आखिरी सवारियाँ सैयद मुहम्मद अशरफ़ हिन्दी लिप्यांतरणः रख़्शन्दा रूही मेंहदी
09-Apr-2017 02:54 AM 5513

तालिबइल्मी के ज़माने में छुट्टियाँ गुज़ारने जब मैं घर आता और ये रोज़नामचा सफ़रनामा तन्हाई में पढ़ता तो आखि़री लाइन तक आते-आते बेहाल हो जाता। मैं रात भर जागता रहता और दिन में भी ठीक से सो नहीं पाता। मेरी हालत देखकर वालिद और अम्मा रंजीदा हो जाते और आपस में चुपके-चुपके बातें करने लगते। एक दिन मेरे वालिद मुनासिब मौका देखकर बोले ः
‘तुम इस किताब के पीछे क्यों पड़ गये हो, बेटा। ये तुम्हें हर साल दुख देती है। तुम जब-जब इसे पढ़ते हो, एक अंजान सोच में डूबकर निढाल हो जाते हो और फिर तुम्हें बुख़ार आ जाता है।’
मैंने जवाब दिया, ‘दादा अब्बा जि़न्दा होते तो शायद कुछ राज़ों से परदा हट जाता और मुझे चैन आ जाता।’
वालिद ने कन्धे पर हाथ रखा और कहा, ‘इसमें कोई राज़ नहीं है। बस एक सफ़र की कहानी है और कुछ भान्तियाँ हैं। सबसे बड़ा आसेब1 खुद इंसान का ज़हन होता है बेटा।’
‘फिर इस बटुए और इसमें रखी इस चीज़ के बारे में आप क्या कहेंगे। बताइए क्या कहेंगे?’ मुझे खुद महसूस हुआ जैसे मेरा लहज़ा जुनूनी हो रहा था।
‘वो भी वहम का कारख़ाना है। मऊजतैन2 रोज़ पढ़ा करो।’
उन्होंने ज़बरदस्ती वो मुसव्वदा और बटुआ मेरे हाथ से छीन लिये और अपनी काली आलमारी में लाॅक कर दिया।
‘अब जब मैं दुनिया से गुज़र जाऊँ तब इन्हें हाथ लगाना।’

1. आसेब - भूत-प्रेत  2. मऊजतैन - कुरआन शरफ की सूरहा नास और फ़लक
उनके लहज़े में मज़बूती थी। मैंने उनसे बहस नहीं की। वैसे भी इस सफ़रनामे का एक-एक लफ़्ज़ मुझे रटा था। वो मुझ पर दुआएँ पढ़कर फूँकते रहे और अम्मा तांबे के उस बड़े कटोरे में पानी लिये खड़ी रहीं जिस पर दो आयतें, मुख़तलिफ3 नक़्काशी, कुछ लफ्ज़ और चन्द नम्बर खुदे हुए थे। तांबे की पतली परत के अन्दर ठोस सोने का अस्ल कटोरा था। बुजुर्गों ने बताया कि उनके बुज़ुर्ग किताबों में लिख गये थे कि सोने के कटोरे की अन्दरूनी सतह पर या ‘दाफि़ओ’4 के अल्फ़ाज़ खुदे थे। जब हमारे खानदान में सुलूक-ओ-रियाज़त5 के मुक़बले में इल्म-ए-शरीअत6 को ज़्यादा अहमियत दी जाने लगी तो अस्ली सोने पर तांबे की परतें चढ़ा दी गयीं।
ये वही कटोरा था जिसके बारे में हमारे खानदान में ये रिवायत है कि उसमें पानी डालकर खास आयतें पढ़कर मरीज़ को पिलाया जाए या उसके चेहरे पर छिड़का जाए तो वो अपनी अस्ल हालत में वापस आ जाता है। जब दम किया गया पानी मुझ पर छिड़का गया तो मैंने अपनी हालत में बेहतरी महसूस की और उसी पल मेरा दिल चाहा कि अलमारी में ताला पड़ी चीज़ों को धीरे-धीरे भुला दूँ। ये एक नामुमकिन बात थी क्योंकि किसी चीज़ या कि़स़्से को याद ना करना तो किसी हद तक अपने बस में होता है लेकिन उसे भूल जाना नहीं।
मेरे जवान होने और वालिद के गुज़र जाने के बाद जब भाइयों ने इस बन्द आलमारी को खोला तो मैंने दोनों चीज़ों को अपने कब्ज़े में कर लिया। किसी ने कुछ एतराज नहीं किया। उनके चालीसवें के बाद शहर के मकान में वापस आकर दोनों चीज़ें बीवी के हवाले करते वक़्त कहा-
‘इन्हें गौर से पढ़ें और देखने वाली चीज़ देख लें और समझने वाली चीज़ समझ लें।’
वो हफ़्तों इस मुसव्वदे और बटुए में खोई रहीं। मुसव्वदा और बटुआ अपनी निजी आलमारी में बन्द करने के बाद भी वो डरी-डरी नज़र आती रहीं, फिर एक दिन मुझसे बोलीं-
‘आपके घर वाले कहते हैं कि आपने अपने लड़कपन और शुरू जवानी की लम्बी मुद्दत इन्हीं दो चीज़ों की खातिर डिप्रेशन जैसी हालत में गुज़ारी है।’
‘सच कहते हैं। उन सबने मुझे भुगता है।’ मैं इससे ज़्यादा कुछ नहीं कह सका।
‘और मैंने भी और शायद उन सबसे ज़्यादा वक़्त तक’, वो धीमे से बोलीं-
‘उसे पढ़ने और बटुए के अन्दर की चीज़ें देखने के बाद मैं भी हौल गयी हूँ। रातों को उठ-उठकर बैठ जाती हूँ। उनमें जो रहस्य छिपे हुए हैं वो आपसे बर्दाश्त नहीं हो सके।’
‘आपने बर्दाश्त कर लिए?’
‘हाँ... नहीं... शायद नहीं...’, फिर वो देर तक खामोश रहीं। मेरा चेहरा देखती रहीं।
‘दादा ने आपसे क्या-क्या बातें की थीं, सच-सच बताइए।’
‘मैं इस वक़्त क्रम से आपको कुछ नहीं बता पाऊँगा।’
वो खामोश हो गयीं लेकिन उनके चहरे पर नाराज़गी थी।
‘उस सफ़रनामे को पढ़ने से पहले क्या आप अपने बचपन और लड़कपन में भी ऐसे ही थे, आदम बेज़ार?’
‘मैं चुप हो गया। फिर अचानक एक जानलेवा खुश्बू मेरे चारों तरफ मंडराने लगी। बीवी के चेहरे को देखे बगैर धीमे से बोला ः
‘नहीं... मेरा बचपन और लड़कपन बहुत खुशियों भरा था।’

3. मुखतलिफ - विभिन्न अलग  4. या दाफओ - ऐ दुःख दूर करने वाले, ऐ अल्लाह
5. सुलूक-ओ-रियाज़त-अल्लाह की इबादत में तन-मन एक करना।  6. इल्म-ए-शरीअत-इस्लाम धर्मशास्त्र

एक के बाद दूसरी दो बहनों की पैदायश के बाद अम्मा की ख़्वाहिश पर वालिद साहब ने इजाज़त दे दी कि वो जाएँ और मेरे ननिहाल के पड़ोस में बने उस झोंपड़े वालों की सबसे बड़ी बेटी को अपने साथ ले आएँ, जिसका बाप चैराहे की लड़की की टाल पर बगैर तनख़्वाह के इस सिले पर नौकरी करता था कि दिन भर लकडि़यों को बेचने के वक़्त तराज़ू पर बाट रखेगा और लकडि़याँ चढ़ाएगा और शाम को तौलते वक़्त ईंधन की लकड़ी से जुदा होकर गिरने वाले पचड़ों को चुन-चुनकर शाम तक इकट्ठा करने के बाद सूरज ढले वहाँ का कूड़ा और अपनी मज़दूरी एक फटी पुरानी चादर में बाँधकर इस तरह घर लाएगा कि रास्ते में पड़ने वाले घरों में रात का खाना पकाने में इस्तेमाल होने वाला ईंधन बेच कर उन पैसों से अपने घर के पाँच दोज़खों की आग बुझाये और वो भी रात का एक पहर गुज़रने के बाद।
इस घर में दोपहर के खाने के वक्त़ ज़रूर फ़ाक़ा7 होता था। जिस दिन बारिश से लकडि़याँ भीग जातीं, उस दिन बँधे-टके गाहक पहले से उसी दिन के लिए जमा की हुई लकड़ी के बुरादे से अपना खाना पकाते और बड़े से तराजू के दोनों पल्ले बारिश में भीगते और हवा में ऊपर-नीचे झूलते रहते और जवाब में जम्मों का बूढ़ा, कमज़ोर बाप बारिश होती देखता, बादलों को गरजता सुनता, सबकी आँखें बचाकर अपनी आँखें गीली करता और बग़ैर गोश्त के सिफऱ् हड्डियों से बने सीने में अपना सिकड़ा हुआ दिल तराजू़ के पल्लों की तरह ऊँचा-नीचा करता, सर झुकाए सोचता रहता कि आज पड़ोस में किसके घर से बची हुई रोटियाँ और दाल लेकर अपने घर में दाखि़ल होगा।
उसकी बीवी लम्बी, गोरी और छरहरी थी और लखनऊ के क़रीब किसी क़स्बे के एक मज़दूर के घर की आबरू थी। ऊपर वाले ने जोड़ा बना रखा था, ज़मीन वालों को सिफऱ् कुबूल करना था। बाप के झोंपड़े से उठकर जब वो इस झोंपड़े में आयी तो अपनी तक़दीर के खाके के अनदेखे नक़्शे में रंग भरने के लिए अपने गोश्त-पोस्त8 के बदन से चार बरसों के अन्दर तीन बच्चियों को इस आलम-ए-रंग ओ-बू9 का तमाशा देखने बाहर भेजा। अगर इन बच्चियों में पैदाइश के वक़्त ज़रा भी समझ होती या अपने घर के हालात की थोड़ी-सी भी जानकारी होती तो वो पेट से बाहर आने से इंकारी हो जातीं कि पेट के अन्दर गर्मी भी थी और खुराक के तौर पर माँ की नाभि से बराबर सुबह दोपहर, शाम और रातभर एक लाल द्रव की रसद लगी रहती थी।
जब वे बच्चियाँ थोड़ी बड़ी हो गयी, नानी अम्मी अपने अन्दर के दालान में जाकर छोटी सी खिड़की खोलकर उनके छोटे से आँगन में बैठी माँ से कहतीं कि बच्चियों को क़ुरआन शरीफ़ पढ़ने भेज दो। ये ज़वाल10 का वक़्त होता था। तीनों बच्चियाँ कुय्याँ से पानी भरकर अपने आँगन में चारपाई खड़ी करके नहातीं और माँ के धोये हुए रंग-बिरंगे पैबन्द लगे कपड़े पहने, दुपट्टे से सर ढँके, एक-दूसरे की ऊँगली थामे नानी अम्मी के दरवाज़े पर चढ़तीं। उस ज़माने में नानी अम्मी को खाना पकाते ही शंका हो जाती थीं कि आज फिर खाना बचेगा और ख़राब होगा। तीनों बच्चियाँ पतवर-पतवर एक बड़ी चारपाई पर बैठकर दो रोटियाँ और सब्ज़ी या सालन बहुत मजे़ से खातीं। खा कर अपने बर्तन धो कर बावरचीख़ाने में रखतीं और दालान11 की चैकी पर आकर पिछला सबक़ सुना कर नया सबक़ लेतीं। एक दिन नानी अम्मी ने जब खाना खाते वक़्त जम्मो और उसकी बहनों का शर्मिंदा चेहरा देखा तो सोच में पड़ गयीं लेकिन अगले ही पल डाँटते हुए बोलीं।
‘मैं तुम्हें क़ुरआन शरीफ पढ़ाती हूँ। कुछ दिन बाद उर्दू भी पढ़ाऊँगी, तुम इसके बदले में मुझे क्या दोगी।’
लड़कियों का चेहरा उतर गया। तब नानी अम्मी ने बिल्कुल कारोबारी अन्दाज़ में कहा-
‘तुम तीनों बहने बावरचीख़ाने के कामों में मेरी मदद करोगी। यही मेरी फीस होगी।’ तीनों लड़कियों के चेहरे चमकने लगे और वो हिल-हिलकर क़ुरआन शरीफ़ पढ़ने लगीं।
ये सब बातें मुझे अम्मा ने बतायी थीं। जब मैंने होश संभाला तो जम्मो और उसकी दोनों छोटी बहनें क़ुरआन शरीफ़ पढ़ने के अलावा भी दुपट्टा ओढ़ने लगी थीं।
अक्सर वो आँगन के नीम के पास खड़े मेंहदी के छोटे क़द के पेड़ के पास पहुँचकर नानी अम्मी से पूछती- ‘बेगम जी! थोड़ी से मेंहदी ले लूँ।’
‘हाँ ले ले। काँटे बचाकर पत्तियाँ तोड़ना।’
मैं छुट्टियों में ननिहाल में होता था और देखता था कि वो पत्तियाँ तोड़ते वक़्त इतनी उलफलाइट12 में होती थीं कि काँटों का ध्यान नहीं रख पाती थीं, मेंहदी लगाने से पहले अपनी ऊँगलियाँ लाल कर लिया करती थी।

7. फ़ाक़ा - खाना न मिलना

नानी अम्मी के घर और पण्डित मामा के मकान की दीवार एक थी। दीवार के दोनों तरफ दोनों घरों के आँगन थे और दीवार के नीचे वह साझे का कुँआ था जो आधे चाँद की शक्ल में दीवार के इधर-उधर दोनों आँगन में इस्तेमाल होता था। तब म्युन्सिपाल्टी का पाइप नानी अम्मी के घर नहीं आया था। मैं उधर वाले हिस्से के कुएँ पर बाल्टी छनकने की आवाज़ सुनते ही धीरे-धीरे दबे पाँव जाता और अपनी तरफ की रस्सी बाल्टी उठाकर थोड़ा-सा झुककर कुएँ के मनखण्डे से ऊपर कटी हुई दीवार के नीचे से झाँककर देखता कि उधर वाली रस्सी अगर काँच की हरी चूडि़यों से भरी-भरी कलाइयों वाले दो गोरे-गोरे हाथों में होती तो मैं मायूस होकर बाल्टी वहीं धीमे से रखकर मैना और गौरय्या को झाबे में पकड़ने वापस दालान के थामले के पीछे आ जाता। अगर रस्सी एक दुबली-पतली कलाई में होती तो मैं एक माहिर शिकारी की तरह रस्सी-बाल्टी लिए इन्तज़ार करता और जैसे ही उधर वाली बाल्टी पानी लेकर ऊपर आती, मैं रस्सी को खूब मज़बूती से पकड़कर अपनी बाल्टी का निशाना लगाकर ताकत से अपनी बाल्टी उस बाल्टी पर खींचकर मारता। नतीजा आम तौर पर एक ही होता था कि बाल्टी के टकराने की ज़ोरदार आवाज़ आती फिर दोनों बाल्टियों के कुएँ में गिरने की गहरी भारी आवाज़ आती और उन दो आवाज़ों के बीच एक और आवाज़ आती। ये मामी की छोटी बेटी शारदा की ‘हाए’ या ‘अरे फिर’ के लफ़्ज़ों की आवाज़ होती थी। मेरी बाल्टी की मार से उसके हाथों से रस्सी छूट जाती और मैं जल्दी से अपनी आधी-चैथाई बाल्टी खींच कर बाहर निकालता और वहाँ पकड़ कर आँगन से लगे बावरचीखाने में घुस कर डिब्बे खोलने-बन्द करने लगता, जैसे खाने की कोई चीज़ तलाश कर रहा हूँ और कुएँ वाले मामले से मेरा कोई मतलब नहीं। तब दीवार के उधर से मामी चिल्लातीं-
‘ऐ मौसी! देखो बाजी के छोटे शैतान ने फिर बाल्टी दे मारी।’
नानी अम्मी दालान के पीछे वाले कमरे से आँखें मलती बरामद होती और मुझे बावरचीखाने में देखकर ऊँची आवाज़ में कहतीं।
‘ऐ बहू! वो बेचारा तो बावरचीखाने में है, कुआँ तो वहाँ से दूर है।’
फिर वो कुएँ के मनखण्डे पर औंधी-सीधी पड़ी बाल्टी और बहते हुए पानी को देख कर अपने माथे पर हाथ रख लेतीं और मुस्करा कर लेकिन आवाज़ को सख़्त करके मामी को सुनाते हुए मुझे डाँटती ः
‘अरे छोटे मियाँ तुम शारदा को क्यों परेशान करते हो। जब से तुम आये हो चैथी बार ये हुआ है। क्यों इस पराये धन को परेशान करते हो?’
‘ऐ मौसी!’ उधर से बुलन्द आवाज़ में मामी चिल्लातीं।
‘चैथी बार तो तीन दिन पहले हुआ था। देखिए शारदा के हाथ रस्सी ने छील दिये। कैसी बिलख रही है।’
‘मैं अभी इसकी ख़बर लेती हूँ।’ नानी अम्मी ज़ोर से चिल्लातीं और मेरे पास आकर पतीली उठाकर मिट्टी के चूल्हे में मार-मार कर कहतीं ः
‘बोलो... अब तो नहीं करोगे ?बोलो, जवाब दो, चुप क्यों हो ?’
फिर मुस्कुराकर आँख से इशारा करतीं और मैं रोने का अभिनय करने लगता।
‘बस करो मौसी, बस करो। अब क्या बच्चे की जान लेकर रहोगी ?’ मामी चिल्लातीं, नानी अम्मी मुस्कुरा कर पतीली रख देतीं।
ऐसा लगभग रोज़ ही होता था। मामी आवाज़ देकर काँटा माँगतीं और नानी अम्मी रस्सी में बँधा काँटा दीवार के उधर लटका देतीं जिसकी मदद से मामी अपनी बाल्टी कुएँ में तलाश करके निकाल लेतीं।
फिर एक दिन शारदा जब बाल्टी खींचकर बिल्कुल ऊपर तक ले आयी थी, मैंने अपनी तरफ़ की भरी हुई बाल्टी उस पर दे मारी। पहले शारदा की चीख़ सुनायी दी। फिर दो भरी हुई बाल्टियों ने कुएँ में धब से गिर के ‘गड़प-गड़प’ की आवाज पैदा की। उधर से मामी की बेचैन आवाज़ आयी-
‘देखिए! मौसी, शारदा के हाथ छिल गये। ख़ून निकल आया। ये राक्षस अपने ननिहाल से वापस कब जाएगा।’
इस बार नानी अम्मी ने मेरा कान उमेठा और पतीली और चूल्हे वाली कार्यवाही करते हुए चिल्ला कर कहा-

8. गोश्त-पोस्त - माँस और त्वचा  9. आलम-ए-रंग ओ-बू-रंग व खुशबू से भरी दुनियया
10. जवाल- सूरज ढ़लते समय  11. दालान-बरामदा

‘बहू थोड़ा सब्र कर लो- एक हफ़्ते बाद मेरा घर सूना होने वाला है।’
मामी ये सुनकर चुप हो गयीं। फिर उधर से आवाज़ आयी,
‘शारदा के हाथ ज़्यादा छिल गये हैं। मैं भेज रही हूँ। मलहम लग दीजिएगा मौसी।’
‘भेज दो मेरी गुडि़या को।’ नानी अम्मी ने जवाब दिया। थोड़ी देर के बाद मामी की आवाज़ आयी
‘मौसी काँटा इधर फेंक दीजिए। एक हफ़्ते बाद वापस कर दूँगी।’
फिर किसी ने दरवाज़े पर दस्तक दी। राक्षस ने दरवाज़ा खोला। दरवाज़े में नानी अम्मी की गुडि़या की खुली हुई, जगह-जगह से छिली हुई दोनों हथेलियाँ दाखि़ल हुई। फिर उसका सीधा पाँव अन्दर आया और फिर तकलीफ़ की ज़्यादती से लाल होता गीला चेहरा और आँसू बहाती दो आँखें दाखि़ल हुई। मुझे बेज़ारी से देखती हुई वो नानी अम्मी के पास दालान में चली गयी। नानी अम्मी ने उसे बाहों में भर के प्यार किया और मुझे आवाज़ देकर मलहम का डिब्बा लाने को कहा। जब मैं डिब्बा लेकर उनके पास पहुँचा तो वो उनके पास तख़्त पर बैठी शकरपारे खा रही थी।
‘तुम ही इसके मलहम लगाओ। जाओ पहले हाथ धोकर आओ शैतान।’
मैं राक्षस से शैतान बनने की तरक्की पर खुशी से उछलता-कूदता हाथ धोने गया और जब वापस आया तो शारदा कह रही थीं-
‘नन्ना मैं इससे मलहम नहीं लगवाऊँगी। ये छिली हुई जगह पर नाख़ून चुभा देगा।’
‘हाँ! ठीक कहती है मेरी गुडि़या।’ ये कहकर नानी अम्मी ने मेरे हाथ से तक़रीबन छीनते हुए मलहम का डिब्बा लिया और शारदा ने आँसू भरी आँखों से विजयी अन्दाज़ में मुझे देखा और सी-सी कर के मलहम लगवाने लगी-
‘मौसी, कहाँ है नन्ना ?’ उसने अम्मा के बारे में पूछा।
‘वो अपनी बचपन की सहेलियों से मिलने गयी हैं।’
‘उनकी सहेलियों का ब्याह नहीं हुआ अब तक...’, उसने आँखें फैलाकर पूछा।
‘सबके ब्याह कब के हो गये’, नानी अम्मी बोलीं
‘तो क्या सबके ब्याह इसी शहर में हुए हैं ?’
तब नानी अम्मी उसकी बात का अस्ल मतलब समझीं और खिलखिला कर हँसीं और देर तक हँसती रहीं। वो उनका चेहरा देखती रही। तब नानी अम्मी बोलीं-
‘अरे मेरी गुडि़या! जैसे मेरी बेटी का ब्याह दूसरे शहर में हुआ है वैसे ही उसकी सहेलियों का ब्याह भी दूसरे शहरों में हुआ है। लेकिन वो भी तो अपने-अपने राक्षस लेकर गर्मियों की छुट्टियों में अपने मायके आती हैं।’
‘तो क्या मैं भी गर्मी की छुट्टियों में यहाँ आया करूँगी? ब्याह के बाद?’
‘हाँ... और क्या, तू भी अपने राक्षस लेकर आया करेगी और मैं सबको शक्करपारे खिलाया करूँगी।’

12. उलफलाइट-जल्दबाज़ी


‘तब तक मैं नहीं रहूँगी।’ सामने नीम के पेड़ को देखकर देर के बाद कहा-
‘तब मैं यहाँ नहीं रहूँगी लेकिन ये नीम का पेड़ यहीं होगा और मेंहदी का पेड़ भी। तुम यहाँ से मेंहदी तोड़कर अपनी हथेलियाँ रचाया करना।’
ये सुनकर मैं उदास हो गया। मैंने देखा शारदा भी उदास हो गयी थी।
‘जब मेरी गुडि़या अपनी रची हुई हथेलियाँ देखेगी तो उसे अपनी नन्ना याद आ जाया करेगी।’
नानी के ये जुमले सुनकर मुझे रोना-सा आ गया लेकिन मैं शारदा की बच्ची के सामने रोना नहीं चाहता था। मलहम का डिब्बा उठाकर कोठरी के अन्दर चला गया।
एक दिन दीवार के पीछे से मामी चिल्लायीं।
‘मौसी ओ मौसी! क्या जम्मो है ?’
‘हाँ है बहू। कहो क्या बात है ?’
‘गोमती और शारदा दोनों टेलरिंग वाले स्कूल गयीं हैं। तुलसी सूख रही हैं। इस बार जैसी लू चली है, पहले कभी नहीं देखी थी। तनिक जम्मो को भेज दीजिए। तुलसी में दो गढ़ई पानी डाल देगी।’
‘ऐ बहू! तुम क्या मेंहदी लगाए बैठी हो। ख़ुद ही पानी डाल लो।’ नानी ने दीवार के पास जाकर कहा-
‘ऐ मौसी क्या बताएँ। आज हम तुलसी में पानी नहीं डाल सकते।’
मैं आँगन में था और नानी अम्मी और मामी अपनी-अपनी दीवार से लगी चुपके-चुपके कुछ बातें कर रही थीं और नानी अम्मी और मामी दोनों किसी बात पर हँसी थीं। मैं भी वो हँसी की बात सुनना चाहता था, लेकिन जब मैं नानी के पास गया वो एकदम ख़ामोश हो गयीं। इतना तो तय था कि मुझसे कोई बात छिपायी जा रही थी।
‘तुम जाओ यहाँ से। आँगन में झाबा लगाकर मैना पकड़ो। जाओ।’
नानी अम्मी ने संजीदा होकर कहा-
‘कौन है मौसी ?’ उधर से आवाज़ आयी।
‘तुम्हारा राक्षस।’ नानी ने जवाब दिया।
‘चला गया ?’
‘हाँ...’, नानी अम्मी की आवाज़ मैंने तब सुनी, जब मैं दालान में वापस आ चुका था।
फिर थोड़ी देर बाद नानी अम्मी दीवार के पास से हट आयीं और जम्मो से कहा-
‘अरे बेटा जम्मो! ज़रा बहू के घर जाकर तुलसी में पानी लगा दो।’
जम्मो, बहू का घर, सुन कर पाँव आगे बढ़ा चुकी थी कि तुलसी का नाम सुनकर रूक गयी।
फिर वो धीरे-धीरे नानी अम्मी के पास गयी और धीमी आवाज़ में उन्हें कुछ बताने लगी। जम्मो का चेहरा लाल हो गया था और वो नानी अम्मी से आँखें नहीं मिला रही थी।
आज इस घर में कोई बहुत ही ख़ास बात है। मैंने झाबे के पास फुदकती हुई मैना को देखते हुए सोचा। नानी अम्मी उसकी बात सुनकर ममता से मुस्कुरायी।
‘तो मँझली को भेज दो।’ नानी बोलीं।
‘नहीं बेगम जी, वो भी’, जम्मो धीमे से बोलीं।
‘अरे एक साथ.... अच्छा छोटी को भेज दो।’
‘हाँ वो तुलसी को पानी लगा सकती है बेगम जी।’ जम्मो ने कहा और इस बार उसकी आवाज़ में इत्मिनान था।
नानी अम्मी ने छोटी बहन शकीला से कहा। वो भागी-भागी गयी और मामी की तुलसी में पानी लगा कर आ गयी।
अगर मैना ठीक वक़्त पर मुझे झांसा न दे गयी होती तो मैं जम्मो से ये राज़ खुलवा कर ही रहता कि वो और उसकी मंझली बहन तुलसी में पानी क्यों नहीं लगा सकतीं। लेकिन ये वाली मैना बहुत चालाक थी। झाबे के पास तो आती लेकिन उसके अन्दर नहीं जाती। बस उसके किनारे खड़े-खड़े गर्दन बढ़ाकर मेरा सारा बाजरा चुगे जा रही थी। मैंने उसकी गर्दन को जब ज़रा ज़्यादा अन्दर की तरफ देखा तो थामले की आड़ में बैठे-बैठे झाबे को सहारा देकर उठाये रखने वाली लकड़ी से बँधी रस्सी तेज़ी से खींची। मैना झाबा गिरने से पहले ही अपनी गर्दन निकाल कर उड़ चुकी थी।
कमीनी। बदज़ात।
जिस बार अम्मा जम्मो को हमारे घर लाने की गजऱ् से गयी, उस बार मैं भी चालाक हो चुका था। अस्ल में मुझे मालूम हो गया था कि मैं ग़लती कहाँ करता था। बाजरे के दाने झाबे में बिखेर कर रखने से कोई फ़ायदा नहीं होता। बिखरे हुए दाने झाबे के किनारे की तरफ़ भी होते हैं। चालाक मैना झाबे के अन्दर आने के बजाय किनारे ही खड़े-खड़े दाना खा लेती थी। इस बार मैंने इशारे से ‘हुश्त-हुश्त’ करके मैना को उड़ाया। वो उड़कर नीम पर बैठ गयी। मैंने एक कंकड़ उछाल कर उसे वहाँ से भी उड़ा दिया। मैं कोई ख़ास तरकीब उसके सामने नहीं करना चाहता था। जब वो उड़ गयी, मैंने दोनों हथेलियों की मदद से बाजरे के दाने समेट कर झाबे के बीचों-बीच छोटी-सी ढेरी की शक्ल में एक जगह इकट्ठा किये। चारों तरफ चैकन्नी निगाहों से देखा। वो आस-पास नहीं थी। नीम पर नज़र फेंकी, नीम पर भी नहीं थी। अब मुझे इत्मिनान हुआ। झाबे के नीचे लकड़ी आहिस्तगी से लगायी और उससे बँधी हुई पतली सुतली को लेकर इस बार थामले के पीछे नहीं बैठा, बल्कि दालान में पड़े पलंग पर चादर ओढ़कर लेट गया और चादर की झिरी में से देखता रहा कि मैना कब आती है।
थोड़ी ही देर में नीम पर एक नहीं कई मैनाएँ आकर शोर मचाने लगीं। नानी अम्मी गर्मी के मारे अन्दर के कमरे में लेटी हुई थीं। आँगन बिल्कुल ख़ाली था। मैंने झिरी से देखा कि कई मैनाएँ झाबे के पास उतर आयी हैं। मेरा दिल सीने में उछलने लगा। इनमें वो वाली कौन सी है ?
लेकिन वो सब एक तरह की लग रही थीं। अगर एक साथ कई पकड़ में आ जाएँ, मैं क़रीब से देखकर पहचान लूँगा कि वो चालाक मैना कौन-सी है। क्या इस बार मैं अपनी ख़ास तरक़ीब की मदद से कई मैनाएँ एक साथ पकड़ पाऊँगा। दिल बहुत ज़ोर-ज़ोर से धक-धक कर रहा था। मैंने देखा तीन-चार मैनाएँ झाबे के चारों तरफ फुदक रही हैं और बस बाजरे की तरफ जाने ही वाली हैं, नानी अम्मी अन्दर के कमरे से निकलीं।
‘गर्मी में क्यों लेटे हो छोटे मियाँ? चलो अन्दर चल कर लेटो।’
मैंने आहिस्ता से अपना चेहरा बाहर निकाल कर झाबे की तरफ इशारा किया। उन्होंने सुतली और सुतली से बँधी लकड़ी और झाबे के पास फुदकती मैनाएँ देखीं और मुस्कुरा कर अन्दर चली गयीं। उनके अन्दर जाते ही मैनाएँ बेख़ौफ होकर और ज़्यादा शोर मचाने लगीं और धीरे-धीर झाबे के अन्दर तीन-चार मैनाएँ जमा हो गयीं। वो सब किनारे रहकर गर्दन बढ़ाकर दाना चुगना चाहती थीं लेकिन बाजरे की ढेरी तो बिल्कुल बीच में थी। अचानक उनमें से एक आगे बढ़ी और ढेरी से दाना चुगने लगी। बिजली की-सी तेज़ी से मैंने सुतली खींची, लकड़ी हटी, झाबा गिरा और मैनाएँ शोर मचाती हुई उड़ गयीं। क्या सब उड़ गयी ? मैं ये सोचता हुआ बेकरारी से नंगे पैर आँगन की तरफ़ भागा और झाबे पर झुक कर उसकी तीलियों के छेदों में आँख लगा दी। अन्दर अँधेरा था। जब मेरी आँखें झाबे के अन्दर देखने के काबिल हुई, मैंने देखा एक मैना सहमी-सहमी-सी अन्दर मौजूद है। मैं खुशी से चिल्ला पड़ा। नानी अम्मी और जम्मो और उसकी बहनें उठ-उठकर मेरे पास तेज़ी से आयीं। नानी अम्मी ने एक बड़ी-सी चादर झाबे पर डाली और कहा कि चादर के कोनों को सब लोग अपने-अपने हाथों से दबा लें। बस थोड़ी-सी जगह छोड़ दें और छोटे मियाँ उस थोड़ी-सी जगह में हाथ डाल कर झाबे के अन्दर टटोलकर अपनी मैना पकड़ लें।
मैंने अन्दर हाथ डालकर चारों तरफ घुमाना शुरू किया। बार-बार मेरा हाथ बाजरे की ढेरी से टकराता। मैना से भी टकराता लेकिन मैं उसे पकड़ में नहीं ला पाता। कभी मेरी उँगली उससे लग जाती कभी नाख़ून। वो झाबे में चारों तरफ फुदक-फुदक कर मेरे हाथ से बच-बच जाती थी।
तब नानी अम्मी बोली-
‘अँधेरे में टामक-टुइय्याँ मत मारो। झाबे में अपना हाथ रखो और ऊपर से चादर को ज़रा-सा हटा कर झाबे के छेद से झाँकों तो नज़र आ जाएगा कि वो किस कोने में खड़ी है। अभी वो तुम्हारा हाथ देख रही है। तुम उसको नहीं देख पा रहे हो।’
मैंने बिल्कुल वही किया। छेद से देखा, वो एक कोने में खड़ी हाँफ रही थी। मैंने अपने हाथ को बेहरकत कर दिया। थोड़ी देर बाद वो फुदकती हुई ठीक मेरे हाथ के नीचे आ गयी और मेरा हाथ एक शिकंजे14 की शक्ल में उसे पकड़ में लेने को तैयार था। मैंने उँगलियाँ खूब फैला लीं और झपट कर उसे पकड़ लिया। वो ज़ोर-ज़ोर से चीखने लगी और फिर एकदम बिल्कुल ख़ामोश हो गयी। वो बहुत गर्म थी और उसका दिल बहुत ज़ोर-ज़ोर से हिल रहा था। मैंने पकड़ मज़बूत रखे हुए उसे बाहर निकाल लिया। जम्मो की बहनें इस कारनामे पर इतनी ज़ोर से चहचहायीं कि नीम पर बैठी सारी मैनाएँ फुर्र से उड़ गयीं।
उसकी चोंच पीली थी और आँखों के पास भी पीला रंग था।
‘क्या ये वही चालाक मैना है नानी अम्मी ?’
‘लो जब हाथ में आ गयी तो फिर ये चालाक कहाँ रही।’
नानी अम्मी ने कहा-
‘अपनी माँ के आने से पहले इसे पिंजरे में डाल दो। फिर इसे खाना खिलाना, पानी पिलाना। रात को अपने पास इसका पिंजरा रखना, सुबह होते ही इसे छोड़ देना।’
मैंने उनकी हिदायतों15 पर अमल किया लेकिन उसे छोड़ने का मेरा कोई इरादा नहीं था। बहुत मुश्किल से हाथ आयी थी।
जब मैं उसे पिंजरे में डालकर पलंग पर बैठकर उसकी हरकतों का मुआयना कर रहा था, जम्मो ने पास आकर कहा-
‘छोटे मियाँ! म़गरिब16 के वक़्त इसे छोड़ देना। म़गरिब के वक़्त सारे परिंदे अपने माँ-बाप, भाई-बहनों के साथ जमा होते हैं, इसे नहीं पाएँगे तो रात भर रोएँगे।’
जो नानी अम्मी की बातों में नहीं आया, उसे भला जम्मो बहका सकेगी ?
‘हाँ...हाँ... शाम को देखेंगे। और नाना अम्मी तो कह रही थीं कि सुबह छोड़ना, तुम उनसे भी बड़ी हो गयीं क्या ?’
जम्मो के पास इस जुमले का कोई तोड़ नहीं था।
मग़रिब से ज़रा पहले जब अम्मा वापस हुई तो पिंजरे में बन्द मैना को देखकर अपनी नाराज़गी का इज़हार किया, जिस पर नानी अम्मी ने उनको दो बातें बतायीं। पहली तो ये कि अम्मा भी अपने बचपन में इसी तरह परिन्दे पकड़ कर खेलती थीं बल्कि बाहर के मैदान में साईकिल भी चलाती थीं और अपने बाप के घोड़े पर भी सवारी करती थीं और दूसरी बात ये कि छोटे मियाँ सुबह होते ही उसे आज़ाद कर देंगे। अम्मा बड़बड़ाती हुई नमाज़ की तैयारी करने लगीं।
‘हमसे ज़्यादा तो आप खराब करती हैं इन बच्चों को।’
‘तुम अपनी सुसराल पहुँचकर इन्हें फिर अच्छा कर लेना।’ नानी अम्मी ने मुस्कुरा कर कहा।
मैं फज्र की अज़ान से पहले उठ गया था। मैंने सबसे पहले पिंजरे का मुआयना किया। मैना उसमें मौजूद थीं और किसी-किसी वक़्त बाजरे पर भी मुँह मार लेती थी। मैं थोड़ी देर उससे खेलता रहा फिर मुझे ख़्याल आया कि सुबह होने के बाद मुझे उसे आज़ाद करना है।
ये सोचकर मुझे एक अज़ीब तरह के दुःख का एहसास हुआ। वो धीरे-धीरे मुझसे घुल-मिल गई थी। मैं उसे आवाज़ देता तो लगता जैसे वो मेरी तरफ़ देख रही है। मैं उसे छोड़ दूँगा तो फिर सारी मैनाओं में उसे पहचानूँगा कैसे? बस यही सोचते-सोचते एक तरकीब ज़हन में आयी। मैंने नानी अम्मी की कोठरी में जाकर रंग की पुडि़याँ निकालीं और लाल रंग की पुडि़या से एक बर्तन में रंग तैयार किया। मैना को पिंजरे से निकाला और उस बर्तन में बैठाया और इस बात का ख़ास ख़्याल रखा कि उसकी चोंच रंग में ना डूबे। थोड़ी देर बाद वो लाल हो गई। उसकी शक्ल बिल्कुल बदल गयी थी। अब मैं उसे पहचान लिया करूँगा। इस ख़्याल से मैं पागल-सा हो गया। उसे पिंजरे में बन्द करके मैं आँगन में उछलने-कूदने लगा।
फ़ज्र17 की नमाज़ के बाद नाश्ते से पहले, सबसे पहले अम्मा ने रंगी हुई मैना देखी। उनका चेहरा सफ़ेद हो गया। फिर धीरे-धीरे उनके चेहरे की सफ़ेदी पर लाली छाने लगी। मैं समझ गया ये गुस्से की निशानी थी। इस बात की तस्दीक़18 मेरे गाल पर पड़ने वाले ताबड़-तोड़ थप्पड़ों से हो गयी। नानी अम्मी ने झपट कर मुझे बचाया लेकिन जब उन्होंने मैना को देखा तो वो भी दुःखी हो गयीं।

14. शिकंजे - दबोचने का यन्त्र  15. हिदायतों - अनुदेशों
16. मग़रिब - सूर्यास्त के बाद की नमाज़

वो मुझे लेकर अन्दर वाले कमरे में गयीं और बोलीं-
‘तुमने ये क्या किया छोटे मियाँ? अब इसे इसके माँ-बाप, भाई-बहन कोई भी नहीं पहचान पाएँगे। ये सबसे अलग-थलग हो जाएगी। जब कोई चिडि़या सबसे अलग हो जाती है तो बाज़ आकर उसे खा जाता है। ये तुमने अच्छा नहीं किया छोटे मियाँ।’
थप्पड़ों की चोट के बाद नानी अम्मी के इन जुमलों ने दिल बहुत छोटा कर दिया।
‘मैं इसे साबुन से नहला दूँ नानी अम्मी ?’
‘रही-सही कसर भी पूरी हो जाएगी। साबुन की तेज़ी की ताब19 नहीं ला पाएँगीं, ये मर जाएगी, अब इसे आज़ाद कर दो। ख़ुदा के हवाले कर दो।’
मैंने पिंजरे का दरवाज़ा खोला। वो वैसी की वैसी बैठी रही। उसे खुला हुआ दरवाज़ा नज़र नहीं आया। मैंने एक लकड़ी की मदद से उसे दरवाजे़ की तरफ़ धकेला। वो दरवाज़े के पास आयी और गर्दन निकाल कर धीरे-धीरे पलंग पर आयी और जैसे ही उसे एहसास हुआ कि अब उसके उड़ने में कोई चीज़ की रूकावट नहीं है वो फुर्र से उड़कर नीम पर बैठ गई। वहाँ से उतर कर दीवार पर आ गयी। कुछ मैनाएँ नीम पर आकर बैठीं। ये भी उड़कर उनके पास जाकर बैठ गयी। वे उसे देखकर बिदक कर उड़ीं और दीवार पर आकर बैठ गयीं। ये भी नीम से उतर कर दीवार पर आकर बैठ गयी। बाक़ी मैनाएँ इसके आते ही वहाँ से उड़कर दूर चली गयीं। कोई उसे पहचान नहीं पा रहा था।
ज़ुहर20 से कुछ पहले जम्मो और उसकी बहनें आ गयीं। अम्मा मुझसे बात नहीं कर रही थीं। मैंने अम्मा से आँख बचाकर जम्मो और उसकी बहनों को पूरा किस्सा सुनाया। जम्मो के अलावा दोनों बहनें हँस-हँस कर ये बातें सुन रही थीं ख़ास तौर पर वो हिस्सा जब अम्मा ने थप्पड़ों से मेरी ख़बर ली थी।
थोड़ी देर के बाद नानी अम्मी हम लोगों के पास आकर बोलीं-
‘जम्मो ने मुझे मैना के बारे में सब कुछ बता दिया है छोटे मियाँ! तुमने इसे रंग का एक नक़ाब पहना दिया। अब इसके माँ-बाप, भाई-बहन, रिश्तेदार इस नक़ाब में अस्ली मैना को नहीं देख पा रहे। इसीलिए वो इससे दूर भाग रहे हैं। वो रंग तुम्हारी पहचान का है तो तुम मैना को पहचान लेते हो। भला सोचो जिनके साथ इसे जि़न्दगी गुज़ारना है, वो भी अगर ना पहचान पाएँ तो इसकी जि़न्दगी कैसे गुज़रेगी। तुम तीन दिन बाद हमें और इस मैना को छोड़ कर चले जाओगे। फिर इसे पहचानने वाला भी कौन रहेगा?’ वो दुःखी लहजे में ये सारी बातें कहती रहीं। मैं ख़ामोश बैठा सोचता रहा कि हमारी नानी अम्मी को दुःख देने वाली बातें करने में कितनी उस्तादी हासिल है।
जिस दिन हम विदा लेने वाले थे तो पड़ोस की गोरी मामी शारदा और गोमती को लेकर आयीं। बहुत देर तक अम्मा से दीदी-दीदी कहकर बातें करती रहीं। वो मेरे लिए चीनी के रंगीन खिलौने भी लायी थीं। कह रही थीं कि ये दीदी की सूसराल में नहीं मिलते। यहाँ भी सिर्फ दीवाली पर बनते हैं लेकिन हमने ख़ास तौर से राक्षस के लिए बनवाये हैं। फिर उन्होंने गोमती से कहा-
‘जा भाग कर काँटा उठा ला। अब बहुत दिन तक उसकी ज़रूरत नहीं पड़ेगी।’
शारदा ये सुनकर खिलखिला कर हँस पड़ी, नानी अम्मी भी मुस्कुराने लगीं, अम्मा की नाराज़गी अभी भी बाक़ी थी।
फिर जम्मो, गोमती, शारदा और जम्मो की बहनों के साथ बैठकर हम लोग लूडो खेलने लगे। लूडो खेलते-खेलते गोमती बोली-
‘सुबह हमारे घर की मुँडेर पर एक लाल रंग की मैना आयी थी। सारी मैनाएँ उससे दूर भाग रही थीं। मैना की समझ में नहीं आ रहा था कि सब उससे दूर क्यों भागते हैं। वो उदास-उदास तुलसी के गमले के पास बैठी रही। तुलसी की ख़ुश्बू ने उसे ख़ुश कर दिया। वो चहचहाने लगी। फिर जाने उसके दिल में क्या आयी कि वो आँगन से उड़कर दोबारा मुँडेर पर जाकर बैठ गयी। वहाँ बैठी सब मैनाएँ उसे छोड़कर उड़ गयीं। वो अकेली रह गयी। इतने में चील से बड़ा एक पंछी आया और अकेली बैठी मैना को अपने पंजों में दाबकर ले गया।’

17. फज्र - सूर्योदय से पहले की नमाज़  18. तस्दीक - प्रमाण
19. ताब - सहन, बर्दाश्त
20. जुहर - दोपहर की नम़ाज
मेरी आँखें आँसुओं से भर गयी थीं। हम सबमें जम्मो सबसे बड़ी थी। मैंने उसकी तरफ देखा। वो सर झुकाये बैठी थी और आँसुओं के दो कतरे उस के गालों पर चमक रहे थे।
‘बेगम जी और बाजी से इस बात का जि़क्र मत करना कोई भी।’ ये कहकर उसने लूडो को पकड़ कर ज़ोर से हिला दिया। सारी गोटें इधर से धर हो गयीं।
जम्मो को लेकर जब अम्मा रेल में बैठीं, जम्मो की जि़न्दगी में वो रेल का पहला सफ़र था। बड़ी-सी मोटी चादर ओढ़े वो खिड़की के शीशे पर नाक चिपकाये एकटक बाहर देखती रही थी। उसने जि़न्दगी में पहली बार खेत, नाले, नदियाँ, टीले और रेल के साथ दायरे में झूमते-भागते हुए पेड़ देखे थे। वो इतने ग़ौर से बाहर का मंज़र देख रही थी कि मैं भी ख़ूब ज़ोर से हँस पड़ा था। अम्मा ने जब नाश्तेदान खोला और उससे खाना खाने को कहा तो उसने रोटी में कबाब रख रोटी गोल-गोल की और फिर शीशे से नाक चिपका ली थी। जब मैलानी का जंगल आया तो वो फटी-फटी आँखों से इस हरे-भरे मंजर को देखती रही। अम्मा तंग आकर बोलीं।
‘जम्मो! क्या सारा जंगल आँखों ही आँखों में पी लोगी ?’
मैंने खिड़की के शीशे में उसके चेहरे की धुँधली परछाई देखी जिसके पीछे सारा मंज़र दौड़ रहा था। उसके चेहरे पर गहरी हैरत में सराबोर एक ऐसी मुस्कुराहट थी जिसमें उसके सामने के चमकदार दाँत साफ़ नज़र आ रहे थे।
‘हाँ बाज़ी।’ पड़ोस के रिश्ते से अम्माँ को बाजी पुकारती थी। ‘आसमान और नदी भी।’
अम्मा ने पीछे से उसके कन्धे पर एक ममता भरी चपत लगायी। वो घूमी तो उसकी आँखें ऐसे स्कूल बैग की तरह लग रही थीं जिसमें खूब सारी रंगीन कापियाँ-किताबें ऊपर से नीचे तक ठसाठस भरी हों। वो एक पल तक अम्मा का चेहरा देखती रही फिर खिलखिला कर ज़ोर से हँस पड़ी और मेरी छोटी सी गोद में अपना बड़ा-सा सर रखकर देर तक हँसती रही।
जब देर तक हँसने के बाद उसने अपना चेहरा उठाया तो उसकी भीगी-भीगी आँखें लाल हो चुकी थीं।

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