बड़ी हद तक सुनसान दिखायी दिये। सुल्तान जी की दरगाह के ज़रा आगे भूरे शाह साहब के मज़ार के क़रीब लेकिन एक तरफ को हटी हुई मैंने एक बेहद बुलन्द और दिलकश इमारत देखी। संगमरमर और लाल पत्थर से बनी हुई, उसका गुम्बद कुछ बिलकुल नयी बनावट का था। ज़रा-सा प्याज़ की शक्ल का, लेकिन इतना ज़्यादा सुडौल और प्रासंगिक कि बस। चूँकि वह इमारत ज़रा ऊँची जगह पर थी, इसलिये दूर से भी मुझे दिखायी दे गयी। कई मंजि़लें और चैमुखी दालान थे। बहुत ऊँची कुर्सी और हर तरफ बड़े और खूबसूरत बाग। सारे में अजब ठण्डक और ताज़गी बरस रही थी। यह कोई किला या महल तो हो नहीं सकता था, किसी का मज़ार ही होगा, मगर मज़ारों के चारों तरफ ऐसे बाग कहाँ होते है। खुशनसीब है वह शख़्स जिसने ऐसी औलाद पैदा की। मुझे बाद में मालूम हुआ कि वह मकबरा पहले मुगल बादशाह ज़हीरूद्दीन मुहम्मद बाबर के बेटे हुमायूँ का था और उस के कई पूर्वज भी वहीं दफ़न हैं।
बीबी फातिमा साम के मज़ार से मैंने घोड़ा दाएँ तरफ बढ़ाया। ज़्यादातर वही बेरौनकी की हालत थी जो पहले देख आया था। हालाँकि मेरे ज़माने में वह शान पुराने शहरों की न थी जो उस वक़्त रही होगी जबकि उनके सुल्तानों ने उनकी बुनियाद डाली थी। इसलिये आज जैसा रेगिस्तानी माहौल न था। अब तो ऐसा लगता था कि जंगल धीरे धीरे कर अपने पिछले सामान वापस ले आया हो। मटका शाह साहब के मज़ार पर प्याऊ ज़रूर यूँ ही थी जैसी उन वक़्तों में थी मगर उसके चारों तरफ जो आबादियाँ उस वक़्त थीं, अब बहुत छिदरा गयी थीं। शायद ख़्वाज़ा साहब को जाने वालों ने ये राह छोड़ कर कोई नयी राह बना ली थी। मगर पुराने कि़ले से गुज़रते वक़्त मैं बेएख़्ितयार रो दिया। किला मुबारक का बड़ा हिस्सा खण्डहर हो गया था। वह बाम्बे-आली जहाँ हाजि़री के वक़्त शाहों और बड़े बड़े फ़ौजी ओहदेदारों और राजाओं के कदम लड़खड़ाते थे, जहाँ उन्हें पाँच सौ कदम पहले ही सवारी छोड़कर पैदल होना पड़ता था, जहाँ से वह फ़रमान ज़ारी होते थे जिनके दबदबे से सत्ता प्राप्त लोगों की हवेलियों में दरारें पड़ जाती थीं, अब चन्द झोपडि़यों से दबा हुआ पड़ा था। जहाँ महल थे वहाँ खुला मैदान और ऊँचे नीचे टीले थे। घास हर तरफ उग रही थी। ऊँची घास में कभी कभी कोई खरगोश, कोई लोमड़ी, कोई चीतल झलक पड़ता और गायब हो जाता और देखने वाले को शक रहता कि वह जानवर उसने वाकई देखे भी थे कि उसकी ख़्याल की आँख ने उसे भरमाया था।
मैं देर तक खड़ा आँसू बहाता रहा, अरबी शाइरों की तरह जो अपने कसीदों में जि़क्र करते हैं दोबारा गुज़रने का उन रेगिस्तानी खेमों पर से जहाँ उनके माशूक ने कभी रात गुज़ारी थी और अब वहाँ एक दो अधजली लकडि़यों, टूटी हुई खेमे की रस्सियों, हवा में फटफटाते हुए फटे हुए और मौसम की मार झेले हुए खेमों के फटे हुए पर्दों के सिवा अब कुछ न था। हाय हाय इंसान की बुनियादें कितनी कमज़ोर हैं।
अब मुझे यकीन आने लगा था कि मेरे सुल्तान, मेरे मेहरबान, मेरे आका अब मुल्के हिन्दुस्तान के मालिक न थे। अब वह कहाँ थे, शायद कब्रों में आराम करना भी उन्हें नसीब हुआ कि नहीं। मेरे सामने खुदा वन्दे आलम सुल्तान इब्राहीम लोदी अपने अज़ीमुश्शान बाप का मकबरा मुकम्मल करने का हुक्म सादिर फरमा चुके थे। काम भी शुरू हो गया था। यहीं कहीं सुल्तान जी की दरगाह ज़न्नत निगाहें से पश्चिम को गुड़गाँव की तरफ जो रास्ता जाता था, उस पर कोई डेढ़ मील की दूरी पर वह मकबरे बन रहे थे। लेकिन अब तो खुद सुल्तान इब्राहीम की मज़ार दूर पानीपत में कहीं थी। न मालूम लोदियों के मज़ारात पूरे हो भी सके थे या नहीं।
पुराने कि़ले के आगे आबादी बढ़नी शुरू हुई। फिरोज़शाह के कोटले तक आइए तो शहर का-सा माहौल बनने लगता था। लेकिन खुद कोटला पर कुछ न था। बस वही लाट जो सुल्तान मरहूम ने किस जतन से और किस मुश्किल तरकीब से काम लेते हुए दूर पंजाब से उठवा कर यहाँ लगवाया था, यूँ ही अपने ऊँचे चबूतरे पर गर्व और गरिमा के साथ सर उठाये खड़ी थी। अब चारों तरफ कोटला में आबादी और भी ज़्यादा हो गयी थी लेकिन खुद कोटला सुनसान पड़ा था। मैंने कोटले से कुछ आगे निकल कर घोड़े को दाँई जानिब दरिया की तरफ मोड़ा कि फि़रोज़ाबाद इसी तरफ था।
आबादी के नाम पर तो वहाँ कुछ न था, चन्द झोंपड़े मछेरों और मल्लाहों के थे। दरिया भी अब ज़रा दूर चला गया था और गाँव से दिखायी न देता था। अमीर जान की हवेली बेवजह थी, हाँ एक खण्डहर सा ज़रूर आबादी के सिरे पर था, उसे ही हवेली या हवेली का मातमदार कह लें तो कह लें। अब मेरा शक और भी पोख़्ता हो गया कि वे ज़माने अब कहीं बहुत पीछे छुट गये। मैंने अपनी मियानी की थैली को टटोला तो वह जस की तस मौजूद थी, गर्भवती औरत की तरह सिक्कों से बोझिल और मेरी कमर से लिपटी हुई, जैसे उसे भी खौफ़ हो कि मैं कहीं चला जाऊँगा और वह दुनिया में अकेली रह जाएगी। ज़माने थे ज़रूर, नहीं तो ये सिक्के मेरे पास कहाँ से आते?
मैंने घोड़े को दरिया से मिले हुए बाँई तरफ की उत्तर की दिशा में मोड़ा कि उधर आबादी बहुत ज़रूर आती थी। हर तरफ सवारियों की रेलपेल, बैल गाडि़याँ, रथ, दो पहिए और एक घोड़े वाली खुली हुई गाडि़याँ जिनमें एक या दो या तीन मुसाफि़र पाँव फैला कर आराम से सफ़र कर रहे थे। ये सवारियाँ मेरे वक़्त में न थीं इसलिये मुझे बहुत दिलचस्प और अनोखी लगीं। किसी ने उसी वक़्त पुकारा@ ‘ओ मियाँ तांगे वाले, ओ भाई तांगे वाले होत!’ तो उस गाड़ी को हाँकने वाले ने मुड़ कर देखा और रुक गया। उससे मैंने जाना कि इसे ‘तांगा’ कहते हैं। अजीब बदसूरत लेकिन दिखने में आरामदेह सवारी थी। पालकियाँ, सजी हुई डोलियाँ, हाथी, ऊँट क्या नहीं था जो इस बाज़ार में चल न रहा था जिसकी दिशा में मैं भी चल रहा था। तांगे की तरह सवारियों के सम्बन्ध में एक नयी चीज़ और दिखायी पड़ी कि जिसका नाम बाद में मालूम हुआ कि नाल्की था। नाल्की क्या थी, लड़की का एक शिल्प कला से सज़ा हुआ रंगीन और सँवरा हुआ ऊँचा गुम्बद थी। जिसके दरवाज़े के ऊपर एक और भी ऊँचा छज्जा था कि अन्दर बैठने वाली को धूप से बचाव रहे और अगर पर्दा उठा दिया जाए तो हवा भी मिलती रहे। और अगर बारिश हो तो छींटें अन्दर न आएँ।
जिस बाज़ार की तरफ उन सवारों और सवारियों और पैदल चलने वालों को मैं चलते देख रहा था, उसके बारे में मुझे ख़्याल-सा था कि जो चमकदार बाज़ार मैंने अमीर जान... अमीर जान... या जो भी वह हस्ती थी, उसके मकबरे में देखा था, वह इस मौजूदा बाज़ार से कुछ मिलता जुलता था। मगर मैंने उधर का रूख न किया और नदी का किनारा लगभग थाम कर उत्तर की दिशा में चलता गया कि उधर भीड़ कम थी। बाज़ारियों में चाहे वह समलैंगिक बेफि़करे रहे हों, या शिल्पकार या शरीफ़ लोग मैंने सबको हथियार बन्द देखा। शायद उन दिनों जनता में जगें लड़ने का शौक बढ़ा हुआ था। या शायद लोग उस ज़माने में खुद को कम महफूज़ समझते थे। मुझे यह भी शक था कि कहीं भीड़ में अगर किसी से टकरा गया या घोड़े की टाप किसी को लग गयी तो न चाहते हुए भी झगड़ा हो सकता था। मैं अज़नबी और बेसहारा, बेघर मुसाफि़र ऐसे किसी जंजाल के लिये तैयार न था।
उत्तर में ज़रा आगे ही मैं गया था कि एक निहायत दिलकश मस्जि़द नज़र आयी। इस शहर में मस्जि़दों और मज़ारों की बहुतात थी। हम लोगों के ज़माने में ऐसा न था। मस्जि़द के दो मीनारें कलम के भालों की मानिन्द छरेरे और बहुत ही ऊँचे थे। मस्जि़द से बिलकुल मिली हुई एक सराए भी थी। सराए के दरवाज़े पर ऊँट, घोडे, पालकियाँ, खोंचे वाले इस तरह के बहुत-से लोग दिखायी दे रहे थे। यानी ये सिरा अब तक आबाद था और मैं यहाँ ठहर सकता था।
मैं मस्जि़द की इमारत की तरफ खिंचता चल गया। मुख्य दरवाज़े पर जो शिलालेख था उसके मुताबिक उस मस्जि़द का नाम ज़ीनत उल मसाजि़द था और उसे मोहिउद्दीन औरंगज़ेब आलमगीर बादशाह गाज़ी की बेटी ज़ीनतुन्निसा बेग़म ने 1707..? 1707 ई में... बनवाया था। मैंने आँखों को खूब रगड़कर साफ़ किया फिर हर तरह गौर करके देखाः वही 1191 हिजरी नज़र आयी। वल्लाह ऐसा रहस्य मुझ पर नाजि़ल हो, ये नहीं हो सकता। अरे साहब जब मैं नंगल खुर्द से चला था तो सन् 1520 था, मुझे अच्छी तरह याद है और सुल्तान इब्राहिम लोदी को हुकूमत करते चार साल हो रहे थे। तो क्या ये मस्जि़द उसके कोई दो सौ साल बाद बनी थी? तो क्या वाकई इब्राहिम लोदी ही नहीं और भी बहुत कुछ मेरे नंगल खुर्द छोड़ने से लेकर अब तक हो चुका था?
मै लड़खड़ाते हुए कदमों से अन्दर गया। मस्जि़द के बरामदे में एक तरफ किसी का मज़ार था। मैंने क़रीब जाकर शिलालेख देखा तो मालूम हुआ कि ये उसी शहज़ादी ज़ीनतुन्निसा बेग़म का मज़ार है। वह 1710 में खुदा से जा मिली थी। इस वक़्त भला कुछ नहीं तो सन् 1730 होगा। शायद और भी ज़्यादा हो। शायद ये मुहम्मद शाह बादशाह जिनका नाम हमीदुद्दीन ने लिया था बारहवीं सदी में नहीं तेरहवी हिजरी में हों।
मैंने जूते उतारे, हौज़ पर जाकर वुज़ू किया और सज्दे में जाकर अल्लाह के हुज़ूर में ध्यान करके गिड़गिड़ा कर कहने लगा कि तू सारे जहानों का अल्लाह है, तू सब कुछ जानता है और सब कुछ देखता है, तू रहम करने वाला है और तू ही रहम करता है, अपने प्रिय के सदके, उनकी प्यारी बेटी बीबी फातमा के सदके मुझे इस मुश्किल से निज़ात दिला दे। मेेरे अल्लाह मेरी ब्याही बीबी का, मेरे बेटे का क्या हाल हुआ होगा, मेरी माँ पर क्या गुज़री होगी। अगर तेरी मजऱ्ी नहीं है तो मुझे उनसे न मिला, लेकिन मुझे यहाँ से उठा ले।
मैं रोते रोते निढाल हो गया। इस दौरान कई लोग मेरे पास से गुज़रे लेकिन शायद किसी को मुझसे मेरा हाल पूछने का यारा न हुआ। एक अच्छी खासी उम्र के रोते बिलखते मर्द से कौन कुछ पूछने की हिम्मत करता। भले लोग डर गये होंगे कि खुदा जाने ये बादशाह का सताया हुआ है या अल्लाह के गज़ब का शिकार हुआ है।
जब मेरे आँसू थमे तो दिल मेरा मुझे कुछ हल्का लगा, खुदा जाने कितनी दहाइयों बल्कि सदियों के बाद आज मैं रोया था। मैंने हौज़ पर जाकर फिर से वुज़ू किया और दो रका’त नमाज़ पढ़ कर अल्लाह से फिर दुआ माँगी कि मुझे सही रास्ता मिले, मेरा खौफ़ कम हो, मुझे मेरे घर बार की खबर मिले। मगर दो ढाई सौ बरस के बाद मेरा घर बार कहाँ रह गया होगा? न सही। मुझे पता तो लगे कि अब वहाँ क्या है, कौन है, कुछ है भी या नहीं? अल्लाह मेरा जानता है मैंने कुछ ऐसा गुनाह न किया था कि जिस की सज़ा मुझे यूँ मिलती और मुसलसल मिलती... अब के बाद मैं क्या करूँ... मुझे एक तरह से नयी जि़न्दगी मिली थी। मैं इस नयी जि़न्दगी को गुज़ारने के लिये क्या तरीका एख्तियार करूँ... फ़कीरी ले लूँ कि फिर से घर गृहस्थी जमाऊँ। हालाँकि अब मेरी उम्र्र ढाई सौ बरस से ऊपर थी लेकिन जिस्म की ताकत में कमी हरगिज़ न थी। या अगर थी भी तो इतनी थी जितनी किसी बूढे़ होते हुए मर्द के हाथ पाँव में होती है।
पहले तो मुझे इबादत से उतनी ही दिलचस्पी थी जितनी किसी सिपाही पेशा को होती है। कभी कभी औलिया ए अल्लाह के दरबार में ज़रूर हाजि़र हो जाया करता था वर्ना नमाज़े ज़ुमा का भी इन्तज़ाम कुछ न कुछ करता था। लेकिन इस वक़्त नमाज़ और दुआ से मेरा दिल कुछ हल्का तो हुआ ही था, मगर शायद उन पाक शहज़ादी की नियतों और नेक कामों की बरकत थी कि अल्लाह तआला ने मेरे दिल में कई इरादे डाल दिये। जिनको ताकत से अमल में लाकर मेरी अगली जि़न्दगी का कुछ नक्शा तैयार हो सकता था। सबसे पहले तो मैंने ज़ीनतुन्निसा बेग़म की सराए पर जाकर भटयारिन और उसके मर्द के सामने खुद को मुल्के सिन्ध से आया हुआ मुसाफि़र ज़ाहिर किया और बताया कि मैं तलाशे रोज़गार में देहली आया हूँ, जब तक कोई सूरत नौकरी की न निकले, मैं सराए ही में रहूँगा। उन्होंने मेरा नाम तो पूछा लेकिन जहाँ से आया था वहाँ की जानकारी और मेरी ज़ायदाद के बारे में कुछ न पूछा। मैंने खुद ही बता दिया कि देहली से बाहर वज़ीराबाद पर नहर के पास मैं लुट गया था और पिछली रात मैंने एक दोस्त के यहाँ खिड़की गाँव में गुज़ारी थी। इसके आगे मैंने कुछ न कहा और न ही भटियारी ने मेरी जानकारी लिखवाने के इन्द्राज में कोई जल्दबाज़ी ज़ाहिर की।
मैंने किराया पूछा तो मालूम हुआ कि डेढ़ पैसे रोज़ के हिसाब से मैं कई दिन रुक सकता हूँ। खाना जो चाहिए होगा पका दिया जाएगा। उसकी कीमत अलग से देनी होगी। सराए से कुछ दूरी पर दरियागंज में कई हम्माम थे वहाँ नहाने और पाक होने का इन्तज़ाम था।
मेरे पास स्थानीय मुद्रा तो थी नहीं। जब मैंने अपने छदाम भटियारी को दिखाये तो वह खौफ़ज़दा होकर बोली कि मियाँ साहब ये जि़न्नाती सिक्के कहाँ से लाये, मैंने बहुतेरी कोशिश उसे समझाने की कि जहाँ से मैं आया हूँ वहाँ यही सिक्के चलते हैं। लेकिन जब मैंने ज़्यादा ज़ोर देकर इसी बात को कहना चाहा तो उसके चेहरे पर शक के भाव पैदा हुए। शायद उसे ख़्याल आया हो कि मैं कोई डकैत था और मुझे किसी पुरानी हवेली में गड़ा खज़ाना हाथ लग गया था।
‘मियाँ साहब मेरी मानो तो इन पैसों को कोतवाली में ले जाकर दिखाओ। वह पहचानेेंगे कि ये क्या माल है और इसकी कीमत क्या है। मुझे तो बिलकुल दरकार नहीं।’
उसकी आवाज़ कुछ तेज़ होते देखकर भटियारे ने भी हमारी तरफ ध्यान दिया कि एक दो मुसाफि़रों को जिज्ञासा हुई कि यहाँ क्या हो रहा है। देहली वाले मेरे ज़माने में भी झगड़े तमाशे पर मज़मा लगाने के बहुत शौकीन थे। अब शायद वह शौक और भी बढ गया था। इसके पहले कि मैं किसी भीड़ के ध्यान में आ जाता, मैंने अपने गले का कण्ठा उतार कर भटियारन को दे दिया। इसमें कुछ दाने चाँदी के और एक दाना सोने का था। एक आध दाना शायद मूँगे का भी रहा हो, बाकी रंगीन शीशों के थे। मैंने कहाः
‘नेक बख्त, इतने कि मैं बाज़ार जाकर अपना काम ढूँढू। तू ये रख ले और एक कोठरी पर ताला मेेरे नाम का डाल दे। बाकी हिसाब होता रहेगा।’
भटियारिन का मिज़ाज़ कुछ ठण्डा पड़ा और मैं अपनी दादी को दुआएँ देता हुआ कि हार ये उन्हीं मरहूम का था और मेरे बाप ने मुझे मेरी शादी पर पहनाया था, सराए के बाहर आ गया और उसी रास्ते पर चल पड़ा जिस पर मैंने सवारों और पैदलों को चलते देखा था। फिर एक बहुत ऊँचा और भारी दरवाज़े का ढ़ाँचा, जैसा किसी कि़ले के लिये मुनासिब होता। दोनों तरफ ऊँची चारदिवारी, लेकिन ज़ीनतुल-मसाजिद की तरफ से आने जाने वालों पर कोई रोक टोक न थी। दरवाज़ा देहली दरवाज़े के नाम से मशहूर था मगर अब बहुत-से लोग देहली के बजाए दिल्ली कहने लगे थे। वजह इसकी मालूम न हुई पर बाद में मैंने सुना कि यहाँ के एक शाइर बका साहब ने एक और शाइर साहब जिनका नाम मीर था, हज़ू, (वह शाइरी जो किसी की बुराई करने के लिये लिखी जाए) में उनकी कहा था।
पगड़ी अपनी संभालियेगा मीर और बस्ती नहीं ये दिल्ली है
मुझे तो देहली की जगह दिल्ली नाम बिलकुल पसन्द न आया। हमारे ज़माने में लोग आम तौर पर कहते थे देहली जन्नत की देहलीज़ है। कई गँवार लोग और भी अच्छा कहते कि देहली जन्नत की देहरी। लफ्ज़ देहरी देहलीज़ के मानी में शायद इलाका ए बिहार से यहाँ आया था कि दकन से, मगर लोग बोलते ज़रूर थे। बाज़ार का नाम मालूम हुआ कि दरियागंज है। मस्जि़दों के अलावा भी यहाँ लोगों की आव जाव के सामान बहुत थे। एक बात मैंने ये देखी कि इस शहर में अब तिजारत और सामान की वह अधिकता थी जिसकी हमारे वक़्तों में कल्पना भी मुश्किल थी। हर जगह हर तरह का सामान खरीददार की आँखों का ध्यान खींचता था। कहते थे दुनिया का हर सामान दरियागंज में ले लो और वहाँ अगर न मिले तो चार कदम आगे चल कर जाओ चाँदनी चैक में मिलेगा ही मिलेगा। क्या चीज़ थी जिसके खरीददार यहाँ न थे और जिसके खरीददार भी यहाँ न थे उनमें से कई तो ग्राहकों का ध्यान खींचने के लिये आवाज़ लगा लगा कर पुकारते थे और कई ने अपने नौकर बाहर खड़े कर रखे थे जो हर आने जाने वाले, यहाँ तक कि पालकी सवारों को भी रोकने की कोशिश करके बताते कि उनके यहाँ कौन-सा माल मिलता है। हर तरह के दुकानदार ने अपने माल के मुताबिक दिलचस्प आवाज़ें बना रखी थीं। मिसाल के तौर पर सुई धागे पेचक वाले यूँ पुकारते थे।
‘ऐ मियाँ ये इसफ़हान की सुईयाँ हैं, आँखों में खबतियाँ हैं!’
‘ऐ साहब ये लो ढाके वाली मलमल का धागा, जिसको चाहो कच्चे धागे में बाँधा लो। चाहो कुर्ता शलवार सिलवा लो!’
‘भाई मियाँ, ज़रा देखते जाइयो ये मुल्के यमन के रेशमी धागे हैं, इनसे बनते हज़रते सुलेमान के रागे हैं!’
‘ऐ जी साहब, इन सुइयों में तलवारों का लोया है, इनसे हमने मोतियों को पिरोया है!’
अजब मज़े का माहौल था। भाँत भाँत की बोलियाँ बोलने वाले व्यापारी भी और रंग रंग के पहनावे, शक्ल ओ सूरत वाले खरीददार भी। सबसे बड़ी बात ये कि सर्राफ़ यहाँ बेशुमार थे, कदम कदम पर उनकी दुकानें, और कई तो यूँ ही रास्ते में ही दरी बिछाकर अपने तमाम सामानों की नुमाईश करते थे। मैंने जगह जगह रुक कर बगौर लेकिन खुद को ज़ाहिर किये बगैर देखा कि माल क्या है और गाहक कैसे हैं, तो मालूम हुआ कि सर्राफ़ों का अजब आलम है। उनके पास हर तरह का और हर मुल्क का सिक्का जो चलता है मौजूद था। ईराक के दीनार से लेकर ईरान का तमन और रोम का रियाल औ मुल्के फि़रंग का फ्राँक और पेसू और पौंड, सब मौजूद थे। गाहक भी चीन व तुर्किस्तान से लेकर दकन व रोम व फि़रंग के थे। जिसके पास जो था उसे खरीद रहा था या बेच रहा था। मैंने देखा कि गाहक हो या बेचने वाला हो, किसी से कोई कुछ पूछता न था। लेकिन मेरे सिक्कों जैसे पुराने सिक्कों का लेने वाला या बेचने वाला दिखायी न देता था।
मैंने हिम्मत कड़ी करके एक ऐसे सर्राफ़ की तरफ रूख किया जिसके यहाँ बहुत भीड़ न थी। मैंने डरते डरते अस्सलाम अलैकुम कहा। उसने मुस्कराकर और गर्मज़ोशी से कहाः
‘वअलैकुम अस्सलाम मियाँ जी साहब, कहिए क्या खिदमत करूँ।
शायद मेरे लहज़े और मेरे पहनावे से वह मुझे गैर मुल्की समझा था, क्योंकि हिन्दी में जवाब उसने ठहर ठहर दिया था। मैंने भी तुक पहचान लिया कि वह मुझे यहाँ का नहीं समझता। एक तिनका जो कि मैंने पहले ही मियानी से निकाल कर शलूके की जेब में डाल रखा था, मैंने उसे निकाला और अपनी हथेली पर रखकर उसे दिखाया और कहाः
‘ई हा राचा बहामी आगा’ (आका, आप इनकी क्या कीमत देंगे?)
सर्राफ़ ने झुक कर तिनके को बड़े गौर से देखा। फिर बोलाः
‘मी तवानम कि मन बर ई मसकूक अंगुश्त नहुम आगा व दरदस्त मन गीरम?’ (आका, मैं चाहता हूँ कि इस सिक्के पर उँगली रखूँ और इसे अपने हाथ में लेकर देखूँ)
मैंने कुछ सोच कर कहा, ‘दुरूस्त’
सर्राफ़ ने वह तिनका मेरे हाथ से लेकर उंगलियों से रगड़ा, उलटा पलटा, एक और चाँदी के सिक्के से टकराकर खनकाया, फिर बोलाः
‘आगा ई मसकूक रा अज़ कुजा आवुरदह बाशीद?’ (आका, ये सिक्का आप कहाँ से लाये हैं)
मज़बूरी में मैंने वही कहानी सुनायी कि मुल्के सिन्ध से आया हूँ। वहाँ ये सिक्का चाँदी के मानक एक तोला वाले मिस्री दरहम के बराबर गिना जाता है।
उसकी फ़ारसी मुझे बिलकुल समझ में आती थी, लेकिन मेरा फ़ारसी लहज़ा शायद उसे कुछ भारी पड़ रहा था। मेरी हिन्दी बहुत अलग थी, लेकिन हिन्दी बोलने का अभ्यास ज़रूर था। बाकी गुफ्तगू में वह ज़्यादातर फ़ारसी और मैं ज़्यादातर हिन्दी बोला। हासिल ये हुआ कि पास पड़ोस के बड़े सर्राफ़ों से पूछ कर और मशविरह करके फैसला हुआ कि एक तिनके के बदले ढाई रूपये देहलवी मिलेंगे। अगर तिनके ज़्यादा हों और एक साथ बेचें तो कुछ ज़्यादा मिल सकेंगे।
मैंने कहा कि मैं पाँच तिनके बदलाऊँगा, फि़लहाल ये एक बदल लिया जाए। फिर मैंने वह कुछ छदाम निकालने चाहे जो मैंने बहादुरगढ़ में भुनाये थे और वह बहलोली जो अभी मेरे पास थे। लेकिन मेरा दिल अचानक दर्द से भर गया। आह क्या वह दिन वाकई थे, या अब ये दिन वाकई हैं, क्या बहादुरगढ़ की वह सराए अब भी होगी, क्या बहादुरगढ़ ही अभी होगा? मैंने ख़्याल किया कि ये सिक्के यादगारी रख लूँ, मगर किसकी यादगार, और वह किसके मतलब के होंगे, इन सवालों का जवाब मेरे पास न था। जैसे कोई बूढ़ा अपने बचपन के ज़माने का कोई खिलौना या अपनी टोपी या अभ्यास की तख्ती कहीं से पा जाए और उसका दिल उस ज़माने की खट्टी मीठी यादों से भर जाए और उसकी आँखों में आँसू जारी हो जाएँ। उसका दिल बेइन्तहा चाहे कि मैं इस यादगार को रख लूँ, मगर क्यों और किसके लिये, यह उसकी समझ में न आता हो।
बाज़ार में घूमते फिरते, लोगों की बातें सुनते और कभी कभी खुद भी एक दो सवाल मासूमियत के साथ पूछ देने से कई बातें मुझ पर रौशन हुई।
इस वक़्त के बादशाह का नाम वाकई अहमद शाह था। यह उसके सन ए जुलूस का दूसरा साल था। यह लोग सन ए हिज़री और सन ए हिन्दी के साथ सन ए जुलूस भी गिनते थे, यानी बादशाहे-मौजूदा को हुकूमत करते कितने बरस गुज़रे। बादशाही कागज़ों और हुक्मनामों में और रस्मी मौकों पर सन ए जुलूस दजऱ् करने या उसका एलान करने की रस्म थी।
यह बादशाह खानदान मुगलिया के थे और इसकी बुनियाद डालने वाला ज़हीरूद्दीन मुहम्मद बाबर है जो काबुल में दफ़्न है और जिसने इब्राहीम लोदी से सल्तनत छीनी थी।
सन ए हिज़री के हिसाब से ये साल 1164 है। इस तरह मैंने अमीर जान के मज़ार के अन्दर ढाई घण्टे नहीं कोई ढाई सौ बरस गुज़ारे थे।
इन बादशाहों पर कई साल से बुरा वक़्त था, फिर भी हाथी लाख लुटेगा तो सवा लाख का होगा के एतबार से अभी देहली की बादशाहत का सिक्का हर जगह चलता था।
अब मैं आहिस्ता आहिस्ता इस सदमे और झटके और जान की कमज़ोरी से बाहर आ रहा था जिसका शिकार मैं उस वक़्त से था जब मैं अमीर जान के मज़ार से बाहर आया था। अब मुझे इस बात की ज़्यादा फि़क्र न थी कि अमीर जान का मज़ार कोई वास्तविक जगह थी जिसमें मुझे वह सब कुछ अजीबोगरीब देखने को मिले थे। इतना तो मुझे पक्का यकीन था कि मैं था। मैं गुल मुहम्मद सुल्तान सिकन्दर इब्ने सुल्तान सिकन्दर लोदी की फ़ौज में खानेदौराँ के दामन से लगा सिपाही नौकर पेशा था। अमीर जान से कजऱ् साढे़ तीन सौ तिनके मैंने लिये थे, अपनी ज़रूरत से लिये थे। मैंने अपनी बेटी की शादी उसी कजऱ् की रकम से की थी। इसमें भी काई शक न था। जब उसकी मौत हुई थी तो साल 1517 था। जब मैंने आखिरी बार अपना वतन छोड़ा वह साल 1520 था।
इस दरमियान, मैं या तो मर चुका था, या कहीं पड़ा हुआ कोई ख्वाब देख रहा था। अगर मर गया था तो फिर मैं यहाँ जि़न्दों की तरह, और पिछली यादों के साथ क्यों मौज़ूद था? क्या इसी का नाम बरज़ख है, यानी जिस शहर से मैं पूरी तरह मानूस था, उसी शहर में लेकिन किसी नामानूस ज़माने में डाल दिया जाऊँ? मगर इससे अल्लाह की कौन-सी मसलेहत, कौन-सी मजऱ्ी पूरी होती थी? क्या अल्लाह तआला को मुझसे काम कोई लेना है? क्या मेरी तकदीर एक सिफऱ् सिपाही की तकदीर नहीं है? या ऐसा है तो अभी पर्दा रहस्य से उठेगा। शायद मुझे कुछ इस रहस्य का ज्ञान होगा। कुदरत के खेल निराले हैं। इन मामलों में मुझे क्या, किसी को दखल देने या दम मारने की ज़ुर्रत नहीं हो सकती। मुझे सब्र से इन्तज़ार करना चाहिए।
या मैं मर ज़रूर गया हूँ लेकिन मल्क़ुलमौत (यमदूत) की किसी ग़लती से मेरी रूह रास्ते ही में कहीं मल्क़ुलमौत के चंगुल से छुट गयी और फिर फरिश्तों ने मुझे यूँ ही भटका हुआ देखकर वापस मेरे शहर में डाल दिया। क्या ऐसा होता है? यहाँ इन दिनों एक से बढ़ कर एक मुकम्मल फ़कीर और खुदा से मिलने वाला मौजूद है। अभी बाज़ार ही में एक साहब किसी शाह वली उल्लाह साहब और उनके मदरसे का जि़क्र कर रहे थे। ये बेयकीनी और दिमागी हलचल की आँधियाँ रुकें, मेरे पाँव कहीं ठहरें, तो मैं सोच समझ कर उनसे या किसी ओर बुज़ुर्ग से दरयाफ़्त करूँ।
अच्छा, अगर मैं कोई ख्बाव देख रहा हूँ तो क्या ऐसा भी होता है कि ख्वाब दो ढाई सौ बरस बाद शुरू हो? अपने हिसाबों तो मैं हद से हद पाँच दिन पहले अपे पूर्वजों के गाँव में था। अब ढाई सदियाँ सोते सोते फलाँग गया हूँ। वाह, क्या खूब कही। आखिर कितना लम्बा ख्वाब है ये। और क्या ख्वाबों में दिन रात की गिनती भी होती है? मैं तो बखूबी गिन सकता हूँ कि मैं खिड़की गाँव में कब था और यहाँ इस सराए ज़ीनतुन्निसा बेग़म में कब आया। और मैं सोया कब था? मैं तो सारे वक़्त जागता रहा था।
फिर... ऐसा तो नहीं कि मैं मर तो चुका हूँ मगर कोई मुझे ख्वाब में देख रहा है और मैं भी वही ख्वाब देख रहा हूँ... यानी केाई देख रहा है कि मैं मर गया, लेकिन उसके ख्वाब में कहीं मैं मौजूद हूँ या उसने मुझे अपने ख़्वाब में जि़न्दा करके मुझे भी इस ख्बाव का एक शख़्स बना दिया है। अब लगता है कि मैं सब कुछ देख रहा हूँ, काम कर रहा हूँ, घुड़सवारी कर रहा हूँ, अमीर जान.... मगर अमीन जान तो कोई थी, नहीं... ग़लत, सरासर ग़लत। अमीर जान थी। मेरी बेटी एक थी और अब भी है। मैं उसे ब्याही और गोद में एक प्यारा-सा बच्चा खिलाते छोड़ आया हूँ। तो फिर अमीर जान अगर थी तो उसकी मौत भी थी और उसकी मौत थी तो उसका मज़ार भी था और अगर मज़ार था तो वह सब वाक़्यात... नहीं, ये क्या झूठ और तबाही भरा बयान है। असलियत यही है कि मुझे दो ढाई सदियों के पार यहाँ ला बिठाया गया है। मगर क्यों? कहा न कि खुदा की बातें खुदा ही जाने। किसी को इन बातों में दम मारने का यारा नहीं। तो क्या ये और लोगों के साथ भी हुआ है या होता है? होता होगा। तुम्हें क्या खबर ये लोग जिनके जिस्म से मेरा जिस्म मिल रहा है उनमें से कितने इस ज़माने के हैं और कितने तुम्हारे ज़माने के या तुम्हारे भी ज़माने के पहले के हैं?
अल्फ़ लैला मैंने नहीं लिखी, पढ़ी भी बहुत नहीं। इस तरह की खुराफ़ात में मेरा दिल लगता नहीं है। लेकिन वहाँ भी तो सुना है शीशे के अन्दर से जिन्नात हज़ारों हज़ार साल बाद निकल आते हैं। क्या मालूम मैं भी कोई जिन्नात हूँ। जब मैं उस कब्र में दाखिल हुआ तो गुल मोहम्म सिपाही था, जब बाहर आया..... जब बाहर आया... तो जिन्नात था। नहीं। ज़रा ठहरो। तुम्हें कैसे मालूम कि तुम बाहर वापस आ गये हो? क्या ये नहीं हो सकता कि जिस दुनिया में तुम ने वह रक्कासा देखी, जिस कोठे से तुमने कुतुब साहब की लाट देखी, उसी दुनिया में तुम अभी ये ये सब भी देख रहे हो?
एक बार मुझे बुखार जैसी कँपकँपी चढ़ आयी। बड़े ज़ोर का पेशाब लगा। क़रीब था कि मेरा पेशाब निकल जाए कि मुझे एक मस्जि़द नज़र आ गयी। अल्लाह बख्शे मस्जि़दों के बनाने वालों को। मैं झपाक से अन्दर गया। मस्जि़द के पेशाबखाने में घुस कर दरवाज़ा बन्द करके बैठ गया। बड़ी देर बाद बाहर निकलने के लिये हिम्मत को जमा कर सका। मगर अब यहाँ देर क्या और ज़्यादा क्या मानी रखता था? मुझे हर दिन, हर लम्हा, हर घड़ी यूँ जीनी थी जैसे वह बिलकुल हक़ीकी हों और आखिरी भी हो।
बदबू, अँधेरा और जगह की तंगी के बावजूद मेरा जी न चाहता था कि पेशाबखाने से बाहर निकलूँ। बाहर की दुनिया समझ से परे, अजनबी, रहस्यमय और बड़ी हद तक धमकी से भरी हुई लगती थी। ऐसा मैंने कभी सोचा भी न था कि दुनिया में कोई बिलकुल एकला भी हो सकता है। बेबाप-माँ का होगा कोई, तो भी उसका घर तो होगा। बेघरा तो कोई होता नहीं। और अगर घर भी नहीं तो गाँव-गिराऊँ धाम कुछ तो होगा। पर मुझे तो ये मालूम भी नहीं कि घर मेरा इस दुनिया में है भी कि नहीं। मुझ-सा बेकस और बेगली भला कोई होगा। बिलकुल ही बेमदद और बेयारा, अब मेरा होगा तो क्या होगा...मुझे लगा कि शायद कोई दरवाज़ा खटखटा रहा है। किसी को बहुत जल्दी है या मुझे ही शायद देर बहुत हो गयी है। नमाजि़यों के दिल में सौ तरह के ख़्याल आ रहे होंगे कि ये शख़्स मर तो नहीं गया, बेहोश तो नहीं हो गया।
मैं कुछ हड़बड़ाया-सा बहार निकला। दरवाज़े पर तो कोई न था मगर अँधियारी से निकलने की वजह से कुछ मैं चैंधिया-सा गया था, या शायद संवेदनाएँ ही मेरी उड़ चुकी थीं। कदम मस्जि़द से बाहर निकाला ही निकाला था कि एक साहब से टकरा गया। मैंने शर्मिन्दगी की वजह से सर भी न उठाया। शक्ल और हाव भाव मेरे यूँ ही अजनबियों जैसे थे, ये साहब मुझे क्या समझते होंगे, कोई मुल्की गँवार समझ कर शायद माफ़ कर दें, शायद मेरे साथ खिल्ली बाजियाँ करें कि नया पखेरू कहीं से भटका हुआ आ गिरा है। मगर सर न उठा सकने की वजह से मैं ठीक से आप को संभाल न सका और दोबारा उन्हीं साहब से टकरा गया।
‘अजी हज..त क्या डोडा पी रखा है जनाब ने?’ उन्होंने हँसते हुए कहा। ‘कदमों पर काबू न किया था तो घर ही मैं बैठ कर आराम करते।’
मैं मारे शर्मिन्दगी के घबराकर वहीं मस्जि़द के दरवाज़े पर भद्द से बैठ गया था। उन साहब ने बड़ी मुहब्बत से मेरे कान्धे पर हाथ रखा और कहा, ‘अरे अब उठिये, कहीं चोट-वोट तो नहीं आयी?’
‘जी... जी... शुक.... शुकर है.... शुक्रिया जनाब का। मैं.... मैं बिलकुल ठीक हूँ।’ मैंने बड़ी मुश्किल से सर उठाया और अटक अटक कर रहा। ‘जनाब मुआफ़ फ़रमाएँ। अचानक मुझे कुछ चक्कर-सा आ गया था।’
‘ऐ हे.... बेचारे शहर से बाहर के लगते हो। ढारस रखें जनाब घबराएँ नहीं। क्या मैं जनाब को रिहाइशगाह तक आपकी पहुँचा दूँ?’
मैंने अब उन साहब को देखा और भौंचक रह गया। वल्लाह क्या नाज़ुक नैन नक्श थे। लेकिन मरदाना खूबसूरती में फिर भी कमी न थी। लम्बा कद, छरेरा बदन, गोरा रंग, मुस्कराती हुई आँखें, गहरी काली। बहुत बड़ी बड़ी आँखों से ज्यादह हैरतअंगेज़ उनकी पलकें थीं, क्या किसी शहज़ादी या परी की ऐसी पलकें होंगी। मैंने सुना तो था कि कुछ लोगों की पलकें उनकी आँखों पर पर्दा-सा डाले रहती हैं, लेकिन देखा कभी न था। जब वह पलकें अपनी खोलकर देखते थे तो लगता था मुँह पर चराग़ दो रौशन हो गये हैं। बहुत नफ़ासत भरी कतरी हुई दाढ़ी, लम्बी बिलकुल नहीं लेकिन कम भी नहीं। मूँछे ज़रा साफ़ दिखने वालीं, बल दी हुई नोकदार लेकिन लम्बी नहीं। पतले पतले होंठ, उन पर हल्की-सी सुर्खी, शायद तम्बोल की दौलत से, या शायद उनका रंग ही सुर्ख-गुलाबी था। सर पर पट्टे जो काँधों के ज़रा ऊपर तक आये हुए थे, ऊपर सुनहरी धारियों की आसमानह रंग की रेशमी पगड़, खूब बल दी हुई, इस तरह कि सर से जैसे गले मिल रही थी। बहुत बारीक मलमल का कुर्ता, उसी आसमानी रंग का, लेकिन रंग इतना हल्का कि नीचे का बदन झलकता था। कुर्ते पर वही लिबास जिसकी आस्तीनें ऊपर से कटी होती हैं। काशानी मखमल, जिस पर हल्की हल्की जवाहरात की बेल टकी हुई, लेकिन बहुत सन्तुलित। रेशमी धारीदार कपड़े का पायजाम, गाढ़े ऊदे या शरबती रंग का, जो उनके गोरे बदन पर अजब बहार दे रहा था। कुर्ते के हल्के लतीफ़ कपड़े के मुकाबले में पाजामे का कपड़ा भारी था, इतना कि पाँव की ठोकर से कुछ बढ़ा हुआ था। काले चमकीले चमड़े की जूतियाँ जिन पर ज़री का भारी काम, कमर में दुपट्टे की बजाए नीले कीमखत का पटका, जिस पर ज़री का काम और कहीं लाल कीमती पत्थर टके हुए, कमर में जड़ाऊ खंजर जिसकी म्यान भी जड़ाऊ थी। गले में मोतियों की तीन लडि़यों वाली माला, लगता है उसी गरदन की खूबसूरती और आकर्षण के लिये वह मोती बनाये गये होंगे। एक भी दाना बेमेल नहीं। चमक दमक में ज़रा दुधिया धुँधले, जैसे कि सच्चे मोती मुल्क ए सैलान के होते हैं।
उनकी उम्र यही कोई मेरी-सी होगी, यानी पचास के लगभग। मगर चेहरे पर ऐसी नर्मी और इस कद्र ताज़गी थी जैसे अभी मदरसे से उठकर चले आ रहे हों। उनकी पूरी शख्सियत से रौशनी सी फूटती महसूस होती थी। मैंने यह भी ख़्याल न किया कि कितनी बड़ी गुस्ताखी कर रहा हूँ कि उन्हें देखे जा रहा हूँ। उनकी बात का जवाब भी नहीं दिया है। लेकिन शायद वह साहब इस तरह से देखे जाने के आदी थे। दुनिया में रुसवा होना नयी कोई बात उनके लिये न थी। वह पूरे इतमिनान और दिल लगाकर मेरी तरफ देखते रहे। शायद वह भी महसूस कर चुके हों कि मैं उन्हें देखकर हैरान हो गया हूँ, और कोई वजह मेरी खामोशी की न थी। यही वजह थी कि वह मुझसे आँखें न चुरा रहे थे। बेशर्मी से आँख भी न मिला रहे थे लेकिन मेरा उन्हें देखने में डूब जाने को उन्होंने अजब नर्म दिली से लिया और शरमाये भी बिलकुल नहीं, बस इन्तज़ार में रहे कि मैं आप में वापस आऊँ तो बातचीत का सिलसिला आगे बढ़े। उनके किसी भी अंदाज़ में इतराने और बनाव का शक भी न होता था।
अचानक मुझे लगा कि सिफऱ् मैं ही उन अजनबी खूबियों के उस बादशाह को नहीं देख रहा हूँ, कुछ लोग मुझे भी देख रहे हैं और शायद दबे होठों से मुस्करा भी रहे हैं और कुछ लोग उन अजनबी फूलों की विशेषताओं वाले को भी कुछ इस तरह देख रहे हैं जैसे उन्हें भी ये अच्छा लगता हो कि लोग उनकी तरफ चेहरा करें। मैंने चैंक कर जैसे नींद से आँखे खोलीं और एक कदम आगे बढ़ कर चाहा कि उनका दामन थाम लूँ। लेकिन ये किस कद्र बदतहज़ीबी की बात होगी। मैं झिझक कर रुक गया और बोला।
‘जनाब मा’फ़ी का ख़्वाहिशमन्द हूँ, मैं वाकई अपने वतन से बाहर हूँ...’
अभी मैं बात पूरी न कर पाया था कि एक साहब मस्जि़द के अन्दर से लपकते हुए आये और बेतकल्लुफ़ी से उस अजनबी का हाथ अपने हाथ में लेकर उसे चूम कर बोले।
‘ऐ वल्लाह मीर साहब, क्या भाग हैं मेरे जो आप यहाँ थोड़ी देर कर के आये।’ उन्होंने मेरी तरफ थोड़ा-सा इशारा किया। ‘और मुझे हाथों को चूमने का मौका मिल गया। कई दिन से इरादा कर रहा था कि डेरे पर जनाब के हाजि़र हूँगा।’
‘अस्सलामो अलैकुम मियाँ शरफुद्दीन पयाम साहब। खूब मिले आप। मैं अभी इन नये दोस्त अपने से तआरुफ़ हासिल कर रहा था.... भई आप का वह शेर तो क्या गजब का था मियाँ शरफुद्दीन साहब, टोपी वालों ने कत्ले आम किया... लेकिन ज़रा गम खाएं।’ फिर वह मुझ से मुखातिब होकर बोलेः
‘मियाँ साहब क्या कहीं दूर से तशरीफ़ लाये हैं? जनाब मैं अजऱ् कर रहा था, रिहाइश जनाब की कहाँ है?
वल्लाह क्या सुरीली खनकती हुई-सी लेकिन मर्दाना स्वर वाली आवाज़ थी, इतनी साफ़ और खुली हुई जैसे महफि़ल में शेर सुना रहे हों।
‘जी मैं यहीं क़रीब ही मस्जि़द ज़ीनतुन्निसा के पास वाली सराए में उतरा हुआ हूँ। मुल्के सिन्ध से आया हूँ। गुल मुहम्मद मुझे कहते हैं।’
कुछ लोगों को मुस्करातें हुए देख कर मुझे ख़्याल आया कि मुझे ज़ीनतुल मसाजि़द कहना चाहिए था। होगा, मैंने दिल में अपने लापरवाही से कहा। क्या इन लोगों को मालूम नहीं कि मैं नया आया हूँ। आह, मैं नया आया था लेकिन अजनबी न था। हाए रे तकदीर के तमाशे।
‘तो मियाँ साहब अभी आपने दिल्ली कुछ देखी भी न होगी। चलिये आपको चाँदनी चैक की सैर कराएं और कहीं बैठ कर कहवा पी लें।’ उन्होंने शरफुद्दीन पयाम साहब की तरफ देखा, जैसे पूछ रहे हों कि आपका क्या इरादा है। पयाम साहब तो शायद इसी उम्मीद में खड़े थे कि मीर साहब मुझे साथ चलने को कहें।
‘बहुत दुरस्त। बन्दा भी उधर ही मदरसा ए रहीमिया को जा रहा था। मीर साहब को ये बात नागवार न हो तो चन्द कदम साथ चलूँ।’ पयाम साहब के लहज़े में खुशी और दिलचस्पी उनके दबाये भी दब न रही थी। मीर साहब ने मुस्करा कर फरमायाः
‘अजी साहब नेकी और पूछ पूछ। आपके साथ में लुत्फ सैर का दोबाला हो जाएगा।’
‘मैं सर और आँख के साथ हाजि़र हूँ, बिस्मिल्लाह!’ मैंने कहा।
हम लोग मस्जि़द की सीढि़याँ उतरकर बाज़ार में आये। हर दूसरा तीसरा शख़्स मीर साहब को सलाम करता और अक्सरों की कोशिश होती कि उन्हें रोक कर उनसे दो बातें कर लें। मीर साहब बहुत अच्छे-से और सर झुका कर रास्ता रोकने वालों को टालते, एक दो जुमले कह कर आगे बढ़ जाते। मैं निहायत दिलचस्पी से उन्हें देखता और उनकी बातें सुनता चल रहा था। कभी कभी मैं जान बूझ कर उनके एक दो कदम पीछे हो जाता कि उनकी चाल को भी देखता चलूँ कि उनकी सूरत और उनकी बातचीत ही की मानिन्द दिल लुभाने वाली थी। रफ्तार उनकी औसत से कुछ तेज़ थी और वह चलते वक़्त अपने दोनों हाथ यूँ आगे पीछे करते थे जैसे चप्पू चला रहे हों, और चाल उनकी इतनी सहज थी कि बस लहरें-सी उठती हुई लगती थीं।
बातें उनकी निहायत दिलकश, हाजि़र जवाबी और हास्य से भरी थीं, कभी कभी राह चलतों पर एक आध फि़करा भी चुस्त कर देते। कोई सुनता भी तो बुरा न मानता, खुश दिली से मुस्करा देता।
‘इन मियाँ साहबज़ादे को ज़रा देखो, कल से मरदसे क्या बैठने लगे हैं कि सर ही घुटा लिया, जैसे छिली हुई शकरकंद।’
‘क्यों शरफुद्दीन पयाम मियाँ साहब, वह साम्हने वालों की निगाहें किसी से सलाम व पयाम करती हैंगी या मैं ही एक आँख वाला हो रिया हूँ।’
पयाम साहब मुस्करा कर बोलेः
‘कोई आप से आँख मारे तो साम्हने ही की फूटें।’
अब मीर साहब ने मिलते जुलते शब्दों और उनसे सम्बन्धित शब्दों का बाज़ार गर्म कर दियाः
जी जनाब, कोई आसमान के सितारें से आँख मिलाये और किसी को सूरज की भी आँख नज़र में न आवे। हमसे आँख मिला कर के कोई क्या पा लेगा। हमने तमाशागाहे-दुनिया की तरफ से आँखे मूँद ली हैं साहब। सामने झरना है जाकर मुँह धो आयें फिर हमें आँखें दिखायें। हमने तो परी चेहरों की आँखें देखी हैं। मुँह धुल जाए तो शायद आँखें तारों से रोशन हो जाए, वरना ऐसा किसी का मुँह कहाँ कि हमारे मुँह आये।
‘मगर साहब मासूम आँसू तो मचल कर मुँह आ ही जाता है। सुनिए हज़रत मीर सोज़ साहब फरमाते हैं और क्या खूब फरमाते हैं’
ऐ तिफ़्ल अश्क तुझको आँखों में मैंने पाला
तिस पर भी गर्म होके तू मुँह पे मेरे आया
तिफ्ल अश्क-मासूम@बचा आँसू
‘जी खूब कहा। मगर ये मैं मैं की तकरार ऐसी लगी जैसे कोई मिमिया रहा हो।’ यह कह कर वह ज़रा-सा मुस्कराये, जैसे अपनी मुस्कराहट की शीरीनी से इस एतराज़ की कड़वाहट को खत्म करना चाहते हों।
इन्हीं मज़े मज़े की बातों में रास्ता कट गया। अचानक मेरे पाँव मन मन भर के हो गये। लगा किसी ने मेरे दिल को शिकंजे में कस दिया हो और सारे बदन का खून कहीं और जाकर जम गया हो। मैंने चकरा कर किसी दुकान के तख्ते का सहारा लेना चाहा लेकिन मेरा बदन ही लड़खड़ा गया था। मीर साहब ने मेरी हालत न जाने क्योंकर भाँप ली थी। उन्होंने ने मेरा कन्धा मज़बूती से जकड़ लिया और मैं साबित कदम ठहरा रहा। इतने छरेरे और मजनूँ की तरह कमज़ोर और लचीले बदन में इतनी ताकत? मैं हैरतज़दा रह गया। मुझे बाद में मालूम हुआ कि मीर साहब जंग की तमाम कलाओं को बखूबी जानते हैं, अखाड़े में पाबन्दी से ज़ोर आज़मायी करते थे और लट्ठबाज़ी में मुकम्मल महारत हासिल थी। मगर उस वक़्त तो मैं दूसरी बार अमीर जान की कब्र में पहुँच गया था... सामने वही आसमान से आँखें मिलाता, देव की तरह, लाल पत्थरों का किला था और उसके आगे वही बाज़ार जिसमें उस जानलेवा महसूस का रक्स मैंने देखा था। कि़ले के ज़रा दूसरी तरफ से वही नहर लहराती बलखाती चली आती थी और उसी तरह तरावट बढ़ाने वाले एहसास में बाज़ार के बीच में बहती थी।
यह सब्र मैं ख्वाब में.... नहीं, अमीर जान की कब्र के अन्दर लेकिन होश ओ हवास में अपनी आँखों से देख चुका था। हालाँकि मुझे पहले ही यकीन हो चुका था कि मैं इस वक़्त अपने असली ज़माने से कम से कम दो सवा दो सौ बरस ऊपर आ गया था लेकिन अब तक जो मैंने देखा था उनमें से कोई चीज़ मैंने इस कब्र के अन्दर न देखी थी। अब जो नज़रों के सामने था वह, पहले भी आ चुका था। अब मुझे यूँ लग रहा था जैसे मैं किसी नये शहर में हूँ भी और नहीं भी हूँ। अब मुझे अपने बेघर होने का पूरी तरह यकीन हो गया था और सितम ये कि ये ऐसे वक़्त हुआ जब मैं कुछ दोस्त, कुछ मुलाकाती अपने लिये हासिल करने की कुछ उम्मीद रखता था।
‘कुछ हुआ मियाँ साहब? क्या कुछ जी माँदा है आपका?’ उन्होंने इस तरह पूछा जैसे वह वाकई फि़क्रमन्द हों कि मुझे क्या हो गया है।
‘नहीं, कुछ नहीं। बस यूँ ही चक्कर-सा आ गया था। आज सारा दिन शहर में आपके घूमता रहा हूँ।’ मैंनें बात बनाने की कोशिश की।
‘आइए वह सामने ही कहवाखाना है। वहाँ बैठ कर थके हुए पाँव को आराम देते हैं।’
कहवाखाने के माहौल में कई तरह की आधुनिक खुशबुएँ थीं। लेकिन बहुत खुशगवार। तम्बूल से मैं वाकिफ़ था, हालाँकि हमारे ज़माने में चलन इसका बहुत न था। लेकिन ये तम्बाकू अजीब चीज़ थी। लोग इसे कटोरे में डाल कर सुलगाते और फिर एक लम्बी नलकी से उसका दम लगाते। बड़ा ठण्डक का एहसास दिलाने वाला और खुश्बू में डूबा हुआ धुआँ निकलता और माहौल को अजीब, अनोखी-सी खुश्क और बहुत मज़ेदार, गर्म, खुश्बू से भर देता। धुआँ जहाँ तक फैलता वहाँ तक खुशबू जाती, चाहे धुआँ दूर ही क्यों न चला गया हो। देखने में तो कहवाखाने में कई तरह के तम्बाकू गैरज़रूरी लाये जाते थे क्योंकि मैं अलग अलग धुएँ और अलग अलग खुशबुएँ महसूस कर सकता था।
मालूम हुआ जिस उपकरण को यूँ तम्बाकू पीने के काम में लाते हैं, उसे ईरानी कुलयान और हिन्दी भण्डा कहते हैं। उसके हर हिस्से के अलग अलग नाम थेः चिलम, नीचा, पीचवान, नै, महनाल, ये नाम तो उसी दिन कहवा खाने में सुने थे। खींचने वाली तम्बाकू अलग चीज़ थी, और खाने वाली तम्बाकू अलग। जिसका आखिर में जि़क्र आया है में भी इत्रें खूब होती थीं लेकिन बड़ी खराबी उसमें खाकर थूकने की थी। पान के साथ खाएँ तो थूकना ज़रूरी होता था। कहवा खाने में जगह-जगह उगाल-दान, पीकदान मौजूद थे। लोग पीक थूकने या उगाल अलग करने में काफ़ी एहतियात बरतते थे लेकिन अपने कुर्ते पर छीटों का क्या करते। कई लोगों के दामन मैंने कम या ज़्यादा बहारी देखे। मीर साहब से औपचारिक सलाम व बात करने वालों के अलावा कई उनके दोस्त या मुलाकाती थे। सब एक कोने में एक साथ बैठे, नये दोस्त भी जो आते जो उसी बेतकल्लुफ कुंज में अपने लिये जगह बना लेते। लम्बी कुछ तंग और नीची-सी चैकियाँ, उन पर साफ़ लाल रंग के मोटे कपड़े का दस्तरख्वान या महज़ गिलाफ, चारों तरफ मखमली गद्दे। भण्डा ज़रूरत के मुताबिक मँगवाने पर हाजि़र किया जाता था। कुछ खाने की ख्वाहिश हुई तो कहवा खाने का नौकर लौंडा पास के नानबाई या हलवाई से मँगाया गया सामान झपाक से ले आता।
कहवाखाने की गुफ़्तगुओं और चुहलों में काफ़ी वक़्त निकल गया। मेरी घबराहट भी अब कम हो चली थी। अब मुझे अपने अजनबी एहसान करने वाले के बारे में कुछ मालूम हो गया था। नाम उनका सैयद मुहम्मद अली और तखल्लुस ‘हशमत’ था। ये लोग मूलतः कश्मीरी थे लेकिन कई पीढि़यों से देहली में रहते थे और बादशाह ए वक़्त या किसी नामवर अमीर की नौकरी करते, पेशे से फ़ौजी थे। दो उनके भाई आबिद यार खान और मुराद अली खान मशहूर जौहरी थे और तेग और तलवार में भी माहिर होने की वजह से मुहम्म्द शाह बादशाह मरहूम के जवाहर खाने में नौकर थे। इस खानदान में धन दौलत और जवाहर की वह रेल पेल थी जैसे लक्ष्मी जी ने उनके आँगन में नहर अपनी बहा दी हो।
धन दौलत की रेल पेल और कुछ अपने कुदरती शौक की वजह से मीर मुहम्मद अली ने किसी की नौकरी न की थी, शाइरी करने और दोस्ती निभाने में दिन रात गुज़रते थे। मीर मुहम्मद अली फ़ारसी में कुबूल कशमीरी के शागिर्द हुए। रेख्ता में किसी की शागिर्दी एख्तियार न की लेकिन खुद उन्होंने रेख्ता में कई शागिर्द बनाये थे जिनमें मीर अब्दुल हई ताबाँ का नाम हर तरफ मशहूर था। उस्ताद से ताबाँ को ऐसी मुहब्बत थी कि लोग उसकी मिसाल देते थे। उस्ताद के बारे में उनका शेर बहुत मशहूर हुआ था।
न माने जो कोई हशमत को ताबाँ
वह दुश्मन है मुहम्मद और अली का
उस्ताद का नाम चूँकि मुहम्मद अली था, और खुद मीर अब्दुल हई मशहूर मसूवी सैयद थे, इस वजह से शेर और भी मज़ेदार हो गया था।
धीरे-धीरे मैं देहली वालों में घुलने मिलने लगा, लेकिन बहुत खराबी के बाद। इस प्रक्रिया में जो देरी हुई और जो आत्मीय तकलीफें मुझे उठानी पड़ी उनका जि़क्र करके आपको बेमज़ा न करूँगा। देहली वालों में मेरा मेल जोल सबसे ज़्यादा तो इस बात के चलते हुआ कि मीर मुहम्मद अली हशमत ने अपनी जि़म्मेदारी पर मुझे सवा रुपये महीने पर एक मुनासिब मकान कूचा चेलाँ में दिलवा दिया था। खाना पकाने के लिये एक शरीफ़ बुढि़या मामा की आठ आने फी महीने और दो वक़्त के खाने पर मुझे दिलवा दी थी। सबसे बढ़कर ये कि उन्होंने अपनी जि़म्मेदारी पर मुझे अपने सरपरस्त नवाब कुतुबुद्दीन खान बहादुर फ़ौज़दार मुरादाबाद की टुकड़ी में सिपाही के तौर पर रखवा दिया था। आपको इन बातों पर तआज्जुब और हैरत न होना चाहिए। एक दुनिया मीर हशमत की खूबियों को मानती और तारीफ़ करती थी। ये बात देहली मे आम थी कि देहली के मशहूर मर्दो में शर्म और गैरत व सलाहियत व आदमियत की दौलत का समुन्दर रखने वाला, बहुत ज़्यादा खूबियों वाला और बुराइयों से पाक अगर कोई था तो वह मीर मुहम्मद अली हशमत थे।
ऐसा अच्छा संयोग बना कि चन्द रोज़ पहले मीर मुहम्मद अली भी टुकड़ों में दंगल को ओहदे पर तैनात हो गये थे। संयोग कहें या यूँ कहें कि उनकी जि़न्दगी की मुद्दत पूरी हो चुकी थी। मौत को बहाने की तलाश थी और वह इस नौकरी ने आसानी से मुहैया कर दिया।