प्रूफ़रीडर के नाम खत आशुतोष भारद्वाज
09-Apr-2017 03:06 AM 4346

अब अनन्या की बारी थी। अनन्या ने अपनी कहानी सुनायीः ‘परिवार के बारे में कहने को मेरे पास कुछ नहीं है, बचपन में भी मेरे साथ कुछ खास नहीं हुआ। मैं सीधा वहीं से शुरू करूँगी जब मैंने बीए के बाद एक प्रूफ़रीडर की नौकरी शुरू की। एक छोटा-सा आॅफि़स था जहाँ तरह-तरह की ढेर सारी किताबें छपने से पहले प्रूफ़रीडिंग के लिये आतीं थीं। प्रूफ़रीडिंग करने वाली बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ हमें ये चीज़ें भेजा करती थीं। स्कूल के कोर्स की किताबें, साइंस, मैथ, इतिहास, बच्चों की कहानियाँ, सैक्स वाली कहानियाँ, प्यार-मोहब्बत की कथाएँ, बड़े लोगों की जीवनियाँ। खूब सारे पन्ने भी आते थे, पाण्डुलिपियाँ। न जाने किस ने लिखा होता था, हमारे पास भेजता था। कुछ टाइप किये होते थे, हाथ की लिखावट में भी होते थे। पाँच लोग थे मेरे आॅफि़स में, दो छोटे कमरे। एक में मालिक बैठता था, बाहर हम चार प्रूफ़रीडर। सबकी एक-एक कुर्सी मेज़, तीन रंग के पैन... लाल, काला, नीला। एक पैंसिल, रबड़, कटर। मैंने कटर के बजाय ब्लेड लिया हुआ था, मुझे पैंसिल ब्लेड से छीलने में आसानी रहती थीं हर प्रूफ़रीडर के पास एक लकड़ी की रैक थी, दो खाने वाली। एक में वो कागज़ जिनका प्रूफ़रीड हो चुका है, दूसरा जिनका होना बाकी है। मालिक के कमरे में दो बहुत बड़ी अलमारी थीं, एक में ढेर सारे कागज़ रखे रहते थे जिन्हें वो हमें देता था। दूसरी अलमारी में चार खाने थे, हर प्रूफ़रीडर का एक। पन्ने प्रूफ़रीड हो जाने पर हम अपने-अपने खाने में रख देते थे। एक पन्ने की प्रूफ़रीडिंग के पिचहत्तर पैसे मिलते थे। दिन में दो सौ पन्ने मतलब डेढ़ सौ रुपये। हमारे हर पन्ने को मालिक दूसरे प्रूफ़रीडर से पढ़वाता था। इस पढ़ने के पैसे नहीं मिलते थे, लेकिन अगर दस पन्ने में एक से ज़्यादा ग़लती मिलती तो पाँच पन्नों के पैसे कट जाते थे। हम एक-दूसरे की ग़लती कम से कम निकालना चाहते थे, लेकिन हमारे बाद मालिक भी पढ़ता था, अगर वहाँ पाँच पन्ने में एक से ज़्यादा ग़लती मिलती तो वह दोनों के, प्रूफ़रीडर और जिसने उसका प्रूफ़ दुबारा पढ़ा, अठारह पन्नों के पैसे काट लेता था। हमें नहीं मालूम होता था इन कहानियों, किताबों, निबन्धों को कौन भेजता है, कौन लिखता है, ये कहाँ छपते हैं। हम सिफऱ् इन्हें प्रूफ़रीड करते थे।
‘हम चार प्रूफ़रीडरों के बीच में एक बाथरूम था, जिसमें दो नल लगे थे, एक इंडियन स्टाइल की लैटरिन। एक बाल्टी, दो मग्गे थे बाथरूम में, एक मग्गा लैटरिन वाले नल के नीचे, दूसरा बाल्टी पर टंगा रहता था। लैटरिन के ऊपर एक लोहे का फ्लैश था जिससे एक जंज़ीर लटकती रहती थी लेकिन जंज़ीर खींचने पर पानी नहीं लोहे की जंग झर कर लैटरिन पर गिरती थी, इसलिये लैटरिन में पानी बाल्टी से डालते थे। अगर एक बार भी पानी डालने में देर हो जाये तो आधे घण्टे में बदबू बाहर आने लगती थी। बाथरूम में अन्दर कुण्डी नहीं थी, अन्दर जाओ तो दरवाज़ा पकड़ कर बैठना पड़ता था। बाथरूम में खिड़की नहीं थी, कमरे में भी कोई खिड़की नहीं थी। बाथरूम में एक ज़ीरो वाट का लाल रंग का बल्ब था, कमरे में दो साठ वाट के बल्ब। मेरा मन टेबिल लैम्प का होता था, लेकिन मेरी मेज़ बहुत छोटी थी, कागज़ इतने होते थे सारी जगह घेर लेते थे। एक दरवाज़ा था, सीधा बाहर सड़क पर खुलता था, हमारे दाँये एक पान का खोखा था जो एक नाले पर टिका हुआ था। दरवाज़ा बन्द रखते थे नहीं तो सड़क अन्दर आ जाती थी।
‘इस जगह मैं लोगों के लिखे को सुधारा करती थी। सुबह नौ से शाम छः तक। मैं बहुत तेज़ी से प्रूफ़रीड किया करती थी, बाकी प्रूफ़रीडर एक दिन में दो सौ पन्ने पढ़ पाते थे, मैं तीन सौ पढ़ जाती थी। इस आॅफि़स के बाहर मेरे दोस्त लोग थे, उन्हें लगता था मैं बहुत बड़ा काम कर रही हूँ, तरह-तरह की चीज़ें पढ़ती हूँ, दूसरों के शब्दों को सुधारती हूँ। मुझे भी लगता था कि मैं केवल इन पन्नों पर लिखे शब्दों की मात्राएँ, पूर्ण विराम, अद्र्धविराम नहीं ठीक कर रही, मैं दरअसल इनके लेखक के जीवन को ही दुरुस्त कर रही हूँ। मुझे नहीं मालूम था, इनके लेखक कौन होते थे, न उन्हें मालूम था कौन उनके कागज़ों पर प्रश्नवाचक चिह्न हटाकर विस्मय बोधक चिह्न लगाता है, कौन उनकी छोटी इ की मात्रा काट बड़ी ई की करता है, कौन उनके अद्र्धविराम को सेमीकाॅलन बनाता है। कुछ ग़लतियाँ लगभग सभी पन्नों में दिखती थीं, कुछ केवल किसी-किसी लेखक में ही दिखतीं थी।। इन ग़लतियों से मैं उनके लेखक का अनुमान लगाया करती थी। मुझे लगता कि कुछ खास किस्म की मात्राओं की अशुद्धियाँ किसी खास किस्म के लोग ही किया करते होंगे। मसलन बड़ी ई को छोटी इ बतौर बरतने वाले इंसान शायद अपने जीवन में अधिकांश चीज़ों को कमतर कर आँकते होंगे, कहीं वे शायद निराशावादी भी होंगे। इसके विपरीत छोटे उ को बड़े ऊ में बदल देने वाले लोग हवा में उड़ते होंगे। दो वाक्यों के बीच फुलस्टाॅप न लगाने वाले लोग अपने जीवन के धागों को किसी तारतम्य में बुन पाने में असमर्थ होंगे। या शायद लम्बे वाक्य वह लिखता होगा जो दूर तक बहता-बिखरता जाता होगा, उसका प्रेम खत्म हो जाने के बाद भी बहुत देर तक खिंचता चला जायेगा। छोटे वाक्य बरतने वाला इंसान चीज़ों को, शायद सम्बन्धों को भी झटके से खत्म कर सकता होगा।
उस वक़्त मुझे नहीं मालूम था कि मेरी जि़न्दगी सिफऱ् अद्र्धविराम, फुलस्टाॅप, छोटी-बड़ी ई की मात्राओं के व्यूह में फँसी हुई थी। मैं दो वाक्यों के बीच के पूर्ण विराम को अद्र्धविराम में बदल देती थी, कबुतर को कबूतर कर देती थी, ं को जीम में, जीम को ं में परिवर्तित कर देती थी, मुझे लगता था कि मैं इस तरह किसी अनाम लेखक की इबारत में ही नहीं, उस लेखक के जीवन में, उसके जरिये इस सृष्टि में एक निर्णायक हस्तक्षेप करती हूँ। मुझे इससे पहले प्रूफ़रीडिंग का कोई अनुभव नहीं था। मैंने इससे पहले एक प्राइमरी स्कूल में कुछ महीने पढ़ाया था, बच्चों की काॅपियाँ चैक करती थी लेकिन कभी भी उन काॅपियों को दुरुस्त करते वक़्त यह ख़्याल नहीं आया था जो मुझे अनाम लेखकों की उन इबारतों से गुज़रते वक़्त हुआ था। मुझे नहीं मालूम उस छोटे से आॅफि़स के कमरे में क्या हुआ कि मेरे भीतर नियन्ता का भाव पनपने लगा। उस पर भी यह एहसास कि मैं इस पूरी प्रक्रिया में एकदम अनाम रही आती हूँ, मेरी उँगलियों के निशान इन कागज़ों पर, इस कायनात पर उतरते तो हैं लेकिन कोई भी इन निशानों को चीह्न नहीं पाता। क्या मैं अज्ञात सृष्टा हो रही थी? एक ऐसे फलक पर पहुँच रही थी जिसके स्वप्न ने भी मुझे कभी नहीं छुआ था? किसी अज्ञात खोह, कोटर में बैठा हुआ मौन नियामक।
‘अजीब बात है तब तक मुझे ज़रा भी इल्म नहीं हुआ था कि जिस काम को मैं कायनात के सीने पर अपना दस्तख़त मान रही थी, वह सिफऱ् कुछ मात्राओं को सुधारना भर था। मुझे नहीं मालूम था कि जिसे मैं अपना अमिट हस्ताक्षर समझ रही थी, वह कभी भी मिटा दिया जा सकता था, मिटा दिया जाता था। जिन लेखकों की पाण्डुलिपियाँ मैं पढ़ती थी, सुधारती थी, वे उसके बाद मेरे सुधारों को, मेरे निशान को जब चाहे मिटा देते थे।
तब तक मुझे यह भी बोध नहीं था कि मैं खुद को उन पाण्डुलिपियों का पहला सम्पादक और आलोचक मान रही थी लेकिन सम्पादक और आलोचक तो दूर मैं एक पाठक भी नहीं थी। दिन भर में तीन सौ पन्ने पढ़ने वाली लड़की पाठक हो सकती थी? मुझे एहसास तक नहीं था कि इन तीन सौ पन्नों में बिखरे लगभग डेढ़ लाख शब्दों में से शायद एक भी मेरे ज़ेहन में दजऱ् नहीं होता था, किसी भी अक्षर की ध्वनि मेरे भीतर नहीं गूँजती थी, किसी भी शब्द का अर्थ मेरे बोध को नहीं छूता था, कोई भी वाक्य अपने विन्यास में मेरे सामने उद्घाटित नहीं होता था। मैं सिफऱ् एक प्रूफ़रीडर थी जो हर ग्यारह पंक्तियों के बाद पैराग्राफ़ बदल देती थी, तीन पंक्तियों से ज़्यादा लम्बे खिंचते वाक्य को तोड़, फुलस्टाॅप लगा दो वाक्य बना देती थी।
तेज़ गति से उन पन्नों से गुज़रती जाती मैं उस इबारत के चेहरे को सिफऱ् थोड़ा पौंछती थी, उसके भीतर दहकती आँच में मेरी उँगलियाँ कभी नहीं सुलगी थीं, शब्दों के बीच बहते दरिया में मैं कभी नहीं डूबी थी।
मैं इसी तरह नौ से छः तक जीती रही, एक दिन मुझे मालिक ने बुलाया। किसी लेखक ने अपनी कहानी की पाण्डुलिपि वापस भेजी थी यह कहकर कि बहुत ही खराब प्रूफ़रीडिंग हुई है। उस पर मेरी प्रूफ़रीडिंग के निशान बने हुए थे। पाण्डुलिपि नहीं, उसकी फ़ोटोकाॅपी। मालिक ने वह फ़ोटोकाॅपी और उसके पहले पन्ने पर स्टैपलर से जुड़ी एक चिट्ठी मेरे सामने रख दी। नौ पन्नों की कहानी थी, आठ पन्नों का ख़त।

श्रीमान प्रूफ़रीडर,
रात के तीन बजकर बारह मिनट हुए हैं। मैं अपनी टेबिल लैम्प के तले आपको यह ख़त लिख रहा हूँ। मैं पिछले चार महीनों से अपनी कहानी पलट रहा हूँ जो मैंने आपको प्रूफ़रीड करने के लिये भेजी थी। मैं चार दिनों से इसी उधेड़बुन में हूँ कि आपको यह ख़त लिखूँ या नहीं, लेकिन इस रात लगा कि अगर मैं नहीं लिखता हूँ तो उन सभी लेखकों के साथ धोखा करूँगा जो आपको अपना लिखा पू्रफ़रीड करने भेजते हैं। आपका काम सिफऱ् मेरी मात्राओं को सुधारना था, मेरे शब्दों के साथ छेड़छाड़ करने का, उनका अपमान करने का आपको कोई हक नहीं था। अगर आपको मेरे शब्द समझ नहीं आ रहे थे, उनके साथ दुराचार करने के बजाय आप मुझसे सम्पर्क करते, मैं आपके संशय दूर कर देता। मैं आपको यह ख़त लिखना नहीं चाहता था, मुझे यह भी नहीं मालूम कि आप कौन हैं, कितना और क्या पढ़े-लिखे हैं, कहाँ बैठकर प्रूफ़ पढ़ते हैं, शायद मैंने आपको कहीं देखा हो, या शायद न देखा हो, शायद मैं आपसे परिचित हूँ, शायद न हूँ, शायद आपने मेरा लिखा पहले पढ़ा हो, शायद न पढ़ा हो, लेकिन फिर लगा कि जिस तरह कोई इंसान अगर रास्ते पर पत्थर से टकरा कर गिरता है, उसका कत्र्तव्य बनता है कि वह उस पत्थर को रास्ते से हटा दे, उसी तरह मुझे आपको इस प्रूफ़ पढ़ने के काम से हटाना चाहिए ताकि जो काम आपने मेरे साथ किया है किसी और के साथ न कर पायें।
ज़ाहिरी तौर पर आपको शब्दों की समझ नहीं है, आपको नहीं मालूम कि कोई वाक्य तीन पन्नों तक भी बिना पूर्णविराम के एक लम्बी, गहरी साँस की तरह, एक उफ़नते दरिया की तरह बहता जा सकता है, एक ऐसी साँस जिसकी हरेक धड़कन किसी अन्तिम पुकार की तरह आपको झकझोरती है कि जि़न्दगी दरिया के इसी उफान में डूब जायेगी, एक ऐसा वाक्य जिसका हरेक शब्द आपकी जड़ों पर प्रहार करता है, आपके नीचे की ज़मीन को झिंझोड़ आपको उखाड़ फेंकता है, आपको नहीं मालूम कि शब्द इस विराट सृष्टि को उद्घाटित नहीं करना चाहता, यह दरअसल उसे छुपा ले जाने की चाहना में डूबा रहता है, एक महान इबारत इस जादुई कायनात की व्याख्या नहीं करती बल्कि उसके जादू की ओर उँगली भर दिखाती है, इस इबारत में वह जादू जुगनू की तरह कौंधता हे, सिफऱ् निगाह भर के लिये चमकता है, तुरन्त बुझ जाता है, पगलाये हुए आपको अपने पीछे खिंचे आने को मजबूर करता है, आपको नहीं मालूम कि जो व्याकरण हम स्कूल की किताबों में सीखते हैं, वह फाँसी का फन्दा भी हो सकता है, कि शब्द के साथ क्रीड़ा हमें मुक्त करती है, बेहिसाब आसमान में बिखरने का, फूटने का न्यौता देती है, आपने कभी किसी इबारत को किसी गीत की तरह नहीं गुनगुनाया है, आपको यह इल्म नहीं है कि हरेक अक्षर की एक विशिष्ट ध्वनि होती है, हरेक अक्षर में एक ऐसा स्वर सोया रहता है जिसकी धमक समूची भाषा में किसी अन्य स्थल पर सुनायी नहीं दे सकती, इसलिये हरेक वाक्य को किसी राग की तरह गाया जा सकता है, आपको यह इल्म भी नहीं है कि शब्द दरअसल नवरस का मूल स्रोत है, यह चिंघाड़ता हुआ अट्टहास हो सकता है, मासूम लोरी भी, खुमार में डूबी प्रेम कथा भी। अगर मैं किन्हीं मात्राओं का फेरबदल करता हूँ, इसका अर्थ यह नहीं कि मुझे उनका ज्ञान नहीं, बल्कि यह कि किन्हीं अवसरों पर मैं उनकी उन ध्वनियों को चुनता हूँ जैसा मैं उन्हें सुनता आया हूँ, जो आपकी श्रव्य इन्द्रियों के एकदम विपरीत भी हो सकती है।
मैं इस वक़्त अपनी बालकनी में कुर्सी पर बैठा हूँ, सामने यूकेलिप्टस के लम्बे पेड़ खड़े हैं। मेरे अपार्टमेण्ट के दाहिनी तरफ़ हाईवे है, जो मेरी बालकनी से दिखायी नहीं देता। इस वक़्त अँधेरे में वैसे भी कुछ दिखायी नहीं देता। घण्टे भर बाद मोर, कौए, तोते इन वृक्षों पर चहचहाना शुरू कर देगें। मुझे अक्सर लगता है कि भाषा का महत्व जितना मनुष्य के लिये है, उससे कहीं अधिक शायद इन परिन्दों के लिए है। मनुष्य ने तो अपने को अभिव्यक्त करने के लिये अन्य माध्यम खोज लिये हैं लेकिन पक्षी शायद अपनी आवाज़ से ही जगत में अपनी उपस्थिति दजऱ् करा पाता है। मसलन मुर्गा अगर सुबह बाँग न दे पाये, बरसात में भीगता मोर अपना गीत न गा पाये, या तोता उड़ते वक़्त अपनी ध्वनियोें से न खेल पाये। गूँगा परिन्दा। अपनी आवाज़ को चारों तरफ़ खोजता फिरता बौखलाया परिन्दा।
क्या आपको कभी किसी चीज़ से डर लगता है? मुझे लगता है। मुझे कई सारी चीज़ों से डर लगता है। इतनी सारी चीज़ों से मुझे डर लगता है कि मुझे अचम्भा होता है कि आखिर मैंने अपने जीवन में भय के कितने नाम और चेहरे अपने शब्दकोश में दजऱ् कर लिये हैं, कि शायद मेरी वर्णमाला के हरेक अक्षर से मेरे जीवन के किसी भय की कथा कही जा सकेगी, लेकिन इसके बाद भी न जाने कितने अनाम भय होंगे जो मेरी वर्णमाला से परे होंगे, जिनका कभी नामकरण नहीं कर पाऊँगा, जिन्हें किसी को कभी बता नहीं पाऊँगा लेकिन जिनका अस्तित्व मेरे जीवन पर किसी प्रेत छाया की तरह मण्डराता रहेगा, मेरे जीवन की हरेक धड़कन को निर्धारित करता रहेगा।
पता है मेरे लिये सबसे बड़ा डर क्या है? आप शायद सोच रहे होंगे कि किसी गल्पकार के लिये न लिख पाना, अपनी आवाज़ खो देना सबसे बड़ा डर होता होगा। नहीं, मैं गूँगा हो जाना सह सकता हूँ, जीवन में कई बार यह लगता है कि मेरे शब्द मुझे छोड़कर चले गये, ऐसे अन्तराल बार-बार आते हैं जब मैं खुद को डूबता महसूस करता हूँ, हफ़्तों-महीनों तक डूबता जाता हूँ लेकिन फिर निकल भी आता हूँ, शब्द वापस आ जाते हैं भले ही बहुत लम्बे अन्तराल के बाद। लेकिन सबसे बड़ा डर है कि मैं वह नहीं लिख रहा जो लिखना चाह रहा हूँ, मेरी अनुभूति और अभिव्यक्ति के बीच गहरी खाई है।
इसलिये इस दहशत ने मुझे जकड़ लिया जब मैंने अपनी कहानी को उस पत्रिका में पढ़ा यह वह नहीं थी जो मैंने प्रकाशित होने के लिये भेजी थी। मेरी पाण्डुलिपि को किसी ने उलट कर रख दिया था, मुझे लगा कि किसी ने मेरे वीर्यवान शब्दों का सत्व किसी इंजेक्शन की सिरिंज से निकाल, उन्हें निचोड़कर, धोकर धूप में सुखाने किसी जंग लगे लोहे के तार पर डाल दिया था। हफ़्तों तक धूप में पड़े रहने के बाद मेरे शब्द सूख कर अकड़-सिकुड़ गये, थे, उन पर जंग के भूरे खुरदुरे निशान उभर आये थे। अपने लिखे को इस क़दर सरे-राह जलील होता देख, मैं काँप उठा। मुझे यकीन नहीं हुआ कि यह मैंने लिखा है। मैंने शब्द-दर-शब्द इस छपी हुई चीज़ को अपनी भेजी कहानी से मिलाया। यह वह एकदम नहीं थी जो मैंने भेजी थी। मैं कई रात इस दहशत की गिरफ़्त में फँसा छटपटाता रहा कि दुनिया इसे मेरा लिखा समझ कर पढ़ रही है, मेरी चारों तरफ़ बदनामी हो रही है कि मैं इतनी मुर्दार और मरियल चीज़ आखिर कैसे कहीं प्रकाशित होने के लिये भेज सकता हूँ। क्या मेरे भीतर इतना भी लेखकीय विवेक और धैर्य नहीं है? आखिर इसे छपवाने की हवस मेरे ऊपर कैसे हावी हो गयी? मेरे गुरु लेखक, जो गिनती में दो-तीन ही हैं, खुद को कोस रहे हैं कि आखिर किस पैशाचिक क्षण उन्होंने इतने लालची इंसान को शागिर्द बनाना स्वीकार किया। मैंने उन्हें इस क़दर रुसवा किया कि वे अपनी दी हुई समूची विद्या मुझसे वापस माँग रहे हैं, गुरु-दीक्षा बतौर मेरे दाहिने हाथ का अँगूठा माँग रहे हैं कि मैं कलम उठाने योग्य न रहूँ कि मेरा यह टुच्चापन लेखकीय जगत में मेरी अन्तिम उपस्थिति बन जाये कि मुझे अपने इस अक्षम्य अपराध के प्रायश्चित का कोई अवसर न मिले कि यह छपी हुई चीज़ मेरे निरे निर्वीर्य लेखकीय जीवन का आखिरी कौतुक बन दजऱ् हो कि मेरा समूचा लेखकीय अतीत मिट जाये, मुझे भविष्य में सिफऱ् और सिफऱ् इस गुनाह के निर्माता बतौर ही जाना जाये।
मैं उन सभी ख़तों का इन्तज़ार करने लगा जो क्रोधित पाठक मुझे भेजने वाले थे, जिनके तजुर्माें में मेरे लिये हिकारत भरी पड़ी थी। मैं उन सभी ख़तों को अपने ज़ेहन में लिखता, मिटाता, फिर लिखता। जब कई दिनों तक ऐसा कोई ख़त नहीं आया तो मैंने उनके मजमून अपनी डायरियों में लिखना शुरु कर दिया। मैं कल्पना करता कि इसे छपवाने पर मुझे किस तरह के ख़त आने चाहिये, फिर मैं उन्हें खुद को सम्बोधित कर लिखता। जब इस तरह के कई ख़त, उस चीज़ के लेखक को कोसते हुए, मैंने खुद को लिख लिये लेकिन किसी भी पाठक का कोई भी ख़त मुझे नहीं मिला तो मुझे लगा कि उन्होंने उस प्रकाशित चीज़ और उसके तथाकथित लेखक को इतनी तवज्जो भी नहीं दी कि उसे दो पंक्तियाँ लिख कर अपनी असहमति या आक्रोश दजऱ् करायें। मुझे यह भी लगा कि शायद वे सब मुझे लिखने के बजाय सम्पादक के नाम पत्र लिखेंगे, तथाकथित लेखक के साथ सम्पादक को भी कोसेंगे कि लेखक तो कच्चा और टुच्चा था ही, आखिर वह, बतौर सम्पादक, कैसे उसे छाप बैठा।
मैं इस तरह अगले महीने के अंक का इन्तज़ार करने लगा कि ‘सम्पादक के नाम पत्र’ स्तम्भ में उन सभी ख़तों का मुलायज़ा करूँगा, अपना गुनाह सर झुकाये स्वीकारूँगा, उन पाठकों को ख़त लिखकर माफ़ी माँगने का तो नैतिक साहस नहीं है लेकिन उन सभी अनजान पाठकों से, जिन्होंने मुझे पढ़ने की ज़ेहमत उठायी और ख़त लिखे, मौन माफ़ी माँगूगा। अगला अंक आते ही मैंने कँपकँपाते हुए, डरते हुए पन्ने पलटे, अनुक्रमणिका में पृष्ठ संख्या देख सीधा ‘सम्पादक के नाम पत्र’ पर आया। खुद को कठोरतम धिक्कार सुनने के लिये तैयार किया। कुल तीन पन्नों में पच्चीस ख़त थे... पन्ना नौ, दस ग्यारह। पहला ख़त सम्पादकीय पर था, दूसरा पिछले अंक में छपी किसी कविता को इस सदी की महानतम कविता बता रहा था, तीसरा जीवन में अनुशासनहीनता की आवश्यकता पर, चैथा वर्तमान राजनीति की तुलना हस्तमैथुन से कर रहा था, पाँचवाँ शब्दों के उचित उच्चारण से मनुष्य के जीवन पर होने वाले परिणाम की व्याख्या कर रहा था, सातवें की फि़क्र थी इन दिनों यह पत्रिका अपने राजनैतिक विरोधियों से भी विज्ञापन ले रही है, जो उसके समझौतावादी हो जाने का बड़ा सबूत है, दसवें का मानना था कि पिछले एक-डेढ़ साल में एक भी ऐसी कहानी इस पत्रिका में प्रकाशित नहीं हुई है जो दुनिया की महानतम कहानियों में शुमार हो सके, यह सामयिक साहित्य और इस पत्रिका के पतन का अकाट्य सूचक है, ग्यारहवें ने दो अंक पहले छपी किसी उपन्यास की समीक्षा से सहमति जतायी थी कि वाकई वह उपन्यास इस भाषा में रचे गये साहित्य की श्रेष्ठतम कृति है... इत्यादि।
मेरी कहानी पर कोई टिप्पणी नहीं थी। मैंने अनुमान लगाया कि किसी अंक में छपी किसी रचना पर प्रतिक्रिया दो-तीन अंक बाद ही आती है क्योंकि जब तक पाठक उसे पढ़कर, सम्पादक को ख़त लिखते लें, अगले अंक की कंपोजि़ंग हो चुकी होती है। मेरा अनुमान इस तथ्य से पुख़्ता होता था कि इन पच्चीस में से सत्रह ख़त पिछले अंक में छपी सामग्री पर नहीं, उससे पिछले अंकों में छपी रचनाओं पर थे।
मैंने एक महीना इन्तज़ार और किया, इकत्तीस दिन का महीना था, हरेक दिन छटपटाते हुए बीता। अगले महीने की पहली तारीख को मैं बुक-स्टाॅल गया, मालूम हुआ अंक सात तारीख तक आता है। छः दिन और थे अभी। इस अंक में भी तीन पन्नों में सिमटे कुल चैबीस पत्र थे ‘सम्पादक के नाम पत्र’, लेकिन मेरी कहानी पर कोई टिप्पणी नहीं थी। मैंने एक महिना और इन्तज़ार किया, जैसाकि इन अंकों में भी था अक्सर दूर-दराज के पाठकों के ख़त तीन-चार महीने तक आते थे। अगले दोनों अंकों में भी लेकिन उस कहानी पर कुछ नहीं था। अब मुझे विश्वास हो गया कि चूँकि इस पत्रिका के सम्पादक से मेरे दोस्ताना सम्बन्ध थे, शायद उसने मेरा लिहाज़ और सम्मान करते हुए खुद ही मेरे खिलाफ़ आये पत्रों को अपनी पत्रिका में जगह नहीं दी। लेकिन मेरा दायित्व था कि मेरी कड़ी भत्र्सना में लिखे गये उन पत्रों को मैं बाहर लाऊँ, उन्हें उचित जगह दूँ। मैंने तय किया कि किसी तरह से यह पत्र पत्रिका के दफ़्तर से ले आऊँगा, उन्हें खुद ही प्रकाशित करवाऊँगा। इस उद्देश्य से मैंने एक दिन पत्रिका के दफ़्तर फ़ोन किया, खुद को किसी पूर्वी राज्य का निवासी बताया और कहा कि मैं यह पत्रिका कई सालों से नियमित पढ़ रहा हूँ, कई पत्र लिखे हैं, सभी प्रकाशित हुए हैं लेकिन इस बार मैं बहुत निराश हुआ हूँ क्योंकि मैंने एक लेखक की कहानी पर (मैंने अपना नाम और उस चीज़ का नाम भी बताया) तीन महीने पहले दो पत्र सम्पादक के नाम लिखे थे लेकिन एक भी प्रकाशित नहीं हुआ। दफ़्तर के क्लर्क ने मेरा फ़ोन सहायक सम्पादक को दिया, मैंने उससे भी यही बात दोहरायी। उसने कहा कि वह पाठकों की प्रतिक्रिया बतौर आये पत्र खुद ही देखता है लेकिन उसकी निगाह में ऐसा कोई पत्र उस कहानी पर नहीं आया है। उसने फ़ोन होल्ड कर अपने सहयोगियों से पूछा लेकिन उन्होंने भी यही जवाब दिया। उसने मेरा नाम पूछा कि शायद इस नाम से आया कोई पत्र किसी को याद हो, तो मैंने कहा कि आप मेरे नाम को मत देखिये आप यह याद करिये कि क्या उस कहानी पर कोई प्रतिक्रिया आयी थी। उसने कहा कि उसे याद नहीं आ रहा कि कोई प्रतिक्रिया आयी थी। उसने पूछा कि क्या मैं उस कहानी के लेखक का कोई दोस्त या रिश्तेदार हूँ तो मैंने जवाब दिया कि मैं सिफऱ् आम पाठक हूँ। खैर, अन्त में यह कहते हुए कि कुछ पत्र डाक में खो जाते हैं, कुछ यहाँ दफ़्तर में भी गुम हो जाते हैं, उसने कहा कि मैं चाहूँ तो इस बार सीधे उसे पत्र भेज सकता हूँ, उसने अपना पता भी दिया, कि वह उसे तुरन्त प्रकाशित करावायेगा। उसने मुझे फ़ोन करने के लिये धन्यवाद भी दिया कि मुझ जैसे गम्भीर पाठकों की वजह से ही यह पत्रिका जीवित है।
इस फ़ोन के बाद मैं समझ गया कि किसी ने उस चीज़ को दो पैराग्राफ़ से आगे नहीं पढ़ा, ज़ाहिरी तौर पर इस योग्य भी नहीं माना कि इस पर कोई प्रतिक्रिया दी जाये, मुझे यह भी याद आया कि खुद सहायक सम्पादक को शायद वह चीज़ याद नहीं थी, पूरे तेरह मिनट फ़ोन चला था लेकिन उसने एक भी बार उस पर कुछ नहीं कहा था, वह सौजन्यवश ही सही, दो पंक्तियाँ कह सकता था लेकिन उसने रत्ती भर उल्लेख नहीं किया था कि जिस चीज़ पर हम इतनी देर बात करते रहे, वह आखिर थी क्या।
मैं वापस उसी जगह था जहाँ से तीन महीने बारह दिन पहले मेरी यात्रा शुरू हुई थी, जब मेरे पास वह अंक आया था, मैंने अपने शब्द की सार्वजनिक दुर्दशा होते देखी थी। मैं दिन भर नौ पन्ने में सिमटी उस चीज़ को पलटता रहता... पच्चीस से तैंतीस तक। कुल दो विज्ञापन थे इस बीच, एक पूरे पन्ने का, दूसरा चैथाई पेज का... नीचे, दाहिने तरफ़। पहला एक सरकारी विज्ञापन था, किसी सिंचाई योजना से किसानों को होता अभूतपूर्व लाभ, दूसरा युवा लेखकों के लिये किसी मरहूम की याद में एक कहानी प्रतियोगिता की घोषणा।
लगभग चार महीने हो गये थे, मैं एकदम पंगु होने लगा था। मैंने इस दौरान सिवाय उन काल्पनिक ख़तों के जो मेरे लिये भेजे गये थे लेकिन मुझ तक पहुँच नहीं पाये थे और कुछ नहीं लिखा था। मैं उस अंक के आने के पहले किसी नाटक की एक स्क्रिप्ट लिख रहा था  अपने निर्देशक मित्र के लिये जो मेरी कहानी पर एक नाटक करना चाह रहा था लेकिन इन चार महीनों में मैं कायदे का एक वाक्य तक नहीं लिख पाया था, मैंने लोगों से मिलना भी छोड़ दिया था। पूरे दौरान मुझे डर लगा रहता कि शायद अब कोई पत्र मेरे नाम आयेगा, या शायद अब मेरे दोस्त मेरा लिहाज छोड़ मुझे लताड़ेंगे कि आखिर कैसे मैंने इसे छपवा लिया।
यह स्थिति चलती रही जब एक रात अपनी बालकनी में कुर्सी पर बैठे हुए मुझे यूकेलिप्टस के एक पेड़ पर किसी परिन्दे के चीखने की आवाज़ सुनायी दी, वह परिन्दा देर तक चिचियाता रहा। शायद किसी बिल्ली या साँप ने इस सोते हुए पक्षी को दबोच लिया था। न मालूम क्या था उस आर्तनाद में कि मुझे अपनी कहानी याद आयी और सहसा एहसास हुआ कि इसमें मेरा कहाँ दोष है, मैं क्यों खुद को कोस रहा हूँ, दरअसल ग़लती तो पत्रिका के सम्पादक, उसके प्रूफ़रीडर की है कि आखिर क्यों उन्होंने मेरी कहानी की ऐसी दुर्गति की। वह परिन्दा अभी भी किसी की शिकंजे में फँसा चीख रहा था, उस अँधेरे में मुझे वह दिखाई नहीं दे रहा था लेकिन इतना गहरा सन्नाटा था कि मैं उसके छटपटाते पंखों की बौखलायी फड़फड़ाहट भी सुन पा रहा था। मैं कुर्सी से खड़ा हो गया, मैं उसकी चीख नहीं पहचान पा रहा था कि यह कौन-सा पक्षी है- कोयल, मैना या किंगफिशर। मेरा मन हुआ कि टाॅर्च जला कर देखूँ, शायद पता चले किसने किस पर हमला किया है। अँधेरे में वह बेबस चीख गूँज रही थी। कुछ पल बाद फड़फड़ाहट शान्त हो गयी, ठोस, सख़्त सन्नाटा फिर से अँधेरे पर काबिज़ हो गया।
यह मेरे लिये इल्हाम का लम्हा था, अपने हक़ के लिये लड़ने का लम्हा। मैं अगले ही दिन पत्रिका के दफ़्तर गया, सम्पादक को बतलाया कि आखिर कैसे उन्होंने मेरी रचना को बेइज़्जत किया है। मैंने अपनी मूल पाण्डुलिपि और प्रकाशित रचना उसकी मेज़ पर रख दी। उसने दोनों को पलटा और तुरन्त स्वीकारा कि इस अवांछित सम्पादन की वजह से मेरी कहानी का जबरन स्खलन हो गया था। उसे आश्चर्य हुआ कि इतनी बड़ी भूल आखिर कैसे हो गयी। उसने माफ़ी माँगी लेकिन उसने यह भी कहा कि पिछले एक साल से उसने प्रूफ़रीडिंग का काम किसी बाहरी एजेंसी को दे दिया है क्योंकि प्रूफ़रीडिंग काफ़ी महँगी पड़ रही थी, यह एजेंसी सस्ते में कर देती है। अंक की सारी सामग्री उसे दे दी जाती है, दस दिन बाद मिल जाती है। उसने बताया कि आजकल बहुत सारी पत्रिकाएँ प्रूफ़रीडिंग का काम किसी एजेंसी को दे देती हैं। उसने यह भी पूछा कि क्या मैं अपनी पिछली कहानियों की प्रूफ़रीडिंग से सन्तुष्ट था जो उसकी पत्रिका में प्रकाशित हुईं थी, मैंने हाँ कहा तो वह बोला कि इसका अर्थ यह है कि यह एजेंसी ही अनपढ़ है, इसलिये अब वह सारी प्रूफ़रीडिंग पहले की तरह अपने ही दफ़्तर में करवायेगा या किसी दूसरी एजेंसी को देगा।
मैं लेकिन इतने से सन्तुष्ट नहीं होना चाह रहा था। मैं उस इंसान के पास पहुँचना चाह रहा था जिसने मेरी कृति का अपमान किया। लेकिन मेरे सम्पादक मित्र को सिफऱ् उस एजेंसी का पता मालूम था, उसे नहीं मालूम था कि किसने इसे प्रूफ़रीड किया था। अगले दिन मैं उस एजेंसी के दफ़्तर पहुँचा, तो उसने बताया कि वह सारी पाण्डुलिपियाँ दूसरे शहरों में प्रूफ़रीडर्स के पास भेज देते हैं। जब मैंने कहा कि मैं जानना चाहता हूँ कि मेरी कहानी को कहाँ भेजा गया था, किसने पू्रफ़रीड किया था, तो उसने पहले तो कहा कि यह पता लगाना बहुत मुश्किल है लेकिन मेरी जि़द पर उसने अपनी फाइल टटोली और बताया कि उस पत्रिका का वह अंक यहाँ से पचास किलोमीटर दूर एक शहर भेजा गया था, वहीं किसी ने इसे प्रूफ़रीड किया होगा। मैं उससे उस जगह का पता लेकर आ गया। कुछ दिन सोचता रहा कि वहाँ यानि आपके पास आकर बताऊँ कि आपने मेरे साथ क्या किया है, लेकिन फिर लगा कि मैं क्यों आपको अपना चेहरा दिखाऊँ, क्यों अपनी पहचान बताऊँ, बेहतर होगा कि आपको एक ख़त लिखा जाए।
मैं अपनी पाण्डुलिपि की फ़ोटोफाॅपी आपको भेज रहा हूँ, जिसमें आपके निशान लगे हैं, जिन्हें देखकर आप समझ सकते हैं कि आपने मेरे साथ क्या किया है।
उम्मीद है इसे पढ़कर आप तय कर लेंगे कि आपकी सज़ा क्या होनी चाहिए।
एक अनाम लेखक
मैं उस ख़त को देर तक पढ़ती रही। कई-कई बार पढ़ा। मुझे ज़रा भी याद नहीं आया कि कौन-सी कहानी थी, याद आता भी नहीं क्योंकि मैं सिफऱ् प्रूफ़रीड कर रही थी, उन रचनाओं को पढ़ थोड़े रही थी। जब देर तक मुझे नहीं सूझा तो मैंने उस पाण्डुलिपि को पलटा। पाण्डुलिपि और प्रकाशित कहानी को अक्षरशः पढ़ा। पूरे ग्यारह पन्नों में मैंने सिफऱ् यह परिवर्तन किये थे... नौ पन्ने की कहानी में तीन जगह मैंने पैराग्राफ़ तोड़ दिया था, दो जगह दो लम्बे वाक्यों को जोड़ एक कर दिया था, एक जगह घिरियाना लिखा था, मैंने उसे बदल कर घिघियाना कर दिया था।
क्या सिफऱ् यही था या कुछ और भी था जिसे मैं निगाह नहीं कर पा रही हूँ?
इसके बाद कई दिन तक मैं आॅफि़स नहीं गयी, पूरा दिन उस पाण्डुलिपि को पढ़ती रही शायद कुछ और सूझ जाये।
लेकिन मुझे समझ नहीं आया कि मैंने किया क्या था, आखिर कौन है यह लेखक, और क्यों इसने मुझे यह ख़त भेजा है। इसके बाद मेरे भीतर एक अनजान-सा द्रव्य फूटने लगा, मेरी धमनियों में बहने लगा, मुझे लगा मेरे भीतर खून नहीं यह द्रव्य बह रहा है, जिसका स्रोत न मालूम कहाँ है। मेरा मन हुआ कि इस लेखक से जाकर मिलूँ, लेकिन मुझे नहीं मालूम था कि यह कहानी कहाँ या किस पत्रिका में प्रकाशित हुई है, मैंने मालिक से पूछा कि यह कहानी किसने प्रूफ़रीड करने के लिये भेजी है तो उसने बताने से मना कर दिया कि पहले ही मैं उनकी एजेंसी की बदनामी करा चुकी हूँ, अब और क्या बचा है। यानि मेरे पास कोई तरीका नहीं था इस लेखक के पास पहुँचने का। जनवरी में ही मैंने आॅफि़स छोड़ दिया, और दो महीने बाद सब कुछ छोड़ यहाँ इस ड्रामा स्कूल में आ गयी।’
उस रात अनन्या अपने बिस्तर पर देर तक रजाई ओढ़े औंधी पड़ी रही। उसकी देह पर दो अनाम, अदृश्य कीड़े कुलबुलाते रहे। डाॅरमैट्री में चार लड़कियाँ अपने नाटक की रिहर्सल के बाद बेसुध सो रही थीं, पाँचवीं अपने पलंग के पास टेबिल लैम्प जलाकर अपनी स्क्रिप्ट पढ़ रही थी। झारखण्ड के एक कस्बे से आयी यह लड़की नाटक में उस लड़की का रोल कर रही थी जो नया जीवन शुरू करने दूसरे शहर आती है, अपना नाम-पहचान बदल कहीं और मुड़ जाती है लेकिन सहसा एक दिन अपनी तस्वीर एक गुमशुदा के पोस्टर में पाती है। अनन्या इसी लड़की का रोल करना चाह रही थी लेकिन पाँच आॅडिशन के बाद भी जब वह एक डायलाॅग तक ठीक से नहीं बोल पायी तो उसे पूरे नाटक से ही बाहर कर दिया गया था।
वह लड़की अपने डायलाॅग बुदबुदा रही थी, अनन्या टेबिल लैम्प के आलोक में कुलबुलाते उसके होंठ देखती रही। उसके होंठ की आहट से अनन्या उसके शब्दों का अनुमान लगाती रही। वह लड़की अपने किरदार में खोयी हुई थी, उसे ज़रा भी अंदाज़ नहीं लगा कि अनन्या उठकर बैठ गयी है, उसे देख रही है। कुछ देर बाद अनन्या ने अपनी डायरी अपने बस्ते में से निकाली, बाहर आ गयी। मार्च की ठण्डी, चमकदार रात में महादेव के मन्दिर पर पीली झण्डी किसी बेबस देवता की पुकार की तरह मचल रही थी। अनन्या मन्दिर की दीवार से पीठ टिका कर बैठ गयी। झूमर की पहाड़ी पर अँधेरे के रूहानी परिन्दे डुबडुबा रहे थे। उत्तर से दक्षिण की ओर जाते इन स्याह परिन्दों के पंखों की छाया पहाड़ी पर किसी अनाम लिपि में कथा लिख रही थी। रात में इन पक्षियों को रास्ता कैसे सूझता होगा? इस वक़्त ये कहाँ जा रहे होंगे?
अनन्या ने डायरी खोली, लिखना शुरु किया ः
बाईस फरवरी, रात दो पैंतीस। ड्रामा स्कूल की एक रात।
सात महीने पहले मैं यहाँ क्यों आयी थी, मुझे अभी भी ठीक से नहीं मालूम। क्या मुझे यहाँ आना चाहिये था? क्या मैं यहाँ से कभी निकल पाऊँगी? मैं एक ऐसी लड़की का किरदार निभाना चाहती थी जो सब कुछ छोड़कर अजनबी शहर चली जाती है, लेकिन अब मैं जिन अनेक स्त्रियों के किरदार इस नाटक में जी रही हूँ, क्या उनमें से किसी में भी मेरा प्रतिबिम्ब है या वे सभी मेरी ही प्रतिरूप हैं? या मैं एक ऐसे नाटक में दाखिल हो चुकी हूँ जिसमें मनुष्य फ़रेब का अनिवार्य प्रतिरूप है, फ़रेब ही अन्तिम सत्य है?
सहसा उड़ता हुआ एक परिन्दा अपने समूह से अलग हो गया। सभी परिन्दे समान गति में, एक अदृश्य धागे, लय में बँधे उड़ रहे थे। वह परिन्दा पंक्ति के बीच में था, पहले उसने अपनी गति धीमी की, वह धीमे-धीमे पीछे होता गया, कुछ देर बाद सबसे आखिरी परिन्दा वही था। फिर वह चुपचाप सबसे अलग हो गया। तकरीबन बीस परिन्दे थे लेकिन किसी को एहसास नहीं हुआ कि उनका साथी अब उनके साथ नहीं है। अनन्या को लगा कि शायद वह थक गया था, कुछ पल उसने अपनी चाल धीमी की थी सुस्ताने के लिये कि बाकी सब उसे छोड़ कर चले गये। लेकिन ऐसा नहीं था। कुछ देर तक धीमे-धीमे पंक्ति के पीछे उड़ते रहने के बाद सहसा उसकी चाल तेज़ हुई और वह पूरब की तरफ़ उड़ चला। इस बार वह काफ़ी तेज़ गति से उड़ रहा था, स्कूल की ओर आ रहा था। देर तक उड़ते रहने के बाद वह स्कूल के सामने घाटी के बीच आकर हवा में थम गया। शायद सुस्ता रहा था। नीचे गहरी घाटी थी, देवदार के पेड़ भी। वह चाहता तो किसी पेड़ पर बैठ सकता था लेकिन हवा में ही अटका रहा।
अँधेरे में वह पक्षी आखिर क्यों अपने कुनबे से अलग हुआ था? अलग होकर यहाँ क्यों आ गया था?
अनन्या को अपने प्रूफ़रीडिंग के दिनों में पढ़ी हुई कहानी याद आयी। अमूमन प्रूफ़रीडिंग की चीज़ें कम ही उसे याद थीं लेकिन यह वही कहानी थी जिसके लेखक ने उसे लम्बा-सा ख़त लिखा था। यह कहानी एक ऐसे लेखक के बारे में थी जो अपनी मातृभाषा को छोड़ किसी अन्य भाषा में लिखना चाहता है। वह पूरी जि़न्दगी अपनी मातृभाषा में लिखता रहा है, इस लिखे का ठीक-ठाक सम्मान भी हुआ है, लेकिन सहसा उसे यह भाषा अपर्याप्त लगने लगती है या शायद वह इसका बेइन्तहा अभ्यस्त हो चुका होता है, उसे इसमें अब कोई चुनौती नज़र नहीं आती, वह इसके सुकून और सुविधा को त्यागना चाहता है। या शायद वह अपने पूर्वजों से त्रस्त है, पितृदोष से ग्रस्त है, वे लेखकीय पूर्वज जो उसकी मातृभाषा में लिखते आये हैं। वह भाषा जिसका हरेक अक्षर उसे अपने पुरखों के लहू में डूबा नज़र आता है, जिसके हरेक शब्द पर उनकी उँगलियों के अमिट निशां दजऱ् हैं, जिसकी समूची वर्णमाला पर वे हल चला बंजर कर चुके हैं। उसे अपनी लिखी कहानियों का हरेक लम्हा अपने पूर्वजों के अदम्य और असम्भव शिकंजे की गिरफ़्त में नज़र आता है, दमघोंटू शिकंजा जिसके भीतर क़ैद उसके किरदार छटपटाते रहते हैं। उसे अपने लिखे से धीरे-धीरे नफ़रत होने लगती है, वह अपनी कहानियों को जलाकर राख कर देना चाहता है।
ऐसी ही एक रात उसे लगता है कि अपनी मातृभाषा से दूर जाये बगैर वह अपने पुरखों के प्रेत से मुक्त नहीं हो पायेगा। उसे लगता है कि कोई नयी भाषा सीखनी चाहिये, एकदम अजनबी भाषा, जिसे न तो वह जानता हो, न ही उसमें लिखी किसी अनुदित किताब या रचना को उसने पढ़ा हो, जिसकी कोई स्मृति उसके भीतर न हो, जिस भाषा को वह एक शिशु की तरह सुने, सीखे, उसके संकेत, ध्वनियाँ अपने अन्तर में दजऱ् होता महसूस करे। इस भाषा के सम्पर्क में आने का अनुभव कुछ ऐसा हो कि उसके भीतर से उसका अतीत, पिछली भाषा और उसका दजऱ् संस्कार पूरी तरह से मिट जाये, इस भाषा की सृष्टि में वह किसी नवजात शिशु की तरह आँख खोले, उसकी काया को अपने बोध की कँपकँपाती ऊँगलियों से स्पर्श करे, उसके शब्दों की थाप उसकी रूह पर गूँजती रहे, और फिर वह इस नयी भाषा में, उसके नये व्याकरण में मानव जाति का अन्तिम उपन्यास लिखे, एक ऐसी कथा जिसके दरबार में कायनात के समूचे अफ़साने पनाह माँगने घिसटते आयें।।
यह भाषा कौन-सी हो, इसके चुनाव के लिये वह बहुत मशक्क़त नहीं करता। वह दुनिया के नक्शे पर आँख बन्द कर उँगली रखता है, पहली और दूसरी बार उँगली किसी ऐसे देश पर जाती है जिसकी भाषा वह जानता है। तीसरी बार अपने ही देश पर उसकी उँगली जा टिकती है। चैथी बार एक ऐसे देश पर जाती है जिसकी भाषा तो वह नहीं जानता, लेकिन जहाँ ऐसे लोग रहते हैं जो उसकी भाषा जानते हैं। पाँचवीं मर्तबा वह ऐसे देश पर आता है जहाँ कोई उसकी भाषा नहीं जानता, वह उनकी भाषा नहीं जानता, लेकिन उसने उस भाषा से अनूदित कुछ किताबें पढ़ रखीं हैं। दसवीं मर्तबा उसकी उँगली ऐसे देश पर जाती है जिसका उसने कभी नाम भी नहीं सुना था, जिसकी भाषा से भी वह एकदम अपरिचित है। वह उस देश में रहने चला जाता है, महीनों तक ऐसे लोगों के बीच रहता है। चूँकि उसके व अन्य लोगों के बीच कोई सम्पर्क भाषा नहीं है इसलिये वह उनकी बात समझ पाता है न उनसे संवाद कर पाता है, उनकी किताबें पढ़ पाता है न ही कोई उसे अपनी भाषा सिखा पाता है। वे सिफऱ् संकेतों में ही बात कर पाते हैं। धीरे-धीरे वह उनके हाव-भाव पढ़ कुछ शब्द सीखता है, साल भर बाद उनकी लिपि पढ़ना शुरु करता है।
अनन्या अँधेरे में पहाड़ को देख रही होगी, कहानी के शब्द उसके ज़ेहन से उतर हवा में अपनी इबारत लिखते जा रहे होंगे कि उस वक़्त वहाँ से गुज़रता कोई भी आकाश में दजऱ् हो रही उस कथा को पढ़ सकता होगा। परिन्दा अभी भी घाटी के बीच में हवा में अटका हुआ होगा। सहसा वह अटक जायेगी, उसे कहानी का अगला दृश्य याद नहीं आयेगा... नयी वर्णमाला पर अपनी पकड़ बना लेने के बाद जब उस लेखक ने उपन्यास लिखना शुरु किया तो क्या हुआ। या शायद वह इसके आगे की कथा को याद ही नहीं करना चाहती होगी।

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