कचनार.दो संगीता गुन्देचा
09-Apr-2017 03:10 AM 4657

यह मालवी में कई वर्षों से लिखे जा रहे मेरे अधूरे उपन्यास के अंश हैं। मालवी अधिकतर मैंने घर में और बचपन में उज्जैन के अपने मुहल्ले सखीपुरा में बोली है। लिखती मैं खड़ी बोली में रही हूँ। इस उपन्यास का पहला वाक्य जिस भाषा को अपने साथ लेकर मेरे मन में आया, वह मालवी थी।
मालवी में अधिकांशतः ‘आ’ को ‘ओ’ हो जाता है। उसमें कुछ ध्वनियाँ ऐसी हैं, जिन्हें हिन्दी में नहीं लिखा जा सकता जैसे वहाँ ‘है’ और ‘हे’ के बीच की ध्वनि का उच्चारण होता है। लिखते हुए मैंने ‘हे’ का तथा ‘और’ व ‘ओर’ में से ‘ओर’ का चुनाव किया है।
मालवा के कई हिस्सों में मूर्धन्य ष, तालव्य श और दन्तव्य स इन तीनों की जगह केवल दन्तव्य ‘स’ का उच्चारण होता है। किन्तु पूर्वी मालवा के कुछ शब्दों में ‘श’ का प्रयोग भी होता है।
जैन मन्दिरों में जाने के कारण मेरी मालवी प्राकृत से मुतास्सिर है इसलिए ध्वनि सौन्दर्य को ध्यान में रखते हुए ‘न’ और ‘ण’ जैसी दोनों ध्वनियों का प्रयोग वाक्यों में है।
पाठक मंगलाचरण में आये गीत में यह लक्ष्य करेंगे कि विवाह जैसे अवसरों पर पारम्परिक भारत में कितने अलग-अलग तरह के सम्प्रदाय जैसे ज्योतिषी, माली, कुम्हार आदि शामिल होकर उसे समृद्ध करते हैं।

            बइसा, बइसा, बइसा !
            तम तो मोक्छ जाओगा  
            ओ लाड़ी !
            म्हारे तो नी चइजे मोक्छ
            म्हारे तो योज गाम चाय
            असाज कपड़ा ने
            असाज आम्रपाली, हापुस, लंगड़ा
            ने तोतापरी आम चाय।
            ओ लाड़ी, म्हारे तो नी चइजे मोक्छ।

मंगलाचरण
सुभाव उकल्डी सरीको व्हेणो चइजे। उकल्डी में लोगवन अच्छो-बुरो, सड्यो-गल्यो सब फेंकी जाय। मालवा का ब्याव में सबसे पेलाँ उकल्डीज पूजाय। के अबे तम घर-गिरस्ती में पग धरीर्या हो तो अच्छा-बुरा को जादा विचार मत राखजो। अबे तम उकल्डी हो ने यो संसार सड्यो-गल्यो फेंकवावालो।

... दमामी की ढ़ोल पे दीपचन्दी बजीरी थी -
धि े न्ना धिंधिं धड़ान्न
ति े न्ना धिंधिं धड़ान्न

        चालो गजानन जोशी क्याँ चालाँ
        तो अछा अछा लगना लिखावाँ गजानन
        कोटा री गादी पे नोबत बाजे
        नोबत बाजे इन्दरगढ़ गाजे
        तो झिणी झिणी झालर बाजे गजानन
        चालो गजानन माली क्याँ चालाँ
            तो अछा अछा सेवरा मोलावाँ गजानन
        चालो गजानन कुम्हार क्याँ चालाँ
            तो अछा अछा कलसा मोलावाँ गजानन
        चालो गजानन तम्बोली क्याँ चालाँ
            तो अछा अछा बेड़ला मोलावाँ गजानन                   
        चालो गजानन मोची क्याँ चालाँ
            तो अछी अछी मोजड्याँ मोलावाँ गजानन
        चालो गजानन सोनी क्याँ चालाँ
            तो अछा अछा गेणेला मोलावाँ गजानन
        चालो गजानन बजाज क्याँ चालाँ
            तो अछा अछा पड़ला मोलावाँ गजानन
        चालो गजानन काछी क्याँ चालाँ
            तो अछा अछा घोड़ीला मोलावाँ गजानन
        चालो गजानन ब्याइसा क्याँ चालाँ
            तो अछा अछा बनड़ा परणावाँ गजानन
अनकी दुकान का ऊपर केलू को कच्चो टापरो थो, चोड़ा पाट को। वणी टापरा के नीचे डागली थी। वणी डागली पे पुराना मटका, धान का बोरा, तेल का खाली पीपा पड्या रेता। एकदाण इ दुकान को तालो खोली ने थोड़ा अंइवंइ व्हया तो म्हने कँइ कर्यो के दुफेर से वणी डागली पे जइने बेठीगी। रोटी नी खइ, पानी नी पियो क्योंके टट्टी-पेसाब आवे तो ऊपर कां जावाँ। कँइ नी कर्यो ने बेठीरी बेठीरी बेठीरी। बेठे बेठे म्हारो जीव घबरावा लग्यो। फेरी सड़क से लोगवन के चलवा की आवाज सुनइ पड़ी। कोइ अकेलो चलतो व्हयो निकली जातो। जो अकेलो नी व्हेतो वीके साथ बाताँ करवा की आवाज सुनइ पड़ती। एक घोड़ागाड़ी टक् टक् टक् करती व्हइ पेलाँ पास अइ ने टक् टक् टक् करती व्हइ दूर चली गइ। करोंदा बेचनवावालो आयो ने हाँक लगइने चली गयो। छाणे छाणे संजा की बखत व्हइ। पासवाली पुस्पा ने मालन का हाथे घणी देर तक गुँवार फली को मोलभाव कर्यो फेरी याँ वाँ की बाताँ करी ने फली लिए बिना वीके मोकली दी। अतरी देर में ढोल सुनइ पड्यो -
        धा धिन नक धिन धा धिन ताडा
        धिनक धिनक धिन धा धिन ताडा
        धिनक धिनक धिन धा धिन ताडा
आड़ो बजाओ...
          धिऽन्ना धिनाडा तिन्ना धिनाडा
रोक जो रोक जो, रजवाड़ी...
           धिनाडा धिना धिना धिनाडा तिना कत्ता
           धिनाडा धिना धिना धिनाडा तिना कत्ता
कोइ लाडो घोड़ी पे चढीर्यो व्हेगा ने औरताँ नाचीरी व्हेगा। औरताँ असी बखत वणी ढोल वाला के जक नी लेवा दे। ढोल पे ताल बजनी चालू भी नी व्हे के दूसरी फ़रमाइश व्हइ जाय। कोइ कोइ ढोलवाला असा हउ रे के कँइ बतउँ। रामू दमामी असोज थो। लोग मांडा का छे-छे मइना पेलाँ रामू से बात करी लेता। म्हारा काकाजी ने वीसे पेलाँज कइद्यो थो के देख भइया रामप्रसाद देवउठनी ग्यारस का दन छोरी को ब्याव मँडेगा, कँइ ओर की सइ मत लीजे। साँवलो रामू सफ़ेद धोती कुरता पे चुन्नट को लाल साँफो बाँधतो, माथा पे कंकु को तिलक लगातो ने लम्बी तीखी मूंँछा रखतो। रामू का ढोल पे सात्यो मंड्यो रेतो। ब्याववाला के याँ रामू सूबे से अइ ने बेठी जातो ने तम्बाकू खातो रेतो। जेसेइ वीके लगतो को अबे ढोल बजावा की बखत आवावाली हे तेज चूना कत्था को पान मूंँ मे दबातो, ढ़ोल गला में टाँंगतो ने दोइ काँमड्याँ हाथ में लइने चालू व्हइ जातो। ओ बइ उ बजातो तो पानी की झड़ी लगी जाती। ढ़ोल बजाते बजाते डाबा हाथ की तरफ झुकी ने उ बदन में असी उछाल भरतो जने हिरण कुलाँचा भरीर्या व्हे। औरताँ वीका ढ़ोल पे मटकी मटकी ने नाचती। छोर्याँ केती के रामू भइया नी आता व्हे तो ब्याव को दन बदली दो।

धरम को पसाय
म्हारे शुरू से धरम को पसाय हे। रोज सुबे हूँ दुकान से व्हेती व्हइ मन्दर जाती। बरसात में महाराज को चोमासो बेठतो। वणीसाल मणिप्रभा जी को चोमासो बेठ्यो थो। बख्यान में वी बोल्या के चोरासी लाख योनि में भमी ने बड़ी मुस्कल ती मली हे या मनक जिन्दगी। इमें जो चूकीग्या तो पाछा चोरासी लाख भवन खुल्ला पड्या हे। जूँ, लीख, मच्छर, ढाँडा-ढोर, हाथी-घोड़ा, कुत्ता, बिल्ली, चिडि़या सब अइ जाय अणी में। चोमासा में रोज पेलाँ हूँ महाराज का बख्यान सुनती फेरी आदिनाथ भगवान का दरसन करती व्हइ घर आती। आदिनाथ भगवान की मूरत ढ़इ हजार बरस पुरानी थी। वा मूरत सुबे, दुफेर, साम रोज तीन रंग पलटती। जुवानी से लइके बुढापा तक तीन रूप दिखता आदिनाथ का। एकदाण बख्यान में मणिप्रभा जी बोल्या के इ सामने बेठा हे नी आदिनाथ। इ राजा था। माँ-बाप, राज-पाट छोड़ी ने चली पड्या एकदान। जंगल-जंगल भटकता रिया। नरा साधु सन्यासी को साथ कर्यो पर केवल ज्ञान नी व्हयो। तो एकला में तपस्या करी। केवली व्हइने वी जगा-जगा बख्यान करवा लग्या। घूमते-घूमते एकदाण अपनाज गाँव आया। मरूदेवि ने सुन्यो के आदिनाथ आइर्यो हे तो वनका थन से दूध की धार निकली पड़ी। आदिनाथ का बख्यान सुनवाने भोत भीड़ उमड़ी। पर मरूदेवि के मालम पड्यो के आदिनाथ गाँव का बाहर बख्यान दइर्यो हे तो वनके घणो दुःख व्याप्यो के ओ हो, छोरो म्हारती मलवा नी आयो, बड़ो केवली व्हइग्यो ने गाँव का बाहर बख्यान दइर्यो हे। मरूदेवि चली चली पोंची गाँव का बाहर। माँ आती व्हइ दिखी तो आदिनाथ का मन में मोह उमड़ी पड्यो। वनने मूण्डो फेरी लियो। अणी बखत महाराज कसी अच्छी सज्जाय सुनाता। मरूदेवि बोली -

बोल बोल आदिस्वर दादा
कँइ थारी मरजी रे
माँ से मूण्डे बोल...
माता मरूदेवी वाट जोवता
कदी म्हारो रिसभो आवे रे
कहती भरत ने आदिनाथ की खबराँ लाजो रे
न्हाय धोय ने गजये सवारी
करी मरूदेवी माता ने
जाय बाग में नन्दन निरख्या पायी साता रे
किस देश में गयो रे बालेस्वर
तुझबिन बिनताँ सूनी रे
बात कहो दिल खोल लाल क्यूँ बन गया मूनि रे
राज छोड़ निकल्यो रे रिसभो
आली लायो अद्भुति रे
अब तो मुखड़े बोल आदेस्वर कलपे काया रे
मुकति का दरवाजा खोल्या
मरूदेवी माता ने
काल असंख्या रह्या उघाड़ा जम्बू जड़ गया ताला रे
माँ से मूण्डे बोल....
आदिनाथ ने मूण्डो वनकी तरफ कर्यो तो मरूदेवी का ममता-मोह सब छूटीग्या ने वाँ को वाँज केवल ग्यान व्हइग्यो।
बख्यान में म्हारो घणो मन लागतो। घर तो म्हारे सुवातोज कोनि। हाँ कदी कदी वृसभचन्द जी अइ जाता तो वनसे बाताँ करती। वृसभचन्द जी म्हारे गाँधी जी का बारा में बताता। एकदाण म्हने वृसभचन्द जी पूछ्यो के तमारा दोस्त रात में दुकान में कँइ करे म्हारे बताओ तो सइ। म्हारे तो कइँ समझ नी पड़े पर पासवाली पुस्पा कना कँइ कँइ बाताँ करे। वृसभचन्द जी कँइ केता, खाली धरती पे उँगली से गोल-गोल माण्डनो बनावा लग्या।

हठ
कुम्भ में एक जगा पे म्हने कँइ देख्यो के मझ्झाण दुफेरी में एक साधु अंगारा पर खड्या हे। वनका बदन पे भस्म रमी व्हइ थी। वनका माथा पे मोटी-मोटी जटावण को भार थो ने वनने कपड़ा नी पेनी रख्या था।
तो म्हने काकाजी से पूछ्यो के इ साधु अंगारा पे क्यूँ खड्या हे? वी बोल्या के जसी हठ तू करे नी सावनी वसीज हठ इ साधु करी रिया हे। म्हने कियो के म्हारी हठ तो तमार से या बई से रे पर इ साधु किसे हठ करी रिया हे? काकाजी बोल्या के जदे तू बड़ी व्हे तो मालम करजे के अनकी या हठ किसे हे ?
एक दाण बुढ़उ बेहरइग्या। बोल्या के अणी संसार के म्हने रचायो-बसायो तो अणी को नास भी हूँज करूँगा। संकर जी ने घणो समझायो के देखो दादा तमारे जो काम मल्यो हे, उ करो। तमारो काम जगत के रचनो हे बिगाड़नो कोनि। पर ब्रम्मा जी का माथा पे तो भूत सवार व्हईग्यो थो, वीके कूण उतारतो। वणके हाथे कूण माथो फोड़तो। तो संकर जी के रोस चढी़ग्यो ने रोस चढ़ते-चढते वनकी तीसरी आँख खुलीगी। वणी आँख से अग्गन की बरसात होवा लगी ने देखतेई देखते भेरू जी निकल्या। भेरू जी ने जई के ब्रम्मा जी को उ मूण्डो काटी लियो, जिसे वी या बात बोल्या था। पेलाँ ब्रम्मा जी का पाँच मुख था पर एक मुख कटवा से वी चार मुख वाला रईग्या। भेरू जी ने ब्रम्मा जी को मुख काटी तो लियो पर पछे वी घणा पछताया। केवा लग्या के म्हारा माथे तो ब्रम्महत्या चढ़ीगी। तो संकर जी बोल्या के तम ब्रम्मा जी को यो मुख लईके पूरा ब्रम्माण्ड में घूमों, जाँ यो गिरी जायगा वाँ तमारा माथा से हत्या उतरी जायगी। भेरू जी ब्रम्मा को कट्यो मुख लइके पूरा ब्रम्माण्ड में चक्कर काटवा लग्या। जदे वी उज्जैनी का उपर से निकली रिया था तो वनका हाथ से ब्रम्मा जी को मुण्डो शिप्रा जी में जइ पड्यो ने ब्रम्मा जी की मुकति व्हईगी। तो पछे काल भेरू भी शिप्रा जी का तट पेज विराजीग्या ने लोग यो जानवा लग्या के शिप्रा में न्हावा से मुकति होय। कुम्भ को मेलो शिप्रा का तट पे भरावा लग्यो।
तम शिप्रा में न्हाया के कोनि ?    
वय्याकरण डोकरो1
जोशी बा बोल्या, ‘ कावो छोरी थारो माथो फिरिग्यो कँइ ?मालवी को कोई व्याकरण हे के नी ?हमने यूँज झक मारी जदे। कदी तो तू ‘वणी’ लिखी दे ने कदी ‘वनी’! इ दो-दो परयोग किसतरसे चलेगा ?
हूँ बोली, ‘ तम नाराज मत होओ जोशी बा! म्हने छुटपन से जो सुन्यो उ लिखीरी हूँ।
तम तो खुद आगर मालवा के कने बस्या सुसनेर का हो। आगर की मालवी, तनोडि़या की मालवी में म्हने इ उच्चारण सुन्या है। पछे म्हने ध्वनि की सुन्दरता को ख़्याल रख्यो हे। वाक्य में जाँ ‘वणी’ सुन्दर लग्यो वाँ ‘वणी’ ने जाँ ‘वनी’ सुन्दर लग्यो वाँ ‘वनी’ लिखिद्यो।’
‘अच्छा तो बइसा तम ‘ध्वनि की सुन्दरता’ वाला लोग हो। व्याकरण गइ जदे चूल्हा में! मरजी पड़े जो करो बइसा! कोइ रोकी सके, लिखवा वाला के?
‘जोशी बा! हूँ सोचूँ के तमारा सरी को चटक-चाल्या करवा वालो कोई वय्याकरण डोकरो ‘मिट्टी की गाड़ी’ का लेखक के मली जातो तो ऊ एकी नाटक में इत्तीसारी प्राकृतां लिखी सकतो थो कँइ? चाण्डाल बोले वा ‘चाण्डाली प्राकृत’, शकार बोले वा ‘शकारी प्राकृत’ तो म्हारी कहानी की नायिका सावनी जो बोले वा ‘सावनी मालवी’ नी व्हई सके कँइ ?
‘अच्छा तो एक और मालवी! भगवान बचाय। देखो तो सइ इन छोरी को दिमाग कित्तो चढी़ग्यो। कँइ नी सूझ्यो तो महाकवि शूद्रक की बाताँ करवा लगी। चलां अबे हुईगी संजा की बखत। देख तो छोरी अकास में बगुल्याँ की कतार कसी हउ लगीरी। संजा को कसो अच्छो बख्यान कर्यो हे, महाकवि भास ने-
            पक्षी लोटी रिया हे
            अपना घोंसला में
            जल में उतरी रिया हे मुनिजन
            जगा-जगा से उठतो हुयो यो धुँओ
            बतइ रियो हे-
            पासमेज हे तपोवन’
1.    मालवी कथाओं की कई पुस्तकें और ‘मालवी तथा उसकी उपबोलियों का व्याकरण’ पुस्तक के लेखक, वैय्याकरण प्रहलाद चन्द जोशी।

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