09-Apr-2017 03:03 AM
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‘रानीखेत एक्सप्रेस’ वह उपन्यास है, जिस पर मैं पिछले सात साल से काम कर रहा हूँ। पाँँँच खण्डों में विभक्त इस उपन्यास के शुरुआती चार खण्डों का गद्य गल्प की सीमाओं के भीतर आता है, लेकिन पाँचवाँ खण्ड अलग है। सम्भव है कि कई विद्वान उसे गल्प न मान पाएँ। मैंने भी उसे गल्पेतर गद्य का आवरण पहनाया है। उसमें विश्लेषण, विमर्श, आलोचना तथा व्याख्या की गद्य-शैली का प्रयोग किया गया है। उपन्यास के शुरुआती चार खण्डों की संरचना में जिन तत्वों का प्रचुरता से प्रयोग हुआ है, उन सभी तत्वों को, उपन्यास की भाव-भूमि के भीतर, दर्शन तथा इन्द्रियों के अनुभवों के सहारे पाँचवें खण्ड में विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है। गल्प तथा व्याख्या एक साथ चलते हैं। इसमें मिथाॅलजी, दर्शन तथा साहित्य की परम्परा में मौजूद टेक्स्ट का भी प्रयोग किया गया है और यथोचित स्थानों पर लेखक व रचना का उल्लेख भी किया है। पाँचवाँ खण्ड मूलतः अनुच्छेदों में विभक्त है और जैसे ऋग्वेद की ऋचाओं का अपना एक ऋषि होता है, इन अनुच्छेदों का अपना ‘पैरेण्ट-टेक्स्ट’ है।
यहाँ इस उपन्यास के दो हिस्से प्रस्तुत हैं। पहला ‘द शोपां माॅर्निंग’ दूसरे खण्ड का एक अध्याय है। दूसरा ‘एक बटा दोः प्रेम का सौन्दर्यशास्त्र’ शीर्षक पाँचवें खण्ड के तीन अध्यायों ‘अ-भाषा’, ‘उपस्थिति’ तथा ‘स्मृति’ से मिलकर बनता है।
द शोपां माॅर्निंग
उस रात जब मैं सोई थी, तो अकेली ही थी, पर सुबह उठने के बाद मैंने अपने लिहाफ़ में किसी को पाया। वह मेरी उदासी थी। पता नहीं, कैसे वह मेरे लिहाफ़ में घुस आई। वह मेरे गालों पर थपथपा कर मुझे जगा रही थी। मुझे याद नहीं कि मैंने सपने में क्या देखा था, पर जब मैं जागी थी, मेरे भीतर एक रुदन घुट रहा था। शायद यह उदासी मेरे सपने में भटक रही थी। मौक़ा देख़ते ही सपने से बाहर निकल लिहाफ़ में मेरे साथ सो गयी।
मैं हमेशा सोचती कि वे लोग बड़े ख़ुशकि़स्मत होते हैं, जिन्हें ख़ुद नहीं जागना पड़ता। उनके लिए घर में कोई न कोई होता है, जो हर सुबह उन्हें जगाया करता है। कोई होता है, जो उन्हें सुबह-सुबह जगा देने की फि़क्र किया करता है। जो लोग अपने आप जाग जाते हैं, दरअसल वे बेहद अकेले लोग होते हैं और अपने अकेलेपन को बहुत भीतर से स्वीकार कर चुके होते हैं।
मैं अक्सर अपने आप जाग जाती हूँ। अलार्म बजने से पहले ही जाग जाती हूँ। दरवाज़े पर कोई दस्तक हो, उससे पहले ही जाग जाती हूँ। कई बार मैं ख़ुद ही अपनी देह से बाहर निकलती हूँ और ख़ुद को ही झकझोर कर जगा देती हूँ। कभी-कभी ख़ुद को मैं एक स्वप्न मानकर भूल जाती हूँ।
बरसों मैं चाहती रही कि सुबह कोई मुझे जगा दिया करे। अब मैं ऐसी कोई उम्मीद नहीं करती। इसीलिए मैं हैरान हुई, जब एक अपरिचित-सी उदासी ने उस सुबह मुझे जगाया। मुझे जगाकर मेरा परिचय ले रही थी।
पलंग पर लेटे-लेटे ही मैंने अपना वाॅकमैन उठाया और उसे आॅन किया। उसकी बैटरी ख़त्म हो चुकी थी। शुक्र है कि मैं अपनी दराज़ में कई ताज़ा बैटरियाँ रख़ती हूँ। मैंने अपने वाॅकमैन को जि़ंदा किया। हेडफ़ोन लगाकर मैंने पीठ टेक ली। शोपां बजने लगा। वाल्ट्स इन ए माइनर। ओपस 34 नम्बर टू। क़ायदे से, इसे रात को सुना जाना चाहिए, लेकिन मैं आधी नींद से उठी हूँ। मैं रातों को दिन की तरह और दिन को रातों की तरह जीती आई हूँ। मैं ठहाकों को चुप्पी की तरह और चुप्पियों को ठहाकों की तरह सुनती रही हूँ। मैं काम को शौक़ और शौक़ को काम मान करती रही हूँ। उस सुबह को मैंने रात मान लिया। शोपां बजता रहा।
मैं उदासी को कहीं से कोसना नहीं चाहती। मुझे पता है, बरसों बाद कोई उदासी मुझ तक आई है। मैं जीवन का अभिनय करती हूँ और मुस्कान, हँसी, चुलबुलेपन को अभिनय के औजारों की तरह प्रयोग करती हूँ। मैं उस अभिनेत्री की तरह हूँ, जिसे अपने चेहरे से मेक-अप हटाने का मौका नहीं मिलता। मैं जीवन का एक शाॅट देती हूँ, उसके ओके होने का भी इन्तज़ार नहीं करती और उसी समय मुझे दूसरे शाॅट के लिए रवाना होना पड़ता है। इस तरह जीवन के कई शाॅट्स ओके होने के इन्तज़ार में ही पड़े रह जाते हैं। कई बार लौटकर उन्हें री-शूट करना पड़ता है। कई बार मैं इतना दूर निकल जाती हूँ कि महज़ कुछ शाॅट्स को ओके करने के लिए लौटने में बेतरह आलस आता है। तब मैं उन्हें वैसा ही अधूरा और फूहड़ छोड़ देती हूँ। मेरा जीवन इम्परफेक्ट शाॅट्स का गुच्छा है। ऐसे त्रुटिपूर्ण शाॅट्स का दोष मैं अपने जीवन के निर्देशक को देती हूँ। यक़ीनन, मेरा दोष नहीं।
ऐसे तमाम मौक़ों पर मेरी मदद के लिए शोपां आता है। उसने अपनी सारी संगीत रचना मेरे लिए की है, ताकि मैं बिना मदद के मर न जाऊँ। शोपां उदासी का वंशज था। कहते हैं कि वाॅल्ट्स एक तरह का नृत्य होता है। लोग ख़ुशी में नाचते हैं, लेकिन नाच का ख़ुशी से कोई सम्बन्ध नहीं है। इस वाॅल्ट्स को सुनते हुए कौन नाचता होगा? किस तरह नाचता होगा? क्या उसके पैर उठते भी होंगे? क्या नृत्य से ज़्यादा उदास कुछ हो सकता है? ख़ुशी तो बेसुरी होती है। उसमें सिफऱ् शोर होता है। संगीत जिस सम पर चलता है, वह सम ख़ुशी में नहीं पाया जाता। ख़ुशी तो महज़ एक उत्तेजना है। संगीत की तरह ठुमक-ठुमक कर सिफऱ् उदासी ही चलती है। मेरी ये बातें उदासी का डिफेन्स नहीं हैं।
विशुद्ध मातम में कितनी सरलता होती है। निर्वाक से सुन्दर कोई अनुभूति नहीं होती। आप एक सुन्दरता देखें, और वह आपके शब्द छीन ले, इससे भली बात और क्या! शब्द किसी भी संगीत का विष हैं। सौन्दर्य के संगीत का आचमन निर्वाक से करना चाहिए। शोपां का यह वाॅल्ट्स भी यही करता है। यह मुझसे मेरे शब्द छीन लेता है। वे शब्द, जो मेरे भीतर और बाहर शोर करते हैं। मैं बातूनी होने का अभिनय रोज़ करती हूँ और जानती हूँ कि यह कितना थका देने वाला पतित कि़स्म का काम है। मैं कई बार ख़ुद को एक शब्दकोश की तरह देख़ती हूँ, जिसमें सिफऱ् शब्द ही शब्द होते हैं, अर्थ ही अर्थ होता है, कोई पूरा वाक्य नहीं होता। कुछ निःशब्द नहीं होता।
गिरना है तो खूब बोलिए। पर उठना चाहते हैं तो मौन की उँगली पकड़नी होगी। शोपां का वाॅल्ट्स यही सिखाता है। आँखें बन्द किए हुए, मुझे मौन की उँगली फरिश्तों की उँगली जैसी दिख़ती है। वे हवा में बेआवाज़ उड़ रहे हैं, नहीं, वे बह रहे हैं। उड़ने में प्रयास लगते हैं, बहना सृष्टि की सबसे अनायास क्रिया है।
जब हम बहते हैं, तो हम पर किसी मंजि़ल तक पहुँच जाने का दबाव नहीं होता। कुछ लोग मृत्यु को जीवन की मंजि़ल मानते हैं। मुझे लगता है कि अगर ढंग से बहा जाए, निद्र्वन्द्व, निर्वाक, निश्चेष्ट होकर, तो जहाँ पहुँच जाया जाए, उसी जगह का नाम मृत्यु रख दिया जाए। इस तरह मृत्यु के पार हो जाया जाए।
मोत्ज़ार्ट के संगीत के बारे में लोग कहते हैं कि वह बहुत सोच-समझकर रचा गया संगीत है, दिमाग़ की सारी जटिलताओं को रूपायित करता हुआ। बीथोफ़न के बारे में कहा जाता है कि उसका संगीत उसके दिल से निकलता है और सीधे सुनने वाले के दिल में समा जाता है- बीच में कहीं नहीं रुकता। मुझे लगता है, बीथोफ़न का दिल जब आखि़री बार धड़का होगा, तब अपनी कोई एक गूँज वह दूर बैठे शोपां के हृदय में रोप गया होगा। यह मृत्यु-बन्धुत्व हैः एक की मृत्यु से दूसरे को दिशा मिले। इसीलिए बीथोफ़न, शोपां की टेक है।
रूबीन्स्टीन का पियानो, शोपां का नाॅक्टर्न। अगर श्रीकृष्ण ने बाँसुरी के वेस्टर्न नोट्स बनाए होते और वे आज तक बचे रहते, तो वे शोपां के नाॅक्टर्न की तरह होते। यह ख़्याल ही कितना एब्सर्ड है कि बाँसुरी को पियानो के नोट्स पर बजाया जाए।
नाॅक्टर्न यानी रात के समय बजने वाला संगीत। अँधेरे में डूबा एक बग़ीचा। पत्तों की आवाज़ से हवा के चलने को महसूस करना। ज़मीन पर तारों की परछाईं देखना। आसमान में जो आकृतियाँ उगी हों, उन्हें ज़मीन पर उगे पेड़ों की परछाईं मानना। जब पैदल चलना, तो पत्तों के दबने की आवाज़ आना। ऐसे कि कोई भी आवाज़ आने से पहले ख़ुद को ही श्श्श्श कहकर चुप करा दे। बग़ीचे में समन्दर की थोड़ी-सी गुंजाइश खोज लेना। उसकी आवाज़ के भीतर उतर जाना। समन्दर में मिली एक-एक नदी को रेशा-रेशा अलग करना। उन्हें अनजानी दिशाओं में बहाकर मुक्त कर देना। वहीं एक टापू बनाना। उसमें अकेले होने के विरुद्ध आवाज़ का एक बूटा रोपना।
यह शोपां है।
मैं तुम्हारे पास हूँ। तुम्हारी हथेली में उँगली फँसाए।
तुम सबके पास हो।
पर मैं सबके पास नहीं,
सिफऱ् तुम्हारे पास हूँ।
यही शोपां है।
मैं शोपां को दूर से नहीं सुन पाती। उसमें इतनी बारीकियाँ हैं, इतनी छोटी-छोटी हरकतें हैं कि बहुत विनम्र होकर उसकी आवाज़ के पास पहुँचना होता है। इसीलिए मैं हेडफ़ोन लगाती हूँ। मेरे कानों और शोपां के स्वर में वही रिश्ता है, जो शिव के बाल और गंगा की धार में है। मैं पहले उसे कान से सुनती हूँ, फिर त्वचा से, फिर आत्मा से। मैं उसे अंग से सुनती हूँ, अनंग से भी सुनती हूँ।
शिव ने कामदेव को भस्म कर अनंग बना दिया था। वह विदेह हो गया था। उसके बाद पार्वती जब भी कभी संगीत बजातीं, शिव-दम्पति को लगता कि अनंग कहीं पास ही है। देह खोने के बाद भी अनंग ने अपना व्यवहार नहीं खोया था। वह कैलाश के आसपास ही भटकता था। पार्वती उसे महसूस करती थीं और शिव से आग्रह करती थीं कि वह अपना शाप वापस ले लें। पर शिव कहते, वह अनंग है, इसीलिए मनोज है। वह विदेह है, इसीलिए हर देह से संयुक्त है। पार्वती का रहम, एक प्रेमिका का रहम था। एक दिन उसने कामदेव को नया वर दे दिया- तुम स्वेच्छा से अंग हो, स्वेच्छा से अनंग हो। तब से कामदेव अंग भी है, अनंग भी है।
कई बार मुझे लगता है, किसी गुप्त या खोए हुए पुराण में ज़रूर कोई कथा ऐसी भी रही होगी, जिसमें संगीत को सशरीर उपस्थिति कहा गया होगा। किसी शाप के कारण उसने अपना शारीरिक रूप खो दिया होगा। जैसे कामदेव ने खोया, जैसे दक्ष ने खोया, जैसे शारंग ने खोया, जैसे आठों चिरंजीवियों ने खो दिया। हालाँकि मैं अभी तक ऐसी किसी कथा तक नहीं पहुँच पाई हूँ।
वैसे ही किसी शाप के कारण संगीत अनंग हो गया होगा। वह अनंग है, इसीलिए हर अंग में उसकी व्याप्ति है। मैं उसकी व्याप्ति को दिशा देना चाहती हूँ। क्यों? मैं उसे एक मार्ग दिखाना चाहती हूँ कि वह इस बिन्दु से प्रविष्ट हो, उस बिन्दु से निर्गत हो। वह नहीं मानता। मैं मन ही मन उस संगीत से बहसो-मनुहार करती हूँ।
इतालवी में प्रेम की एक परिकल्पना है, जिसे ‘फीनो आमोरे’ कहा जाता है यानी सम्पूर्ण प्रेम। यह विचार दान्ते अलीगियेरी की रचनाओं से आया। ऐसा प्रेम, जिसमें शरीर का कोई अर्थ नहीं होता, अभिव्यक्ति व स्मृति का भी कोई अर्थ नहीं होता। आप जिससे प्रेम करते हैं, सम्भव है, उसे आपने कभी देखा भी न हो। बातें, छूना आदि तो दूर की चीज़ है। वह महज़ एक उपस्थिति है, वह भी आपके भीतर। यह सिफऱ् मन में किया जाने वाला प्रेम है, जिसमें प्रेमी को नहीं जाना जाता। अभिव्यक्ति चाहे जैसे कर लें किन्तु मौजूदगी मात्र भीतर है।
मनुष्यों में ‘फीनो आमोरे’ की भूमिका पर मैं आगे के पन्नों में कुछ बात कहूँगी, लेकिन इस समय यह ज़रूर कहूँगी कि संगीत से किया जाने वाला प्रेम ‘फीनो आमोरे’ ही होता है। यह सिफऱ् आपके भीतर रहता है। संगीत को आप जैसा समझेंगे, मैं उससे अलग ही समझूँगी और आप भी मेरे समझे से अलग समझेंगे। यही इस प्रेम की विशिष्टता है कि एक ही ध्वनि को दो अलग-अलग लोग, अलग-अलग समझें और दोनों ही समझ सही हों। आप संगीत की देह को नहीं छू पाते, लेकिन वह आपकी आत्मा और देह को छूता रहता है। शोपां इसी तरह एक ‘अनुपस्थित उपस्थिति’ में आता है। बहुत बारीक स्वरों, हल्की बुनावटों, छोटे-छोटे वाॅल्ट्स और मादक नाॅक्टन्र्स में। उसे लोग पियानो का कवि कहते हैं, पियानो का नैरेटर नहीं कहते। बहुत ज़्यादा चीज़ों का इस्तेमाल नहीं करता। प्रेम भी शायद ऐसा ही होता है। बजने के लिए ज़्यादा साज़ों का प्रयोग नहीं। एक अकेली तान से ही बड़ा आॅर्केस्ट्रा खड़ा कर देता है। अकेली तान वाला आॅर्केस्ट्रा। इसी तरह कविता को भी दूरी से नहीं समझा जा सकता। उसे समझने के लिए उसके बहुत क़रीब, झुककर, निहुरकर जाना होता है। उसमें भी अकेली तान से आॅर्केस्ट्रा बनता है। शोपां के पास भी इसी तरह जाना होता है, झुककर, निहुरकर, बहुत क़रीब। जैसे किसी छोटी-पुरानी गुफा में आप खड़े होकर, अकड़कर नहीं घुस सकते। पहले शोपां आपको बुलाता है, फिर आप उसके पास जाते हैं। प्रेम, कविता और शोपां- तीनों के पास बुलावे का हुनर है। प्रेम, कविता और शोपां- तीनों एक ही गोत्र से निकले होंगे।
प्रेम ने कभी मुझे बुलाया या नहीं, मैं समझ नहीं पाई।
कविता की बुलाहटों पर मैं मुस्करा देती, पर मैं ख़ुद को शब्दकोश जैसा महसूस करती, जिसमें वाक्य बनाने का हुनर नहीं होता।
बचा शोपां, मैंने ख़ुद को उसे समर्पित कर दिया।
यह मेरा मन है। यह मेरा एकान्त है। यहाँ किसी को प्रवेश की अनुमति नहीं है।
सच कहूँ, तो मैं ख़ुद भी यहाँ तक नहीं आ पाती। मुझे हमेशा शोपां ही यहाँ तक ले आता है। वह मेरे मन की पुरातात्विक मीनारों की भूलभुलैया के कोने-कोने से परिचित टूरिस्ट गाइड है।
’
पाब्लीतो भी मुझे इसी टूरिस्ट गाइड की तरह लगता है। मुझे लगता है कि शोपां की ही तरह वह भी मेरे मन की हर गली से परिचित है, लेकिन वह इतना अन्यमनस्क है कि मेरे मन में प्रवेश नहीं करना चाहता। उसने ऐसी कोई बात नहीं कही है, ऐसी कोई हरकत नहीं की है कि मैं यह कह सकूँ कि वह मेरे मन के गलियारों को जानता है, बस, सिफऱ् उसे देखकर अपने मन से ही मैं यह बात कह रही हूँ। कई बार मेरा मन करता है कि मैं उसे शोपां का एक वाॅल्ट्स बना दूँ। मैं एक मनुष्य को संगीत के एक टुकड़े में बदल दूँ। एक ऐसा नाॅक्टर्न, जो मुझ पर उसी तरह उतरे, जैसे धरती पर धीरे-धीरे रात उतरती है।
मैंने शोपां को पहले भी कई बार सुना है, लेकिन वह सुबह ऐसी थी कि मैंने उसका नामकरण ‘द शोपां माॅर्निंग’ कर दिया। इसलिए नहीं कि उस सुबह अपने आप जागने के बजाय मुझे एक उदासी ने जगाया था। इसलिए नहीं कि उस सुबह उठते ही मैंने शोपां का वाॅल्ट्स सुना था। बल्कि इसलिए कि उस सुबह मेरे पास पाब्लीतो आया था। वह ‘ए माइनर’ में रचे किसी वाॅल्ट्स जैसा था। अगर शोपां के संगीत को किसी पुरुष की आकृति दे दी जाए, तो वह वैसा ही लगेगा, जैसा उस रोज़ पाब्लीतो लग रहा था।
जब होस्टल के वाॅचमैन ने मेरा दरवाज़ा खटखटाया, मैं अधलेटी, आँख बन्द किए, ईयरफ़ोन लगाए, अपने पुराने वाॅकमैन में शोपां का वाल्ट्स सुन रही थी और आँखें बन्द करने पर जो दुनिया मेरी आँखों के आगे खुल जाती थी, उसमें शोपां की उँगलियाँ पकड़ अपने मन की दीवारों पर बने म्यूरल्स देख रही थी।
वाॅचमैन ने बताया कि मुझसे मिलने कोई आया है। इस समय वह विजिटर्स लाउंज में प्रतीक्षा कर रहा है। मैं मुँह धोने बाथरूम में घुस गयी। मैंने एक ढीला नाइट-पायजामा और बेहद ढीली टी-शर्ट पहनी थी। मेरे बाल बिखरे हुए थे। आँखों की कोर पर नींद कीचड़ बनकर सूख गयी थी। मैं अपने रात के रूप का भग्नावशेष लग रही थी। मैंने चेहरा साफ़ किया और उसी तरह नीचे चली गयी।
पाब्लीतो को वहाँ देख मुझे क़तई हैरत नहीं हुई थी, क्योंकि मुझे पता था, उसने मेरा हाॅस्टल देख लिया है और अब वह यहाँ आया करेगा। उसका रूप देखकर मुझे थोड़ी हैरत अवश्य हुई। वह मोएनजोदड़ो की तरह दिख रहा था। एक ऐसा टीला, जिसके नीचे अनगिनत मुर्दे सो रहे हों, जिन्होंने समय के परिवर्तन और इतिहास को अपनी नींद से उपेक्षित कर दिया हो।
मैंने कैण्टीन से चाय मँगाई। हम लाउंज में किनारे के एक सोफे पर बैठ गए। मैंने कहा, ‘तुमने यक़ीन दिला दिया है कि सूरज सुबह-सुबह ही उग जाता है।’
उसने कहा, ‘बेहद मन हुआ कि तुमसे मिलूँ। मुझे अपने कमरे में ले चलो।’
मैंने कहा, ‘सुबह के समय यहाँ हलचल रहती है। लड़कियाँ दफ़्तर जाने की तैयारी करती हैं। वाॅर्डन हर जगह निगाह रख़ती है। अभी कमरे में चलना ख़तरनाक होगा।’
‘फिर कहीं बाहर चलते हैं।’ उसकी आँखें आलू की तरह सूजी हुई थीं। उसकी त्वचा तैलीय है। जैसे कि उठने के बाद उसे मुँह धोने का भी ख़्याल न रहा हो।
मैंने उसे वही इन्तज़ार करने को कहा ताकि मैं तैयार होकर आ सकूँ।
क़रीब आधे घण्टे बाद हम वहाँ से बाहर निकले, तब हम दोनों को ही अन्दाज़ा नहीं था कि हम कहाँ जाने वाले हैं। हम यूं ही सड़क पर निकल पड़े। हम दोनों चुप थे। वह मेरे साथ शोपां के वाॅल्ट्स की तरह चल रहा था। मैं उसके होने का पियानो सुन सकती थी, लेकिन उस संगीत में बोल नहीं थे। रास्ते में कई बार चलते हुए उसने मेरी हथेली पकड़ ली। मुझे वे स्पर्श बेहद सुकूनदेह लगे। मैंने चलते-चलते आँखें बन्द कर लीं। चेहरा ऊपर कर लिया। ऊपर आसमान में मेरे जीवन का निर्देशक खड़ा था। उसने स्पाॅट बाॅय को इशारा किया, जिसने मेरे सामने शूटिंग बोर्ड क्लैप किया और चिल्लाया, ‘डे वन, शाॅट वन, टेक वन!’ उसी समय मेरा निर्देशक चिल्लाया, ‘लाइट, साउण्ड, कैमरा, एक्शन!’ मैंने आँख खोल दी। मेरा शाॅट शुरू हो गया था। मुझे इस समय बातूनी बन जाना है। हर बार की तरह एक चंचल लड़की बनी रहना है। मुझे बात-बेबात इस तरह हँसना है कि मेरी हँसी देख़ते ही लोगों को यह समझ में आ जाए कि मुझे हँसना कितना अच्छा लगता है।
मैंने बग़ल में चलते पाब्लीतो के चेहरे की ओर देखा। मुझे देख़ता जान उसने भी मेरी ओर देखा। मैं भरपूर मुस्कराई। यहाँ भरपूर शब्द की वर्तनी में सिफऱ् एक बड़े ऊ की मात्रा से काम नहीं चलेगा। आठ-दस बार बड़े ऊ की मात्रा लगाई जा सके, मैं इतना भरपूर मुस्कराई थी। वह ख़ुद को मुस्कराने से रोक न सका।
वह बोला, ‘तुम कितना सुन्दर मुस्कराती हो। पत्थर के सामने खड़ी होकर मुस्करा दो, तो पत्थर भी बरबस मुस्करा उठेगा।’
क्लीशे जैसे इस वाक्य को भी मैंने तारीफ़ की तरह लिया, क्योंकि मेरी स्क्रिप्ट में यही लिखा था। मैंने उसी तरह मुस्कराते हुए आँखें बन्द कर लीं। ऊपर मेरा निर्देशक ख़ुश होता हुआ मुझे थम्स-अप कर रहा था। मेरा निर्देशक ज़रूर मुझ पर गर्व करता होगा। मैं उसकी पसन्दीदा अभिनेत्री हूँ। मेरा शाॅट ओके हो गया था, पर सीन अभी ख़त्म नहीं हुआ था।
मैंने पाब्लीतो से पूछा, ‘एक बात बताओ, तुम्हें तो मेरा नाम पता ही नहीं है, फिर हाॅस्टल में मेरे कमरे तक तुमने सन्देसा कैसे भिजवाया? ’
उसने कहा, ‘मुझे पता है न कि तुम्हारा नाम ‘मैं’ है। मैंने चैकीदार को तुम्हारा यही नाम बताया था। वह समझ गया।’
‘कैसे’
‘मैं तुम्हारे हाॅस्टल के दरवाज़े पर आया। झाँककर देखा, तो वही रात वाला चैकीदार ड्यूटी पर था। मैं अन्दर घुसा। उसे देखकर मुस्कराया और बोला, मैं...। मेरा वाक्य पूरा होता, उससे पहले ही उसने पूछ लिया, अच्छा, आप हैं? मैडम से मिलना है? मैंने कहा, हाँ । ज़ाहिर है, उसने मुझे पहचान लिया था। अदा से मुस्कराने लगा। मुझे लाउंज में बिठाया और थोड़ी देर में तुम प्रकट हो गईं।’
‘ओहो! स्मार्टी पैंट्स!’
‘स्मार्टी नहीं, बस संयोग है। ‘मैं’ सुनते ही वह समझ गया। तो मैंने ‘मैं’ कहकर तुम्हारा नाम ही तो लिया।’ यह कहकर वह हँसने लगा। बोला, ‘क्या है न, अधूरे वाक्य बेहद कारगर होते हैं। उनमें सम्भावनाओं के अनन्त परागकण होते हैं।’
मैं उसकी तरक़ीब पर हँस पड़ी। मुझे हँसता देख उसे कैसी तो भी ख़ुशी महसूस होती है। जैसे उसने कभी किसी को हँसते हुए न देखा हो। या मुझ-सी उन्मुक्त हँसी उसे ख़ुद के लिए बेहद पराई लगती हो।
मैंने पूछा, ‘लगता है, जैसे जागने के बाद मुँह भी नहीं धोया तुमने?’
उसने कहा, ‘जागने की बात बेमानी है। मैं रात-भर सोया नहीं हूँ।’
‘क्यों? क्या हो गया नींद नहीं आई?’
‘नहीं! मैं घर ही नहीं गया।’
उसने रुक-रुककर बोलना शुरू किया। मुझे श्रोता बनने का अभिनय नहीं करना होता, मैं मूलतः वही हूँ। इसलिए अपने सहज रूप में आकर मैं उसकी बातें सुनने लगी। मैंने उसे बीच में कहीं नहीं टोका। जब उसकी मजऱ्ी हुई, वह बोला। जब उसकी मजऱ्ी हुई, उसने विराम ले लिया। हालाँकि बीच में कई बार मैंने उसका हाथ पकड़ा, उसके कन्धे पर हाथ रखा, उसकी कमर में हाथ डाल दिया। मैंने संकल्प कर लिया था कि इसे बोलने दूँगी, बीच में नहीं टोकूँगी।
‘मैं रात-भर सोया नहीं हूँ। मैं घर ही नहीं गया। मेरा मन ही नहीं हुआ। दिन-भर मैं यहाँ-वहाँ भटकता रहा। मैं एशियाटिक लाइब्रेरी की सीढि़यों पर जाकर बैठ गया, जैसे कान्ता इस्ताले की प्रतीक्षा में बूढ़ा बोर्गेसकर बैठा रहता था। वहाँ से मैं पीपुल्स बुक हाउस चला गया। वहाँ नई पत्रिकाएँ और किताबें पलटता रहा। वहाँ से मैंने ओक्तावियो पास की ‘सेलेक्टेड पोएम्स ली।’ इण्डस इन्क वाला सस्ता एडीशन। मैं पास की वे कविताएँ पढ़ने लगा, जो उन्होंने भारत पर लिखी हैं। पर मुझे कुछ समझ नहीं आया। मैं ऐसे ही किताब पलटने लगा। कुछ छोटी कविताएँ मेरी समझ में आईं और मुझे बहुत अच्छी लगीं। मुझे महसूस हुआ कि इस समय मेरा दिमाग़ जटिलताओं को समझने की स्थिति में नहीं है। ऐसा शायद इसलिए हो कि मैं ख़ुद किसी जटिलता का सुलेख हूँ। मेरा मन वहाँ भी नहीं लगा।
‘पीपुल्स बुक हाउस के सामने चाय की एक दुकान है। वहाँ गिलास-वाटी में चाय देते हैं। पहले गिलास में चाय भरी जाती है। फिर छोटी-सी कटोरी से उसे ढँक दिया जाता है। कटोरी उस गिलास का ढक्कन बन जाती है। फिर बहुत तेज़ी के साथ गिलास को उल्टा कर दिया जाता है। इससे ऐसा निर्वात बनता है कि दोनों आपस में चिपक जाते हैं। कटोरी के भीतर गिलास उल्टा खड़ा रहता है, फिर भी कटोरी के भीतर एक बूँद चाय तक नहीं गिरती। इससे चाय देर तक गरम रहती है। पहली बार जब मैंने उसे देखा था, तो लगा था कि इसके भीतर किसी कि़स्म की सब्ज़ी है। अमूमन, उस चाय का स्वाद मुझे बहुत भाता है, पर कल मुझे लगा, जैसे चायवाले ने मुझे काॅक्रोच का सूप पीने के लिए दे दिया है।
‘वहाँ से उठकर मैं नरीमन पाॅइण्ट चला गया। मुझे वह जगह हर स्थिति में अच्छी लगती है। मैं फुटपाथ पर चलता हुआ एकदम आखि़री छोर पर पहुँच गया। उसके आगे रेत है। चट्टानें हैं। पानी है। लहरें हैं, लेकिन सब लोग कहते हैं कि वहाँ कुछ नहीं है। मैं कुछ नहीं के किनारे खड़ा हो गया। वहाँ रेत पर कुछ कबूतर दाना चुगने उतरते थे। मुझे ओक्तावियो पास की वे पंक्तियाँ याद आ गईं। मैं तुम्हें स्मृति से सुनाता हूँ-
रेत पर चिडि़याँ
अपने उतरने से
हवा का संस्मरण लिख रही थीं।
‘मुझे वे पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं। मैंने नरीमन पाॅइण्ट पर पहले भी बहुत समय गुज़ारा है। वहाँ नमकीन हवा आपके कपड़ों के भीतर घुसकर आपको गुदगुदाती है। जब आप उस जगह से दूर चले जाते हैं, तो आपकी देह पर एक खोई हुई-सी गुदगुदी उभर आती है। वह गुदगुदी उसी नमकीन हवा का संस्मरण होती है। मैं वहाँ बैठ थोड़ी देर पढ़ने की कोशिश करने लगा। पास के ही शब्दों का प्रयोग कर मैं तुम्हें बताऊँ, ‘मैं बेहद बेकार और ऊसर कि़स्म का समय’ गुज़ार रहा था। मैं जाने किन चीज़ों से भाग जाना चाहता था। मुझे महसूस होता कि मेरे दिल के भीतर सौ मीटर फर्राटा दौड़ चल रही है। वह किसी भी बिन्दु पर समाप्त नहीं होती। ऐसा लगता है, जैसे मेरे दिल के भीतर दौड़ रहे सभी धावक, मेरा दिल तोड़कर बाहर निकल आने को आतुर हों। दौड़ने के लिए मेरे दिल का मैदान छोटा पड़ रहा हो। मेरे भीतर विचारों का दंगा हो रहा था। भीतर एक बड़ा-सा जलाशय था। मेरे विचार उसमें से पानी पीना चाहते थे। वे सब पानी पीने के लिए लड़ रहे थे। अचानक एक बहुत बड़ा क्षण पैदा हुआ, विशालकाय क्षण। मैंने अब तक जितना जीवन जिया है, उसमें इतना बड़ा क्षण कभी नहीं दिखा। मैं उस क्षण के भीतर घुसा और पाया कि मैं अपना नाम भूल गया हूँ। उस क्षण की गोलाई में मैं भटक रहा हूँ और मुझे बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिल रहा। मैं वहाँ ख़ुद को अ-जन्म लेता पाता हूँ। नहीं, जन्म लेते हुए नहीं, अ-जन्म लेते हुए। नहीं, उसे मृत्यु नहीं कहना चाहिए। मैं मर नहीं रहा था, बल्कि अ-जन्म ले रहा था। मैं जिस तरह कोख से बाहर निकला था, उसी तरह धीरे-धीरे कोख में वापस प्रविष्ट हो रहा था। मैं उतना ही छोटा शिशु था। मेरे जन्म लेने की क्रिया उल्टी चल रही थी। वह मेरा अ-जन्म लेना था।’
इतना बोलकर वह थोड़ी देर के लिए रुका। उसने जेब से सिक्का निकाला और बिना कुछ बोले पान-टपरी की तरफ़ बढ़ गया। उसने वहाँ से सिगरेट ख़रीदी। लौटते हुए उसने एक सुलगा ली। हम चलते-चलते समन्दर के किनारे पहुँच गए थे। यही सड़क आगे चलकर नरीमन पाॅइण्ट बन जाएगी। मैंने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया। वह चलते हुए बोलने लगा,
‘वहाँ से उठकर मैं फ्लोरा फाउण्टेन आ गया। मुझे वह मूर्ति बहुत सुन्दर लगती है। मेरी एक दोस्त ने मुझे उसकी कहानी बताई थी। तब से मैं जब भी उस मूर्ति के पास से गुज़रता हूँ, मैं उस दोस्त को याद करता हूँ। उसे याद कर कल मुझे बहुत रोना आया। मुझे लगा, मेरा रोना एक समन्दर है। मैं अपने रुदन के किनारे खड़ा हूँ। जिस तरह लहरें दौड़कर आपकी तरफ़ आती हैं, लेकिन आप तक पहुँचने से पहले ही ख़त्म हो जाती हैं, उसी तरह मेरा रुदन भी मुझ तक दौड़कर आता है, लेकिन मेरे पास पहुँचने से पहले ही ख़त्म हो जाता है। जिस तरह लहरें अन्ततः झाग में बदल जाती हैं, उसी तरह मेरा रुदन भी फुसफुसे झाग में बदल जाता है। हम दोनों के बीच रेत का एक लम्बा किनारा है। मैं अपने रुदन की झाग और अ-रुदन की रेत के बीच एक अनजानी-सी जगह पर चलता हूँ, जहाँ बहुत पुरानी एक दोस्त के क़दमों के निशान हैं। मैं उन निशानों को गिनना चाहता हूँ, लेकिन मैं पाता हूँ कि मुझे गिनती नहीं आती। बहुत साफ़ है कि मेरे रुदन की झाग और अ-रुदन की रेत के बीच की उस अनजानी जगह में मुझसे पहले ही एक लड़की चल चुकी है, इसीलिए वहाँ उसके पैरों के निशान हैं। मैं रोने की कोशिश में बुरी तरह नाकाम होता हूँ और वहाँ से चल देता हूँ। लगता है, जड़ता और गति के बीच मैं अनजान पदार्थों का रंगमंच बन गया हूँ।’
मुझे लगा कि पाब्लीतो रोना रोक रहा है। मैंने उसके चेहरे को ध्यान से देखा। वहाँ पुराने साधुओं की तरह उदासीनता थी। माहिर कि़स्सागो की तरह भावहीनता थी। उसकी आँखों के भीतर कुछ नहीं था। वे उबले हुए आलू की तरह लग रही थीं। उनमें लाल रंग के रेशे ज्यामिति खेल रहे थे। मैंने चलते हुए उसके कन्धे पर हाथ रख दिए। उसे ज़रूर अच्छा लगा होगा। कुछ क़दम चलने के बाद उसने फिर बोलना शुरू किया।
‘उसके बाद मैं अपनी एक दोस्त के काॅलेज चला गया। वह वहाँ पढ़ाती है। मैं उससे मिलना चाहता था, लेकिन वहाँ मुुझे पता चला कि वह एक महीने की छुट्टी पर है। मैं वहीं कैम्पस में टहलता रहा। अगर किसी के साथ, अतीत में, कहीं थोड़ा समय गुज़ारा हो और बाद में वहाँ अकेले जाया जाए, तो उस शख्स की उपस्थिति हमें वहाँ महसूस होती रहती है। मैं वहाँ लाइब्रेरी के सामने लोहे की एक बेंच पर देर तक बैठा रहा। मुझे बार-बार लगता कि मेरी दोस्त वहाँ मेरे क़रीब बैठी है। मैं देखने की कोशिश करता, वह ग़ायब हो जाती। इस तरह मैं वहाँ एक भ्रान्ति की बग़ल में बैठा था। फिर वहाँ से उठकर मैं वीटी स्टेशन आ गया। वहाँ लोग ही लोग, मार तमाम लोग थे। उस समय स्टेशन देखकर ऐसा लगा, जैसे पूरी दुनिया ही रेलवे स्टेशन पर रहने के लिए आ गयी है। हर तरफ़ लोग। मुम्बई में एक ही चीज़ इफ़रात में दिख़ती है। वह है- लोग। मुझे इस शहर से प्यार है, लेकिन कई बार हम जिससे प्यार करते हैं, उससे डर जाते हैं। इसी तरह मैं भी इस शहर से डर जाता हूँ। यहाँ हर बढ़े क़दम के साथ यह अहसास होता है कि पिछले क़दम के साथ हमने अपना बहुत कुछ छोड़ दिया। इस तरह इस शहर में जितने भी क़दम चलो, हर पल अपने भीतर का कुछ छूट जाता महसूस होता है। मैं अब तक इस शहर में करोड़ों क़दम चल चुका हूँ और करोड़ों बार अपने भीतर से कुछ ख़ाली होता महसूस कर चुका हूँ। मेरी समझ में नहीं आता कि मेरे भीतर कितना भरा हुआ है कि इतना ख़ाली होने के बाद भी मैं कभी पूरी तरह ख़ाली नहीं हो पाता। मुम्बई की तबियत है कि यह आपको कभी पूरी तरह नहीं भरती, कभी पूरी तरह ख़ाली नहीं होने देती। आप जहाँ भी खड़े हो जाएँ, हर समय आपके आगे कुछ लोग होते हैं, हर समय आपके पीछे भी कुछ लोग होते हैं। आपको हर समय लगता है कि आप अकेले हैं, लेकिन आप किसी भी समय अकेले नहीं होते। ऐसे में मुझे बूढ़े बोर्गेसकर की बातें याद आती हैं। वह कहता है कि हम अपने जीवन के किसी भी पल अकेले नहीं होते। जब दैहिक उपस्थितियाँ हमारे आसपास नहीं होतीं, तो भी स्मृति की उपस्थितियाँ हमारे अकेलेपन को ख़त्म कर देती हैं। जब तक व्यक्ति के पास स्मृति है, तब तक वह कभी अकेला नहीं हो सकता। मुम्बई में ऐसा लगता है, जैसे आसपास इन्सानों की भीड़ नहीं है, बल्कि मनुष्य के आकार में आपकी स्मृति आपके चारों ओर चल रही है। मुम्बई की जनसंख्या एक व्यक्ति की स्मृति है। लोग, लोग नहीं हैं, बल्कि स्मृतियों के पेड़ हैं। बीत गए के मक़बरे हैं। मैं वहीं वीटी पर बैठ गया। मैं बहुत ग़ौर से लोगों को देख रहा था। कोई किसी के साथ नहीं था। सब अपने में थे। अपने अकेलेपन में थे। कोई चीज़ सबसे सुलभ थी, तो वह अकेलापन था। फिर भी कोई चीज़ अगर सबसे दुर्लभ थी, तो वह एकान्त था। अकेलेपन के बाद भी कहीं कोई एकान्त नहीं। तुम्हें हँसी आएगी, पर एक कि़स्सा बताता हूँ। कल ही मेरे साथ घटित हुआ। वीटी पर ही अचानक मुझे हाज़त महसूस हुई। मैं स्टेशन के परिसर में ही बने सार्वजनिक शौचालय में चला गया। तुम समझ सकती हो, शौचालय में तो अवश्य ही एकान्तवास होता है। उतनी देर के लिए आप सभी से दूर हो जाते हैं। अपने आप में खो सकते हैं। लेकिन मुम्बई आपको शौचालय में भी अकेले नहीं रहने देती। जैसे ही मैं अन्दर घुसने को हुआ, वहाँ खड़े कर्मचारी ने कहा, ‘टाइम मत लगाना, जल्दी आना।’ यह ताक़ीद ही एकान्त के खिलाफ़ सबसे पहला दबाव थी। मैंने अभी बैठकर सिगरेट सुलगाई ही थी कि दरवाज़े पर पहली दस्तक हुई। मैंने उस ओर ध्यान नहीं दिया और ज़ोर लगाने लगा। मुझे एक-चैथाई राहत भी नहीं मिली थी, तब तक दूसरी दस्तक हुई। इस बार उसके साथ आवाज़ भी आई- ‘जल्दी करो।’ मैंने अपना ध्यान भंग नहीं होने दिया। मैं अभी और होने की प्रतीक्षा ही कर रहा था कि तीसरी बार दरवाज़ा ज़ोर से भड़भड़ाया। इस बार बाहर से तेज़ आवाज़ आई- ‘अबे, सो गया क्या?’ समझ सकती हो, आप पाॅटी गिरने का इन्तज़ार कर रहे हों और कोई आपके सिर पर सवार हो जाए, तो गिरती हुई पाॅटी भी बीच में ही रुक जाएगी। फिर भी मैंने उन आवाज़ों को उपेक्षित किया और अपनी क्रिया में लगा रहा। चैथी बार तो लगा, जैसे दरवाज़ा ही तोड़ डाला जाएगा। इतनी ज़ोर से भड़-भड़, भड़-भड़। हारकर मैं बाहर आ गया। मैंने देखा, इतनी देर में मेरे केबिन के बाहर क़रीब दस लोगों की लाइन लग चुकी थी। ज़ाहिर है, वे सब पेट के दबाव को झेल रहे थे और जल्दी मचा रहे थे। मुम्बई में साला हगना भी है, तो दौड़-दौड़ के हगो। इत्मीनान से एकान्त में हगना तो जैसे प्रागैतिहासिक सुख है।’
कहकर वह हँसने लगा। बेचैन कबूतरों की तरह यहाँ-वहाँ देखते हुए।
मुझे इस समय कोई अभिनय नहीं करना था। मुझे उसकी बातों पर कोई हँसी नहीं आई। वह अगर अपने हमउम्र लड़कों के बीच ये कि़स्से सुनाता, तो वे देर तक हँसते। बाद के दिनों में इसे बार-बार दोहराते, फिर-फिर हँसते, लेकिन मुम्बई के लिए ये सब बेहद सामान्य चीज़ें थीं। उल्टे, मुझे अफ़सोस हुआ कि मैं इतनी देर से इसका एक-एक शब्द ध्यान से सुन रही हूँ, बिना कोई अभिनय किए, उसके बाद भी यह अपनी आत्मा का आवरण उतरने नहीं दे रहा। मुझे पता है कि यह किन्हीं बातों से बेहद परेशान है, रात-भर सोया नहीं है, सड़कों पर भटकता रहा है, लेकिन यह उन बातों को बता नहीं पा रहा। ये जो कुछ बोल रहा है, उसकी बेचैनी और परेशानी का छलावरण है। इसके भीतर उतनी ही उथलपुथल है, जितनी कि मुम्बई में भीड़। इसके भीतर उतना ही अकेलापन है, जितना वीटी स्टेशन पर बैठे लोग। यह अपने भीतर भी एकान्त की तलाश नहीं कर पा रहा है, इसलिए मुम्बई में एकान्त न मिल पाने को कोस रहा है।
मैं बहुत प्यार से उससे कहना चाहती थी, ‘पाब्लीतो, मेरी सुबह शोपां को सुनने से हुई है। अपने संगीत में वह कभी मुद्दे पर नहीं आता, बल्कि मुद्दों की परिधि पर ही भटकता रहता है। यह सुनने वाले का हुनर है कि वह कैसे परिधि पर भटक रही किसी ध्वनि को सुन, केन्द्र में विद्यमान पीड़ा को महसूस कर ले। सुनो पाब्लीतो, शहरों में उतनी अट्टालिकाएँ नहीं होतीं, जितनी मन के भीतर। रेगिस्तानों में उतना निर्जन नहीं होता, जितना मन के भीतर। मैं शोपां की उँगलियाँ पकड़ मन की भूलभुलैया में पर्यटन करती हूँ। मुझे इस तरह मत घुमाओ।’
पर मैंने उससे यह सब नहीं कहा।
मैंने कहा, ‘तुम मुम्बई में ही पले-बढ़े हो। ये सब तो रोज़ की बातें हैं, पाब्लीतो। इनसे इतना परेशान होने की क्या ज़रूरत है? ’
जैसे मैंने उसके चलते हुए पहिए के सामने ईंटा रख दिया। उसने भर्राया हुआ ब्रेक लगाया और बोला,
‘मैं ख़ुद भी ख़ुद के लिए रोज़ की बात हूँ। उसके बाद भी कई बार मैं ख़ुद को अजनबी महसूस करता हूँ। कई बार मुझे लगता है कि यह मेरी देह नहीं, किसी पराए आदमी की देह है कि मैं जो बोल रहा हूँ, वह मैं नहीं, कोई बिल्कुल बेगाना बोल रहा है, कि कई-कई बार तो मुझे अपनी मातृभाषा भी समझ में नहीं आती।’
जैसे कि वह बोल नहीं रहा था, उसकी वाणी करुणा की कराह थी। वह याचना कर रही थी कि वह जितना बोल रहा है, उसे उससे ज़्यादा समझने का अपराध न किया जाए।
कई बार, हम जितना बोलते हैं, उससे कम समझे जाने की अपेक्षा करते हैं। अगर कोई हमारे बोले हुए से ज़्यादा समझ ले, तो अचानक हम खु़द को वैसा ही पाते हैं, जैसे सरेराह नग्न हो गया व्यक्ति।
कई बार हमारी बेसिर-पैर की ऊटपटांग बातें उन चीथड़ों की तरह होती हैं, जिनसे अपना बदन ढाँपना एक निहायत कारुणिक विवशता होती है।
मुझे दुख हुआ। मैंने शुरुआत में ही संकल्प किया था कि मैं उसे बोलने दूँगी। एक बार भी टोकूंगी नहीं। वह बोल-बोलकर ख़ाली हो जाना चाहता है। पानी से भरे पुष्कर बादलों की तरह वह इस तरह बरसना चाहता है कि उसके पीछे उसके क़दमों के निशान न छूटें, बल्कि उसकी बातों का जल भँवराए।
उस दिन मुझे पहली बार यह भान हुआ कि निर्देशक सिफऱ् मेरे जीवन में ही नहीं है। हर व्यक्ति के पास अपना एक निर्देशक होता है। समय आते ही वह निर्देशक ‘एक्शन’ कहता है। वह व्यक्ति उस समय अपना शाॅट देने लगता है।
बिना अभिनय के कोई जीवन नहीं जिया जाता।
मेरा निर्देशक मुझ पर बहुत गर्व करता है। पाब्लीतो का निर्देशक उससे निराश होता होगा। उससे हर सीन का रीटेक करवाना चाहता होगा।
जो जीवन में अभिनय कर रहा हो, उसे यह अहसास दिलाना कि तुम ख़राब अभिनय कर रहे, उतना ही बुरा है, जितना उसकी हत्या करना।
अपना ज़ख्म छिपाने के हर व्यक्ति के अधिकार का सम्मान करना चाहिए। उस समय उसके अभिनय की समीक्षा नहीं करनी चाहिए।
कच्ची रोटियाँ भी हम कई बार ख़ुशी-ख़ुशी खाते हैं।
देर तक की ख़ामोशी के बाद उसने कहा, ‘मैं इस तरह भटकता रहा कि मेरी आखि़री ट्रेन मिस हो गयी। मैंने देखा, इस काम में भी मैं अकेला नहीं था। मेरे जैसे सैकड़ों लोग थे, जिनसे आखि़री ट्रेन मिस हो गयी थी। वहाँ कितने सारे लोग थे, जिन्हें अपनी ट्रेन का समय पता था। उन्होंने ट्रेन मिस नहीं की थी, बल्कि वे जानबूझकर जल्दी स्टेशन आ गए थे। किसी की ट्रेन सुबह आठ बजे थी, किसी की नौ बजे। फिर भी वे रात से ही स्टेशन पर बैठे थे। उन्हें बहुत दूर जाना था। कितने सारे लोग ऐसे थे, जिनके पास जाने के लिए कोई जगह नहीं थी। वे सभी स्टेशन चले आए थे। ये सारे लोग एक-दूसरे में मिक्स हो गए थे। अब यह पता लगाना असम्भव था कि किसकी ट्रेन छूट गयी है और कौन जानबूझकर जल्दी आ गया है।’
उसने एक और सिगरेट जला ली और बहुत गहरी साँस लेकर बोला, ‘जीवन ऐसा ही है। सारे लोग आपस में मिक्स हो जाते हैं। आपको पता नहीं चलता कि कौन आपके साथ चलेगा, कौन बीच में ही छूट जाएगा। जीवन ऐसा ही है। सारे विचार, सारी अनुभूतियाँ आपस में मिक्स हो जाती हैं। आपको पता नहीं चलता कि किन विचारों को बचाए रखना है, किन विचारों को झटककर दूर फेंक देना है। जीवन को सलीक़े से जीना हो, तो आपको चुनने का नहीं, छोड़ने का हुनर आना चाहिए। जीवन छोड़ने की कला है। आर्ट आॅफ लीविंग।’
मैंने देखा, उसके होंठ काँप रहे थे। वह मेरी ओर देखने से बच रहा था। उबले हुए आलू जैसी उसकी आँखें पानी का संस्मरण लिख रही थीं। उसकी आँखों से एक रात रिक्त हो रही थी। उस रिक्तता में समय का एक पल प्रकाशित हो रहा था। वह वही विशालकाय पल रहा होगा, जिसमें वह अपना नाम भूल गया था। अगर वह मेरी ओर देख लेता, तो शायद उस पल में फिर से प्रवेश कर जाता। जहाँ उसके रुदन के झाग और अ-रुदन की रेत के बीच एक अनजानी-सी जगह है, जहाँ उससे पहले कोई लड़की चलकर गुज़री थी।
पाब्लीतो कवि था। दुनिया के सारे कवि किसी स्त्री के रुदन के पदचिन्ह पर चलने को अभिशप्त होते हैं। वे जब भी रोना चाहते हैं, पाते हैं कि उनसे पहले एक स्त्री रो चुकी है।
मैंने बीच सड़क उसे गले से लगा लिया। बेहद काँपती हुई-सी आवाज़ में वह बोला, ‘मैं अब और बातें नहीं बना सकता। सौ बात की एक बात। मैं बेहद अकेला हूँ। मैं नाम वाली ओह! लड़की, मैं बेहद उदास हूँ।’
’
सड़क पर अपने रोज़मर्रा के रोज़गार में व्यस्त लोगों के पास इतनी फुरसत आ गयी थी कि वे हमें देखने लग जाएँ। मुम्बई कितनी भी बड़ी हो गयी हो, आज भी मुम्बई की सड़क पर अगर एक लड़की, किसी लड़के को गले से लगाती है, तो सारे लोग अपना काम छोड़ उन्हें देखने लग जाते हैं। उनमें से कई प्रेम के ऐसे सार्वजनिक प्रदर्शन को नापसन्द करते हैं और धीमे-धीमे गालियाँ बुदबुदाते हैं। मैंने पाब्लीतो को जिस आवेग से गले लगाया था और उसने जिस काँपती हुई-सी आवाज़ में मेरे कानों में आखि़री शब्द कहे थे, उनका असर यह हुआ कि मैं तुरन्त उसे चूम लेना चाहती थी। मुझे यक़ीन है कि उस समय वह भी चूम लेने की इच्छा से भरा हुआ था।
चूमना निहायत व्यक्तिगत कृत्य है। सड़कें हमें एक सार्वजनिक दृश्य बनाती हैं।
होंठों के लैण्डस्केप में मेरी इच्छा अंकुरित थी। मैंने बग़ल से गुज़रती टैक्सी को हाथ दिखाया। वह दस क़दम आगे जाकर रुकी। पाब्लीतो के साथ उसमें बैठते हुए मैंने कहा, ‘फोर्ट चलो।’
वहाँ के कई होटल वाले मुझे जानते हैं। मैंने एक पसन्दीदा कमरा लिया। उसकी खिड़की से दूर-दूर तक बहुत साफ़ दिख़ता है, पर जो बात मुझे सबसे अच्छी लगती है, वह यह कि वहाँ खड़े होने पर सारी सड़कें बहुत दूर दिखाई देती हैं। मैं जिस पेशे में हूँ, उसमें मैंने कई बार सड़कों को व्यक्तिगत जगहों की तरह इस्तेमाल किया है। जब भी मैं उस खिड़की पर खड़ी होती हूँ, मुझे यह आश्वस्ति होती है कि मैं अब भी व्यक्तिगत के घेरे में खड़ी होकर सार्वजनिक को दूर से देखने का शिष्टाचार पाल सकती हूँ।
पाब्लीतो ने कहा, ‘इतना पैसा खर्च करने की ज़रूरत नहीं थी। हम सड़क पर आराम से टहल सकते थे।’
अगर मेरे नाख़ून लम्बे होते, तो मैं खुरचकर उसके मुखौटे उतार देती। मैं जीवन में कुछ जगहें ऐसी चाहती हूँ, जहाँ हमारे निर्देशकों की नज़र तक न पहुँचे। कम से कम उन जगहों पर तो हम बिना अभिनय के रह सकें।
मैंने अपना पर्स और स्टोल बिस्तर पर फेंक दिया। खिड़की के पास खड़े पाब्लीतो को फिर गले लगाया। मैंने उसे चूमा। मैंने सार्वजनिक की स्मृति को व्यक्तिगत बनाकर चूमा। वह मेरे होंठों के लैण्डस्केप का इकलौता हरा पेड़ है। जिस समय वह मेरी गरदन और कन्धे चूम रहा था, मेरा होंठ उसके बाएँ कान के पास था। मैंने फुसफुसाते हुए कहा, ‘मेरा नाम ‘मैं’ नहीं है, मेरा नाम अद्वितीया है।’
उसने चूमना छोड़ मेरा चेहरा देखा। चेहरे को थोड़ा-सा दूर करते हुए बोला, ‘तुम सच में अद्वितीय हो।’
बिना कोई और शब्द कहे हम देर तक गुँथे रहे। प्यार करते रहे। हमारे पास ध्वनियां थीं, लेकिन शब्द नहीं थे। हमारी देह संगीत थी और शब्द किसी भी संगीत का विष होते हैं। शोपां के वाॅल्ट्स की तरह हमारा शरीर पहले अकड़ता, फिर लहराता, फिर बिछ जाता, फिर उसमें गतिविधि का मौन आ जाता, फिर निस्पन्दता, फिर आरोह, फिर आलिंगन, फिर आखेट। उस रोज़ हमने प्रेम नहीं किया था, हम शोपां का वाॅल्ट्स बन गए थे। हम एक उदास धुन पर आह्लाद की थाप थे। अवसाद के सरोवर से हमारे पैर गीले थे। मेरी देह के काठ से पियानो बना था। उसके अ-रुदन की रेत से उसकी उँगलियाँ बनी थीं। उसके रुदन की झाग पर हम दो आवेशित बुलबुलों की तरह चिपके हुए थे। प्रेम की महान देवी अफ्रोडाइटी समन्दर के झाग से पैदा हुई थी। उस रोज़ उस रुदन की झाग से हमारा वह विशालकाय क्षण पैदा हुआ।
हम संगीत के नोट ‘जी क्लेफ़’ की तरह हो गए थे, जिसमें ‘सी नोट’ से ‘जी नोट’ इस तरह चिपका होता है कि दोनों एक ही आकृति के दिखते हैं।
शोपां ने नाॅक्टर्न और वाॅल्ट्स नहीं लिखे थे, दरअसल उसने संगीत की लिपि में हमारी देहों का चित्रांकन किया था। जिस शीट म्यूजि़क को दुनिया शोपां का संगीत समझकर बजाती है, वह दरअसल नोट्स की शैली में हमारी देहों की लोच है। लोग जब भी शोपां को सुनेंगे, उस रोज़ का हमारा प्रेम याद करेंगे। हमारे प्रेम को ध्वनि में बदला हुआ देखेंगे।
’
मेरी बग़ल में लेटा पाब्लीतो एक थकी हुई नींद था। मैं पेट के बल लेटे स्वप्न की तरह थी। वह उस इमारत की तरह था, जो बरसों खड़े रहने की अपनी भव्यता से थक एक दिन लेटे हुए खण्डहर में तब्दील हो जाती है। मैं उसके प्रति करुणा में थी, प्रेम में या वात्सल्य में, मुझे नहीं पता, लेकिन मुझे अच्छा लग रहा था कि उसने अपना सारा ताप मेरे भीतर विगलित कर दिया। उसकी नींद से राहत की रात-रानी महक रही थी।
स्त्री की योनि दुनिया की सबसे सुरक्षित गुफ़ा है। पुरुष जब पूरी दुनिया से भाग जाना चाहता है, उस समय वह किसी स्त्री की योनि में शरण लेता है। कई बार उसे दुःख होता है कि यह योनि इतनी छोटी क्यों है कि वह सिफऱ् अपना कामाँग डाल सके; इतनी बड़ी क्यों नहीं कि वह ख़ुद पूरा का पूरा इसमें घुस जाए और हमेशा-हमेशा के लिए छिप जाए।
यह बात मैं अपने अनुभव से कह रही हूँ।
’
जब मेरी आँख खुली, तब तक सूरज डूब चुका था। पाब्लीतो अपने छोटे-से बैकपैक में कुछ खोज रहा था। उसने अभी तक कपड़े नहीं पहने थे। मैं भी अनावृत्त सोई थी। नींद में शायद मैंने पैरों से मारकर चादर गिरा दी थी। इससे एसी की ठण्डी हवा सीधे मेरी देह से टकराती रही होगी। मेरे शरीर में ठण्डा दर्द पसरा हुआ था।
मैंने पूछा, ‘क्या खोज रहे हो?’
‘ओक्तावियो पास वाली किताब।’
‘बैग में नहीं है? ’
‘लगता है, कहीं छूट गयी। रात वीटी स्टेशन पर ज़मीन पर लेटा मैं वह किताब पढ़ रहा था। मुझे याद है कि उसके बाद मैंने वह किताब अपने सिर के बग़ल रख दी थी। उसके बाद का कुछ नहीं याद। शायद मेरी बग़ल में चल रहे लोगों के पैरों से टकराकर वह किताब कहीं दूर चली गयी या किसी को पसन्द आयी और वह उठा ले गया।’
‘कोई बात नहीं। नयी ले लेना,’ मैंने पलंग से उतरते हुए कहा।
‘नयी तो वैसे भी लेनी ही थी। पता है, उस किताब में आधे से ज़्यादा पन्ने उल्टे थे। जाने बाइंडिंग में कैसी चूक हुई थी कि 180 के बाद के सारे पन्ने या तो उल्टे छपे हुए थे या फिर उल्टे बांधे गए थे।’
मैं अपनी पैंटी खोजने लगी। हमने इतने आवेग में एक-दूसरे के कपड़े उतार फेंके थे कि कमरे में वे चारों तरफ़ बिखर गए थे। मुझे वह टेबल और खिड़की के बीच की जगह में मिली।
उसने कहा, ‘सोचो, अगर किसी के जीवन में ऐसा हो, तो? आप अपना जीवन जीते जा रहे, जीते जा रहे और एक दिन आपको पता चले कि आपके जीवन का अगला पन्ना उल्टा है, तब आप क्या करेंगे? अनजिया जीवन उल्टी छपी किताब की तरह हो, तो आप उसे कैसे पढ़ेंगे? किताब की तरह जीवन को तो मोड़ा नहीं जा सकता, ख़ुद आपको ही सिर के बल खड़ा होना पड़ेगा।’
मैं अपनी ब्रा खोज रही थी। वह मेरी टी-शर्ट के अन्दर मिली।
’ ’ ’
एक बटा दोः प्रेम का सौन्दर्यशास्त्र
अ-भाषा
शब्दकोश में ऐसा कोई शब्द नहीं होता, परन्तु प्रेम की रचना शब्दकोशों के आधार पर नहीं हुई। शब्दकोश हमेशा अधूरे ही साबित होते हैं। अ-भाषा का अर्थ मौन नहीं है। शब्दों का खो जाना भी नहीं है। यह भाषा के पार है। अभिव्यक्ति के पार। यह ‘अ’ है।
1. मैं हमेशा सबसे ख़राब प्रेमी साबित हुआ, क्योंकि मैं भाषा के पार जाकर प्रेम करता था। मैं अपने चरम पर होता था, तो भाषा उस अनुभूति के आगे बेबस हो जाती थी। मैंने जिनसे प्रेम किया, वे भाषा के भीतर रहती थीं। वे शब्दों की भाषा, देह की भाषा, अंगों की भाषा बख़ूबी समझती थीं। मैं जब तक भाषा के भीतर रहता, हर तरह की भाषा के भीतर, वे मुझे एक पल को न छोड़ती थीं।
मैंने अपनी बातों से उन्हें प्रेम किया। यह शब्दों की भाषा के भीतर प्रेम था।
मैंने उन्हें छुआ, चूमा, हँसाया, रुलाया और चुप भी कराया। यह स्पर्श की भाषा के भीतर प्रेम था।
मैं चुपचाप बैठा उन्हें देख़ता, मुस्कराता रहता। मेरी निगाह उनके कपड़े बन जाती थी और फिर मेरी निगाह ही उनके कपड़े उतारकर उनकी त्वचा बन जाती थी। वे शर्मातीं, मुस्करातीं। यह मौन की भाषा के भीतर प्रेम था।
मैं उन्हें चूमता, उन्हें सहलाता, उनके स्तनों को झिंझोड़ता, मसलता, उनके निप्पल्स को अपने दाँतों के बीच दबा काट लेता, वे लहरा जातीं, उनकी नाभि के पास अपने लिंग के गीलेपन से अपना नाम लिख़ता, पैलेट पर रंग लेकर उनके नितम्बों पर ऊँचे पहाड़ बनाता और मोबाइल कैमरे से तस्वीर लेकर उन्हें दिखाता, उनकी योनि को अपने प्रहार की स्मृतियों से भर देता। वे प्रेम महसूस करतीं और समर्पण के सुख में कुछ क्षणों का वैराग्य पा लेती थीं। यह देह की भाषा के भीतर प्रेम था।
यह सब भाषा के भीतर किया गया मेरा प्रेम था। एक दिन मुझे इससे पार चले जाना था। भाषा के पार आप नितान्त अकेले हो जाते हैं। अ-भाषा असम्भव अभिव्यक्ति है। न मैं शब्दों से कह सकता, न भावों से, न मुद्रा से, न अंगों से। मैं कुछ नहीं कह सकता था। मैं अपने भीतर यह सब महसूस करता हूँ, ऐसा कहना भी अ-भाषा को भाषा को तब्दील करना है। यह एक ऐसी अनुभूति है, जिसका भान आपकी आँखों से भी नहीं लगता। यह बेबसी का आलम है।
मेरी भाषा उन तक पहुँचती थी। मेरी अ-भाषा नहीं पहुँच पाती थी। इस तरह मेरा पहुँचा हुआ प्रेम एक दिन मेरे अ-पहुँचे प्रेम में बदल जाता। वे सोचतीं, इसने प्रेम करना बन्द कर दिया है। मैं सोचता, ये क्यों नहीं मेरी उँगली पकड़ भाषा के इस किनारे आ जातीं। एक दिन उन्होंने मान लिया कि इसने शायद किसी और से प्रेम कर लिया है। एक दिन मैंने मान लिया कि वे मुझसे कम, मेरी भाषा से ज़्यादा प्रेम करती थीं। प्रेम की मेरी विभिन्न अभिव्यक्तियों से प्रेम करती थीं। या उनमें अपना इच्छित प्रेम खोज लेती थीं। यानी मैं ख़ुद एक भाषा था उनके लिए। प्रेम को अभिव्यक्त कर देने वाली कई भाषाओं की एक समुच्चय-भाषा।
वे जुनून की भाषा समझती थीं। वे पागलपन की भाषा समझती थीं। वे सब ये चाहती थीं कि उनका प्रेमी उन्हें इस क़दर प्रेम करे कि वे प्रेम के स्वर्गिक अहसास से भर जाएँ। वह ख़ुद उन्माद और जुनून की मीनार बन जाए। यह सारा जुनून उन्हें किसी न किसी तरह की भाषा में ही दिख़ता था। असल में, प्रेम को अभिव्यक्ति की इतनी आवश्यकता नहीं होती, जितनी जुनून को। वे मेरे प्रेम से प्रेम न कर रही होतीं, बल्कि उसे अभिव्यक्त करने के मेरे जुनूनी तरीक़ों से प्रेम कर रही होतीं। अभिव्यक्ति के वे तरीक़े उन्हें एक अद्वितीय आत्मविश्वास से भर देते थे कि वे इतनी खास हैं कि उन्हें कोई इस क़दर मरते हुए भी प्रेम कर सकता है।
अगर अभिव्यक्ति बन्द हो जाए, प्रेम इतना संकटग्रस्त क्यों हो जाता है?
भाषा के भीतर की जाने वाली अभिव्यक्ति उनकी समझ में आती है, तो अ-भाषा के भीतर होने वाली अभिव्यक्ति उनकी समझ में क्यों नहीं आती? अ-भाषा उन्हें सन्देह में क्यों डाल देती है?
एक दिन वे मेरी अ-भाषा से ऊब गयीं।
एक दिन वे मुझसे ऊब गयीं।
ऋग्वेद 2. ऋग्वेद में प्रजापति के मुख से निकला पहला अक्षर है- अ। अपने एक अंश की आहुति अग्नि को देकर हैरान-परेशान प्रजापति खड़े हैं। उन्हें अनुभूत हो रहा है कि जिस देह के भीतर वह खड़े हैं, उसमें उनके अलावा भी कोई और है। जैसे देह कोई चादर हो। आप ओढ़कर सोये हों और आधी रात, नींद के दौरान महसूस हो कि इस चादर के भीतर आप अकेले नहीं, आपका कोई अनजान साथी भी है। वह अपने भीतर से उस साथी का आह्वान करते हैं। वह बाहर आ जाती है। वह वाक् है। वही वाक्, जो वाणी की देवी है। जिसे पिछले वर्णन में हमने एक पात्र की तरह देखा था, यहाँ वह एक स्त्री की तरह उपस्थित है। उपस्थिति का महत्व है, रूप का नहीं। वाक् की उपस्थिति ही परिवर्तनकारी है, रूप तो मात्र परिवर्तनशील है। प्रजापति को सृष्टि में मनुष्यों की रचना करनी है, उस समय तक वह अकेले ही थे। वाणी उनकी देह से बाहर निकली है। वह वाक् से संयुक्त होते हैं। इन्द्र की तरह वह भी वाक् को विभाजित करते हैं, किन्तु तीन भाग में। तब उनके मुख से पहला अक्षर निकलता है- अ। फिर क। फिर ह।
अ का अर्थ है धरती।
ह का अर्थ है आसमान।
क का अर्थ है धरती और आसमान के बीच फैला स्थान।
3. अ धरती है। अ मूल है। अ आदि है। अ अन्त है। अ ठोस है। अ हमारा आधार है। हम अ पर खड़े हो सकते हैं, ह और क पर नहीं। अ हमारा ज्ञान है। क और ह ज्ञान से उपजी हमारी कल्पना है- हमारा काल्पनिक ज्ञान, जो कि झूठ नहीं है, उसका भी अस्तित्व है, लेकिन वह उतना ठोस नहीं है, जितना अ। आसमान और वातावरण उतने ठोस नहीं हैं, जितनी धरती। अ नहीं होगा, तो ह और क भी नहीं होगा। अ बुनियादी है। अपने पैर अ पर टिकाओ, ह और क को तुम अनुभूत कर लोगे, लेकिन ह और क पर टिककर अ को पूरी तरह अनुभूत करना सम्भव नहीं। सीधा अर्थ है- तुम्हारे पैर यथार्थ में टिके रहेंगे, तभी तुम्हें स्वप्न, कल्पना आदि का सही अनुभव हो सकेगा। बहुत पुरानी एक कहानी है। जब ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की थी, तब उसने यथार्थ और स्वप्न की भी रचना की। पैदा होते ही दोनों में अपनी-अपनी श्रेष्ठता को लेकर झगड़ा शुरू हो गया। ब्रह्मा ने कहा, तुम दोनों में जो भी अपने पैर ज़मीन पर टिकाए रखकर आसमान को छू लेगा, वह श्रेष्ठ है। स्वप्न ने तुरन्त छलांग लगाई। आसमान को छू लिया, लेकिन उसके पैर ज़मीन पर टिक नहीं पाए। वह आसमान को छूकर हवा में लटकता रहा। यथार्थ ने अपने पैर ज़मीन पर टिकाये, लेकिन उसके हाथ इतने ऊँचे नहीं उठ सके कि वे आसमान को छू सकें। तो यथार्थ ज़मीन पर हाथ उठाए, उचका हुआ खड़ा रहा। दोनों अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित न कर पाए, लेकिन इससे दोनों की परस्पर निर्भरता ज़रूर प्रमाणित हो गयी। अगर ज़मीन पर खड़े-खड़े आसमान छूना है, तो तुम्हें यथार्थ और स्वप्न दोनों में निवास करना होगा, दोनों को ही अपनी अभिव्यक्ति का साधन बनाना होगा। यह बात किसी और पर लागू हो न हो, कम से कम एक प्रेमी पर यह ज़रूर लागू होती है। सिफऱ् यथार्थ में रहकर वह प्रेम नहीं कर सकता। सिफऱ् कल्पना या स्वप्न में रहकर वह प्रेम नहीं कर सकता। उसे प्रेम के लिए दोनों में रहना होगा। प्रेम को अभिव्यक्त करने के लिए (और अनुभव के लिए भी) दोनों का भरपूर सहारा लेना होगा। ऐसा प्रेमी भी करते हैं और कवि भी। इसीलिए दोनों में बन्धुत्व है इसीलिए सारे प्रेमी, भीतर से कवि होते हैं। और सारे कवि, भीतर से प्रेमी। प्रेम मुक्त छन्द में लिखी गयी कविता है। छन्द रक्षा करता है, प्रेम रक्षा नहीं करता। इसलिए प्रेम छन्दबद्ध नहीं, मुक्तछन्द है। इसीलिए मात्र संकेत से, मैं इतना कहना चाहता हूँ कि अ ही यथार्थ है। अ ही स्वप्न है।
बुद्ध-वचन 4. बौद्ध धर्म की महायान शाखा का बेहद प्रसिद्ध सूत्र है- प्रज्ञापारमिता। उसके बारे में अलग-अलग मान्यताएँ हैं। यह बौद्ध धर्म के सबसे बड़े सूत्रों में से है। एक आकलन कहता है कि अगर पूरी तिब्बती त्रिपिटिका का अनुवाद किया जाए, तो अँग्रेज़ी में मोटे-मोटे डेढ़ सौ खण्ड बनेंगे। एक नेपाली मान्यता के अनुसार प्राचीनतम समय में यह सूत्र सवा लाख श्लोकों से बना था। बाद में उसे घटाकर एक लाख श्लोकों का किया गया। फिर पच्चीस हज़ार, दस हज़ार, आठ हज़ार श्लोकों तक इसे घटाया गया। और संक्षेप करने पर यह ढाई हज़ार, फिर सात सौ, फिर तीन सौ श्लोकों तक आया। हालाँकि परम्परा में आठ हज़ार श्लोकों वाले सूत्र को ही सबसे प्राचीन माना जाता है, इसीलिए अष्टसहस्रिका प्रज्ञापारमिता सूत्र सबसे ज़्यादा चर्चित है। जो बात सवा लाख श्लोकों में कही गयी, क्या वही बात आठ हज़ार श्लोकों में भी कही जा सकती है? भारत में हर विस्तार का सार प्रस्तुत करने की परम्परा है। सात सौ श्लोकों वाली गीता का सार सप्तश्लोकी गीता में प्रस्तुत किया जाता है। वाल्मीकि की रामायण में क़रीब चैबीस हज़ार श्लोक हैं, लेकिन एकश्लोकी रामायण में किन्हीं ऋषियों ने पूरा सार लिख दिया। हम एक साथ विस्तार के भी आराधक हैं और सार के भी। हम एक की भी आराधना करते हैं और अनेक की भी। अपनी दार्शनिक परम्पराओं के भीतर हम एकान्तिक भी हैं और अनेकान्तिक भी। एक अतीत के रूप में हम दोनों के सौन्दर्य को भेदते हुए चलते हैं। यह भारत-भूमि की ऐतिहासिक आदत है। प्रज्ञापारमिता सूत्र भी विस्तार और सार की हमारी समवेत आराधना से दूर नहीं। एक तरफ़ आठ हज़ार श्लोक हैं, तो दूसरी तरफ़ एकाधरी प्रज्ञापारमिता भी है। सवा लाख श्लोकों का सार महज़ एक अक्षर में उपस्थित है। उस एकाक्षरी सूत्र के अनुसारः
बुद्धः प्रज्ञापारमितासर्वतथागतमाताएकाक्षरा सूत्र ऐसा मैंने सुना। भगवान तथागत राजगृह के गृध्रकूट पर्वत पर 1250 भिक्षुओं और अरबों बोधिसत्त्वों की सभा में बैठे थे। तब भगवान ने आनन्द से कहा, आनन्द, बोधक्षम लोगों (यानी जिनके भीतर अनुभूतियां तो हैं, किन्तु जिनकी चेतना पूर्णतः नियोजित नहीं है) के कल्याण व आनन्द के लिए इस प्रज्ञापारमिता को एक अक्षर में प्राप्त करो। वह अक्षर है- अ।
5. अ संस्कृत व हिन्दी वर्णमाला का पहला अक्षर है। वह अन्य समस्त अक्षरों व स्वरों में अन्त में विद्यमान है। हर अक्षर का अन्त अ की ध्वनि से होता है। यानी अ हर अक्षर में विद्यमान है। बौद्ध परम्परा के अनुसार, अ ही शून्यता है। अ बौद्ध धर्म के एक केन्द्रीय बुद्ध महावैरोचन का बीज है। अ ही उनकी व अन्य तमाम बुद्धों की धर्मकाया है। अ ही तमाम चैतन्यों में व्याप्त बुद्ध-धातु है। अ ही बुद्ध का स्वभाव है, जबकि बुद्ध के पास कोई स्वभाव नहीं। यही अ है। जो ‘है,’ लेकिन अपने होने में ‘नहीं’ है। जो होकर भी नहीं है और नहीं होकर भी है, वही अ है और वही बुद्ध-धातु हैः जो है, जो मिला है, उसका नकार। जो नहीं है, उसकी मदद से एक नये मार्ग का अन्वेषण। हर व्यक्ति का अ अलग है। हर व्यक्ति का नकार अलग है। हम एक सामूहिक नकार में नहीं रह सकते। हमें अपने लिए एक निजी नकार का परिष्कार करना होता है। जिस राह पर चलकर सिद्धार्थ, बुद्ध बने, उस राह पर चलकर तुम बुद्ध नहीं बन सकते, तुम्हें अपनी राह स्वयं चुननी होगी, क्योंकि तुम्हारे निजी अ की महत्ता को मात्र तुम्हीं पूरी तरह जान सकते हो। बुद्ध ने कहा, अपना दीपक स्वयं बनो। यह अ उसी आकांक्षित दीपक की ज्योति है।
अ का प्रयोग भाषा के भीतर उपसर्ग की तरह भी किया जाता है। यह एक नकारात्मक उपसर्ग है। किसी भी शब्द के आगे अ लगा दिया जाए, तो उस शब्द का अर्थ उलट जाएगा। बुद्ध ने यही किया था। उन्होंने अपने से पहले के सम्पूर्ण ज्ञान के आगे अ उपसर्ग लगा दिया और उसे अज्ञान बना दिया। उन्होंने अपने से पहले की सम्पूर्ण दृष्टि के आगे अ लगाकर उसे अ-दृष्टि कर दिया। उन्होंने वैदिक नित्य के आगे अ लगाकर उसे अनित्य कर दिया। बुद्ध अ हैं। बुद्ध अ का प्रयोग हैं। बुद्ध भाषा का पहला अक्षर हैं। बुद्ध समस्त अक्षरों में ध्वनि का आधार बनकर रहते हैं।
मुझे कई बार बुद्ध नकारात्मक लगते हैं। वह मानव-इतिहास के पहले दृष्टा हैं, जो नकार का इतना सकारात्मक वैभव रचते हैं। वह आदिविद्रोही हैं, जो नकार का अ कहकर हकार के ह को बूझ लेते हैं। वही बताते हैं कि जो है, उसके होने को नकार दो। ऐसा करने से जो छिपा हुआ है, वह उभर आएगा। वही कहते हैं कि सत्य को मत तलाशो। जो असत्य है, जो-जो असत्य है, उस सबको पहचान लो। सत्य अपने आप समझ में आ जाएगा। असत्य की मात्रा इतनी अधिक है कि लोगों को लगता है कि उसे पहचान सकना बेहद श्रमसाध्य होगा, इसीलिए बुद्ध ने अ का अर्थ बताया। जो है, वह सत्य नहीं है क्योंकि उसमें अ, बेहद आसानी से जुड़ जाएगा। सत्य वही होगा, जो इस होने के पार होगा। प्रज्ञापारमिता में सुभूति उनसे पूछता है- बोधिसत्त्व क्या पदार्थ है? वह किस धर्म का है? बुद्ध उससे कहते हैं- कोई धर्म नहीं है, वही उसका धर्म है। धर्म अविद्यमान है। इसीलिए वह अविद्या है। बोधिसत्त्व अपदार्थ है। यानी वह है ही नहीं। यानी जो कहीं नहीं है, वही सब जगह है। जो शून्य है, वही तो सर्वस्व है।
जो ख़ाली है, वही तो भरेगा। तुम ख़ुद को जितना ख़ाली करोगे, अपने भीतर उतना ज़्यादा भर सकोगे। किन्तु भरना क्यों है? आनन्द तो ख़ाली होने में है। हमेशा ही तो भरे हुए हो। सारा संकट ही इसलिए है कि भरे हुए हो। जन्म से ही भरे हुए हो। हर पल बस भरते जाते हो। अ को जानो। ख़ाली होने को जानो। जितना ख़ाली होगे, उतना हल्के होते जाओगे। अभिव्यक्ति से ख़ुद को जितना ख़ाली करोगे, अभिव्यक्ति पर तुम्हारा उतना अधिकार होता जाएगा। और अधिकार-भाव से जन्म लेने वाला गौरव तब पास भी न आएगा।
नागार्जुनः मूलमध्यमक कारिका 25ः24 6. शायद इसीलिए बुद्ध ख़ुद को अभिव्यक्ति के भाव से ख़ाली रख़ते थे। मूलमध्यमक कारिका में नागार्जुन ने बहुत स्पष्ट लिखा है, लेकिन उनका यह स्पष्ट भी एक विराट प्रतीक की तरह है। यही रचनात्मकता का अनिवार्य विरोधाभास है कि जो अत्यन्त स्पष्ट हो, वही आत्यंतिक प्रतीक भी होता है। यह हमारा चयन होता है कि हम उसे स्पष्ट रूप में लें या प्रतीक रूप में। नागार्जुन ने लिखाः बुद्ध ने न किसी धर्म का, न सिद्धान्त का, किसी को भी, कोई भी उपदेश या प्रवचन नहीं किया। जब सब ही कुछ अपदार्थ है, स्वयं बोधिसत्व भी अ-पदार्थ है, सर्वसत्व या सामान्य जन भी अ-पदार्थ है, अ-विद्यमान है, अ-निर्यात है, अ-सक्त है, अ-रूप है, अ-वेदन है, अ-संज्ञ है, अ-संस्कार है, अ-स्थित है, तो बुद्ध भी बुद्ध कैसे हैं? वह भी अ-बुद्ध हैं। वह भी नहीं हैं। वह होकर भी नहीं हैं और न होकर भी हैं। जैसे प्रज्ञापारमिता बार-बार यह कहती है कि किसी भी वस्तु या अ-वस्तु के पास अपना स्व-भाव नहीं होता। जैसे रूप, रूप-स्वभाव से विरहित है, वेदना, वेदना-स्वभाव से। मन अथवा विज्ञान (जो कि मन जैसी एक चेतना ही है), अपने स्वभाव से विरहित है, उसी तरह स्वयं प्रज्ञापारमिता भी अपने प्रज्ञापारमिता-स्वभाव से विरहित है। बोधिसत्व जिस सर्वज्ञता को प्राप्त होता है, वह सर्वज्ञता भी अपने स्वभाव से विरहित है। बोधिसत्व उसे प्राप्त कर उसमें स्वभाव का निवेश करता है, वरना स्वयं स्वभाव भी अपने स्वभाव से विरहित है। क्योंकि स्व, कहीं नहीं है। स्व, होता ही नहीं है। ठीक उसी तरह बुद्ध के पास भी अपना कोई स्व-भाव नहीं है। जब उनमें स्व-भाव नहीं है, तो वह उपदेश, प्रवचन या शिक्षा कहाँ से देंगे? और जब उन्होंने शिक्षा दी ही नहीं, तब उनके नाम से शिक्षा या प्रवचन कैसे चल पड़े? इसीलिए नागार्जुन का कथन एकदम स्पष्ट है, किन्तु इसकी स्पष्टता परिपूर्ण नहीं है। जब तक इसके प्रतीकार्थ को न जाना जाए, तब तक इसकी स्पष्टता भ्रामक रहेगी। यह कितना विचित्र किन्तु आनन्ददायक है कि एक स्पष्ट वाक्य को अपना अर्थ पूरी तरह समझाने के लिए प्रतीक का भेस धारना पड़े। जैसे किसी व्यक्ति को अपनी प्रामाणिकता स्पष्ट करने के लिए अ-प्रामाणिक होने का स्वांग करना पड़े।
लंकावतार सूत्र 7. इसे समझने के लिए हमें थोड़ा आगे-पीछे होना पड़ेगा। लंकावतार सूत्र के तृृतीय परिवर्त में कहा गया है कि जिस रात को बुद्ध ने सम्यक सम्बोधि की प्राप्ति की और जिस रात उन्होंने महापरिनिर्वाण की प्राप्ति की, उन दोनों रातों के बीच उन्होंने एक शब्द का भी उच्चारण नहीं किया। जब उन्होंने एक शब्द का भी उच्चारण नहीं किया, तो उन्होंने किसी कि़स्म का प्रवचन या देशना भी नहीं की। जब उन्होंने देशना नहीं की तो हमें उनकी शिक्षाओं, यात्राओं, चर्चाओं, प्रवचनों की इतनी कहानियां कहाँ से सुनाई पड़ गईं? क्या तथागत का मौन इतना अधिक शक्तिशाली था कि उससे उत्पन्न सम्वाद सदियों से अक्षुण्ण है? क्या यह सृष्टि का सर्वाधिक शक्तिमान मौन है? विभिन्न प्रश्नों पर बुद्ध का मौन तो हम सब ही जानते हैं, किन्तु यह तो विराटकाय मौन है- सम्बोधि की रात से लेकर मृत्यु की रात तक बुद्ध का मौन बने रहना?
तथागताचिन्त्यगुह्य सूत्र 8. वज्रपाणि ने बुद्ध के इस मौन की तुलना विंडचाइम से की है। बुद्ध के शब्द, उनकी निःशब्दता या उनका मौन- किसी विंडचाइम की तरह हवा में लटके हुए हैं। जब थोड़ी-सी तेज़ हवा चलती है, वह बज उठता है। उसे कोई व्यक्ति बजाने नहीं आता, बल्कि उसे हवा बजाती है। यह हवा कौन है? यह साधक, उपासक, प्रश्नकत्र्ता या साथी की शक्ति है। यह बुद्ध के साथ उनका एकाकार हो जाना है कि उन्हें कुछ कहने की ज़रूरत नहीं पड़ती, उन्हें कुछ पूछने की ज़रूरत नहीं पड़ती। बुद्ध के शब्द अन्ततः अ-शब्द हैं, क्योंकि हर चीज़ की तरह बुद्ध के शब्द भी अपने शब्द-स्वभाव से विरहित हैं। यह एकाकार का चरम है, क्योंकि जिस एक से तुम एकीकृत होना चाहते हो, उस एक का अपना कोई स्वभाव नहीं है और तुम्हारा भी नहीं है। तो शब्द होते हुए भी नहीं रह जाते, वे अ-शब्द बन जाते हैं। ऐसे में तुम बुद्ध को जैसा चाहो, वैसे पा लो। इस स्थिति में बुद्ध पानी की तरह है। धारण करने वाला उसे अपना आकार दे देगा। अस्थायी आकार। वक्ता या शिक्षक के रूप में बुद्ध ग़ायब हो जाते हैं, किन्तु उनके शब्द बचे रह जाते हैं। यहाँ यह बताया जा रहा है कि बुद्ध के शब्द भी ग़ायब हो गए (उन्हें इतना लम्बा विराट मौन देकर), किन्तु उनके शब्दों का अर्थ बचा रहा। जो दे रहा है और जो पा रहा है, उन दोनों के बीच दी गयी व पाई गयी चीज़ बची रही, बाकी सब गुम हो गया। शब्द गुम हो गए, अर्थ बचा रह गया। बुद्ध ने ही कहा थाः शिक्षक पर विश्वास न करो, शिक्षा पर करो। अक्षर पर विश्वास न करो, अर्थ पर करो।
9. इसी सूत्र में वज्रपाणि ने यह भी कहा है कि सम्बोधि की रात से लेकर महापरिनिर्वाण की रात के बीच बुद्ध पूरी तरह समाधिस्थ, ख़ामोश रहे थे- ‘सिफऱ् एक क्षण के लिए उन्होंने ध्वनि की। उस ध्वनि से स्वर्ण जैसा महान प्रकाश निकला, जिसने प्राणिमात्र के मानस में छाया अन्धकार मिटा दिया। जैसे कमल की पंखुडियाँ खुलती हैं, उसी तरह सम्बोधि व जागरूकता के विभिन्न आयाम खुलने लगे। जन्म व मृत्यु की नदी व समुद्र भाप बनकर आसमान में उड़ गए।’ सिफऱ् एक ध्वनि! एक विराट मौन! एक क्षणजीवी ध्वनि! क्षण-भर की ध्वनि! सारा अन्धकार मिटा देने को पर्याप्त! मैं कई बार सोचता हूँ कि वह ध्वनि क्या रही होगी? एक क्षण में सिफऱ् एक शब्द हो सकता है, एक अक्षर हो सकता है, पूरा वाक्य तो कभी नहीं हो सकता, क्योंकि भारतीय दर्शन-शास्त्र में क्षण की अवधि पश्चिम से प्राप्त सेकण्ड से भी कम होती है, इसलिए बुद्ध ने महज़ एक अक्षर का ही उच्चारण किया होगा। क्या वह अक्षर अ था? क्या इसी अ-भाषा के ज़रिए बुद्ध ने महज़ अ का उच्चारण किया, जिससे उपस्थित सभी लोगों में प्रकाश का नया संचार हुआ? सभी ने उस अ का अपनी-अपनी तरह से भाषा में रूपान्तरण किया और बड़े-बड़े ग्रन्थ बन गए और उन सभी को बुद्ध-वचन कहा गया, क्योंकि सभी के मूल में अ है? चेतना की प्रारम्भिक अवस्था एक बिन्दु ही है।
इतिहास में सबसे ज़्यादा अगर किसी ने कहा है, तो बुद्ध ने कहा है। बुद्ध के नाम इतने वचन संग्रहीत हैं कि एक पूरा पुस्तकालय भी छोटा लगे, उसे पढ़ पाने को एक पूरा जीवन भी अधूरा लगे, इतना कहा है बुद्ध ने कि कई बार अचरज होता है कि एक व्यक्ति इतना कह सकता है? इतने विविध तरह से, इतनी सारी बातें कह सकता है? एक ही जन्म में कह सकता है? वहीं, इतिहास में सबसे ज़्यादा चुप भी बुद्ध ही रहे हैं। कई प्रसिद्ध प्रश्नों के जवाब में वह चुप हो गए। उपरोक्त सूत्र तो यहाँ तक बता रहा है कि सम्बोधि की रात से लेकर मृत्यु की रात तक बुद्ध चुप ही रहे। एक ही व्यक्ति के जीवन में इतने शब्द और इतना मौन? दोनों मिलकर क्या बनाते हैं? यक़ीनन, बुद्ध की अ-भाषा की रचना करते हैं।
10. एक पुरानी बौद्ध कथा है, जिसके अनुसार बुद्ध को अपने प्रिय शिष्य आनन्द से कुछ कहने की ज़रूरत नहीं होती थी। दोनों समाधि में बैठे रहते थे और समाधि के भीतर ही उनका सम्वाद चलता रहता था। निःशब्द का सम्वाद? नहीं, इसे अ-शब्द का सम्वाद कहना चाहिए, क्योंकि निःशब्द में तो सम्वाद ही न होगा, अ-शब्द में शब्दों से पार चले जाने का बोध है, भाव है। एक समाधि से दूसरी समाधि के बीच शब्दों के पार सम्वाद। यहाँ किसी भी कि़स्म की भाषा का सहारा नहीं है, किन्तु यहाँ भी एक भाषा है। वही अ-भाषा है। कहके भी न कहना। न कहके भी कह देना। जो मैं कहना चाहता हूँ, वह मेरे कहने से पहले ही तुम्हारी समझ में आ जाए। जो तुम सुनना चाहते हो, वह तुम्हारे सुने जाने से पहले ही सुनाई पड़ जाए। अ-भाषा, भाषा के पार चले जाना है। उसके परे एक अभिव्यक्ति, जिसमें एक लम्बा मौन, सम्वाद की तरह सुनाई पड़े। मौन, मौन की तरह न हो, बल्कि सम्वाद की तरह हो। जैसे उपस्थिति का सम्वाद, अनुपस्थिति के साथ होता है, जैसे दृश्य का सम्वाद अदृश्य से होता है।
11. इस तरह मैं अ-भाषा को पाँच भागों में विभाजित कर सकता हूँः
1- यह भाषा है
2- यह भाषा नहीं है
3- यह, एक साथ, भाषा है और नहीं भी है
4- यह, एक साथ, न तो भाषा है और न तो नहीं भी है
5- यह उपरोक्त चारों में से कुछ भी नहीं है
हर चीज़ की तरह इस अ-भाषा में भी स्व-भाव या आत्म-भाव नहीं है। यह सत् है। यह असत् है। यह इन दोनों से ही परे है। चूँकि इस भाषा में कोई अक्षर नहीं है, इसलिए इसका और अधिक क्षरण या विखण्डन नहीं किया जा सकता। इसमें बोलने वाले को भी नहीं पता चलता कि उसने कुछ बोल दिया है। सुनने वाले को भी नहीं पता चलता कि उसने कुछ सुन लिया है। कही गयी बात जब सुनी गयी बात बन जाती है, तो अनायास ही अपने आप भीतर कहीं जमा हो जाती है। उसके होने का अहसास बहुत बाद में होता है।
12. एक बार एक दार्शनिक बुद्ध से बोला, ‘शब्दों के बिना व शब्दहीनता के बिना भी, क्या तुम मुझे सत्य के बारे में बता सकते हो?’ उत्तर में बुद्ध ने मौन धारण कर लिया। कुछ पलों के बाद दार्शनिक उठा, बुद्ध को प्रणाम किया और कहा, ‘तुम्हारा शुक्रिया! तुमने मुझे सच्चा रास्ता बता दिया।’ उसके जाने के बाद आनन्द ने बुद्ध से पूछा, ‘आपने उसे कौन-सा रास्ता बता दिया? आप तो मौन थे, उसे क्या समझ में आ गया? ’ बुद्ध ने उत्तर दिया, ‘अच्छा घोड़ा चाबुक की परछाईं देखकर भी दौड़ने लगता है।’
जापानी कहावत है कि अगर तुम्हें तलवार की धार पर चलना हो, तो अनुसरण के लिए तुम्हें पदचिह्नों की आवश्यकता नहीं होती। ठीक वैसा ही इस कथा में है। दार्शनिक सत्य के बारे में जानना भी चाहता है और पूछ भी रहा है। पूछे हुए सत्य को कैसे जाना जा सकता है? अगर पूछने से ही सत्य पता चल जाए, तो हर कोई पूछकर ही जान ले। अगर बता देने से ही सत्य को बताया जा सके, तो बुद्ध सभी को एक पंक्ति में बता दें और सारा झंझट ही समाप्त हो जाए। सत्य का मार्ग कभी अनुसरण का मार्ग नहीं हो सकता। वह आपका निजी मार्ग होगा। उपाय का मार्ग अनुसरण का हो सकता है। बुद्ध उपाय बताते थे, इसलिए वह संघ की शरण में आने को कहते थे, किन्तु उस संघ की शरण में जाने के बाद भी सत्य का वह मार्ग अद्वितीय और निजी ही होता था। हर अर्हत अपने विशिष्ट तरीक़े व अनुभूति के साथ अगले चरण की ओर जाता है। किन्तु यह उत्तर किस भाषा में दिया जा सकता है? बुद्ध ने मौन क्यों चुना? यदि उन्होंने मौन चुना, तो उस मौन का एक अर्थवान सम्प्रेषण कैसे हो गया? और उस अर्थवान सम्प्रेषण को बुद्ध ने रोका भी नहीं अर्थात् कहीं न कहीं उस सम्प्रेषण को बुद्ध की मान्यता भी प्राप्त है? उस क्षण धारण किया गया मौन सिफऱ् बुद्ध का मौन नहीं था, बल्कि वह उनके द्वारा अ-भाषा के भीतर धारण की गयी समाधि थी। मौन भी एक भाषा होती है, इसलिए बुद्ध के मौन को महज़ मौन नहीं माना जा सकता। वह भाषा के पार चले गए। इसलिए उनकी वाणी में शब्द नहीं आए, शब्दहीनता भी नहीं आई, वह अ-शब्द था, जो संप्रेषित हुआ। वह अ-भाषा थी, जो संप्रेषित हुई। उस दार्शनिक को क्या समझ में आया, हम कभी नहीं जान सकते, लेकिन बुद्ध ने उसे अच्छे घोड़े की उपमा से सज्जित किया। सम्भव है कि उस दार्शनिक ने जो अ-भाषा समझी हो, वह यूँ रही होः तुम सत्य के बारे में क्यों जानना चाहते हो? तुम अपना सत्य स्वयं क्यों नहीं खोजते? तुमने मार्ग नहीं पूछा, सीधे सत्य पूछ लिया? तुमने श्रम नहीं किया, सीधे पारिश्रमिक माँग लिया? तुम शब्दों के बिना सत्य जानना चाहते हो, बिना शब्दों के मैं तुम्हें कैसे बताऊँ कि वह पूरी तरह तुम्हारी समझ में आ जाए? और मैं शब्दों के साथ भी कैसे बताऊँ कि जब उसे शब्दों में व्यक्त ही नहीं किया जा सकता। दुनिया की कोई भाषा अभी तक इतनी उन्नत नहीं हो पाई है कि प्रेम और सत्य को उसमें सही-सही, पूरी तरह अभिव्यक्त किया जा सके। तुम किसी को लाख समझा लो कि प्रेम करने पर ऐसा महसूस होता है, वह नहीं जान पाएगा, तब तक जब तक कि वह ख़ुद प्रेम न कर ले। उसी तरह सत्य भी है। बताने से दोनों समझ नहीं आएँगे, अनुभव करना होगा। जिस सत्य के बारे में तुम प्रश्न कर रहे हो, वह अनुभव का विषय है। इसलिए उसे न तो शब्दों में बताया जा सकता है और न ही शब्दहीनता में, क्योंकि मैं मौन रहकर भी उसके बारे में क्या बता सकता हूँ?
सम्भव है कि उस दार्शनिक को कुछ ऐसा ही समझ आया हो, क्योंकि उसे अगर कुछ समझ नहीं आता, तो वह बुद्ध को कोसता, उन्हें स्वांगी-पाखण्डी कहता, अपने विजय का घोष करता कि बुद्ध मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाए, मैंने उन्हें चुप करा दिया और वहाँ से चला जाता। किन्तु इसके उलट वह दार्शनिक शुकराने से भरा वहाँ से सन्तुष्ट होकर लौटा। तो क्या सच में बुद्ध का मौन भी किसी प्रश्न-जिज्ञासु, उत्तर-पिपासु को सन्तुष्ट कर सकता है? नहीं, मौन से कोई सन्तुष्ट नहीं होता। यह अ-भाषा है। यह बुद्ध की निजी अ-भाषा है। कौन जाने, बुद्ध के भीतर से एक अदृश्य तरंग निकली हो और उस दार्शनिक के भीतर की किसी अदृश्य तरंग के साथ उसने मेल कर लिया हो, जिससे दार्शनिक को अपने प्रश्न का उत्तर भले न मिला हो, एक सन्तुष्टि ज़रूर मिली हो, उसी सन्तुष्टि को उसने मार्ग समझा हो, क्योंकि दार्शनिक सकारात्मक अवस्था में आया था। वह अच्छा घोड़ा था। बुद्ध ने उसे चाबुक नहीं, चाबुक की परछाईं दिखाई थी। यानी बुद्ध ने उसे मौन नहीं दिया था। अगर बुद्ध ने उसे मौन दिया होता, तो वह चाबुक की परछाईं जैसा शब्द-बन्ध कभी प्रयोग न करते। वह आनन्द के प्रश्न के उत्तर में भी मौन ही रह जाते। कुछ अलग-सा था, जो दिया था। वह अव्याख्येय है। वह भाषा में समा नहीं सकता। वह भाषा के पार है, किन्तु है और बुद्ध ने उसका भरपूर प्रयोग किया था। इसीलिए मैं उसे अ-भाषा मानता हूँ। चेतना, प्रेम, प्रज्ञा व ज्ञान का प्रवाह तथा प्रसारण इस अ-भाषा के ज़रिए भी किया जा सकता है।
13. एक बार अपने तमाम शिष्यों के सामने बुद्ध ने एक शब्दहीन प्रवचन दिया। उन्होंने किसी भी भाषा का प्रयोग नहीं किया। उन्होंने एक सफेद फूल उठाया। उसे हाथ में पकड़कर बैठ गए। किसी भी शिष्य को कुछ भी समझ में नहीं आया। सिवाय महाकाश्यप के। बुद्ध के हाथ में फूल देखकर वह मुस्करा उठे। बुद्ध ने कहा, ‘मेरे पास धर्म की आँख है, मेरे पास निर्वाण का अद्भुत हृदय है, मेरे पास अरूप का रूप है, मेरे पास सूक्ष्म धर्मद्वार है और इनमें से कुछ भी भाषा या शब्दों या अक्षरों पर अवलम्बित नहीं है। बल्कि ये सभी भाषा के पार प्रज्ञा के एक विशिष्ट प्रसारण पर अवलम्बित हैं। मैं यह चेतना महाकाश्यप को सौंपता हूँ।’
यह चेतना या प्रज्ञा का विशिष्ट प्रसारण क्या है? क्या बुद्ध ने सचमुच किसी भाषा का प्रयोग नहीं किया? चाहे, तो कोई कह सकता है कि बुद्ध ने एक सफ़ेद पुष्प का प्रयोग किया। वह अपने आप में एक प्रतीक है, एक साइन है, और साइन का प्रयोग भाषा का प्रयोग है। सम्भव है कि ऐसा कहा जा सकता है कि बुद्ध ने साइन या सांकेतिक भाषा का प्रयोग किया, किन्तु साइन का एक विशिष्ट अर्थ होता है और साइन को भाषा के रूप में हम तभी मान सकते हैं, जब उसका एक सामूहिक अर्थ प्राप्त कर लिया जाए। यदि वह साइन होता, तो हम उसके सहयोगी साइन खोजते, मसलन- पुष्प का रंग सफ़ेद ही क्यों था, लाल या नीला क्यों नहीं? बुद्ध ने उसे अपने दाएँ हाथ में थाम रखा था या बाएँ हाथ में? बुद्ध ने उसे धरती की तरफ़ किया था, या आसमान की तरफ़? हम इस तरह के कई सहयोगी संकेतों या साइन को खोज सकते हैं, लेकिन इन सबका कहीं कोई जि़क्र नहीं है, क्योंकि इन सबका कोई महत्व भी नहीं था। बुद्ध ने महज़ एक सफ़ेद पुष्प लिया था। शायद उनके क़रीब वही था। अगर लाल पुष्प होता, तो बुद्ध लाल पुष्प उठा लेते। यानी जिस समय बुद्ध ने वह सफेद पुष्प लिया था, तब तक वह साइन या भाषा नहीं था, लेकिन जैसे ही महाकाश्यप उसे देखकर मुस्करा उठे और उनके मुस्कराने को बुद्ध ने मान्यता दे दी, वैसे ही वह सफ़ेद पुष्प एक साइन या भाषा में परिणत हो गया, क्योंकि महाकाश्यप ने मुस्कराकर उस पुष्प में वह अर्थ भर दिया, जिस अर्थ को हम आज ढाई हज़ार साल से मानते आ रहे हैं और वह अर्थ है- तथता। जो तथता तक पहुँचा, वही तथागत बना। तथा$आगत का अर्थ ही यही है- जो तथता तक पहुँच गया हो। बुद्ध द्वारा उठाया गया सफ़ेद पुष्प तथता है यानी जो है, जैसा है, वह ऐसा है। इस क्षण वह ऐसा है। मैंने हाथ में पुष्प उठाया है, वह इस क्षण ऐसा है। अगले क्षण यदि मैं पुष्प को ज़मीन पर रख दूँगा, तब वह वैसा हो जाएगा यानी ज़मीन पर रखा पुष्प बन जाएगा। उसे कोई रौंद देगा, तब उस क्षण वह वैसा हो जाएगा यानी रौंदा जा चुका पुष्प बन जाएगा। समूचा ज़ेन बौद्ध-धर्म इसी तथता पर खड़ा है। इसमें क्षण की महत्ता है। वर्तमान क्षण की महत्ता। क्षणवाद के विकास में बुद्ध के उस सफ़ेद फूल और महाकाश्यप की उस मुस्कान का बहुत बड़ा योगदान है। बुद्ध का फूल अगर तथता है, तो महाकाश्यप की मुस्कान ‘प्रज्ञा का विशिष्ट प्रसारण’ है। महाकाश्यप की मुस्कान ही अ-भाषा है। प्रज्ञा का विशिष्ट प्रसारण ही अ-भाषा है। अ-भाषा भी एक प्रज्ञा है। इसमें भी पारमिता की आवश्यकता होती है। यह भाषा का निषेध है। अ लगते ही इसने भाषा को नकार दिया। भाषा के अस्तित्व से इन्कार नहीं किया, बल्कि उसे पुष्ट ही किया, किन्तु परिस्थिति-विशेष में भाषा पर अवलम्बन को नकार दिया। सम्पूर्ण बुद्ध ही भाषा का निषेध है। ज्ञान में, सत्य में, प्रज्ञा में, चेतना में, और इन सबसे आगे, प्रेम में, भाषा का निषेध है। भाषा पर अवलम्बित रहे, तो इनमें से किसी को नहीं जान सकते। इसीलिए भाषा को निषिद्ध करके उस चरण पर पहुँच जाओ, जहाँ अ-भाषा का क्षेत्र है। वही बुद्धक्षेत्र है। वही प्रेमक्षेत्र है।
अगर यह अ-भाषा है, तो इसे सिफऱ् महाकाश्यप ने ही क्यों समझा, कोई भी शिष्य समझ सकता था? नहीं। इसे कोई भी शिष्य नहीं समझ सकता था, इसके लिए विशिष्ट होना आवश्यक था। इसके लिए वह विशिष्ट योग्यता चाहिए थी, जिसके तहत शिष्य की अ-भाषा, बुद्ध की अ-भाषा के समतुल्य हो या दोनों एक ही हों। यदि बुद्ध इस बात को भाषा में कहते, तो सारे शिष्य समझ जाते, क्योंकि बुद्ध और अन्य सभी शिष्यों की भाषा एक ही थी। यदि बुद्ध पालि बोलते थे, तो उनके सारे शिष्य भी पालि बोलते-समझते थे। इसलिए भाषा के प्रयोग से यह बात सभी को समझ में आ जाती, किन्तु तब बुद्ध शिष्य के वैशिष्ट्य का पता नहीं लगा पाते। वैशिष्ट्य का पता लगाने के लिए ही अ-भाषा का प्रयोग करना पड़ा। किसी भी बात का सम्प्रेषण तभी हो सकता है, जब कहने और सुनने वाले का भाषा-ज्ञान एक-सा हो। जैसे मैं ये पंक्तियाँ हिन्दी में लिख रहा हूँ, इन्हें वही पढ़-समझ सकता है, जिसे हिन्दी का ज्ञान हो। सिफऱ् तमिळ का ज्ञान रखने वाले को मेरी ये पंक्तियाँ नहीं समझ में आएँगी। तब ये उसके लिए भाषा न होंगी, अ-भाषा तो कतई नहीं होंगी, हां, विभाषा ज़रूर हो जाएँगी। विभाषा में सम्प्रेषण नहीं हो सकता, भाषा में हो सकता है, किन्तु तब दोनों पक्षों की भाषा एक ही होनी होगी। उसी तरह जब तक दोनों पक्षों की अ-भाषा भी एक ही न हो या एक ही स्तर की न हो, तब तक अ-भाषा भी सम्प्रेषण नहीं कर सकती। और उस दिन बुद्ध के हाथों में सफ़ेद फूल देखने के बाद मुस्कराकर महाकाश्यप ने यही साबित किया कि धर्म-दृष्टि, निर्वाण-हृदय, अरूप का रूप और सूक्ष्म धर्म-द्वार भाषा या शब्दों या अक्षरों पर अवलम्बित नहीं होते और यह कहना न होगा कि इन चारों ही तत्वों में प्रेम विद्यमान है।
14. और प्रेम भाषा के वाहन पर नहीं चलता। भाषा सामूहिक होती है, भाषातीत निजी होता है। अपने-अपने भाषातीत का आविष्कार हम ख़ुद करते हैं। हम सबके पास अपनी निजी अ-भाषा होती है। यदि वह निजी अ-भाषा किसी दूसरे की निजी अ-भाषा के साथ युक्त हो जाए, वह प्रभावकारी हो जाती है। आखि़र प्रेम का स्वभाव भी तो यही होता है। तुम्हारे जीवन की एक ही घटना दो लोगों के साथ होती है, मिस एक्स और मिस वाय दोनों के साथ, लेकिन उस घटना के कारण मिस एक्स को तुमसे प्रेम हो जाता है, लेकिन मिस वाय तुम्हारी ओर ध्यान भी नहीं देती। क्यों? क्योंकि वह घटना और उससे उत्पन्न अनुभूति मिस एक्स के साथ युक्त होकर प्रभावकारी बन गयी, लेकिन मिस वाय के साथ वह युक्त ही न हो पायी। इसीलिए प्रेम में स्तर का बड़ा महत्व है। तुम अनुभूति के जिस स्तर पर खड़े हो, तुम चाहोगे कि तुम्हारा प्रेमी भी उसी स्तर पर खड़ा हो, तभी प्रेम का संचार होगा। स्तर ऊपर-नीचे हुआ, बात नहीं बन पाएगी।
15. तीन तरह का यथार्थ होता है- पारम्परिक यथार्थ, परम यथार्थ व भाषायी यथार्थ।
अ- पारम्परिक यथार्थः आमतौर पर घटने वाली चीज़ें जिनमें एक कारण है, दूसरा प्रभाव। जैसे तुम चाय बनाओगे, तभी चाय पी सकोगे। चाय बनाने से पहले तुम उस चाय को नहीं पी सकते।
ब- परम यथार्थः चाय बनाने में तुमसे श्रम लगा, चाय पीकर तुमने आनन्द, राहत व सुख महसूस किया। वह सुख परम यथार्थ है। किन्हीं परिस्थितियों में इसे मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण, अन्तिम लक्ष्य कुछ भी कह सकते हैं। अधिकांश लोग इसी यथार्थ की प्राप्ति की साधना करते हैं किन्तु अपने पूर्ववर्ती पारम्परिक व परवर्ती भाषायी यथार्थों के बिना इस मध्यवर्ती यथार्थ का कोई अस्तित्व नहीं होता।
स-भाषायी यथार्थः चाय को तुम चाय कहते हो, क्योंकि सभी लोग उसे चाय कहते हैं। इस तरह तुम्हारा कहा गया चाय दूसरों के कहे गए चाय के बराबर है। सुख को तुम भी सुख कहते हो और बाकी सब भी सुख कहते हैं, लेकिन जिस सुख को तुम अभिव्यक्त करना चाहते हो, वह ठीक वही सुख नहीं है जो दूसरे महसूस करते होंगे, थोड़ा कम होगा या थोड़ा ज़्यादा होगा। किसी एक स्तर पर भाषायी यथार्थ सामूहिक होगा, किन्तु किसी दूसरे स्तर पर वह निजी हो जाएगा। भाषायी यथार्थ परिवर्तनशील है, किन्तु हर स्थिति में नहीं। जैसे अंग्रेज़ी का एक व्यक्ति टेबल और डेस्क में फ़र्क़ जान लेगा, लेकिन हिन्दी में टेबल के लिए भी मेज़ है और डेस्क के लिए भी मेज़, तब टेबल और डेस्क का यह फ़र्क़ हिन्दी में व्यक्त करना कठिन होगा। यह भाषायी यथार्थ की एक परत है। उसी प्रकार, एक तरह की अ-भाषा भी दूसरी तरह की अ-भाषा में हर बार पूरी तरह अनूदित-सम्प्रेषित हो जाए, यह भी मुमकि़न नहीं है।
16. हम मानते हैं कि कोई वस्तु भाषा के भीतर पहले से परिभाषित है, तो हम उसे स्वीकार कर लेते हैं। जैसे कोई यह सवाल नहीं करता कि मैं पेड़ को पेड़ क्यों कहूँ, उसे सनक्का क्यों न कहूँ? क्योंकि बचपन से हमें पेड़ ही सिखाया जाता है। हम उस पारम्परिक व भाषायी यथार्थ का निषेध नहीं कर पाते, बल्कि स्वीकार करते हुए आजीवन अनुकरण करते हैं। यदि मैं पेड़ को सनक्का कहूँ, तो उसे सिफऱ् मैं समझूंगा, क्योंकि बाकी लोग उसे पेड़ ही कहेंगे, क्योंकि उन्होंने सनक्का को मान्य नहीं किया है। जिस दिन सनक्का मान्य हो जाएगा, उस दिन यह नाम भी चल पड़ेगा व यथार्थ बन जाएगा। इस तरह मैं पेड़ के यथार्थ को एक निजी यथार्थ में तब्दील कर सकता हूँ, एक ऐसा निजी यथार्थ, जिसे कोई दूसरा नहीं समझ सकता, लेकिन ऐसा करने पर मैं उस यथार्थ की सामूहिकता को खो दूँगा। हम सबसे अधिक इसी सामूहिकता की चिन्ता करते हैं। इससे परे निकल जाएँ और सूक्ष्मतर होते जाएँ, तो पाएँगे कि ये सारे नाम, सारी परिभाषाएँ कुछ नहीं हैं, महज़ एक स्थिति हैं और स्थिति का एक सूचनात्मक नाम है। इनका सार कुछ भी नहीं है। जैसे, मैं पूछूँ, शक्कर का स्वाद कैसा है? तुम कहोगे, मीठा है। मैं पूछूँ, मीठा क्या होता है? तुम नहीं बता पाओगे। तुम पलटकर कहोगे कि मीठा एक स्वाद का नाम है। यानी यह यथार्थ वृत्ताकार है, स्वाद से शुरू हुआ प्रश्न अन्त में स्वाद को ही उत्तर की तरह प्रस्तुत कर देता है। मीठा क्या होता है- यह नहीं बताया जा सकता। जो अनुभव करेगा, वही समझ पाएगा कि मीठा क्या है। भाषा यहाँ डोल जाती है, अ-भाषा अभिव्यक्ति देती है। मीठे की परिभाषा जाननी है, तो उसका अनुभव पाना होगा और अनुभव पाकर समझना अ-भाषा के क्षेत्र की अभिव्यक्ति है। वह अनुभव शब्द से परे चला जाएगा। तुम अनुभव करोगे, पर कभी किसी से बता नहीं पाओगे कि मीठे की परिभाषा क्या है। तुम शक्कर बता दोगे, मिठाई बता दोगे, यह सब तो वस्तुएँ हैं- मीठा क्या है, यह कभी न बता पाओगे, हालाँकि तुम उसे जान रहे हो। यही अ-भाषा है।
17. अ-भाषा एक स्पेस है, अवकाश है। हम जानते हैं कि वह है, लेकिन हम उसे माप नहीं सकते, बता नहीं सकते। वह अनन्त है। जो सीमित है, वह भी है। जो अनन्त है, वह भी है। हमारे भावजगत में, भावना-जगत में, जो कुछ भी अनिवार्य है, वह सब भाषातीत है, वह सब अ-भाषा के डोमेन में है- शब्दों, संकेतों में उसे व्यक्त नहीं किया जा सकता।
उपस्थिति
कहीं होने की अवस्था। मुख्यतः दैहिक रूप से होने से सम्बन्धित। वर्तमान अस्तित्व। यह मूलतः अनुपस्थिति का विलोम है। अ-दैहिक होने पर इसके अर्थ विस्तृत हो जाते हैं, जैसे अलौकिक उपस्थितियाँ। प्रेम में उपस्थिति का अर्थ अमूमन दैहिक होता है, किन्तु मात्र दैहिक उपस्थिति से प्रेम नहीं हो पाता। मात्र लौकिक होकर भी प्रेम कहाँ हो पाता है?
1. शुरुआत एक ज़ेन कोआन से करता हूँ। अपने गुरु ‘अ’ की स्मृति में शिष्य ‘ब’ ने एक अन्य विद्वान गुरु ‘स’ को घर निमन्त्रित किया और रात्रिभोज कराया। विदा होते समय ‘स’ ने दीवारों की ओर संकेत करते हुए पूछा, ‘तुमने अपने गुरु की कोई तस्वीर क्यों नहीं लगा रखी? ’ ‘ब’ ने झुककर प्रणाम किया और जवाब दिया, ‘है! देखिए।’ ‘स’ ने ज़ोर दिया, ‘नहीं, कोई तस्वीर नहीं है।’ ‘ब’ ने प्रणाम की मुद्रा में झुके हुए ही कहा, ‘आपको भले दिख न रही हो, लेकिन तस्वीर तो है।’
यहाँ उपस्थिति की अवधारणा दोनों के लिए भिन्न है। गुरु ‘अ’ दैहिक रूप से अनुपस्थित हैं, वह कहाँ हैं, किसी को नहीं पता। कोआन संकेत देता है कि वह शायद मर चुके हैं। अन्य विद्वान ‘स’ जो कि रात्रिभोज पर आए हैं, उनकी दैहिक उपस्थिति का अनुमान नहीं करते, बल्कि आकृति-गत उपस्थिति का अनुमान ज़रूर करते हैं, इसीलिए वह दीवार पर उनकी तस्वीर टँगी होने की माँग करते हैं। शिष्य ‘ब’ दोनों कि़स्म की उपस्थितियों को उपेक्षित करता है। वह ज़ोर देकर कहता है कि दीवार पर तस्वीर टँगी हुई है, भले वह ‘स’ को न दिख रही हो। यह एक अनुपस्थित उपस्थिति है। इसे सिफऱ् वही जान सकता है जिसने अनुपस्थिति को भी जान लिया हो और उपस्थिति को भी। यह देह या आकृति से बाहर रहने का समीकरण है।
2. ‘ब’ प्रेम में है। प्रेमी ऐसा ही होता है। कई बार ख़ुद प्रेमिका ही पूछती है कि मैं कहाँ हूँ? तब प्रेमी इसी अवस्था में चला जाता है- तुम हो तो सही, तुम्हें ख़ुद को नहीं दिख रहा, बात अलग है। प्रेमी उपस्थितियों को लेकर बेहद मुतमईन होता है। वह जिससे प्रेम करता है, उसे हर पल उपस्थित मानता है। वह हर पल उससे सम्वाद करता है। वह एक घटना का गवाह बनता है और मन ही मन उस घटना के बारे में अपनी प्रेमिका को बताता है। यदि प्रेम एक वाक्य है, तो अनुपस्थिति से सम्वाद उस वाक्य की मुख्य क्रिया है।
फ्रीदा कालो, वाॅल्ट व्हिटमैन, थिक न्हात हान्ह 3. ‘मैं तुम्हारे पास अपनी पेंटिंग छोड़े जाती हूँ, ताकि जितने दिन व रातें मैं तुमसे दूर रहूँ, तुम मेरी उपस्थिति को महसूस कर सको।’ उपस्थिति को चित्र या किसी आॅब्जेक्ट की तरह महसूस किया जाता है, इसीलिए कोई दैहिक रूप से मौजूद न हो, तो उसे अनुपस्थित कहा जाता है। उपस्थिति को देह माना जाता है। देह ग़ायब हो जाए यानी एक आॅब्जेक्ट ग़ायब हो जाए, तो उसकी जगह तस्वीर या पेंटिंग या प्रतिमा यानी एक दूसरा आॅब्जेक्ट रखकर उसे उपस्थित मान लिया जाता है। यह प्रेम की परम्परा है, लेकिन प्रेम आॅब्जेक्ट का गुलाम नहीं, बिना आॅब्जेक्ट के भी उपस्थिति को माना जा सकता है। ‘ब’ ने वैसा ही किया। हर प्रेमी वैसा ही करता है। ‘अपने होने का अहसास हम अपनी उपस्थिति के ज़रिए ही करवाते हैं।’ प्रेम में यह अहसास बेहद ज़रूरी है। ‘अहसास किया जाए’ इससे ज़्यादा ज़ोर ‘अहसास कराया जाए’ पर होता है। ‘जब आप प्रेम करते हैं, तो सामने वाले को सबसे बेहतर चीज़ क्या दे सकते हैं? अपनी उपस्थिति दे सकते हैं। बिना उपस्थित हुए आप प्रेम कैसे कर सकते हैं? ’ उपस्थिति सिफऱ् महसूस की जाती है, देखकर, सुनकर, छूकर। उपस्थिति एक ऐंद्रिक अनुभूति है। इस तरह अनुपस्थिति भी एक ऐंद्रिक अनुभूति है। लेकिन प्रेम ऐंद्रिक होने से भी परे है, इसलिए प्रेम के भीतर उपस्थिति व अनुपस्थिति, पाँचों इन्द्रियों से ही नहीं, बल्कि छठी इन्द्रिय, जिसे बौद्ध-दर्शन ने ‘मन’ कहा है, से कहीं अधिक जुड़ी होती है। उपस्थिति व अनुपस्थिति के सारे खेल यही ‘मन’ ही करता है। बिना उपस्थित हुए प्रेम नहीं किया जा सकता, तो बिना अनुपस्थित हुए भी प्रेम नहीं किया जा सकता। ना ही बिना अनुपस्थित उपस्थिति के। बिना पलक झपकाए देख़ते रहेंगे, तो आँख सूख जाएगी। पलक आँख को सूखने से बचाती है। अनुपस्थिति, उपस्थिति को सूखने से बचाती है। उस पर नमी की परत चढ़ाती है।
त्स्वेताएवा 4. तो हम प्रेम किससे करते हैं? उपस्थित से या अनुपस्थित से? या दोनों से? या दोनों से ही नहीं? त्स्वेताएवा ने अपनी डायरी में दिलचस्प तरह से लिखा हैः ‘अगर ‘एन’ के साथ-साथ मुझे हेनरिख़ हाइन से भी प्रेम है, तो आप यह नहीं कह सकते कि मैं पहले व्यक्ति से प्रेम नहीं करती। इसलिए एक जि़न्दा और एक मृत व्यक्ति से एक साथ प्रेम करना- एकदम सही है। मगर फ़जऱ् कीजिए, हेनरिख़ हाइन दुबारा जि़न्दा हो जाए और किसी भी पल इस कमरे में आ जाए! मैं भी वही हूँ। हेनरिख़ हाइन भी वही है। बस अन्तर सिफऱ् इतना है कि वह कमरे के भीतर चलकर आ सकता है।’ वह एक साथ दो से प्रेम कर रही है- एक उपस्थित है, दूसरा अनुपस्थित। उसकी शर्त ही यही है कि दो लोगों से प्रेम तभी सम्भव है, जब एक उपस्थित हो, दूसरा अनुपस्थित। एक उसके सामने होगा, दूसरा सौ साल पहले पैदा हुआ होगा या कभी न पैदा हुआ हो। जैसे कोई तस्वीर, कोई कविता। त्स्वेताएवा एक साथ दो उपस्थितियों से प्रेम नहीं कर सकती? वह ख़ुद ऐसा कहती है, लेकिन कुछ ही पंक्तियों बाद वह ख़ुद को और स्पष्ट कर देती हैः ‘मैं एक और तरीक़ा सुझाती हूँ- कमरे में अपने प्रेमी के प्रवेश करने के बावजूद जो स्त्री हेनरिख़ हाइन को नहीं भूल पाती, वह सिफऱ् हेनरिख़ हाइन से प्रेम करती है।’
5. त्स्वेताएवा कमरे में बैठी है। वह हेनरिख़ हाइन के ख़्यालों में डूबी हुई है। तभी कमरे में उसका प्रेमी आता है। होना यह चाहिए कि त्स्वेताएवा को उसी समय हेनरिख़ हाइन का ख़्याल मन से निकालकर अपने प्रेमी के लिए प्रस्तुत हो जाना चाहिए, लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाती। उसका प्रेमी ठीक उसके सामने बैठा है, लेकिन वह ख़ुद, हेनरिख़ हाइन के साथ बैठी है। उसका प्रेमी उसका घोषित प्रेमी है, तभी वह उसे ‘मेरा प्रेमी’ जैसा सम्बोधन देती है, लेकिन उसका पूरा ध्यान सौ साल पहले मर चुके हेनरिख़ हाइन पर लगा हुआ है। ऐसे में त्स्वेताएवा के लिए उपस्थित कौन है? और अनुपस्थित कौन है? यहीं पर शब्दकोश की परिभाषा हमारा साथ छोड़ जाती है। शब्दकोश के अनुसार, प्रेमी उपस्थित है और हेनरिख़ हाइन अनुपस्थित। प्रेम में डूबी त्स्वेताएवा के लिए शब्दों के अर्थ बदल गए हैंः अनुपस्थित होकर भी हेनरिख़ हाइन उसके लिए उपस्थित है और उपस्थित होकर भी उसका प्रेमी उसके लिए अनुपस्थित है। यही प्रेम में उपलब्ध ‘अनुपस्थित उपस्थिति’ है। जो है, वह छूट जाता है। जो नहीं है, उसका प्रेम उँगली पकड़ मीलों दूर ले जाता है।
6. हेनरिख़ हाइन चार चीज़ें हो सकता हैः
(1) वह स्मृति है,
(2) वह कल्पना है,
(3) वह स्मृतिजन्य कल्पना है,
(4) वह काल्पनिक स्मृति है।
वह इन चारों में से कोई एक तथा चारों भी हो सकता है, लेकिन एक चीज़ तय है कि ठीक उस क्षण त्स्वेताएवा के लिए ‘वह’ सत्य है। वह न सिफऱ् भौतिक रूप से अनुपस्थित है, बल्कि एक और जगह से अनुपस्थित है - वह जगह है त्स्वेताएवा के प्रेमी का हृदय। यदि वह त्स्वेताएवा के प्रेमी के भीतर उपस्थित होता, वह प्रेमी से प्रेम कर रही होती, कमरे में रहकर भी पे्रमी अन-रहा जैसा महसूस नहीं होता। त्स्वेताएवा को प्रेम में जिस तत्व की तलाश है, उस तत्व का नाम है हेनरिख़ हाइन। वह अपने प्रेमी के भीतर उस तत्व को खोजती है, उसे नहीं मिलता, तो वह अपनी स्मृति या कल्पना के सहारे उस तत्व का सृजन करती है और उसके भीतर खोई रहती है। प्रेम का आकांक्ष्य तत्व जब पाया नहीं जाता, तब वह अनुपस्थित उपस्थिति बनकर तुम्हारे भीतर रहने लगता है।
7. जो उपस्थित है, उसके भीतर हम हमेशा उसकी कल्पना करते हैं जो अनुपस्थित है। उपस्थिति दरअसल भौतिक नहीं, एक मानसिक तत्व है। हमने जिस प्रेमी की कल्पना व छवि अपने मन के भीतर बना रखी है, वह भौतिक रूप से तो अनुपस्थित है, लेकिन हम अपने उपस्थित प्रेमी में उसे खोजने की कोशिश करते हैं। खोज लिया, तो ख़ुश रहते हैं। नहीं खोज पाए, तो निराश हो जाते हैं। फिर भटकते हैं। अगर कोई प्रेम में दुःखी है, तो उसका अर्थ यह है कि उसका यह काल्पनिक अनुपस्थित, उसके प्रेमी की वास्तविक उपस्थिति की अपेक्षा कहीं ज़्यादा विराट व भव्य है। इतना विराट कि उसके प्रेमी की वास्तविक उपस्थिति छोटी पड़ जाती है। अगर आपने इस उपन्यास की पहली किताब पढ़ी है, तो आपको ग्यारह नम्बर की कहानी याद होगी। वह ख़ुद ही अपनी कहानी बताती है, जिसे मैं इस अनुच्छेद के मूड के अनुसार इस भाषा में व्यक्त करता हूँः जब वह छोटी थी, तभी उसने यह ख़्याल बना लिया था कि काॅलेज में पहले दिन जो भी लड़का उसकी बग़ल में बैठेगा, वह उससे प्रेम कर लेगी। यानी कम उम्र में ही उसने अपने भीतर एक अनुपस्थिति बना ली थी और उसके उपस्थित होने का इन्तज़ार कर रही थी। जब उसका इन्तज़ार पूरा हुआ, उसकी बग़ल में एक लड़का बैठा और ख़ुद से किए वादे के अनुसार उसने उससे प्रेम कर लिया। लेकिन वह लड़का वैसा नहीं निकला, जैसा उसने कल्पना कर रखी थी। उसके द्वारा कल्पित अनुपस्थिति, लड़के की वास्तविक उपस्थिति में पूरी तरह फिट नहीं हो पाई। वह इसे सहन नहीं कर पाई। कल्पित अनुपस्थित की तलाश ने ग्यारह नम्बर को बेचैन कर दिया। वह प्रेम के दृश्य से बाहर चली गयी। यदि कल्पित अनुपस्थिति व वास्तविक उपस्थिति के बीच ‘सिन्क’ हो जाता, तालमेल हो जाता, तो वह कुछ समय और (या हमेशा ही) रुकी रह सकती थी। ग्यारह नम्बर ने उसके बाद जिससे भी प्रेम किया होगा, उसके भीतर अपने बचपन की कल्पित अनुपस्थिति को फिट करने की कोशिश ज़रूर की होगी। उसका सुख और दुःख उसी पर निर्भर करेगा।
बुल्ले शाह 8. अगर आप पिछले पन्ने पढ़कर यहाँ तक आए हैं, तो आपको याद होगा, छत्तीस नम्बर ने अपने ख़त में इसे व्यक्त और अ-व्यक्त के रूप में बताया था। सूफ़ी कवि बुल्लेशाह कहता है,
इश्क़ दी नवियो नवी बहार
हीर राँझे दे हो गए मेले
भुल्ली हीर ढूँडेदी बेल्ले
राँझण यार बग़ल विच्च खेले
सुर्त न रहया सुर्त संभार
इश्क़ दी नवियो नवी बहार।
यानीः इश्क़ की बहार हमेशा नयी होती है। हीर-राँझा का मिलन तो हो गया है, लेकिन हीर अभी भी ग़ाफि़ल है। वह जैसे इस मिलन को भूल-सी गयी है। वह राँझा को चारों ओर खोज रही है, जो कि व्यर्थ है, क्योंकि उसका यार राँझणा तो बग़ल में ही खेल रहा है। हीरिये, तू बेसुध है, अपनी सुरति खो बैठी है, पहले अपनी सुध तो संभाल, देख, राँझा बग़ल ही है।
हीर किसी एक से प्रेम नहीं करती थी, वह दो से प्रेम करती थी। एक था राँझा, दूसरा राँझे की कल्पना-स्मृति या राँझा की अनुपस्थित उपस्थिति। राँझा भौतिक है, सदेह है, सवाक है, सामने है। राँझा के विरह में हीर ने अपने भीतर एक दूसरा राँझा बना लिया था। जब पहला राँझा नहीं होता था, तो वह इसी दूसरे राँझे के सहारे जीती थी, जिससे वह मन की बातें कर लेती, जिसे अपना दुःख बता देती और जिससे वह लगातार प्रेम करती रहती। उसे इस दूसरे राँझा की इतनी आदत पड़ गयी थी कि जब पहला राँझा पूरी तरह उसका हो गया, तो वह इस दूसरे राँझा को खोजने लगी। राँझा की कल्पना, राँझा के वास्तव पर हावी हो गयी। इसीलिए राँझा सामने था, लेकिन वह राँझा को देख न पाई, उसे खोजने लगी। उसका राँझा तो भीतर था, वह अनुपस्थित उपस्थित था। एक राँझा, हीर का व्यक्त था, दूसरा राँझा, हीर का अ-व्यक्त था। हम हमेशा एक साथ दो से प्रेम करते हैं- एक व्यक्त से, दूसरा अ-व्यक्त से। व्यक्त का रूप बनता-बिगड़ता रहता है, अ-व्यक्त का रूप लगभग एक जैसा रहता है। व्यक्त में अ-व्यक्त को खोजा जाता है, अ-व्यक्त में व्यक्त को और यह तलाश लगातार चलती रहती है। यही प्रेम का रहस्य है। यही प्रेम का अध्यात्म है। अ-व्यक्त से प्रेम किए बिना कोई प्रेम नहीं हो सकता।
विक्टर ह्यूगो, रोलाँ बार्थ, बुल्ले शाह 9. ह्यूगो की एक कविता हैः ‘ओ स्त्री, तुम किसकी प्रतीक्षा कर रही हो? मैं उसकी प्रतीक्षा कर रही, जो अनुपस्थित है।’ बार्थ कहता है कि इतिहास से लेकर अब तक, सिफऱ् स्त्रियाँ ही अनुपस्थिति के विमर्श को ढोती आ रही हैंः स्त्रियाँ ही अनुपस्थिति के गल्प को एक आकार देती हैं। ‘स्त्रियाँ’ को मैं स्त्री-तत्व कहना चाहूँगा। दरसअल, इतिहास से लेकर अब तक सिफऱ् स्त्री-तत्व ही प्रेम के विमर्श को आकार देता आया है। किसी भी इश्क़ में हीर ही हमेशा अपनी सुध क्यों खोती है? बुल्ले की ऊपर लिखी कविता में भी हीर ही सुध खोती है। ‘राँझा राँझा करदी, मैं आपै ही राँझा हो गयी’ में भी हीर ही अपनी सुध खोती है। अपनी आइडेंडिटी खोकर वह राँझा बन जाती है। ‘राँझा जोगीड़ा बन आया नी, वाह साँगी साँग रचाया नी’ में भी सुध हीर को ही खोना है। राँझा को तो सुध लेनी है, वह किसी भी रूप में आएगा। चाहे, तो जोगीड़ा बनकर आ जाए। लेकिन हीर सुध लेने कहीं नहीं जाएगी। वह तो सुध खोएगी। और अगर कभी राँझा ने अपनी सुध खो दी, तब? जब कभी राँझा सुध खोएगा, तो राँझा नहीं खोएगा, वह सुध भी उसके भीतर की हीर खोएगी वह हीर ही राँझा के भीतर का स्त्री-तत्व है। जो व्यक्ति प्रतीक्षा करता है और उस प्रतीक्षा से पीडि़त होता है, अवश्य ही उसके भीतर एक स्त्री-तत्व है। यही स्त्री-तत्व उससे प्रतीक्षा करवाता है, प्रेम करवाता है। पुरुष के भीतर से स्त्री-तत्व को निकाल दीजिए, वह प्रेम नहीं कर पाएगा। वह अपने पुरुषत्व में रूठ सकता है, क्रोधित हो सकता है, तड़प सकता है, सेक्स कर सकता है, अपना पुरुषत्व बलात् थोप सकता है, लेकिन बिना स्त्री-तत्व के वह प्रेम नहीं कर सकता। प्रेम अपने आप में स्त्रैण-तत्व है। पीड़ा भी स्त्रैण-तत्व है। प्रेम और पीड़ा का अर्थ शब्दकोश में अलग है, पर प्रेमी जानते हैं, जीवन में दोनों बहुत क़रीब खड़े होते हैं। स्त्री-तत्व के कारण पुरुष प्रेम करता है और प्रेम के कारण उसके भीतर का स्त्री-तत्व पुष्ट होने लगता है। इसीलिए वह प्रेम में बना रह सकता है। लेकिन तभी तक, जब तक यह स्त्री-तत्व जीवित है। पुरुष प्राकृतिक रूप से ही प्रेम करने में अक्षम है, इसीलिए प्रकृति ने उसके भीतर स्त्री-तत्व के बीज डाल रखे हैं। एक सुन्दर क्षण इस बीज को अंकुरित कर देता है। इसीलिए, जब भी प्रेम होगा, हीर ही सुध खोएगी- हीर के भीतर रहने वाली हीर या राँझा के भीतर रहने वाली हीर- दोनों में कोई भी। बुल्ला, इसीलिए मुझे राँझे से ज़्यादा भली हीर लगती है। वह एक भी पल सुध का सौदा जो नहीं करती।
अमीर ख़ुसरो, रूमी, बुल्ले शाह 10. सूफ़ी कवियों में स्त्री-तत्व की यह चेतना बड़ी प्रगाढ़ थी। हर कवि के पास एक मुर्शिद या गुरु होता था। वही उनका दोस्त, यार, सखा, परिवार होता। रूमी के पास शम्स था। बुल्ले शाह के पास हज़रत इनायत शाह। खुसरो के पास हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया। ये सभी अपने गुरु के प्रेम में आकण्ठ डूबे रहते। बुल्ले ने तो मुर्शिद को अपना शौहर मान लिया था। एक कहानी है- ‘बुल्ला ने राह में एक कन्या को अपने केश सँवारते देखा, तो पूछा, इतनी अदा से क्यों बाल बना रही? कन्या ने कहा, अपने पति को रिझाने के लिए। सुनकर बुल्ला ने उससे गुज़ारिश की, सखि! फिर मेरे भी इन लम्बे बालों को सँवार दो, मैं भी अपने पति को रिझाऊँगा। कन्या ने बहुत ऊहापोह के बाद उसके बाल सँवार दिए। बुल्ला सज-सँवरकर नाचते-गाते अपने मुर्शिद या पति या शौहर के पास पहुँचा।’ अपनी कविताओं में बुल्ला ने मुर्शिद के लिए जो अन्य सम्बोधन इस्तेमाल किए हैं, वे हैंः शौह, सजण, यार, हादी, साईं, आरिफ़ (ब्रह्मज्ञानी), राँझा। एक अन्य सूफ़ी कवि वारिस शाह के राँझा और बुल्ले शाह के राँझा में थोड़ा फ़कऱ् है। दोनों हीर को चाहते हैं, दोनों उसी पारम्परिक पुरानी कथा के नायक हैं, लेकिन नायक एक टेक्स्ट होता है। अलग-अलग लोग नायक को अलग-अलग टेक्स्ट की तरह पढ़ते हैं। अगर किसी नायक की कथा दो अलग-अलग लोग लिखें, तो वह उस नायक का दो अलग-अलग पाठ या रीडिंग है। हीर के लिए वारिस शाह का कवि जो प्रेम व्यक्त करता है, वह सिफऱ् राँझा का ही प्रेम नहीं, ख़ुद वारिस शाह का भी प्रेम है। वारिस के राँझणे में ख़ुद वारिस शाह है, तो बुल्ले के राँझणे में बुल्ले का मुर्शिद है। वारिस ख़ुद राँझा है। बुल्ला ख़ुद हीर है। वारिस, हीर नहीं बन पाता और बुल्ला, राँझा नहीं बन पाता। उसका राँझा तो इनायत शाह है। ख़ुसरो के कलाम में औलिया पिया हैं, तो ख़ुसरो उसकी सजनिया हैं। रूमी के कलाम में भी ऐसा ही है। इनने ‘आत्म’ के टेक्स्ट को फ़ेमिनिन रखा और नायक के टेक्स्ट को मस्कुलीन। इन सभी ने अपने भीतर के स्त्री-तत्व को अपने शब्दों में भी जीवित कर दिया था। मुर्शिद पुरुष होता, कवि स्त्री। इस तरह वह आराधना भी करता, प्रेम भी करता। रंगरेज साहिब यानी पुरुष होता, कवि उसकी प्रेयसी रंगरेजन यानी स्त्री होता। साहिब तरह-तरह के रंग दिखाता, प्रेयसी तरह-तरह से उसे मनाती। इन सभी की मंजि़ल परम सत्य थी, लेकिन रास्ता इन्होंने प्रेम का चुना था। दैहिक-लौकिक व अदैहिक-अलौकिक, दोनों ही प्रेमों के ज़रिए दुनिया का सबसे बड़ा सत्य पाया जा सकता है, यह विस्तार से, इन्हीं कवियों ने बताया। प्रेम की राह पर पुरुष बनकर नहीं चला जा सकता। इन्होंने सबसे पहले यही समझ विकसित की। इसके लिए इन्होंने बाल सँवारने, कभी स्त्रियों जैसे कपड़े पहनकर नाचने जैसी स्थूल अभिव्यक्तियाँ कीं, तो कभी ख़ुसरो जैसी बेहद सूक्ष्म अभिव्यक्ति कीः शबान हिज्राँ न दारज़ चूँ ज़ुल्फ़ व रोज़े वसलत चू उम्र कोताह। सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अन्धेरी रतियां। यह न केवल प्रेम की अभिव्यक्ति है, बल्कि अपने भीतर के स्त्री-तत्व को भरसक जागृत रखने का पुष्ट प्रयास है। बिना इस स्त्री-तत्व को समझे इन कवियों ने एक साथ ऐसी अभिव्यक्तियाँ न की होतीं।
11. और स्त्री-तत्व की यह पहचान व अभिव्यक्ति तब तक नहीं हो सकती, जब तक किसी ने एक साथ दोनों को न पहचान लिया होः उपस्थित व अनुपस्थित को। तुम जिसे पाना चाहते हो, वह अनुपस्थित है। तुम्हारे सामने जो उपस्थित है, वह महज़ एक प्रतिमा है, भले जीती-जागती। इस प्रतिमा के भीतर तुम उस अनुपस्थित का निवेश करते हो, उसे तलाश लेना चाहते हो। प्रतिमाएँ एक-सी रहती हैं, या बदलती रहती हैं। तुम्हारे पास अपने अनुपस्थित का कोई आकार नहीं, महज़ एक अनुभूति है। इसीलिए प्रेम में प्रेमी हमेशा ग़ायब रहता है, प्रेम की एक आँच होती है, एक नूर होता है। दूसरे का चेहरा, ख़ुद अपना भी, उसी आँच में दमकता रहता है। नुक़ूश से ज़्यादा लाली चमकती है। प्रेम की आँच की लाली।
स्मृति
निजी या पराये जीवन में जो कुछ भी बीत गया है, उसे याद करना। सूचनाओं, घटनाओं, कल्पनाओं आदि को मस्तिष्क में संग्रहीत करने की क्षमता।
1. बहुत बरस पहले एक लड़की ने मुझसे प्रेम किया था, उसका नाम ग्यारह नम्बर था। मेरे प्रति अपने प्रेम को उसने कई तरह से प्रदर्शित करने की कोशिश की थी, किन्तु मैं उससे प्रेम नहीं कर पाया। गीत चतुर्वेदी को इस बात पर गहरी आपत्ति है। उसका कहना है कि मैं भी उससे प्रेम करता था, जबकि मेरा मानना है कि मैंने ठीक उस वक्त ग्यारह नम्बर से प्रेम नहीं किया था, बल्कि उसके चले जाने के सत्रह साल बाद उससे प्रेम किया था। उस रोज़ जब मैं नरीमन पाॅइण्ट से वीटी स्टेशन तक उस लड़की के पीछे-पीछे गया था, मैं ग्यारह नम्बर के प्रेम में पड़ चुका था। इसीलिए जब मैंने उस लड़की को देखा, मुझे लगा, मैंने ग्यारह नम्बर को देख लिया है। मैं उसके प्रति अपने प्रेम का प्रदर्शन करना चाहता था। बाद में कई समय तक मैं मानता रहा कि मैंने ग्यारह नम्बर से नहीं, बल्कि उसकी स्मृति से प्रेम किया है। उस रोज़ नरीमन पाॅइण्ट से वीटी स्टेशन तक जो लड़की मेरे आगे-आगे चल रही थी, वह कोई और नहीं, बल्कि ग्यारह नम्बर की स्मृति थी, जिसने मनुष्य का आकार ग्रहण कर लिया था। प्रेम की यात्रा का एक महत्वपूर्ण चरण हैः तुम व्यक्ति से प्रेम नहीं कर पाते, उसकी स्मृति से प्रेम कर लेते हो। व्यक्ति की निर्मित तुम्हारे नियन्त्रण में नहीं है, किन्तु उससे जुड़ी स्मृति की निर्मिति तुम्हारे नियन्त्रण में होती है। स्मृति स्वभाव से ही चयनशील है।
2. उसके बाद मैंने छत्तीस नम्बर से प्रेम किया। वह बिल्कुल नया प्रेम था, किन्तु सच तो यह है कि वह भी ग्यारह नम्बर के प्रेम की स्मृति थी। फिर मैंने 623 से प्रेम किया। वह मेरे अतीत के बारे में कुछ खास नहीं जानती थी, इस तरह वह भी नई थी, उसके साथ प्रेम भी नया था, किन्तु सच तो यह है कि वह ग्यारह नम्बर और छत्तीस नम्बर के प्रेम की स्मृति थी। उसके बाद मैंने तीन सौ किलो से प्रेम किया। वह ग्यारह नम्बर, छत्तीस नम्बर और 623 के प्रेम की स्मृति थी। फिर मैंने ... से प्रेम किया। वह ग्यारह नम्बर, छत्तीस नम्बर, 623 और तीन सौ किलो के प्रेम की स्मृति थी। इस किताब में मैं एक बटा दो से प्रेम कर रहा हूँ। यह ग्यारह नम्बर, छत्तीस नम्बर, 623, तीन सौ किलो और ... के प्रेम की स्मृति है। मेरा सारा प्रेम, प्रेम की स्मृति है। मैं किसी से भी वर्तमान में प्रेम नहीं कर रहा। मैं सबसे स्मृति में प्रेम करता हूँ। सारा प्रेम स्मृति में किया जाता है। वर्तमान में तो सिफऱ् क्रियाएँ घटित होती हैं और प्रेम कोई क्रिया नहीं है।
शंकर 3. ईशोपनिषद् के भाष्य में शंकर ने कहा हैः कविः क्रान्तदर्शी सर्वदृक। क्रान्त यानी अतीत। कवि अतीत को देख लेता है। वही सर्वदृक यानी सर्वदृष्टा भी होता है। यहाँ क्रान्त और सर्व में भेद नहीं है, शंकर ने दोनों को लिखकर अधिक स्पष्ट इंगित किया है। जो अतीत को देख ले, वही सर्वदृष्टा है, क्योंकि भविष्य को देखने वाले की बातों की पुष्टि बहुत देर से होगी। होगी भी कि नहीं होगी, किसी को नहीं पता। जो अतीत को बाँच ले, उसी के पास सर्व को देखने की दृष्टि है। सम्बोधि के बाद बुद्ध ने अतीत को देखना शुरू किया था। उन्होंने भविष्यवाणियाँ नहीं कीं, लेकिन अतीत की सैकड़ों कथाएँ सुनाईं। अपने एक-एक जन्म को याद किया, उससे प्रमाण निकालकर दिये, क्योंकि वह अतीत को देख सकते थे। अतीत को देखने वाला ही सर्वदृष्टा होता है। प्राचीन भारतीय दर्शन की परम्परा अतीत को ही तीनों कालों का उपलक्षण मानती है। अतीत ही वर्तमान है, अतीत ही भविष्य है और अतीत ही ख़ुद अतीत है। भविष्य एक आने वाला अतीत है। वह अनिश्चित है। उसे देखने की ज़रूरत नहीं। वह आएगा, तो ख़ुद दिख जाएगा। जो अनिश्चित है, उसे देखने की आवश्यकता भी नहीं। लेकिन जो बीत गया, वह निश्चित था। वह तुम्हारे देख़ते-देख़ते बीता और तुम उसे देख भी नहीं पाए। तुम अपना अतीत कभी नहीं देख पाते, लेकिन चिन्ता हमेशा भविष्य की करते हो। उसी की चिन्ता करते हो, जो अनिश्चित है। जो निश्चित है, उसे लेकर निश्चिन्त बने रहते हो। जो धन तुमने अब तक कमाया ही नहीं, कभी भविष्य में कमाओगे, तुम उसकी चिन्ता अभी से करते हो, लेकिन जो धन तुमने कमा लिया है, कमा कर अतीत की तिज़ोरी में रख दिया है, उसकी चिन्ता क्यों नहीं करते? क्या उस धन के लुट जाने का डर नहीं? अतीत के लुट जाने का डर क्यों नहीं? स्मृति से हाथ धो बैठोगे, इसकी चिन्ता नहीं है?
4. वर्तमान तो सिफऱ् एक अवधारणा है। यह वाक्य पूरा पढ़ने से पहले ही तुम्हारा वर्तमान पल बीत चुका होगा। अगर वर्तमान को सेकेण्ड्स या मिनट में नापोगे, तो यह पैराग्राफ पूरा पढ़ने से पहले ही तुम्हारा वर्तमान बीत चुका होगा। अगर उसे घण्टे में मापोगे, तो यह अध्याय पढ़ने से पहले ही तुम्हारा वर्तमान बीत चुका होगा। अगर उसे दिन में मापोगे, तो यह किताब पढ़ने से पहले ही तुम्हारा वर्तमान बीत चुका होगा। हफ्ते में मापोगे? महीने में? साल में? कितना छलोगे ख़ुद को? वर्तमान को मापने के लिए समय की इकाई को बड़ा करते जाओगे? अपनी इकाई को कितना भी बड़ा कर लो, उसमें हमेशा एक अतीत मिलेगा, हमेशा एक भविष्य मिलेगा, वर्तमान को पकड़ भी नहीं पाओगे। अगर वर्तमान की तुम्हारी इकाई दिन है, तो चैबीस घंटों में कितने घण्टे बीत चुके हैं, कितने घण्टे अभी आने वाले हैं, इसके बारे में सोचो। अगर तुम साल को अपनी इकाई मानोगे, तो सोचो, कितने महीने बीत चुके हैं, कितने महीने अभी आए भी नहीं हैं। वर्तमान सिफऱ् और सिफऱ् एक पल होता है। जब तक तुम्हें उस पल की उपस्थिति का अहसास होगा, तब तक वह पल बीत चुका होगा। तुम्हारे अहसास करने की शक्ति से कहीं ज़्यादा तेज़, समय के बीत जाने की शक्ति है। सेकेण्ड्स, मिली सेकेण्ड्स, माइक्रो सेकेण्ड्स, तुम जिसे पकड़ने की कोशिश करोगे, पाओगे, पकड़ने से पहले ही बीत गया। तुम एक दिन को अपने लिए वर्तमान मानते हो। सरकार पाँच साल चलती है, तो हर दिन, हर साल तुम उसे वर्तमान सरकार कहते हो, पाँच साल तक कहते रहोगे। देश ने समय की इकाई पाँच साल बना ली है। सदी के लिए समय की इकाई सौ साल की है, तो तुम पूरे सौ साल को अपनी वर्तमान सदी कहते हो। ये तो इकाइयाँ है। ये समय कहाँ है? ये इकाइयाँ तो अपनी सुविधा के लिए तुमने बनाई हैं, समय इनके हिसाब से नहीं बीतता। वह बस बीतता जाता है। अपना भ्रम क़ायम रखने के लिए तुम समय की इकाई को बड़ा करते जाते हो - दिन को, हफ़्ते को, महीने को अपनी इकाई मानते हो और उस समय को अपना वर्तमान। जबकि वर्तमान तो क्षणभंगुर है। भविष्य तो अभी आया ही नहीं है, आएगा भी कि नहीं आएगा, किसी को नहीं पता, इसलिए उसकी बात ही क्या करना? वह आएगा, तो क्षणभंगुर बन जाएगा। जब तक नहीं आया है, तब तक तो अनिश्चित है और अनिश्चित की चिन्ता क्यों करना?
विलियम फाॅकनर फिर वह कौन-सी चीज़ है, जो क्षणभंगुर नहीं है? वह अतीत है। ‘अतीत कभी मरता नहीं, अतीत कभी अतीत भी नहीं होता। अतीत कभी क्षणभंगुर नहीं होता।’ जो पहले ही भंगुरित हो, वह क्षणभंगुर कैसे हो सकता है? जो पहले ही मर चुका है, वह और कैसे मर सकता है? जो बीत गया हो, वह और कैसे बीत सकता है? जो मर चुका है, वही अमर हो सकता है। अतीत मर चुका है। मृत्यु में प्रविष्ट होते ही वह अमर हो गया। अब उसे कोई नहीं मार सकता। ख़ुद समय भी नहीं मार सकता। क्षणभंगुरता का सिद्धान्त तो क़तई नहीं मर सकता। इसलिए अतीत अमर है। वही सब कुछ है। उसी को देखना सर्व को देखना है। अतीत स्मृति में रहता है। अतीत विस्मृति में रहता है। स्मृति और विस्मृति में आवागमन करना अतीत की अमरता को पुष्ट करता है। भविष्य है नहीं। वर्तमान, क्षण या क्षण से भी लघु है। बचता सिफऱ् अतीत है। अतीत स्मृति पर अवलम्बित है। प्रेम भी स्मृति पर अवलम्बित है। स्मृति हटा लो, प्रेम की अनुभूति घटा लोगे। प्रेम कोई क्रिया तो है नहीं और क्षणभंगुर वर्तमान में तुम क्रिया करते हो। इसीलिए प्रेम अतीत का विषय है। वह स्मृति में होता है। सारा प्रेम स्मृति में होता है। विस्मृत हो, तब भी वह प्रेम अतीत में ही होता है, वर्तमान में नहीं होता, क्योंकि वर्तमान तो ‘लगभग’ नहीं है। अतीत तो ‘निश्चित ही’ है। तुम महज़ अपनी सुविधा के लिए प्रेम को वर्तमान का क्षण मानते हो। तुम अपनी सुविधा से जीते हो। अपनी सुविधा-मात्र के लिए जीते हो।
पेसोआ 5. कवि अतीत को देख सकता है। यह कवि कौन है? यह प्रेमी है। अतीत को प्रेमी ही देख़ता है। बाकी सब अतीत की राजनीति करते हैं। सुविधा से उसे याद करते हैं, उस पर युद्ध करते हैं, सुविधा से उसे भुलाए रख़ते हैं। प्रेमी अतीत के सतत सम्पर्क में रहता है। वह याद करता है। वह स्मृति के बियाबान में भटकता ही रहता है। अचानक एक चीज़ देख़ता है। उससे उसके मन में किसी दूसरी चीज़ की स्मृति कौंधती है और वह उसमें खो जाता है। जो याद करता है, वह प्रेम करता है। जो प्रेम करता है, वही याद भी करता है। किसी भी तरह का प्रेम। वह आँखें बन्द करता है और देखने लगता है। ‘सारा का सारा जीवन दरअसल एक ‘देखना’ है।’ अतीत को देखना सब कुछ को देखना है। प्रेमी सब कुछ देख़ता है। वह सर्वदृष्टा, सर्वज्ञ होता है। लेकिन विडम्बना देखिए, वही सबसे ज़्यादा अज्ञ भी होता है। यही तो ज्ञान का महायान हैः जो सर्वज्ञ है, वही अज्ञानी है। जिसके पास है, उसी के पास ही तो नहीं है। प्रेमी अपनी सर्वज्ञता को मान्यता नहीं देता, हमेशा अपनी अज्ञानता में रहता है। उसे ठीक से अपने प्रेम का भी ज्ञान नहीं होता, लेकिन वह प्रेम किए जाता है। यही प्रेम का महायान है। यही प्रेम का ज़ेन हैः जानो मत, लेकिन प्रेम करते रहो। तुम प्रेम कर रहे हो, इसका अर्थ ही यही है कि तुम सब जानते हो, लेकिन जैसे ही जानने के बारे में सोचोगे, पाओगे कि तुम अज्ञानी हो। इसलिए प्रेम को ज्ञान की दिशा से मत देखो। बस प्रेम करते रहो। प्रेम करते रहोगे, तो प्रेम की दिशा से देखने लगोगे। सारा जीवन ही एक देखना है, तो अपने देखने के लिए तुम एक जगह खड़े हो जाओ, वहाँ से सब कुछ को देखोः और वह जगह प्रेम है। वह जगह स्मृति है। अगर तुम जियोगे, तो प्रेम की स्मृति के कारण जियोगे। अगर मरोगे, तो प्रेम की स्मृति के कारण मरोगे।
गेटे, अलाँ राॅब्बे-ग्रिये 6. गेटे का एक बैलड है - दि फीआॅन्सी आॅफ कोरिन्थ। नायक एक सुन्दर छरहरी लड़की के प्रेम में पड़ जाता है। वह उसकी स्मृति में बस जाती है। पर दिक्कत है कि वह लड़की के पास नहीं जा पाता, उससे ‘क्रियात्मक प्रेम’ नहीं कर पाता। लड़की कहती है, पहले मेरे पिता की अनुमति लेकर आओ। उसके पिता कोरिन्थ नामक नगर में रहते हैं। वह एथेन्स से लम्बा सफ़र कर वहाँ जाता है, किसी तरह उस लड़की का घर खोजता है, दरवाज़े पर दस्तक देता है और अपने आने का कारण बताता है कि मुझे आपकी बेटी से प्रेम हो गया है और उसे अपनाने से पहले मैं आपकी अनुमति लेने आया हूँ। बूढ़ी औरत कहती है कि उसकी बेटी को मरे बरसों हो चुके हैं, फिर वह कैसे उससे प्रेम कर सकता है? नायक को सदमा लगता है। वह तरह-तरह से मुतमईन होता है कि वह सही पते पर पहुँचा है, वह नायिका का ही घर है, किन्तु वह तो बरसों पहले मर चुकी है, फिर वह लड़की कौन थी, जो एथेन्स में उससे मिली थी और जिससे उसे प्रेम हो गया था? रात बेहद ठण्ड थी। मौसम भी ख़राब था। बूढ़े माँ-बाप उस नायक को अपने यहाँ शरण देते हैं ताकि सुबह मौसम ठीक होने पर वह वापस एथेन्स लौट सके। उसे लड़की के ही कमरे में ठहराया जाता है। नायक को नींद नहीं आती। आधी रात उस कमरे में वही लड़की दाखि़ल होती है, उसके पास आकर लेट जाती है। सुबह कमरे में नायक का शव पड़ा मिलता है। उसकी गरदन पर दाँतों के निशान हैं, जैसे किसी वैम्पायर ने उसका रक्त चूस लिया हो।
यह अतीत द्वारा चूसा गया रक्त था। वह लड़की एक अतीत थी। नायक उस अतीत का शिकार था। जिस स्त्री से उसने प्रेम किया था, वह अतीत थी, स्मृति थी। वह लड़की ख़ुद अपना अतीत थी। नायक उस लड़की के अतीत का शिकार। हम सिफऱ् अपने अतीत, अपनी स्मृतियों का ही शिकार नहीं होते, बल्कि किसी और के अतीत व स्मृति का शिकार भी हो सकते हैं। जैसे इस उपन्यास के शुरू में पाब्लीतो उफऱ् नील आॅर्मस्ट्राॅन्ग, ग्यारह नम्बर का नहीं, बल्कि उसकी स्मृति का पीछा करता है, उसी तरह इस बैलड का नायक एक पराई स्मृति की तलाश में एथेन्स से कोरिन्थ जाता है। वह स्मृति उसका खून चूस लेती है। प्रेम की स्मृति, चाहे अपनी हो या पराई, एक-सा असर करती है। अपनी स्मृति हो, तो कुछेक बार तुम्हें तर्क समझ में आ जाता है। पराई स्मृति हो, तो वह तर्क भी समझ में नहीं आता। यह स्थिति विक्रम और बेताल की तरह है। विक्रम एक राजा था। उसे पेड़ पर लटके बेताल को अपने वश में करना था। विक्रम कोई राजा नहीं था, बेताल कोई कथावाचक नहीं था। हम सभी में एक विक्रम, एक बेताल रहता है। विक्रम के पैर वर्तमान पर टिके होते हैं, भविष्य की ओर बढ़ते हैं, जबकि बेताल उसकी पीठ पर टिकता है। बेताल अतीत है। अतीत की स्मृति है। अतीत व स्मृति दोनों कथावाचक होते हैं। कथाएँ सुनाते हैं। वर्तमान और भविष्य कथाएँ नहीं, अवधारणाएँ सुनाते हैं। अतीत अपनी हर कथा में एक समस्या उछालता है और उम्मीद करता है कि वर्तमान व भविष्य, उस समस्या का समाधान करेंगे। विक्रम कोई समाधान नहीं देता, महज़ एक तर्क देता है। तर्क को समाधान की तरह स्वीकार कर बेताल फिर उड़ जाता है। वह हाथ नहीं आता, क्योंकि जैसे ही तर्क मिलता है, तर्क भी अतीत बन जाता है। हर नया तर्क, एक नया अतीत बन जाएगा। इसलिए विक्रम कभी बेताल को साध नहीं पाता, वश में नहीं कर पाता। विक्रम और बेताल की यह मुठभेड़ अनन्त काल तक चलती रहेगी। हर बार विक्रम, बेताल की नई स्मृति का शिकार बनेगा, उसे तर्क से बूझने की कोशिश करेगा और पाएगा कि बेताल फिर उड़ गया। अतीत को कोई साध सका है? अतीत से प्रेम करके कोई बच सका है? जबकि सारा प्रेम अतीत में रहता है। इसीलिए, प्रेम को दुधारी कहा गया है। वह अतीत में रहता है और अतीत को कोई साध नहीं सकता, इसलिए प्रेम असाध्य है। कोरिन्थ का नायक उसे साधना चाहता था। सभी उसे साधना चाहते हैं। कोरिन्थ के नायक की गरदन पर पड़े दाँतों के निशान सभी को दिख गए, लेकिन हमारी गरदन पर पड़े निशान कई बार ख़ुद हम नहीं देख पाते।
महाभारत 7. कर्ण को शाप मिला था कि जिस समय सबसे बड़ा संकट होगा, तुम धनुष चलाने की अपनी विद्या भूल जाओगे। युद्ध में उसके रथ का पहिया कीचड़ में फँस गया। वह धनुष छोड़कर नीचे उतरा ताकि पहले रथ निकाल ले, फिर लड़े। अर्जुन ने उसी समय हमला कर दिया। कर्ण अपनी विद्या भूल चुका था, इसलिए धनुष भी न चला पाया। यह कर्ण को मिला विस्मृति का शाप था। बरसों बाद, अर्जुन भी एक ऐसे ही संकट में फँस गया। उसके दोस्त कृष्ण की बीवियों को भील भगा ले गए थे। कृष्ण ने मदद के लिए अर्जुन को बुलाया। तब शत्रुओं के सामने अर्जुन अपना प्यारा धनुष गांडीव उठा भी न पाया। उसे उठाने का बल व हुनर दोनों ही उससे दूर हो गए थे। यह भी एक कि़स्म की विस्मृति है। विस्मृति का शाप कर्ण को मिला था, फिर अर्जुन को कैसे लग गया? पराये शाप भी लगते हैं। जैसे परायी स्मृति भी काम आती है। महाभारत के युद्ध में अर्जुन स्मृति से पीडि़त था। उसने जिन बंधुओं के साथ खेला था, प्रेम किया था, उन पर उसे बाण चलाना था। उस स्मृति के कारण वह मोह में था और युद्ध नहीं कर पा रहा था। कृष्ण उसके सारथि थे। उन्होंने अर्जुन की स्मृति व मोह को दूर करने के लिए वहीं युद्धभूमि में ही पूरी गीता रच डाली, कह डाली। आखि़र कैसे? क्योंकि कृष्ण के पास परिजनों से छलित होने, उनसे निराश होने, फिर उनसे युद्ध करके उन्हें मार डालने की पुष्ट स्मृति थी। कृष्ण ने अपने मामा व कई अन्य बांधवों को मारा था, इसलिए उन्हें पता था कि समय पड़ने पर परिजनों को भी मारना पड़ सकता है। उन्होंने यही स्मृति अर्जुन को दी। उसके बाद अर्जुन ने महाभारत के युद्ध में सारी मोह-माया छोड़ हत्याएँ कीं, तो इसी परायी स्मृति के कारण। कृष्ण की स्मृति, अर्जुन के लिए परायी स्मृति थी। परायी स्मृति भी कारगर होती है। कृष्ण ने कहा, भूल जाओ कि वे तुम्हारे बांधव हैं, मार डालो। अर्जुन ने विस्मृति का आह्वान किया और उन रिश्तों को भूल गया। लेकिन मरते समय कर्ण के चेहरे पर बसा अविश्वास वह कभी नहीं भूल पाया। जब बरसों बाद वह गांडीव उठा पाने में असमर्थ हुआ, तब भी उसकी आँखों के सामने कर्ण का वह मरता हुआ चेहरा आया होगा। वह उसे विस्मृत करने का प्रयास कर रहा होगा, लेकिन कर्ण उसकी स्मृति का सबसे अनिवार्य अंग बन गया होगा। कर्ण ने अर्जुन को एक नई विस्मृति दी होगीः अपना हुनर, बल विस्मृत कर देने से उपजी विवशता।
परायी स्मृति कारगर है, तो परायी विस्मृति भी कारगर है। अर्जुन ने कृष्ण की स्मृति से लाभ लिया, तो कर्ण की विस्मृति भी उसे हानि पहुँचाने पहुँच ही गयी। ये सब प्रेम के रूपक हैं। निजी स्मृति, पराई स्मृति, निजी विस्मृति, पराई विस्मृतिः प्रेमी इन चारों में वास करता है। प्रेमी, विस्मृति और स्मृति के बीच किसी स्थगित अर्थ की तरह वास करता है। प्रेम की अनुभूति को जिलाए रखने के लिए वह कभी विस्मृति का आव्हान करता है, तो कभी स्मृति का। कभी वह याद करके प्रेम करता है, तो कभी भूल करके प्रेम करता है। बिना याद किए प्रेम नहीं होता। बिना भूले भी प्रेम नहीं होता। क्या याद करना है, क्या भूल जाना हैः इसका चुनाव अत्यन्त शुद्ध होना चाहिए। इसीलिए प्रेम में, जीवन में, दर्शन में, चयनित स्मृति का महत्व है।
बुद्धवंशम, खुद्दक निकाय 8. शाक्यमुनि गौतम 28वें बुद्ध थे। उनसे पहले 27 बुद्ध हो चुके थे, ऐसा ‘बुद्धवंशम’ मानता है। महायान के अन्य ग्रन्थों के अनुसार, एक हज़ार से ज़्यादा बुद्ध हो चुके हैं। जातक कथाओं के अनुसार, ख़ुद बुद्ध कहते हैं कि इस धरती पर असंख्य बुद्ध हो चुके हैं। ‘बुद्धवंशम’ दीपंकर को पहला महत्वपूर्ण बुद्ध मानता है। उनसे पहले के तमाम बुद्धों के बारे में अलग कथाएँ मिलती हैं, लेकिन उन्हें बुद्धवंश के अन्तर्गत उल्लिखि़त नहीं किया गया। जिस समय में दीपंकर बुद्ध अस्तित्व में थे, शाक्यमुनि गौतम का जन्म सुमेध के रूप में हुआ था। बोधि की आकांक्षा उसमें भी थी। एक बार दीपंकर का आगमन उसी राज्य में होता है, जहाँ सुमेध रहता था। सारे लोग दीपंकर की आवभगत की तैयारी में लगते हैं। दीपंकर को जिस रास्ते से गुजरना था, वहाँ कीचड़ था। सुमेध को लगा कि बुद्ध कीचड़ से क्यों चलें? समय कम था, वह उस कीचड़ को सुखाने का कोई उपाय न कर पाया, तो वह ख़ुद उस कीचड़ पर लेट गया और उसने दीपंकर से आग्रह किया, ‘भन्ते! आप मेरी देह से बने पुल पर चलें ताकि आपके पैर कीचड़ से बच जाएँ।’ दीपंकर उस देह को देख ठिठक गए, उस पर पैर रखने से इन्कार कर दिया। बोले, ‘हे सुमेध! सैकड़ों बरसों बाद तुम्हें ख़ुद बुद्ध बनना है, आज तुम देह से पुल बने हो, तब तुम्हें प्रकाश का पुल बनना होगा।’ फिर दीपंकर ने, सिद्धार्थ गौतम के कुल, वंश, मोह, त्याग और सम्बोधि के क्षणों की भविष्यवाणी की। सुमेध चकित यह सब सुनता रहा। उतने समय बाद, भविष्यवाणी के अनुसार ही, सिद्धार्थ गौतम का जन्म हुआ और उन्होंने सम्बोधि पाई। निर्धारित रात शाक्यमुनि गौतम को सम्पूर्ण सम्बोधि तीन यामों अर्थात चरणों में प्राप्त हुई। प्रथम याम में पूर्व-जन्मों का ज्ञान हुआ। मध्यम याम में दिव्य चक्षु प्रस्फुटित हुए। अन्तिम याम में उन्हें प्रतीत्यसमुत्पाद का ज्ञान हुआ। उसके बाद देशनाओं के दौरान बुद्ध ने कई बार अपने पूर्व-जन्मों की कथाएँ सुनाईं। शाक्यमुनि ने अपने क़रीब 547 पिछले जन्मों को याद किया। हर जन्म में वह बुद्धत्व-प्राप्ति की दिशा में कुछ क़दम अग्रसर हो जाते थे। कुछ कथाएँ तो कहती हैं कि बुद्ध ने अपने लाखों पूर्व-जन्मों की स्मृति पाई थी। उन्होंने स्मृति में प्रवेश करके कई बार सृष्टि की रचना व प्रलय को घटित होते देखा था। यानी उनके पास सिफऱ् पूर्व-जन्मों की ही नहीं, पूर्व-सृष्टियों की भी स्मृति थी। इन सबको याद करने के बाद उन्होंने सम्बोधि पाई। यानी सम्बोधि, मात्र एक जन्म की प्रक्रिया नहीं है, उसमें बीते सैकड़ों जन्मों की तैयारी शामिल है। और सम्बोधि पा लेने के बाद बुद्ध को उन सभी जन्मों की स्मृति प्राप्त हो जाती है। सम्बोधि से पहले जो विस्मृत है, सम्बोधि के बाद वह स्मृत है। बुद्ध ने कई बार वर्तमान के प्रश्नों का उत्तर स्मृति की कथाओं द्वारा दिया है। यदि एक जीवन की स्मृति को निजी स्मृति माना जाए और शेष सभी पूर्व-जन्मों की स्मृतियों को पराई स्मृति, तो बुद्ध के जीवन के इसी प्रसंग से ही समझ में आ जाता है कि सम्बोधि-प्राप्ति के लिए निजी और पराई, दोनों ही स्मृतियों का सम्मिलित प्रयोग किया जाता है। दुःख का निरोध करने के लिए बोधिसत्त्व अपने वर्तमान व पूर्वजन्मों की स्मृति पर आश्रित होता है, वह उन घटनाओं को कर्मा की तरह देख़ता है, उनसे शिक्षण प्राप्त करता है। बुद्ध और अर्हन्त में यही बड़ा अन्तर होता है- बुद्ध के पास कोई शिक्षक नहीं होता, वह अपनी स्मृतियों से ही शिक्षा पाता है, जबकि अर्हन्त के पास बुद्ध के रूप में एक शिक्षक होता है, इसलिए उसे इस अनन्त स्मृति को प्राप्त करने की अनिवार्यता नहीं झेलनी होती। पर चूँकि वर्तमान जीवन और पूर्व-जन्मों की स्मृति को एक ही व्यक्ति प्राप्त कर रहा है, तो क्या उसे एक व्यक्ति की निजी स्मृति कहा जा सकता है? यदि हाँ, तो उस स्मृति के निर्माण में अन्य असंख्य लोगों का भी योगदान है। क्या उस योगदान को भी निजी की सीमा के भीतर लाया जा सकता है?
9. जब उनकी देह के भीतर साढ़े पाँच सौ जन्मों की स्मृति संचयित हो गयी थी, तो वह एकल कैसे रहे? बुद्ध को एकल नहीं कहा जा सकता, वह बहुल थे। वह एक देह के भीतर साढ़े पाँच सौ जन्मों की स्मृति थे। यह महा-महा-महायान जैसी उपस्थिति है। शाक्यमुनि के विचारों में स्मरण की क्रिया का बड़ा महत्व है। तो क्या वह स्मृति के उपासक थे?हां, बुद्ध स्मृति के भी उपासक थे। उन्होंने तीन यामों में सम्बोधि प्राप्त की और उन तीनों में पहला स्मृति का याम है। आम तौर पर दिव्य चक्षु और प्रतीत्यसमुत्पाद को महत्ता दी जाती है, लेकिन उन दोनों से पहले उन्हें स्मृति मिली। स्मृति के बिना कुछ नहीं पाया जा सकता। सम्बोधि तो बहुत ऊँची चीज़ है, साधारण प्रेम तक नहीं पाया जा सकता।
बुद्धघोष 10. बुद्ध ने इतनी विराट स्मृति कैसे पाई होगी? क्या यह सम्बोधि का अनिवार्य तत्त्व है? क्या इसे सिफऱ् बुद्ध पा सकते थे? बुद्धघोष ने ‘विसुद्धिमग्गा’ में कहा हैः साधना के द्वारा साधारण व्यक्ति चालीस कल्पों यानी वृहद् युगों की स्मृति पा सकता है, साधारण श्रावक एक हज़ार कल्पों की। बुद्ध के अस्सी महान शिष्यों ने एक लाख कल्पों की स्मृति पाई थी। उनके दो प्रिय व महान शिष्यों - सारिपुत्त व मौद्गल्यायन- ने एक असांख्येय युग व एक लाख कल्पों की स्मृति पायी थी। प्रत्येक-बुद्ध दो असांख्येय युगों व एक लाख कल्पों की, जबकि बुद्ध अनन्त अतीत की स्मृति पा लेते हैं।
11. उन्होंने सम्पूर्ण स्मृति पर ज़ोर नहीं दिया। वर्तमान जीवन में, पूर्व-जीवन में जो कुछ घटित हुआ है, उसकी सम्पूर्ण स्मृति रखना आवश्यक नहीं, बल्कि ‘सम्यक स्मृति’ आवश्यक है। बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग का सातवाँ अंग है- सम्यक स्मृति। यह एक तरह की चयनित स्मृति है- विवेकपूर्ण सतर्क स्मृति। बुद्ध हमेशा चयनप्रिय रहे। उन्होंने मार्गों का चयन किया, स्थितियों का चयन किया, वृक्ष का चयन किया, जन्म लेने के लिए माँ की कोख का चयन किया, पिता का चयन किया, कुल-वंश-तिथि का चयन किया, जब सम्बोधि मिली, तो प्रथम उपदेश के लिए श्रोताओं का भी चयन किया। दिशाओं का चयन किया। दूरियों का चयन किया। यहाँ तक कि प्रश्नों का भी चयन किया। उन्होंने सभी प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया, बल्कि चयनित प्रश्नों का ही मात्र उत्तर दिया। उन्होंने प्राप्त में से चयन किया। अ-प्राप्त में से चयन किया। बुद्ध के जीवन में चयन के महत्व को अक्सर उपेक्षित किया जाता है। व्याख्याकार कहते हैं, ‘वह भिक्षु ही क्या, जो चयन करे। भिक्षु तो वह है, जो प्राप्त को सम्पूर्ण रूप से स्वीकार करे, उसमें से चयन न करे।’ किन्तु बुद्ध यह व्याख्या नहीं हंै। उन्होंने संघ में सबको लिया, किन्तु विशिष्ट शिष्यों का चयन किया। उनकी विशिष्टता को जानने के लिए बार-बार उनका परीक्षण किया। एक बार उन्होंने एक सभा में कहा था, यहाँ उपस्थित भिक्षुओं में से तीन सौ ऐसे हैं, जिन्हें अर्हता प्राप्त करने के लिए पूर्वनिवासानुस्मृति यानी पूर्व-जन्मों की स्मृति की आवश्यकता ही नहीं है। यह भी एक प्रकार का चयन था। इसी तरह उन्होंने अपनी समस्त उपलब्ध स्मृतियों का आह्वान नहीं किया, बल्कि चयनित स्मृतियों का किया। उन्होंने सर्व-जन्मों की स्मृति हासिल की, किन्तु वह सर्व की स्मृति में नहीं गए। वह वर्तमान की किसी समस्या के उद्धार के लिए अपने किसी पूर्व-चयनित जन्म की पूर्व-चयनित स्मृति में गए, उस घटनात्मक स्मृति से स्वयं को जोड़ा और उसे उदाहरण-स्वरूप प्रस्तुत कर वर्तमान समय की समस्या का निरूपण-उपाय किया। यह स्मृति का प्रयोग है। स्मृति का यह प्रयोग एक रचनाकार, कथाकार, लेखक या कलाकार की तरह किया गया प्रयोग है। इस पर चर्चा कुछ अनुच्छेदों बाद, उससे पहले चयनशील स्मृति बनाम सर्व-स्मृति देख़ते हैं।
बोर्हेस 12. ‘फ्यूनेस द मेमोरियस’ यानी विराट स्मृतियों वाला फ्यूनेस चयनशील स्मृति से महरूम है। उसका अभिशाप है कि वह स्मृतियों के सर्व में चला जाता है। इरेनियो फ्यूनेस नामक नौजवान घोड़े से गिर जाता है, उसके सिर में भयंकर चोट लगती है और उसके बाद उसके मस्तिष्क में जाने कैसा परिवर्तन आता है कि अपने जीवन में घटे हर पल को याद रखने लगता है। उसका शरीर पंगु हो चुका है, वह सारा समय अपने कमरे में रहता है, वहाँ से बाहर का दृश्य देख़ता है। उसे यह भी याद रहता है कि कुछ दिन पहले किसी एक क्षण-विशेष में बादलों का आकार कैसा था, किस क्षण उसके शरीर ने कैसा महसूस किया था। उसके पास एक-एक क्षण की स्मृति है। समय काटने के लिए वह अपने बीते दिन की क्षण-प्रति-क्षण की स्मृति को याद करता है, इसमें उसका पूरा दिन चला जाता है। बीते कल के हर क्षण को याद करने के लिए आज का हर क्षण निवेश करना पड़ता है। वह गणित के हर अंक को एक विशेष नाम देना चाहता है। वह नाम भी खोजने लगता है। उसकी दुनिया में साधारणीकरण नहीं है, अमूर्तन नहीं है, बल्कि हर क्षण उसके सामने मूर्त है। वह पिछले महीने के सोमवार को, महज़ एक बीता हुआ सोमवार नहीं मान पाता, बल्कि उसके पास तो उस सोमवार के हर क्षण की स्मृति है, जिसे वह सुना भी सकता है। हर क्षण की स्मृति महत्वपूर्ण नहीं होती, लेकिन उसके पास है। उसकी स्मृति में मामूली व विलक्षण दोनों ही प्रकार के क्षण हैं। नतीजा यह होता है कि वह सो नहीं पाता। ‘उसका चेहरा इजिप्त से भी पुराना लगने लगता है, पिरामिडों से भी प्राचीन।’ बाद में वह फेफड़ों की बीमारी से मर जाता है।
13. बुद्ध के पास विराट स्मृति है, तो फ्यूनेस की स्मृति भी कोई कम विराट नहीं है, लेकिन उसकी नियति व अवस्था अलग है। शुरुआती दिनों में यह विराट स्मृति उसके लिए खेल है, बाद के दिनों में अभिशाप है। उसके पास इसी जन्म के क्षण-क्षण की स्मृति है, किन्तु विस्मृति का वरदान नहीं है। वह भूल ही नहीं रहा। चाहकर भी नहीं भूल पा रहा। न भूल पाने की अवस्था में वह स्मृति के सर्व में प्रविष्ट हो जाने को भी अभिशप्त है। स्वाभाविक विस्मृति बेहद मददगार होती है, क्योंकि वह तुम्हें स्मृति के बड़े हिस्से से स्वतः ही दूर रख़ती है। फ्यूनेस के पास वह नेमत नहीं। वह सर्व में रहता है और सर्व को विलक्षण विशेष मानता है। विशेषता, वैयक्तिकता से जुड़ा गुण है, सर्व से नहीं। सर्व का गुण साधारणीकरण है। उसके पास साधारणीकरण या जनरलाइजेशन नहीं है। वह हर अंक को विशेष रूप से देख़ता है, हर क्षण को विशेष रूप से देख़ता है, विशेष को भी विशेष की तरह देख़ता है, इतना ज़्यादा विशेष है कि विशेष भी साधारणीकरण में बदल सकता था, लेकिन वह इस ओर नहीं देख पाता। स्मृति से जुड़ा हुआ महत्वपूर्ण गुण है साधारणीकरण। वह चयन सिखा देता है। तुम भले कितने भी विलक्षण हो, तुम्हारे जीवन के अधिकांश, अनगिनत क्षण साधारण होंगे, तुम्हें उन्हें छोड़ना ही होगा। उन्हें तुम पूरा साथ नहीं ले चलोगे। स्मृति तुम्हारे जीवन की घटनात्मकताओं की छननी है। महीन-महीन पार निकला जाएगा, स्थूल-स्थूल विस्मृति में अटक जाएगा। वह स्थूल भी महीन होकर पार आ सकता है, यह महीन भी स्थूल बनकर वापस विस्मृति में जा सकता है।
उम्बेर्तो एको 14. प्रेम में स्मृति की भूमिका जाननी हो तो बुद्ध और फ्यूनेस का स्मरण एक साथ करना होगा। बुद्ध से चयनप्रियता लेनी होगी और फ्यूनेस से साधारणीकरण का पाठ। तुम एक स्त्री से छह माह प्रेम करते हो, लेकिन याद रखने लायक छह क्षण जुटा सकते हो? वे छह क्षण, जो बीस साल बाद तुम्हारी स्मृति को आन्दोलित कर देंगे। जब तुम्हारी सारी स्मृति अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही होगी, तुम उन छह में से किसी एक क्षण के लिए तड़प सकते हो?वह तुम्हारा आखि़री चयन होगा। जैसे एको के उपन्यास ‘द मिस्टीरियस फ्लेम आॅफ क्वीन लोआना’ में याम्बो अपनी सारी स्मृति खो चुका है। वह उसे पाने की कोशिश करता है, किन्तु सफल नहीं होता। अन्त में उसमें सिफऱ् एक स्मृति की इच्छा है- वह उस लड़की का चेहरा एक बार याद कर लेने के लिए संघर्ष करता है, जिससे वह स्कूली दिनों से ही प्रेम करता था। वह एक क्षण भी उसे नहीं मिल पाता। फ्यूनेस के पास हर एक क्षण है, याम्बो के पास एक भी क्षण नहीं।
15. अतीत और वर्तमान का सम्बम्ध स्मृति व विस्मृति से है। जो कुछ तुम्हें याद है, वह तुम्हारा वर्तमान है। जो कुछ भी तुम भूल गए, वह तुम्हारा अतीत है। वह प्रेमी, जो अपनी सत्रह साल पुरानी प्रेमिका को आज भी याद रखे हुए हो, आज भी उससे प्रेम कर रहा है। वह प्रेमिका उसका वर्तमान है। वह अब उसके पास नहीं है, उसकी स्मृति है और इसी स्मृति के कारण वह अब भी उसके भीतर धड़क रही है। वर्तमान यही तो होता है। स्मरण के क्षण में वर्तमान है। विस्मरण के क्षण में अतीत है। उस प्रेमिका का अब कोई अस्तित्व नहीं है, लेकिन प्रेमी उससे प्रेम कर रहा है। बौद्ध-धर्म कहता है कि अतीत का कोई अस्तित्व नहीं होता, लेकिन बुद्ध स्मरण की क्रिया में संलग्न रहते हैं। यह किस तरह का स्मरण है, जो बुद्ध कर रहे, जो प्रेमी कर रहा? इससे पहले यह देखो कि यह किस कि़स्म का विस्मरण है?
नीत्शे 16. ‘अगर तुम्हारे पास विस्मृति नहीं है, तो तुम्हारे पास कोई ख़ुशी न होगी, आनन्द न होगा, उम्मीद नहीं होगी, गौरव न होगा, वर्तमान भी नहीं होगा। जो भूल नहीं पाता, उसकी हालत कब्ज के शिकार जैसे व्यक्ति की तरह हो जाती है।’ फ्यूनेस भूल नहीं पाता था, इसलिए अक्षुण्ण स्मृति होने के बाद भी उसके पास वर्तमान नहीं था। जो कुछ तुम्हें याद है, वह तुम्हारा वर्तमान है, ऐसा अभी ऊपर ही कहा, लेकिन वह वाक्य अतीत व विस्मृति की उपस्थिति के सापेक्ष है। विस्मृति है ही नहीं, स्मृति ही स्मृति है, तो वर्तमान भी नहीं होगा। एक उदाहरण लेते हैंः फ्यूनेस ने बुधवार का पूरा दिन जिया। इस दिन उसने ज़रा भी याद नहीं किया। पूरा दिन उसकी वर्तमानता में जिया। अगले दिन उसने बुधवार को याद करना शुरू किया। बुधवार में चैबीस घण्टे थे, उसे याद करने के लिए उसे गुरुवार के पूरे चैबीस घण्टे देने पड़ गए, क्योंकि वह बुधवार का एक पल भी भूला नहीं था। यानी उसका पूरा का पूरा गुरुवार समाप्त हो गया। गुरुवार का कोई नया अनुभव उसके पास नहीं था। गुरुवार का वर्तमान समाप्त। गुरुवार का पूरा वर्तमान बुधवार की स्मृति में बीत गया। इसी तरह उसका हर दिन बीत रहा है। वर्तमान जो पहले से ही क्षणभंगुर है, फ्यूनेस के जीवन से एकदम ग़ायब हो गया। स्मरण से वह बच नहीं सकता, याद किए बिना रह नहीं सकता। नई स्मृति की रचना के लिए उसे कुछ न कुछ विस्मृत करना होगा। विस्मृति और स्मृति के इसी खेल से एक विवेक की रचना होती है, बुद्ध उसे ही सम्यक स्मृति कहते हैं।
17. बुद्ध स्मृति के मोह से बचाते हैं। सामान्य तौर पर जैसे ही स्मृति शब्द का प्रयोग किया जाता है, उसमें स्मृत के प्रति मोह को शामिल कर लेते हैं। हिन्दू मिथाॅलजी में शिव को स्मृतियों का संहारक कहा जाता है, लेकिन संहार के बाद भी शिव स्मृति से मुक्त नहीं हो सके। मृत्यु की तरह स्मृति भी ब्रह्मा की बेटी है। स्मृति का सम्बन्ध अमरत्व से है। देवताओं और मनुष्यों में क्या अन्तर है? मनुष्य मर जाते हैं, मरने के बाद उनकी देह और स्मृति नष्ट हो जाती है। देवता भी मर जाते हैं, लेकिन मृत्यु देवी उन्हें उनकी देह लौटा देती है, स्मृति देवी उन्हें उनकी स्मृति वापस दे देती है। इसलिए वे वापस उसी तरह जीवित हो जाते हैं। देह और स्मृति ही तो अमरत्व है। कुपित होने पर शिव स्मृति छीन लेते हैं। मृत्यु के बाद आत्मा को विस्मृत करने का जिम्मा भी शिव का है। अधिकांश धर्मों में एक काढ़ा या घोल है, मृत्यु के बाद जिसे फरिश्ते उस आत्मा को पिला देते हैं, इससे उसकी पूर्व-स्मृति विलुप्त हो जाती है। हिन्दुओं में ऐसा काढ़ा नहीं, सीधे शिव हैं। अगर आप इस किताब के पिछले पन्ने पढकर यहाँ तक पहुँचे हैं, तो आपको ध्यान होगा, छत्तीस नम्बर वाले हिस्से में लैला की कहानी है, जो अपनी उँगली से मनुष्य की आत्मा के ऊपरी होंठ को दबाती है और उसकी स्मृति हर लेती है। इसीलिए सारे मनुष्यों का ऊपरी होंठ बीच से दबा होता है। इन सारी कहानियों का अन्तर्पाठ यही है कि एक समय विस्मृति, स्मृति से ज़्यादा महती हो जाती है। विस्मृति ही स्मृति के मोह से बचाती है।
वाॅल्टर बेन्यामिन 18. कथाकार जब स्मृति का प्रयोग करता है, तब वह इसके मोह में नहीं रहता। उसका एक ही मक़सद होता है, स्मृति और कल्पना के मेल से एक सुन्दर कथा की रचना। वह स्मृति व विस्मृति के प्रति एक ऐसी दूरी बनाए रख़ता है, जिससे सिफऱ् उसकी रचना को लाभ हो। यदि स्मृति के कारण रचना में ख़राबी आ रही है, तो वह स्मृति में कल्पना का निवेश कर देगा। स्मृति का सत्यापन कठिन है, भले ही वह निजी स्मृति हो। क्योंकि हम घटना को नहीं, बल्कि घटना की छवि को सुरक्षित रख़ते हैं। छवि आईने में बनती है। यदि आईने में कोई नुक्स या विशेष योग्यता होगी, तो वह छवि (स्मृति) में भी दिखेगी। प्रेमी और प्रेमिका के बीच एक घटना घटती है, कुछ समय बाद जब दोनों उस घटना की स्मृति को अभिव्यक्त करते हैं, तब दोनों का संस्करण अलग-अलग हो जाता है। उनके दृष्टिकोणों के आधार पर उनकी स्मृतियों की रचना होती है। अतः स्मृति निरपेक्ष नहीं है। यहाँ फिर स्मृति के साथ बुद्ध की सम्यकता, सतर्कता वाला फलसफा लागू हो जाता है। स्मृति के कोश से सिफऱ् उतना ही बाहर लाओ, जिससे तुम्हें लाभ हो। स्मृति सिफऱ् याद करना नहीं है, बल्कि विवेकपूर्ण चयन है। ध्यान है। एक निरन्तर सतर्कता है। स्मृति को सिफऱ् ‘याद करने’ के संदर्भ में इस्तेमाल करने से हमेशा बचना चाहिए। इसीलिए स्मृति का सतत अभ्यास चाहिए। अभ्यास से ही सम्यकता मिलेगी। स्मृति के प्रयोग के संदर्भ में वाॅल्टर बेन्यामिन ने कथाकार की तुलना किसी सन्त से करते हुए कहा हैः ‘कथाकार वह व्यक्ति होता है, जो अपनी कथा की लपट में अपने जीवन की बाती को पूरी तरह जला डालता है।’ यहाँ कथाकार की जगह प्रेमी, कथा की जगह प्रेम को रखकर देखा जाए। कथाकार का परम लक्ष्य उसकी कथा है, प्रेमी का परम लक्ष्य उसका प्रेम। जिस तरह कथाकार स्मृतियों का उपयोग अपनी कथा की सुन्दरता के लिए करता है, उसी तरह प्रेमी भी। कथाकार एक मिथ्या-लोक रचना करता है। प्रेमी भी अपने लिए एक मिथ्या-लोक बनाता है। शंकर इस पूरे संसार को मिथ्या कहते हैं। बुद्ध भी इस संसार को सत्य नहीं मानते। लंकावतार सूत्र कहता है कि यह सारा संसार हमारे मन की कल्पना है, इसमें कुछ भी सचाई नहीं। प्रेमी सोचता हैः जिस संसार में मैं रहता हूँ, वह अपने आप ही एक मिथ्या-लोक है, तो उसके भीतर एक और मिथ्या-लोक की रचना कहाँ से गलत है? किसी की भी स्मृति पूर्णतः वास्तविक नहीं होती। किसी की भी कल्पना पूर्णतः अवास्तविक नहीं होती। तो वह मिथ्या-लोक, जिसे हम प्रेम कहते हैं, जारी रहता है। रहनीय बना रहता है।
प्रूस्त 19. बिना प्रूस्त को याद किए स्मृति पर कोई चर्चा पूरी नहीं हो सकती। स्मृति एक ऐसा आख्यान है, जिससे मनुष्य के इतिहास की रचना होती है। मनुष्य की निजी पहचान स्मृति के कारण ही बनती है। किसी व्यक्ति की स्मृति का हरण कर लो, उसकी पहचान नष्ट हो जाएगी। किन्तु यह पूरी तरह यूरोपीय तथा पश्चिमी दृष्टिकोण है। पूर्वी तथा भारतीय दृष्टिकोण तो यह है कि अपनी सारी निजी स्मृतियों के बावजूद, व्यक्ति की निजता एक भ्रम हैः न केवल भ्रम है, बल्कि तमाम अनैतिकताओं व विषयान्तरों का आरंभ-बिन्दु भी है। इसीलिए सारे भारतीय दर्शन- हिन्दू, बौद्ध, जैन- स्मृति के साथ-साथ विस्मृति की सिफ़ारिश करते हैं और व्यक्ति को अपनी पहचान भुला देने को कहते हैं।
20. यहाँ ज़ेन कोआन की स्मृति आती हैः ओशिन ध्यान में बैठा है। उसके गुरु आवाज़ देते हैं- ओशिन? वह जवाब देता है- हाँ। थोड़ी देर बाद फिर गुरु आवाज़ देते हैं- ओशिन? वह जवाब देता है- हाँ। थोड़ी देर बाद गुरु फिर आवाज़ देते हैं- ओशिन? वह जवाब देता है- हाँ। गुरु वहाँ से चले जाते हैं।
जो लड़का ध्यान में बैठा है, उसका नाम ओशिन है। नाम उसकी निजी स्मृति है। वह ध्यान में बैठा है, ध्यान यानी अपनी निजता के आसन पर बैठना, फिर उससे बाहर निकलकर सार्वभौमिकता से एकाकार हो जाना। एक शून्य का दूसरे शून्य में समा जाना। ध्यान का अर्थ है अपने को ख़ाली कर देना। ध्यान के बीच अगर यह सोच सके कि मुझे ख़ुद को ख़ाली करना है, यानी तुमने ध्यान के लिए एक लक्ष्य निर्धारित कर लिया, तो भी ध्यान अधूरा रह जाएगा, क्योंकि ख़ुद को ख़ाली करने के लिए, ख़ालीपन के विचार को भी दूर कर देना होगा। यह एक प्रक्रिया है। सोच से नहीं, अ-सोच से होगी। निज से नहीं, अ-निज से होगी। ध्यान बड़ा दुर्लभ शब्द है। संस्कृत का ध्यान पालि में झान बन गया। वहाँ से चीन पहुँचा और चान बन गया। वहाँ से जापान पहुँचा और ज़ेन बन गया। ध्यान के ज़ेन बनने तक बहुत लम्बी दूरी पार करनी होती है। यही दूरी ध्यान की अन्तर्यात्रा भी है। इसे अंग्रेज़ी में मेडिटेशन कह देते हैं, लेकिन मेडिटेशन किसी एक वस्तु को केन्द्र में रखकर किया जाता है- मेडिटेशन आॅन लव, मेडिटेशन आॅन ये, मेडिटेशन आॅन वो! किन्तु ध्यान करने के लिए किसी वस्तु को केन्द्र में नहीं रखा जाता, बल्कि केन्द्रविहीनता से ध्यान बनता है। ध्यान किसी पर अवलम्बित नहीं है। यह सब कुछ के पार जाकर अपने आप को भूल जाना है। अपनी विशालता को भी भूल जाना है, अपनी क्षुद्रता को भी भूल जाना है। सिफऱ् एक पंक्ति में कहें तो ध्यान, अपनी निजता को भूल जाना है। उस समय ओशिन की निजता उसका नाम है। उसका आत्म उसका नाम है। वह ध्यान में बैठा है। गुरु उसकी निजता को सम्बोधित करते हैं, ओशिन कहता है- हाँ! यानी ओशिन अभी तक अपनी निजता को भूल नहीं पाया है। वह अपने आत्म के दायरे से नहीं निकल पाया है। गुरु तीन बार परीक्षण करते हैं। ओशिन तीनों बार अनुत्तीर्ण होता है। गुरु वहाँ से चले जाते हैं। पूरब मनुष्य को अपनी निजता से दूर हो जाने की प्रेरणा देता है।
21. प्रेम और ध्यान का स्वभाव एक जैसा है। प्रेम का अर्थ है- स्व से निकलो, पर में समा जाओ। पर को स्व में ले आओ। स्मृति पर अवलम्बित होकर प्रेम करो, फिर स्मृति से पार चले जाओ। तुम प्रेम में डूबे हुए हो, उसके बाद भी तुम्हारे भीतर अपनी निजता की स्मृति बची हुई है, यानी कहीं कुछ गड़बड़ है - तुम ओशिन जैसे हो गये हो। तुम्हारा गुरु तुम्हें पुकार रहा है, तुम सुन रहे हो, जवाब भी दे रहे हो- यानी अभी तक तुम प्रेम में डूब नहीं पाये हो।