नेमत खाना ख़ालिद जावेद उर्दू से लिप्यान्तर . नजमा रेहमानी
09-Apr-2017 02:59 AM 5295

सर्दियाँ जा चुकी थीं। मार्च का महीना आ पहुँचा। घर भर में सूखे पीले और मुर्दा पत्तों का एक ढेर लगकर रह गया। मार्च की रूखी हवाओं के उदास झक्कड़ों में यह पत्ते बावर्चीखाने में भी जमा हो जाते, क्योंकि बावर्चीखाना घर के पूरबी हिस्से में था और ये हवाएँ शायद उधर से आती थीं जिधर पश्चिम था।
मैं एक दोपहर जीने की चैथी सीढ़ी पर बैठा बावर्चीखाने में झाँक रहा था। जीना पतझर के पत्तों से ढँका हुआ था। वो मेरे पैरों के नीचे चरमरा रहे थे।
अचानक मेरे पीछे की सीढि़यों पर चरमर हुई, मैंने मुड़कर देखा।
वह एक छोटा-सा खरगोश था, सफ़ेद रंग का, जिसके दो सियाहकानों में से एक आधा कटा हुआ था। खरगोश की लाल-लाल आँखों में मेरे लिए कोई दहशत न थी। ऐसा महसूस हुआ जैसे वो मुझे हमेशा से जानता था।
दरअसल हमारे घर के पिछवाड़े जो मकान था, उसके निवासी घर छोड़कर कहीं और चले गये थे। उन्हीं लोगों ने खरगोशों का एक जोड़ा पाला था। अंजुम बाजी अक्सर मुझे गोद में लेकर उनके आँगन में दौड़ते-भागते ये खरगोश भी दिखाया करतीं थीं। अब वो लोग खरगोशों के जोड़े को तो अपने साथ ले गए थे, मगर उसके बच्चे को उसी खाली घर में लावारिस छोड़ गए थे। कुछ ही दिनों पहले मुझे नूरजहाँ खाला ने बताया था कि घर की मोरी से ये बच्चा बाहर आ गया और सड़क के एक आवारा कुत्ते ने उस पर हमला कर दिया, किसी तरह इसकी जान तो बच गयी, मगर कुत्ता उसका एक कान आधा काटकर ले गया।
ये वही खरगोश था जो न जाने कहाँ-कहाँ भटकता हुआ, गंदी मोरियों और नालियों से गुजरता और बचता-बचाता मेरे पास सूखे मुर्दा पत्तों से ढँकी ईंटों से बने जीने की सीढि़यों पर आकर बैठ गया था।
मैंने उसे गोद में ले लिया, उसके कान पर खून जमा हुआ था। जख्म अन्दर से पक रहा था।
मैंने खरगोश का सिर नरमी से सहलाया। उसने बेहद अपनेपन के साथ मेरी गोद को अपनी थूथनी से रगड़ा।
मैं बावर्चीखाने का दृश्य जाली में से देख रहा था।
सरवत मुमानी चूल्हे पर कुछ पका रही थीं। उनके हाथ में ‘रशीदा का दस्तरख्वान’1 था।
उन दिनों हमारे घर में हर औरत के हाथ में या तो ‘रशीदा का दस्तरख़्वान’ होता या ‘रशीदा की कशीदाकारी’।2 उड़ते-उड़ते मैंने अंजुम आपा से ये भी सुना था कि अंजुमबाजी की बारात होने वाली है। हो सकता है इसीलिए तरह-तरह के खानों की प्रेक्टिस की जा रही हो।
सरवत मुमानी ने ‘रशीदा के दस्तरख्वान’ का एक पन्ना पलटा, फिर दूसरा, फिर नाक पर मजबूती से ऐनक जमा कर कुछ पढ़ने लगीं। उनकी नाक पर वो ढीली-ढाली और बड़े-बड़े शीशों वाली ऐनक फिर फिसली।
मुझे जिज्ञासा हुई कि वह कौन-से खाने की तरकीब पढ़ रही हैं। मैं जीने से उतर बावर्ची खाने में आ गया। खरगोश मेरे पीछे-पीछे था।
सरवत मुमानी खाना बहुत अच्छा पकाती थीं, मगर उनके पकाए हुए चावल हमेशा सख्त रहते थे। चाहे वह भात पकातीं या बिरयानी, हमेशा दम पर आने से कुछ पहले ही वह देगची चूल्हे पर से उतार लेतीं। नतीज़ा ये होता कि उनके पकाए चावल देखने में तो बहुत खूबसूरत और सफ़ेद-सफ़ेद मोती जैसे बिखरे हुए होते, मगर खाने में हमेशा तकलीफ़ की वज़ह बनते। मगर चूँकि सरवत मुमानी बहुत बद-दिमाग़ थीं, इसलिए कोई उनसे कुछ कहने की हिम्मत न कर पाता।
1.      पुस्तिका का नाम जिसमें खाना पकाने की विधियाँ होती हैं।
2.      पुस्तिका का नाम जिसमें कढ़ाई-सिलाई सिखाने की विधि बतायी जाती है।
3.      अध पके चावल पेट में भाले की नोंक की तरह चुभन पैदा करते हैं और मुश्किल से पचते हैं।
4.      खाते-पीते रहने से बीमारी नहीं होती।

वो भी एक अजीब दृश्य होता। जिस दिन भी चावलों में कसर रह जाती, पूरा घर खाने के बाद नारियल की जुगाली करता फिरता क्योंकि हकीमों का कहना है कि सख्त या कर्रे चावलों का तोड़ नारियल है।
अच्छन दादी दुनिया में खाने-पीने की किसी चीज़ से खौफ खाती थी तो वो सख्त और कम गले हुए चावल ही होते थे। वरना वो तो पाये, गुर्दे, कलेजी, फेफड़े और बट और सिरी सब हजम कर जातीं और डकार तक न लेतीं। उनका कहना था कि ‘कल्ला चले सत्तर बला टले।’3
मगर यही अच्छन दादी सख्त चावल खाकर नारियल चबाती जातीं और बुदबुदाती जातीं कि ‘चावल की कनी, नेजे की अनी।’4
अब सोचता हूँ तो कितना हास्यप्रद लगता है कि बिखरे-बिखरे सख्त चावल खाकर घर सब लोग नारियल चबाते जाते हैं और आँगन में टहलते जाते हैं। ‘चावल की कनी नेजे की अनी’।
मगर अस्ल में नेजे की अनी क्या होती है ये मैं ही जानता था और आज भी जानता हूँ। मैं तो उस नेजे के लोहे और उसे बनाने वाले लुहार को भी जनता हूँ।
‘आप क्या पका रही हैं?’
सरवत मुमानी एक बद-दिमाग़ औरत थीं। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया।
मैंने फिर पूछा ‘आप क्या पका रही हैं?’
‘कीमा भरे करेले’ उन्होंने लापरवाही से कहा और फिर किताब की ओर ध्यान लगा दिया।
‘चूल्हे पर रखी हाँडी में तेल पक रहा था जिसमें दो-चार लहसुन के जोये जलकर काले हो चुके थे। तेल में से झाग उठ रहे थे। सफ़ेद-सफ़ेद झाग जिन्हें देखकर दिल घबराने लगा।
सरवत मुमानी ज़ोर-ज़ोर से पढ़ने लगीं जैसे सबक रट रही हों।
करेले        10
कीमा बारीक        1@2 सेर
पीली सरसों का तेल         1@2 सेर
नागपुरी प्याज                   2 सेर
गरम मसाला        1-1@2 तोला
काजू        20
किशमिश        2 तोला
खरबूजे की मेंग         1-1@2 तोला
चिरोंजी        2-1@2 तोला
सुर्ख मिर्च         1 तोला
हल्दी        2 तोला
धनिया        1-1@2 तोला
लहसुन पिसा         5 तोला
अदरक पीसी         5 तोला
नमक        स्वाद अनुसार
सबसे पहले करेलों को गहरा छील लें और कुछ देर पानी में भिगोकर रखें। कीमे में अगर चिकनाई हो तो उसे बीनकर अलग कर दें। कीमा खूब बारीक होना चाहिए। सरवत मुमानी जल्दी-जल्दी दोहरा रही थीं। मगर उससे आगे मैं न सुन सका। मुझे कुछ होने वाला था। मेरी तबियत अजीब अन्दाज़ से बिगड़ रही थी। मुझसे बावर्चीखाने में ठहरा न गया।
आँगन में आम का पेड़ बुरी तरह हिल रहा था। मैं उसके साए में जाकर खड़ा हुआ तो मेरे सिर पर उसकी शाखों के बहुत-से पत्ते गिरे।
खुद मेरा दिल भी एक सूखे पत्ते की तरह ही काँप रहा था।
ये बात कुछ देर बाद मुझे समझ में आई कि मेरा दिल जो सूखे पत्ते की तरह काँप रहा था वो दरअसल मुझे अपनी जुबान में कुछ बता रहा था। वो मुझे खबरदार कर रहा था। मैंने अपने दिल की इस अजीब-ओ-गरीब भाषा को समझ लिया था।
आज नहीं... आज कीमे भरे करेले नहीं पकने चाहिए, यह अच्छा शगुन नहीं है। आज इस खाने पर कुछ सन्देह है। पता नहीं क्या नतीज़ा निकलेगा।
धीरे-धीरे मैं इस विश्वास के भ्रम में पूरी तरह मुब्तिला हो गया कि आज के दिन इस समय यह खाना-पीना आगे होने वाली कुछ मनहूस बातों का संकेत हो सकता है।
खाना पका और मजे ले-लेकर खाया गया। खुद मैंने भी खाया, मगर मेरा दिल लगातार घबराता रहा। मेरी आँतों से निकल कर एक चिकनी रोशनी लगतार एक रोशन धब्बे की तरह मेरी आँखों के सामने नाचती रही। शाम के साढ़े पाँच बजे होंगे, जब सामने वाले घर से एक शोर-सा उठा और बब्बू की पागलों जैसी चीखों से पूरा मोहल्ला हिल कर रह गया। यूँ तो बब्बू रात-दिन ही चीखता रहता था। उसके घर वाले और मोहल्ले के सारे लोग उसकी इन वहशी चीखों के आदी हो गये थे। बब्बू की भी एक अज़ीब कहानी थी।
बचपन में वो बहुत जिद्दी और शैतान किस्म का बच्चा था। एक दिन अपने बावर्चीखाने में उधम मचा रहा था। वहाँ बुरादे की अँगीठी जल रही थी। एक पल को उसकी माँ की नज़र बची तो बब्बू के मन में क्या आई कि अँगीठी पर जाकर बैठ गया। वह एक निचले वर्ग का बच्चा था और छह-सात वर्ष का हो जाने के बावजूद निक्कर नहीं पहनता था।
उसके मुँह से दर्द भरी चीखें निकलीं। वह रो भी न सका। उसका रोना सिर्फ चीख बनकर रह गया। एक कभी न खत्म होने वाली चीख। उसके नन्हे मासूम गुप्त अंग जलकर रह गये। निचला धड़ बुरी तरह झुलस गया।
मगर वो मरा नहीं वो बच गया। लोग कभी-कभी बच जाते हैं।
वो एक बड़ी मौत को गले लगाने के लिए कमीनी टुच्ची किस्म की मौत को हीनता से ठोकर मार देते हैं।
बब्बू अब चालीस वर्ष का था। उसका दिमाग खराब हो चुका था। छह-सात साथ वर्ष की उम्र में वह पागल हो गया था। वह घर में नंगा घूमा करता था और रात-दिन चीखें मारा करता। बिलकुल उसी तरह जैसे वो आज भी जलती हुई अँगीठी पर बैठा हुआ हो।
उसकी माँ न जाने कबकी मर चुकी थी और उसका बाप जो एक बढ़ई था, वो उसकी और खुद अपनी जि़न्दगी से तंग आ चुका था।
मोहल्ले वालों के लिए बब्बू एक तफरीह का विषय था। मोहल्ले के लोंडे दरवाजे में से झाँकते और ‘बब्बू अँगीठी’ ‘बब्बू अँगीठी’ कहकर उसे चिड़ा-चिड़ा कर भाग जाते। बब्बू की वहशी चीखें बढ़ जातीं और उसका बाप हाथ में आरी, बर्मा लिए गालियाँ बकता हुआ बच्चों के पीछे दौड़ता, बच्चे इधर-उधर फैली हुई कब्रों के पीछे कहीं छुप जाते। मोहल्ले की औरतें भी बब्बू के कामुक अंगों के जल जाने की चर्चा चटखारे ले-लेकर और हँसते हुए करतीं।
मगर आज बब्बू की पागलों जैसी चीखें अचानक बहुत ऊँची हो गयीं। असामान्य तौर पर मोहल्ले में शोर हो रहा था, लोग उसके घर पर जमा थे। फिर वो चीखें अचानक थम गयीं, जैसे एक जबरदस्त तूफान अचानक रुक गया हो।
मैं भागकर छत पर जा खड़ा हुआ जहाँ से बब्बू का घर साफ़ नज़र आता था। लोग ज़ोर-ज़ोर से दरवाजा पीट रहे थे। दरवाज़ा अन्दर से बन्द था। आखिर कई लोगों ने मिलकर पुराने और टूटा-फूटा दरवाज़ा तोड़ डाला। औरतों और मर्दों की एक भीड़ घर में घुसती चली गयी।
कुछ देर बाद पता चला बब्बू अँगीठी के बाप ने तंग आकर पहले तो बब्बू को गला घोंटकर मार डाला और उसके बाद उस आरी से, जिससे वो लकड़ी कटा करता था, अपनी गर्दन रेत डाली। मुझे याद है उस समय उसके घर की मोरी से कुछ कत्थई रंग की तरल चीज बहकर नाली में गिर रही थी। तब तो नहीं लेकिन अब मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि वह कटी हुई गर्दन से बहता हुआ खून होगा।
कुछ ही देर बाद सारी गली पुलिस वालों की खाकी वर्दी से भर गयी। मैं छत से उतर आया। सारे घर में इसी घटना को लेकर चर्चा चल रही थी। मैं बब्बू अँगीठी को देखने जाना चाहता था मगर घर में किसी ने इसकी इजाजत नहीं दी। मुझे ये भी अफसोस है कि मैं कभी करीब से बब्बू अँगीठी को देख नहीं सका। अपनी जि़न्दगी में सिफऱ् एक बार मैंने उसे देखा था, जब वह न जाने कैसे घर से बाहर निकलकर गली में आ गया था और लोंडे उसे चिड़ा रहे थे। या उस पर मिट्टी के ढेले फेंक रहे थे। उस समय वह चीखें नहीं मार रहा था। उसके शरीर पर सिफऱ् मैल से चीकट, फटी हुई एक बनियान थी। मैंने गौर से उसके निचले धड़ की तरफ देख था। वहाँ एक ख़ामोश मुर्दा सफ़ेदी के सिवा कुछ न था।
उस रात मुझे नींद न आई। एक समझ में न आने वाली दहशत मुझ पर छाई रही। दहशत तो घर और मोहल्ले पर भी छाई रही। मेरा अन्देशा सही साबित हुआ, बल्कि मेरा ज्ञान पूरी तरह सही साबित हुआ। मुझे पूरा विश्वास हो गया कि इस भयानक हादसे की वज़ह आज दोपहर में मेरे घर में पकने वाले कीमा भरे करेलों के सिवा और कुछ न था।
मुझे अपनी इस खतरनाक क्षमता से इतना खौफ महसूस हुआ कि मुझ पर कँपकँपी-सी चढ़ने लगी। अब अपनी खतरनाक शक्ति का भेद मुझ पर खुल गया जो लगातार और अनगिनत लगातार उलटियाँ करने के बाद मुझमें पैदा हो गयी थी। खाना और उसकी अलग-अलग किस्में अब मेरे लिए बीजगणित के उन उलझे सवालों की तरह थे, जिन्हें देखे बिना ही हल कर सकता था। जिनके आखिर में किसी संख्या के आगे-पीछे या निशान लगाकर उसे सही-सही हल करके साबित कर देना मेरे लिए एक भयानक मगर जैसे चुटकियों का खेल था।
उस ज़माने में मुझे पता नहीं था कि ये धरती एक छोटे से बिन्दु से शुरू हुई थी। अब ये बात मुझे मालूम हो गयी कि सचमुच ये दुनिया सफ़ेद कागज़ पर सुरमई पेन्सिल से बनाया लगाया गया एक बिन्दु ही थी। फिर जो इस बिन्दु ने फैलना शुरू किया और शैतानी आँत की तरह जो रूप और आकार लिया उसके बारे में यहाँ कुछ लिखना भी केवल समय की बरबादी है। हालाँकि दुनिया मेरे लिए कोई बड़ा रहस्य नहीं है। (दुनिया में रहने वाले इंसान रहस्य हैं और खुद मैं भी एक रहस्य हूँ)
एक बेतुकी बिन्दु के बेतुके अन्दाज़ में फैलते रहने से मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है। ये तो एक मजऱ् की तरह है मगर इस बिन्दु के अन्दर जो एक असीम आकर वाला लिफाफा बन चुका है, उसमें औरत-मर्द रहते हैं, जानवर रहते हैं, बच्चे रहते हैं। जी हाँ, बच्चे भी और इसी दुनिया में जहाँ पहाड़, समुद्र, ज्वालामुखी, जंगल, नदियाँ और मरुस्थल हैं। वहीं एक बावर्चीखाना भी इसी बिन्दु में तो है। बावर्चीखाना, जैसा कि मैं बार-बार कहता हूँ (क्योंकि मुझे तकरार पसन्द है, मुझे भी और इस दुनिया को भी) वो एक बहुत भयानक और अप्रिये मगर मानव की आँतों के लिए कामुकता से भरी जगह  का नाम है। इंसानी आँतों की कामुकता अपनी बनावट में उसके गुप्त अंगों की कामुकता से ज़्यादा भयानक है। और क्या पता इस बिन्दु (धरती) को बढ़ाने और फैलाने में शायद सबसे ज़्यादा मदद इसी शैतानी जगह ने की हो और मुझे तो अब भविष्य की सारी बद-शागुनियों के इशारे बावर्चीखाने से ही मिलते हैं।
इसलिए दुनिया के बढ़ते फैलते रहने या फना-फना होने से मुझे कोई दिलचस्पी न होने के बावजूद मैं इस बिन्दु पर एक पिस्सू की तरह जाकर चिपक जाना चाहता हूँ।
यही वज़ह कि मेरी चमत्कारी याददाश्त की हमेशा ये कोशिश रही है कि वो दुनिया नाम के कागज पर लगाई गयी उसी बिन्दु तल पहुँच जाये। मैं अपने शरीर से भटक गयी एक कोशिका की तरह, हवा में उड़ते हुए ये देखना चाहता हूँ कि इस दुनिया में इंसानों के साथ क्या बरताव किया। या ये कि इंसानों ने दुनिया के साथ क्या कमीनापन किया। मगर अफसोस कि मेरी याददाश्त ज़्यादा से ज़्यादा मेरे बचपन तक.. जाकर ही रुक जाती है और फिर एक ऐसी ज़हनी कशमकश शुरू होती है जिसका अंजाम मेरे सिर में भयानक दर्द के सिवा कुछ नहीं होता।

मेरा बचपन
मैं अपने बचपन को दोबारा इसलिए नहीं पाना चाहता कि उसे एक बार फिर से जीने लगूँ। मैं अब उस तक इसलिए पहुँचना चाहता हूँ कि उसे समझ सकूँ, जिस तरह जरा बड़े हो जाने पर बच्चे अपनी पुरानी गेंद को तोड़कर उसके अन्दर झाँकने की कोशिश करते हैं। पुराने खिलौनों को तोड़कर उनके अंजर-पंजर एक करके रख देते हैं ताकि समझ सकें कि चाबी वाला बन्दर दूध की शीशी मुँह में लेकर कैसे पीता था।
मेरा बचपन? वो कहाँ छुपा बैठा है?
मैंने अपनी बूढ़ी बद-रंग खाल को बार-बार साठ की दहाई के मोहम्मद रफी के गानों की नोंकों से उधेड़ा और छीला, इब्ने सफ़ी के उपन्यासों की धारदार कैंची से आत्मा के ये मोटे-मोटे बेरहम धागे और सुतलियाँ काट डाले। पुराने दोस्तों के साथ पुरानी बातें करता रहा। मेरी याददाश्त को इन सबकी कुमुक मिलते रहने के बावजूद बचपन उस तरह न मिला जिस तरह मैं चाहता हूँ। हालाँकि वो मेरे अन्दर ही कहीं है। खाल के नीचे, हड्डियों के गूदे में, कहीं चपका हुआ घर के किसी अँधेरे कोने में पड़े प्लास्टिक की गेंद के एक टूटे हुए टुकड़े की तरह अपने बचपन के इन टूटे हुए टुकड़ों पर जब ध्यान देता हूँ और सोचता हूँ तो एक बात सामने ज़रूर आती है और वो ये कि धीरे-धीरे मेरे अन्दर एक तरह का कपट पैदा होता जा रहा था। एक खतरनाक तरह का कपट, जिसमें एक घटिया किस्म कि हिंसा छुपी हुई थी। दूसरों को तकलीफ देने की, एक न समझ में आने वाली इच्छा अक्सर मेरे अन्दर पैदा होती रहती थी। जैसे बार-बार मेरा जी चाहता था कि अपने पास बैठे लोगों के शरीर में कोई बारीक-सी सुई चुभा दूँ या खाना पकाते हुए किसी व्यक्ति के खाने में थूक दूँ और भी इसी तरह की घटिया और असभ्य हरकतें करता फिरूँ।
उदाहरण के लिए एक घटना का जिक्र करूँगा, कुछ दिनों से मैं देख रहा था कि सरवत मुमानी और फिरोज़ खालू (मौसा) आपस में बहुत घुल मिल रहे थे और मामू और मुमानी के आपसी झगड़े जरूरत से ज़्यादा बढ़ते जा रहे थे। यहाँ तक कि एक रात मामू ने मुमानी को चप्पलों से मारा-पीटा था। मुझे खुशी हुई क्योंकि सरवत मुमानी बेहद बद-दिमाग़ औरत थीं। उनके कोई औलाद न थी, मगर मैंने हमेशा महसूस किया कि वो मुझसे चिड़ती थीं। इसकी कोई न कोई वजह ज़रूर रही होगी जो मैं नहीं जानता। इन्सान को वज़हों के पीछे हाथ धोकर नहीं पड़ना चाहिए। बस तेल देखना चाहिए और तेल की धार। हालाँकि इस लाभदायक उसूल पर खुद में भी कायम न रह सका।
उस शाम बावर्चीखाने से उस मसाले की बू आ रही थी जिसमें मछली भूनी जाती है। मुझे मसाले वाली मछली बहुत पसन्द है। मगर मेरी छठी इंद्रि ने मुझे बता दिया था कि आज ये अच्छा शगुन नहीं है। कोई बुरी घटना किसी के भी साथ पेश आ सकती है। मगर मैंने उस रात मछली खूब मजे ले-लेकर खायी। मछली सरवत मुमानी ने पकाई थी। अगर अंजुम बाजी पकातीं तो मज़ा दुगना हो जाता। रात का खाना खैरियत के साथ खा लिया गया और कोई अप्रिय घटना नहीं हुई। मेरी छठी इंद्रि भी सो गयी।
वो शायद अप्रैल के शुरू के दिन थे। बाहर वाले दालान से मिला हुआ एक आड़ में एक छोटा बरामदा था जिसकी छत लकड़ी की कडि़यों और शहतीर की थी। उस तरफ उन दिनों शहद की मक्खियाँ अपने छत्ते बनाती फिरती थीं। बरामदे में एक शहतीर पर शहद की मक्खियों ने बहुत बड़ा छत्ता बना रखा था। तेज कत्थई रंग का बहुत सफाई और नाप-तौल से बनाया गया छत्ता जो कभी-कभी छत पर फानूस की तरह लटका नजर आता। घर में किसी की हिम्मत न थी कि उसे छेड़े।
बरामदे के सामने बावर्चीखाने का पिछला रोशनदान खुलता था, जिससे ये छत्ता साफ नजर आता था। रात के कोई दो बज रहे थे और मुझे नींद नहीं आ रही थी। कुछ बेचैनी-सी थी। घर के सब लोग इधर-उधर दुबके हुए सो रहे थे। मुझे कुछ मीठा खाने की इच्छा हुई। रात में अक्सर मैं छुपकर मीठा खाता था जिसके लिए मुझे बावर्चीखाने में जाना पड़ता। अपने इरादे पर अमल करते हुए मैं बिस्तर से उठता हूँ और बिल्ली की चाल चलते हुए बावर्चीखाने तक पहुँचता हूँ। बहुत धीरे और सावधानी से बावर्चीखाने का दरवाज़ा खोलता हूँ। अन्दर दाखिल होता हूँ। अँधेरे बावर्चीखाने में मछली की बू भरी हुई है। बिना बत्ती जलाये अन्दाज़े से मैं शक्कर के डिब्बे तक पहुँचता हूँ। रोशनदान में से पाम का एक बड़ा-सा पत्ता अन्दर को चला आया है जो अप्रैल की रात में चलने वाली सुहानी हवा में धीरे-धीरे काँप रहा है।
मैं शक्कर का डिब्बा खोलता हूँ, शक्कर को मुट्ठी में दबाये उसे मुँह में डालने ही को होता हूँ कि एक अज़ीब-सी आहट सुनाई देती है।
मेरा कनकटा खरगोश?
लूसी या जैक?
कोई बिल्ली?
या वो काला नाग?
मैं डर जाता हूँ। मेरी बन्द मुट्ठी खुल जाती है। सारी शक्कर अँधेरे में फर्श पर गिर जाती है, मगर न ही ये तो इंसानी साँसें हैं और इंसानी फुसफुसाहट।
कोई बरामदे में है।
मैं हिम्मत से काम लेता हूँ और एक बड़े से पतीले पर पैर रखकर रोशनदान से झाँकता हूँ। पाम का पत्ता मेरी आँखों और नाक पर चुभने लगता है। मेरे पूरे चेहरे पर सख्त खुजली होने लगती है जिसको बरदाश्त करते हुए मैं उचक कर देखता हूँ।
मध्यम-सी चाँदनी में दो साये आपस में इस तरह गुँथे हुए नज़र आये जैसे कुश्ती लड़ रहे हों। एक पल को उनके चेहरों पर खास जाविये से रोशनी पड़ती है। मैं उन्हें पहचान लेता हूँ।
वो सरवत मुमानी और फिरोज़ खालू हैं।
मेरे अन्दर एक जबरदस्त नफ़रत का भँवर पैदा हो गया। मेरे अन्दर कपट और नफरत अपनी हदों को पार करने लगी। मैं सिर से पाँव तक हिंसक बन गया। मगर कुछ न कर पाने की हिम्मत न होने के अहसास से मेरे पूरे शरीर में कँपकँपी होने लगी। ठीक उसी वक्त चाँदनी रात में मुझे वो नज़र आया। वो छत्ता जो ठीक उन दोनों के सिरों पर ही लटक रहा था।
मैं काँपते हुए पैरों से पतीले से नीचे उतरा। अँधेरे बावर्चीखाने में अटकल से मिट्टी की उस हाँडी तक पहुँचा जिसमें नमक के ढेले पड़े हुए थे। मैंने नमक का एक बड़ा-सा ढेला हाथ में दबाया और दोबारा पतीले पर चढ़ गया। इस बार मैं काँप नहीं रहा था। आश्चर्यजनक तौर पर खुद को बहुत शक्तिशाली महसूस कर रहा था।
दो धुँधले साये जानवरों की तरह एक दूसरे से गँुथे हुए और लिपटे हुए हैं। मैं पाम के पत्ते को एक हाथ से थोड़ा-सा हटाता हूँ। शहद की मक्खियों के छत्ते पर निशाना साधता हूँ। साँस रोककर अपने दायें हाथ में अपने शरीर और आत्मा की पूरी शक्ति जमा करता हूँ और फिर नमक का ढेला छत्ते पर जोर से फेंककर मार देता हूँ। हल्की-सी आवाज़ आती है जिसके बाद एक अजीब और रहस्यमय-सी भिनभिनाहट गूँजती है जैसे मौत गुस्से में भरी सरगोशियाँ कर रही हो।
उन दोनों की पागलों जैसी चीखों से सारा घर जाग उठता है। मक्खियाँ दोनों पर बुरी तरह चिपट गयी थीं। चाँदनी रात में मक्खियों के साये भयानक धब्बों की तरह इधर-उधर उड़ते और चकराते फिर रहे थे। गुस्से से भरी शहद की मक्खियाँ उनके कपड़ों में घुस गयी थीं। फिरोज़ खालू को मैंने भागते हुए जीने की तरफ जाते देखा। वो छत पर दौड़ रहे थे। शायद मुंडेर से बराबर वाले घर या गली में छलाँग लगाने के लिये। उनकी कमीज़ और पतलून उनके कन्धों पर थी। वो बार-बार अपने निचले हिस्से पर हाथ मार रहे थे। शायद उनके गुप्त अंगों को मक्खियों ने डंक मारे थे।
सरवत मुमानी बुरी तरह चीखें मार रही थीं और दीवानों की तरह जमीन पर लोटें लगा रही थीं। कभी वो उठकर खड़ी होतीं और बगूले की तरह चकराने लगतीं। उनके बाल खुलकर उनके घुटनों तक जा रहे थे। फिर ज़मीन पर लोटें लगाने लगतीं। मैंने उन्हें अपना जम्पर उतारते हुए देखा। उनकी असामान्य तौर पर बड़ी और भरी-भरी लटकी हुई छितयों की परछाई कभी ज़मीन पर पड़ती, कभी दीवार पर। उनके बाल खुल गये थे। उनका चेहरा उनमें छुप गया था। उनको देखकर लगता था जैसे वो भयानक ताँडव नाच नाच रही हो। एक चुड़ैल, एक भूत की तरह। उनकी चीखें कभी भारी और लम्बी हो जातीं और कभी पतली, बारीक और छोटी। वो किसी अमानवीय चीज में बदल चुकी थीं। थोड़ी देर बाद वो बिलकुल खामोश होकर ज़मीन पर एक वजनी पेड़ की तरह आ गिरीं- मुझे लगा वो मर गयीं।
घर के सब लोग डरे हुए से इधर खड़े या छुपे हुए थे। धीरे-धीरे वो भयानक भिनभिनाहट मद्धम पड़ती गयी। मक्खियों के साये सिमटने लगे। अप्रैल की हवा फिर चलती महसूस हुई, सरवत मुमानी अब तकरीबन बिलकुल नंगी फर्श पर शायद बेहोश पड़ी थीं। घर के दूसरे लोग इधर को आने लगे। मेरा सारा बदन पसीने से भीग गया। दिल इस तरह धड़क रहा था कि मुझे महसूस हुआ, मैं यहीं, इसी जगह, बावर्चीखाने में मर जाऊँगा।
मगर नहीं, अचानक फिर एक मक्कार हिम्मत और चालाकी ने मुझे न जाने कहाँ से निकलकर सहारा दिया। मैं तेजी से बावर्चीखाने से निकलकर बरामदे और आँगन में इकट्ठा लोगों में जाकर घुल-मिल गया। इस भगदड़ में किसी ने भी मुझे वहाँ से निकलते नहीं देखा।
ये तो खैर हुई कि छत्ता टूटकर नीचे नहीं गिरा। नमक के ढेले से वो शायद सिर्फ हिलकर रह गया होगा। इसीलिए मक्खियाँ अपना बदला लेने के बाद दोबारा छत पर जाकर चिपक गयीं। नूरजहाँ खाला (मासी) ने सरवत मुमानी के नंगे बदन पर अपना सूती कपड़ा डाल दिया था। मगर दुपट्टा डालने से पहले मैंने उनके सीने की तरफ की देखा। वहाँ अब छातियाँ न थीं। वो सूजकर एक बहुत बड़े थैले में बदल चुकी थी। मुझे आटा लाने वाला थैला याद आ गया। तब उन्हें उठाकर अन्दर लाया गया। उनका पूरा चेहरा सूजकर कुप्पा हो गया था। आँखें नज़र ही न आती थीं। उनके होंठ किसी दरिन्दे की थूथनी की तरह नीचे लटक रहे थे। चेहरा इतना लाल था जैसे कोई बड़ा अंगारा, मुझे बिलकुल पता न था कि शहद की मक्खियों के काटने से मामला इतना बिगड़ जायेगा। कोई कह रहा था अगर फौरन अस्पताल न ले जाया गया तो वो मर भी सकती हैं।
‘मर जाने दो, मर जाने दो इस कुतिया को’ मामू चीखे। सबने झपट कर मामू का मुँह बन्द कर दिया, मगर वो दोबारा पागलों की तरह चीखने लगे।
पूछो, पूछो इस छिनाल से, ये किसके साथ मुँह काला कर रही थी। कौन छत पर भागा था। अन्जुम बाजी ने मेरा हाथ पकड़ा और कहा-
‘चलो गुड्डू मियाँ, तुम जाकर सो जाओ। मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूँ’। अंजुम बाजी मेरा हाथ पकड़कर सामने वाले दालान में ले आयीं। उन्होंने प्यार से मुझे सो जाने के लिए कहा। मैंने उनका चेहरा देखा, वो बहुत उदास थीं। इतनी उदास कि उनके चेहरे की पवित्रता तक उस उदास रंग की छूट में कहीं गुम हो गयी थी और मैं सो गया। मैं सचमुच सो गया, इतना बड़ा शैतानी कारनामा अंजाम देने के बाद मैं बेखबर सो गया।
दूसरे दिन की सुबह असामान्य तौर पर सूनी और खामोश थी। पता चला सरवत मुमानी बच तो गयी थीं, मगर अब वो इस घर में नहीं थीं। मुझे यही बताया गया कि वो इलाज के लिए बांग्लादेश अपने माइके के रिश्तेदारों के यहाँ चली गयी थीं। चन्द दिनों बाद कहीं से उड़ती-उड़ती खबर आई कि पाकिस्तान में उनका देहान्त हो गया है। वो शायद बांग्लादेश से पाकिस्तान चली गयी थीं।
फिरोज़ खालू जो मोहल्ले में ही रहते थे, वो हमारे दूर के रिश्तेदार लगते थे। उनका भी कोई पता न चला। वो तो इस तरह गायब हुए जैसे उन्हें ज़मीन खा गयी हो। उनकी पत्नी का इस घटना से पहले देहान्त हो चुका था और बच्चे अपनी ननिहाल में रहते थे।
जहाँ तक मामू का सवाल है, वो बहुत समय तक गुमसुम रहे फिर उन्होंने अपने आप को मुकदमों और कचहरी की दुनिया में पूरी तरह डुबो दिया।
ये सब मैंने बड़ी मुश्किल से याद करके लिखा है और अब मुझे ये भी अहसास होता है कि वो सब जितना भयानक था उतना ही हास्यास्पद भी था यानी जब दो प्राणी काम क्रिया में लिप्त हों तो उन पर शहद की मक्खियों के डंक का हमला...और फिरोज़ खालू के गुप्त अंगों पर ठीक उसी समय ऐसी मुसीबत जब वो अंग खुद दूसरी दुनियाओं की सैर कर रहे हों। बहरहाल भयानकता और हास्यास्पद होना एक ही सिक्के के दो रुख हैं। एक के साथ दूसरे की मौजूदगी अनिवार्य होती है। जैसे आप भूत को ही लीजिये। वो भयानक और मसखरा एक साथ है। बस बात ये है कि आप किस पहलू पर ज़ोर देते हैं। मेरे अन्दर उस ज़माने में दूसरों को यातना देने का जुनून इस हद तक बढ़ चुका था कि किसी तरह के अपराध बोध से मेरा दूर का भी वास्ता न था और अन्तरात्मा किस चिडि़या को कहते है, इसकी कोई जानकारी कम से कम उस ज़माने में होने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता था। फिर ये भी है कि अगर मैं ये हरकत न करता तब भी कुछ न कुछ होकर रहता। एक ग़लत वक्त़ और ग़लत दिन मसालेदार मछली का पकना गुल खिलाकर ही रहता। ये मेरी आस्था और विश्वास था।
ये बात विश्वास के साथ कही जा सकती है कि मेरे अन्दर अपराध के कीटाणु बचपन से ही पनप रहे थे मगर एक ऐसा अपराधी जिसकी सज़ा, जिस अदालत में तय होना थी वो अभी पैदा ही नहीं हुई थी। इसलिए एक अरसे तक बल्कि शायद सारी जि़न्दगी मैं इसी तरह छूटे बैल की तरह घूमता रहूँगा और अपने ऊपर रहस्य के इतने मोटे और काले पर्दे डाले रहूँगा कि मेरा आन्तरिक अस्तित्व अपने आप में एक रहस्य, एक भेद, एक निहित गणित में बदल जायेगा।
और ये सब होने में देर नहीं लगेगी। अगर में उपन्यास लिखने के काबिल होता तो मेरे मुखौटे खुद ही धीरे-धीरे सरक कर नीचे गिर जाते मगर मुकदमों की अपीलें, प्रार्थनाएँ और अदालतों में होने वाली बहसें, ये सब तो खुद अपने आप में काली नकाबें हैं। हर वकील, हर गवाह और हर जज, एक नकाब ओढ़े है।
मैं जो ये सब कुछ लिख रहा हूँ (लिख भी रहा हूँ या बुदबुदा रहा हूँ) तो यह भी एक अपील और एक प्रार्थना के सिवा कुछ नहीं। इसको किस अदालत में दाखिल करना है ये अभी मुझे नहीं मालूम। बस मैं इसे हाथ में पकड़े-पकड़े भटक रहा हूँ। अपनी अदालत की तलाश में, जब ये मुझे मिल जाएगी मैं वहाँ इसे दाखिल करके खामोशी के साथ अपने सारे मुखौटे गिरा दूँगा। मैं वहाँ अदालत के सामने नंगा हो जाऊँगा- मैं ये शरीर तक उतार कर फेंक दूँगा।

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