उपन्यास.अंश मदन सोनी एक
09-Apr-2017 02:52 AM 8944

यह निश्चय ही वह नहीं है जो उसकी आकांक्षा थी। हालाँकि, काश मैं उसे पूरा कर पाती! इसलिए नहीं कि यह उसकी आकांक्षा थी, बल्कि इसलिए कि अन्ततः यह मेरी भी आकांक्षा बन गयी थी। उसके कुछ-कुछ हिंसक-से आरोपण के बावजूद। नहीं, मैं उसे बलात्कार नहीं कहूँगी। उसकी इच्छा में इकतरफ़ापन, आवेग और पर्याप्त बलप्रयोग तो था, लेकिन वह इच्छा अपने आप में शारीरिक नहीं थी। सांसारिक तो वह थी, लेकिन शारीरिक नहीं। शरीर - उसका शरीर - (जो दृश्य का हिस्सा बहुत बाद में बना था) उस नितान्त शारीरिक दीखते अनुष्ठान में, उसके लिए एक साधन-मात्र था और शरीर की भूख, अपनी प्रबलता के बावजूद और अपने सन्तोष के क्षण में उस अनुष्ठान के एकमात्र कारक की तरह प्रगट होने के बावजूद, असल में उस अनुष्ठान की प्रेरक न होकर, उसका एक सहउत्पाद-मात्र थी। तब भी, जैसा कि मैंने कहा, वह एक हिंसक आरोपण तो था ही। उसकी प्रेरक आकांक्षा, दरअसल, ‘स्रष्टा’ बनने की थी जिसके लिए उसने मुझे एक ‘सरोगेट मदर’ की तरह चुना था। ‘मुझमें पोटेंशियल है, लेकिन मैं अपने बूते पर उसे चरितार्थ नहीं कर सकता,’ उसने कहा था। ‘मुझे एक ऐसे शख़्स की ज़रूरत है जो मेरे शुक्राणु को धारण कर सके, उसके लिए डिम्ब उपलब्ध करा सके, उसको इन्क्यूबेट कर सके। तुम्हें मेरे लिए एक सरोगेट मदर की भूमिका निभानी होगी।’
‘नहीं,’ मैंने कहा था, हालाँकि मैं स्वीकार करूँ कि इन्कार के उस क्षण में ही एक हल्का-सा प्रलोभन मेरे मन में जाग चुका था। प्रलोभन उसकी योजना में शामिल होने का नहीं, बल्कि उस प्रक्रिया में सम्भावित आनन्द का। उसका प्रस्ताव, जैसे कि उसका व्यक्तित्व भी, निहायत ही बेतुका था, केन्द्र से खिसका हुआ-सा। लेकिन इस बेतुकेपन और उत्केन्द्रिकता में ही शायद वह चीज़ थी जो मुझे अपनी तरफ़ खींच रही थी और उसके इस एडवेंचर में शामिल होने को न्यौत रही थी। तब भी मैंने प्रतिरोध बरता। ‘नहीं, यह मुझसे नहीं हो सकेगा।’
‘यह होगा, बिल्कुल होगा,’ उसने कहा। ‘और यह सिफऱ् तुम ही कर सकती हो। तुम ही करोगी। मुझे पूरा भरोसा है। मैंने तुम्हें बहुत क़रीब से पढ़ा है और तुममें इस सम्भावना की मौजूदगी से आश्वस्त होने के बाद ही मैं तुमसे यह इसरार कर रहा हूँ। तुम ख़ामखाह नर्वस हो रही हो।’ उसने एक निश्चिन्त निगाह कमरे की दीवारों पर घुमायी, मानो उसकी निश्चिन्तता या मेरी नर्वसनेस का स्रोत उन दीवारों में कहीं हो।
मेरी निगाहें भी, बरबस ही उसकी निगाहों का पीछा करती हुई दीवारों पर घूम गयीं। दीवारें पुस्तकों से अँटी हुई थींः उपन्यास, कहानियाँ, निबन्ध, कविताएँ, जीवनियाँ, आत्मकथाएँ, यात्रा-संस्मरण, शब्दकोष, विश्वकोष...। फिर मैंने उसे देखा जो सामने की दीवार के क़रीब रखे दीवान के अस्तव्यस्त बिस्तर पर बिखरी हुई पुस्तकों, तकियों, मुड़ी हुई चादर और बिस्तर के एक कोने में उतारे गये कपड़ों के छोटे-से ढेर के बीच किसी तरह बनायी गयी जगह में बैठा हुआ था। मेरे सामने। मेरे और उसके बीच रखे दो आधे पिये गये गिलासों के सामने।
क्षण भर को मुझे लगा जैसे वह मेरा नहीं उसका कमरा हो - उसके कमरे की दीवारें, उसकी पुस्तकें, उसका बिस्तर और यह अहसास मुझे हल्की-सी उत्तेजना से भर गया। क्या मैं वाक़ई कर सकती हूँ? हालाँकि उसके हिसाब से मुझे करना ही क्या था, सिवा अपनी पैसिविटी उसके लिए समर्पित कर देने के? करना तो उसे था। यही तो वह चाहता था - कर्तृत्व। मुझे तो सिफऱ् उसकी कर्मभूमि होना था।
या शायद मैं ग़लत थी, क्योंकि उसने कहा था कि वह कोई श्रेय नहीं लेना चाहता था, संसार की नज़रों में उसे मेरी ही रचना होना था; बस, सिफऱ् एक ऐसी रचना जिसमें उसके सŸव को रचा जाना था।
उसके प्रस्ताव का एक आकर्षण - हालाँकि निहायत ही सस्ते और तात्कालिक कि़स्म का आकर्षण - उसके उस रूपक में भी था जिसमें लपेटकर वह उसे पेश कर रहा था। उस तरफ़ मेरा ध्यान, ज़ाहिर है, शुरू से ही था और उसमें हल्क़ा-सा आनन्द भी मैं लगातार लेती रही थी, लेकिन उसका प्रत्यक्ष संज्ञान मैंने अभी तक नहीं लिया था। अब मैंने थोड़ा-सा ऊबकर, मानो विषय बदलने के लिए और शायद उसकी नीयत की टोह लेने के लिए भी, सहसा उसे टोका। ‘बहरहाल... यह सब तो बाद की बात है, बट फ़स्र्ट आॅव् आॅल, वुड यू प्लीज़ माइण्ड योर मैटाफ़र! मत भूलो कि मैं सिफऱ् एक लेखक ही नहीं, एक औरत भी हूँ।’
आपके विषयान्तर को सहज स्वीकार करते हुए अन्ततः अपने विषय के विस्तार में उसको समेट लेना, उसका उतना ही सहज विनियोग कर लेना - यह उसकी ख़ासियत थी। मेरे टोकने से उसकी संजीदगी में एक बारीक-सी दरार ज़रूर पैदा हुई। वह मुस्कराया और सिफऱ् क्षण भर के लिए मेरी तरफ़ - या कहिए कि मेरे स्त्रीत्व की तरफ़ - एकाग्र हुआ, जिसमें मेरे इस इण्टरल्यूड के प्रति और मेरे औरत होने के तथ्य को नज़रअन्दाज़ न करने के मेरे इसरार के प्रति उचित सम्मान जताने के साथ-साथ इस तथ्य में एक हल्की-सी दिलचस्पी की कौंध भी कहीं थी। पर अगले ही क्षण वह अपनी संजीदगी में वापस लौट गया। ‘लेकिन इन दोनों में क्या वाक़ई कोई बुनियादी फ़र्क है? बल्कि तुम्हारे औरत होने के प्रति अपने पूरे सम्मान के बावजूद मेरे लिए तुम फि़लहाल इसलिए ही एक औरत हो क्योंकि तुम लेखक हो। मैं मैटाफ़र का सहारा नहीं ले रहा हूँ, मैं तो उलटे उसकी चाहना कर रहा हूँ- तुमसे।’ उसकी नज़रें एक बार फिर पुस्तकों पर घूमती हुई मुझ पर टिक गयीं। ‘मैंने कहीं पढ़ा था कि ‘अगर सचाई जैसी कोई चीज़ वाक़ई होती है और वह बोल सकती है, तो एक औरत ही है जो उसको स्वर दे सकती है।’ यह स्वर एक अर्थ में क्या मैटाफ़र ही नहीं है, जो सचाई को निबद्ध और चरितार्थ करता है? और हम सब अपनी-अपनी सचाइयों के रूपक ही तो हैं, जिनमें से हरेक को किसी औरत ने ही गढ़ा है। ज़रा सोचो, इन रूपकों के बग़ैर, जो कि हम हैं, हमारी तथाकथित सचाइयों का क्या होता? उनके होने का कोई सबूत भी शायद न होता।’’
क्या वह मुझे वाक़ई सिड्यूस करने की कोशिश कर रहा था? उसका मूल प्रस्ताव जिस रूपक में लिपटा हुआ था वह रूपक खुद भी क्या एक प्रस्ताव था? क्या मैं इस आदमी के साथ हमबिस्तर हो सकती हूँ? इसी रात? मैंने उसकी ओर देखा, जो अपनी बात ख़त्म करने के बाद चुपचाप उठकर देहलीज़ के बाहर तक चला गया था और अब कमरे की तरफ़ पीठ करके अपनी सिगरेट सुलगा रहा था (मैंने उसे कमरे में सिगरेट पीने के लिए मना किया हुआ था)।
बाहर के अँधेरे को, जिसमें वह खड़ा था, कमरे से जाती रोशनी फीका कर रही थी। थोड़ी देर पहले का अधिकार-भाव से भरा उसका व्यक्तित्व धूसर कपड़ों में लिपटी उसकी क्षीण काया में बिला गया-सा लगता था, जो इस दूरी से कुछ-कुछ निरीह-सी लग रही थी। वह जल्दी-जल्दी कश ले रहा था। मैं उठी और चुपचाप उसके पीछे जाकर उसके कन्धे पर हाथ रख दिया। ‘एक सुट्टा मैं भी लूँगी।’
वह चकराता हुआ-सा मुड़ा और अधजली सिगरेट मुझे थमा दी। ‘लेकिन... तुम्हें तो सिगरेट से एलर्जी है?’ क्षण भर ख़ामोश रहने के बाद उसने कहा-
‘सिगरेट से नहीं, पैसिविटी से...’
वह हल्के-से मुस्करा दिया। ‘पैसिविटी@एक्टिविटी - तुम दरअसल उस भाषा में बात कर रही हो जिसने मुझे मेरे ही अनुभव से देश निकाला देकर तुम्हारी शरण में ला पटका है। लेकिन क्या तुम भी इस तरह की बेवकूफ़ी में विश्वास कर सकती हो - एक लेखक होने के बावजूद? अनुभव करते, लिखते और पढ़ते हुए कब तुम एक्टिव होती और कब पैसिव - क्या तुम वाक़ई फैसला कर सकती हो?’
‘लेकिन कब मैं एक्टिव स्मोकिंग कर रही हूँ या करना चाहती हँू और कब पैसिव - इसका फैसला तो मैं कर ही सकती हूँ... एक लेखक होने के बावजूद।’
‘दैट्स अ गुड गर्ल।’ वह हल्का-सा मुस्कराया। ‘...लेकिन अब मुझे चलना चाहिए, काफ़ी रात हो चुकी है। कल मुलाक़ात होगी। ओ. के.?’ वह नीचे सड़क की ओर ताक रहा था।
‘लेकिन इतनी रात को तुम जाओगे कैसे? तुम्हारा होटल यहाँ से बहुत दूर है और यहाँ तो दूर-दूर तक तुम्हें कोई रिक्शा भी नहीं मिलेगा... ख़ासतौर से इस वक़्त।’’
‘पैदल चल देता हूँ... कहीं न कहीं तो मिल ही जाएगा... या फिर घण्टे भर में यूँ ही पहुँच जाऊँगा।’
‘तुम्हें कुŸो खा जाएँगे... इस क़स्बे के बारे में तुम्हें पता नहीं है।’
हम रेलिंग तक आ गये थे और नीचे अँधेरे में उस पतली-सी ढलुआँ सड़क की ओर झाँक रहे थे जो कुछ दूर तक लुढ़कती हुई नदी के कच्चे घाट तक चली गयी थी। नदी दिखायी नहीं दे रही थी, लेकिन उसकी देह का ताप और गन्ध हवा में समाये हुए थे। झींगुरों की आवाज़ पूरे वातावरण को तानपूरे के स्वर की तरह भर रही थी।
‘तुम चिन्ता मत करो, मैं किसी तरह मैनेज कर लूँगा,’ उसने कहा, हालाँकि वह वहीं खड़ा रहा, अडिग, रेलिंग को थामे और नीचे की अँधेरी सड़क को घूरता हुआ।
मैंने उसके कन्धे को धीरे-से थपथपाया और कमरे की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, ‘कम।’
‘तुम यहाँ सो सकते हो,’ दीवान की तरफ़ इशारा करते हुए मैंने कहा, ‘अगर तुम्हें कोई ऐतराज़ न हो तो...।’
‘यहाँ...मैं...?’ उसका असमंजस ज़ाहिर था। ‘ऐतराज़ का प्रश्न ही नहीं है...लेकिन तुम...तुम्हारा क्या होगा?’
‘ज़ाहिर है, मैं भी यहीं सोऊँगी। तुम देख ही रहे हो कि इस कमरे में न तो कोई एक्स्ट्रा स्पेस है और न ही कोई एक्स्ट्रा बिस्तर ही है मेरे पास और वैसे भी यह दीवान चार फ़ुट का है और हमारी कायाओं को देखते हुए कम से कम एक फुट की गुंजाइश हमारे बीच तब भी बनी रह सकती है।’ अगर हम चाहें, तो।
‘लेकिन...तुम बेवजह परेशान...’ मेरे चेहरे की निस्संकोच हँसी के बावजूद उसका संकोच और असमंजस बरकरार था।
‘नो फ़र्दर कमेण्ट्स प्लीज़...गैट रेडी टु स्लीप! वैसे भी हमें काफ़ी देर हो चुकी है,’ मैंने दीवान पर पड़ा अटाला समेटते हुए बनावटी आदेश के लहज़े में कहा, और अलमारी से एक साफ़ तहाया हुआ नाईट सूट निकालकर उसकी तरफ़ बढ़ा दिया।
‘इसकी क्या ज़रूरत है...मैं इन्हीं कपड़ों में सो सकता हूँ...।’ उसने अनिश्चित-से भाव से कपड़े थामते हुए कहा, फिर कुछ सोचता हुआ-सा बोला, ‘चलो, पहन लेता हूँ।’
वह कपड़े बदलकर गुसलख़ाने से लौटा, तो उस पोशाक से क्षण भर के लिए एक पहचान उभरी जो अगले ही पल पोशाक और उसकी दुबली काया के बीच के असामान्य ढीलेपन में बिला गयी।
‘दिलीप कब लौट रहे हैं?’ वह लजाता-सा कमीज़ पर हाथ फिराते हुए बोला।
‘दो महीने बाद...नवम्बर के आखि़र में। बशर्ते कि उसका प्रोजेक्ट समय पर पूरा हो सके।’
‘और हमारा प्रोजेक्ट...? तुमने क्या फ़ैसला किया?’ उसने लेटते हुए कहा।
‘मैं सोचूँगी...मुझे थोड़ा समय दो। तुम्हारे बारे में जितना मैं जानती हूँ और जितना तुमने अब तक मुझे बताया है, वह अपने में बहुत दिलचस्प है। मुझे ग़लत मत समझो...मेरी समस्या तुम्हारे ‘पोटेंशियल’ को लेकर नहीं है, न ही मुझे अपने ‘सरोगेट’ होने को लेकर ही वैसी कोई आपŸिा है, मेरी चिन्ता दरअसल अपनी कूवत को लेकर है। फिर भी तुम अपनी कहानी तो कल से ज़ारी रख ही सकते हो। मैं कुछ नोट्स भी शायद कल से लूँ। कौन जाने, मैं आखि़रकार तैयार हो ही जाऊँ। हो सकता है कि इस एडवेंचर का कुल मिलाकर कोई नतीजा न निकले, लेकिन एडवेंचर का अपना आनन्द तो होगा ही।’
उसने कुछ नहीं कहा। क्या वह सो गया था? नहीं। वह अपनी दोनों हथेलियों पर अपना सिर रखे सीलिंग की ओर घूर रहा था। मैं कुछ देर सीधी लेटी उसकी साँसों की आवाज़ सुनने की कोशिश करती रही। फिर मैंने उसकी ओर पीठ कर आँखें मूँद लीं।
कुछ पल की ख़ामोशी के बाद मैंने उसका हाथ अपने सिर पर महसूस किया जिसे वह हौले-हौले सहला रहा था।
‘क्या मैं तुम्हारे बालों को चूम सकता हूँ?’ वह फुसफुसाया।
मैं ख़ामोश बनी रही।
उसने कोई जल्दबाज़ी नहीं की। देर तक वह मेरी चोटी की गाँठों से उलझता रहा और जब बाल पूरी तरह खुल गये, वह अपनी अँगुलियों से उनकी जड़ों को सहलाने लगा। फिर उसने अपना मुँह उनमें धँसा दिया। कुछ पल हम वैसे ही, बेहरक़त पड़े रहे - वह, शायद, मेरे करवट बदलने का इन्तज़ार करता हुआ और मैं, शायद, अपनी देह पर उसकी देह के स्पर्श का, जिसका कहीं कोई पता नहीं था।
फिर उसने मेरे बालों के भीतर से अपना चेहरा समेट लिया।
कुछ देर बाद जब मैंने मुड़कर देखा तो वह करवट बदलकर सो चुका था। थोड़ी देर पहले जो एक चिंगारी-सी भड़की थी, अब शान्त हो चुकी थी, सिर्फ नमी का एक ठण्डा-सा अहसास काया के एक कोने में शेष रह गया था और एक गहरी-ठण्डी साँस।     
पड़ोस की नदी...बाथरूम का शाॅवर...बचपन का कुआँ...स्वर्णमन्दिर का जलाशय...किचिन की सुराही...। यह शायद रात की अल्कोहल थी जो शरीर के पानी को सोखे जा रही थी और शरीर दिमाग़ के भीतर पानी के सोते तलाश रहा था।
रात का चैथा पहर रहा होगा। मेरे गले को रूँधती ख़ुश्की थी या बिस्तर की वह हलचल या शायद दोनों ही कि सहसा मेरी नींद टूट गयी। मुझे कुछ दबी-दबी-सी कराहें सुनायी दीं और तब मेरा ध्यान उसके काँपते हुए शरीर पर गया। यह उसे क्या हो रहा था? क्या वह कोई बुरा सपना देख रहा था? क्या वह बुखार में डूब रहा था? या उसे कोई दौरा पड़ रहा था? मैं कुछ क्षण आशंकित निगाहों से उसके हिलते हुए शरीर को घूरती रही। नहीं। यह कँपकँपाहट नहीं थी। यह एक सम और अटूट लय में बँधा हुआ दोलन था। उत्तरोत्तर तीव्र और हिंसक होता हुआ। वह खुद को फेंट रहा था। मथ रहा था।
याकि मुझे? क्या वह अपने एकान्त में मुझे ले रहा था? मैंने अपनी नाभि के नीचे से उठती एक विदारक-सी तरंग महसूस की। मेरा हाथ उसे झकझोरने के लिए बढ़ा, फिर रुक गया। वह खुद इस बीच दम तोड़ रहा था, कण्ठ से बाहर आती घुटती मरती सिसकियों के साथ।
बहुत दिनों बाद, जब अपनी बैठकों के दौरान, वह मुझे अपनी ‘लिबिडिनल इकाॅनाॅमी’ के बारे में बता रहा होगा और मैं उससे इस रात के बारे में पूछूँगी, वह बुरी तरह चैंक जाएगा। फिर अपनी झेंप से बाहर आते हुए कहेगा, ‘नहीं, वहाँ तुम नहीं थीं। लेकिन...उफ़्...तुम जाग रही थीं? हाऊ डिस्गसिं्टग...आय एम रियली साॅरी। मैं सोचता था कि तुम गहरी नींद में थीं।’
फिर कुछ देर की ख़ामोशी के बाद जब वह सहज हो जाएगा, वह कहेगा, ‘दरअसल, ऐसे समय में मुझे किसी फ़न्तासी के सहारे की ज़रूरत नहीं होती। ख़ुद मैं या मेरी अपनी काया ही मेरे लिबिडो का आलम्बन होते हैं।...बल्कि, इसके उलट, और यह बात तुम्हें शायद कुछ अजीब लगे, फ़न्तासी मैं तब रचता हूँ जब मैं किसी स्त्री के साथ संसर्ग करता हूँ। लेकिन उस फ़न्तासी में कोई दूसरा नहीं होता, सिर्फ़ मैं होता हूँ। बल्कि फ़न्तासी मैं रचता ही इसलिए हूँ ताकि वहाँ मौजूद उस दूसरे से - उस स्त्री से - बाहर आकर अपने शरीर के एकान्त में लौट सकूँ।’
‘तब फिर यह पाखण्ड क्यों - दूसरे की चाहना का, दूसरे के साथ संसर्ग का?’ मैं पूछूँगी।
‘क्योंकि उसमें लौटने का स्रोत है’, वह कहेगा। ‘हम दूसरे के पास जाते हैं ताकि वापस अपने पास लौट सकें। सिफऱ् उस स्त्री से नहीं, बल्कि उस पूरी दुनिया से लौट सकें जिसमें हम धँसते चले जाते हैं। लेकिन जिसके हम हो नहीं पाते और अपने एकान्त में लौटकर हम सिर्फ़ अपने पास नहीं लौटते बल्कि उसके एकान्त में भी लौटते हैं जिसके पास से हम लौटे थे। क्योंकि अपने एकान्त से ही दूसरे के एकान्त को महसूस किया जा सकता है, उसको समझा और सहा जा सकता है।’ वह पल भर को रुका। ‘जब तुम लिखती हो तब क्या तुम यही नहीं करती...?’
‘सो, व्हेन आई राईट, आई मास्टरबेट। इज़ण्ट इट व्हाट यू मीन?’
‘यस, इन अ सेंस। टु राईट इज़ टु इण्टरकोर्स विद वनसेल्फ़।’
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‘निश्चय ही यह वह नहीं है जिसकी मेरी आकांक्षा थी; बल्कि है।’ मैंने पूरा मज़मून पढ़ने के बाद उसके काग़ज़ उसे वापस थमाते हुए कहा।
‘निश्चय ही,’ उसने मेरी हँसी में हँसी मिलाते हुए कहा, ‘लेकिन इससे बेहतर कोई तरीक़ा, शुरुआत करने का, मुझे सूझता नहीं है।’
‘हाँ, लेकिन यह तो एक अलग ही कहानी चल निकली लगती है जिसमें निहायत ही स्वतन्त्र विस्तार की सम्भावनाएँ और माँगें नज़र आती हैं। मुझे नहीं लगता कि इसका मिजाज़ मेरे उन तथ्यों से ज़रा भी मेल खाता है जिनके आख्यान की भूमिका के तौर पर तुमने इसे बुना है। क्या इतना गल्प पर्याप्त न होता कि एक अनजान व्यक्ति तुम्हारे आख्याता के पास आकर आग्रह करता है कि वह उसके जीवन के तथ्यों के आधार पर एक सिलसिलेवार आख्यान बुन दे और वह शुरुआती अनिच्छा के बाद उसके आग्रह को स्वीकार कर लेती है? चलो, ‘पोटेंशियल’ और ‘सरोगेट मदर’ वाला रूपक भी चल सकता है, क्योंकि आखि़रकार यह कुछ-कुछ वैसी ही चीज़ है भी और तुम कह सकती हो कि मैंने तुम्हें एक ‘सरोगेट मदर’ की तरह ही चुना है, लेकिन तुमने उसमें जो अतिरिक्त संकेत भरने की कोशिश की है और उसके बाद उस रूपक को जो विस्तार देने की कोशिश की है, जोकि अपने में बहुत आकर्षक है, उसके साथ मेरे तथ्य कहाँ और किस तरह जगह पाएँगे, यह मेरी समझ से परे है।’
‘देशकाल के जिस मुकाम पर इस आख्यान को घटित होना है, उस मुकाम पर मेरा और तुम्हारा - मेरा मतलब है, तुम्हारे आख्यान के ‘वह’ और ‘मैं’ का - इस आख्यान में लिप्त होना मुझे ठीक नहीं लगता। इस मुकाम पर इनका क्रमशः एक रिसोर्स पर्सन और एक तटस्थ आख्याता होना भर पर्याप्त है। मुझे न तो इस रिसोर्स पर्सन का उसके रिसोर्सेज़, यानी उसकी स्मृतियों के साथ वर्तमान में कोई रिश्ता दिखाना ही ठीक लगता है और न ही उसके साथ आख्याता का कोई रिश्ता बनाना-बखानना ठीक लगता है। यह संयम बहुत ज़रूरी है।’
‘दरअसल मुझे लगता है कि यह कि़स्सा तुमसे कल्पना की उतनी नहीं, जितनी कि क्राफ़्ट की माँग करता है।
‘इसी के साथ, तुम्हारे बयान में उसका जो इण्टेलेक्चुअल-सा रूप उभरता लग रहा है, वह भी मुझे ठीक नहीं लगता। भाषा पर जिस अधिकार के साथ वह बात करता लगता है, उसके चलते क्या तुम्हें अपने पाठक को यह विश्वास दिला पाने में कुछ मुश्किल पेश नहीं आयेगी कि वह अपनी कहानी खुद लिख पाने में सक्षम नहीं है?’
‘पर यह मुश्किल तो अपने में एक तथ्य है ही, सर!’, उसने हँसते हुए तपाक से कहा, मानो इसी नुक़्ते के इन्तज़ार में वह अब तक मेरी बात सुन रही थी। ‘यह मेरी कल्पना तो नहीं है। बल्कि इसी मुश्किल को हल करने के लिए मुझे कल्पना का सहारा लेना पड़ रहा है। मेरा पाठक तो बाद में आएगा, लेकिन उससे पहले आखि़र मैं खुद को ही कैसे विश्वास दिलाऊँ कि यह आख्यान आप खुद नहीं लिख सकते? अगर आप आज तक मुझे इसका कोई सन्तोषजनक जवाब नहीं दे सके, तो ज़ाहिर है, भाषा पर अधिकार के अलावा कुछ दूसरी विवशताएँ भी हो सकती हैं। तब मुझे इन विवशताओं की कल्पना तो करनी ही होगी न, सर!’
‘यह क्यों ज़रूरी है? क्यों ज़रूरी है कि इस व्यक्ति को तुम मेरे प्रतिरूप के तौर पर रचो? यह एकदम साधारण व्यक्ति भी हो सकता है, जो कोई लेखक या इण्टेलेक्चुअल न हो।’
‘हाँ, लेखक तो मैंने उसे वैसे कहा भी नहीं है, सर, लेकिन आप देखें कि यह एक ऐसा व्यक्ति तो है ही जो अपने अनुभवों को, अपनी स्मृति की लिखत को, काग़ज़ की लिखत में बदलते देखना चाहता है - जैसा कि आप भी चाहते हैं, भले ही आप, जिस किसी भी कारण से, यह काम खुद नहीं करना चाहते। ऐसा व्यक्ति पारिभाषिक अर्थ में भले ही लेखक न हो, लेकिन हम उसकी इस आकांक्षा को एक लेखकीय आकांक्षा की तरह देखने से कैसे कतरा सकते हैं? एक लेखकीय प्रतिरूप में चित्रित किये जाने की माँग तो उसमें सहज ही निहित है। न ही यह व्यक्ति अपनी स्मृतियों के प्रति उस वर्तमान में तटस्थ हो सकता है जिसमें वह इनके लेखन की आकांक्षा कर रहा है। ज़ाहिर है, वह निरे कौतुक की ख़ातिर ऐसा नहीं कर रहा है। उसे अॅथाॅरिटी की भूख भी नहीं है - वह तो इस आख्यान के स्रोत के रूप में भी अपनी पहचान नहीं चाहता। तब फिर क्या चीज़ है जो उसे खींचकर मुझ तक ले आयी है? हो सकता है कि वह इन स्मृतियों की वज़ह से कोई यन्त्रणा भोग रहा हो और उसे लगता हो कि इनके लिखित और सार्वजनिक हो जाने से उसे इस यन्त्रणा से छुटकारा मिल जाएगा। हो सकता है वह इनके साथ रहना चाहता हो और उसे इनके मिट जाने का भय हो। हो सकता है वह इनके सहारे अपनी खोयी हुई पहचान तक पहुँचना चाहता हो। हो सकता है यह उसे किसी पाप-स्वीकार का साधन हो। या कोई ऋण-शोध...। कितनी ही सम्भावनाएँ हो सकती हैं, जो इस व्यक्ति को एक बेहद आकर्षक चरित्र में बदलती हैं। ऐसे व्यक्ति को उसकी आकांक्षा के विषय से निरपेक्ष रूप में चित्रित करना कितना असहज होगा?’
‘और जहाँ तक उसके प्रति आख्याता की तटस्थता का सवाल है, यह तब तो शायद सहज लगता जब मुझे यह बताने की ज़रूरत न होती कि यह व्यक्ति अपने आग्रह के साथ एक लेखक के पास आया है, लेकिन क्योंकि वह लेखक के पास आया है और यह लेखक बतौर आख्याता खुद इस आख्यान का एक चरित्र है, वह एक इस क़दर आकर्षक चरित्र से निरपेक्ष कैसे रह सकता है? दोनों के बीच एक भावनात्मक रिश्ता विकसित होना क्या सहज और उचित नहीं है।’
वह मुझे भेद-भरी निगाहों से देखती हुई मुस्करा रही थी। मैंने उसे ग़ौर से देखा और फिर नज़रें झुका लीं। वह सत्ताईस बरस की थी (मुझसे लगभग इतने ही बरस छोटी), लेकिन एक कहानीकार और कथा-समीक्षक के रूप में पिछले एक-दो वर्षों में जिस कल्पनाशीलता और प्रौढ़ता का परिचय उसने दिया था और आम पाठकों के बीच जिस क़दर लोकप्रियता उसने अर्जित की थी वह उसकी उम्र की दृष्टि से कुछ ज़्यादा ही बड़ी उपलब्धि लगती थी। मैं उसे मज़ाक में अकाल-परिपक्व कहा करता था, जिसके जवाब में उसने एक बार कहा था, ‘अगर वाक़ई ऐसा है, तो इसमें मेरा कोई कुसूर नहीं है, सर...यह तो जिस भट्टी में मुझे पकाया गया है उसका प्रताप है।’ उसका इशारा मेरी ओर था। मुझे इस पर थोड़ा-सा गर्व भी था कि वह खुद को मेरी शिष्या मानती थी और उसने अपनी पहली पुस्तक मुझे समर्पित की थी। उसमें प्रतिभा और विनय का दुर्लभ संयोग था और शायद यही चीज़ थी जो उसके नितान्त साधारण, बल्कि किसी हद तक आकर्षण-हीन, रूप-रंग और देहयष्टि के बावजूद उसके व्यक्तित्व में वजन पैदा करती थी, उसको आकर्षक बनाती थी।
‘वैसे मैं आपको याद दिलाना चाहती हूँ कि आप मुझे चाय पिलाना चाहते थे।’ वह हँसती हुई उठी और किचिन की तरफ़ बढ़ गयी।
‘अरे...! रुको मैं बनाता हूँ।’ मैंने उठने का उपक्रम किया लेकिन उसने मुझे रोक दिया, ‘नहीं, आप बैठिये, मैं बनाती हूँ।’ उसने हाथ से इशारा कर मुझे रोक दिया।
मैं एक बार फिर उसके मज़मून को पलटने लगा।
‘वैसे मैं देखता हूँ कि इधर तुम्हारी आलोचना-बुद्धि कुछ ज़्यादा ही पैनी होती जा रही है। कहीं ऐसा न हो कि यह तुम्हारे कथाकार के सिर पर सवार होकर बोलने लगे।’ मैंने उसके हाथ से प्याला लेते हुए कहा।
वह पल भर के लिए ठिठकी और फिर हँस दी। ‘आपके सत्संग का कुछ तो सुफल मुझे मिलना ही है। वैसे, सर, मैं आपको याद दिलाऊँ कि यह आपका ही नुक़्ता है कि पिछले कुछ दशकों के लेखन में ‘इण्टैलैक्चुअल टफ़नैस’ और ‘क्रिटिकल फ़ैकल्टी’ का गम्भीर अभाव है और मेरी कहानियाँ भी इसका कोई सन्तोषजनक अपवाद नहीं हैं...पर ख़ैर...फि़लहाल हमारा मुद्दा दूसरा है।’ उसने कहा।
‘देखो अनन्या, तुम्हारे तर्क अपनी जगह पर शायद सही हैं, लेकिन इनके साथ जो चीज़ निकलकर आने की सम्भावना है, वह मुझे ख़ामख़ाह पेचीदा होती लगती है। बेहतर यही लगता है कि तुम इस व्यक्ति को भुलाकर सिफऱ् उन चीज़ों को दजऱ् करो जो वह तुम्हें बता रहा है - उसे और उसकी स्मृतियों को अपनी आत्मपरकता और व्याख्या-विश्लेषण का विषय बनाये बग़ैर। आखि़र फि़क्शन का इस्तेमाल सिफऱ् चीज़ों को गढ़ने के लिए ही नहीं, बल्कि उनको विलोपित करने के लिए भी तो किया जा सकता है। अपनी इन स्मृतियों के भीतर से यह व्यक्ति या उसका वर्तमान किस रूप में उभरता है, अगर पाठक की दिलचस्पी इसमें हो तो इसे उसकी कल्पना पर छोड़ देना चाहिए।’
‘यह किया जा सकता है, सर, और इससे उसकी स्मृतियों के आलेख पर कोई अवांछित छाया भी शायद नहीं पड़ेगी...लेकिन मैं फिर से दोहराऊँ कि तब इस भूमिका की भी क्या ज़रूरत रह जाती है और उसका अर्थ भी क्या रह जाएगा कि उसकी स्मृतियों का यह आलेख मैंने या मेरे आख्याता ने उसके अनुरोध पर तैयार किया है? क्या यह एक पिटी हुई आख्यान-युक्ति का निरर्थक इस्तेमाल भर नहीं होगा?’’ वह मेरी ओर घूर रही थी। ‘फिर तो बेहतर ही है कि आप इस भूमिका की जि़द छोड़ दें और मुझे इजाज़त दें कि मैं आपकी इन स्मृतियों को सिलसिलेवार तरीक़े से अंकित भर कर दूँ - अपने इस आख्यान के रेफ़रेण्ट का कोई भी संकेत दिये बग़ैर...उसे पाठक की कल्पना या अनुमान पर छोड़ते हुए।’
वह सीधे मेरी आँखों में झाँक रही थी। उसके संयत स्वर और फीकी-सी मुस्कुराहट के बावजूद मेरे प्रति उसकी हल्की-सी खीझ छुप नहीं सकी थी। क्या मेरे पास उसके तर्क का कोई जवाब था? सिर्फ़ उसको देने के लिए नहीं, खुद को देने के लिए भी? मैं यह भूमिका आखि़र क्यों चाहता था? क्यों चाहता था कि मेरी स्मृतियों के इर्दगिर्द बुने जा रहे इस आख्यान को मेरी स्मृतियों के आख्यान की तरह तो न पढ़ा जाए लेकिन तब भी इन स्मृतियों का, आख्याता से इतर, एक स्रोत उसमें मौजूद हो। मैं नहीं, बल्कि मेरा एक कल्पित प्रतिरूप - कुछ इस क़दर कल्पित कि दूसरे तो किसी भी हालत में नहीं पर स्वयं मैं उसे पहचान सकूँ। मैं चाहता था कि उसे शुद्ध गल्प के रूप में नहीं बल्कि जीवनी के रूप में लिखा जाए, लेकिन मेरी नहीं बल्कि किसी और की जीवनी के रूप में। क्या इसका यह मतलब नहीं था कि मैं खुद को खोना तो चाहता था, लेकिन एक ऐसे अशुद्ध गल्प में जिसमें मैं खुद को खो देने की इस चाहना के रूप में खुद को बचा कर रख सकूँ? क्यों?
मेरे सामने निश्चिन्त भाव से पत्रिका के पन्ने पलटती हुई अपनी चाय का आनन्द लेती यह लड़की निश्चय ही मेरी मुश्किल को तो समझ रही थी, लेकिन उसे शायद इस बात का अहसास नहीं था कि इस ‘क्यों’ का जवाब खुद मेरे पास नहीं था, कि यह सवाल ही तो मेरी उस आकांक्षा का प्रेरक था जिसकी मध्यस्थता में हम फि़लहाल एक दूसरे के सामने बैठे थे और अन्ततः यह कि मुझे उम्मीद थी कि इस सवाल का अगर कोई जवाब होगा, तो वह उसी लेखन में कहीं छिपा होगा, जो मैं चाहता था कि उसके हाथों हो।
वह अपनी कलाई पर बँधी घड़ी देख रही थी।
‘तुम्हें जाना होगा?’ मैंने कहा।
‘हाँ, सर’, उसने मेज़ पर रखे अपने काग़ज़ करीने से तहाकर बैग में डालते हुए कहा। ‘लेकिन आप परेशान न हों। बेहतर होगा कि हम थोड़ा इन्तज़ार करें...इसे थोड़ा और आगे बढ़ने दें। ...निश्चय ही मैं अपनी सब्जैक्टिविटी को तो उस तरह तजकर नहीं लिख सकती, जैसा कि आप आग्रह कर रहे हैं, या जैसा कि आपके कहने से लग रहा है, लेकिन उसके हाथों मैं आपकी स्मृतियों के साथ किसी भी हालत में कोई छेड़छाड़ भी नहीं होने दूँगी। मैं भरसक एक ऐसा गल्प लिखने की कोशिश कर रही हूँ, जो आपके सन्दर्भ में पूरी तरह से अपारदर्शी हो...लेकिन अन्ततः मैं एक गल्प लिख रही हूँ - मुझे लिखना पड़ रहा है - और इसलिए उसे उस पारभासकता से बचा पाना मुश्किल होगा जो उसके लिए अनिवार्य है।’
‘चलो, देखते हैं,’ मैंने मसले को मुल्तवी करने के अन्दाज़ में कहा।
वह खड़ी हुई, अपने जूड़े को खोला, बालों को हल्का-सा सँवारा, उनको एक बार फिर जूड़े में लपेटकर क्लैचर से कसा और मुस्कुराते हुए अपना बैग उठा लिया। ‘चलती हूँ।’
दरवाज़े के बाहर वह क्षण भर को ठिठकी, ‘कल की रीडिंग में तो मुलाक़ात होगी न सर?’
मैंने सिर हिला दिया। वह जाने को मुड़ी तो मैंने देखा कि उसकी दुबली साँवली गर्दन के पीछे कन्धे के क़रीब एक बड़ा-सा नीला तिल था। मुझे हल्का-सा आश्चर्य हुआ कि इस निशान को मैंने पहले कभी लक्ष्य नहीं किया था।
3
न रात की बेचैनी और छटपटाहट है, न उनके कोई निशान बाक़ी हैं। चेहरे पर कोई विक्षेप नहीं है। सिर्फ़ माथे की वह नीली नस कुछ ज़्यादा उभरी हुई दीख रही है जो उसके घने बालों के बीच से निकलकर दायीं भौंह के बायें सिरे तक बिजली की रेखा की तरह लहराती रहती थी। वह अब भी वहीं है। जस की तस। उतनी ही नीली। उतनी ही जीवन्त। बल्कि पूरा चेहरा ही अभी जस का तस हैः माथा, भँवें, पलकें, नाक, होंठ, ठोड़ी, कान, झुर्रियाँ...। यहाँ तक कि चेहरे का वह भाव भी जिसे देखकर अक्सर लगता था कि कोई झीना-सा पर्दा है जिसके ठीक पीछे तक आकर एक मुस्कुराहट ठिठक गयी है। अभी ये सब जीवित हैं। उन तक उसके अन्त की सूचना भी शायद अभी नहीं पहुँची है।
(चेहरे के जिस भाव का जि़क्र उसने किया था, मेरे सामने रखी उसकी यह तस्वीर उसकी ताईद करती है। यह एक बहुत पुराना ब्लैक एण्ड व्हाईट पोर्टेªट फ़ोटोग्राफ़ है - एकमात्र फ़ोटोग्राफ़ जिसमें वह अपने पति के साथ है (यह उसके पति का भी एकमात्र फ़ोटोग्राफ़ है जो शायद उसके किसी सरकारी दस्तावेज़ के साथ चस्पाँ करने के निमित्त खिंचवाया गया होगा।) उसकी उम्र तब शायद 40-45 के बीच रही होगी और पति की 50-55 के बीच। उसने छींट की साड़ी पहन रखी है जिसका पल्ला उसके सिर को ढँकता हुआ उसके वक्ष पर फैला है। पति गार्ड की वर्दी में हैः सिर पर टोपी, कड़क कलफ़दार शर्ट जिसके कन्धों पर बैज़ कसे हुए हैं। इस फ़ोटो में स्त्री के चेहरे पर वही भाव हैंः परदे के पीछे तक आकर ठिठक गयी-सी मुस्कुराहट का भाव। पति के चेहरे पर लेकिन मुस्कुराहट साफ़ है - उसकी हल्की-सी बिल्लौरी आँखों से लेकर होंठों तक समान मात्रा में फैली हुई मुस्कुराहट। स्त्री के चेहरे के साथ इस चेहरे को मिलाकर देखें तो तस्वीर बहुत दिलचस्प हो उठती हैः अगर स्त्री केे चेहरे पर मुस्कुराहट बाहर आने से पहले परदे के उस ओर ठिठकी हुई है, तो इस दूसरे चेहरे पर वह बाहर से भीतर जाने के लिए परदे के इस ओर ठिठकी हुई लगती है - व्यंग्य से आत्मव्यंग्य की ओर लौटना चाहती हुई।)
लेकिन साँस? वह सहसा चीख़ना बन्द कर, झटके से अपना सिर उसके सीने से उठाता है और उस चेहरे की ही तरह बेख़बर उम्मीद से भरकर कहता है, ‘बट शी इज़ ब्रीदिंग!’
उसके स्वर में सतहत्तर बरस पहले के एक घबराये हुए अधीर स्वर का प्रतिलोम गूँज रहा हैः ‘लेकिन...यह रोती क्यों नहीं...और इसकी साँस?’ और तब दाई ने उसके ज़रा-से सीने और पीठ को हल्के हाथों से मला था उसके बिल्कुल उलट जैसे अभी, थोड़ी देर पहले, डाॅक्टर कर रहा था, जिसके चेहरे का ख़ून मानो उसके हाथों के पंजों में उतर आया था जिनसे वह उसके सीने के जर्जर पिंजरे को भयानक तरीक़े से दबोच और मसल रहा था।
डाॅक्टर के चेहरे पर कोई भाव नहीं है। वह सिर झुकाकर कहता है, ‘यह साँस नहीं है, सिफऱ् हवा है। आप समझदार हैं, अपने को सम्हालिये।’
वह उसके कान के पास अपना मुँह ले जाकर उसे ज़ोर-ज़ोर से पुकारता है और उसके चेहरे की सलवटों में झाँकता है - हो सकता है डाॅक्टर को ग़लतफ़हमी हो।
अगर वह जीवित होती, तो वह उस आवेग को किस तरह महसूस करती जो मेरी पुकार में समाया हुआ था? निश्चय ही उसे अच्छा तो लगता लेकिन तब भी क्या वह उसकी तीव्रता और प्रगाढ़ता पर सहज विश्वास कर पाती? अगर वह हृदय का एक अनुष्ठान-मात्र नहीं था जो अभाव के स्पर्श से जन्म लेता है और वहीं, उसी की वेदी पर राख हो जाता है, तो वह पहले कहाँ था जब वह थी? क्या तब मेरे सम्बोधनों और पुकारों में (जो उत्तरोत्तर विरल होते गये थे) इस आवेग की, उसकी इस तीव्रता और प्रगाढ़ता की सम्भावना की कोई आहट सुनी जा सकती थी? क्या मैंने उसे वर्षों पहले तभी नहीं खो दिया था जब उसे अर्जित करना बन्द कर उस प्रदत्त के रूप में बरतना शुरू कर दिया था जिसका नाम ‘माँ’ था...जिसका नाम, ज़्यादा से ज़्यादा, ‘माँ के प्रति कुछ कर्त्तव्य होते हैं’ था? या खुद को अर्जित करना बन्द कर उस प्रदत्त के रूप में बरतना जिसका नाम ‘पुत्र’ था। जिसका नाम ‘मनुष्य’ था।
यह दरअसल एक प्रदत्त की मृत्यु पर दूसरे प्रदत्त का विलाप था, बल्कि एक प्रदत्त जिसका नाम ‘विलाप’ है।
वह तकिया जिससे वह उस शाम आखि़री बार टिकी थी। देहलीज़ और दीवार का वह कोण जिस पर वह तकिया टिका था। कुर्तुल एन हैदर की खुली हुई पुस्तक जिसे वह उस तकिये से टिककर, आखि़री बार पढ़ रही थी। मोतियाबिन्द के आॅपरेशन के साथ महीनों लम्बी आँखमिचैली के बाद पन्द्रह दिन पहले बना वह चश्मा जिसके साथ उसकी सुलह-वार्ता अब भी जारी थी और जिसे पहनकर वह उस पुस्तक को पढ़ रही थी (कौन-सा पन्ना, कौन-सा पैराग्राफ़, कौन-सी पंक्ति, कौन-सा शब्द आखि़री रहा होगा, जब वह उसे शायद पहले ही पढ़ना बन्द कर चुकी होगी और उसे लगा होगा कि अब आगे सम्भव नहीं है? जब उसे अपनी पसली का वर्षों पुराना, बेहद जाना-पहचाना दर्द पहली बार अजनबी लगा होगा - अजनबी और डरावना? जब उसने निश्चय ही लम्बी ऊहापोह के बाद, आखि़रकार तय किया होगा कि अब उसे अपने बड़े बेटे की व्यस्त दिनचर्या में बाधा डालते हुए उसे इत्तला कर ही देना चाहिए कि वह अब सचमुच थक चुकी है?)।
इसके बाद? इसके बाद क्या है...वही चीज़ें, वही छवियाँ, वही बातें जो सदियों से दोहरायी जाती रही हैं - समयों और जगहों के अनुसार उनके रूप भर बदलते रहते हैं; उनकी भूमिकाएँ या उनका महज़ होना या किन्हीं कल्पित भूमिकाओं में उनका विनियोग, कमोबेश जस के तस बने रहते हैं। जैसे एम्बुलैंस, सन्देश, बुरी ख़बर, बैड न्यूज़, हमें बहुत दुःख के साथ सूचित करना पड़ रहा है, एक साथ ढेर सारे लोग, मर्द और औरतें, रिश्तेदार और दोस्त और पड़ोसी और सहकर्मी...अरे! कब? कैसे? कितनी उमर थी? क्या बीमार थीं? सतहत्तर बरस...हार्ट अटैक, ब्लाॅकेज, सबसे अच्छी मौत, प्रतीक्षा, शव, विलाप और सिसकियाँ और नम आँखें और सान्त्वनाएँ, निश्वास, उच्छ्वास, सम्भ्रम, विषाद, इन्तज़ाम, अर्थी, गुलाब और गैंदे की पंखुरियाँ और फूल-मालाएँ, शव-वाहन, शव-यात्रा, कन्धे, राम नाम सत्य है, श्मशान, आखिरी दर्शन, चिता, लकडि़याँ, उपले, घास, अगरबŸिायाँ, सज्जा, माँ का चेहरा, एक और करुण, निःशब्द चीख़ और कुछ और सान्त्वनाएँ, चेहरे पर घी का लेप, तिल, राल, पण्डित, मन्त्र, आग, धुआँ, लपटें, कपाल-क्रिया, फूटा हुआ घड़ा, पानी, परिक्रमाएँ, पंच-लकड़ी, श्मशान के शेड में छोटी-सी शोक-सभा, कृतज्ञता-ज्ञापन, नमस्कार, अस्थियाँ और राख, चिलचिलाती धूप में मल और मूत्र से महकता नर्मदा का विशाल सेठानी घाट, मुण्डन, अस्थि-पूजन, अस्थि-विसर्जन, सूतक, तेरह दिन का शोक, शोक-सन्देश...रिश्तेदारों, पड़ोसियों और दोस्तों के टिफि़न...फिर रसोई की वापसी, उबली हुई उड़द की दाल और रोटी... फिर शुद्धि, स्नान, पिण्डदान, दशगात्र संस्कार, कुटुम्बियों का सामूहिक भोज, कच्चा खानाः तड़केदार चने की दाल, कड़ी, चावल, रोटी, दहीबड़े, पापड़... फिर अन्तिम शुद्धि, गंगाजली-पूजन, तेरह ब्राह्मणों का भोज, पूरी, सब्जि़याँ, मिठाइयाँ ः पक्का खाना।
ये सारी चीज़ें उसको बुहारने और पोंछने की कोशिश करती हैं, लेकिन थोड़ी देर के लिए उसे अदृश्य कर देने, छुपा देने से ज़्यादा वे कुछ नहीं कर पातीं। वह एकबार आती है तो बनी रहती है, लम्बे समय तक। आती ज़रूर है वह शव के साथ लेकिन शव के साथ चली नहीं जाती। न उसके साथ जिसका वह शव था। जैसे ही ये चीज़ें बीतती हैं, लोग जाते हैं, उनसे ख़ाली हुई जगहों को भरती वह कोने-अँतरों से निकलकर बाहर आ जाती है और फिर से घर के रोम-रोम में समा जाती है। आप किसी जगह खड़े होते हैं, कोई चीज़ छूते हैं और वह धीमी हवा के स्पर्श की तरह आपको छूकर निकल जाती है। पड़ोस से आते किसी अस्पष्ट स्वर की तरह, किसी अज्ञात-स्रोत गन्ध की तरह। आप उसके जाने की प्रतीक्षा करते हैं। आप जानते हैं कि अन्ततः उसे चले जाना है। ताकि आप निश्चिन्त हो सकें। ताकि वह निश्चिन्त हो सके कि आप निश्चिन्त हो चुके हैं और वह एक दिन फिर अचानक आपके पास लौट सके।
बेहतर है, आप कुछ दिनों के लिए कहीं चले जाएँ। शहर से कहीं बाहर।
बाहर कहाँ? अपने बेटे के पास। अपनी किसी बहन के घर। किसी दोस्त के घर।
नहीं। वह चुनता है उसका घर, जो अब नहीं है। घर, जो अब नहीं है। जिसका होना, दरअसल, बहुत-बहुत पहले, लगभग छियासठ बरस पहले, एक दिन अचानक रुक गया था। घर के सारे लोगों की मौजूदगी के बावजूद - सिर्फ़ एक को छोड़कर, जिनका नाम था, फौजी कन्हैया लाल, जिनके इस अधीर, घबराये हुए सवाल कि ‘लेकिन...यह रोती क्यों नहीं...और इसकी साँस?’ के साथ सतहत्तर बरस पहले उसका होना शुरू हुआ था। वह चुनता है वह घर, जिसके होने न होने की कोई स्मृति भी उसके पास नहीं है, हालाँकि वह पाँच वर्ष की उम्र तक वहाँ बारबार जाता रहा था। न ही उस गाँव की जिसका नाम हिलगन था (‘‘ ‘क्यों? इसलिए कि उस गाँव में आकर लोग हिलग यानी अटक जाते थे।’- नानी कहा करती थी’’) और हालाँकि जिस शहर में वह वर्षों रहा, वहाँ से वह महज़ तीस मील दूर था, उसकी कल्पना में वह आज भी किसी अज्ञात दिशा में सैकड़ों मील दूर स्थित गाँव के रूप में उभरता है।
फिर भी वह वहाँ जा रहा है। अकेला नहीं, अपनी माँ, पिता, मौसी और मामा के साथ। वह ओलों से भरी पूस की एक शाम है। उसे हल्का बुखार है और वे बस-स्टैण्ड पर बस की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उसकी निगाह बहुत देर से मौसी की नंगी बाँह पर टिकी हुई है और उसमें एक इच्छा धीरे-धीरे पक रही हैः उस बाँह को अपने मुँह में भरकर पूरी ताक़त से काटने की इच्छा। वह बुरी तरह बिफर गया है, रो-रो कर उसने पूरे बस-स्टैण्ड को अपने सिर पर उठा लिया है, वह किसी के सम्हाले नहीं सम्हल रहा है। माँ और पिता की बाँहों का वह तिरस्कार कर चुका है। माँ के थप्पड़ और पिता की फुफकार उसे शान्त करने में विफल रही हैं। हर प्रतिरोध के साथ वह मौसी की गोरी, मांसल बाँह के सम्मोहन में और-और जकड़ता चला जा रहा है...।
फिर, जैसा कि अन्त में होना था, वह माँ की विक्षुब्ध गोद में बैठा हुआ है और रह-रहकर सोलह बरस की उस लड़की की बाँह पर अंकित दाँतों के निशान और उनमें झिलमिलाते खून को और उसकी डबडबायी आँखों और भीगे गालों को देख रहा है।
सभी को लगता है कि वह अब शान्त है।
वह ठहर जाता है, और खुद समेत सबको बस की प्रतीक्षा करते छोड़ मुड़ जाता है, उसी शहर की एक सड़क पर जो तालाब के किनारे-किनारे घरों के दरवाज़ों के बीच से रास्ता बनाती हुई उस पहाड़ी की दिशा में चढ़ती चली जा रही है जिसके शिखर पर छोटे-छोटे मकानों के बीच एक विशाल तिमंजि़ला इमारत खड़ी है। सड़क उन सीढि़यों के नीचे तक आकर ठहर जाती है जो पहाड़ी के शिखर तक चली गयी हैं। वह ऊपर देखता है और सड़क को वहीं हाँफ़ता हुआ छोड़ सीढि़याँ चढ़ने लगता है। सीढि़याँ चैड़ी किन्तु छोटी और जर्जर हैं। उनके दोनों किनारों से मकानों के पिछवाड़े सटे हुए हैं जहाँ कचरे के ढेरों के बीच नाबदानों से रिसकर आता पानी बह रहा है। उन पर हरी-काली काई जमी हुई है। शाम अभी होने को है।
वह दरवाज़े से लटकती मोटी-सी साँकल खटखटाता है और थोड़ा दूर हटकर इन्तज़ार करता है। एक भूरा-सा कुत्ता, जो सीढि़यों पर कहीं से उसके साथ हो लिया था और कई बार उसके पैर सूँघ चुका था, अब उŸोजना से पँूछ हिलाता उसके पास खड़ा दरवाज़े को ताक रहा है, जैसे उसे वर्षों से उसकी प्रतीक्षा थी कि एक दिन वह आएगा और उस दरवाज़े को खुलवाने की पहल करेगा।
इमारत की ऊपरी मंजि़लों की कुछेक खिड़कियाँ रोशन हैं, लेकिन अन्दर किसी हलचल का कोई संकेत नहीं है। वह दोबारा साँकल खटखटाता है, इस बार कुछ ज़्यादा ज़ोर से। इतने बरस बीत चुके हैं उसे यहाँ आये हुए कि इमारत के अन्दरूनी भूगोल की कोई ख़ास स्मृति उसे नहीं रही। लेकिन तब भी उसे याद है कि दरवाज़ा खुलते ही वह एक बड़े से आँगन में प्रवेश करेगा जिसके बीचोंबीच चारों तरफ़ से ऊँची-ऊँची जगतों से घिरा एक कुआँ होगा और उसके ऊपर एक के बाद एक, हर मंजि़ल का अन्दरूनी छज्जा, एक विशाल गहरे पिंजरे का आकार रचती, लोहे की मोटी-मोटी जालियों से ढँका होगा।
कई बार खटखटाने के बाद भी जब दरवाज़ा नहीं खुलता, तो वह कुछ सोचता हुआ इमारत का चक्कर लगाता है और उसके दूसरे सिरे पर पहुँचता है। कुत्ता कुछ दूर तक उसके पीछे-पीछे आता है और फिर निराश होकर लौट जाता है। उसे इस दूसरे दरवाज़े की फीकी-सी याद थी। यह पिछले दरवाज़े के मुक़ाबले नया और बड़ा है। उसे राहत महसूस होती है कि वह खुला हुआ है और इससे भी ज़्यादा यह कि वहाँ एक स्त्री खड़ी हुई है। साठ-पैंसठ की उम्र की इकहरी काया वाली एक स्त्री जो खुले बाल और हाथ में कंघी लिये चैखट से टिकी खड़ी है और थोड़ी दूर एक दूसरे मकान के दरवाज़े पर खड़ी एक और अधेड़ और स्थूल स्त्री से ज़ोर-ज़ोर से बतिया रही है। बाहर आड़ी-तिरछी, ऊबड़खाबड़ खुली जगह में बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं। वह चैखट से टिकी स्त्री को देखता है और उसे वर्षों पुरानी पारिवारिक फुसफुसाहटों से बाहर आता एक नाम सुनायी देता हैः मुला।
उसे देखकर वह सकुचा जाती है और अपने बाल समेटने लगती है। वह उसे बताता है कि वह किससे मिलना चाहता है। वह उसे सन्देह और विद्वेष से भरी निगाहों से देखती है और उसका परिचय पूछती है। परिचय सुनते हुए उसकी आँखों में पहले असमंजस और अविश्वास की छायाएँ उभरती हैं और फिर सहसा एक चमक पैदा होती है जो तुरन्त ही बुझ जाती है। फिर वह मुस्कुराती है - एक बहुत फीकी और रहस्यमय मुस्कुराहट और उसे अन्दर आने का इशारा करती है। वे नीम अँधेरे से भरे कई कमरे और गलियारे पार करते हैं, ख़ामोश। बीच में सिर्फ़ एक बार ख़ामोशी टूटती है, जब वह हल्का-सा पीछे मुड़कर उससे कहती है, ‘बहुत सालों बाद आना हुआ तुम्हारा...मेरी तो तुम्हें क्या याद होगी...’। उसके मन में कोई उत्साह नहीं जागता। अगर वह वही थी, तो उसने उसको जब-तब देखा तो ज़रूर था, लेकिन वह उससे मिला कभी नहीं था। वह झेंपी-सी हँसी में लिपटी एक हाँ-नुमा औपचारिक आवाज़ कर फिर से ख़ामोश हो जाता है।
आखि़र वे तीन सीढि़याँ उतरकर आँगन में पहुँचते हैं, जहाँ वह रुक जाती है। जालियों के पार आसमान से आती हल्की उजास अभी भी बाक़ी है जिसमें कुएँ के जगत, सामने का बन्द प्रवेश-द्वार और आँगन के दायीं तरफ़ के दो दरवाज़े आसानी से दिखायी दे रहे हैं। वह उनमें से एक दरवाज़े की तरफ़ इशारा करती है, हल्का-सा मुस्कुराती है और फिर सीढि़याँ चढ़कर अन्दर की अँधेरी भूलभुलइया में ग़ायब हो जाती है।
वह दरवाज़े पर दस्तक देता है और पाता है कि वह अन्दर से खुला हुआ है। थोड़ी देर इन्तज़ार करने के बाद वह दरवाज़े को खोलता है और अन्दर चला जाता है। दरवाज़े के ऊपर टिमटिमाते लट्टू की रोशनी में वह उस छोटे-से बरामदेनुमा कमरे का मुआयना करता है। एकदम ख़ाली - सिवा दायीं ओर रखे एक दीवान और उसके पैताने बिछी एक चटाई के। सामने की दीवार में बायीं तरफ़ एक प्रवेश है। वह झाँककर देखता है और पाता है कि वह एक छोटा-सा गलियारा है जो एक दूसरे कमरे के खुले दरवाज़े तक चला गया है। वह गलियारे के मुहाने पर खड़ा होकर उसे पुकारता है। ‘कौन है?’ अन्दर से उसका बुझा और बीमार-सा किन्तु, आह! इतने बरसों बाद अब भी किस क़दर पहचाना हुआ, स्वर सुनायी देता है। वह अपना परिचय देता हुआ गलियारा पार करता है और कमरे में प्रवेश करता है।
और वह उसे देखता है - फीके नीले फूलों के छापों वाली उजली सफ़ेद साड़ी में सिर से पैर तक ढँकी उसकी दुबली-पतली-बूढ़ी काया को। कमरे की फीकी रोशनी में घुलता-सा, बुझा हुआ चेहरा, जो वर्षों पहले देखे गये उस चेहरे की उसकी स्मृति में ज़रा भी जुम्बिश पैदा नहीं करता। हाथों में प्लास्टिक की नीली चूडि़याँ और नाक पर सुनहरी लौंग जिसके सफ़ेद पत्थर पर बल्ब की फीकी रोशनी रह-रहकर फिसल रही है। वह एक ओर दीवार के क़रीब ज़मीन पर बिछे सफ़ेद बिस्तर पर पालथी मारे बैठी है - चारों ओर करीने से जमी अपनी छोटी-सी गृहस्थी के बीच, जिसमें खाने-पकाने, पहनने, ओढ़ने-बिछाने समेत उसकी ज़रूरत की सारी चीज़ें मौजूद हैं। उसके बिस्तर के क़रीब दीवार से सटा लकड़ी का एक छोटा-सा रैक है, जिसमें करीने से जमाकर रखी गयी ढेर सारी किताबें रखी हुई हैं। कुछ पुस्तकों के स्पाइन अभी भी पढ़े जा सकते हैंः संक्षिप्त महाभारत, अन्ना कारेनीना, श्रीमद्भागवत, गोदान, अपराध और दण्ड, भगवत्गीता, मार्कण्डेय पुराण, ललिता सहóनाम, अष्टावक्र गीता, त्यागपत्र, ईशादि नौ उपनिषद, कथासरित्सागर, पुनर्नवा...। कमरे में घुटन है, हल्का-सा धुआँ और एक तीखी-सी गन्ध, जैसे कहीं लोबान जल रहा है।
लोबान या कुछ और? वह उसे ग़ौर से देखता है। उसे जो इस विशाल हवेली की मालकिन (हो सकती) थी।
लेकिन अगर निर्वासन और आत्मनिर्वासन के बीच कोई स्पष्ट रेखा कभी थी, तो वह बहुत पहले मिट चुकी है। दोनों के बीच सुलह हो चुकी है। यह कमरा, यह दृश्य, यह गन्ध, खुद उसका चेहरा भी, इस सुलह के स्मारक हैं।
लेकिन वह स्त्री, जो मुझे थोड़ी देर पहले उसके दरवाज़े तक छोड़कर गयी है?
जब वह उससे पूछता है, मौसी तुम कैसी हो, तो वह दरवाज़े की तरफ़ इशारा करती हैः ‘यह बताओ कि वह डायन कैसी है, जो शायद तुम्हें इस गुफा के दरवाज़े तक छोड़कर गयी है?...फिर तुम अन्दाज़ा लगा सकते हो कि मैं कैसी हूँ। अगर वह जि़न्दा है, तो ज़ाहिर है, मेरे शरीर में अभी ख़ून बाक़ी है।’
शब्दों के बावजूद उसके स्वर में अब पुराने दिनों वाला क्षोभ नहीं है। वे देर तक बतियाते रहते हैं। वह उससे उसके बारे में, उसके भाई-बहनों के बारे में, बीवी-बच्चों के बारे में विस्तार से पूछती है, अपने ब्लड-प्रेशर और आर्थराइटिस के बारे में, डाॅक्टरों की नाक़ाबिलियत और दवाओं की व्यर्थता के बारे में बताती है और अन्त में जब वह वापस जाने को होता है, उसकी अँधेरी बाँह में सेंध लगाने की कोशिश करते हुए वह उससे पूछता हैः ‘मौसी...तुम्हें याद है...जब मैंने तुम्हारी बाँह काटी थी?’
वह चैंककर सिर उठाती है और उसे यूँ देखती है जैसे वह कोई अजनबी हो। फिर वह हँसती है- एक बहुत ही उजली हँसी, जो उसकी नहीं किसी और की है, एक सोलह बरस की लड़की की हँसी, जो उसके कण्ठ के किसी कोटर में वर्षों से सुरक्षित है। ‘तुम्हें अभी तक याद है? तुम तो तब बहुत छोटे थे।’ उसने शून्य में देखते हुए आह भरी। ‘हे भगवान...कितनी भयानक शाम थी...लेकिन सुन्दर भी बहुत थी वह शाम...किस क़दर ओले ही ओले चारों तरफ़...। और तुम...तुम्हें सिफऱ् मौसी को काटना था, बस...। कितना समझाया तुम्हें सबने, लेकिन तुम काहे को मानने वाले थे। और मैं भी तो कौन-सी बड़ी थी, मैं भी तो बच्ची ही थी।’ उसका स्वर एक बार फिर अँधेरे में डूबता जा रहा है, ‘क्या दिन थे वे...तब कौन जानता था कि एक डायन यहाँ मेरी बाट में बैठी थी। ...लेकिन मुझे उस डायन तक पहुँचाया किसने था? वह तो मेरी अपनी थी! सगी माँ! उसे तो मुझसे पीछा छुड़ाना था किसी तरह, किसी तरह किसी के पल्ले बाँध देना था मुझे और देखो तो, उसे कौन मिला? जो किसी को सारी दुनिया में खोजने पर न मिलता। मेरा दुश्मन। पति नहीं, दुश्मन और एक डायन जिसका पेट उसकी पहली बीवी को खाने के बाद भी नहीं भरा, सो वह मेरी बाट में बैठी थी।’ उसने दरवाज़े की ओर देखा। ‘और अब भी बैठी है। वह चला गया पर उसे छोड़ गया...।’
मैं एक बार फिर ग़ौर करता हूँ कि उसके स्वर में कोई क्षोभ नहीं है...जैसे उन शब्दों का उससे कोई लेना-देना नहीं है। फिर भी मैं उसे शायद सान्त्वना देना चाहता हूँः ‘तुमने अन्ना कारेनीना पढ़ा है न मौसी?’
वह गर्दन मोड़कर रैक की तरफ़ देखते हुए एक बार फिर हँसती है - इस बार अपनी हँसी, जिसमें घुली हुई कड़ुवाहट को वह छुपा नहीं पाती। ‘बहुत कहानियाँ पढ़ ली हैं मैंने, लेकिन उससे क्या होता है? कहानियाँ तो अन्ना कारेनीना ने भी पढ़ी ही होंगी, पर आखि़र में तो वह रेल की पटरियों की तरफ़ ही नहीं भागी?...कहानियाँ सिर्फ़ पढ़ने के काम आती हैं, लेकिन एक समय आता है जब ख़ुद तुम्हारे इर्द-गिर्द कोई कहानी फ़फूँद की तरह उगना शुरू कर देती है। तब तुम्हारी पढ़ी हुई कहानियाँ किसी काम नहीं आतीं। वे तुम्हारा साथ छोड़कर अपनी-अपनी पुस्तकों में जा बैठती हैं, जैसे वे वहाँ बैठी हुई हैं, टुकुर-टुकुर ताकती हुईं।’ वह पुस्तकों की तरफ़ इशारा करती है और फिर हँसते हुए कहती है, ‘मैं सोचती थी कि तुम बड़े हो गये होगे, लेकिन देखती हूँ कि तुम्हारी नादानी ही बड़ी हुई है।... ख़ैर ये सब छोड़ो, यह बताओ कि जिज्जी कैसी हैं।’
जिज्जी?
मौसी, तुम उस घर की, जो अब नहीं है, आखि़री निशानी हो- वर्षों पहले अनहुए हो चुके उस घर से मीलों दूर मेरे भाई-बहनों की तरह अवांछित इस शहर की पहाड़ी की एक पुरानी इमारत के बेसमेण्ट के अँधेरे में टिमटिमाती हुई आखि़री निशानी।
घर, जो अब नहीं है। पर जो जब था तब इतना ज़्यादा था कि गाँव के दूसरे घरों में उसकी मौजूदगी का प्रिय-अप्रिय अहसास बना रहता था। इसीलिए जब आखि़र एक दिन वह नहीं रहा, तो उसके न रहने का भी अप्रिय-प्रिय अहसास लम्बे समय तक गाँव के कई घरों में बना रहा। जिनके कारण वह घर था, जो अपने जीते-जी उस घर के एकमात्र कारण बने रहे, वे थे, उसके नाना, फौजी कन्हैया लाल सोनी। पर उनकी मुख्य उपाधि थीः लम्बरदार। लम्बरदार यानी ज़मींदार। इस तरह उस छोटे-से गाँव में तीन लम्बरदार थेः बड़े लम्बरदार और छोटे लम्बरदार (इन्हीं नामों से जाने जाने वाले असल ज़मींदार, जो एक दूसरे के भाई थे) और लम्बरदार कन्हैया लाल। बेज़मीन होने के बावजूद कन्हैया लाल लम्बरदार कहलाते थे तो यह नाममात्र की उपाधि नहीं थी, बल्कि गाँव में, ज़मींदारों के बीच भी वे ख़ासे प्रभावशाली और लोकप्रिय थे। इस प्रभाव और लोकप्रियता की रचना में उनके गोरे-चिट्टे, रौबदार व्यक्तित्व को रंजित करने वाली कई चीज़ें शामिल थींः उस लगभग निरक्षर गाँव में, उस ज़माने में (वे पिछली सदी के आरम्भिक दशक थे) वे दसवें दजऱ्े तक पढ़े हुए थे; वे लगभग चार साल तक फौज में रहे थे और इस दौरान देश-विदेश घूमे थे जिस नाते शहरी संस्कृति से न सिर्फ़ वाकि़फ़ थे, बल्कि उनके घर में भी इसके निशानात जहाँ-तहाँ मौजूद थे; वे सोने के जेवरों के बहुत ही कुशल कारीगर थे, जिसके लिए आसपास के गाँवों तक उनकी ख़ासी इज़्ज़त और ख्याति थी (उनके बनाये करधन, कंगन, चूडि़याँ, कण्ठहार, बाज़ूबन्द, अँगूठियाँ आदि उन पर की गयी बारीक़ और कलात्मक नक़्क़ाशी की वजह से आज भी कई परिवारों में सुरक्षित बताये जाते हैं); उनकी शिक्षा, जानकारी और समझ से गाँव के लोग लाभान्वित होते थे; और फिर वे महफि़ल के शौकीन थे जो उनके घर की दहलान में आये दिन जमा करती थी, जिसमें बताते हैं कि गाँव के नाई का एक ख़ूबसूरत लड़का ‘पक्की चीज़ों’ पर नाचा करता था। उनको गाँजे का भी शौक था, जिसके वे बाद के दिनों में आदी होते गये थे।
जैसा कि मैंने कहा, वे सोने के कारीगर थे (और यह उनका पुश्तैनी काम था)। लेकिन वे व्यापारी नहीं थे, न ही उनकी कोई दुकान थी जिनमें तैयारशुदा जेवर बेचे जाते हों। वे सिर्फ़ शादी-ब्याह जैसे अवसरों पर गाँव के लोगों के लिए, उन्हीं से कच्चा माल लेकर, जेवर बनाकर देते थे, उनसे कोई मज़दूरी लिये बग़ैर। दूसरे गाँवों के लोगों से अवश्य, उनके बहुत इसरार पर किये गये काम के बदले, वे मज़दूरी लेते थे। जहाँ तक उनकी गृहस्थी की ज़रूरतों का सवाल था, वे बहुत ठाठ से पूरी हुआ करती थीं। फ़ौज में रहे होने की वजह से उनके पास पर्याप्त पैसा था। फिर उनके पास कोई एक दर्जन गायें-भैंसें भी थीं, जिनका पालन-पोषण वे बड़े ही लगाव के साथ खुद अपने हाथों से करते थे। इनके दूध से उनकी बहन और बीवी घी और मावा तैयार करती थीं जिनको पास के शहर के व्यापारी ख़रीद ले जाते थे। लेकिन यह संचय और आय ज़्यादातर उनके और परिवार के छोटे-मोटे ऐशो-आराम की चीज़ों (शहरी ढब के कपड़ों, सजावटी चीज़ों आदि) पर ही गाहे-बगाहे ख़र्च होता था; गृहस्थी की अनिवार्य ज़रूरतों पर कम होता था। ये ज़रूरतें गाँव के परिवारों की मदद से पूरी होती थीं, बल्कि यह मदद से ज़्यादा, मानो, उनके और गाँव के बाक़ी परिवारों के बीच उनके पुरखों के ज़माने से चले आ रहे किसी अघोषित क़रार के तहत था, जिसके चलते वे इन परिवारों को बिना कोई मज़दूरी लिये अपनी अद्वितीय बेहतरीन सेवाएँ देते आ रहे थे। इस तरह अनाज तो फ़सलें आने के समय ज़मींदारों और कुछ और अपेक्षाकृत बड़े किसानों के यहाँ से आ ही जाया करते थे, ज़रूरत की बाक़ी ज़्यादातर चीज़ें और सेवाएँ भी गाँव के विभिé परिवार मुहैया करा देते थे।  
लेकिन इसका यह मतलब नहीं था कि सब कुछ पूरी तरह समतल, तनाव-रहित था। यूँ तो ज़मींदारों के परिवार में उनका आदर था और उनके निज़ाम में वे कोई हस्तक्षेप नहीं करते थे, लेकिन उनका रौबदार और अपेक्षाकृत नफ़ीस व्यक्तित्व, उनकी ख्याति और इज़्ज़त और इन सबसे ऊपर, लेकिन शायद इन्हीं सबकी बदौलत विकसित हुआ, उनका किसी हद तक उत्थित, मुखर अहं-भाव ज़मींदार परिवारों - ख़ासकर इन परिवारों के उनकी समकालीन पीढ़ी के सदस्यों में स्थायी उद्विग्नता के कारण थे, जिसका उनको अहसास था।
उनके माता-पिता के बारे में कोई ख़ास जानकारी नहीं मिलती, सिवा इसके कि विवाह के कोई साल भर बाद वे दोनों को गवाँ चुके थे। उनका विवाह इक्कीस बरस की उम्र में पास के एक गाँव बाँसा की सतरह बरस की एक असाधारण रूप से सुन्दर लड़की से हुआ था। अपनी बीवी, सिया रानी (उनकी ससुराल का दिया हुआ नाम; उनका मैके का नाम फूलाबाई था) के चेहरे को वे हालाँकि उसके हाथ-भर लम्बे घूँघट की ओट में छुपाकर रखते थे, लेकिन वे जानते थे कि यह दीवार उसके सौन्दर्य की दीप्ति के विकिरण को रोकने की दृष्टि से बहुत कमज़ोर थी। इसलिए जब उसको, मसलन दिशा-मैदान जाना होता, तो वे अपनी बहन (जो उनसे दस-बारह बरस बड़ी थीं और विधवा होने के बाद अपने मैके में आकर रहने लगी थीं) के हाथ में तलवार थमाकर उसको उसके साथ भेजते थे।
बाईस वर्ष की उम्र में उनकी पहला बेटा हुआ जो कुछ ही महीनों जीवित रह सका। जब वे चैबीस के थे तब उनकी वह दूसरी सन्तान हुई जिसको जन्म लेते समय रोता न पाकर उन्होंने घबराकर पूछा था, यह रोती क्यों नहीं...! इसके तीन साल बाद उनकी दूसरी बेटी (मौसी) का जन्म हुआ। और फिर उनको फौज में भर्ती कर लिया गया और वे अपनी पाँच और दो बरस की बेटियों को अपनी बीवी और विधवा बहन के सहारे छोड़कर मोर्चे पर चले गये, जहाँ से वे, लड़ाई के बाद का कुछ समय लश्कर (ग्वालियर) के हैडक्वार्टर में बिताकर, चार साल बाद अन्तिम रूप से गाँव में लौटे।
दिलचस्प बात है कि सिवा इसके कि वे फौज में रहे थे, इस बारे में और कोई जानकारी न तो नानी को थी न माँ, मौसी और मामा को थी। नानी इतना भर बताती थीं कि वे जब लौटे थे, तो लश्कर रहकर लौटे थे। ‘मुझे क्या पड़ी थी कि मैं पूछकर उनकी गालियाँ खाती! वे मुझे इस लायक समझते तो खुद ही न बताते। हो सकता है बाई (ननद) को बताते हों, लेकिन उनने भी मुझे नहीं बताया। मुझे भी क्या पड़ी थी कि मैं उनसे पूछती?’ - नानी कहती थीं।
मामा परिवार के अकेले व्यक्ति थे जिनका गाँव के साथ, उसको वर्षों पहले छोड़ चुकने के बावजूद, नियमित सम्पर्क बना रहा। उन्होंने भी सोने-चाँदी का पैतृक धन्धा अपनाया हुआ था, हालाँकि यह काम उन्हें नाना से सीखने का अवसर नहीं मिला था (वे जब साल भर के थे, नाना तभी चल बसे थे)। इसी धन्धे के सिलसिले में उनका नियमित रूप से गाँव में और पुराने ज़मींदार परिवारों में आना-जाना बना रहा था। यहाँ तक कि गाँव के लोग उनको भी लम्बरदार कहकर पुकारते थे। बहरहाल, वर्षों बाद, जब एक दिन मैं एक बार फिर से नाना के फौजी जीवन के बारे में मामा को कुरेद रहा था, सहसा उनकी आँखों में एक हल्की-सी चमक पैदा हुई और उन्होंने अन्दर के कमरे से पाॅलीथिन के पैकेट में तहाकर रखा एक जर्जर काग़ज़ लाकर मेरे सामने रख दिया। पैकेट में उस काग़ज़ के अलावा एक स्लिप भर थी जिस पर नाना का नाम लिखा हुआ था (क्या वह खुद उन्हीं की लिखावट थी?) और जिससे सिर्फ़ उड़ता हुआ-सा नतीजा ही निकाला जा सकता था कि उस दस्तावेज़ से नाना का कोई ताल्लुक था, अन्यथा उस आधे-अधूरे दस्तावेज़ की उड़ी हुई टाइप्ड स्क्रिप्ट से नाना के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती थी, लेकिन इतना ज़ाहिर था कि वह दस्तावेज़ दूसरी लड़ाई के दौरान बर्मा के मोर्चे पर हिन्दुस्तानी सेना की तैनाती से ताल्लुक रखता था। दस्तावेज़ को देखने के बाद जब मैंने मामा को सवालियां नज़रों से देखा, तो उन्होंने बताया कि कुछ महीने पहले जब वे गाँव गये थे, तो छोटे लम्बरदार के घर पर नाना के बारे में चर्चा चलने पर लम्बरदार के पोते ने यह काग़ज़ उनको दिया था।)
नाना के एक भाई भी थे, उनसे कई साल बड़े, जो उसी गाँव में अलग एक छोटे-से कमरे में रहते थे। नाना के आत्मसम्मान और अपेक्षाकृत सुख-चैन-भरे जीवन में वे भी एक बड़ी चुनौती और तनाव की वजह थे। वे न तो पढ़े-लिखे थे, न कुछ करते थे और न ही कुछ करना चाहते थे। उनको गाँजे की लत थी और वे दाद-खाज के चकत्तों से भरी अपनी जर्जर देह और फटीचर लिबास में या तो अपने कमरे में पड़े रहते थे या गाँव में यहाँ-वहाँ आवारा भटकते रहते थे और हालाँकि उनके राशन-पानी और दूसरे छोटे-मोटे ख़र्चों की व्यवस्था नाना ही करते थे, लेकिन इसके लिए नाना का कृतज्ञ होने की बजाय वे उनके प्रति विद्वेष से भरे जहाँ-तहाँ उनकी निन्दा करते रहते और लोगों से भीख या उधार माँगकर अपनी अतिरिक्त ज़रूरतों को पूरा करते। उनका कहना था कि नाना ने हज़ारों रुपयों की पैतृक सम्पत्ति पर अन्यायपूर्वक अकेले कब्ज़ा कर रखा है। वे गाँव के लोगों, ख़ासतौर से लम्बरदारों से पंचायत कर उनको इंसाफ़ दिलाने की गुहार करते। जब नाना से उनकी अतिरिक्त अपेक्षाएँ पूरी न होतीं, तो गाहे-बगाहे वे उनके दरवाज़े पर हंगामा करते, उनकी ‘अनुदारता’ और ‘स्वार्थीपन’ के लिए उनको शोर मचाकर कोसते। बताते हैं कि एक बार जब उनके इस व्यवहार से क्षुब्ध होकर नाना ने कुछ दिनों के लिए उनका राशन-पानी बन्द कर दिया, तो वे उनकी इज़्ज़त पर बट्टा लगाने के इरादे से उनके दरवाज़े पर चक्की लेकर गाँव के लोगों का आटा पीसने बैठ गये।
फिर, नाना की मृत्यु के दो साल पहले, वे हैजे की चपेट में आ गये।
यह एक तरह से यह नाना के परिवार में मौत के सिलसिलों की शुरुआत थी।
वह अचानक आता था, बिना किसी चेतावनी के। ख़बर मिलती, पड़ोस के किसी घर में किसी को माँड जैसे सफ़ेद दस्त होने की, फिर दूसरे, तीसरे, चैथे घर के बारे में वैसी ही ख़बर, और इसके पहले कि इन ख़बरों पर ठीक से ग़ौर किया जाता, खुद उस घर का कोई व्यक्ति दर्द से तिलमिलाता, पेट पर हाथ रखे, दोहरा होता हुआ, लोटा थामें भागता दिखायी देता। आधा-पाव फर्लांग चलकर नदी-किनारे या खेत की मेड़ या किसी पेड़ की ओट तक पहुँच पाना भी मुश्किल हो जाता। दो-तीन दिन बीतते न बीतते हर तीसरे-चैथे घर का यही हाल। किसी-किसी घर के कई सदस्य एक साथ बीमार होते। रास्तों के किनारे जगह-जगह उल्टी-दस्त के सूखे-अधसूखे चहबच्चों पर हरी-नीली मक्खियाँ भिनभिनाती दिखायी देतीं। पूरे गाँव पर मछली जैसी गन्ध टँगकर रह जाती और फिर देखते ही देखते हर दिशा से विलाप उठते लगता। शवयात्राओं के लिए लोग कम पड़ जाते; कई घरों में शव दाहसंस्कार के इन्तज़ार में सड़ते रहते थे।
नाना के भाई की मृत्यु के समय तक हैजा, हालाँकि उतने बड़े पैमाने की महामारी शायद नहीं रह गयी थी, लेकिन उसका प्रकोप पूरी तरह शान्त नहीं हुआ था। मसलन, जिस हैजे से उनकी मृत्यु हुई थी उसकी चपेट में गाँव के कई लोग आये थे जिनमें नाना की विधवा बहन भी शामिल थीं। नाना की देखभाल की वजह से वे तब तो किसी तरह बच गयीं, लेकिन दो साल बीतते न बीतते, नाना की मृत्यु के कुछ ही महीनों बाद एक बार फिर गाँव में हैजा फैला और इस बार वे न बच सकीं।
जहाँ तक नाना की मृत्यु का सवाल है, उसमें कोई घटना नहीं थीं। कोई बीमारी, कोई चेतावनी, कोई चिकित्सा, झाड़-फूँक, सेवा-सुश्रुषा, आशंका...कुछ भी नहीं। कोई पूर्वरंग नहीं। वह चुपचाप आयी और उतने ही चुपचाप उनको लेकर चली गयी। देर सुबह जब गायों-भैंसों की असामयिक, असामान्य चीख़-पुकार की तरफ़ घर की स्त्रियों का ध्यान गया, तो उन्होंने पाया कि उन पशुओं को न तो अब तक दाना-पानी दिया गया था न उनको दुहा गया था। बहन ने भाई के कमरे में जाकर देखा तो पाया कि वे शायद बहुत पहले अपनी देह छोड़कर जा चुके थे। मात्र इकतालीस साल पुरानी देह। और यह संयोग हालाँकि अविश्वसनीय-सा लगता है, लेकिन मरने का यह ठीक वही ढंग था जिसे वर्षों बाद उनका बेटा दोहराने वाला था - वही बेटा जो तब सिर्फ़ पाँच साल का था।
अभी उनकी तेरहवीं को मुश्किल से हफ़्ता भर ही हुआ होगा कि वे लोग आये। मैं रसोई की तैयारी में लगी थी कि बाई भागती हुई आयीं और मेरे कान में फुसफुसाकर बोलीं, मेहमान आये हैं, और लोटे में पानी लेकर चली गयीं। जाते-जाते उन्होंने बड़ी को इशारा किया और उसने बाल्टी भर पानी और चारे के पूरे ले जाकर बाहर बैलों के सामने रख दिये। उन्होंने वहीं दरवाज़े से थोड़ा-सा हटकर बैलगाड़ी खड़ी की थी और बैलों को जुएँ से अलग कर गाड़ी के चक्के से बाँध दिया था। मैंने दरवाज़े की ओट से उनको देखा। वे दोनों दहलान में पड़ी चारपायी पर बैठे थे। अधेड़, साफ़ दाढ़ी, खिचड़ी मूँछें, सफ़ेद धोती-कमीज़। एक के माथे पर बड़ा-सा गूमड़। वे अपने साथ लोहे की चद्दर के बने दो बड़े-से सन्दूक लाये थे जो वहीं चारपायी के बगल में रखे थे। बाई उनके सामने, अन्दर के दरवाज़े के पास माथे पर हाथ टिकाये बैठी थीं। मैं दरवाज़े की ओट में जाकर बैठ गयी और रोने लगी। उन्होंने सान्त्वना दी। मुझे बहू कहकर पुकारा।
फिर कुछ नहीं। दोपहर का खाना खाकर उन्होंने थोड़ी देर आराम किया। रात में हमने उनके लिए पूरियाँ तलीं। उन्होंने कहा कि वे सबेरे मूँ-अँधेरे निकल जाएँगे, सो हमने उनका अगले दिन का कलेवा भी रात में ही तैयार कर दिया।
उन्होंने पूछा, कारखाने का सामान कहाँ है? तो बाई ने उनको ‘इनका’ कमरा दिखा दिया। उन्होंने कहा कि वे अपना कुछ सामान नबेरेंगे। बाई ने मेरी तरफ़ देखा। मैं क्या कहती? बाई ने सिर हिलाकर मंज़ूरी दे दी।
अगले दिन वे मूँ-अँधेरे चले गये। सन्दूक बहुत भारी हो गये थे, उन्होंने बड़ी मुश्किल से उनको गाड़ी में लादा। जाते समय उन्होंने एक रुपये से बाई के पाँव पूजे और तीनों बच्चों के हिस्से के तीन रुपये बाई के हाथ में थमाकर चले गये। जाते हुए बोले, बाक़ी हिसाब-किताब होता रहेगा...घर की बात है। भगवान ने चाहा, तो हम होली पर आएँगे...बड़ी के लिए कोई अच्छा-सा रिश्ता तलाश कर। आप घर की बुजुर्ग हैं, समझदार हैं...बहू और बच्चों का ख़याल रखना। बाई ने आँचल से आँसू पोंछते हुए उनको विदा किया।
तीसरे पहर, जब हम चूल्हा-चैका निबटाकर फुर्सत होकर बैठे, तो मैंने सकुचाते हुए बाई से कहा कि वैसे तो वह सारा सामान हमारे किस काम आता...और उसकी कीमत की भी बात नहीं है, लेकिन वह ‘इनकी’ निशानी तो थी...।
बाई ने मेरी तरफ़ देखा, वही तो मैं कहती हूँ और कीमत की बात भी क्यों नहीं? शहर में जाकर किसी को बेचतीं, तो हज़ारों में जाता...। पर खैर बेचना किस को था? कल के दिन लड़का बड़ा होगा...उसको ज़रूरत नहीं पड़ेगी?
वही तो मैं कह रही हूँ बाई कि क्यों दे दिया उनको सारा का सारा सामान! मैं तो तुम्हारे संकोच में कुछ बोली नहीं...और मैंने सोचा कि होंगी उनकी कोई थोड़ी-बहुत चीज़ें, सो ले जाएँगे...लेकिन वे तो पूरा ही सामान ले गये।
मैंने दे दिया...? तुम कैसी उल्टी बात कर रही हो भौजी? मुझे क्या पड़ी थी? मैं तो उल्टे टोकने वाली थी...लेकिन फिर चुप रह गयी...सोचा कि तुम्हारे रिश्तेदार हैं, तुम्हें पता होगा क्या लेनदेन चलता रहा उनके और भाई के बीच...।
मैं मूँ बाये रह गयी। मेरे रिश्तेदार! मैं तो जानती भी नहीं उनको! मैंने तो सोचा कि वे तुम्हारी तरफ़ के हैं!
हे भगवान, बाई ने माथा पीटते हुए कहा।
फिर दोनों ने दोबारा कमरे में जाकर ध्यान से देखा, तो पाया कि वे सिर्फ़ औजार-हथियार भर नहीं ले गये थे, तिजोरी भी साफ़ कर गये थे। पता नहीं उसमें कितना क्या-क्या रहा होगा ?
ऐसी मूरख थी हम लोग। मैंने दुनिया देखी ही कहाँ थी? जब तक माँ-बाप के घर रही तभी तक जितना जो कुछ देख सकी सो देख सकी। इसके बाद तो हाथ भर के घूँघट के पार धुँधली-धुँधली रोशनी और जमीन पर पैरों के करीब की चीज़ों के अलावा देखा ही क्या था? तेरी मौसी मुझे दोष देती है, पर बता मैं क्या करती? ‘इनके’ जाने के कुछ ही महीनों बाद जब बाई भी चली गयीं, तो मैं एकदम अनाथ हो गयी। सैंतीस साल की उमर और आगे पहाड़-सी जि़न्दगी। ऊपर से तीन-तीन औलादें...दो-दो जवान लड़कियाँ और पाँच साल का लड़का। न दिमाग़ में अकल न हाथ में धेला। ले-देकर आठ-दस मवेशी और थोड़े से जेवर, बस।
मेरा एक चचेरा भाई था रवि, जो सागर में रहता था। क्यों...? तुम्हें तो उसकी याद होगी? वह जब तक रहा, होली-दीवाली तुम लोगों को बुलाता तो था। याद है, पलोटनगंज में तेरे स्कूल के सामने? भले ही नशेलची थे, लेकिन कितने अच्छे थे दोनों भाई...कितना खयाल रखते थे सबका। कितना मान देते थे मुझे और मेरी बेटियों के परिवार को...। याद है वह घर?
वह उस घर तक पहुँचने के पहले ही ठिठक जाता है, उस दहकते हुए विशाल गुलमोहर के पास जो उसके स्कूल के सामने छह-सात फुट ऊँची दीवार से घिरे कम्पाउण्ड के बड़े-से ज़ंग खाये जर्जर लोहे के फाटक के करीब खड़ा हुआ है। वह छोटी बहन का इन्तज़ार कर रहा है जो उसके पीछे-पीछे घिसटती हुई चली आ रही है। उसके हाथ में माँ की आँख बचाकर चुराये गये पपरौटे से बने धेले जितने आकार के पापड़ों की पार्सल है। वे चिलचिलाती गर्मी की दोपहर को पार कर यहाँ तक पहुँचे हैं। उनको यह पार्सल उस तहख़ाने में छुपानी है जिसको ऐसी ही कई दोपहरों के दौरान खुद उनने तैयार किया है, दीवार के किनारे उगी झाडि़यों के बीच हाथ भर गहरा गड्ढा खोदकर और उसकी दीवारों को गिट्टियों और मिट्टी-गोबर के लेप से पक्का बनाकर। उनका और भी बहुत-सा सामान वहाँ छुपा हुआ है - कंचे, बीड़ी के बण्डलों और माचिसों के लेबॅल, आजी बऊ के चाँदी जैसे सफ़ेद बाल, काग़ज़ की पुडि़या में लिपटी साँप की केंचुल, पोटली में बन्द इमली के बीज, आधा फटा हुआ एक रुपये का नोट...। यह संसार की सबसे सुरक्षित जगह है। फाटक के बाएँ हिस्से में एक छोटा-सा दरवाज़ा है जिसे दबे पाँव पार कर वे अन्दर घुसते हैं। पार्सल को तहख़ाने में छुपाकर पत्थर से उसका मुँह बन्द करते हैं और पत्थर को धूल और घास से अच्छी तरह ढँक देते हैं। लौटते हुए उनके मुँह में गुलमोहर के फूलों का खट्टा स्वाद है। वह हाथ बढ़ाकर बहन के होंठ पर चिपके फूल के सुखऱ् टुकड़े को हटा देता है।
या फिर वह दृश्य जिसमें वे दोनों बीड़ी के नंगे बण्डलों से भरी टोकरियाँ सट्टेदार के यहाँ पहुँचाने के बाद वहाँ से सिर पर सूखे हुए तेन्दू पत्तों की गड्डियों से भरी बोरी, हाथ में तम्बाकू की पोटली और कानों में रिंगे वाड़े से तैरकर आयी सितार की तरंगों की अनुगूँज लिये लौटते हुए थोड़ी देर उस गुलमोहर के पास बैठकर सुस्ता रहे हैं और सट्टेदार की नक़ल उतारते हुए पागलों की तरह हँस रहे हैं।
और कहना मुश्किल है कि यह दृश्य उनके पहले का है या बाद का, जब वह इस बार अकेला, उसी गुलमोहर के पेड़ के पास खड़ा सामने सड़क के पार स्कूल के फाटक के बग़ल में स्कूल के बच्चों से घिरी उस गुमटी को ताक रहा है जिसमें बैठे उसके पिता बच्चों को लाॅलीपाॅप और बिस्किट बेच रहे हैं। वही गुमटी जिसके दरवाज़े पर बाद में कई-कई दिनों तक पिता की ऊब का ताला पड़ा रहा और जब एक दिन माँ ने बहुत झगड़ा कर उनको वहाँ धकेला तो उनके वहाँ पहुँचने के न जाने कितने पहले उसका ताला टूट चुका था।
या वह दृश्य जिसमें वह दरख़्त कलकत्ता है जहाँ वह लोहे के बड़े से रिंग को दौड़ाकर लाने के बाद थोड़ी देर रुकता है और फिर अगले स्टेशन के लिए रवाना हो जाता है
हाँ नानी, याद है वह घर, बल्कि वह दिन जिसकी वजह से वह घर स्मृति में दजऱ् हो गया था। बाहर ये सारे दृश्य उस दिन नहीं थे। सिर्फ़ गुलमोहर था। वह मकर संक्रान्ति के तुरन्त बाद की पूस की एक धुँधली, बादलों से भरी दोपहर थी जब हम (माँ, बहन और मैं) उस फाटक से होकर, दूर-दूर तक फैली गाजर घास, भटकटइया और दुल्हन, अकौआ और धतूरे की झाडि़यों से घिरी लम्बी-सी पगडण्डी के रास्ते कम्पाउण्ड को पार कर उस घर तक पहुँचे थे।
वह भुनते हुए तिल और जलने-जलने के कगार पर पकते हुए गुड़ की गन्ध थी जिसने घर में घुसते ही हमारा स्वागत किया था। घर में सिर्फ़ स्त्रियाँ (नानी की दोनों भाभियाँ और दो-तीन अन्य मेहमान) थीं और बच्चे, जिनमें हमसे बड़ी वह लड़की भी शामिल थी जिसने हमारे पहुँचते ही हमसे दोस्ती कर हमें घर के कोने-कोने की सैर करायी थी। वह बहुत पुराना, जर्जर होता हुआ इकमंजि़ला बड़ा-सा मकान था। कच्ची मिट्टी की ईंटों से बनी मोटी दीवारें और लकड़ी के विशाल खम्भों, म्यारियों और लग्गियों के जटिल ताने-बाने पर फैला खपरैल का छप्पर। छोटे-से अँधेरे गलियारे को पार करने के बाद चारों ओर से गलियारों से घिरा एक बड़ा आँगन जिसके बीच में तुलसी का चैरा और छोटा-सा मन्दिर और पास ही एक अमरूद का पेड़। आँगन के दाएँ-बाएँ कमरे थे और सामने की दीवार का दरवाज़ा घर के पिछवाड़े खुलता था जहाँ गुसल आदि का इन्तज़ाम था।
और हम अभी घर के उस पिछवाड़े में ही थे कि सहसा अँधेरा गहराया और बाहर बहुत तेज़ तूफ़ान का शोर सुनायी दिया और इसके पहले कि हम वहाँ से निकलते, लगा जैसे घर के छप्पर पर तड़ातड़ पत्थरों की बारिश हो रही हो। देखते ही देखते आँगन में ओलों की चादर बिछ गयी। वे बहुत बड़े थे और तेज़ हवा की वज़ह से इतने ज़ोर से गिर रहे थे कि आँगन से उछलकर उससे लगे गलियारों में भी फैलते जा रहे थे। फिर वे खपरैल को भेदकर घर के अन्दर जहाँ-तहाँ गिरने लगे। घर में अफरातफरी का माहौल था। रसोई में भोजन की थालियाँ लगायी जा रही थीं जिनको जैसे-तैसे आधा-अधूरा ढँककर स्त्रियाँ बच्चों को सँभालती सिर छुपाने की जगहें तलाश रही थीं।
कोई एक-सवा घण्टे बाद जब यह तूफान थमा तब तक आँगन में घुटनों की ऊँचाई तक ओलों का ढेर लग चुका था। बड़ों को घबराते-हड़बड़ाते देखकर हम थोड़े डरे हुए तो ज़रूर थे, लेकिन अन्दर ही अन्दर ख़ुश और रोमांचित भी थे और पूरे वक़्त उन दुर्लभ बफऱ्ीले खिलौनों से खेलने के मौक़े की तलाश में थे। ख़ैर, अब जब शान्ति बहाल हो गयी तो स्त्रियाँ भी सहज हुईं। विस्मय और हँसी-ठहाकों का वातावरण बना। रसोई को साफ़ कर भोजन परोसा गया और अन्ततः शाम ढलने के बहुत पहले हम वापस घर के लिए रवाना हुए।
लेकिन बाद में जो हुआ, जिसकी वजह से असल में वह दिन यादगार बना, उसको देखते हुए यह एडवेंचर से भरे उस दिन का बहुत मामूली-सा पड़ाव ही कहा जाएगा। आने वाली घटना का कोई अन्देशा माँ को रहा होगा यह तो क़तई नहीं कहा जा सकता, लेकिन तब भी घर की सम्भावित दुर्दशा की दुश्चिन्ता तो उसके चेहरे पर थी ही, बावजूद इसके कि उम्मीद थी कि पिता घर पर ही रहे होंगे। बाहर का नज़ारा और भी अद्भुत था। तेज़ धूप निकली हुई थी और तीख़ी सर्द हवा की सनसनाहट थी। ओलों की चादर अब भी हर तरफ़ बिछी हुई थी और जहाँ-तहाँ उनके ढेर भी दिखायी दे रहे थे। कम्पाउण्ड को पार करते हुए सबसे ज़्यादा मुश्किल हुई जहाँ कीचड़ और फि़सलन पैदा हो गयी थी। भरसक तेज़ चलते हुए हम कोई आधा घण्टे बाद घर पहँुचे।
हमारा घर उस बड़ी दुमंजि़ला इमारत का एक छोटा-सा हिस्सा था जिसने एक चैकोर खुले आँगन को चारों तरफ़ से घेर रखा था। इमारत में घुसने के लिए एक लम्बे-से बरामदे (हम उसको पौर कहते थे) से होकर गुज़रना पड़ता था जिसकी दाहिनी दीवार दोतिहाई हिस्से के बाद आँगन में खुलती थी। हम इसी बरामदे के ठीक ऊपर बनी अटारी पर रहते थे, जो खुद भी लकड़ी की लम्बी-लम्बी पट्टियों से बनी जाली से, बरामदे की ही तरह, आँगन की ओर झाँकती थी। ज़ाहिर है, ओलों की दृष्टि से यह घर का सबसे संवेदनशील हिस्सा था।
अटारी तक पहुँचने के लिए आँगन से शुरू होकर बरामदे की बाहरी दीवार के सहारे चढ़ती सीढि़याँ थीं। आँगन में काफ़ी मात्रा में ओलों के अवशेष मौजूद थे।
दरवाज़े पर पहुँचने के बाद माँ के चेहरे पर हल्का-सा राहत का भाव आया, क्योंकि पिता घर में ही थे। उन्होंने दरवाज़े से लटकती साँकल खटखटायी। कुछ पल इन्तज़ार करने के बाद उन्होंने कुछ झल्लाये-से स्वर में मेरा नाम लेकर पिता को पुकारते हुए दोबारा साँकल खटखटायी। इस पर भी जब दरवाज़ा नहीं खुला, तो माँ घबरा गयी। उसने दरवाज़े को ज़ोर-ज़ोर से पीटना और उनको पुकारना शुरू कर दिया। माँ के साथ-साथ मैं भी पिता को पुकार रहा था। ज़ाहिर है कि हताशा और घबराहट से माँ के हाथ-पैर फूल गये होंगे; वह लगभग रोती हुई-सी वहीं सीढ़ी पर ढेर हो गयी। उसने हम दोनों को अपने बाजुओं से सटा लिया और हताश स्वर में पिता को आवाज़ देती रही।
हमारे शोर ने पड़ोसियों को चैकéा किया। अटारी के सामने वाले हिस्से में छोटी-सी छत थी, जहाँ खड़े होकर अटारी की जाली के पार बहुत आसानी से देखा जा सकता था, बशर्ते कि माँ ने अपनी पुरानी साडि़यों को जाली पर पर्दे की तरह न लटका रखा हो। इसके पहले कि हमें यह सूझता, हमारी अटारी से लगे कमरे में रहने वाले ग़रीबदास की बीवी ने, जो सामान्यतः न जाने किस बात पर अक्सर माँ से नाराज़ रहकर अनबोला साधे रहती थी, वहाँ से झाँककर देखा और माँ को आवाज़ दी। हम भागते हुए वहाँ पहुँचे।
जो दृश्य हमने वहाँ से देखा, वह हमारी आशंकाओं को भड़का देने के लिए काफ़ी था। वे जाली से लगभग सटाकर लगाये गये बिस्तर पर अभी मुश्किल से हफ़्ते भर पहले तैयार करायी गयी नयी-नयी रजाई से सिर से पैर तक पूरी तरह ढँके हुए थे और हालाँकि शाम ढलने को थी और काफ़ी धुँधलका था, लेकिन तब भी उस दूरी से ज़मीन पर जगह-जगह पानी के चहबच्चों में बदल चुके ओलों के अवशेष देखे जा सकते थे। उनका बिस्तर भी निश्चय ही भीगा होगा, जिसकी पुष्टि भी बाद में हुई। हमने वहाँ खड़े होकर भी बहुत पुकारा और छत पर पड़े खपरैल के टुकड़े फेंके जिनमें से कुछ जाली से टकराये बग़ैर अन्दर उनके बिस्तर तक भी पहुँचे। लेकिन कोई हासिल नहीं।
वह दिन जिस ‘एण्टीक्लाइमेक्स’ का उपहार आखि़रकार हमें देने वाला था, उसकी बेचैन कामना हालाँकि हम सब (कम से कम हम तीनों) कर रहे थे, लेकिन उसकी उम्मीद की कोई बूँद हमारे भीतर शायद ही बच रही हो। वह दरअसल उपहार नहीं था, क्योंकि उसके लिए हमनेे बहुत बड़ी क़ीमत चुकायी थी। वे जीवित थे और हमारे सौभाग्य से उसके बाद वर्षों जीवित रहने वाले थे, लेकिन उनकी मौत हमारे भीतर घटित हो चुकी होगी - ऊपरी तौर पर बहुत थोड़े से समय के लिए, लेकिन ख़ासतौर से माँ के लिए उस समय का अन्दरूनी विस्तार अन्तहीन रहा होगा, क्योंकि समय और मौत के अहसास के फलने-फूलने की गुंजाइश हमारे मुक़ाबले उनकी चेतना में ज़्यादा रही होगी।
बहरहाल, नसैनी लगायी गयी और जब जाली से हाथ डालकर उनके सिर के ऊपर से नमी सोखती रजाई को खींचा गया, तो उन्होंने बिना हड़बड़ाये, सहज भाव से आँखें खोलीं और लेटेे ही लेटे इत्मीनान से अपने आसपास का मुआयना किया। फिर उनकी नज़र जाली के उस तरफ़ खड़े व्यक्ति पर गयी और उन्होंने झटके से उठकर अचरज से बाहर का नज़ारा देखा।
उनकी आँखें बेहद सुर्ख़ थीं और कहना मुश्किल था कि वह सम्भावित रूप से उनके द्वारा फूँके गये गाँजे का असर था या उन रतजगों का जो उन्होंने एक दिन पहले तक लगातार आठ-दस दिन नर्मदा के बरमान घाट मेले की कड़कड़ाती ठण्ड में किया था, जहाँ पर वे अपने बनाये चाँदी के गजरों की छोटी-सी दुकान लेकर गये थे; या फिर वह गाँजे और रतजगे दोनों का असर था।
एक और दृश्य...एक खण्डहर हो चुकी स्मृति, जिसका बहुत बारीक़-सा सिरा ही पिता की असामान्य नींद से जुड़ा हैः उनके शायद ऐसे ही किन्हीं रतजगों के बाद के एक दिन (शायद देवउठनी ग्यारस या उसके ठीक पहले के दिन) का तीसरा पहर है। एक हाथ में सौदा-सुलुफ का थैला और दूसरे से कन्धे पर रखे गन्नों को सँभाले वे कटरा बाज़ार से तीनबत्ती की घाटी चढ़ रहे हैं। वह उनके पीछे-पीछे घिसटता चल रहा है (‘पूँछ की तरह,’ जैसा कि माँ कहती)। चारों तरफ़ भीड़ है। वे सहसा हल्का-सा लड़खड़ाते हैं और ठहर जाते हैं। चारों तरफ़ देखते हैं और फिर सड़क के दाहिने किनारे सीमेण्ट और पत्थर से बनी लम्बी-सी पट्टी की तरफ़ इशारा करते हैं। कुछ पल पट्टी पर असमंजस में बैठने के बाद, वे गन्नों की गठरी को पट्टी के पैताने और थैले को सिरहाने रख, उसको सामान पर निगाह रखने की हिदायत देकर पट्टी पर लेट जाते हैं। अगले ही पल उनके खर्राटे सुनायी देने लगते हैं।
फिर वह खुद को उस पट्टी के दूसरी तरफ़ नीचे की ओर कुछ दूरी पर उस मजमे में सबसे आगे खड़ा पाता है जिसने चारों ओर से डुगडुगी बजाते उस मदारी को घेर रखा है जो अपने साथ की छोटी-सी लड़की के साथ मिलकर तरह-तरह के करतब दिखा रहा है और जो चादर पर सजाकर रखी हुई तरह-तरह की जड़ी-बूटियों के ढेरों के बीच रखे छोटे-से बक्से में बन्द उड़ने वाला साँप थोड़ी देर बाद सबको दिखाने वाला है।
सहसा वह अपने कन्धे पर एक हाथ का दबाव महसूस करता है। यह वही आदमी है जो कुछ पल पहले मजमे में उसके सामने की तरफ़ खड़ा उसको घूर रहा था। तुम यहाँ खड़े हो! वह कहता है। वह उसका हाथ पकड़कर उसको मजमे से बाहर ले आता है। तुम्हारे पिता कितने परेशान थे...वे तुमको खोजते-खोजते थककर घर चले गये हैं। मैंने उनसे वादा किया था कि मैं तुमको उनके पास पहुँचा दूँगा। डरो मत मैं तुम्हारी पिटाई नहीं होने दूँगा, उनको समझाऊँगा। चलो...। आदमी उसकी ओर मुस्कराकर देखता है और अपने शरीर से उसको सटाकर उसका गाल चूम लेता है। उसके कपड़ों और मुँह से एक विचित्र तीखी-सी गन्ध आ रही है।
फिर वह उसके साथ एक ताँगे में बैठा हुआ है। यह उसके घर का रास्ता नहीं है, लेकिन फिर भी पहचाना हुआ रास्ता है। दोनों ओर घने पेड़ों, झाडि़यों और खेतों के बीच थोड़ी दूर जाकर वीरान होता हुआ एक सँकरा, कच्चा, लम्बा रास्ता जो उस पतली-सी नदी तक पहुँचकर ख़त्म हो जाएगा जो दोनों किनारों पर झुके दरख़्तों की मेहराबों के बीच उनकी जड़ों से उलझती हुई बहुत धीरे-धीरे बहती है। नदी के किनारे आम, आँवले और महुए के दरख़्तों से घिरा एक छोटा-सा खण्डहर और उससे लगा हुआ एक पुराना मन्दिर है। पीलिया की बीमारी के बाद वह यहाँ अक्सर आता था, पिता के साथ मुँह अँधेरे, सुबह की सैर के लिए, जब रास्ते में पिता बबूल के पेड़ से दातूनें तोड़ते, फिर वे नदी के घाट पर बैठकर मंजन करते और रास्ते में फेरी वालों से ख़रीदी गयी गड़ेरियाँं (छिले हुए गन्ने के गोल टुकड़े) चूसते हुए लौटते थे।
शाम के वक़्त भी वह एक बार यहाँ आ चुका है, पिता के ही साथ। उसने तब पहली बार ‘तहख़ाना’ शब्द सुना था, जब पिता ने उसको उस छोटे-से खण्डहर की सैर कराते हुए वे जर्जर सीढि़याँ दिखायी थीं जो ज़मीन के अन्दर के अँधेरे में उतरती चली गयी थीं। फिर वे मन्दिर के बाहर बड़े-से हवन-कुण्ड में जलते अलाव को घेरे जटाधारी साधुओं के साथ बैठे थे। उन्होंने अलाव के एक कोने में जूट के रेशों से बने एक छोटे-से गोले को सुलगाया था और जब वह थोड़ी देर बहुत सोंधा धुआँ छोड़ने के बाद अंगार में बदल गया था तो उन्होंने उसको हाथ से उठाकर जल्दी से उस चिलम के मुँह पर रख दिया था जिसमें पानी के छींटों से भिगोकर बहुत देर तक मले गये गाँजे का भुरभुरा चूरा पहले से भरा हुआ था...
उस आदमी का एक हाथ उसकी निकर के अन्दर सरसरा रहा है और दूसरे हाथ से उसने उसके हाथ को अपनी पतलून के अन्दर के उस लिसलिसेपन में दबोच रखा है जो आने वाले कई वर्षों तक बारबार उसके हाथों में तब तक लौटता रहेगा जब तक कि एक दिन वह खुद उसके अपने शरीर को कँपाता हुआ उसके अँधेरे से लावा की तरह नहीं फूट निकलेगा। फि़लहाल वह अन्दर ही अन्दर सिहर रहा है और डर रहा है कि जल्द ही वह उस अलाव के पास पहुँच जाएगा जहाँ शायद उसके पिता उसका इन्तज़ार कर रहे हैं।
लेकिन वहाँ कोई नहीं है। सिर्फ़ दूर कहीं से पशुओं के गले में बँधी घण्टियों की आवाज़ भर बीचबीच में सुनायी दे जाती है।
जब आदमी उसको खण्डहर के फ़र्श पर औंधाकर दबोच लेता है, तो वह, बावजूद अपने पेट में उठती मरोड़ के, कोई प्रतिरोध नहीं करता। आदमी के वहाँ होने का अहसास ही जैसे उसके भीतर से जा चुका है। उसे सिर्फ़ अपने होने का अहसास है जो इस दूसरे अहसास के गहराने के साथ धुँधलाता जा रहा है कि वह तहख़ाने में उतरती सीढि़यों के अँधेरे में डूबता चला जा रहा है, कि वह किसी बहुत बड़े अपराध में मुब्तिला है, उसी पल से जब वह मदारी की डुगडुगी की पुकार पर पिता को सोता छोड़ उनसे दूर चला गया था।

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