09-Apr-2017 03:08 AM
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‘राजपाट’ तिलात्तमा मजूमदार का एक विशाल उपन्यास है। यह पहले ‘देश’ पत्रिका में धारावाहिक प्रकाशित हुआ था, बाद में पुस्तकाकार छपा। इसका कथास्त्रोत मुर्शिदाबाद का ग्रामीण इलाका है। मुर्शिदाबाद जिले में गंगा सागर की ओर अभिमुख होकर प्रवाहित हो रही है। उसकी बहुत-सी शाखाएँ शिरा-उपशिरा की तरह मुर्शिदाबाद में फैली हैं।
अनुवादक
इसके बाद वे विष्णु के पादप्रान्त से निःसृत हो गयीं। आकाशगंगा के रूप में प्रवाहित यह मन्दाकिनी नाम की तरंगिणी जब प्रबल वेग से मत्र्यलोक की ओर अभिमुख हुई, उसके रूपालोक से दसों दिशाओं में छाया अन्धकार विदीर्ण हो गया। उसकी विशाल तरंग-भंगिमा से देवगण विमोहित हो गये। उसका उन्मत्त वेग और अपरिमित शक्ति अक्षय स्वर्गभूमि को कोई क्षति न पहुँचा सकी, यह सत्य है किन्तु उसके रूप से प्रभावित देवगण आशंकित हो गये। सम्पूर्ण सौन्दर्य और शक्ति से युक्त यह नदी जब एकाएक मत्र्यलोक में जा पड़ेगी, वह मत्र्यभूमि तत्क्षण शतधा विदीर्ण हो जाएगी। धरती पर महाप्रलय हो जाएगा।
तब देवगणों ने देवाधिदेव महादेव का स्मरण किया। महादेव त्रिकालज्ञ थे। अत एव सामूहिक रूप से भयंकर महाप्रलय से, देवताओं की सुन्दर कीर्ति भूमि मत्र्यलोक की रक्षा करने के लिये, अपनी दोनों भुजाओं को फैला कर, महादेव गंगा से बोले, हे गंगे! मैंने तुम्हे स्वीकार किया। आओ मुझमें विश्राम करों, मैं तुम्हें स्थान देता हूँ। गंगा यह गंगा। जो मत्र्यलोक के पुण्यवान राजा भगीरथ की तपस्या से उत्पन्न हुईं और देवाधिदेव महादेव के आह्वान पर प्रसन्न, प्रबल वेग से उफनती उछलती स्वर्गद्वार का अतिक्रमण करती हुई मत्र्यलोक में गिरती और शिव के अपने जटा-जूटों में धारण कर लेने पर देवी गंगा महादेव के द्वारा विवाहित हो गयीं। जटाओं में आबद्ध होने से गंगा का प्रवाह अवरूद्ध हो गया। एकाएक वह सभी के लिये विस्मृत हो गयीं। वे मन में विचार करने लगीं-मैं कहाँ के लिये आयी थी और कहाँ आ पहुँची हूँ। मैं किस तरह इस जटाजूट के बन्धन में पड़ गयीं हूँ। मैंने किसकी पुकारे सुनी थी और कौन मुझे याद कर रहा है। अब तो मैं शिव के द्वारा विवाहित हो गयी हूँ। उन्हीं से पूछती हूँ।
इसलिये गंगा ने अपने जल रूप को जटाओं में ही रखकर, सुन्दर रूप धारण कर शिव के सामने आकर यह कहा-हे स्वामी! आपने मुझे बन्दी क्यों बना लिया? प्रवाहित होना ही मेरा धर्म है। गति ही मेरी प्रवृत्ति है। मुझे मुक्त करो।
यह सुनकर शिव ने अपने परम सुन्दर, परम मनोहर मुखमण्डल पर मुस्कान लाकर, उसी मुस्कान से गंगा को सृष्टि करने की सामथ्र्य दे दी। ध्वंस करने की शक्ति तो उन्हें निःसृत होते समय ही मिल गयी थी। इस बार सृजन-शक्ति से युक्त होने पर शिव ने अपने मन्द स्वर में कहा-हे कल्याणी! मैंनें तुम्हें बन्दी नहीं बनाया है। सामयिक रूप से तुम्हें धारण करके तुम्हारी तेज़ गति को कुछ रोक लिया है। तुम चिरमुक्ता हो। तुम स्वच्छन्दा हो। स्वाधीनता हो। तुम युग-युगान्तर तक प्रवाहित होती रहोगी। इतिहास की रचना करोगी और उसे सदा धारण किये रहोगी। हे गंगे! सिफऱ् बहते रहने की सार्थकता क्या है? अगर सृष्टि न करें तो सारे धर्मों में जड़ता आ जाती है। हे पावन गंगे! तुम कलुषनाशिनी हो। सारे पापों को तुम शुद्ध कर दोगी। तुम्हारी शक्ति अमित है। तुम्हारा बल अपरिमित है। यह धरती बड़ी अशक्त है। तुम अपनी पूरी शक्ति का उस पर प्रयोग मत करना। तुम संयत प्रवाह वाली बनी रहना। राजा भगीरथ की गम्भीर तपस्या बल से तुम लायी गयी हो। इसलिये, हे गंगे! आज से तुम भागीरथी हुईं।
विनयशील गंगा ने देवाधिदेव महादेव के सारे वचनों को मनवचन कर्म से सुना। वह संयत प्रवाहिनी हो गयी। उसके दोनों तट पर कितने नगर, जनपद, कितने गाँव उत्पन्न हो गये। कितनी फसलों को उत्पन्न करने वाले खेत। कितने कल-कारखाने। जिस स्थान से होकर गंगा बही वही ‘सुजला, सुफला’ देश हो गया। इसी बीच गंगाजल के स्पर्श से पापीगण भी पुण्यवान होने लगे, इससे मत्र्यवासी गंगा महिमा से अवगत हो गये। गंगा सभी की पूजिता हो गयी।
देवि सुरेश्वरि भगवति गंगे,
त्रिभुवन हारिणि तरल तरंगे।
शंकरमौलि विहारिणि विमले,
मम मतिरास्तां तव पदकमले।।
भागीरथी सुखदायिनी मातस्तवः,
जल महिमा निगमे ख्यातः’
नाहं जाने तव महिमानम्
ऋद्धि कृपामय मामज्ञानम्।।
हरिपद्ये तरंगिणी गंगा,
हिमविधूमुक्ताद्यवल तरंगे।
दूरीकुरू मम दुष्कृतिमारम,
कुरू कृपामयि भवसागर पारम्।।
हे त्रिभुवनतारिणी गंगे। पापी उनके पावन स्पर्श से पापमुक्त होते जा रहे हैं। मृत्युपथ यात्री उन्ही के सानिध्य में सोते जा रहे हैं। गंगायात्रा। जीवित प्राणियों की सबसे प्रिय आकांक्षा अक्षय स्वर्गवास करना होती है। गंगातट पर प्राण त्याग करने पर अक्षय स्वर्गवास मिलता है। कितने प्राणियों के कितने प्रियजन इसी के तट से गये हुए हैं। देहत्याग करने के बाद अग्निघूम के सहारे उन्होंने स्वर्गारोहण किया है। गया व्यक्ति मायामुक्त हो गया। किन्तु, जो जीवित रहे, वे प्राणी माया के बन्धन में पड़कर रोने लगे। उनके आँसुओं को गंगा में आश्रय मिल गया। गंगा बड़े निर्विकार भाव से इन शोकाश्रुओं को ग्रहण करती रही। अपने आशीष से शोकसंतप्त व्यक्ति को पवित्र कर दिया। उसे वह शक्ति दे दी जिससे दो-चार दिनों में ही उसके चित्र से प्रियजन की शोक स्मृति धूमिल हो गयी। बिना शोक को मूल मनुष्य का काम नहीं चलता है। इस तरह मन अगर न भूले तो देह-मन को पागल बनाकर शोक से ऊपर उठा देता है-
शरीरे जर्जरीभूते व्याधिग्रस्ते कलेवरे ।
औषधम् जाह्नवी वैद्यो नारायणो हरिः।।
व्याधिग्रस्त शरीर के लिये हे गंगा! तुम्हीं औषध हो। और श्रीहरि स्वयं वैद्य हैं।
आराध्या गंगा मत्र्यलोक में स्वयं ही नहीं आयी हैं। महाकाव्य महाभारत के वनपर्व में गंगा का यह आख्यान दिया गया है। इक्ष्वाकुवंश के राजा सगर पुत्र-कामना से सुमति और केशिनी अपनी दोनों पत्नियों के साथ कैलाश पर्वत पर पहुँचे। अयुत सैन्य के अधिपति, शक्तिमान सगर ने स्वयं ऐसी कठोर तपस्या आरम्भ की कि कैलाशपति महादेव शंकर ने उन्हें एक बड़ा वरदान दिया। उसी वरदान के फलस्वरूप सगर की एक पत्नी के गर्भ से साठ हज़ार पुत्रों ने जन्म लिया। दूसरी पत्नी के गर्भ से सिफऱ़् एक पुत्र का जन्म हुआ। सुमति बनी साठ हज़ार पुत्रों की माता। केशिनी के सिफऱ् एक सन्तान थी। इस एक पुत्र का नाम था असमंजस। असंमजस की प्रकृति अत्यन्त भयंकर और उसका चरित्र दुष्टतापूर्ण था। राजा सगर ने असमंजस के कदाचरण और उसकी कुकीर्ति को जानकर उसे देश से निकाल दिया।
सगर के शेष साठ सहÛ पुत्र वीर एवं गुणवान थे। पुत्रधन पर गर्व करते हुए राजा ने अश्वमेध यज्ञ करने का संकल्प लिया। यज्ञ का अश्व सगर के पुत्रों द्वारा सुरक्षित था। सुरक्षित रूप से अनेक स्थानों पर विचरण करते हुए वह अश्व एक जलहीन समुद्र के तट पर पहुँचा और सहसा वहीं अन्तध्र्यान हो गया। उसके अन्तध्र्यान होने का समाचार सुनकर राजा सगर ने अपने पुत्रों को आदेश दिया-तुम लोग सभी स्थानों और दिशाओं में जाकर उसे खोजो।
पिता के आज्ञाकारी पुत्र ने सभी सम्भाव्य स्थानों पर अश्व को ढूँढ़, उसे वहाँ न पाकर, समुद्र को खोदना प्रारम्भ कर दिया। उनके प्रकोप से असुर, नाग, राक्षस और अनेक प्रकार के समुद्री जीव-जन्तु निहत हो गये। अन्त में समुद्र की उत्तर-पूर्व दिशा में खोदते हुए उन्होंने पाताल में पहुँचकर देखा, अश्व वहीं विचर रहा है। पास में ही महात्मा कपिल का आश्रम था। सगर के पुत्र तेजस्वी मुनि को ही अश्व का चोर समझकर क्रोधित हो उन्हे बुरा-भला कहने लगे और उसी क्षण मुनि की तेजोमय दृष्टि के पड़ते ही भस्म हो गये।
पुत्रों के भस्म होने का संवाद महर्षि नारद ने राजा सगर के पास पहुँचा दिया। शोक से कातर राजा सगर ने असमंजस के पुत्र अंशुमान से कहा-हे पौत्र। अब तुम जाओ। यज्ञ के घोड़े को खोजकर मेरा नरक से उद्धार करो।
अंशुमान पाताल में पहुँचे। प्रशान्त और भक्ति विनम्र चित्त से कपिल मुनि को प्रणाम करते हुए यह निवेदन कियाः हे मुनिवर। आप हम पर प्रसन्न हों। मेरे ऊपर दया करें। मैं अपने पितामह की मुक्ति के लिये आपसे यज्ञ के घोड़े को माँगने आया हूँ। अपने पितृव्यगणों की मुक्ति के लिये आपसे पवित्र जल की भी याचना कर रहा हूँ। आप मेरी प्रार्थना को स्वीकार करें।
कपिल ने प्रसन्न होकर कहा-हे वत्स। मैं तुम्हें आशीर्वाद दे रहा हूँ। तुम यज्ञ का अश्व लेकर अपने घर जाओ। और महाराजा सगर का यज्ञ पूर्ण करो। किन्तु, तुम्हारे पितृव्यगणों की सहज में ही मुक्ति नहीं होगी। तुम्हारे एक महातेजस्वी पौत्र होगा। उसका नाम भगीरथ होगा। वह तपस्या से देवाधिदेव शंकर को प्रसन्न करके स्वर्ग से गंगा लाएगा। गंगा के जल का स्पर्श कर तुम्हारें पितृव्यगणों का उद्धार हो जाएगा।
अंशुमान ने सारा वृत्तान्त सगर को सुनाया जिससे वे पुनःशोकाभिभूत हो गये। अश्वमेध यज्ञ समाप्त कर उन्होंने समुद्र से कहा-हे समुद्र! तुमने मेरे साठ हज़ार पुत्रों की भस्म धारण की है, इसलिये तुम्हें मैं अपने पुत्रों से अलग नहीं समझता हूँ। आज से मैं तुम्हें अपना पुत्र ही मानता हूँं। आज से तुम सागर हुए।
यथासमय सगर के स्वर्ग सिधारने पर अंशुमान राजा हुए। अंशुमान के पुत्र दिलीप और दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए। राज्य प्राप्त कर सारा कार्यभार अमात्यों को सौंपकर भगीरथ तपस्या के लिए हिमालय चले गये।
दिन, मास, और वर्ष भी बीत गये। इस तरह एक-एक कर सहÛ वर्ष बीत गये। अन्त में गंगा ने मूर्ति धारण कर उन्हें दर्शन दिये। भगीरथ ने गंगा के चरणों में प्रणाम कर कहा-हे देवि! मेरे पूर्वज राजा सगर के पुत्रगण कपिल मुनि के शाप से भस्म हो गये थे। आप मत्र्यलोक में अवतीर्ण हों, आपके स्पर्श से वे पवित्र हो जाएँगे और उन्हें स्वर्ग लाभ हो जाएगा।
गंगा बोलीं-हे वत्स। मैं तुम्हारी प्रार्थना पूर्ण करूँगीं। इसके पूर्व तुम अपनी तपस्या से महादेव को प्रसन्न कर उनसे वरदान माँगो, जिससे वे मत्र्यलोक में अवतरण करते समय मुझे अपने मस्तक में धारण कर लें।
यह सुनकर भगीरथ कैलास पर्वत पर चले गये। उन्होंने कठोर तपस्या से महादेव को प्रसन्न किया जिससे महादेव ने भगीरथ की प्रार्थना स्वीकार की। पुण्यतोया देवी गंगा शिव के जटाजूटों में समा गयीं। विष्णुपद से निकली गंगा मत्र्यलोक में आते समय सब कुछ भूल बैठी थीं। शिव के आशीर्वाद से उन्हें सब कुछ याद आ गया। महादेव की जटाओं से वे त्रिधाराओं में विभक्त होकर प्रवाहित होने लगीं। भगीरथ ने विनम्र और भक्तिपूर्ण चित्त से गंगा का स्मरण किया, इस पर प्रणत भगीरथ से गंगा ने यह कहाः हे पितः। मैं तुम्हारी पुत्री हुई। कारण तुम मुझे मत्र्यलोक में लाये हो। मुझे तुम भागीरथी कहकर बुलाओगे। तुम्हारे पूर्वजों का मैं अवश्य उद्धार करूँगी। तुम मेरा मार्ग दर्शन करो।
इस पर भगीरथ बोले-ओ भागीरथी। तुम सचमुच मेरी पुत्री हुईं। मैं शंखध्वनि करते-करते आगे चल रहा हूँ। तुम मेरे पीछे चलो।
गंगा भगीरथ का अनुसरण करने लगी। रास्ते में एक स्थान पर भगीरथ घोड़ों को पानी पिलाने के लिये विश्राम हेतु थोड़ी देर खड़े हो गये। उसी स्थान पर पùावती नाम की एक कन्या अपनी सहोदरा बहन गंगा से मिलने के लिये आ गयी। स्वभाव से वह चंचल और विध्वंस प्रिया थी। अपना कर्तव्य मूल कर गंगा कहीं विपथगामिनी न हो जाए यह अनुभव उसे था। इसीलिये गंगा को बुलाने के लिये उसने भगीरथ जैसी शंखध्वनि की। गंगा भ्रमवश पùा की शंखध्वनि को भगीरथ की शंखध्वनि समझकर भिन्न दिशा में चलने लगी। भगीरथ के इस विषय में अनजान होने के कारण उन्होंने यथासम्भव शंख ध्वनि की तब गंगा का भ्रम टूटा। वे पùा की धारा को छोड़कर अपनी धारा में आकर बहने लगीं। गंगा के पùा को त्यागते ही पùा की पवित्रता नष्ट हो गयी।
भगीरथ गंगा को साथ लिये हुए बहुत से देश, बहुत से जनपद पार करते हुए कपिल मुनि के आश्रम की ओर चलने लगे। स्वर्ग से देवी-देवताओं ने उन्हें आशीर्वाद दिया। मत्र्यवासियों ने धरती में लोटकर उन्हें प्रणाम किया। कल्पना से परे इस दृश्य को जो नहीं देख पाये उनके मन में बड़ा पछतावा हुआ। कई द्रुतगामी अश्वों के रथ पर भगीरथ बैठे हुए थे। उनके दायें हाथ के शंख से लगातार ध्वनि हो रही थी। फेनिल, सजला भगीरथ नन्दिनी उनका अनुसरण करती जा रही थी। फेनराशि उफन रही थी। जल और भूमि के संघर्ष से विकट शब्द होता जा रहा था। पत्थर तोड़ती, कठोर भूखण्ड फाड़ती एक अपरूपा, जलवती गतिशालिनी नदी चली जा रही थी। दसों दिशाएँ ओंकार ध्वनि से भर गयी। देवगण भगीरथ और उनकी पुत्री भागीरथी को धन्य-धन्य कहने लगे। उफनती, उछलती, उच्छवसित गंगा अपने वेग से सारे पापों का विमोचन करते-करते सगर राजा के साठ हज़ार पुत्रों की भस्म धारण कर जब कपिल आश्रम के पास पहुँची, कपिल मुनि ने उसे को प्रणाम कर कहा-मातः। तुमने मेरे आश्रम को चिरकाल के लिये पवित्र कर दिया। उसे पुण्यशाली बना दिया। अब तुम सागर में विलीन हो जाओ।
गंगा ने सागर की भस्मराजि अब तक धारण कर ली थी। इस समय सम्पूर्ण वारिराशि समेत सागर के उपकण्ठ में आते ही सूखे समुद्र ने प्राणों से स्फुरित होकर शतफेन शीर्र्ष जल-राशि द्वारा गंगा का आलिंगन किया। अन्तरिक्ष में शहनाई बजने लगी। सारे वृक्ष फल-पुष्प पत्रों से भर गये। सम्पूर्ण धरती विमोहित हो गयी।
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मातः शैलसुतासपत्नि वसुधा-श्रृंगारहारावलि
स्वर्गारोहण वैजयन्ति भवतीं भागीरथी प्रार्थये।
त्वत्तीरे वसतस्वदम्बु पिबतस्त्वद्वीचिमुत्पे्रक्षतः
त्वन्नाम स्मरतस्त्वदर्पितदशः स्यान्मे शरीरव्ययः।।
- हे माँ! तुम शैलपुत्री पार्वती की सपत्नी हो। पृथिवी की विलासहार स्वरूपिणी हो। तुम स्वर्गारोहण की विजय वैजयन्ती हो। हे भागीरथी! तुमसे यह प्रार्थना है कि मेरा तुम्हारे तट पर वास हो, तुम्हारे पवित्र जल का मैं पान करता रहूँ। तुम्हारी तरंग माला देखते-देखते, तुम्हारा नाम लेते-लेते, तुम्हे ही निर्निमेष दृष्टि से देखते-देखते मैं देह त्याग दूँ।
भगवान् शिव के जटा-जूटों से निकली गंगा आज भी प्रवाहित होती जा रही है। पुराणों में गंगा की जितनी कथाएँ मिलती हैं। उनमें एक के साथ दूसरे की समानता, असमानता दोनों ही हैं। कारण, कहीं-कहीं कहा गया है गंगा ब्रह्मा के कमण्डलु से निकली हैं।
यह गंगा हिमालय और मेनका की पहली कन्या है। देवगणों के प्रयास से महादेव के साथ उसका विवाह हुआ। इधर मेनका अपनी पुत्री को खोजते-खोजते हैरान हो गयी। इससे वह क्रोधित हो गयी और उसने गंगा को शाप दे दिया कि तुम जल में परिणत हो जाओ। मातृशाप विफल होने वाला नहीं था। गंगा जल में रूपान्तरित हो गयी और उन्होंने ब्रह्मा के कमण्डलु का आश्रय ले लिया। कठोर तपस्या के द्वारा ब्रह्मा को सन्तुष्ट कर भागीरथ उन्हें पृथ्वी पर ले आये। महादेव ने गंगा के वेग को अपने मस्तक में धारण कर लिया। महादेव की जटाओं से निकलकर गंगा बिन्दुसागर में जाकर विलीन हो गयीं। वहाँ से उसकी सप्तधाराएँ निकलीं। उनके नाम है हलादिनी, पावनी, नलिनी, सीता, सिन्धु, कुचक्षु और भागीरथी। प्रवाहपथ में जहनु मुनि की यज्ञस्थली का विध्वंस करने के कारण ऋषि ने गंगा को उदरस्थ कर लिया। अन्त में राजा भगीरथ के बहुत अनुरोध पर ़ऋषि ने अपनी जानु से उसे प्रकट किया। गंगा का एक और नाम हो गया जाह्नवी।
ठीक-ठीक कितने वर्ष पहले भगीरथ गंगा को लाये यह सही-सही नहीं बतलाया जा सकता है। फिर भी वर्तमान समय अपनी वैज्ञानिक मानसिकता के कारण पुराण की इस गाथा की एक नयी व्याख्या करना चाहता हैं। उस व्याख्या के अनुसार राजा भगीरथ नदी विज्ञान से अवगत थे। गोमुख से निकलकर स्वच्छतोयार नदी हरिद्वार में आकर बहुत फैल गयी थी। भगीरथ ने अपने राज्य की सिंचाई के लिये उसका सुविधाजनक लाभ उठाया था। इस प्रतीकात्मक कथा के भीतर यह सत्य छिपा हुआ हो सकता है।
गंगा ने भगीरथ के निर्देशों का सदा पालन किया था। शिव के उपदेशों पर उसने ध्यान ही नहीं दिया था। सृजन के साथ-साथ ध्वंसात्मक शक्ति का भी उसने भरपूर प्रयोग किया था। गोमुख से सागर तक उसके प्रवाह-पथ में उसकी एक स्थूल स्थिति होने पर भी चलते-चलते गंगा ने अपने पुराने मार्ग को छोड़कर नगर, बन्दर, धान के खेतों को तोड़ते हुए अपना एक नया मार्ग तैयार कर लिया था। अर्थात् अपने दोनों तटों पर जिस प्रकार उसने नये जनपदों को जन्म दिया था, उसी प्रकार उसने ध्वंस का इतिहास भी रच दिया था। मनुष्य कभी तो नदी की स्वाभाविक गति और उसके रूझान को मान लेता है और कभी-कभी बाँध बनाकर उसे कठोर बन्धन में बाँध भी देता है। किन्तु बन्धन में देवता के अभिप्राय की तो सिद्धि होती नहीं है। उसके हाथ में बेडि़याँ पड जाती हैं। उधर देवता के हाथ में बेड़ी पहना कर उसें बन्धन में रखना क्या मनुष्य की सामथ्र्य है? इससे तो अच्छा उसकी बेड़ी खोल देना हैं। किन्तु, जिसने बेड़ी पहनी थी वह संकट दूर करने के बदले स्वयं एक संकट के रूप में आकर खड़ा नहीं होगा, इसका प्रमाण कौन देगा? मनुष्य की कल्याण बुद्धि को तो उसकी भनक मिलती नहीं है। कलिकाल में देवता भी छिप गये हैं, उनकी कोई भनकी भी नहीं मिल रही है। वे शासन करने में भी अदृश्य हैं और पूजन में भी अदृश्य रहते हैं। इस युग में अविरोधी अथवा सर्वसम्मत सत्य के देवता जैसी कोई चीज़ अब नहीं रहीं है। वैज्ञानिक लोगों ने ज्ञान के अहंकार में विचार सोचा, अब मैं शासक हो गया। प्रयोग विज्ञानियों ने पारदर्शी सत्य निरूपण के अहंकार में सोचा, ‘मनुष्य के कल्याण के लिये मैंने प्रकृति को यंत्रों में बाँध लिया है।’ इस क्षेत्र में मनुष्य के लिये जितना सम्भव था उसी में उसका कल्याण बना रहा। किन्तु, सामथ्र्य के बाहर होते ही कल्याण बह गया’।
मानवीय ज्ञान से जो नवीन उपलब्धि प्राप्त होती है, उससे नवीनतम ज्ञान तैयार होता है। नया ज्ञान पुराने ज्ञान को अपसारित कर देता है। किन्तु, जिस तरह से गंगा हिमालयों से निर्गत होकर कोई एक दिन में ही गंगा सागर नही ंपहुँच गयी, वैसे ही मनुष्य का ज्ञान भी कोई एक दिन में तैयार नहीं होता है। प्राप्त ज्ञान को व्यवहार में प्रयुक्त होनें में काफ़ी लम्बा समय लग जाता है। इसी बीच कितना समय, कितने युग लग जाते हैं। एक ज्ञान से दूसरे तक पहुँचने के मध्यवर्ती काल में ही सामान्य मनुष्य के इतिहास की रचना होती रहती है।
नदी और मनुष्य का इतिहास समानान्तर रूप से चलता रहता है। बंगदेश के गांगेय डेल्टा के इतिहास को अगर हम तरतीब से लगाने जाँए तो इस त्रिभुजाकार द्वीप के प्राचीन जनपद का इतिहास उसके साथ ही हमारी आँखों के सामने आ जाएगा। और अगर भौगोलिक उथल-पुुथल और गठन के सम्बन्ध में हमें पूरी जानकारी न हो तो इस जनपद का इतिहास अधूरा रह जाएगा। इतिहास भौगोलिक स्थिति द्वारा नियंत्रित होता है। जैसे यह गांगेय डेल्टा है। इस भाग की ऊपरी मिट्टी की जो सतह है उसके भीतर इसके भौतिक गठन की प्रक्रिया आज भी चल रही है। यह द्वीप धीरे-धीरे पूर्व की ओर खिसकता जा रहा है। इसके फलस्वरूप नदियाँ अपना मार्ग और अपनी दिशा बदलती जा रही हैं। और नदियों के प्रवाहपथ का परिवर्तन होता जा रहा है, जनपदों के बनने और बिगड़ने का नित्य नया इतिहास।
पश्चिम में भागीरथी, उत्तर और पूर्व में पùा-मेघना और दक्षिण में बंगोपसागर यह त्रिभुजाकार भूखण्ड ही गंगा का डेल्टा है। गंगा के जिस अंश से भागीरथी उत्पन्न हुई, वही स्थान गंगा डेल्टा का सबसे ऊँचा भाग है। भागीरथी का प्रवाह उच्चभूमि पर बराबर एक-सा है। गंगा की दो धाराओं के कारण पश्चिम बंगाल के प्रचीन जि़ला मुर्शिदाबाद में भारतवर्ष के सुजला-सुफला देश अंगराज्य का निर्माण हुआ था। समग्र भारतवर्ष के भूगोल से नज़र हटाते ही इस प्राचीन जि़ले की तरफ नज़र डालते ही इतिहास और भूगोल के वैशिष्ट्य से यह स्थान क्षण भर में ही असामान्य लगने लगता है। पूरे मुर्शिदाबाद भर में गंगा की बहुत-सी उपनदियाँ और शाखाएँ फैली हुई हैं।
सम्राट औरंगज़ेब द्वारा द्वारा नियुक्त बंग का दीवान मुर्शीद कुली खाँ सम्भवतः नदियों के आकर्षण से ही इस अंचल में आया था। उस समय मुर्शिदाबाद का नाम था, मखसूदाबाद और मुर्शीद कुली का नाम करतलब खाँ था। हाँ, यह ज़रूर है मखसूदाबाद इलाके में करतलब खाँ के आने का एक कारण राजनैतिक स्थिति भी कम महत्वपूर्ण नहीं थी। बंगाल के तत्कालीन सुबेदार, औरंगज़ेब के नाती अजीमुसशान के ईष्या जनित कोप से दूर बने रहने के कारण भी करतलबखाँ ने मखसूदाबाद को अपने कर्मक्षेत्र के रूप में पसन्द किया था। मखसूदाबाद को पसन्द करने का पहला कारण तो यही था कि वह उस समय यहाँ का फौज़दार था। सत्ता की वह शक्ति उसकी सहायक बनी थी। और इसका कारण था, नदियों से घिरा हुआ यह हराभरा भूखण्ड जिसके पास, भागीरथी के तट पर फ्राँसीसियों, ब्रिटिशों और अरमेनियायी लोगो की कोठियाँ बनी हुई थीं।
करतब खाँ ने प्रचुर मात्रा में राजस्व वसूल कर सम्राट औरंगज़ेब को खुश कर लिया था और इससे प्रसन्न होकर औरंगज़ेब ने उसे मुर्शीद कुली की उपाधि दी, उसका करतलब खाँ वाला नाम भी राजा का दिया हुआ था। उसके पहले करतलब खाँ का नाम था मुहम्मद हादी। और उसका यही अन्त नहीं था। इसके पहले मुर्शीद कुलीका एक हिन्दू नाम भी था। जिस पिता ने बालक मुर्शीद कुली को जिस मुसलमान सौदागर को बेच दिया था, इतिहास को उसकी भी कोई खबर नहीं हैं। मुर्शिदाबाद खाँ ने अपने नाम पर अपने कार्यक्षेत्र का नाम रख दिया मुर्शिदाबाद। और यह क्षेत्र बंगाल की राजधानी के रूप में बदल गया था। ईंटों, पत्थरों, मस्जिदों की पच्चीकारी में राजधानी का वह पूर्व गौरव आज भी बना हुआ है।
इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि मुर्शीद कुली के शासन काल में आर्थिक समृद्धि नदियों के रास्ते से हुई थी। दर-असल इस क्षेत्र पर गंगा-पùा-भागीरथी का गहरा प्रभाव था। यहाँ तक कि गंगा की शाखानदियों और उसकी सहायक नदियों ने भी इस अंचल की जीवनचर्या को नियंत्रित किया था। इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका भागीरथी ने अपनायी थी। इस नदी ने मुर्शिदाबाद जि़ले को दो ़भागों में बाँट दिया है। पूर्वी दिशा का नाम बगड़ी है। तिकोने द्वीप के कारण इसका नाम बागड़ी हो गया। कुछ लोगों का कहना है कि इस इलाके का नाम था व्याघ्रनदी। उसी से यह बागड़ी नाम हो गया। और भागीरथी का दक्षिणी भाग राढ़ देश कहलाता है। सुना जाता है, भारतवर्ष के सोलह जनपदों में एक जनपद का नाम था लाढ़ा इसी अंचल में था। लाढ़ा से ही उच्चारण करते-करते राढ़ा और राढ़ हो गया।
गंगा का यह त्रिभुजाकार डेल्टा वाला इलाका ईसा की सातवीं शताब्दी तक धीरे-धीरे बन गया था। नदी के प्रवाह ने ही इस डेल्टा का निर्माण किया था। अतएव गंगा का प्राचीन प्रवाह-पथ ही इस त्रिभुजाकार डेल्टा के निर्माण में शुरू से ही सक्रिय था। गंगा की वह मूल धारा बंगदेश में प्रवेश करने के पहले कौशिक और मगध राज्य में बहती थी। कौशिक और मगध राज्य को पार कर गंगा विंध्य पर्वत से टकराकर अवरूद्ध-सी हो गयी। इसके बाद उसने ब्रह्मोत्तर, बंग एवं ताम्रलिप्त देश के बीच से होकर अपना रास्ता बना लिया।
कौशिक अंचल इस समय उत्तर बिहार कहलाता है। और मगध वाले अंचल को अब दक्षिण बिहार कहते हैं । सम्पूर्ण राजमहल, संतालभूम, छोटानागपुर, मानभूम, और धोलभूम की पर्वत श्रेणियाँ मिलाकर विंघ्यपर्वत क्षेत्र कहलाता है। गंगा इन सभी क्षेत्रों को पार करती हुई, राजमहल को पार कर, कुछ दूर तक पूर्व में प्रवाहित होती हुई उत्तर की ओर मुड़ गयी। इसी समय वह गौड़ देश को पश्चिम में छोड़ती हुई राढ़बंग में प्रवेश कर गयी। इस प्रकार वह फिर दक्षिण में बहने लगी। इसके बाद सहÛ वर्षो तक गंगा धीरे-धीरे अपना मार्ग बदलती रही है। अपने पुरानें पथ के प्रतीकों के रूप में वह अनेक सरोवर, झील, अश्वखुरों की आकृति वाले अनेक तालाब, पोखर छोड़ती गयी है और निचली दलदली भूमि वाला विशाल अंचल। इस पूरी दलदली भूमि को मिलाकर अगर एक काल्पनिक रेखा खींची जाये तो वह एक नदी के प्रवाह-पथ को चिह्नित कर देगी।
पर अपना पथ चाहे जितना बदल ले, गंगा आज भी जनमानस में ध्वंसकारिणी नदी नहीं मानी जाती है। झाडू मारकर आज कोई भी उसे विदा देने को तैयार नहीं है। इसके बजाय जनमानस में गंगा के प्रति आज भी भक्ति अविचल है।
गंगा गंगेति यो बू्रयात योजनानां शतैरपि।
सर्वपापं विनिर्मुक्तो विष्णुलोकम् सः गच्छति।।
सौ योजन तक जो गंगा-गंगा कहता है, वह सारे पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक को जाता है।
इस कलुषनाशिनी, मुक्तिदामिनी गंगा की विपुल जलराशि ने ही उसके वैभव की रचना नहीं की है। गंगा में समा गया है अनेक उपनदियों का जल। फिर गंगा ने अपनी धाराओं को विभिन्न शाखा-प्रशाखाओं में बिखेर दिया है। रामगंगा, गोमती, घाघरा, गण्डकी, बागमती, कमला, कोसी, बूढ़ी गण्डक, टोंस, शोण, कर्मनाश आदि नदियों की जलराशि से समृद्ध गंगा ने भागीरथी, जलंगी, शियालमारी, भैरव आदि बहुत-सी शाखा नदियों की रचना की है।
भागीरथी के सम्बन्ध में एक वैचारिक द्वन्द्व फिर भी बचा ही रहता है। अपने जन्म के क्षण से ही जो गंगा भगीरथ दुहिता भागीरथी थी-वही फिर भागीरथी नाम की शाखानदी कैसे हो गयीं।
इसका कोई उत्तर नहीं मिलता है। कोई कहता है, पùा ही गंगा के मूल óोत की अधिकारिणी है। किसी का मत है भागीरथी ही मूल गंगा है। पवित्रता का अधिकार भी उसी को मिला हुआ है। गोमुख से लेकर सागरद्वीप तक पूरी नदी ही गंगा है। फिर भी कहीं तो उसके पुकारने का नाम हुगली, कहीं भागीरथी है।
भैरव गंगा की तरह एक शाखा नदी है। चूँकि भैरव पùा से ही निकली नदी है। पùा के पूर्वी छोर से आकर महानन्दा इससे मिल जाती है और ठीक उल्टी दिशा में पùा के पश्चिमी तट से निकला हुआ नद भैरव है। पùा के प्रवाह-पथ का आश्रय लेकर जब गंगा अपनी जलधारा को उसमें नहीं बहाती, तब महानन्दा ही भैरव के प्रवाह-पथ से होकर बहने लत्रती। बाद में पùा ही जब गंगा का मूल प्रवाह-पथ बन गयी, महानन्दा और भैरव दो अलग-अलग नद-नदी हो गये।
फरक्का के पच्चीस मील दक्षिण में गंगा से ही भागीरथी का उद्भव हुआ। उद्भव स्थल से प्रायः दो मील तक भागीरथी पùा के समानान्तर बहती रही। जैसे भगीरथ की उसी गाथा की पहचान वहन कर रहा हो यह समानान्तर प्रवाह। जैसे पùा की शंखध्वनि सुनकर यहीं मार्ग भूल गयी हो गंगा। फिर लौट आयी हो भागीरथी की धारा में। पùा अपनी बहन के स्नेहाकर्षण में समानान्तर रूप से दौड़ती रही थी दो मील तक। शेष पर्यन्त जब बहन से गले नहीं मिल सकी, तब क्षुब्ध पùा ने अपना मुँह फेर लिया, फिर वह तीव्र रोष से मैदान, घाट, पथ, जनपद सभी को चकनाचूर करते हुए आगे बढ़ी, उसका नाम कीर्तिनाशा है। सिफऱ् यही नहीं, गंगा की मूल धारा को अपने पास खींचकर भागीरथी को भी क्षीण काया बना दिया।
हाँ, इसकी एक भौगोलिक व्याख्या भी है। भागीरथी की तुलना में पùा का धारा पथ थोड़ा निचला है। इस कारण गंगा की धारा पùा की तरफ ढरक कर बहना चाहती है। और भागीरथी के मूल स्थल पर मिट्टी की पर्त धीरे-धीरे जमा होने लगती है। अन्त में भागीरथी की क्षीणता को दूर करने फरक्का वैराज से अड़तीस किलो मीटर लम्बी पानी भरने वाली एक नहरे खोदनी पड़ी। भागीरथी को पुनः पर्याप्त जल मिल गया। फिर भी उसकी धारा में बालू की चर निकलने लगी। बालू की उस चर पर बहाव की मिट्टी पड़ते-पड़ते वह भूमि जैसे ही कृषि योग्य हुई, दल-के-दल मनुष्य वहाँ आकर बसने लगे। जैसे बहरमपुर शहर से थोड़ी दूर भागीरथी के वक्षस्थल पर चेतनी की चर बन गयी थी। इस चरभूमि से पचास मील पूर्व में चालतिया झील है। चेतनी की इस चर पर लोगों की बस्ती है। जैसे शहर से सटे गाँव के लोग होते हैं वैसे ही उस चर के मनुष्य रहते हैं।
गंगा-पùा-भागीरथी के पूरे तट पर अनेक गाँव, गंज, कस्बे और नगर बसे हुए हैं। वैसे ही छोटी-छोटी नदियों के किनारे भी अनेक बस्तियाँ हैं। हो सकता है बड़े नगर न हों किन्तु शहर तो हैं ही। छोटे-छोटे गंज। ग्राम। फिर भी वे महत्वपूर्ण हैं। क्योंकि वहाँ पर मनुष्यों की रहाईश है। बस्ती। जैसे भैरव नद के तट का तिकोना गाँव। जैसे भागीरथी के तट पर चतुष्कोण और चेतनी की चर भूमि पर।
3
कार्तिक कालियदमन
खेलेन वनमाली
कालदहे झाँप दिये
वर्ण होल काली।।
कार्तिक मास में कृष्ण ने कालियदमन लीला की। वे कालियनाग को नाथने कालिहदह में कूद पड़े। कालियनाग की फूत्कार से जो विष उड़ा उससे कृष्ण की देहकाली पड़ गयी।
जहाँ तक निगाह जाती थी चारों तरफ हरे-हरे खेत थे। बालों के भार से धानों के पौधे हवा में डोल रहे थे। जब सरसों फूलने लगती है तो उसके पीले फूल ही दिखायी देते हैं। हरे-हरे धानों के बीच-बीच में चैकोर पीले सरसों के खेत एक अपरूप वर्णमयता की सृष्टि कर देते हैं। धूप से उनकी चमक कई गुना बढ़ जाती हैं। फिर सरसों ही क्यों यही कार्तिक का महीना मसूर बोने का भी समय होता है। मसूर, मटर, सरसों, अलसी थोड़ी-थोड़ी बाँटकर इसी समय तो बोयी जाती है। फिर पूस का अन्त होते-होते सरसों के सुनहले फूलों से खेत भर जाते हैं। मसूर और मटर में भी तब फूल आ जाते हैं। हरी भरी फसल से तब खेतों का कण-कण भरा दिखायी देता है।
आबादी वाली इसी भूमि के बीच से होकर डामर की सड़क चली गयी है। हालाँकि यह सभी जगह चिकनी नहीं है। बीच-बीच में इसमें गिट्टी निकल आयी है।
सड़क के किनारे बीच-बीच में कई घर हैं। कच्चे पक्के सभी। अथवा कहीं-कहीं सड़क को छूते हुए बहुत दूर तक खेतों का सिलसिला चला गया है। घरों की सीमा बहुत दूर तक दिखायी देती है। दो-चार दुकानें भी बीच-बीच में हो गयी हैं। अगर अधिक काम हो, इससे बड़ी दुकान की ज़रूरत हो तो शहर जाना पड़ेगा। कस्बा, गंज अथवा सदर में। जैसे यहाँका निकटवर्ती सदर हरिहर पाडा है। अगर किसी को इससे भी बड़े शहर की ज़रूरत हो, कोर्ट-कचहरी करनी हो, उसे और भी उत्तर में बसे शहर वहरमपुर जाना होगा। वहाँ आने-जाने में कोई असुविधा भी नहीं है। बसें मिलती रहती हैं।
फिर भी ये सब सड़कें, डामर पड़ी हुई सड़कें शहरों को छूते हुए ही निकली हैं। अगर कहीं दूर किसी देहात जाना हो, पहले कुछ दूर ईंटों की सुर्खी बिछा हुआ रास्ता है, उसके बाद गिट्टी पड़ा हुआ ऊबड़-खाबड़ रास्ता। अन्त में इसी रास्ते से चलते हुए आप कच्ची सड़क पर पहुँच जाते हैं। इस सड़क पर वर्षा में एड़ी के ऊपर तक कीचड़ जम जाता है। घोड़ागाड़ी इस सड़क पर बड़े मज़े से आ-जा सकती है। बैलगाड़ी भी। घोड़ा अथवा बैल कीचड़ की अधिक परवाह नहीं करते, जब घास से जोंक निकलकर बैल के खुरों में जाकर खून चूसने लगती है, बैलों को थोड़ा ठहरना पड़ता है। वे अपनी नुकीली जीभ से चाटकर जोंक को वहाँ से निकालना देना चाहते हैं। इसके अलावा उन्हें और कोई असुविधा नहीं होती घोड़ा, मकड़ी, मच्छर, कीड़े आदि के प्रति उदासीन रहते हैं। बैलों की तुलना में घोड़ों को मनुष्यों की तरफ से अधिक लाड-दुलार मिलता है। कीड़े-मकोड़ों को मनुष्य ही उनकी देह से नोंचकर निकालते रहते हैं।
इन सब कच्ची सड़कों पर मोटर गाडि़याँ मुश्किल में पड़ जाती हैं। ऊबड़-खाबड़ सड़कों पर या तो ये तिरछी हो जाती हैं अथवा ऊँचे पत्थरों की चपेट से क्षतिग्रस्त। गहरे कीचड़ में फँसकर बीच में ही रूक गयी बसें, इस इलाके के लोगों को ऐसा दृश्य भी देखने को मिल जाता है। यह ज़रूर है, इन इलाकों में मोटर आदि कभी-कभार ही आती हैं। कभी सिचाई दफ़्तर का पतरौल नहर का कटान देखने आ गया या वोटों के पहले कोई प्रत्याशी इधर आ भटका हो, या कभी-कभी किसी अपराधी की खोज में पुलिस की जीप आ गयी हो। हाँ, बीच-बीच में धनी परिवारों के मेहमान भी जीप पर बैठकर आ जाते हैं। उनके बाल और कपड़े धूल-धूसरित हो जाते हैं। वर्षा में बाढ़ आदि की आशंका के कारण कोई यहाँ नहीं आता, हाँ, हेमन्त, शीत यहाँ तक कि गर्मियों तक में लोग यहाँ आते रहते हैं।
इसी सड़क पर चलते-चलते अचानक दुलू खेपा की मयना वैष्णवी से भेंट हो गयी, मयना को देखते ही उसने ‘जयगुरू’ कहा। उसके बाद दोनों हाथ जोड़कर वह मयना वैष्णवी के सामने झुक गया। वैष्णवी ने थोड़ा हँसकर, खंजड़ी में थाप देते हुए कहा-‘जय राधे’। फिर बोली-‘खेपा कैसे हो?’
वैष्णवी के गले में तुलसी की माला थी। हाथों में भी वह वैसी ही मालाएँ पहने थी। अधमैली सफ़ेद साड़ी ही उसका परिधान थी। कंधे के काले झोले में भिक्षा में मिले थोड़े से चावल और शायद और कुछ ज़रूरी चीज़ें। वैष्णवी की त्वचा पर हल्की सिलवटें सी पड़ गयी हैं। हालाँकि उसका स्वास्थ्य अभी टनाटन है। और तीव्र चमक भी है।
दुलू खेपा ने वैष्णवी को जितनी बार भी देखा है उसकी तरफ से वह अपनी दृष्टि नहीं फिरा सका। आज भी नहीं। ऐसे मनुष्य होते हैं, जो पास आ जाएँ तो मन और सब कुछ भूल जाता है। इस दिनान्त में, जब आकाश में अन्तिम आभा और घनी छाया दोनों आवास भूमि पर जल्दी-जल्दी उतरते आ रहे हैं, जब वृक्षों की डाल पर पखेरू डूबे दिन की अपनी अन्तिम बातें किये ले रहे हैं, तभी वैष्णवी के कस कर बाँधे गये केश दुलू खेपा के मन में उथल-पुथल किये दे रहे थे।
वह भी प्रौढ़ हो चुका है। फिर भी उसे देखते ही वह पागल हो जाता है। और यह रमणी जैसे उसे उन्मत्त करने के लिये ही जहाँ-तहाँ घूमती रहती है और ज़रा-सा दर्शन देकर लोप हो जाती है। इस बीच चालीस के जीवन में दुलू खेपा जानता है कि ‘मनेर मानुषी’ का ज़रा-सी झलक दिखाकर लुप्त हो जाना ही स्वाभाविक है। वे पूरी तरह कभी पकड़ में नहीं आती हैं। और दुलू खेपा उसी ‘अधरा’ को पाने के उद्देश्य से आज भी भटक रहा है।
वह बड़ी स्पष्ट भाव-दृष्टि से वैष्णवी की तरफ देखता है। फिर बोलता है, ओ वैष्णवी! तुम बहुत सुन्दर लग रही हो। अब तुम बहुत रसवती हो गयी हो।
मयना वैष्णवी पान खाने से दागदार हुए अपने दाँतों को निकाल कर हँस पड़ती है। वे दाग़ दुलू खेपा की निगाह में ख़राब नहीं हैं, दुलू खेपा जानता है, खोट-खामी से ही मनुष्य का सौन्दर्य है। त्रुटियों वाला मनुष्य तो उसे और भी अपना जन लगता है। उसे लगा जैसे मयना वैष्णवी कह रही है, अरे, हाँ रे! रसिक, तुम तो चिरकाल से ही मुझे सुन्दरी समझते आ रहे हो। तो चलो ना, कहीं वाठलों-वैष्णवों के साथ चलकर डेरा जमाएँ।
दुलू खेपा ने अपने हाथ जोड़कर माथे से लगा लिये। कहने लगा-तुम्हारे चाहने से यह भी हो सकता है। फिर भी, तुम अपने रसिक को छोड़कर मेरे पास आ जाओगी, इसका मुझे ज़रा भी भरोसा नहीं है। फिर भी मुझे लोभ तो होता ही है।
बेमौके की एक सच्ची बात कह डालने पर दुलू खेपा अपने दोनों हाथ कानों से लगा लेता है। फिर दोनों हाथ जोड़ लेता है। जैसे उसने कोई अपराध कर डाला हो और अब हाथ जोड़कर क्षमा याचना कर रहा हो उसकी भाव-भंगिमा ऐसी ही थी। यह देखकर मयना वैष्णवी हँस पड़ी। हँसते-हँसते वह खंजड़ी बजाने लगी। वास्तव में उसका रसिक पुरूष तो स्वयं कृष्ण थे। उन्हें छोड़कर वह कहाँ जाएगी?
उनकी बगल से चिहिंकती हुई एक बैलगाड़ी निकल गयी। धूल उड़ाती हुईं। ढ़लते हुए प्रकाश में गोधूलि बेला ने उन दो प्रौढ़ व्यक्तियों को लेकर उस दृश्यपट पर एक मायामय चित्र बना दिया। हँसी के मारे वैष्णवी का शरीर डोलने लगा, उसी को देखकर दुलू खेपा का दिल डोल उठा। वैष्णवी कहने लगी, मेरे दिन तो सपने में ही बीत जाते हैं, सपने में ही। तो चलूँ रसिक। शाम होने को आयी। उसी मराली गाँव से आ रही हूँ।
-मराली गयी थी? तिकोना कभी नहीं जाती?
-आज और कहीं नहीं जाऊँगी।
-अच्छा, अच्छा! अगर तिकोना आओ तो मेरे अखाड़े में पैरों की धूल ज़रूर देना।
-हाँ, ज़रूर। तो फिर चलूँ? जय-राधे की।
-जयगुरू।
दोनों ने दोनों हाथ जोड़कर माथे से लगाए और फिर दोनों विपरित दिशा में चल पड़े। शाम धीरे-धीरे गहरी होने को है। मयना वैष्णवी अपने कदम जल्दी-जल्दी बढ़ाने लगी। गाँव-देहात में अँधेरा घिर आने पर चलना-फिरना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। अँधेरा इतना घना हो जाता है कि हाथ भर दूर की वस्तु भी नहीं पहचानी जाती।
मधुकरी करने निकली थी मयना वैष्णवी। उसकी माँग बहुत थोड़ी थी। हरिहर पाड़ा की घोष पल्ली के एक छोटे-से मठ में आजकल रह रही थी। वह महाप्रभु गोपीदास का था। वहाँ और भी बहुत से लोग रह रहे हैं। हरि की दया से मठ में अन्न का कोई अभाव नहीं है। भक्तों का दल रोज़ ही चावल साग-सब्ज़ी, फल, दूध दे जाता है। साथ में नकद रूपया भी। बहुत पुराने इस मठ में शिष्यों और भक्तोे की संख्या भी कम नहीं है। इस स्थिति में भी मयना वैष्णवी जो मधुकरी करने निकलती है, यह मठ के बहुतों को पसन्द नहीं था। किन्तु किसको अच्छा-बुरा लग रहा है इसकी परवाह ही नहीं करती थी वह। घूमना-फिरना उसे भाता था। भ्रमण के खिंचाव से वह अनेक ग्राम-गंजों में दौड़ लगाती रहती थी। अगर उसे दूसरे का शासन ही मानना होता, वह बैरागिन बनकर निकली ही क्यों? मधुकरी वैष्णवों का धर्म है। भक्तों का दिया हुआ अन्न अगर उनके पास अधिक है तो क्या उसे अपने ही काम में न लगाकर ग़रीबों के हित में नहीं बाँट देना चाहिए?
वैष्णवी की बात के पीछे एक तर्क है। उस तर्क का खण्डन कौन करेगा? घूम-घूम कर उसने देखा है कि असली ग़रीबी किसे कहते हैं। वह खुद दरिद्र नहीं है। मठ दरिद्र नहीं है। उनका अभाव तो आनुषंगिक है, उनकी रिक्तता तो स्वेच्छाकृत है-उनका खुद का लिया निर्णय। इस जीवन को उन लोगों ने खुद ही चुना है। भोग विलासहीन जीवन में हरिनाम संकीर्तन में ही उनका मोक्ष है। गुरूनाम लेने में ही उनका कल्याण और भगवती के पाद-पूजन में ही उनके पापों का प्रक्षालन है। यह एक अचरज भरी बात है कि आराधना करते हैं किन्तु गोपीदास का यही विधान है।
वह गृहस्थों के द्वारे जैसे ही पहुँचती, वे उसे हँसते हुए अपने द्वारे बैठा लेते हैं। कहने लगते हैं, दीदी, थोड़ा हरिनाम सुनाओ, तुम्हारा गला बहुत मीठा है।
गृहस्थों के घरों में फलने वाले पपीता, केला और कुम्हड़े उसे अनायास ही मिल जाते हैं। यही है उसकी मधुकरी। नाम-संकीर्तन सुनाने के बदले में मिला हुआ पे्रम का दान। फिर, इस दान के प्रति उसके मन में कभी लोभ जागता नहीं है। एक दिन में वह द्वारे-द्वारे नहीं घूमती। सभी घरों में भिक्षा माँगने वह नहीं जाती। एक-एक गाँव में दो-या-तीन गृहस्थों के ऐसे घर हैं जिनके साथ उसकी काफ़ी घनिष्ठता हो गयी है। यहाँ तक कि उनके अच्छे बुरे की भी वह भागीदार है। घूमते-घूमते उनकी आन्तरिकता की सुगन्ध उसे सहज ही मिल जाती है। सम्पन्न, दरिद्र, ग़रीबी का मारा-कोई कैसा भी हो मयना वैष्णवी के मन में कोई भेद-भाव नहीं है। उसे तो सिफऱ् अपने मन का मानुष चाहिए। वह मन-ही-मन यह स्वीकार करती है कि वह ‘सख्य’ भाव की कंगाल है। घर छोड़ देने पर भी गृहस्थों का परिमण्डल उसे शान्ति देता है। गृहस्थों के यहाँ वह शान्तिपूर्वक सहन में बैठी रहती है। उसकी गोद में गृहस्थों के दुलारे बच्चे आ जाएँगे। वे उसकी खंजड़ी खींचने लगेंगे। झोली मे झाककर देखने लगेंगे कि उसमें क्या है। गृहणियाँ उन्हें स्नेह से डाँटने लगेंगी फिर उसी के नज़दीक आकर बैठ जाएँगी। अपने दुःख-सुख के बारे में बताने लगेंगी। वह भी उन्हें कई गाँवों की कई खबरें बताएगी। और इसी तरह से नदी में बहती जाने वाली डोंगिया नाव की तरह उसका जीवन बहता जाएगा।
मयना वैष्णवी खंजड़ी बजाने जा रही थी कि उसे पत्थर की ठोकर लग गयी। उसका दाँया पैर बुरी तरह से मुड़ गया। जैसे उसमें मोच आ गयी हो। दर्द से वह चीख पड़ी। वहीं सड़क पर बैठ गयी। धीरे-धीरे हाथ से हवाई चप्पल को उसने हाथ में लेकर देखा कि उसकी बद्दी टूट गयी है। दर्द से पैर पर हाथ फेरते-फेरते वह उकडूँ होकर बैठ गयी। ‘हाथ, चप्पल टूट गयी।’ वह अपने से कहने लगी। दूसरा फ़ीता लगाते ही उसकी चप्पल ठीक हो जाएगी। यही सोचते-सोचते अपने आँचल के नीचे हाथ डालकर उसने ब्लाउज़ से एक सेफ़्टी पिन निकाल कर चप्पल में लगा लिया। अब वह आराम से चली जाएगी। उठकर खड़ी होते ही उसने दर्द महसूस किया। अब वह धीरे-धीरे चल सकेगी। दर्द तो हो ही रहा था पर पैर के बारे में उसे अधिक चिन्ता नहीं हुई। मामूली चोट आदि के बारे में वह अधिक नहीं सोचती थी। जब तक देह है, ज़रा-मृत्यु, रोग-व्याधि लगे ही रहेंगे। इनसे डरकर वह चल ही न पाएगी। इसीलिये कुछ भी उसे दुश्चिन्ता में नहीं डालता। वह सदा प्रसन्न रहती है। रोग-शोक से वह ऊपर ही रहेगी, यही सोचकर उसने वैराग्य ग्रहण किया था।
हठात् उसे दुलू बाउल की याद हो गयी। उसे बाउल की दोनों आँखें याद आ गयीं और वह हँस पड़ी। दुलू बाउल वैसे तो आदमी ख़राब नहीं है फिर भी कुछ पागल-सा ज़रूर है। उसके दोनों नेत्र बड़े कामातुर हैं। आँखों में आँख डालते ही उसका दिल धड़कने लगता है। एक सिहरन-सी दौड़ जाती है। देखने में भी वह बहुत सुन्दर है। वह मुर्शिदाबाद का मूल निवासी है, यह उससे बातचीत करते ही समझ में आ जाता है। कौन जाने कहाँ का रहने वाला है। उसके सिर पर पगड़ी, कंधे पर झोला, विचित्र रंग के अलखल्ले की आड़ में उसका दीर्घ, सुगठित शरीर और चैड़े कंधे नज़र आते हैं। खिंची हुई तीक्ष्ण नाक, बड़े-बड़े ललछौंहे नेत्र और गौरवर्णी देह बड़ी आकर्षक है। उसकी तरफ ताकते ही उससे घनिष्ठ होने की बड़ी इच्छा होती है। उसकी आवाज़ सुनते ही जैसे कानों में मधु की वर्षा होने लगती है। यह सब सोचते ही ‘हरि-हरि’ कहती हुई मयना वैष्णवी अपने दोनों हाथ माथे से लगा लेती है। ‘हे प्रभु। अब मुझे किसी और बन्धन में न बाँधना।’ मन में यह कहती हुई मयना वैष्णवी पैर घसीटती हुई चलने लगी। पैरों की उंगलियों के बीच में सेफ़्टी पिन की चुभन हो रही थी। वह खंजड़ी बजाने लगती है। हर कदम पर उसकी हड्डी तड़क उठती है। वह गीत गाने लगती हैः
कुम्भ श्रेणी शिरे धरि बाजीकरगण।
रज्जु दिया नेचे करे गमनागमन।।
दृष्टि तार रये पदे कुम्भे रये मन।
से लागि ताहार शिर ना नड़े कखन।।
अतएव रज्जु हैवे कुम्भेर संहित।
पतन ताहार नाहि होय कदाचित्।।
तैछे जीव मायारज्जु पदेते बाँधिया।
विषकुम्भश्रेणी शिरोपरेते राखिया।।
पदे दृष्टि राखि आर कुम्भे राखि मन।
अभद्र संसारे सदा करिछे भ्रमण।।
-कुम्भ पंक्ति को सिर पर धारण कर तमाशा दिखाने वाले जादूगर रस्सी पर नृत्य करते हुए इधर-से-ऊपर जाया करते हैं। उनकी निगाह अपने पैरों पर रहती है और मन सदा घड़ो पर बना रहता है, घड़े कहीं गिर न पड़ें। इसलिये इनका सिर कभी हिलता नहीं। घड़ों सहित उस रस्सी से वे कभी गिरते नहीं। जीव मायारूपी डोरी को पैरों में बाँधकर और सिर पर विषरूपी घड़े को रखकर, पैरों पर दृष्टि और घड़े पर अपना मन लगाए इस अमंगल रूपी संसार में सदा भ्रमण करता रहता है।
मैं जीव हूँ।
तुम कौन जीव हो?
मैं तटस्थ जीव हूँ।
रहते कहाँ हो?
घट में।
घट कैसे बना?
तŸव वस्तु से।
तŸव वस्तु किसे कहते हैं?
पंच आत्मा। एकादश इन्द्रियाँ। षड रिपु। इच्छा। इन सबसे मिलकर यह घट बना है।
घट में बँधा जीव उससे मुक्त होने के लिये सदा व्याकुल बना रहता है। वह खुद भी व्याकुल रहती है। अब उसे किसी से भी ड़र नहीं लगता। यहाँ तक कि यह जल्दी-जल्दी घिरते आ रहे अन्धकार से भी उसे भय नहीं लगता। जिसके हृदय में अँधेरा नहीं है, बाहर का अँधेरा उसका क्या करेगा। श्रीपाटे में श्री राधाकृष्ण के रतिरंग में ही सभी सन्तुष्ट रहते हो, ऐसा नहीं है। खुद भी कामग्रस्त रहते हैं।
वैष्णव समाज में प्रेम निन्दनीय नहीं हैं, काम अपवित्र नहीं है। पे्रम और काम के समन्वय से ही चारित्रिक शुचिता बरकरार रखना सम्भव है। कई व्यक्तियों का मत है कि श्री चैतन्य दोनों तरह के वैष्णव धर्म का अभ्यास किया करते थे। पहला था बाह्य धर्म और दूसरा आन्तरिक। रसराज का तत्व अन्तरंग वैष्णव धर्म का तŸव है। रसराज कृष्ण सभी रसों के स्रोत हैं। सभी रसों में श्रृंगार श्रेष्ठ है। इसके बत्तीस लक्षण होते हैं।
आद्यरस श्रृंगारेर बत्तिस लक्षण।
आर से बत्तिस विप्रलम्भेर गणन।।
चमत्कार रस एई चैषही प्रकार।
आश्रय विषय होय रसराज सार।।
कृष्ण की रतिक्रीड़ा निरन्तर चलती रहती है, कृष्ण सच्चिदानन्द हैं। कृष्ण में अद्वैत तत्व स्वतः स्फुरित होता रहता है। राधा कृष्ण की हुलादिनी शक्ति है। कृष्ण के पाँच अंश हैं। ब्रह्मन्, आत्मन्, भगवान्, गुरू और भक्त। इनमें गुरू स्वयं भगवान् हैं। गुरू मृत्युहीन हैं। गुरू को ही अपना जीवन अर्पित कर देना होता है। गुरू निन्दा महापात है। अपने मुँह से मयना वैष्णवी ने वह पाप कभी नहीं किया है। उसके मन की बात सदा मन में ही बनी रहती है। चूँकि मयना वैष्णवी के कानों में यह बात आयी है कि उसके गुरू एवं पंचबुधूरी श्रीपाट के प्रमुख श्रीकृष्ण जी प्रभुपाद महाराज गुप्तरूप से विशाखा वैष्णवी के साथ भोग विलास करते हैं। वह सच-झूठ तो नहीं जानती। जानने का प्रयास भी नहीं करती है। किन्तु वह छिपाव, वह चैर्यवृत्ति उसे आहत करती है। उनके आदिगुरू महाप्रभु गोपीदास ने ब्रह्मचर्य व्रत को कभी आवश्यक नहीं बताया था। वस्तुतः वे तो अत्यन्त उदार थे। स्वयं भगवती स्त्री रूप में महाप्रभु गोपीदास के साथ क्रीडा किया करती थीं। नारी को उन्होनें कभी अस्पृश्या नहीं कहा था। कामिनी रूप ही उसका अन्तिम परिचय है, ऐसा भी उन्होंने कभी नहीं कहा था। उनका कहना था, नारी के बिना पुरूष अधूरा है और पुरूष के बिना नारी। दोनों के मिलने से ही पूर्ण मनुष्य बनता है।
कोई अगर ब्रह्मचारी होना चाहता, उसमें कोई बाधा नहीं थी। गोपीदास द्वारा प्रवर्तित सम्प्रदाय में वह अनिवार्य नहीं था। किन्तु कालानुसार दूसरे प्रभाव भी लागू हो गये। अतः शुद्धाचारी वैष्णवों के अनेक धर्म भी इस मठ में प्रमुख होने लगे। शुद्धाचारी वैष्णव महाप्रभु गोपीदास को कभी पूर्ण वैष्णव नहीं मानते थे। कभी उन्हें पूरा सम्मान नहीं देते थे। आजकल गोपीदास मतावलम्बी वैष्णव अनेक क्षेत्रों में शुद्धाचारी वैष्णवों जैसे रीति-रिवाजों का पालन करते हैं। हिन्दू संस्कृति में ब्रह्मचर्य के प्रति श्रृद्धा है ही। वह श्रृद्धा इस मत में भी इतनी प्रमुखता से फैल गयी कि उसके कारण वैष्णवी को भी छल करना पड़ता है।
पंचबुधूरी श्रीपाट में मयना वैष्णवी लगभग दस वर्ष रही थी। विशाल कर्मकाण्ड वाले इस श्रीपाट में वह एक विख्यात कार्यकर्ता थी। सवेेरे से ही अपना काम शुरू कर देती थी। गम्भीर रात हो जाने पर ही उसका यह काम रूकता था।
भगवान् गोला के इस पंचबुधूरी श्रीपाट के सबसे उम्रदराज़ व्यक्ति श्री कृष्णपाद प्रभुजी महाराज थे। वही इस मठ के प्रधान भी थे। इस मठ के मुख्य सहायक यहाँ के ब्रह्मचारी गण थे। मठ के संचालन में इन्हीं ब्रह्मचारियों की राय चलती थी। महाप्रभु गोपीदास का ऐसा कोई निर्देश भी नहीं था और न ऐसा वे कोई विधान कर गये थे उसे लगता था कि काम ईश्वर का अनोखा प्रसाद है। कामरहित पे्रम के बारे में मयना जानती ही नहीं थी। उसको सिफऱ् यही पता था, काम के अनुशीलन में संयम की ज़रूरत पड़ती है। उस संयम की शक्ति मनुष्य में होनी चाहिए। काम यत्र-तत्र चाहे जहाँ बाँट देने वाली वस्तु नहीं है। वैष्णव पदावली की अपूर्व मजलिस में वह रोज़ ही पद गाती है और उनके मर्म में अपने प्राण उड़ेल देती है-
मुखे हास्य माखा तार चक्षे बहे नीर।
जागिया घूमाय सेइ वचन सुधीर।।
पिता माता भ्राता आदि विहीन से जन।
तथापि तावेर संगे रहे अनुक्षण।।
कामशून्य होएँ करे कामेर करम।
सापेर माथाय भेक कराय नर्तन।।
मुख हँसी से भरा होना चाहिए और आँखों में चाहिए आँसू। वचन सुधीर व्यक्ति जागते हुए ही सोता रहता है। वह माता-पिता भाई आदि सभी रिश्तों से रहित होता है पर रहता हरदम उन्हीं के साथ है। काम शून्य होकर भी वह कामक्रीडा करता है जैसे साँप के फण पर वह मेंढ़क को नचा रहा हो।
अपने को ही शिक्षा देने के लिये वह अनेक अन्धकारपूर्ण रात्रियों में अपने ही सामने खड़ी हुई है। चाहती तो किसी भी पुरूष सहचर को पा सकती थी। उसे पता था उसका शरीर एक पुरूष के लिये बड़े आकर्षण से भरा था। उसने दुलू बाउल जैसे मधुर पुरूष और भी न देखे हों, ऐसा भी नहीं है। किन्तु इससे भी अधिक मधुर पुरूष के लिये उसने स्वल्प मधुर पुरूषों की कामना पर विजय प्राप्त कर ली थी। उसने उस पंचबुधूरी और श्रीपाट में जो कुछ नाम, गान, पदावली सुनी थी, उन्हें उसने याद कर लिया था। उसने जिस सत्य को अपनी आँखों से देखा था, उसका अनुभव भी कर लिया था। घने अँधेरे में अन्य सब वैष्णवियों के साथ चटाई बिछाकर वह लेट जाती थी और मन-ही-मन ‘ऊँ श्री राधाकृष्णन नमः’ मन्त्र का जप करती रहती थी।
तुम कौन हो?
मयना वैष्णवी जात नहीं मानती। छुआछूत नहीं मानती। पर शुद्धाचारी वैष्णवों के साथ उसका बड़ा मतभेद है। इस भेद की रचना स्वयं महाप्रभु गोपीदास ने की थी। उन्होंने भगवती को गोद में रखकर वैष्णव धर्म स्वीकार किया था। उन्होंने जाति का भेदभाव समाप्त कर दिया था। स्वयं केवट होने के कारण गोपीनाथ शुरू में हाड़ी, डोम, केवट, हेले, मछुआरों के आराध्य देव थे। धीरे-धीरे शिक्षित, उच्चवंश के व्यक्तियों ने भी उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया था। वे महज मानव थे, उनके महत्व को पहचानने में भक्तजनों ने कोई भूल नहीं की थी। उनका कहना था, मनुष्य का जन्म-मृत्यु जाति-धर्म-निरपेक्ष हाता है। भूमिष्ठ होते ही क्या बच्चे को पता रहता है कि उसकी जाति कौन-सी है, उसका धर्म कौन-सा है। मनुष्य अपना दल बढ़ाना चाहता है इसलिये शिशु के भी जाति-धर्म का ठप्पा लगा देता है। मनुष्य की जाति उसका आचरण है। उसका हृदय है। कर्म करते रहो और ईश्वर के चरण पकड़े रहो। इसके अलावा मनुष्य के पास करने को आखिर है ही क्या। चरणों को पकड़ने के लिये ही मार्ग का अवलम्बन करना पड़ता है। तुम वैष्णव हो चाहे शाक्त, तुम हिन्दू हो या मुसलमान - सभी मार्ग जाकर उसी एक जगह थम जाते हैं।
मयना वैष्ण्वी का एक मात्र सहारा उन्हीं महाप्रभु गोपीनाथ दास की वैष्णव धारा है। वह ईश्वर के चरण पकड़े रहना चाहती है। उसके मन में ईश्वर भक्ति पैदा हो गयी है। बाउल धारा के प्रति उसकी भक्ति नहीं है। उसका मन कभी संसार में नहीं लगता है। उसे जन्म से ही वैराग्य है, उसके लिये बाउल हो जाना ही उचित था। उसका जन्म जिस बाँशुली ग्राम में हुआ था, वह मुर्शिदाबाद जि़ले में आता है, लेकिन वीरभूम से सटा हुआ था बाउल होना उसके लिये सहज था। क्योंकि उन्हें देखने का उसे अभ्यास था। बचपन और तरूणावस्था में वह बाउल अथवा वैष्णवों में कोई अन्तर नहीं कर पाती थी। बचपन में वह वीरभूम अपनी बुआ के यहाँ जाती थी और वहाँ से पास के बाउलों के अखाड़े मानुष-मानुषी कैसे स्वच्छन्द, घर-गृहस्थी से मुक्त हैं। बाउल साधना की चाह पाना उसके लिये सम्भव नहीं था। पर जब वह अपने बाबा के साथ पंचबुधूरी श्रीपाट गयी, वहाँ की पूजा-पद्धति, कर्मश्रृंखला और पवित्र वातावरण में उसे जो शान्ति मिली, उसका कण मात्र भी उसे बाउलों के अखाड़े में नहीं मिला। मयना वैष्णवी बड़े ऊँचे मन की व्यक्ति है। जहाँ उसका मन न लगे, वहाँ उसके लिये कहाँ जगह है। उसका विचार है कि बाउल लोग सीमा से अधिक ऐहिकवादी हैं। उनकी ऐहिक चेतना अत्यन्त तीव्र है।
पंचबुधूरी श्रीपाट में वह आराम से जितने दिन चाहे खुशी से रह सकती थी। उसके बाबा उस मठ के शिष्य थे, बाँशुली ग्राम में चार बीघे ज़मीन के मालिक निरंजन दास। मयना ने खुद भी धर्म की दीक्षा उसी मठ में ली थी। पर बरस दसेक रहने के बाद फिर वहाँ अपना मन नहीं लगा सकी। तब भी इन दस वर्षो के श्रीपाट वास में उसके हृदय की ज्वाला बहुत कुछ तो शान्त हो ही गयी थी।
सोलह बरस की उम्र में उन्हीं जैसे एक किसान परिवार में उसका विवाह हो गया था। सभी दृष्टियों से वह घर उनकी वंश मर्यादा के अनुकूल ही था। यहाँ तक कि तीसरे दजऱ्े तक शिक्षाप्राप्त मयनामती का स्वामी साँतवें दजऱ्े तक पढ़ा था। मयना का बैरागी मन जब स्वामी को ही पकड़कर उसके ही वशीभूत और उसी में स्थिर होने चला था, तभी वर्षा की एक दोपहर में खुले मैदान में बिजली गिरने के कारण उसका आदमी मर गया। उसका क्रिया -कर्म सम्पन्न कर वह जो एकबार ससुराल छोड़कर अपने मायके चली आयी फिर वहाँ कभी नहीं गयी।
उसके जीवन का ऐसा भी एक दौर बीता है। घर में उसका मन लगता नहीं था। जब-तब उसे रोना आ जाता था। घर में उसका मन लगता नहीं था, इसलिये वह खुले मैदान में चली जाती थी और वहाँ आकाश की ओर देखती हुई कहती थी, ‘हे भगवान्! मेरे ऊपर भी बिजली गिरा दो। हरे-हरे धानों से भरे खेतों की मेड़ पर बैठकर वह चारों ओर देखती रहती थी। उसके आसपास चक्कर लगाकर फिंगे चिडि़या उड़ जाती थी। उसके मन में सूनेपन का अनुभव होता था। उसे सब-कुछ सूना लगता था। चारों तरफ शून्य। जैसे कहीं कुछ है ही नहीं। हरा-भरा धान का खेत उसे हरा भरा नहीं लगता था। पक्षियों के स्वर की मधुरता कोई चुरा ले गया थ। इस दुर्मेद्य शून्यता में, इस असह्य स्तब्धता में शुरू-शुरू में तो उसका दम घुटने लगता था। उसके बाद उसके दिल में उथल-पुथल मच जाती थी। अन्त में उसके आँसू निकल पड़ते। ‘तुम कहाँ हो? तुम कहाँ चले गये मुझे छोड़कर? तुम कहा हो? क्यों चले गये? ’ एक युवा चेहरे को याद करते हुए उसकी ‘स्मृति’ से अभिभूत, वह ये सब प्रश्न किया करती थी। उसके बाद उस मैदान का सूनापन उसे असह्य लगने लगता और वह अपने घर लौट आती।
घरे ज्वाला बाहिरे ज्वाला
कोथाय आमि रई।
काला आमाय करले पागल
सकल दुःख सई।।
घर और बाहर दोनों तरफ आग जल रही है, बताओं मैं कहाँ रहूँ। काले कृष्ण ने मुझे पागल कर दिया है, इसलिये मैं सारे दुःख सहन कर रही हूँ।
शेष पर्यन्त उसके तरूण पति और काले चाँद कृष्ण का मुख एकाकर हो गये। यह परिवर्तन कोई एक ही दिन मे नहीं हुआ। दुःख सहन करते-करते हो गया।
माँ की मृत्यु छुटपन में ही हो गयी थी। आखिर में बाबा भी चले गये। अपने पिता के घर के एकान्त में रहते-रहते इस असह्य विच्छेद-यन्त्रणा को भूलने का उसे थोड़ा अवसर मिल गया। अन्त में जब वह एक़दम अकेली रह गयी तब उसने उस चार बीघे की ज़मीन-जायदाद को अपने पास न रखकर श्रीपाट मठ को दान में दे दी। श्रीपाट मठ की तरफ से अब उस ज़मीन की देख-भाल क्षुदू मण्डल कर रहा था। अब मयना वैष्णवी कभी-कभी पंचबुधूरी आश्रम में भी जाती है। कभी-कभी बाँशुली गाँव भी। घूमते रहना उसे अच्छा लगता है। वे दोनों स्थान भी उसे खूब प्रिय हैं। इन दो स्थानों पर उसने अपने को दो दृष्टियों से प्रतिष्ठित कर लिया था। जब वह बैरागी होने का संकल्प करती थी, तब भी वह मन-ही-मन अपने स्वामी की कामना करती थी। धीरे-धीरे यही काम चिरतरूण श्री कृष्ण के प्रति संचारित हो गया। धार्मिक दृष्टि से उचित दो धाराओं में उसने अपने पति को पे्रम दिया था, ईश्वर को भी उसने वही पे्रम दिया। पे्रम, काम और कामना उसके लिये हैं यदि कोई ब्रह्मचर्य से स्खलित हो जाए, उसे कोई दण्ड दिया जाए। किन्तु आजकल तो सभी विधान चालू हैं।
ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए भी वैष्णवियों के सान्निध्य के कारण वैष्णवों का पद स्खलन हो ही जाता है। पता चल जाने पर उसका एक ही दण्ड था। मठ संचालन के महत्वपूर्ण दायित्व से उसे हटाकर एक-सामान्य कर्मचारी बना दिया जाता था। कोई-कोई वैष्णवी के साथ कण्ठी बदल कर मठ छोड़कर गृहस्थ हो जाते थे। पदावनति के अपमान को न सहकर अनेक वैष्णव मठ छोड़कर खुद ही चले जाते थे।
महाप्रभु गोपीदास जिन बातों में काफ़ी कठोर थे, उनमें प्रमुख बात थी बहु गमन। इसके वे घोर विरोधी थे। एक संगी या संगीनी रहते हुए भी गुप्त अथवा खुले रूप में अन्यगमन में वे पाप देखते थे। बहुविवाह करने वाले पुरूष अगर उनका शिष्यत्व ग्रहण करना चाहते थे, वे उन्हें अस्वीकार कर देते थे। स्वयं भगवती उनकी स्त्री थी। उनकी साधना संगिनी। नारी की वे चिरकाल से महाशक्ति के रूप में पूजा करते आये थे। वे ऐसा विधान बना गये थे जिससे स्त्री का अपमान कभी न हो। एक ही घर में स्त्री-पुरूष का एक-साथ रहना, काम-क्रीडा करना, साधन-भजन में रत रहना उनकी दृष्टि में निंदनीय नहीं था। वे कहा करते थे, एक-साथ रहा जाए तभी तो संयम में कितना बल आया है, इसकी परीक्षा हो सकती है। उनके मतावलम्बी मठों में एक ही गृहप्रांगण में अलग-अलग व्यस्था के अनुसार शिष्य-शिष्याएँ रहा करते थे। सही संचालन व्यवस्था बनाये रखने के लिये रात्रि नौ बजे के बाद ही शिष्याओं के कमरों में भीतर जाया जा सकता था।
पंचबुधरी श्रीपाट में जगन्नाथ गोस्वामी अवधूत की लिखी हुई चैतन्यचरित कथा की पाण्डुलिपि थी। इसी पाण्डुलिपि के कारण इस मठ को श्रीपाट उपाधि मिली थी। यहाँ के प्रधान विग्रह बालगोपाल, गौरगोपाल, गौरगोविन्द और जगन्नाथ थे। महाप्रभु गोपीदास की भी एक प्रस्तर मूर्ति थी। उनकी मूर्ति के साथ भगवती देवी की मूर्ति थी। एक मूर्तिकार भक्त ने इन मूर्तियों को गढ़ा था।
मयना का हर दिन का पहला काम होता था, रोज़ फूल चुनना और इन विग्रहों के लिये माला गूँथना। पूरे मनोयोग से वह यह काम करती थी। हर दिन अलग-अलग तरह की माला वह गूँथना चाहती थी। उसके बाद वह दरिद्रसेवा कर्मशाला में चली जाती थी। प्रतिदिन कम-से-कम पचास दरिद्र नारायणों की सेवा श्रीपाट में होती थी। भोजन का आयोजन बड़ा सामान्य होता था। दाल, व्यंजन और भात। पर भूख के कारण वह भी अमृत जैसा लगता था। यही सामान्य आयोजन अगर किसी बड़े पर्व पर होता तो फिर परिश्रम की कोई सीमा नहीं रहती थी।
श्रीपाट में और भी सब कर्मयज्ञ चलते रहते थे। जैसे ग़रीब और अनाथ छात्रों के रहने और पढ़ने-लिखने की व्यवस्था थी। असहाय वृद्धजनों के रहने और खाने की व्यवस्था थी। एक-सौ बीस बीघा ज़मीन है इस श्रीपाट में। मयना की ज़मीन की तरह दान में मिली और भी बहुत-सी ज़मीनें हैं वहाँ। धीरे-धीरे विधि व्यवस्था के अनुसार वे ज़मीनें श्रीपाट की खास सम्पत्ति के अन्तर्गत आ जाएँगी। ज़मीन की ऊँची सीमा के सम्बन्ध में कई तरह के कानून बन जाने के कारण श्रीपाट को भी नियमानुसार व्यवहारिक होना पड़ा है वयस्कों, छात्रों, दरिद्रनारायण तथा विग्रहों की सेवा के लिये अलग-अलग ट्रस्ट बनाकर ज़मीन के स्वामित्व को बाँट देना पड़ा है। श्रीपाट के उन सब विशाल क्रियाकलापों का खर्च जैसे सिफऱ् ज़मीन की आमदनी से नहीं चल सकता है वैसे ही शिष्यों से मिले दान से पूरी तरह भी नहीं चल सकता है। आमदनी के स्रोत की दृष्टि से दोनों की ज़रूरत पड़ती है। इतने समय से चले आये इस श्रीपाट को, जो एक तरह से ग़रीब, दुःखी, अनाथों का आश्रय बन गया है, उसे बन्द भी नहीं किया जा सकता है। ब्रह्मचारी संचालक वर्ग को ईश्वर भजन के साथ-साथ इसीलिये सम्पत्ति जैसे भौतिक विषयों के बारे में भी सोचना पड़ता है। पेशेवर सलाहकारों, वकीलों और हिसाब-किताब में माहिर व्यक्तियों की भी सहायता लेनी पड़ती है। इन सब कारणों से वैराग्य तो हो ही जाता है। नहीं तो, मनुष्य जितने दिन जीवित रहे, उतने दिन उसे प्रकारान्तर से संसार ही जकड़े रहे।
इसलिये सिफऱ् ज़मीन की आय से ही इतना बड़ा कर्मयज्ञ नहीं चल सकता, यहीं पर शिष्यों से मिले दान की अर्थवत्ता है- यथार्थ के इस ज्ञान से यह बात अस्वीकार नहीं की जा सकती कि प्रधान महन्त बाबाजी के शिष्यों की संख्या जितनी अधिक होगी, मठ की आमदनी उतनी ही बढ़ती जाएगी। आजकल श्रीकृष्ण प्रभुजी के शिष्यों की संख्या छह हज़ार को छू रही है। मठ के विस्तृत कार्य-कलापों को जारी रखने के लिये असीम धन की व्यवस्था करनी पड़ती है। अधिक आय के लिये अधिक शिष्यों की ज़रूरत पड़ती है। यह एक तरह से ठीक ही है। फिर भी मयना वैष्णवी के गुरू श्री कृष्ण पाद प्रभुजी महाराज अधिक शिष्य बनाने के विरोधी थे। उनका कहना था-
अवैष्णव संगत्याग, बहु शिष्य ना करिवे।
बहुग्रन्थकलाभ्यास व्याख्यान वर्जिवे।।
अवैष्णव लोगों का साथ छोड़ देना चाहिए और अधिक शिष्य भी नहीं बनाना चाहिए। बहुत से शास्त्रों, कलाओं का अभ्यास नहीं करना चाहिए और व्याख्यान देने से तो सदा बचना चाहिए।
बहुत से शिष्य न बनाने पर भी छह हज़ार शिष्यों की संख्या कोई कम तो नहीं है। इसके अलावा शिष्य संख्या के बारे में महाप्रभु गोपीदास का कोई निषेध नहीं था। वे सिफऱ् यह कहते थे कि जबरदस्ती धर्मान्तरण करना अथवा दीक्षा देना पाप है। नहीं तो कोई अगर दीक्षा लेने का इच्छुक हो, उसे शिष्य बनाने में बाधा क्या है।
शिष्यों की संख्या विशाल होने के लिये गुरू में भी विशाल गुणों की अवस्थिति होनी चाहिए। जो गुरू स्वयं अपनी योग्यता की सीमा पहचानता है, वह बहुत से शिष्य बनाने का संकल्प लेकर भी अपने आत्म सम्मान को सुरक्षित रख सकता है। गुरूनिन्दा महापाप है। फिर भी, मयना वैष्णवी सत्य की खातिर मन-ही-मन यह स्वीकार करती है कि इसी विचार के कारण नारायणदेव महाराज के साथ श्रीकृष्ण प्रभुजी का संघर्ष शुरू हो गया था। श्रीकृष्णपाद प्रभुजी कहीं-कहीं नारायणदेव महाराज की तुलना में अपने को विशेष महत्वपूर्ण साबित करने की कोशिश करते थे। श्रीकृष्णपाद की अपेक्षा नारायणदेव अत्यधिक ख्यातिमान और लोकप्रिय थे।
एक बार एक वयोज्येष्ठ शिष्य ने प्रश्न किया था-अगर अधिक शिष्य न बनाये जाएँ तो धीरे-धीरे भक्त सम्प्रदाय विलुप्त नहीं हो जाएगा प्रभु जी महाराज?
इस पर प्रभुजी महाराज ने कहा था-भक्त ईश्वर के प्रति समर्पित होता है। गुरू के शिष्यों की संख्या बढ़े या न बढ़े इससे क्या फ़र्क पड़ता है। किन्तु भक्त और गुरू दोनों ही तो कृष्णरूप होेते हैं। क्या ऐसा नहीं हैं? ब्रह्मन्, आत्मन्, भगवान्, गुरू और भक्त। भक्त के साथ संयोग का अर्थ क्या ईश्वर के एक रूप के साथ संयोग नहीं है, इनकी संख्या जितनी बँटे उतना ही अच्छा है। इसके अलावा महाप्रभु गोपीदास ने अधिक शिष्य बनाने का निषेध भी नहीं किया था। वे सिफऱ् जबरदस्ती शिष्य बनाने के विरोधी थे।
-सुनो, रूप गोस्वामी के ‘भक्तिरसामृत सिन्धु’ में लिखा हुआ है- न शिष्याननुबधनीत ग्रन्थान्, नैवाभ्यासे शब्दबहून्- अर्र्थात् अधिक शिष्य मत बनाओ, अधिक ग्रन्थ भी मत पढ़ो। रूप गोस्वामी के शब्द हैं ये मैं उनका सिफऱ् अनुसरण कर रहा हूूँ। फिर उसी वयस्क शिष्य ने एक और विनीत प्रश्न किया था-स्वयं प्रभु चैतन्य देव के भी बहुत शिष्य थे। हमारे महाप्रभु गोपीदास को भी बहुत से शिष्य मिल गये थे। इसके अलावा महाप्रभु गोपीदास के सम्प्रदाय ने तो सदा शुद्धाचारी वैष्णवों का अनुसरण किया नहीं था। उनका मार्ग एक़दम मौलिक था। उनके निर्देशों का हमें तो पालन करना ही चाहिए। वैष्णव होते हुए भी हम शक्ति की आराधना क्यों करते हैं? किन्तु, इस प्रसंग में बहुशिष्य न करने के माध्यम से अनधिकारी शिष्यों की बात कही गयी है कि भगवत् साधना से बाहर जो ग्रन्थ हैं उनका पाठ न करने की चर्चा की गयी है।
-आखिर अनधिकारी कौन है? श्री चैतन्यदेव तो जाति-धर्म मानते नहीं थे। महाप्रभु गोपीदास भी नहीं मानते थे। उनका एक मात्र निषेध बहुुगामी पुरूषों के सम्बन्ध से था।
-फिर भी उनमें कुछ तो भेदभाव का विचार था ही। अन्त्यज श्रेणी के जो लोग थे, उन तक महाप्रभुु गोपीदास नहीं गये थे। लालन, फ़कीर, सिराज, साईं जहाँ पहुँचे थे, वहाँ भगवान् चैतन्यदेव कहाँ हैं?
-क्षमा करेंगे गुरूदेव महाराज। यह आप क्या कह रहे हैं? अस्पृश्य निम्नवर्ग के व्यक्ति को दीक्षा देकर ही महाप्रभु गोपीदास ने अपने साधक जीवन का प्रारम्भ किया था। उच्चवर्ग के लोगों ने तो उन्हें बहुत दिनों तक ‘व्रात्य’ श्रेणी में रखा था। सिराज साईं और लालन फ़कीर वह तो सन्तों की एक़दम भिन्न धारा है। वैष्णवों के साथ उनकी कुछ समानता रहने पर भी असमानता ही अधिक है। पर यहाँ उसकी चर्चा नहीं हो रही है। बात यह है कि सिराज साईं और लालन फ़कीर जहाँ पहुँच गये थे, क्या वहीं पहुँचने का लक्ष्य लेकर श्री चैतन्यदेव की यात्रा शुरू नहीं हुई थी इतने दिन तक क्या उनके वहीं पहँुचने की चर्चा नहीं होती रही थी? उनके लिये तो सभी मनुष्य समान थे। व्यक्तियों क वर्ग भेद तो बाद के गोस्वामियों और महन्तों ने किये थे। जातिभेद मानना तो अवैष्णवोचित कार्य है। मैं तो कहूँगा वैष्णवीय मार्ग से थोड़ा हट जाने पर भी महाप्रभगोपीदास ने ही एकमात्र भगवान् श्री चैतन्य के आदर्श का अनुसरण किया था।
-यह तथ्य तुम्हें कहाँ से मिला? यह क्या तुम्हारे प्रवचन का अंश है। फिर क्या तुम यह कहना चाहते हो कि महन्त लोग एक अवैष्णव कार्य में लगे रहे थे। क्या तुम्हे पता है शिष्य दीक्षा का अधिकारी है या नहीं यह विचार करने का अधिकार गुरू का है।
-हाँ, पता है पर गुरू स्वयम्भू नहीं है। उसे आदर्श का पालन करना होगा। मानना होगा महाप्रभु द्वारा बनाया गया विधान। मूल मत से, मूल आदर्श से अगर वह हट जाए तो उसे अस्वीकार कर देना चाहिए। ईश्वर का भी उल्लंघन किया जा सकता है।
-आखिर तुम कहना क्या चाहते हो? मूल आदर्श से स्खलन कहाँ हो रहा है?
-मुझे पता है महाराज, मेरे अपराध को क्षमा करेंगे, दीक्षा देने के पहले आप शिष्य की जाति पर विचार करते हैं। नगरपालिका में एक व्यक्ति डोम की नौकरी करता है, इसलिये आपने उसे अपना शिष्य बनाने से मना कर दिया था। वैष्णव धर्म के बारे में मैंने जो कुछ कहा है, उसमें से कोई भी बात मेरी नहीं है। नारायण देव महाराज के समय से मैं यहाँ आ रहा हूँ। मैंने उनकी धर्म व्याख्या सुनी है। जाति-धर्म-श्रेणी का बिना विचार किये वे दीक्षा देने के पक्षपाती थे।
-तुम्हें क्या पता है उनकी उपपत्नी थी? तुम्हे क्या पता है, मेरे बहुत से शिष्य निम्न वर्ग के हैं।
-इस ज़माने में किसी को अगर आप निम्न वर्ग का कहते हैं तो इससे उसका अपमान होता है महाराज। इसके अलावा उस व्यक्ति से मेरी जान-पहचान है। उसके कोई उपपत्नी नहीं है। क्षमा करेंगे महाराज, मुझे पता है शुद्धाचार वादी मठ संख्या और क्षमता में कई हैं। उनके सम्पर्क में आने पर इस मठ की क्षमता में भी वृद्धि हो जाएगी। किन्तु महाराज, जिन्होंने हमारे भगवान् को अस्वीकार कर दिया हो, महाप्रभु गोपीदास को जो शुद्धचित न मानते हों, उनका अनुसरण करना गर्हित अपराध है। नारायण महाराज भी यही मानते थे।
यह वाद-विवाद सुनकर अन्य भक्तगण खुसुर-पुसुर कर रहे थे। गुरूदेव से वाद-विवाद करने की बात वे सोच भी नहीं सकते थें। ये शिष्य एक तो वृद्ध थे, दूसरे स्वभाव से सौम्य भी थे। बहुत दिन से मठ में आ-जा रहे थे किन्तु, मन्त्र उन्होंने कुछ दिन पहले ही लिया था। मठ के जो पुराने कर्मचारी थे, वे सब इन्हें अच्छी तरह पहचानते थे।
श्री कृष्णपाद महाराज इनकी बातें सुनकर क्रोध से जलने लगे थे। उनकी आँखे और चेहरा एक़दम सुर्ख हो गया था। उन्होंने क्रोध भरे स्वर में कहा- तुम किसके शिष्य हो? मेरे अथवा नारायण देव महन्त के मुझसे इतनी बात करने का साहस तुम्हें कैसे हुआ? उस शिष्य ने विनम्र होकर कहा था- हे प्रभु! मैं शिष्य आपका ही हूँ। इसके अलावा अपने विचार व्यक्त करने की स्वतन्त्रता हरेक को होनी चाहिए। मुझे भी वह स्वतन्त्रता है। स्वतन्त्र मत का अधिकार अगर न हो तो एकदिन संगठन खत्म हो जाता है। मैंने यदि कोई बात गलत कही हो, आप उसका खण्डन कर सकते हैं। मैं उसे सिर माथे लूँगा।
-ऐसा है तो फिर तुम्हें मेरी व्याख्या ही माननी पड़ेगी। श्री पाट में इस समय मैं ही मुखिया हूँ। मेरी बात ही नियम है, उसी को मान कर चलना होगा।
उस वृद्ध शिष्य ने हाथ जोड़कर कहा था-वह तो महाराज ठीक है। गुरू के शिष्यत्व का अधिकार किसी को है या नहीं इस पर विचार करने का अधिकार गुरू का है। नित्यानन्द ने तो एक बनिये को दीक्षा दी थी। नरोत्तम दत्त ब्राह्मण ने डकैतों का उद्धार किया था। गुरू रामकृष्ण गोस्वामी खुद केवट जाति के थे। हमारे महाप्रभु गोपीदास भी तो केवट थे।
ये सब बातें सुनकर श्रीकृष्णपाद महन्त बैठे हुए थे, पर अब वे उठकर खड़े हो गये। उनकी देह काँपने लगी। आवाज़ भी काँप रही थी। मयना वैष्णवी समेत सभी शिष्य गण यह दृश्य देख रहे थे। पंचबुधरी श्रीपाट की वह शाम किसी अद्यतन अनहोनी की आशंका से स्तब्ध हो गयी थी। श्रीकृष्णपाद कह रहे थे- तुम चाहे जो हो, तुम अशिष्ट और दुर्विनीत हो। तुम बहुत अहंकारी हो। तुम्हारी लागडाँट असहनीय है। तुम्हारा मठ में आने का अधिकार मैं छीन ले रहा हूँ।
वे वृद्धजन भी उठकर खड़े हो गये थे। कहने लगे-गुरू देवता होता है। गुरू कृष्ण का ही एक अंश होता है। भगवती का अंश है। गुरूनिन्दा महापाप है। किन्तु जो गुरू उपदेश और सदाचरण द्वारा शिष्य को मुक्ति न दिला सकता हो, उसका त्याग कर देना चाहिए। मैं आपका त्याग किये दे रहा हूँ।
-तुम, तुम, तुम...
श्रीकृष्ण पाद महाराज की जुबान बन्द हो गयी थी। वे लड़खड़ाते-लड़खड़ाते जल्दी से वह स्थान त्याग कर चले गये थे। शिष्यों में कोलाहल मच गया था। गुरू के अपमान से बहुत लोग आहत हो गये थे। हो-हल्ला के बीच वे लोग उस वृद्ध व्यक्ति को धक्के मारकर श्रीपाट से बाहर कर देना चाहते थे। परिचित व्यक्तियों की उस उग्रतापूर्ण चण्डाल मूर्ति ने मयना वैष्णवी को हक्का-बक्का कर दिया था। यद्यपि कई शान्तिप्रिय व्यक्तियों के हस्तक्षेप से वह उग्रता व्यापक रूप से नहीं फैलने पायी थी। अभी भी दुनिया में सभी व्यक्तियों की शुभबुद्धि कहीं खो नहीं गयी है, इसीलिये आज भी संसार में कल्याण सम्भव है। अन्त में वे वृद्ध व्यक्ति खुद ही वहाँ से चले गये थे। जाने के पहले उन्होंने एक बार पूजा विग्रहों को प्रणाम करना चाहा था। किन्तु प्रणाम करने का अधिकार उन लोगों ने उसे नहीं दिया था।
उस रात फिर मयना वैष्णवी को नींद नहीं आयी। किसी व्यक्ति को जो लोग पूजा विग्रहों को प्रणाम नहीं करने देना चाहते हैं, वे लोग कैसे ब्रह्मचारी हैं, कैसे वैष्णव हैं! वे कहाँ के बैरागी हैं? जो क्रोधजित नहीं हैं, वे कैसे गुरू हैं? गुरू निन्दा करना महापाप है। मयना वैष्णवी ने अपने दोनों हाथ माथे से लगा लिये। किन्तु, सत्य के कारण यह बात वह सोचे बिना नहीं रह सकी कि गुरू भी असल में एक देहधारी मनुष्य ही तो है। उसे भी सत्ता का लालच होता है, उसे भी यश की आकांक्षा होती है, अपनी श्रेष्ठता का मोह और ईष्र्या। श्रीकृष्णदास महाराज जो कामजित, रिपुजित नहीं हैं, इसका प्रमाण तो स्वयं विशाखा वैष्णवी है।
उसी रात मयना की श्रीपाट में रहने की इच्छा एक़दम चली गयी। कई दिनों तक उसका मन ही नहीं लगा था किन्तु वह पूरे दिन कोई-न-कोई काम लेकर व्यस्त बनी रही थी। वह रात में सोचती रही, अब यहाँ क्यों रहा जाए? यहाँ से निकल पड़ने का यही उपयुक्त समय है। यौवन में असहाय मयना को किसी-न-किसी सहारे की ज़रूरत थी। अब वह प्रौढ़ता के नज़दीक पहुँच गयी है। अब उसे कैसा भय। मठ में उसने बहुत से पुरूषों के आह्वान की उपेक्षा की थी। उपेक्षा करने की क्षमता उसमें है। अब उसे इन सब बातों का डर नहीं लगता है। संयम उसके हाथ में है। किन्तु श्रीपाट छोड़ने की बात वह दूसरे दिन ही नहीं कह सकी। गुरूदेव के मन को समझकर धीरे-धीरे उसने अपनी बात कई दिनों में कही थी। वह घूमना चाहती है। मधुकरी माँगते हुए वह अपनी जीविका का अर्जन करना चाहती है। वह तब मन-ही-मन गुरू की अंधानुगामिनी नहीं बने रहना चाहती थी। गुरूनिन्दा महापाप है- यह कथन भी उसके विचारों को रोक नहीं पाया था। इसके अलावा उस वृद्ध व्यक्ति की तरह गुरूत्याग करने का विचार उसके लिये कल्पना से भी परे था। उसे पता था, इतनी सामथ्र्य उसमें थी ही नहीं।
आखिर में मयना को उसकी वांछित मुक्ति मिल गयी। घोषपल्ली के मठ में वह बेपरवाह तथा सच्चे अर्थों में स्वाधीन थी। उसकी यह प्रतिष्ठा पंचबुधरी श्रीपाट के साथ उसके घनिष्ठ सम्पर्क के कारण थी।
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कार्तिक मासे माना नाई
वियार काम अइते।
वियार नाम लय ना केउ
टाना आछली थाकते।।
आऊषधान हाईलधान
हक कोलटी फुराय।
टानटीरुट थाके तारार
यारा वकया फलाय।।
माना बाधा ना थाकलेओ
देशोचल नाई।
एट लागि कातित
नाई वियार सानाई।।
मराली से हरिद्वार पाड़ा कुछ कम दूर नहीं है। वही अपराह्न में निकलकर हरिहर पाड़ा की सीमा में जब मयना वैष्णवी पहुँची, संध्या बीत चुकी थी। दुकानों की बत्तियाँ जल चुकी थीं।
घोषपाड़ा जाने वाला रास्ता थाने के पीछे से थोड़ा उसी की सीमा से सटा चला गया था फिर एक निर्जन और छोटे रास्ते से जाकर मिल गया था। वहाँ जाने का एक और भी रास्ता था, जो थाने की बगल से होकर पूरब की ओर चला गया था। मयना वैष्णवी इसी छोटे किन्तु सीधे रास्ते को सदा पसन्द करती थी। साँप और विषखाँपर के भय से रात में इस रास्ते को बचाकर ही लोग चलते थे। किन्तु मयना वैष्णवी ने मृत्युभय को जीत लिया था। इस संसार में मोह-माया में फँसाने वाली जिसके लिये बहुत कुछ होता है, उन्हीं को मृत्युभय सोलह आने सताता रहता है। मयना को इन प्रशस्त हरे खेतों, बहु विचित्र मनुष्यों से भरे इस सचराचर विश्व से बहुत पे्रम है लेकिन इनसे उसे कोई मोह नहीं है। हाँ, यह ज़रूर है कि इस कार्तिक मास में साँपों का उतना भय नहीं है। शाम होते ही अभी से बहुत हल्की-सी सर्दी पड़ने लगती है। रात में सर्दी महसूस होने लगती है। खेतों में खड़ी फसलों से हेमन्त ऋतु को तो बड़े साफ़ तरीके से पहचाना जा सकता है। अगर ऐसा न हो तो हवा के झोंके के साथ शीत की आगमन वार्ता कैसे आये।
मयना वैष्णवी पूरे वर्ष इन्हीं ऋतुओं में बड़े पास से मानो हाथ से छू-छूकर तिकोना, चतुष्कोण, मराली गाँवों में देखती रही है। कभी-कभी भगवान् गोला में। कभी बाँशुली में। और कभी कालान्तर में। उसके एक और आर्कषण की जगह कालान्तर का सरोवर है। वर्षा ऋतु से लेकर शीत के मध्य तक कालान्तर के विस्तृत अंचल में वर्षा का पानी भरा रहता है। हाँ, वर्षा का जल! ठण्ड में वही जल धीरे-धीरे सूखने लगता है। तब उसमें से ऊँचा तीर निकलने लगता है। अलग-अलग पोखर, मोटे तालाब, बाँध निकल पड़ते हैं। वही निकली हुई भूमि, अनुर्वर, सूखी, कंकरीली मिट्टी से युक्त भूमि भी कुछ समय के लिये मनुष्य के परिश्रम और गुण की वजह से रहने योग्य हो जाती है। किन्तु उससे भी वहाँ के व्यक्तियों की ग़रीबी मिटती नहीं है। सुकुमार बच्चे पीले पड़ जाते हैं। असमय ही युवतियों के स्तन लटकने लगते हैं। जवान पुरूषों की छाती और पीठ में पेशियाँ नाम की कोई चीज़ रहती ही नहीं हैं। यहाँ तक कि कालान्तर इलाके के कितने गाँव किस अज्ञात रोग से ग्रस्त हैं, इसे मयना वैष्णवी जानती है। वहाँ पर कहाँ-कहाँ धरती के नीचे पर्त पर्त में पाप का अंकुर लगा हुआ है, इसे भी वह जानती है।
वर्ष में कई अवसरों पर वह कालान्तर के इलाके में जाती थी। बरसाती जल से भरे हुए सरोवर के सामने जाकर वह खड़ी हो गयी। ‘कालान्तर’ बड़ा अचरज भरा नाम लगता है उसे। वह इस सरोवर को समझाने का प्रयास करती है। उसे लगता है, संसार का जो कुछ रहस्य है, इस सरोवर के हृदय में छिपा हुआ है। सोचते-सोचते वह आँखें बन्द कर लेती है। साथ-ही-साथ बन्द आँखों के सामने घने काले मेघ छा जाते हैं। कालान्तर नामक उस सरोवर को वे कढ़ाई की तरह ओंधे होकर ढ़ँक लेते हैं, उसी अन्धकारावृत अर्धवृत्त के नीचे आँखें बन्द किये मयना वैष्णवी खड़ी है तो खड़ी ही रहती है। उसके मन में विचार आता है, थोड़ी देर अगर वह और खड़ी रहे तो इन मेघों को पार कर परलोक के दृश्यों को देख सकेगी।
चप्पल में सेफ़्टी पिन लगाकर उस मेड़ पर से होते हुए मयना वैष्णवी को चलने में असुविधा हो रही थी। पैर फैलाकर चलने के लिये जगह चाहिए। उस पगडण्डी के ऊपर की घास और पत्थरों में उसकी चप्पल के आगे का भाग टकराकर बार-बार उल्टा हो रहा था। उस तरफ निगाह रखने के कारण उसने यह ख़याल ही नहीं किया कि उल्टी दिशा से एक और आदमी चला आ रहा है। एक़दम नज़दीक आकर उस व्यक्ति ने खाँसकर अपनी उपस्थिति दर्ज करायी। वह जगह अँधेरे से भरी हुई थी। यह पुलिस मेस का पिछवाड़ा था। पुराने लम्बे, पतले बरामदे की घनी छाया ने इस जगह को एक़दम सूची भेद्य काले अँधेरे से भर रखा था। मेस घर से रोशनी की एक किरण भी इस जगह पर नहीं पड़ रही थी। बिरिया के कई वृक्ष एक-के-बाद एक इस घर की दीवाल से सटे लगे हुए थे। मयना वैष्णवी ने उल्टी दिशा से आ रहे व्यक्ति को देखने का प्रयास किया। पगडण्डी पर आमने-सामने होकर निकलने में ही उसे बड़ी मुश्किल हो रही थी। किसी एक व्यक्ति को उस मेड़ से उतरकर नीचे खड़ा होना पड़ेगा। नहीं तो शरीर से घिसटते हुुए बगल से जाना पड़ेगा। ऐसा तो दो पुरूष हों या स्त्रियाँ तभी सम्भव है। अगर मेड़ से नीचे उतर कर खड़ा हो तो पैरों के नीचे धान के पौधे आ जाएँगे। लोगों के पैरों से दब कर मेड़ से सटकर लगे पौधे रूँधकर नष्ट हो जाते हैं। किन्तु हेमन्त धानों से भरे इन खेतों को रौंदते हुए निकल जाने की इच्छा मयना वैष्णवी की नहीं हुई। उसने ज़ोर से पूछा-कौन हो भाई? क्या तुम इसी गंज के आदमी हो?
-कौन? अरे बोस्टूमी (वैष्णवी) दीदी। मैं शंकर हूँ।
-क्या तुम मठ से आ रहे हो?
-हाँ।
-रात में वहाँ रूके नहीं?
-नहीं। घर पर काम हैं।
-साथ में किसी को लेकर नहीं आये?
-हाँ। दो व्यक्तियों को वहाँ पहुँचाने गया था। कल-परसों उन्हें कलकत्ता लिये जाऊँगा।
-यह बहुत अच्छा है। मैं तुम्हे जगह दे रही हूँ। तुम मेरी बगल से निकल जाओ। मैं किनारे खड़ी हो जाऊँगी। तुम निकल जाओ भाई।
-ना, ना। मैं ही उतरकर नीचे खड़ा हो जाता हूँ। आप सीधे चली जाएँ।
एक पैर मेंड़ पर रखकर एक पैर शंकर ने नीचे खेत में रख दिया। मयना वैष्णवी उसकी बगल से निकल गयी। यह व्यक्ति उसकी पसन्द की सूची में नहीं है। क्यों नहीं है, इसे भी वह नहीं समझ पा रही थी। वर्ष में दो-चार बार वह इस मठ में आता है। इस मठ के प्रमुख बलराम बाबाजी का वह आज्ञाकारी व्यक्ति है। सचाई क्या है, इसके कारण मन-ही-मन मयना वैष्णवी यह स्वीकार करती है कि वह बलराम बाबाजी को पसन्द नहीं करती है। क्यों नहीं करती है? इसकी वजह उसके सामने बहुत साफ़ है। बलराम की निगाह बहुत ख़राब है। दैहिक पे्रम से मयना वैष्णवी को घृणा नहीं है। वस्तुतः वह घृणा को ही अपने मन से निकाल देना चाहती है। पर देह के लालची से वह आज भी घृणाा करती है। इस घृणा को भी वह दिल से निकाल सके, इतनी शक्ति उसे नहीं मिली। बलराम बाबा जी की निगाह से व्यक्त होने वाला उसकी देह के प्रति लालच उसके दिल को बहुत पीड़ा देता था। मन में क्रोध उदीप्त हो जाता था। यही सब लेकर वह पाँच वर्ष से अधिक हुए पंचबुधूरी छोड़कर यहाँ घोषपाड़ा में बनी हुई है। हालाँकि उसे पता है इस रहने में भी कोई स्थायित्व नहीं है। वह किसी भी दिन यह स्थान छोड़कर जा सकती है।
अन्यान्य मठों की तरह घोषपाड़ा के मठ में भी वैष्णवियों की संख्या कम है। मयना वैष्णवी के अलावा और भी तीन वैष्णवियाँ हैं। वे रसोई बनाकर सभी को परोस कर खिलाती हैं। मठ में दिनभर का काम करती हैं। और मठ के चूल्हे पर ही मयना वैष्णवी मधुकरी में मिले चावलों को पका कर खाती है। वह किसी से ज़्यादा बात नहीं करती है। किन्तु ये चारों वैष्णवियाँ चूँकि एक ही कमरे में सोती हैं इसलिये उनमें से मध्यरात्रि में एक-एक के उठकर कहीं चले जाने की आहट मयना को मिल जाती है। वह समझ जाती है कि इनका कोई निश्चित सहचर नहीं है जिसके पास ये जाती हों। वे किसी के भी पास जा सकती हैं। एक बड़े सहन को घेरकर इस मठ का भवन बना हुआ है। इसका एक भाग दुमंजि़ला है और बाकी हिस्सा एक तला की दालान में छोटे-छोटे कमरों में विभजित है। महिलाएँ ऊपर रहती है। उन्हीं कमरे के पास अतिथि शाला है। नीचे साधना मन्दिर है। रसोई घर है और पुरूषों का निवास भी वहीं है।इस मठ में विशाल कर्मयज्ञ नहीं है। शुद्ध जीवन के प्रति आग्रह भी इस मठ में कम है। ऊपर से देखने पर साधन क्षेत्र होते हुए भी इस मठ ने अपनी आन्तरिक श्री खो दी है। एक-साथ रहने में ही संयम की परीक्षा है- महाप्रभुगोपीदास की वाणी के गूढ़ अर्थ को यहाँ कोई नहीं मानता है। पूरा मठ कामक्रीड़ा के क्षेत्र में परिणत हो गया है। मयना वैष्णवी यह सब देखते हुए भी अनदेखा करती रहती है। उसे लगता है कि पुरा-पड़ोसी भी इस मठ को उतने सम्मान की दृष्टि से नहीं देखते हैं, जितनी श्रृद्धा और सम्मान पंचबुधरी श्रीपाट मठ को मिलती है। अनाथ और आर्तजनों के सेवाधर्म के कारण पंचबुधरी श्रीपाट आश्रम ने जनसाधारण का जो आदर पाया है, उसका दशमांश भी इस मठ को नहीं मिलाता है। सामान्य जन-शक्ति की प्रत्याशा में आकर मठ-मन्दिर में बैठे रहते हैं, किन्तु यहाँ पर वैसी भी भीड़ नहीं होती है। एक ही मठ में स्त्री-पुरूषों का साथ-साथ रहना किसी-किसी को अस्वाभाविक लगता है। वे इस मठ के निवासियों को गोपीदास वैष्णव कहते हैं। कई व्यक्ति तो व्यंग्य में इसे रसिकों की लीलाभूमि कहते हैं। महाप्रभुगोपीदास के मतावलंवियों के पास में और भी मठ हैं जैसे कठवा, वर्धमान, शिलीगुड़ी कलकत्ता से लगे सुभाषग्राम में। बजबज और डानकुनी में भी हैं। उनमें से कोई भी मठ इतनी हतश्रद्ध दशा में नहीं हैं। विभिन्न घरों के पर्व-त्यौहारों तथा श्राद्ध के अवसरों पर इस मठ के निवासियों की कीर्तन गाने के लिये पुकार मचती है। इसके अलावा सप्ताह में तीन दिन वे लोग घूम-घूम कर नगरवासियों को हरिनाम कीर्तन सुनाते हैं। सवेरे ही खोल-करताल लेकर वे लोग निकल पड़ते हैं। हरिहर पाड़ा के सारे मुहल्लों-बाज़ार और बस्ती में घूमते हैं। तब कुछ व्यक्तियों की आँखों में उनके प्रति श्रृद्धा का भाव फूट उठता है। ये लोग हैं इसीलिये तो हम लोगों को कुछ नाम-कीर्तन सुनने को मिल जाता है वरना इस व्यस्त जीवन में हरिनाम लेने का हमारे पास समय ही कहाँ है?
मयना वैष्णवी कीर्तन के इस दल में कभी नहीं जाती। इस विषय में मठ के कुछ लोग उसे घमंडी समझते हैं। शुरू-शुरू में तो उस पर इस आलोचना की प्रतिक्रिया होती थी। यहाँ यह सब कैसा अनाचार चल रहा है। कभी-कभी उसके मन में विचार आता था पंचबुधरी श्रीपाट जाकर श्रीकृष्णपाद प्रभु जी महाराज को जाकर यह सब बातें बता आये। पर बाद में उसका मन बदल जाता था। किसकी बात वह किसे बताएगी, किसका कौन प्रतिकार करेगा। ऊपर तो ईश्वर है ही। जो करना है वही करेगा। उसी को सारा विष, सारा गरल सौंपना होगा। उसी के चरण सारे विष को अमृत में बदल सकते हैं। दोषीजनों की एक मात्र शरण प्रभु हैं। उनके चरण ही मेरे परम आश्रय हैं।
तूया चरणे मन लागलूँ रे।
सारंगधर! तूया चरणे मन लागलूँरे।।
- हे सारंगधर! तुम्हारे ही चरणों में मन लगाया है, तुम्हारे ही चरणों में मन।
जब भी मठ में शंकर आता है, दो-चार स्त्रियों को अपने साथ ज़रूर लाता है। वृद्धा नहीं, मध्यवय की भी नहीं! हर स्त्री तरूणी होती है। उन सबने वैष्णवी बनकर मठ की सेवा करने का संकल्प ले रखा है। उसे सोचकर अवाक् हो जाना पड़ता है। इतने मठ ही कहाँ हैं, फिर इतनी सेविकाएँ भी क्यों? ये सब कहाँ से आती हैं! किस मठ में सेवा करने जाती हैं। वैष्णवी होना चाहती हैं, मठ की सेवा करना चाहती हैं, ऐसी युवतियाँ शंकर की ही नज़र में क्यों आ जाती हैं! जैसे उसने सारी स्त्रियों को वैष्णव मत की दीक्षा देने का ठेका ले रखा हो।
इन सब बातों की चिंता करते-करते मयना वैष्णवी सोना ही भूल जाती है। उसके मन में असंख्य प्रश्नों की भीड़ लग जाती है। कभी-कभी उसकी इच्छा होती है, इन सब औरतें से बात कर सारा रहस्य जान ले। हायरे। पर इसका कोई विशेष परिणाम नहीं निकला। अवसर भाँपकर उसने बात तो कई बार की थी। कहने का निष्कर्ष यह है कि इन सब से बातचीत कर वह एक बात तो समझ गयी थी, इनमें से कोई भी शिक्षित, सम्पन्न घर की नहीं हैं। सभी के दुबले-पतले हाथ-पैर। रूग्ण। उनकी त्वचा पर कोई चमक नहीं है। आँखें धँसी हुईं। गालों और गले की हड्डियाँ निकलकर ज़ाहिर कर रही थीं कि ये सब बहुत दिनों से भूखी हैं। ग़रीबी के कारण ही इन सब को सेवाधर्म ललचा रहा था। मठ में इन सब के रहने का इन्तज़ाम वैष्णवियों के साथ नहीं किया गया था। वार्षिक महोत्सव के अतिथि आकर जिन कमरों में ठहरते हैं, उन्हीं में से एक उनके लिये खोल दिया गया था। मयना वैष्णवी सोचते-सोचते धीरे-धीरे कदम बढ़ा रही थी। पर उसकी चिन्ता का कोई ओर-छोर नहीं था। भावना तो सदा स्वच्छन्द होती है। सदा व्यस्त रहती है। भावना जब पराधीन हो जाती है, तब मनुष्य की चरम दुर्गती हो जाती है।
एक घर में असंख्य गेंदा खिले हुए थे। उनकी सुगंध से पूरा मार्ग भर गया था। यह गन्ध वैसे उतनी मीठी नहीं थी, फिर भी कैसे उदास किये दे रही थी मन। रास्ते पर जलने वाली बत्तियों के झिलमिल आलोक में मयना वैष्णवी उन गेंदों को बड़े स्नेह की दृष्टि से देख रही थी। उसके बाद करताल बजाकर गुनगुनाती हुई वह आलाप लेती है। पाँच मिनट का रास्ता और रह गया है। वह गाने लगती है-
ज्योतिर्मय कनक विग्रह वेदसार।
चन्दने भूपित येन चन्दे्रर आकार।।
चाँचर चिकुरे शोभे मालतीर माला।
मधुर मधुर हासे जिनि सर्वकला।।
ललाट चन्दन शोभे फागुबिन्दु सने।
बाहु तूले हरि बोले श्री चन्दुवदने।।
गुनगुनाहट और करताल की ध्वनि सहित मठ का द्वार पार किया मयना वैष्णवी ने द्वार पर अंगूल की बेलें लटक रही थीं। गुलाब के पौधों में फूल खिले हुए थे। उनमें से कौन कई दिनों के वासी फूल थे और कौन कलियाँ थी, उस क्षीण रोशनी में यह निश्चय करना कठिन था। किन्तु फूलों की मन्द-मन्द खुशबू मयना वैष्णवी की नाक में आ रही थी। मठ के छोटे-से सहन में सुगन्धित फूलों के कई पौधे थे। कामिनी, बेला, जूही, गुलाब और माधवी लता के गुच्छे थे। पूरे वर्ष आँगन भर में सौरभ महकती रहती थी। वह आँगन पार कर जैसे ही सीढि़या चढ़ने लगी, उसने अनुभव किया कि उसके पैरों का दर्द दुगुना हो गया। जब उसे ठोकर लगी थी, चप्पल टूट जाने पर ही उसका ध्यान ज़्यादा था, उस समय पैरों की चोट का उसकी दृष्टि में अधिक महत्व नहीं था। इस समय दर्द ने उस चोट को महत्वपूर्ण बना दिया था। करताल को झोले में रखकर, रेलिंग पकड़कर वह धीरे-धीरे ऊपर चढ़ने लगी। दर्द से उसकी आँखे और चेहरा भूमा-सा गया था।