आधुनिक भारत की आधारशिलाएँ आशीष नन्दी से उदयन वाजपेयी की बातचीत
05-Sep-2018 08:22 PM 7805

वर्ष 1937 को भागलपुर में जन्मे आशीष नन्दी देश के श्रेष्ठ विचारकों में एक हैं। वे राजनैतिक मनोविश्लेषक, समाजशास्त्री और आधुनिकता के समर्थ आलोचक हैं। आशीष नन्दी ने कलकत्ते में चिकित्सा शिक्षा को बीच में ही छोड़कर नागपुर के हिसलाॅप महाविद्यालय से समाज विज्ञान की शिक्षा प्राप्त की। उसके बाद उन्होंने अहमदाबाद के डी.एम. संस्थान से क्लिनिकल मनोविज्ञान में शोध किया है। उसके बाद वे दिल्ली आ गये और वहाँ लम्बे समय तक विकासशील समाज अध्ययन पीठ में फैलो और बाद में उसके निदेशक रहे। आशीष नन्दी ने पिछले अनेक दशकों में उपनिवेशोत्तर भारतीय समाज की आत्म पहचान के तत्त्वों को रेखांकित करने का एक ऐसा सैद्धान्तिक उपक्रम किया है जो अपने आप में अनूठा है। उन्होंने महात्मा गाँधी, सती प्रथा, वैकल्पिक विज्ञान, फ्राॅयड, राष्ट्रवाद, लोकप्रिय सिनेमा, क्रिकेट आदि विविध विषयों पर अद्वितीय लेखन किया है। वे सम्भवतः भारत के सबसे अधिक पढ़े और सुने जाने वाले विचारक हैं। उनकी लिखी इन्टिमेट एनिमी (आत्मीय शत्रु) अब कालजयी ग्रन्थ मानी जाती है। इसके अलावा भी उनकी पन्द्रह से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। आशीष दा दिल्ली में अपनी पत्नी उमा जी के साथ रहते हैं।
यह बातचीत फरवरी 2018 के आख़िरी हफ़्ते में तीन दिन तक हुई है। आशीष दा के घर के सामने दो घने पेड़ हैं। उनके बीच से होकर सीढ़ियाँ जाती हैं जो आशीष दा के दरवाजे़ पर खत्म होती है। भीतर उनका कमरा पुस्तकों से भरा हुआ है। एक गोल टेबल के पास बैठकर जब हम बात कर रहे होते, खिड़की के बाहर पत्तों से छनकर आती दोपहर की धूप हमारे ऊपर गिरती रहती। आशीष दा उन बिरले विचारकों में है जो निरन्तर सोचने की प्रक्रिया में जीते हैं इसीलिए वे जितना सोचा हुआ बोलते हैं उतना ही बोलते हुए सोचते भी हैं। शायद यही कारण है कि उनसे की गयी कोई भी बातचीत हमेशा ही नयी महसूस होती है।
उदयन- आपने कोलकाता के अपने आरम्भिक जीवन में साहित्य की कौन-सी पुस्तकें पढ़ीं थीं और उनके सहारे आपकी अपने परिवेश की क्या समझ बनी थी, अपने शहर की और देश की समझ ? जीवन के आरम्भ में साहित्य ने आपके भीतर किस तरह की कल्पनाओं को जन्म दिया था।
आशीष नन्दी- यह बता पाना बहुत मुश्किल है। मैं सबकुछ पढ़ता था, दीवानों की तरह पढ़ता था। एक विशेष सीमा के बाद मध्यवर्गीय परिवारों में कुछ बन्दिशें होती हैं। मेरा परिवार बहुत पढ़ा-लिखा था। सभी पढ़ते थे। सभी प्रतिभावान छात्र रहे थे अलावा पिता के। मेरी माँ अत्यन्त प्रतिभावान थी। मेरी दो बुआओं में से एक बहुत होशियार थीं, दूसरी भी होशियार ही थी पर उनकी प्रतिभा अनपहचानी ही रह गयी क्योंकि उनकी प्रतिभा चित्रकला में थी। वे अवनीन्द्रनाथ टैगोर की छात्रा थीं। उनके केवल दो चित्र बचे, किसी दिन तुम्हें मैं दिखाऊँगा। तुम यह देख पाओगे कि उनमें बंगाल स्कूल की छाप है। उन चित्रों के कौशल से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वे कितनी प्रतिभावान थीं। पर मैं कुछ और कह रहा हूँ, वह यह है कि पढ़ना हमारे यहाँ सामान्य बात थी जैसा कि बंगाल के सभी मध्यवर्गीय घरों में थी। हमारे घर में पुस्तकालय था, स्कूल में भी था, जहाँ से हम किताबें ले सकते थे और हमें ऐसा करने प्रोत्साहित भी किया जाता था। मेरे पिता वाय.एम.सी.ए. के सचिव थे, वहाँ के पुस्तकालय से भी हम किताबें ले सकते थे। हम लोग ब्रिटिश काउंसिल लायब्रेरी और अमेरिकन सेण्टर के पुस्तकालय के भी सदस्य थे। किताबों का पढ़ना चलन में था। कोलकाता के काॅफ़ी हाॅउस भी संस्कृति के अड्डे थे। वहाँ प्रेसीडेन्सी काॅलेज के छात्र आया करते थे। मेरे भाई उसमें पढ़ते थे। मैं मेडिकल काॅलेज में पढ़ता था जो काॅफ़ी हाॅउस से कुछ दूर था। इस किस्म के परिवेश में यह कहना मुश्किल है कि आपकी आधारभूत पढ़ाई किन पुस्तकों की हुई है। उस पढ़ने में चुनने का विवेक नहीं था, मैं सबकुछ पढ़ता था। अधिकतर पढ़ाई स्कूल में होती थी। जब शिक्षक कुछ पढ़ा रहे होते, मैं मेज़ के नीचे रखकर उपन्यास पढ़ता रहता था, उससे मेरे पढ़ने की गति कमाल की हो गयी। मैं पूरा उपन्यास लगभग दिनभर में पढ़ लेता था।
वैसे पढ़ने की मेरी आरम्भिक स्मृति भागलपुर की है। हमें भागलपुर के उसी स्कूल में दाखिल कराया गया था जिसमें हमारी माँ पढ़ाती थी। कोलकाता पर जापानियों ने हमला कर दिया था, इसलिए हमें सुरक्षित रहने भागलपुर जाना पड़ा था। हमारी नानी वहाँ थीं, माँ के तीन बल्कि चार भाई डाॅक्टर थे। हमारा एक तरह से डाॅक्टरों का परिवार था।
उदयन- आपका जन्म भी भागलपुर में ही हुआ था ?
आशीष दा- माँ की माँ के यहाँ। वह अपने पहले बच्चे के जन्म के लिए भी वहीं गयी थीं, यही रिवाज था, पूर्वी भारत में।
उदयन- मध्यभारत में भी यही है। आप कह रहे थे कि आप लोग युद्ध के दौरान भागलपुर चले आये थे।
आशीष दा- मेरी बुआएँ नागपुर में रहती थीं। वे नागपुर से भागलपुर आयीं। उनमें से एक नागपुर के विख्यात उर्सुला स्कूल की प्राचार्य थी। दूसरी बुआ वहाँ के बंगाली स्कूल की। उन दिनों नागपुर में बहुत सारे बंगाली परिवार रहा करते थे। बहरहाल, वे हमसे मिलने भागलपुर आयीं और हमारी माँ उन्हें स्कूल दिखाने ले गयीं। जब वे हमारी कक्षा में आयीं, सारे छात्र उठकर खड़े हो गये, मैं बैठा रहा। मैं बहुत भारी क़िताब पैरों पर रखकर पढ़ रहा था। वह किताब ‘महाभारत’ थी। मैं उसमें इतना डूबा हुआ था कि मैं खड़ा नहीं हुआ। वैसा हो जाना मेरे लिए शर्मनाक हो गया क्योंकि न सिर्फ़ मैं कक्षा में कुछ और पढ़ते हुए पकड़ा गया, मैं उठ भी नहीं पाया था। मैं बांग्ला की वह मोटी किताब पढ़ रहा था। पर तब मैं बहुत छोटा था।
उदयन- तब आपकी क्या उम्र रही होगी ?
आशीष दा- पाँच-छः साल से अधिक नहीं।
उदयन- तब तो आप बहुत छोटे थे....
आशीष दा- शायद तभी सभी लोग हँस पड़े थे। किसी ने भी उसे गम्भीरता से नहीं लिया। उन दिनों बांग्ला भाषियों में कुछ खास रिवायतें हुआ करती थी। वे अब लगभग नहीं है या बहुत कम बाकी हैं। मिसाल के तौर पर हमें अपनी वर्षगाँठ पर उपहार में किताबें मिलती थीं और हमें भी अपने दोस्तों को उनकी वर्षगाँठ पर किताबें देने को कहा जाता था। मुझे मेरे माता-पिता ने मेरे जन्मदिन का उपहार में टैगोर की सम्पूर्ण रचनावली दी थी। तब शायद मैं चालीस बरस का था और दिल्ली आ गया था। मैंने उन्हें दफ़्तर में रखा था, घर पर इतनी जगह नहीं थी। मैं यह कहने की कोशिश कर रहा हूँ कि मेरे चारों ओर पढ़ने का वातावरण था। हम बिना सोचे अन्धाधुन्ध पढ़ा करते थे। ढेरों उपन्यास, कहानियाँ और कविताएँ। यह दिलचस्प है कि मुझे नाटक पढ़ने का भी शौक था जो अभी हाल तक बना रहा। नाटकों में विशेष बात यह है कि वहाँ रंगमंच पर एक तरह के मानुषी संवाद के सहारे पूरा संसार उपस्थित हो जाता है जो अन्य जगहों पर वर्णन के सहारे आता है। नाटक की यह बात आकर्षक है। इससे मुझे सिनेमा को समझने का भी रास्ता मिला। यह अवश्य है कि सिनेमा में आप अतीत में जा सकते हैं और वहाँ आप वास्तविकता को भी थोड़ा-बहुत दिखा सकते हैं। पर नाटकों में आपको मानुषी संवाद पर ही निर्भर रहना पड़ता है। मैं कविताएँ बहुत पढ़ता था, हालाँकि मेरे दोस्त ज़्यादातर उपन्यास पढ़ते थे।
उदयन- आप काॅफ़ी हाऊस में बैठने के विषय में बता रहे थे...
आशीष दा- जिस काॅफ़ी हाॅउस में हम बैठते थे, वहाँ हमारे वरिष्ठ मित्र हमसे कहा करते थे कि तुमने शरच्चन्द्र तो बहुत पढ़ लिया, अब ताराशंकर और माणिक बैनर्जी को पढ़ो। मैंने दरअसल 16 वर्ष की उम्र तक शरच्चन्द्र का लिखा सबकुछ पढ़ लिया था। उनका बनाया संसार आपको पकड़ लेता है। टैगोर के उपन्यास कहीं आपके बौद्धिक प्रश्नों से बिन्धे हुए थे इसलिए वे उस उम्र में कम प्रभावित करते हैं। बाद में मैं उनकी ओर लौटा क्योंकि मेरी उनके उठाये प्रश्नों में गहरी रुचि थी, उदाहरण के लिए उनके तीन राजनैतिक उपन्यासों में उठाये प्रश्नों में। लेकिन बात ये है कि कोलकाता काॅफ़ी हाॅउस में यह होता था कि कोई कहे, ‘फलाँ को भूल जाओ, तुम तो अस्तित्ववादियों को पढ़ो’ या ‘अच्छा तुमने अस्तित्ववादियों को पढ़ लिया है तो तुम टी.एस. एलियट को पढ़ो, क्योंकि तुम्हें यह पता होना चाहिए कि तुम किसके खिलाफ विद्रोह कर रहे हो।’ वे कहते कि तुम्हें स्टीफन स्पेण्डर, डब्ल्यू.एच. आॅडन और सिसिल डे- लेविस को पढ़ना चाहिए। यह सुनकर मैं उन्हें पढ़ना शुरू कर देता। फिर मैंने कोलकाता छोड़ दिया और नागपुर आ गया। मैंने वहाँ आकर दूसरी तरह से पढ़ाई करना शुरू किया और मैंने उससे कुछ पाया भी। कोलकाता में मैं वह पढ़ता था जो मुझे कहा जाता था। मुझे तेज़़ी से पढ़ना होता था। मैं टी.एस.एलियट के नाटकों को ठीक से नागपुर में समझ पाया क्योंकि मैं उन्हें वहाँ सुकून से अपनी गति से पढ़ सका। मैं संस्कृत में भी रुचि लेने लगा। इसके पहले तक वह मुझे नापसन्द थी। हालाँकि मैंने संस्कृत दसवीं कक्षा तक पढ़ी थी, मैं उसमें बहुत अच्छा नहीं था पर फिर भी उसे जानता था। मेरा भाई मनीष उसमें बेहद होशियार था। मेरे पिता भी संस्कृत पढ़े थे, वे बहुत गर्व से यह बताते थे कि उनके शिक्षक उन पर इस कारण बहुत खुश रहते थे, कुछ-कुछ इसलिए भी कि उन दिनों संस्कृत नीचे की ओर जा रही थी और एक ईसाई बालक उसमें गहरी रुचि ले रहा था। मेरे पिता से उनके शिक्षक संस्कृत में सवाल पूछते थे और वे उसी में जवाब देते थे। वे यह बात हमें बड़े गर्व से बताते थे।
उदयन- क्या आप काॅफ़ी हाॅउस में किन्हीं खास लोगों के साथ बैठते थे, क्या उन लोगों से आपकी किसी हद तक पक्की दोस्ती हो गयी थी ?
आशीष दा- वहाँ मेरे बहुत दोस्त नहीं थे, कुछ इसलिए भी कि मैं मेडीकल काॅलेज में पढ़ता था। काॅफ़ी हाउस में अधिकांश लोग प्रेमीडेंसी काॅलेज के होते थे। एक व्यक्ति मेरे निकट थे और जो बाद तक भी वैसे ही रहे आये: अम्लान दत्ता। वे ग़ैर माक्र्सवादी थे और मैंने तब भी यह देखा था कि उनके साथ कैसा बर्ताव किया जाता था और मैंने यह सोचा था कि विचारधारा में ऐसा कुछ ज़रूर है जो ग़लत है क्योंकि वह किसी युवक को बौद्धिक तर्कों का कायरता से जवाब देने प्रेरित कर सकती है। मसलन जब हम काॅफी हाॅउस में बैठे होते, कोई हमारे पास से निकलता हुआ, अम्लान दत्ता की तरफ़ अपनी कोहनी को इस तरह बढ़ा देता कि उसकी चाय मेज़ पर फैल जाती। वे कभी इसका जवाब नहीं देते थे। इससे कोहनी मारने वाले को निराशा ही होती होगी। ऐसी हरकत करने वालों में कई मर्तबा छात्र हुआ करते थे। यह चीज़ मुझे चुभती थी। वहाँ उत्पल दत्त भी आया करते थे और भी ऐसे कई लोग वहाँ आते थे, जो बाद में प्रसिद्ध हुए। अम्लान के साथ होती हरकतों पर मेरे भाई मनीष को भी पीड़ा होती थी। वह उन दिनों माक्र्सवादी था। मेरे दोनों भाई वही थे। लेकिन वे ऐसे अपने मित्रों के कारण हो गये थे।
उदयन- क्या आप भी कभी माक्र्सवादी रहे हैं ?
आशीष दा- जब मैं मेडीकल काॅलेज में था, दो-एक बरस के लिए उनके क़रीब था। यह भी शायद साथियों के कारण ही था। तीन बरस बाद मैं नागपुर चला गया। नागपुर में मेरे पढ़ने की दिशा बदल गयीः मैं वहाँ रहकर संस्कृत के नाटक भी पढ़ने लगा जो द्विभाषी संस्करणों में आते थे। उनमें से कुछ संस्कृत-बांग्ला संस्करण थे। वहाँ महाभारत मैंने अँग्रेज़ी अनुवाद में पढ़ा। लेकिन कालिदास मैंने बांग्ला अनुवाद में पढ़ा, हालाँकि मैं संस्कृत पढ़ लेता था पर कालिदास की भाषा महाभारत से कहीं अधिक कठिन है। मैंने पाया कि महाभारत की संस्कृत अपेक्षाकृत सरल और सपाट है। सर्वोच्च न्यायालय में मुझ पर दो मुक़दमें दायर हो जाने के बाद हैदराबाद के दार्शनिक रघुराम राजू ने मुझसे कहा था कि जब कोई महाभारत और सिग्मण्ड फ्रायड से शुरू करता है तो उसके साथ यह तो होना ही था। क्योंकि यह संयोग ख़तरनाक है। नागपुर में मैंने बहुत सीखा क्योंकि मैं अपनी इच्छा से धीमे-धीमे पढ़ता था। वहाँ रहते हुए मैंने चार साल तक फ्राँसीसी भाषा भी सीखी। मैंने वह एक बेहद दिलचस्प परिवार से सीखी थी। वह खोबरागड़े परिवार था, पति मैक्सिको के स्वतन्त्रता संग्राम में सेनानी थे, पत्नि मैक्सिकी थीं और वे तीन-चार लोगों को फ्राँसीसी सिखाकर कुछ अतिरिक्त आमदनी कर लेती थीं। वे बहुत अच्छी शिक्षक थीं। मैंने तीन-चार पुस्तकें सीधे फ्राँसीसी में भी पढ़ी थी, उनमें से एक काम्यू की ‘द आउट साइडर’ भी थी। काम्यू को मैं कोलकाता काॅफ़ी हाॅउस के कारण अँग्रेज़ी में पढ़ चुका था। इस तरह पढ़ना मेरे लिए आसान भी था क्योंकि तब मुझसे यह कोई नहीं कह रहा था, जैसा कि काॅफ़ी हाॅउस में होता था कि मैं जल्दी से काम्यू को पढ़कर सात्र्र को पढ़ना शुरू कर दूँ क्योंकि वे असली माक्र्सवादी हैं, काम्यू तो बुर्ज़ुआ हैं। नागपुर में मैंने सिमन दी बुआ को भी पढ़ा, जिसकी कोलकाता काॅफ़ी हाॅउस में चर्चा नहीं होती थी। तब फेमिनिज़्म फैशन नहीं बना था।
उदयन- फ्रायड को पढ़ना कब शुरू हुआ ?
आशीष दा- फ्रायड से मेरा परिचय नागपुर में ही होना शुरू हो गया था क्योंकि मैंने मनोविज्ञान को एक विषय के रूप में चुन लिया था लेकिन मनोविज्ञान मेरे पाठ्यक्रम का एक छोटा-सा भाग था। पर मैं फ्रायड से चमत्कृत था। वे एक ऐसे चिन्तक थे जो मनुष्य के पूरे व्यक्तित्व के विषय में बता रहे थे। वे व्यक्तित्व की किसी एक परत के विषय में बताकर कोई सख़्त सिद्धान्त प्रस्तावित नहीं कर रहे थे, जो मनोवैज्ञानिक पाठ्यक्रम किया करते थे। बल्कि फ्रायड मनुष्य समूचे व्यक्तित्व के बारे में विचार करने की महत्वाकांक्षा रखते थे। यह मुझे चमत्कृत करता था। उन्हें पढ़ने पर मेरे जीवन की दिशा बदल गयी। अकादेमिक पाठ्यक्रमों में फ्रायड की उपस्थिति कम ही थी, हमारे शिक्षकों को उन्हें पढ़ाने में बहुत रुचि भी नहीं थी। जब अहमदाबाद के डी.एम. संस्थान को ऐसे शोध सहायकों की आवश्यकता हुई जो नाॅन क्लिनिकल परीक्षण, क्लिनिकल परामर्श और मनोविश्लेषण के अलावा शोध भी करेंगे और जिन्हें यह स्थान पाने शोध प्रस्ताव भेजने होंगे, मैंने एक प्रस्ताव भेज दिया। मुझे वह स्थान मिल गया। मुझे यह भी पता चला कि उन लोगों का झुकाव मनोविश्लेषण की ओर है। वह मेरे लिए बड़ी चीज़ थी। संयोग से वह पश्चिमी जगत के बाहर वैसा काम करने वाला सबसे बेहतर संस्थान था।
उदयन- आप कह रहे हैं कि वह मनोविश्लेषण का इस गोलार्ध का सम्भवतः सबसे बेहतर संस्थान था..
आशीष दा- बिल्कुल। उनका लन्दन की टेविस्टाॅक क्लिनिक से सम्बन्ध था जिसमें मनोविश्लेषण के बेहतरीन लोग काम कर रहे थे। एरिक एरिकसन गाँधी पर अपना काम शुरू कर रहे थे, वे हर वर्ष एक सेमेस्टर या छह महीनों के लिए वहाँ आया करते थे।
उदयन- आपको एरिक एरिकसन पढ़ाया करते थे ?
आशीष दा- सीधे-सीधे नहीं पर वे हर प्रेस कान्फ्रेन्सेस में उपस्थित रहते थे। उन्हें हमारे काम में दिलचस्पी थी क्योंकि इससे उन्हें भारतीय व्यक्तित्व का आभास मिलता था और वह गाँधी पर उनके काम के लिए उपयोगी था। इससे उन्हें गाँधी के अन्य लोगों से सम्बन्धों को समझने में कुछ सहायता मिलती होगी।
उदयन- नागपुर में आप मनोविज्ञान में एम.ए. करने आये थे ?
आशीष दा- नहीं, मैंने मेडीकल काॅलेज की पढ़ाई को आधा ही छोड़ दिया था और नागपुर आ गया था। मुझे इसीलिए पहले बी.ए. करना पड़ा। एम.ए. करने के बाद मैं अहमदाबाद चला गया और वहाँ चार साल रहा। लेकिन मेरा वहाँ से सम्बन्ध इससे अधिक रहा क्योंकि मैं वहाँ रहकर पीएच.डी. कर रहा था, जो मेरे दिल्ली आ जाने तक पूरी नहीं हुई थी। मैं 1961 में नागपुर से अहमदाबाद गया था और वहाँ 1965 तक रहकर दिल्ली गया। दिल्ली आकर मैंने श्रीराम सेण्टर में रिसर्च मेथड (शोध-पद्धति) में काम किया। चूँकि मैं विज्ञान पढ़ चुका था इसलिए शोध पद्धति में काम करना मुझे आसान था। उसके लिए मुझे टेक्ट्स नहीं पढ़ना पड़ता था। उन दिनों मनोविज्ञान क्वाण्टिफिकेशन करने की ओर बढ़ रही थी, इस तरह वह परिष्कृत अनुशासन होकर मेथड की ओर झुकी थी। विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सी.एस.डी.एस.) ने मुझे इसलिए चुना था क्योंकि मैं श्रीराम सेण्टर में मेथड का विशेषज्ञ था: नमूने (सेम्पल) कैसे लिये जाते हैं, उन पर किस तरह से सांख्यीकीय परीक्षण किये जाते हैं और किस तरह के सांख्यीकीय परीक्षण नहीं किये जाते। मैं इसी काम के लिए सेण्टर गया था। वहाँ मैं शोध पद्धति के अलावा कथ्य का विश्लेषण भी करने लगा। उसके लिए आपको गुणात्मक (क्वालिटेटिव) आँकड़ों को पढ़ना पड़ता है और कई बार उसे क्वाण्टिफाई (विभक्त) करने की भी आवश्यकता होती है, विशेषकर केस स्टडीज के लिए। यह बहुत बारीक काम है। आपको आँकड़ों की व्याख्या भी करनी होती है और यह अन्य चिकित्सकीय विश्लेषणों की तरह ही किन्हीं लोगों के लिए जीवन-मृत्यु का प्रश्न होता है। उन्हें यह बताना कि वे इस्कृत्ज़ोफेनिक (विक्षिप्त) हैं या उनकी वैसी कुछ-कुछ प्रवृत्तियाँ हैं, बहुत दायित्वपूर्ण काम है। क्लिनिकल गेज़ (चिकित्सकीय दृष्टि) मेरा अत्यन्त महत्वपूर्ण औज़ार बन गया। यह इसलिए क्योंकि इससे मुझे इन लोगों को समझने का एक अलग रास्ता मिलता है, और साथ ही इसके कारण आपमें सहने और बिना हिचक सामना करने की सामथ्र्य बढ़ जाती है। यह बहुत कारगर गुण है क्योंकि आप किसी भी ‘ईविल’ को बिना उसका सामना किये, बिना यह समझे कि वह व्यक्ति वैसा क्यों कर रहा है, जान नहीं सकते। आपको उसके भीतर की प्रक्रिया को समझना होता है। यह चिकित्सकीय कर्म जैसा है। अगर कैंसर एक ‘ईविल’ स्थिति है तो क्या आप उसे समझेंगे नहीं, इसी तरह अगर कोई विक्षिप्त व्यक्ति कोई ऐसी भाषा बोल रहा है जो आप समझ नहीं पा रहे तो क्या इसका अर्थ यह है कि आप उसे बूझ नहीं पाएँगे। उसे समझना आपका कत्र्तव्य है।
उदयन- उन्हे समझने के लिए आप क्या किया करते थे ?
आशीष दा- उन्हे समझने के अपने दायित्व को निभाने के लिए ही मैं उनसे लम्बी बातचीत किया करता था। यानि मेरे सारे साक्षात्कार लम्बे हुआ करते हैं। कई बार वे कुछ हफ़्तों या महीनों तक चलते हैं, इस रास्ते मुझे सम्बन्धित व्यक्ति के जीवन के बारे में बहुत-सी सामग्री मिल जाती है। इसके साथ ही मुझे उसके सोचने का ढंग, उसका अपना पक्ष पता चल जाता हैः उसे क्या पसन्द है, क्या नहीं; वह किससे घृणा करता है, किससे नहीं। उसे किससे डर लगता है, किससे नहीं। कौन-सी चीजे़ं उसके भीतर की हिंसा को बाहर लाती हैं, कौन-सी नहीं। उसे किस चीज़ से ग्लानि होती है, किससे नहीं। और इसी तरह की तमाम दूसरी चीज़ें। जब बाल ठाकरे की मृत्यु हुई, मैंने लिखा था कि वे बाल-अपराधी की तरह थे। इस पर एक वरिष्ठ पत्रकार जो पहले इण्डियन एक्सप्रेस में काम करते थे, बहुत नाराज़ हो गये और बोले कि इस आदमी ने बम्बई को कम से कम तीस साल तक आतंकित किया है और अब जब वो मर गया है, आप उसे ‘बाल-अपराधी’ कह रहे हैं। मैंने कहा, मैं इसी तरह उनके इतिहास को देखता हूँ क्योंकि वे किसी चीज़ पर विश्वास नहीं करते थे, उनका पूरी तरह नकारवादी दृष्टिकोण था। यह भी नहीं कहा जा सकता कि वे हिन्दुत्व में विश्वास करते थे, उसका स्वांग ज़रूर भरते थे।
उदयन- क्लिनिकल गेज़ (दृष्टि) होने के कारण ही आप उन्हें वैसा देख सके वरना आज उनको समझने के स्थान पर आप उन पर अपना फैसला सुनाते पर उससे भविष्य में क्या लाभ होता?
आशीष दा- क्लिनिकल दृष्टि ने मुझे अलग ढंग के व्यक्तित्वों को समझने में बहुत सहायता की। इस सबसे यह सवाल मेरे मन में उठा था कि ऐसा क्यों है कि भारत में विचारधारा की पैठ केवल चमड़ी तक होकर रह जाती है। एक बार समाजशास्त्र के विद्वान आचार्य पी.सी. जोशी ने मुझे केरल के एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता की कहानी बतायी थी, जो दो-तीन दिन उनके घर आकर ठहरा था। जोशी कलकत्ता को अच्छी तरह से जानते हैं, शायद उनकी पत्नी बंगाली हैं। वह कम्युनिस्ट कार्यकर्ता उनसे बोला कि कलकत्ता अब केरल के माक्र्सवादियों का तीर्थ स्थान बन गया है। वह कलकत्ते में होने वाले कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वोच्च अधिवेशन में भाग लेने के पहले श्री जोशी की मदद से कलकत्ता घूमने आया था। वह यह समझना चाहता था कि बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी की इतनी पकड़ कैसे बन सकी। वह बंगाल के प्रति प्रशंसा से भरा हुआ था। वह व्यक्ति बंगाल आकर एक महीना रहा और कम्युनिस्ट सम्बन्धों के कारण कस्बों में, शहरों में घूमता रहा, यह समझने कि कम्युनिस्ट पार्टी कैसा काम कर रही है। यह उन दिनों की बात है, जब कम्युनिस्ट पार्टी एक हुआ करती थी। कलकत्ता लौटकर वह दिल्ली जाने से पहले जोशी से मिला। वह बहुत उदास था। वह बोला कि अगर साफ़-साफ़ कहूँ तो मुझे लगा कि केरल का पारम्परिक गाँधीवादी भी बंगाल के कम्युनिस्टों से ज़्यादा माक्र्सवादी है। आप देखिए स्वप्न दासगुप्ता (जो अब भाजपा के निकट है) तीस-पैंतीस वर्षों तक ट्राॅटस्कीवादी रहा है, चन्दन मित्रा भी पच्चीस-तीस वर्षों तक भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) में रहा है और वह झट से भाजपा में शामिल हो गया। मैंने यह पाया कि हर जगह विचारधाराओं की पैठ बड़ी ही सतही होती है। यह मेरे दोस्तों के साथ भी है। यह इसलिए है कि वे आस्था के स्तर तक नहीं पहुँच पाती। आस्थाएँ सशक्त होती हैं इसीलिए धर्म बचे हुए हैं पर विचारधारा की बहुत बारीक परत ही लोगों पर चढ़ती है जो वे सार्वजनिक जीवन के लिए चढ़ाये रखते हैं।
उदयन- खासकर सेक्यूलर परिवेश में...
आशीष दा- सेक्यूलर परिवेश में उन्हें लगता है कि ऐसा करना उचित है। एक तरह के लोगों के बीच वह अच्छा होता है। लालू प्रसाद यादव भी इसी तरह की बात का मज़ाक करते हैं। उन्होंने किसी से एक बार पूछा था कि क्या आपको लगता है कि विकास की बात करके आप चुनाव जीत सकते हैं ? लेकिन वही बोलकर मोदी जीत गये। पर लालू की पीढ़ी के कई लोग इसी विकास को निरर्थक मानकर चलते थे। वे चुनाव के कोई और गणित मानते थे। लेकिन विकास की बात एक तरह के लोगों के बीच बोलना आवश्यक होता है लेकिन ज़मीन पर वह कारगर नहीं होती इसीलिए भाजपा निचले स्तर पर किसी और तरह की गतिविधि करती है, जहाँ गोरक्षा, रामजन्म भूमि आदि विकास की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो उठते हैं। यह समझ मुझे इस तरह के बहुत-से व्यक्तियों से बात करने पर आयी।
उदयन- आप यह क्यों कहते हैं कि आपके मन में सभी विचारधाराओं के प्रति असम्मान है। आपने यह कहा कि वे बारीक परत की तरह होती हैं और तब भी वे स्वयं को आस्थाओं की प्रस्तुत करती हैं। क्या उनका आस्थाओं से कोई लेना-देना नहीं होता ?
आशीष दा- अगर मेरे पास समय रहा होता, मैं इस विषय पर पूरी पुस्तक लिखता। मैं लालू प्रसाद या मुलायम सिंह यादव जैसे लोगों से साक्षात्कार करना चाहता, क्योंकि उनके पास विचारधारा है। यह नहीं कहा जा सकता कि उनके पास विचारधारा नहीं है, उसमें कुछ तत्व समाजवादी विचारधारा से आते हैं, कुछ तत्व उन्होंने अपने माता-पिता से लिए होंगे, उनके बचपन के अनुभव आदि। अगर आप चाहें तो आप उनकी प्रकट विचारधारा (जो वे कहा करते हैं) के नीचे प्रवाहित एक और अनकही विचारधारा के विभिन्न तत्वों की पुनर्रचना कर सकते हैं। वे इसे न समझेंगे और न स्वीकार करेंगे, पर वह अलग बात है। वह अनकही विचारधारा ही उनकी असली विचारधारा है। वही उनके क्रियाकलापों का ठोस आधार है। उसे समझना अलग ही उपक्रम है जिसके लिए मुझे अब तक समय नहीं मिल सका।
उदयन- पर तब उसे विचारधारा नहीं कहा जा सकता।
आशीष दा- उसे तुम मूल्यों का समुच्चय कह सकते हो। लेकिन वह किसी विशेष अर्थ में विचारधारा भी है क्योंकि उसे अक्सर किसी धार्मिक विश्वदृष्टि के साथ अभिव्यक्त किया जाता है। सीपीएम के सुभाष चक्रवर्ती, जो पश्चिम बंगाल मन्त्रीमण्डल के सदस्य थे, दुर्गा पूजा व्यवस्थापक समिति के सदस्य थे। ऐसा होता है। यह सीधे-सीधे कहा नहीं जाता, जो शायद पाखण्ड लग सकता है पर यह पाखण्ड है नहीं क्योंकि वे अपनी असली विचारधारा को व्यक्त नहीं कर पाते। उन्हें खुद ही पता नहीं होता कि उनकी असली विचारधारा क्या है। लेकिन अगर उसे सैद्धान्तीकृत किया जा सके तो शायद उससे कोई नयी दृष्टि निकल सकती है जिसे कोई महान व्यक्ति मुखरित भी कर सकेगा। यह नहीं भूलना चाहिए कि गाँधी ने लगभग यही किया। लोग कहा करते हैं कि गाँधी गाँधीवादी नहीं थे, यह ठीक है पर उनकी एक शैली थी, एक ढंग था और इस सबसे ऊपर उनकी एक विश्वदृष्टि थी जिसे हम पूरी तरह स्वीकार करना नहीं चाहते।
उदयन- भारत में आप अपनी विचारदृष्टि या मूल्य समुच्चय उस तरह व्यक्त नहीं कर पाते जिस तरह शायद आप उसे करने की इच्छा रखते हों, इसका कारण कहीं हमारे मानस के सुदीर्घ औपनिवेशीकरण में तो नहीं है क्योंकि वे मूल्य समुच्चय उन स्रोतों से आते हैं जो औपनिवेशिक न होकर उसके समानान्तर बहती अपनी सांस्कृतिक धारा से हम तक आये हों।
आशीष दा- बिल्कुल। वे मूल्य अक्सर माता-पिता से मिलते हैं, वे हमारे सीमा बोध से भी आ सकते हैं, समुदायों से आ सकते हैं या उसके परे एक अलग कत्र्तव्य बोध से। जब हम अयोध्या में राम जन्मभूमि विवाद के सन्दर्भ में काम कर रहे थे, वहाँ लोग कहा करते थे, अयोध्या में साम्प्रदायिक दंगे नहीं हो सकते। चाहे वहाँ कर-सेवा हो या न हो। वह एक अद्भुत आख्यान है। अयोध्या की सभी देवमूर्तियों (विग्रहों) के कपड़ों के बनाने वाले मुसलमान थे। हज़ार मन्दिरों के सभी कपड़े मुसलमान ही बनाया करते थे। वहाँ के कुछ मन्दिर मुसलमानों के थे। उनमें से एक से मैंने लम्बा साक्षात्कार भी किया था। देवताओं के सभी आभूषण भी मुसलमान बनाया करते थे। सभी पर्दे और कपड़े मुसलमान ही सिलते थे। मन्दिरों में इस्तेमाल होने वाले सभी फूल मुसलमान उगाते थे, उन्हीं की स्त्रियों के हाथों की गूँथी मालाएँ अयोध्या के देवी-देवताओं को पहनायी जाती थी। असली अयोध्या वो है। अब ये किसको समझाएँ।
अयोध्या के कई बड़े मन्दिर मसलन हनुमान गढ़ी नवाबों की भेंट हैं और उनकी इन भेटों के दस्तावेज़ों को पूरे गर्व के साथ दिखाया जाता है। यहाँ तक कि राम जन्मभूमि के सामने की ज़मीन भी किसी नवाब की दी हुई है जो रामभक्त हो गये थे। अयोध्या के नवाब भी कुछ अलग ही थे।
उदयन- अभी हाल मेरी मुलाकात गोवा में क्लाॅद अल्वरेज़ से हुई। वे बता रहे थे कि उनके अपने बचपन और उसके पहले जनगणना के दौरान ईसाई लोग अपना परिचय ‘हिन्दू ईसाई’ की तरह देते थे, उसी तरह मुसलमान ‘हिन्दू मुसलमान’ थे। यह कहते हुए वे अपने को ब्रितानी मुसलमान आदि से अलगा रहे होते थे, दूसरे शब्दों में हिन्दू यह एक भौगोलिक क्षेत्र का परिचायक था, वह कोई मज़हब नहीं था। अगर हमारे देश का औपनिवेशीकरण न हुआ होता तो यह वाक्य कि ‘इस जगह हिन्दू रहते हैं’, इतना एकांगी वक्तव्य न हुआ होता जैसा वह आज हो गया है।
आशीष दा- उसे उसी तरह पढ़ाया बल्कि सोचा जाता था, लेकिन इसमें बदलाव जान-बूझकर किया गया है। सावरकर का सबसे बड़ा योगदान भारत पर ‘नेशन’ की अवधारणा को आरोपित करना है। भारत कभी भी ‘नेशन’ नहीं था। टैगोर ने यह बात सीधे-सीधे कह दी थी। वे अपने लेखन में देश प्रेम के लिए लगभग पन्द्रह बंगाली शब्दों का प्रयोग करते हैं पर ‘नेशन’ को वे नेशन ही लिखते हैं। बंगाली में नेशन का अनुवाद नहीं हो सकता। किसी भी भारतीय भाषा में नहीं हो सकता।
उदयन- भारत के ‘नेशन’ न होने का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि यहाँ की भाषाओं में उसका पर्याय नहीं है। स्वयं ‘राष्ट्र’ शब्द का आशय ‘नेशन’ से बिल्कुल अलग है पर उसे खींच-तानकर ‘नेशन’ के पर्याय के रूप में बिठाने के मूर्खतापूर्ण पर हिंस्र प्रयास होते रहे हैं। पर उनका कोई आधार भारत के सामुदायिक जीवन में नहीं हैं।
आशीष दा- भारत समुदायों का समुच्चय रहा है। यह बात परोक्षतः गाँधी के लेखन में भी आती है हालाँकि वे ‘नेशन’ ‘नेशलिज़्म’ आदि के बारे में कहते हैं। यह देश कुछ अलग तरह का संयोजन रहा है। यह देखने के लिए आपको बहुत दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। दस-पन्द्रह साल पहले की बात है, एन.डी. टेलीविज़न लाहौर में किसी से बात कर रहा था। उस समय शायद कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति लाहौर गया हुआ था। जब वहाँ किसी बौद्धिक से कोई सवाल पूछा गया, उसने जवाब में कहा, ‘हम ‘अरबी मुसलमान’ नहीं हैं, ‘हिन्दू मुसलमान’ हैं। यह वो पाकिस्तान के शहर लाहौर में बैठकर 21वीं शताब्दी के पहले दशक में बोल रहा था। देश के लोगों के बीच विभाजन का झुकाव चुनावी आवश्यकताओं के कारण राजनेताओं आदि का लाया हुआ है। भारत में मध्यवर्ग पाँच गुना बढ़ गया है, पर यह पारम्परिक रूप से स्थापित मध्यवर्ग नहीं है। यह पैसे का मध्यवर्ग है, मूल्यों का नहीं। झूठमूठ में भी नहीं।
उदयन- आप यह कह रहे हैं कि हिन्दू शब्द का अर्थ उसके भीतर से ही बदल गया है, यह अब ‘नेशन’ के अर्थ में हिन्दू बना दिया गया है।
आशीष दा- सावरकर ने यह बात साफ़-साफ़ कही है। इस पर मैंने एक लम्बा लेख भी लिखा था। वे यूरोप से बहुत प्रभावित थे। वे पूरी तरह से पश्चिमीकरण के समर्थक थे। वे मानते थे कि भारत को ‘नेशनेलिटी’ की ज़रूरत है। अगर वह नेशन स्टेट बनना चाहता है तो उसे वही होना चाहिए। किसी और तरह की राजसत्ता का उन्हें ज्ञान नहीं था। नेशन स्टेट बनाने के लिए नेशनलिज़म चाहिए। चूँकि हिन्दू जैसे वे रहे हैं, नेशन नहीं रहे इसलिए उन्हें सावरकर के अनुसार अभियान्त्रिकी के सहारे वैसा बनाना होगा, इसलिए उनका सैन्यकरण करना होगा। उन्हें संगठित करना होगा। उनमें क्रोध का भाव लाना होगा। उनमें छोड़ दिये जाने का भाव लाना होगा। जिन्ना इस सिक्के का दूसरा पहलू बन जाते हैं, वे कहते हैं कि मुसलमान एक दूसरा ‘नेशन’ हैं। यह उपनिवेशवाद का प्रभाव है जो दोनों पर पड़ता है। सावरकर बहुत पहले से ही यह कहते आ रहे थे कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग ‘नेशन’ हैं।
उदयन- क्या ‘हिन्द स्वराज’ में गाँधी सावरकर और उनके साथियों श्यामकृष्ण वर्मा आदि से संवाद कर रहे थे ?
आशीष दा- कुछ हद तक। गाँधी सावरकर को बहुत गम्भीरता से नहीं लेते थे लेकिन वे उनसे मिले थे।
उदयन- गाँधी जी सावरकर को महत्वपूर्ण नहीं मानते थे...
आशीष दा- वे उन्हें गम्भीरता से नहीं लेते थे। वे मानते थे कि वे यूरोपी ढंग के सोचने वालों में हैं। सावरकर की गाँधी की आलोचना भी यूरोपीय ही है। उन्होंने कहा था कि गाँधी अन्धविश्वासों से घिरे हैं, दूसरा, वे राजनीति में अहिंसा, असहयोग आन्दोलन, उपवास जैसी फ़िजूल की चीजे़ं खींच लाये हैं। उनके अनुसार वह सब बकवास थी। निकारागुआ में जब सेन्दनिस्ता का शासन था, वहाँ के प्रधानमन्त्री किसी कारण उपवास पर बैठ गये थे। ईसाईयत में यह परम्परा पुरानी है।
उदयन- गाँधीजी ने इसे ईसाईयत से भी लिया होगा, उनके ब्रह्मचर्य का भी स्रोत सम्भवतः मध्ययुगीन ईसाईयत ही था।
आशीष दा- अहिंसा के लिए आपको मध्ययुग में ही जाना होगा। मध्ययुग अपने इन्क्वजिशन्स के लिए जाना जाता है। लेकिन आप उन्हें, उदाहरण के लिए सेण्ट फ्रांसिस के कारण याद नहीं रखते, जिन्होंने जानवरों तक से हिंसक व्यवहार को प्रश्नांकित किया था। ज्ञानोदय काल (एनलाइटेनमेण्ट पीरियड) में भी अहिंसा की वकालत करने वाला कोई नहीं था। हिंसा को बहुत आसानी से ज्ञानोदय के मूल्यों में शामिल किया जा सकता है। यह हुआ भी है। ज्ञानोदय स्वातन्त्र्य का मूल्य माना जाता था लेकिन जो समाज ज्ञानादेय (एनलाइटेनमेण्ट) के मूल्यों से अपरिचित थे जो कास्मोपोलिटन नहीं थे, उन्हें कमतर मनुष्य माना जाता था, यही मेकाॅले के वक्तव्य का आशय था जिसमें कहा गया था कि यूरोपीय पुस्तकों का एक शेल्फ़ समूचे भारतीय वांगमय पर भारी है।
उदयन- आपने कहा है कि गाँधी जी और टैगोर ‘नेशन’ के इस विचार को भारत के सन्दर्भ में प्रश्नांकित कर भारत के विषय में एक अलग ही दृष्टिकोण प्रस्तावित कर रहे थे जिस पर पिछले कई दशकों से कभी राजनैतिक व्यवस्था ने ध्यान नहीं दिया।
आशीष दा- यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्हें इसका आभास था, मुगलों को निश्चय ही था, अँग्रेज़ों को था इसीलिए विकेन्द्रीकरण की बात आयी। अँग्रेज़ों का न्यूनतम प्रतिनिधित्व का विचार यहीं से आया था। भारत में कभी भी पचास हज़ार से अधिक अँग्रेज़ नहीं थे, ज़रा सोचो पैंतीस करोड़ के देश पर शासन करने केवल पचास हज़ार लोग। बाद में वे पचास हज़ार थे और पचपन करोड़ के देश में। वे जानते थे कि इस देश में राजसत्ता क्या कर सकती है और क्या नहीं कर सकती। मुगल इस समझ को कहीं अधिक बड़ी कला में रूपान्तरित कर सके थे। अँग्रेज़ वैसा इसलिए नहीं कर सके क्योंकि उनका इस देश से मुगलों के जैसा सम्बन्ध नहीं था। जोधपुर और जयपुर के महाराजा बारी-बारी से मुगलों की सेना के कमाण्डर इन चीफ़ (सेनापति) होते रहे हैं।
उदयन- और वे राजपूत थे...
आशीष दा- वे दोनों राजपूत थे। यह कोई संयोग नहीं है कि उनके और मुगलों के बीच अन्तर्विवाह आदि कई चीज़ें हुई। मथुरा के श्रीवत्स गोस्वामी ने अपने भाषण में एकबार ‘महानुभाव अक़बर’ आदि कहा था, क्योंकि उस वैष्णव क्षेत्र (मन्दिर आदि) का एक बड़ा हिस्सा मुग़लों का दिया हुआ था। इसी तरह जयपुर पर मुगलों की विजय कहने को मुगल साम्राज्य की थी, पर उसे किया राजपूतों ने था और उससे उन्हें बहुत लाभ हुआ था। वह केन्द्रीय प्रभुतासम्पन्न सत्ता के प्रति सोचा-समझा सहयोग था जहाँ आप केन्द्रीय सत्ता की सेना के सेनापति हो जाते हैं और तब भी आप स्वतन्त्र राजा बने रहते हैं, यह बहुत सामान्य बात थी और छोटे-छोटे राज्यों द्वारा मुगलों को सौ-डेढ़ सौ सोने के सिक्के देकर प्रतीक स्वरूप अपनी स्वतन्त्रता बनाये रखना भी सामान्य था। वे शिवाजी को भी स्वीकार करने तैयार थे पर शिवाजी जोधपुर या जयपुर के राजा जितना दर्ज़ा पाना चाहते थे। इसके बरअक्स में मुगलों का तर्क यह था कि वे पिछले दो सौ वर्षों से हमारे सहयोगी रहे हैं, यह तब से रहा है जब हम यहाँ आये ही थे इसलिए हम आपको उनसे कुछ कम दर्ज़ा तो दे सकते हैं, उनके बराबर नहीं बावजूद इसके कि आप अभी शक्ति सम्पन्न हैं। शिवाजी को यह स्वीकार नहीं था। राज्य करने का शिवाजी का विचार भी मुगलों से बहुत अलग नहीं था: पेशवाई कुछ हद तक मुगल राज्य व्यवस्था का ही दोहराव था। शिवाजी के शासन की भाषा कभी मराठी नहीं रही, वह फ़ारसी थी, इसका कभी ज़िक्र नहीं होता।
उदयन- इन सब बारीकियों में जाने पर हमारे मन में अपने देश का कोई और स्वरूप आयेगा। पर वह होता नहीं। उपनिवेशवाद के प्रभाव से हमारे सोचने की पद्धतियों को गहरी क्षति पहुँची है...
आशीष दा- यह इसलिए हुआ क्योंकि हमने अपने संविधान बनाने तक में स्वयं अपने अनुभवों को लेखे में नहीं लिया: हमारे यहाँ किस तरह के राज्य थे, वे कैसे इतने लम्बे समय तक जीवन्त बने रहते थे। मुगल राज्य शासन चार सौ बरसों तक चला जबकि अँग्रेज़ दो सौ से भी कम वर्षों तक रह सके। अँगेे्रज़ी राज्य तक उतना केन्द्रीकृत नहीं था जितना हमारा शासन तन्त्र आज है। भारत में लम्बे समय तक जीवन्त बने रहे राज्य हमेशा ही विकेन्द्रीकृत थे।
उदयन- स्वतन्त्र भारत में राजसत्ता का उत्तरोत्तर केन्द्रीयकरण अँग्रेज़ों के अधूरे स्वप्न को पूरा करने जैसा है।
आशीष दा- धरमपाल ने अपने सामान्य दिनों में मुझे कुछ आँकड़े दिये थे जिन्हें मैं सुरक्षित नहीं रख सका, जिसमें यह था कि राजस्व का कितना भाग साम्राज्य पर खर्च होता था। देशभर के राजस्व का शुरुआती दिनों में साम्राज्य पर पन्द्रह से बीस प्रतिशत खर्च होता था। कर्जन के समय में यह बीस से छब्बीस प्रतिशत हो गया। फिर अँग्रेज़ी शासन में यह अचानक बहुत अधिक बढ़कर पचास प्रतिशत हो गया और अब यह सौ प्रतिशत है।
उदयन- धरमपाल भारत की विकेन्द्रीकृत राजस्व व्यवस्था के बारे में यह बताते हैं कि राजस्व का अधिकांश गाँवों और जनपदों के स्तर पर ही रुक जाता था, उसके बाकी का कुछ अंश जनपद के ऊपर के स्तर पर जाता था और बाकी उसके भी ऊपर के स्तर पर जाता था। गाँधीजी का राजनैतिक व्यवस्था सम्बन्धी सिद्धान्त भी यहीं से उत्पन्न हुआ है।
आशीष दा- गाँधी का सिद्धान्त बहुत कुछ वैसा ही है। उन्हें इस व्यवस्था का आभास था, उनके पास आँकड़े भले न रहे हों।
उदयन- मैं यह जानना चाहता था कि जब इस विकेन्द्रीकरण का विघटन शुरू हुआ, हमारे राजनैतिक चिन्तन में क्या अन्तर आया ?
आशीष दा- दरअसल यह 20वीं सदी के तीसरे दशक में शुरू हुआ। जवाहरलाल नेहरू इसी दशक और फ़ेबियन समाजवाद की सन्तान हैं। उनकी नेशन स्टेट की कल्पना जिन्ना की कल्पना के जैसी ही है। उनमें इतना ही फ़र्क है कि जवाहरलाल अधिक समावेशी हैं जबकि जिन्ना दो अलग नेशन चाहते थे। यह करने में वे जनसंख्या का विचार नहीं करते, वे सिर्फ़ मुसलमानों का प्रभुत्व चाहते हैं ताकि मुसलमान व्यवहारों के विरुद्ध कोई कानून न बन सके और मुसलमानों की संस्कृति सुरक्षित रह सके। वे स्वयं मुसलमान संस्कृति के सन्दर्भ में हाशिये पर थे। नेहरू की अँग्रेज़ी तक लोकतान्त्रिक थी, आज उनकी अँग्रेज़ी पर उम्र की परतें चढ़ गयी हैं और लोग उनके साहित्यिक कौशल की सराहना करते हैं। कोई व्यक्ति एक बार कह रहे थे कि उन्हें राजसत्ता सम्भालने के स्थान पर आॅक्सफर्ड या केम्ब्रिज जाकर अँग्रेज़ी भाषा का प्रोफेसर बन जाना था क्योंकि उन्हें शासन कला की पर्याप्त समझ नहीं थी। यह बात उनकी निन्दा में कही जाती है। तब भी यह किसी हद तक सही है। वे उसी संसार द्वारा पोषित हुए थे और वे अपने को उसके बहुत क़रीब पाते थे। इसका एक परिणाम यह है कि आज जब मैं उन्हें पढ़ता हूँ, मुझे यह महसूस होता है कि उनकी एडवर्डियन अँग्रेज़ी पिछले ज़माने की है। लेकिन गाँधी की भाषा पुरानी नहीं लगती क्योंकि उसमें बायबिल के जैसी सरलता है। लोग यह समझते नहीं कि गाँधी अँग्रेज़ी के विलक्षण लेखक थे और उनका पश्चिम के असहमत चिन्तकों का ज्ञान असाधारण था भले ही सावरकर यह मानते रहे हों कि उनका आधुनिक राजनैतिक चिन्तन का ज्ञान बेहद सीमित था। उन्होंने उन विद्वानों को गहरायी से पढ़ा था जिन्हें राजनैतिक विचारकों की तरह भारत के बहुत कम लोगों ने पढ़ा है। जैसे टाॅल्सटाॅय, रस्किन, एमर्सन और हेनरी डेविड थोरो। थोरो उनके लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। थोरो, टाॅल्सटाॅय और रस्किन उनके तीन गुरू हैं। मैं इनमें एमर्सन को आधे गुरू की तरह जोड़ना चाहूँगा। उनके दो भारतीय गुरू थे, गोपालकृष्ण गोखले और महादेव गोविन्द रानाडे। इन गुरुओं का विशेष रूप से उन्होंने उल्लेख किया है। उनके भारतीय गुरू इसके बाद खत्म हो जाते हैं क्योंकि वे अत्यन्त परिष्कृत, यूरोपीय अर्थ में, उदारवादी थे जिन्हें गाँधी दरकिनार कर स्वतन्त्रता आन्दोलन को शहरों से गाँव की ओर ले जाते हैं।
उदयन- यहाँ चूँकि आप शहर और गाँवों के स्वरूप के अन्तर की ओर इशारा कर रहे हैं, मैं आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि आपने एक व्याख्यान में आनन्द कुमारस्वामी की चर्चा करते हुए शहर और गाँवों के द्वन्द्व को कला और शिल्प के द्वन्द्व की तरह रेखांकित किया है।
आशीष दा- वह मैंने जान-बूझकर किया था क्योंकि कुमारस्वामी ने वह नहीं किया था। कुमारस्वामी को अगर ध्यान से पढ़ा जाए तो यह समझ में आता है कि वे गाँव के गाँधी की तरह ही गहरे प्रशंसक थे और उन्होंने गाँव पर कभी कोई प्रतिकुल टिप्पणी नहीं की। जबकि भारतीय शहरों और पश्चिम चिन्तन के उन पर पड़े प्रभावों के ये प्रखर आलोचक थे। उनका अध्ययन इतना गहरा और व्यापक था कि वे आसानी से पश्चिमी अध्येताओं के तर्कों को काट सके। लेकिन आप गाँधी की राजनैतिक दृष्टि की तीव्रता देखिए: गाँवों के प्रशंसक होते हुए भी वे गाँव को गोबर का ढेर भी कह सके। वे किसी वास्तविक गाँव की प्रशंसा करने के स्थान पर ग्रामीण जीवन से जुड़े कुछ जीवन मूल्यों की प्रशंसा कर रहे थे और यह करते हुए वे अपनी परम्परा में शूद्रक के मृच्छकटिकम् पर जा पहुँचते हैं जहाँ ग्रामीण जन हमेशा नागर जनों की आलोचना करते है और नागर जन ग्रामीणों की। हमारी पद्धति वैसी होनी चाहिए। इससे संवाद बना रहता है और साथ ही आलोचनाएँ भी होती रहती हैं। पर जब गाँवों को भावी शहर की तरह परिकल्पित किया जाता है और इसे सैद्धान्तीकृत किया जाता है कि शहर गाँवों से ही उत्पन्न हुए थे, यह दोतरफा प्रश्नांकन नहीं हो पाता। यह सभी जानते हैं कि भारतीय महाद्वीप के आरम्भिक आवासी क्षेत्र जिन लोथल, मोइनजोदाड़ो और हड़प्पा आदि में पाये जाते हैं, वे सब नगर थे। इसका अर्थ यह है कि शहर भी शुरुआत से ही थे, वे गाँवों से उत्पन्न हुए हों, ऐसा नहीं है। यही बात अन्य सभ्यताओं के लिए भी सही है। अगर आप यूरोप को देखें, वहाँ भी यही मिलता है। दोनों ही शुरू से हैं और ग्रामीण शहरियों पर और शहरी ग्रामीणों पर उठाते रहे हैं।
उदयन- अपने इस विचार में आप वन को कहाँ रखेंगे ? हमारे हर महाकाव्य में बहुत कुछ वनों में घटता है। इनके नायक अनिवार्यतः वनों में जाते हैं और तब वन इन आख्यानों के खुलने की ज़मीन बन जाते हैं।
आशीष दा- वनों का अर्थ शहरों और गाँवों में रहने वाले भारतीयों के लिए यूरोप के ऐसे ही लोगों की तुलना में अलग रहा है। शहरों और गाँवों के भारतवासियों के लिए वन जीवन्त आवास रहा है। यूरोपीयों का सोचना था कि वन-प्रान्तर ऐसे विशिष्ट इलाके हैं जिनमें पेड़-पौधों और पशुओं का वास है। भारत के लिए वन जीवन्त आवास रहे हैं, सभी जीवों के लिए। आप पुराणों को ध्यान से पढ़िये, आप पाएँगे कि भारतीय सभ्यता (सभ्यता से यहाँ मेरा आशय सिर्फ़ वेद-पुराण और स्मार्त आदि ग्रन्थों में अनुस्यूत मूल्य दृष्टियाँ भर नहीं हैं, इसमें इनसे अलग अनेक अन्तर्धाराएँ भी हैं जो विभिन्न लोक एवं अन्य अन्तःसलिल संस्कृतियों में मुखरित होती रहती हैं।) अपने हाशियों और अन्य लोकों तक में फैली हुई है। इन सबके बीच निरन्तर संवाद होता रहता है। भीम पाताल जाता है और वहाँ नागों के राजा से सम्बन्ध स्थापित करता है, उसकी बेटी से विवाह करता है और तब वापस आता है। पाण्डवों का बनाया इन्द्रप्रस्थ भी हाशिये के वासी मय दानव का ही बनाया हुआ है, वह ऐसा अद्वितीय महल है, जिसमें दुर्योधन बेवकूफ बनता है और ईष्र्याग्रस्त होता है। यहाँ भी यह सभ्यता अपने हाशियों, अपने सीमान्तों से संवाद करती देखी जा सकती है। भारत अपने हाशियों से हमेशा संवादरत रहा है। अपने हाशियों या सीमान्तों से और पाताल जैसे अन्य लोकों (अण्डर साईड आॅफ सिविलाईजेशन) से। मैं यह कहना चाहूँगा कि यहाँ की जीवन पद्धतियों में नगर और गाँवों का भेद और संवाद दरअसल एक अधिक बड़े भेद और संवाद का भाग है और वह है: इस सभ्यता का अपने हाशियों और पाताल आदि भूमिगत लोकों के साथ निरन्तर संवाद।
उदयन- यह संवाद धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है।
आशीष दा- इस संवाद को नष्ट किया गया है। उस संवाद की अनुपस्थिति का पहला अहसास पहली बार उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त और बीसवीं शती के आरम्भ में हुआ था। यह पहले विश्वयुद्ध के पहले का भारत है। गाँधी समझ गये कि यह संवाद टूट गया है। अब हमारा गाँवों से कुछ सीखने का भाव भी बाकी नहीं रहा इसलिए उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन में बहुत तेज़़ी से गाँवों के लोगों को सामने लाने की ज़ोरदार कोशिशें शुरू की जिससे गाँवों से जुड़े मूल्यों को समूचे देश के दैनन्दिन लोक व्यवहार और चिन्तन में पुनर्प्रतिष्ठित किया जा सके। इसीलिए स्वतन्त्रता आन्दोलन और विशेष रूप से गाँधी और कुमारस्वामी पर गाँवों पर कुछ ज़्यादा ही ज़ोर देने का बल्कि गाँवों के रुमानी उत्सव मनाने का आरोप लगता रहा है। लेकिन ऐसा, जैसा कि हम देख ही चुके हैं, नहीं था। टैगोर भी गाँधी के विषय में लगभग यही सोचते थे कि वे गाँवों की ओर कुछ अधिक ही झुके हैं। टैगोर भी ज्ञानोदय (एनलाईटन्मेन्ट) के उत्पाद थे। वे एक ऐसे परिवार से आते थे जो अँग्रेज़ों के बनाये संसार से गहरायी तक जुड़ा था। यही कुछ राजा राममोहन राय और उनके जैसे अन्य विचारकों के साथ भी था। पर गाँधी ने भारत की इस समस्या को जान लिया था इसीलिए उन्होंने ग्रामीण विश्वविद्यालय स्थापित करने की बात भी सोची।
उदयन- मेरा यह खयाल है आशीष दा कि ‘गोरा’ उपन्यास की एक यह व्याख्या मुमकिन है: उसके लगभग सभी पात्र बौद्धिक हैं और उनके बीच बातचीत चल रही है, अपने समाज के प्रश्नों पर बातचीत चल रही है। एक स्तर पर शायद यह उपन्यास उस बातचीत में शामिल शहरी बुद्धिजीवियों पर व्यंग्य भी है क्योंकि वे जिन मूल्यों पर चर्चा कर रहे हैं, वे पारम्परिक उतने नहीं है, जितने शहरी शब्दावली में अनुदित और अनुकूलित पारम्परिक मूल्य है। इस तरह इस उपन्यास में टैगोर अपने पर भी व्यंग्य कर रहे हैं। यही उनके महान लेखक होने का परिचायक भी है।
आशीष दा- यह सभी महान लेखक करते हैं। मेरे यह कहने पर कि ‘गुजराती मध्यवर्ग साम्प्रदायिक हो गया है’, जब मुझ पर इन अज्ञानियों ने यह कहकर कि इससे ‘मध्यवर्गीय संवेदना को चोट पहुँची है’ मुकदमा दायर किया, उन्हें यह पता नहीं था कि बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास ‘बाबू’ बंगाली मध्यवर्ग और उसके नकलची व्यवहार पर भयानक हमला था। वही उपन्यास बंगाल में एक सौ पचास साल से पाठ्यक्रम में रहा है। हमने भी उसे अपने बंगाली पाठ्यक्रम में पढ़ा था। बंकिम के पहले माईकल मधुसूदन दत्त (जिन्हें पश्चिम-प्रभावित कहा जाता है) ने भी बंगाल की पश्चिम की नकलची मध्यवर्गीय संस्कृति पर तीखा व्यंग्य किया था। इन दोनों कृतियों को आज भी याद किया जाता है। इस आत्मालोचन की एक लम्बी परम्परा है। मध्यवर्ग हमेशा आत्मालोचन करता है। मध्यवर्ग समाज का वह भाग है जो ऐसी आलोचना कर वर्तमान मूल्यों के प्रतिस्पधर््ाी विकल्पों का रास्ता खोल देता है जिससे वर्तमान समाज में फैले दोषों का सामना किया जा सके। इसीलिए आलोचना के कुछ तत्व मध्यवर्ग का हिस्सा हैं, यही नहीं आधुनिकता की आलोचना भी आधुनिकता का ही अविभाज्य अंग हैं। मैं भी आधुनिकता को प्रश्नांकित करता हूँ। वर्तमान मध्यवर्ग अपनी यह भूमिका नहीं निभा पा रहा है इसलिए क्योंकि एक तो वह पाँच गुना बढ़ गया है। इसके आँकड़े उपलब्ध हैं। पर चार बटा पाँच मध्यवर्ग सिर्फ़ पैसे के कारण मध्यवर्ग है, अपने मूल्यों के कारण नहीं। इसलिए मध्यवर्ग के परम्परागत मूल्यबोध का ह्रास हो गया है। ये मूल्य अब भी कुछ हल्कों में बचे हुए हैं। मसलन बंगाली मध्यवर्ग में, किसी हद तक दक्षिण भारतीय और महाराष्ट्र के ब्राह्मणों में। इन मूल्यों के बचे रहने में ब्राह्मण संस्कृति का भी कुछ योगदान है, भले ही कम हो। तटीय ब्राह्मण समुदाय जो वैश्विक और इसी तरह के मूल्यों के सम्पर्क में आये हैं, उनमें भी इसका कुछ अंश है, यह इस तरह कि यदि उन्हें रवीन्द्रनाथ को पढ़ना उबाऊ भी लगता होगा, तब भी उनके घर के रेक्स पर पर रवीन्द्रनाथ की समग्र रचनावली रखी रहेगी, जिससे लोगों को यह बताया जा सके कि वे पढ़े-लिखे हैं। इससे कम-से-कम यह होता है कि उनके बच्चों को कुछ मूल्य बोध हो जाता है और वे यह समझने लगते हैं कि घर पर कौन-सी पुस्तकें रखना चाहिए। इसी तरह इन घरों में रविशंकर और विलायत खाँ की कुछ सीडी रखी होती हैं, यह जताने कि वे शास्त्रीय संगीत समझते हैं जबकि वे उन्हें शायद बजाते तक न हों, और सिर्फ़ फ़ि़ल्म संगीत सुनते हों। इसे सिर्फ़ दिखावा भी नहीं कहा जा सकता है।
उदयन- यहाँ फ़िल्मी गानों और अपसंस्कृति के प्रति जुड़ाव भले है पर संस्कृति के प्रति लगाव है...
आशीष दा- उसमें कोई बुराई भी शायद न हो। यह अधिकांशतः अपनी जड़ों से उखड़ी पंजाबी संस्कृति है...
उदयन- आप एक महत्वपूर्ण बात कर रहे हैं कि मध्यवर्ग जो भूमिका पहले निभाया करता था, भारत ही नहीं सभी देशों में, वह उसे लगभग नहीं निभा रहा...
आशीष दा- मध्यवर्ग का कुछ अंश उन मूल्यों को बचाने का प्रयास निश्चय ही कर रहा है। कुछ लोग मूल्यों के विघटन का विरोध कर ही रहे हैं। वे कुछ प्रश्न तो उठा ही रहे हैं जैसे वे यह कह रहे हैं कि राजसत्ता को विश्वविद्यालयों में हस्तक्षेप करने से बचना चाहिए। पर उनके पास न तो शक्ति है और न ही उनकी वैसी हैसियत बची है। इस किस्म के मध्यवर्गीय बौद्धिक नागरिकों का प्रभाव इसलिए भी राजनीति में घट गया है क्योंकि उनके पास चुनावी शक्ति नहीं है जैसा संख्या की दृष्टि से अधिक शक्तिशाली समुदायों के पास है।
उदयन- ऐसी स्थिति में गाँधी की याद बार-बार आती है। आपने गाँधी पर बहुत सोचा है। इन दिनों उनकी भूमिका को लगभग नकारने का अभियान चला हुआ है। ऐसे में यह आवश्यक है कि मैं आपसे यह भोला-सा सवाल करूँ कि उनकी राजनैतिक दृष्टि के विषय में आपके क्या विचार हैं ?
आशीष दा- मेरी कई पुस्तकों और निबन्धों में यह विचार यहाँ-वहाँ बिखरे हुए हैं और उनकी दृष्टि पर मेरे सोच का एक हिस्सा हमारी अब तक की बातचीत में पहले ही आ चुका है। मैं उसे दोहराऊँगा नहीं। मैं आगे की कहानी कहता हूँ। राजसत्ता के विचार को इस तरह रूपान्तरित किया जाना चाहिए कि राजसत्ता की संरचनाएँ मानवीय माप से अधिक न हो। राजसत्ता का अर्थ केवल केन्द्र सरकार, सर्वोच्च न्यायालय, कानून और उसे लागू करने वाली व्यवस्थाएँ ही ना हों। वे मूलतः ग्राम गणराज्य या स्वराज के पक्षधर थे। आज कुछ लोग उस विचार का मज़ाक बना सकते हैं पर उनका विचार यह है कि आप सत्ता का विकेन्द्रीकरण इस तरह करें कि राजसत्ता अपनी सक्रियता में समाज के सदस्यों को सहज उपलब्ध हो और वह मानवीय माप की हो। वे यह इसलिए प्रस्तावित कर सके क्योंकि उन्हें मानवीय विवेक पर गहरा विश्वास था।
उदयन- वे यह इसलिए भी कह रहे थे कि समाज के संचालन में एक साधारण नागरिक और ग्रामीण भी हिस्सेदारी कर सके।
आशीष दा- वे एक सच्ची भागीदारी सम्पन्न लोकतान्त्रिक व्यवस्था की बात कर रहे थे जबकि आज की लोकतान्त्रिक व्यवस्था की प्रत्याशा यह है कि आप हर पाँच साल में एक बार वोट देकर घर पर बैठकर रेडियो सुनें या टेलीविजन देखें और यह सब देखकर यह जानें कि राजनीति में क्या चल रहा है। अगर आपको इस सब पर नाराज़गी हो तो आप एक ब्लाॅग लिख दें (पहले लोग सम्पादकों को पत्र लिखा करते थे) और इतना करके आप समझते हैं कि मेरा काम हो गया या आप यह कहें कि मैंने तो फ़ेसबुक में लिख दिया है।
उदयन- अपने एक लेख में धरमपाल ने लिखा है कि लन्दन के गोल मेज सम्मेलन में अँग्रेज़ों से बात करते हुए महात्मा गाँधी कह रहे हैं कि हमारा राजसत्ता का विचार आपके विचार से अलग है और जहाँ भी हमने अपने इस विचार को लागू करने का प्रयास किया है, हम बहुत हद तक सफल रहे हैं। मैं यह सोचता हूँ कि गाँधी का सबसे बड़ा प्रयोग जो उनके सभी प्रयोगों के संयोग का फल था, 1920 से लेकर लगभग 1930 तक की कांग्रेस थी। जब कांग्रेस इस रास्ते से अलग चलने लगी, उन्होंने उसे छोड़ दिया। आप याद करें, भारत आने के बाद गाँधी कांग्रेस में कुछ मूलभूत बदलाव लाये थे जिसके कारण उसमें ग्रामीण प्रतिनिधियों की संख्या बहुत अधिक बढ़ गयी थी। उस समय तक कांग्रेस मुख्यतः ‘सम्मेलन’ था, राजनैतिक दल नहीं था। गाँधी के हस्तक्षेप के बाद से कांग्रेस में उन दिनों सबसे पहले ग्रामीण प्रतिनिधि होते थे और ग्रामीण समितियाँ होती थीं, उसके बाद वे लोग जनपदों के प्रतिनिधियों को चुनते थे और जनपद समितियाँ होती थीं, फिर जनपदों के प्रतिनिधि अपने बाद के स्तर के प्रतिनिधियों को चुनते थे।
आशीष दा- बिलकुल। 1960 की शुरुआत तक भी स्थानीय कांग्रेस दफ़्तरों में यह व्यवस्था थी कि अगर किसी को कांग्रेस प्रतिनिधि के चयन पर कोई असहमति होती थी (यह सभी स्तरों के प्रतिनिधियों के लिए सही था, चाहे वे स्थानीय प्रतिनिधि हों, राज्यस्तरीय या राष्ट्रीय) वह अपनी असहमति लिखकर और दस्तखत कर वहाँ दे सकता था। इन असहमतियों पर हमेशा ही कार्यवाही होती थी। इन्दिरा गाँधी ने अपनी असुरक्षा की भावना के चलते उस व्यवस्था को खत्म कर दिया। उनके पास जनसमर्थन नहीं था। अगर पहले जैसी व्यवस्था रही होती, वे पार्टी के दूसरे नेताओं के हाथों कभी भी हटायी जा सकती थीं क्योंकि उन नेताओं के पास जनसमर्थन था। पर इन्दिरा गाँधी जनमत परिवर्तन (मास मोबिलाईजे़शन) की युक्तियों का उपयोग करती थीं।.... नरेन्द्र मोदी इन्दिरा गाँधी की मानस सन्तान है। संजय गाँधी और राजीव गाँधी उनकी देहज सन्तानें हैं। मानस और देहज में फ़र्क हुआ करता है।
उदयन- क्या यह किसी हद तक कहा जा सकता है कि जब चैथे दशक में कांग्रेस कांग्रेस न रहकर पूरी तरह राजनैतिक दल पण्डित नेहरू और अन्य नेताओं के नेतृत्व बनना शुरू हो गयी थी, गाँधी ने उससे अपनी दूरी बनाना शुरू कर दिया था ?
आशीष दा- हाँ, लेकिन यह भी सच है कि कांग्रेस के भीतर वह व्यवस्था 1971 तक चलती रही। तब तक ऊँची जाति के लोगों का राजनीति में ऊँचे पदों पर बने रहना मुश्किल होता जा रहा था, भले ही वे कितने ही पढ़े-लिखे और कुशल रहे हों। अन्य लोगों का उच्च पदों पर जाना बढ़ गया था। तब तक कामराज आ चुके थे, जिनको अपने पर इतना भरोसा नहीं था कि वे प्रधानमन्त्री हो सकें। उन्होंने कहा था कि उन्हें न हिन्दी आती है न अँग्रेज़ी, वे प्रधानमन्त्री कैसे बन सकते हैं ? लेकिन उनकी क्षमता को सभी मानते थे। वे बहुत बढ़िया मुख्यमन्त्री रहे थे, बहुत बढ़िया संगठक थे और नीची जाति के थे। उनका प्रधानमन्त्री बनना बिल्कुल सम्भव था। आज मुश्किल हो गया है क्योंकि आज राजनैतिक दल संचार माध्यमों के सहारे जनमत परिवर्तन कर चुनाव जीतते हैं। यह श्रीमती इन्दिरा गाँधी का योगदान है और अब इसे नरेन्द्र मोदी ने कहीं अधिक परिष्कृत कर लिया है।
उदयन- क्या इसीलिए आपने एक जगह कहा है कि हमारे समय में राजसत्ता नागरिकों को धोखा देने में लगी हैं ?
आशीष दा- इस स्थिति में नागरिक निष्क्रिय बने रहते हैं, जो घट रहा है, उसे टेलीविज़न पर देखते हैं, नाराज़ होते हैं, काॅफी हाउस या काॅलेज केन्टीन में या अपने घर की बैठकों में उस पर बहस करते हैं और हर पाँच साल बाद वोट दे आते हैं। हालाँकि मध्यवर्ग वह भी नहीं करता।
उदयन- कुछ देर पहले आपने रवीन्द्रनाथ के उपन्यासों पर कुछ कहना शुरू किया था। बात पूरी नहीं हुई थी। हम क्यों न गाँधी को लेकर टैगोर के पास चले जायें।
आशीष दा- मैं चलते-चलते ‘गोरा’ के बारे में यह कहना चाहता हूँ कि वह निदर्शनात्मक उपन्यास है। उसे लिखे जाने तक भारतीय राजनैतिक परिदृश्य पर गाँधी का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था। किसी हद तक सावरकर आ चुके थे, कुछ लोगों ने उनके बारे में सुन रखा था। टैगोर की काव्यात्मक कल्पना ‘गोरा’ (चरित्र) में उन गुणों को दर्शाती है, जो एक हद तक सावरकर में थे, इतना अवश्य है कि गोरा में सावरकर के जैसी हिंसा नहीं है। इसका कारण है। रवीन्द्रनाथ के निकटतम मित्रों में ब्रह्मोबान्धव बन्द्योपाध्याय थे। टैगोर के तीनों राजनैतिक उपन्यासों में अन्यों के अलावा वे भी एक चरित्र बनकर आते हैं। वे ईसाई थे और भारत में तथाकथित ‘हिन्दुत्व’ के पिता हैं। उनका नाम ब्रह्मोबान्धव इसलिए था क्योंकि वे अँग्रेज़ी नाम लेना नहीं चाहते थे वरना उनके नाम का अर्थ है थियोफिलिस। टैगोर के एक दूसरे उपन्यास ‘चार अध्याय’ की भूमिका में टैगोर ने एक बड़ी मार्मिक बात कही है कि कई वर्षों तक वे ब्रह्मोबान्धव उपाध्याय से नहीं मिल सके, ऐसा शायद उनके बीच के मतभेदों के कारण हुआ हो। वे स्वतन्त्रता आन्दोलन में हिंसा की ओर मुड़ चुके थे और टैगोर उनसे सहमत नहीं हो सकते थे इसीलिए वे टैगोर से मिलने में कतरा रहे थे। एक शाम वे अपने घर की बैठक में थे कि अचानक ब्रह्मोबान्धव वहाँ आ गये और उनसे कुछ इस तरह बात करने लगे मानो इस बीच कुछ भी न हुआ हो। उन्होंने साथ चाय पी और घण्टों बातें करते रहे और फिर वे चले गये। टैगोर उन्हें दरवाज़े तक छोड़ने गये, वे अचानक मुडे़ और उनकी ओर देखते हुए बोले, ‘मेरा बहुत अधोपतन हो गया है, है ना ?’ टैगोर जवाब दे पाते इससे पहले ही वे दोबारा मुड़े और चले गये। यह उनकी आख़री मुलाकात थी। टैगोर ने भूमिका में आगे लिखा है कि ‘चार अध्याय’ शुरू करने से पहले मैं यह कहना चाहता था। इस कारण लोगों को उपन्यास का सन्दर्भ तुरन्त पता लग गया। उस उपन्यास में हिंसा का प्रचण्ड विरोध है। बाद में टैगोर ने भूमिका हटा ली और कहा कि यह उपन्यास एक प्रेमकथा है, उसे ऐसे ही पढ़ा जाए। लेकिन मैं कुछ और कह रहा था: ‘गोरा’ के पहले हिस्से में गोरा हिन्दुत्व के पक्ष में सबसे सबल तर्क देता है, वे तर्क विवेकानन्द से आये थे, मिस्टर निवेदिता से आये थे और निश्चय ही ब्रह्मोबान्धव उपाध्याय से और कुछ कुछ भूदेव मुखोपाध्याय और अन्यों से। लेकिन उपन्यास के अन्त का गोरा गाँधी की तरह बोलता है। कुछ जगहों पर। गोरा के लिखे जाने तक भारतीय राजनीति में गाँधी का प्रवेश नहीं हुआ था, वे तब तक दक्षिण अफ्रीका में ही थे। भारत में उनके बारे में सुना तक नहीं गया था। इस तरह यह कहा जा सकता है कि यह उपन्यास गाँधी जैसे व्यक्तित्व के प्रादुर्भाव का पूर्वानुमान करता है। यह कमाल की काव्यात्मक कल्पना है। यह उनकी इसी कृति में नहीं हुआ है, कुछ अध्येयताओं ने उनकी ‘गोरा’ से पहले की कृतियों में भी गाँधी जैसे व्यक्तित्व की छाया को देखा है। शान्ति निकेतन में टैगोर के शिष्य प्रसिद्ध बांग्ला लेखक प्रमथनाथ बिशी ने इस पर पूरी किताब लिखी है: रवीन्द्रनाथेर गाँधीचरितेर पूर्वाभ्यास। टैगोर ने गाँधी के आने के पहले ही उस समय के भारत की राजनैतिक उथल-पुथल में गाँधी के आने की सम्भावना को देख लिया था। इस अर्थ में गाँधी और सावरकर के बीच का संवाद जिस पर अभी हाल ही में यू-आर अनन्तमूर्ति की मरणोपरान्त पुस्तक आयी है, ‘गोरा’ में ही शुरू हो गया था। इसीलिए गोरा आज पूरी तरह प्रासंगिक है। हिन्दुत्व के वर्तमान पुरोधा ‘गोरा’ के जितना सबल तर्क आज भी अपने पक्ष में नहीं दे सकते। पर ‘गोरा’ में यह केवल पूर्वपक्ष है, हिन्दुस्तान में पूर्वपक्ष अगर मज़बूती से नहीं रखा जाता तो उसके जवाब (उत्तरपक्ष) में शक्ति नहीं आती। ‘गोरा’ में पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष दोनों ही मज़बूती से रखे गये हैं।
उदयन- उपन्यास की शुरुआत में चाहे विनय के तर्क हों या गोरा के या अन्यों के टैगोर सभी पर सूक्ष्म रूप से प्रश्न उठा रहे हैं। वे स्वयं अपने पर भी व्यंग्य कर रहे हैं मानो वे पश्चिम प्रभावित बौद्धिकों को प्रश्नांकित कर रहे हों। इसके साथ ही वे इस सभ्यता के स्वरूप के सत्यों की अपनी खोज जारी रखते हैं और गोरा उपन्यास के बाद के हिस्से में मानो खुद अपने लिए कुछ खोज लेते हैं।
आशीष दा- इस विषय पर शिशिर कुमार दास ने भी एक विलक्षण लेख लिखा है।
उदयन- आपने सृजन प्रक्रिया के विषय में विचार किया है। हम उस पर कुछ देर बात करें...
आशीष दा- लेखक या कलाकार कई बार सृजन इसलिए भी करते हैं कि उन्हें करना होता है। आप कई बार इसलिए भी लिखते हैं कि आपको लिखना है, निश्चित समय सीमा में लिखना है लेकिन कोई भी सर्जक अपने उत्कृष्टतम क्षणों में खासकर यदि वह संगीत के क्षेत्र का है या कविता का, दर्शन या गणित का, दरअसल सृजन नहीं कर रहा होता, बल्कि खुद उसका सृजन हो रहा होता है। सर्जनात्मकता की यही पारम्परिक समझ है। तुमको माईकल एजिंलो की ‘डेविड’ का प्रसिद्ध किस्सा याद है ? माईकल एंजिलो ‘डेविड’ बनाने के बाद यह सोचने लगे कि यह देखा जाए कि लियोनार्दो द विंची मेरे इस शिल्प के विषय में क्या सोचते हैं। विंची को आमन्त्रित किया गया। विंची आये और ‘डेविड’ को उन्होंने पसन्द किया, उन्होंने उसकी तारीफ़ की। वह डेविड एपोलो के जैसा सुन्दर और ताक़तवर दिखता है। उसे देखकर विंची जब लौटने लगे, वे बोले, ‘यह शिल्प बहुत सुन्दर है लेकिन जब डेविड ने गोलियथ को पराजित किया था, ऐसा उसने अपनी शक्ति से नहीं किया था, उसने उसे ईशकृपा के सहारे पराजित किया था।’ एंजिलो ने डेविड को कुछ अधिक ही शक्तिशाली बना दिया था, लेकिन वह तो ईश्वर की कृपा थी, उसकी अपनी शक्ति नहीं जिसने उसे विजय दिलायी थी। इसलिए डेविड को अपेक्षाकृत कमज़ोर दिखाना था, एक ऐसे सामान्य व्यक्ति के जैसा जो ईशकृपा से इतना शक्ति-सम्पन्न हो गया कि उसने गोलियथ जैसे व्यक्ति को हरा दिया।
लियोनार्दो द विंची के इस कथन में गाँधी की समझ झलकती है।
कहानी का दूसरा हिस्सा यह है कि सृजन के श्रेष्ठतम क्षणों में स्वयं आपके माध्यम से सृजन होता है और इसमें कई शक्तियाँ शामिल होती हैं, जिसे हम अलौकिकता कहते हैं वह भी इन्हीं में शामिल है। कई सर्जक ईश्वर में विश्वास नहीं भी करते और इसलिए यह कहना ठीक होगा सृजन में सबसे प्रमुख भागीदारी नैतिक संसार की हुआ करती हैं जिससे मेरा आशय यह है कि सृजन में आपकी ‘बेखुदी’ (डिसओंड सेल्फ़) अपनी अभिव्यक्ति पा लेती है, आपके लेखन के माध्यम से। साथ ही दूसरों के न सिर्फ़ ‘प्रकट आत्म’ बल्कि उनके छिपे हुए, ‘अन्तःसलिल आत्म’ का अवचेतन पठन भी आपकी कृति में जगह पा लेता है। उसके उस छिपे हुए आत्म के विषय में न लेखक सचेत रूप से जानता है और न वह जिसका छिपा हुआ आत्म वह है तब भी वह महान कलाकृति में अभिव्यक्त हो जाता है। महान सृजनात्मक कला और साहित्य इसी तरह उत्पन्न होते हैं और वे अपने समय को प्रकट करते हैं और अन्ततः समय पर विजय पा लेते हैं। वे ही हम सबकी ओर से बोलते हैं, हम सब उनमें अनजाने ही हिस्सेदारी करते हैं।
उदयन- इसका अर्थ यह हुआ कि एक महान कलाकृति सिर्फ़ अपने सर्जक के विषय में ही नहीं बोलती, वह अपनी समूची सभ्यता को बोलती है।
आशीष दा- हर व्यक्ति उसे अलग ढंग से पढ़ सकता है और यह पठन कभी भी एक वचनात्मक नहीं हो सकता, वह हमेशा ही बहुवचनात्मक होगा। सृजनात्मकता इसी अर्थ में बहुवचनात्मक होती है।
उदयन- हर पढ़ने वाला अपने को उस कृति के सन्दर्भ में अलग जगह रखेगा और इसीलिए कृति के भीतर का संसार उसके लिए बदल जाएगा।
आशीष दा- आपको हर बार उसमें नये अर्थ को पाने का प्रयास करना होता है क्योंकि आपकी स्थिति अलग होती है। इसीलिए हर पीढ़ी महान सृजनात्मक कृतियों को नये ढंग से आविष्कृत करती है, उसके लिए उसका अर्थ भी वह नहीं रह जाता जो उसके पहले की पीढ़ियों ने निकाला था। वह इसी तरह कालजयी होती हैं।
उदयन- क्योंकि वह काल का शिकार नहीं होती।
आशीष दा- बिल्कुल। क्योंकि वह किसी एक कालखण्ड में बन्धकर नहीं रहती।
उदयन- सर्जनशील व्यक्ति भले ही काल के हाथों पराजित हो जाये क्योंकि वह मरता है पर उसकी कृति की नियति अलग होती है।
आशीष दा- यह ठीक बात है।
उदयन- टाॅल्स्टाॅय के बारे में एक कहानी प्रचलित है। वह कितनी सही है, मुझे नहीं पता। अपने अन्तिम दिनों में टाॅल्स्टाॅय ने पढ़ने को एक किताब उठायी और पाया कि वह कमाल का उपन्यास है। जब उन्होंने उस उपन्यास का नाम देखा, वह ‘अन्ना कैरेनीना’ था, उनका अपना लिखा उपन्यास। मेरा ख़याल है कि इन्टीमेट एनिमी (आत्मीय शत्रु) भी लगभग वैसे ही लिखी गयी होगी, शायद हम यह कह सकें कि उसे आपने कम लिखा है, वह आपके माध्यम से अधिक लिखी गयी है।
आशीष दा- मैं ख़ुद भी ऐसा सोचना चाहूँगा। मैंने यह पढ़ा है कि पारम्परिक चित्रकार और शिल्पी हमेशा यही सोचते थे कि मेरे माध्यम से सृजन हो रहा है। बांग्ला में एक कहावत भी है, कि पे्रत भी आप पर काबिज़ हो सकते हैं। केवल प्रेत ही नहीं सर्जनात्मक वृत्ति भी काबिज़ होती है, आप पर तारी हो जाती है। कला के पारम्परिक सिद्धान्त में इसे अलौकिक कहा जाता है। यह आप नहीं, आप पर तारी अलौकिक संवेदन है जो सृजन कर रहा है। महान संगीतकार लगभग यही भाव इन्हीं शब्दों में व्यक्त करते रहे हैं।
उदयन- महान ठुमरी गायिका सिद्धेश्वरी देवी भी कहती थींः हम नहीं जानते कौन गा रहा है...
आशीष दा- वे उमा को बहुत पसन्द करती थीं। उमा ने उनसे दो-एक साल संगीत सीखा है। सिद्धेश्वरी बहुत स्नेहिल व्यक्ति थीं। वे श्रीराम कला केन्द्र में सिखाती थीं। मेरा काम उन्हें कलकत्ते से लाकर पान देना था। उन्हें कलकतिया पान बेहद पसन्द था। मेरा काम था कलकत्ता में सुबह पाँच बजे उठकर दो-सौ, तीन सौ पान लगवाकर लाना, दिल्ली उड़ान भरने के पहले तक उन्हें फ्रिज में अच्छी तरह रखना और उतनी ही अच्छी तरह उन्हें ले जाकर दे आना।
उदयन- आपने इस बात पर बहुत विचार किया है कि भारतीयों ने कभी उस तरह इतिहास नहीं लिखा जैसा कि आधुनिक मनीषा उसे समझती है, साथ ही यह प्रश्न भी आपके लिए महत्व का रहा है कि भारत में आधुनिक ‘नेशन स्टेट’ ज़ोर देकर बनाया गया है। इसके लिए यहाँ के सम्प्रदायों को ‘एथिनिक’ समूहों में रूपान्तरित किया गया और अन्य भी कई चीजे़ं की गयीं जिसका परिणाम वह व्यापक हिंसा है, जो हम पिछले कई दशकों से भोग रहे हैं। हमारे पास हमारे अपने समाज के योग्य शायद कोई राजनैतिक विचार है ही नहीं, धरमपाल यह बात अक्सर कहते थे। आप इसे किस तरह देखते हैं ?
आशीष दा- इसके कई कारण हैं। अगर मैं अनुमान लगाऊँ तो एक महत्वपूर्ण कारण वही है जो तुमने हमारे इतिहास लेखन के बारे में कहा कि हम इतिहास लेखन के प्रति पर्याप्त खुले नहीं रहे। आधुनिक ‘नेशन स्टेट’ कुछ हद तक एक तरह की ‘हिस्ट्री’ पर निर्मित होते हैं। मैं यह शुरू में ही कह दूँ कि ‘हिस्ट्री’ के प्रति हमारी अपर्याप्त दृष्टि के लिए मुझे खेद नहीं है। ‘हिस्ट्री’ अतिरंजित महत्व पा गया अनुशासन है। वह समूचा अतीत नहीं होती। निश्चितताओं से लैस इतिहासकार के लिए अभिलेखागारों में जाने के अलावा कोई राह नहीं है, वे अभिलेखागारों के गुलाम होते हैं और कुछ इस तरह बात करते हैं मानो अभिलेखों को मनुष्यों ने न बनाया हो बल्कि वे दैव-उद्घाटित पवित्र ग्रन्थ हों। वे यह भूल जाते हैं कि सभी मानवीय निर्मितियाँ कम या ज़्यादा दोषपूर्ण होती हैं, अभिलेखागार भी इसके अपवाद नहीं हैं। उन्हें नौकरशाह, बाबू, कुली जैसे लोग लिखा करते हैं। उनमें भी आलोचना या आरोप या मिथ्याकरण आदि होते हैं। हमारा अतीत वैविध्यपूर्ण है। प्राचीन काल के भी कुछ ऐसे लेखन हैं जो पश्चिमी अर्थ के ‘हिस्ट्री’ लेखन के जैसे हैं। लेकिन वे बहुत थोड़े हैं। लेकिन ऐसे लेखन भी हैं जो सार्वजनिक स्मृति को दर्ज करते हैं जिन्हें शौर्यगाथाकारों ने गाया है। भाटों ने भी स्मृतियों को पर्याप्त संग्रहीत किया है। अगर आप बनारस, हरिद्वार आदि जगहों पर जाएँ तो वहाँ के वंशावलिकार आपसे पूछेंगे कि आप कहाँ के हैं, आपके पुरखे कौन थे आदि। उनके पास आपके पुरखों की ख़बर होगी। वे भी इतिवृत्त लिखते हैं। जाति पुराण में भी ऐसा ही कुछ होता है पर इन पुराणों में समुदायों के इतिवृत्त होते हैं, वंशावलिकार वंशावलियाँ लिखते हैं। हमारा अतीत है पर वो अलग चीज़ों में वास करता है, यह बहुत महत्वपूर्ण है। आप दस लोगों से बात करिये, वे अतीत के दस संस्करण बताएँगे। और वह भी हमारी कमी नहीं है, दरअसल हमारा खुला हुआ अतीत है पर इससे भी अधिक महत्व की बात यह है कि हमारे अतीत के वर्णनों में व्यक्तिपरकता को भी शामिल किया जाता रहा है।
उदयन- इसका आशय यह है कि उसमें मानवीय संवेदनाओं को भी स्थान मिलता है।
आशीष दा- बिल्कुल। हमारे अतीत के वर्णनों में मानवीय आवेग, प्रयोजन, प्रभाव और मान्यताओं की व्यवस्थाएँ भी शामिल होते हैं। इस तरह के लेखन में सिर्फ़ अतीत को यादभर नहीं किया जाता जैसा कि ‘हिस्ट्री’ लेखन में होता है। ‘हिस्ट्री’ में नैतिकता नहीं होती। नैतिक ‘हिस्ट्री’ नहीं हो सकती। ‘हिस्ट्री’ भावनाओं, प्रेरणाओं, संस्कृतियों और सम्प्रदायों के प्रति अन्धी होती है। उस हद तक ‘हिस्ट्री’ मानवीय चरित्र और स्वभावों के प्रति बहुत एकांगी होती है। उसे जानकार आपको ऐसा कोई संकेत नहीं मिल पाता कि अतीत किस तरह वर्तमान में स्पन्दित होता है। उस किस्म की ‘हिस्ट्री’ को पढ़कर आप मझधार में फँस जाते हैं। यह कहने कि कोई हिंसक था या निर्मम था या किसे ने नरसंहार किया था, आपको ‘हिस्ट्री’ से बाहर जाना पड़ता है। ‘हिस्ट्री’ में अगर नरसंहार का ज़िक्र भी होता है तो वह केवल इतना ही होता है कि ‘इतने लोग मारे गये’ और ज़्यादा से ज़्यादा यह कि वे लोग किस तरह मारे गये थे और उन्हें किन हथियारों से मारा गया था: गन, मशीनगन, कुल्हाड़े आदि। ‘हिस्ट्री’ यह नहीं बताती कि नरसंहारों के पीछे कौन-सी विश्वदृष्टि थी, कैसे उन्हें न्यायोचित ठहराया गया था। अगर आप इन चीज़ों की माँग ‘हिस्ट्री’ से करेंगे, आपको जवाब मिलेगा कि यह सब लिखना खराब विज्ञान है लेकिन सारे विज्ञान वही हैं। उन्हे नैतिकता-निरपेक्ष माना जाता है और इसीलिए ‘यूजेनिक्स’ यह कहता है कि अगर आप आनुवंशिक रूप से विकलांग किसी व्यक्ति/बच्चे को मार डालें तो समाज के स्वस्थ बने रहने की सम्भावना अधिक है, इससे स्वास्थ्य-सूचकांक ऊपर चला जाएगा। आपको ‘हिस्ट्री’ से मानक स्थितियाँ (नाॅर्मेटिव पोजिशन) कभी पता नहीं चलती। मसलन स्पार्टा में नवजात शिशु को एक या दो दिन के लिए तेज़़ सर्दियों या दूसरे मौसम में घर के बाहर रख दिया जाता था। अगर वह बच जाता, केवल तब उसे स्वीकार किया जाता। यह बच्चों के प्रति स्पार्टा की वृत्ति को बताता है। इसी वृत्ति को लेकर नात्सियों ने यूजिनिक्स का इस्तेमाल किया था ताकि वे समलैंगिक, विकलांग, आॅटिस्टिक बच्चों और लक्वाग्रस्तों को अन्य लोगों से अलग कर उन्हें मार सकें। इसके बाद उन्होंने कम्यूनिस्टों को मारने का प्रयास किया और अन्ततः यहूदियों को। यह पूरा किस्सा कुछ ऐसा है मानो कोई टैस्ट मैच खेलने से पहले छोटे-छोटे मैच खेल रहा हो। ‘हिस्ट्री’ प्रेरित नहीं कर सकती। वह विज्ञान की तरह ही मूल्य निरपेक्ष होती है। 1920 में ही एक जर्मन चिकित्सक ने कहा था, हमें उस जीवन को खत्म करने का अधिकार अपने पास रखना चाहिए जो जीने योग्य नहीं है। ये प्रसिद्ध चिकित्सक का कथन है और वह विज्ञान की बात कर रहा था।
उदयन- और हिप्पोक्रेट्स की शपथ ?
आशीष दा- हिप्पोक्रेट्स की शपथ केवल एक सीमा तक ही जाती है, उसके बाद नहीं। हमें सावधान रहना चाहिए क्योंकि विज्ञान के व्यवहार का ढंग यही है। यह बात सिर्फ़ जर्मनी के लिए ही सही नहीं है। किसी ने मुझे बताया था कि तीन वैज्ञानिक जिन्होंने अमरीका का एटम बम बनाया था, (जिसमें सुप्रसिद्ध फेनमेन भी शामिल थे) साईबरनेटिक्स के प्रणेता नाबर्ट वीनर (जो एम.आई.टी. में प्रोफे़सर थे) के पास यह जानने गये कि वे गणना कर यह बताएँ कि हिरोशिमा के कितने ऊपर एटम बम को सक्रिय किया जाना चाहिए जिससे सबसे अधिक संहार हो सके। नार्बर्ट वीनर के पक्ष में यह ज़रूर कहूँगा कि उन्होंने इन वैज्ञानिकों से कहा कि कृपया वे उन्हें उस सबसे बाहर रखें। मैं यह नहीं भूल सकता कि उस बैठक में एक वैज्ञानिक के विरोध में तीन थे। तीन वैज्ञानिकों में एक भौतिकशास्त्र के नोबेल पुरस्कार विजेता थे, एक और जाने माने गणितज्ञ थे, फ़ान न्यूमन जिन्हें नोबेल पुरस्कार अवश्य मिला होता, अगर वह पुरस्कार गणित में भी होता। उन्हें नोबेल पुरस्कार मिल सकता था क्योंकि शुरुआती वर्षों में नोबेल पुरस्कार गणितज्ञों को भी दिया जाता था और ये महान गणितज्ञ थे। दरअसल अल्फ्रेड नोबेल की पत्नी एक गणितज्ञ से प्रेम करने लगी थीं, अल्फ्रेड ने इस कारण नोबेल पुरस्कार की फेहरिस्त से गणित को हटा दिया।
उदयन- आपकी दृष्टि में ‘हिस्ट्री’ की तुलना में मिथकों आदि की क्या शक्ति है और वह क्यों है?
आशीष दा- वे स्वतः ही बहुवचनात्मक होते हैं। हर व्यक्ति का अपना मिथक होता है। हर मिथक का अलग रंग होता है। कई लोगों को इस पर आपत्ति है कि सैकड़ों रामायण हैं लेकिन तुलसीदास की रामायण (रामचरितमानस), वाल्मीकि की रामायण नहीं है। तुलसीदास का ग्रन्थ भक्ति में डूबा हुआ है। वाल्मीकि रामायण अधिक निरपेक्ष, सादी और निष्ठुर होने के अर्थ में ब्राह्मणवादी है। वह रामायण कुछ ऐसी है, मानो उसे काल की आँख से देखकर लिखा गया हो। यह देखने का एक अलग ढंग है। संस्कृत साहित्य में ऐसी दृष्टि मिलती है। महाभारत में भी यही दृष्टि सक्रिय है। महाभारत कहीं अधिक जटिल ग्रन्थ है, उसमें कुछ जगहों पर, कुछ चरित्रों में यह ‘काल जैसी’ निरपेक्ष दृष्टि मिलती है। उसे पढ़ते समय यह ध्यान रखना होता है कि किसी स्थान पर कुछ ऐसा तो नहीं कहा जा रहा जो महाभारत युग के बाहर से बोला जा रहा हो। मुख्यतः महाभारत को इतिहास ग्रन्थ कहा जाता है। रामायण भी इतिहास ग्रन्थ है और महाकाव्य भी है। भागवत को भी इतिहास ग्रन्थों में शामिल किया जाता है पर सामान्यतः महाभारत को ही इतिहास कहा जाता है, रामायण को भी वह स्थान प्राप्त नहीं है। इतिहास मानवीय प्रेरणाओं का स्थान है। मसलन महाभारत का हर चरित्र ठहरकर इन प्रेरणाओं की भाषा बोलता है। इतिहास ग्रन्थ में वनवास को जाने से पहले सीता राम से यह कह सकती थी कि ‘तुम ये शस्त्र लेकर क्यूँ चल रहे हो। वनवासियों से हमारा क्या बैर है। उन्होंने हमारा कौन-सा अहित किया है।’ इस पर राम कहते हैं ‘यह आत्मरक्षा के लिए है।’ पर यह भी सच है कि जब भी शस्त्र होंगे, उनके उपयोग में चूक होकर रहेंगी और इस तरह हिंसा की सम्भावना बढ़ जाएगी।
उदयन- ऐसा प्रश्न उठाया जाना कमाल की बात है।
आशीष दा- क्या यह और भी अद्भुत नहीं है कि सीता यह प्रश्न उठाती है। मैं तुम्हें एक और उदाहरण देता हूँ जो प्रति-ऐतिहासिक है। पुराण स्मार्त ग्रन्थ हैं, जो श्रुतियों की तुलना में लोक के अधिक निकट है। यह कहानी मुझे यू.आर. अनन्तमूर्ति ने सुनायी थी। यह कन्नड़ रामायण में है। राम के वनवास जाने के पहले जैसा कि राम और सीता के बीच बहस होती है, वैसी ही इस रामायण में भी हो रही है। राम सीता से कहते हैं, तुम मेरे साथ मत चलो। तुम राजकुमारी हो, तुम्हें वन में रहने का अनुभव नहीं है। तुम्हारे लिए यह मुश्किल होगा। तुम अयोध्या में ही रूक जाओ। सीता शुरू में वही जवाब देती हैं जो दूसरी रामायणों में है, तुम्हारी पत्नी होने के कारण मेरा यह दायित्व है कि मैं तुम्हारे साथ रहूँ। दोनों के बीच बहस होती है और जब सारे तर्क विफल हो जाते हैं, वे कहती हैं, ‘बाकी सारी रामायणों में सीता राम के साथ वन जाती है, तुम मुझे कैसे रोक सकते हो,’ यह लगभग ब्रेख्तियन क्षण है, यह कुछ ऐसा है, मानो सीता आपको याद दिला रही हो कि आप आख्यान पढ़ रहे हैं। ‘हिस्ट्री’ की समाज में भूमिका अपेक्षाकृत बहुत कम है, इसलिए हम उसके आधार पर किन्हीं निश्चितताओं को मान्यता नहीं दे सकते। भारत में सभी तरह की ‘हिस्ट्रियों’ में मुश्किलें हैं। पुराणों में भी मुश्किल है क्योंकि उनके कई संस्करण हैं। उनके कई तरह के लेखक हैं। महाभारत के तेलगु में पुराने समय के 19 संस्करण मिल जाते हैं। मैंने कहीं पढ़ा है कि एक मुसलमान लेखक अपनी रामायण लिखना चाहते थे। मुहम्मद इस्माईल उनका नाम था। वे ‘मुहम्मद रामायण’ लिखना चाहते थे। फिर आन्ध्रप्रदेश में दंगे हुए और उन्हें मार दिया गया। इस तरह वह बीसवीं रामायण कभी नहीं लिखी जा सकी। उन्होंने अपना सारा जीवन इसमें लगा दिया था, वे बुजुर्ग थे। इतिहास लेखन के सन्दर्भ में यह याद रखा जाना चाहिए कि कई अध्येताओं का यह मानना है कि ‘महाभारत’ का ‘शान्तिपर्व’ बौद्धों ने जोड़ा था।
उदयन- ऐसा हो सकता है...
आशीष दा- इसी पर्व में युधिष्ठिर कहते हैं कि इस क्षण में विजय पराजय में घुल-मिल गयी है।
उदयन- यह बौद्ध कथन-सा लगता है। यह भी हो सकता है कि महाभारत में बुद्ध के आने के पहले ही बौद्ध दृष्टि-सा कुछ रहा हो। जिसका अर्थ यह है कि ‘महाभारत’ में बौद्ध दृष्टि की उत्पत्ति की सम्भावना सोयी हुई रही हो...।
आशीष दा- महाभारत में शुरू में दस हज़ार श्लोक थे, और वे बढ़ते-बढ़ते एक लाख हो गये। उसकी शुरुआत ईसा के दो सौ साल पहले होती है। तब तक बौद्ध विचार आ चुका था। शुरू में यह ‘जय भारत’ थी, जो और भी पहले का ग्रन्थ था, वह बढ़ते-बढ़ते सातवीं-आठवीं शताब्दी तक एक लाख श्लोकों वाला हो गया। यहाँ तक आने के बाद से वह वैसी ही बनी रही क्योंकि यहाँ आकर कई तरह की साक्षरताएँ शुरू हो गयी थीं।
उदयन- महाभारत का लिखित पाठ भले ही ज्यों का त्यों बना रहा पर उसके प्रदर्शनों में कई तरह की उपज आज तक भी होती रहीं।
आशीष दा- ऐसा ही शैक्सपीयर के साथ भी हुआ था।
उदयन- इस तरह महाभारत का बढ़ना कभी बन्द नहीं होता।
आशीष दा- लेकिन ऐसा ‘हिस्ट्री’ में नहीं हो सकता। अगर ‘हिस्ट्री’ में दो मत हैं तो एक सही होगा दूसरा ग़लत। यही ‘हिस्ट्री’ लेखन की बुनियादी मान्यता है। दोनों मतों के बीच संघर्ष होता है। मज़बूत मत जीतता है। अगर ऐसा नहीं हो पाता तो अधिक आँकड़े उपलब्ध होने तक एक-दो पीढ़ियों के बाद इस मसले को सुलझा लिया जाता है और यहीं मतान्तर का समापन हो जाता है। ‘हिस्ट्री’ में इस तरह का तर्क काम करता है।
उदयन- ‘हिस्ट्री’ और मिथकों से मानवीय चेतना कितने स्तरों पर प्रतिकृत होती है और इनमें क्या फ़र्क है ?
आशीष दा- ऐसा नहीं है कि लोगों को यह पता न हो कि महाभारत या रामायण के विभिन्न संस्करण एक-दूसरे से अलग हैं। बंगाली रामायण में राम जो मिष्ठान खाते हैं, वे सारे बंगाली मिष्ठान हैं। यह वे मिठाइयाँ हैं जो बंगाल में उन दिनों होती थीं जब यह बंगाली रामायण लिखी गयी थी जैसे बौण्डा याने बड़े लड्डू। आप साफ़-साफ़ देख सकते हैं कि वह वैष्णव रामायण है और उसका प्रभाव इतना गहरा है कि जब मैं रामजन्मभूमि का अध्ययन करने अयोध्या गया तो मुझे और मेरी टीम के सदस्यों और कुछ अन्यों से वहाँ के कुछ लोगों ने अलग-अलग ढंग और अलग-अलग समय पर यह कहा कि रामजन्मभूमि का सारा विवाद इसलिए हो रहा है क्योंकि यह दो साध्वियाँ, उमा भारती और ऋतम्भरा देवी, शिव भक्त हैं और वे चाहती हैं कि अयोध्या के सारे मन्दिर वैष्णव न रहें, शैव हो जाएँ। वे यह भी बोले कि हम राम को राजा नहीं मानते। हमारे लिए वे रामलला है जबकि यह लोग राम को राजा कहते हैं, अयोध्या अलग जगह है और वे लोग इसे हड़पने की कोशिश कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि इसे हड़पकर वे इसे शैव बना दें। यह कहने वाले लोगों में एक-दो लोग भारतीय जनता पार्टी के समर्थक भी थे। हम अयोध्या के बारे में क्या सोचते हैं और स्वयं अयोध्यावासी अपने नगर के बारे में क्या सोचते हैं, इन दोनों में फ़र्क है। यही फ़र्क है, ‘हिस्ट्री’ आधारित संघर्षों और मिथक आधारित विवादों में। वे एक दूसरे से अलग न भी हों, उनमें अलग होने का आभास अवश्य है। वे लोग अध्योध्या की घटनाओं को अपने संसार के सन्दर्भ में देखते हैं। उनका संसार वैष्णव, शैव, अद्वैत, विशिष्ट अद्वैत आदि में विभाजित है। इस संसार का ‘हिस्ट्री’ के विमर्श से कोई तालमेल नहीं है। अब सभी लोग बोलते हैं कि ये हमारी ‘हिस्ट्री’ है। वे भले न जानते हों कि वह ‘हिस्ट्री’ क्यों है। दरअसल वे अतीत के अपने संस्करण के लिए प्रामाणिकता चाहते हैं। रामजन्मभूमि मन्दिर का प्रमुख पुरोहित कम्युनिस्ट पाटी आॅफ इण्डिया (माक्र्सवादी) का कार्डधारी सदस्य था। वह बहुत बढ़िया आदमी था। अयोध्या में ऐसा बहुत कुछ है। वह बड़ी विलक्षण जगह है। किसी ज़मीन के झगड़े में मारे जाने के पहले तक वह संघ परिवार के पूरी तरह विरोध में था। वो कहता था कि यह सारा कार्यक्रम खोखला है, ये लोग हिन्दू होते तो जानते। लेकिन वो भी यह मानता था कि उसका मन्दिर ही असली रामजन्म भूमि है। कार्डधारी सदस्य तक यहाँ ‘हिस्ट्री’ से अप्रभावित बना रहा। जब मैं अयोध्या गया था, वहाँ कम-से-कम बारह मन्दिर ऐसे थे जो असली रामजन्मभूमि होने का दावा कर रहे थे। जब सारी चीज़ें ख़त्म हो गयीं और ऐसे दावे जो अपने को जन्मभूमि बता रहे थे, केवल छह सात रह गये, संघ परिवार पैसे देकर इनके पुरोहितों को उनके मन्दिर के रामजन्म भूमि होने के दावे को छोड़ने को कह रहे थे। उन्हें डर था कि अगर बहुत सारे दावे बने रहे तो मुसलमान यह कह सकते हैं कि सब लोग अलग-अलग बातें कर रहे हैं और तब रामजन्मभूमि होने का किसी का भी दावा माना नहीं जायेगा। उन पुरोहितों को कहा गया कि आप अपने मन्दिर के जन्मभूमि होने के दावे को लोगों के सामने मत कहिए, कोई तीर्थ आदि करने आये, उसके सामने भले ही यह दावा करते रहिए।
उदयन- कुछ देर पहले आपने जातिपुराणों का ज़िक्र किया था मैंने धरमपाल और रवीन्द्र शर्मा के अलावा बहुत कम लोगों को उनका ज़िक्र करते सुना है। जातिपुराणों के बारे में आपका क्या विचार है ?
आशीष दा- जातिपुराण जातियों के इतिहास हैं। वे इतिहास हैं, ‘हिस्ट्री’ नहीं, उनमें सबकुछ मिल जाता है। जातियों में जो भी बदलाव आये हों, उनका वर्णन भी इन पुराणों में आता है। जो पुरोहित जातिपुराण लिखते या सुधारते थे, वे जातियों की ज़रूरतों को अच्छी तरह समझते थे। पटेलों के 4-5 जातिपुराण हैं। अगर आप उन्हें पढ़ें, आप पायेंगे कि पटेलों के जीवन में परिवर्तन आते रहे हैं। इन सभी जातिपुराणों में यह लोग शुरू में ऊँची जाति के बताये जाते हैं फिर किसी पाप के कारण इन पर शाप का प्रकोप आता है। पटचित्र भी ऐसे ही होते थे, उनमें से कुछ को मुसलमान बनाते थे, वे कहते हैं कि किसी पीर ने उन्हें शाप दिया था या किसी कारणवश वे यह करते हैं। पीर ने उन्हें कहा था कि चूँकि तुम लोगों ने ग़लती की है, तुम्हारे चित्रों को लेने वाले हिन्दू होते जाएँगे और तुम हिन्दू देवी-देवताओं के ही चित्र बनाते जाओगे। वे लोग अपने काम के बारे में यही तर्क देते हैं। वे इसी आधार पर हिन्दू देवी-देवताओं के चित्र बनाने को न्यायसंगत ठहराते हैं। ऐसा नहीं कि सभी मुसलमान कुरान को शब्दशः मान रहे हों। यह सच है कि मुसलमानों को देवताओं को चित्र बनाने की अनुमति नहीं है पर जब उनके खरीददार बदल गये, वे यह करने लगे। फ़ारस में भी पैगम्बर का चित्र बनाया जा सकता था। अल्लाह का चित्र बनाना वैसे भी मुश्किल है क्योंकि उनकी सारे लक्षण मूल्यपरक और गुणपरक है। उनके जितने नाम हैं, उतने ही उनके गुण हैं। उन्हीं गुणों से उन्हें पुकारा भी जाता है। किसी का नाम ‘अल्लाह’ नहीं रखा जा सकता। पर मेरा एक दोस्त है उसका नाम ‘रब खान’ है।
उदयन- रब निश्चय ही अल्लाह ही हैं पर यह शब्द फ़ारसी भाषा का है।
आशीष दा- पारसियों ने इस धर्म की सभ्यतागत और सांस्कृतिक पीठिका बनायी है। जब तुर्क लोग भारत आये, उन्होंने तुर्की नहीं, फ़ारसी को राजभाषा घोषित किया था।
उदयन- ऐसा क्यों था ?
आशीष दा- 14वीं या 15वीं शती तक फ़ारसी सभ्यता विकसित हो चुकी थी, अरबी कुछ-कुछ हशिये पर थी। तब अरबी सभ्यता बढ़ना शुरू कर रही थी जबकि फ़ारसी सभ्यता पूरी तरह विकसित थी, उसका ज़ोराश्ट्रियन काल भी उपस्थित था। पारसियों में अपने अतीत के प्रति गहरी संवेदनशीलता है। मैं पहली बार ईरान अयातुल्लाह खुमैनी के समय में गया था। मैं उसके पहले भी गया हूँ क्योंकि यूरोप जाते हुए वहाँ ज़हाज़ रुका करता था। जब मैं अयातुल्लाह के समय में वहाँ गया, मैं यह जानकर चकित रह गया कि अनेक प्रसिद्ध फ़ारसी कवि गैर-इस्लामी थे। कई मुसलमान कवि भी प्रसिद्ध थे पर सबसे अधिक प्रसिद्ध कवि न सिर्फ़ गैर-इस्लामी थे बल्कि वे गैर-ईरानी भी थे। फिरदौसी इसकी अच्छी मिसाल हैं। वह ज़ोराश्ट्रियन थे। पर वहाँ यह कहा नहीं जाता।
उदयन- वे सारे कवि उनकी साहित्यिक परम्परा का अभिन्न अंग हैं।
आशीष दा- यह सृजनात्मकता उनके पवित्रता बोध का भी अंग है। उन कवियों का ईरान में बहुत ऊँचा दर्ज़ा है। उसी यात्रा को ख़त्म कर जब मैं वापस आने के लिए हवाई अड्डे पर आया, वहाँ बहुत-सी विशेष रूप से ईरानी वस्तुएँ नज़र आयीं, उनमें से नब्बे प्रतिशत इस्लाम-पूर्व की थी। पर्सपोलिस की पत्थर में अनुकृति आदि सभी इस्लाम-पूर्व ज़ोराश्ट्रियन कृतियाँ थीं और उन्हें लेकर वहाँ कोई संकोच नहीं है। उन्हें नहीं लगता कि ये सब चीजे़ं उनके इस्लामी अस्तित्व को किसी तरह भी नकारती है। वे इनके लिए गर्व महसूस करते हैं। फ़ारसी सभ्यता दो हज़ार साल पुरानी है जबकि मोहम्मद साहब चैदह सौ साल पहले हुए हैं।
उदयन- हिन्दी के आलोचक वागीश शुक्ल ने लिखा है कि फ़ारसी की अनेक महान कविताएँ इस्लाम-पूर्व अतीत को वापस लाने का प्रयास है। मिर्ज़ा बेदिल या ग़ालिब की कविता भी इस्लाम-पूर्व की स्मृतियों के पुनर्वास का प्रयास जान पड़ती है।
आशीष दा- कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि इस्लाम-पूर्व अरब के देवी-देवता या तो हिन्दू परम्परा के थे या उसी का कोई बदला हुआ रूप थे या वह ऐसी परम्परा के थे, जो हिन्दू परम्परा के क़रीब की थी। इसकी बहुत सम्भावना है कि वे हिन्दू देवी-देवता ही रहे हों क्योंकि मैंने कहीं पढ़ा है कि अरब में शिव-पार्वती की मूर्तियों की पूजा होती थी। वे वहाँ सज्जा के लिए नहीं थीं, उनकी बाकायदा पूजा हुआ करती थी। इसका लिखित प्रमाण भी मिलता है। उस समय वह एशिया माइनर था।
उदयन- क्या आपको लगता है कि ईरान या अरब के कुछ हिस्सों में जो एक तरह का सांस्कृतिक खुलापन था, वह उन पर ‘हिस्टोरिकल’ कल्पना के आरोपण के कारण बीसवीं शती तक आते-आते संकुचित होता गया है।
आशीष दा- कुछ हद तक। मनुष्य हमेशा ही नामुमकिन करने की चेष्ट करता है। जब ‘हिस्ट्री’ को खोज लिया जाता है, आप उसे अनकिया करना चाहते हैं। आप उसे मिटाना चाहते हैं, उससे प्रतिशोध लेना चाहते हैं पर आप यह प्रतिशोध उन लोगों से लेते हैं जिनका ‘हिस्ट्री’ से कोई सम्बन्ध नहीं है।
उदयन- आप इस संकुचन के दूसरे कौन-से कारण देखते हैं ?
आशीष दा- हमने जिस राष्ट्रवाद की बात की है, वो राजसत्ता विषयक एक ऐसे विचार से उत्पन्न हुआ है, जिसका राजसत्ता की बहुवचनात्मक पारम्परिक अवधारणा से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह विचार सन् 1648 में ‘ट्रीटी आॅफ वेस्टफेलिया’ के साथ आया है, जो मुख्यतः यूरोप में हुए सौ साल के युद्ध की परिणति थी। वे लड़ते-लड़ते थक चुके थे, और जब उस ट्रीटी पर हस्ताक्षर हो गये तो एक के बाद दूसरी राजशाही के नष्ट होने के बाद वह एक ऐसी प्रस्तावना बन गयी जिसके अनुसार ऐसी राजसत्ता का उदय हो सका जो ‘नेशन’ के विचार पर आधारित थी, क्योंकि राजशाही के शासक, राजा आदि इस बात से चिन्तित थे कि राजाओं की अनुपस्थिति में लोगों को नियोजित कर देश की रक्षा के लिए युद्ध किस तरह लड़े जायेंगे, देश का सम्मान कैसे हो पायेगा। ‘नेशनलिज़्म’ को राजसत्ता का एक कार्यक्रम बनाया गया जिससे लोगों को देश की रक्षा और एकता के लिए नियोजित किया जा सके। इसके पहले तक यूरोप के लोग राजा और देश के लिए ही लड़ते थे। राजा के न होने से यह मुश्किल हो जाता। पर तब भी राजशाही कभी नहीं बदली। तुम अनुमान कर सकते हो कि ऐसा क्यों हुआ होगा ?
उदयन- यह अनुमान करना मेरे लिए मुश्किल है क्योंकि भारत के राजाओं और यूरोप की राजशाही बड़ा फ़र्क है।
आशीष दा- यूरोप की राजशाही से न तो यह अपेक्षा थी कि वह नेशनलिस्ट होती और न वह थी। वह इसलिए था क्योंकि अगर आप ऊँची राजशाही के सदस्य हैं तो आप देश के बाहर ही विवाह कर सकते थे। मसलन अँगे्रज़ सम्राट अब ज़रूर अँग्रेज़ी बोलते हैं पर वे घर पर जर्मन बोला करते थे, उसके पहले कई पीढ़ियों तक उनके महलों में फ्रांसीसी बोली जाती थी।
उदयन- क्या यह इसलिए था कि राजशाही में शादियाँ देश से बाहर होती थी ?
आशीष दा- अगर किसी राजपुरुष को देश निकाला मिला और उसकी माँ फ्राँसीसी हुई, वह फ्राँसीसी सीख जाता था और जब परिवार का वह हिस्सा वापस इंग्लैण्ड आता था, फ्राँसीसी भी आ जाती थी। राजशाही में हमेशा अन्तर्विवाह होते थे। जब महारानी विक्टोरिया की हीरक जयन्ती मनायी गयी, यूरोप भी सारी राजशाही उसमें शामिल हुई, क़रीब एक सौ दस लोग उसमें आये। वे सारे एक सौ दस लोग एक-दूसरे के रिश्तेदार थे।
उदयन- इसका अर्थ यह हुआ कि यूरोप की राजशाही ट्रांसनेशनल (अन्तर्राष्ट्रीय) है।
आशीष दा- उन्हें यह कहा जा सकता है। घटनाएँ इस तरह हुई हैं। राजशाही की मान्यता यह है कि वे उच्चतर मनुष्य हैं, वे नीले ख़ून वाले हैं। वे किसी भी आम अँग्रेज़ परिवार से कैसे शादी कर सकते थे ? उनका बेटा किसी ‘ड्यूक’ या ‘अर्ल’ की बेटी से कैसे विवाह कर सकता था। उस परिवार में कोई श्रेष्ठता तो होनी चाहिए। उनमें से कई ने देश के बाहर विवाह किये। अगर वह लड़की हुई तो वह दूसरे देश जाकर वहाँ की ‘नेशनलिस्ट’ हो जायेगी, खासकर युद्ध आदि के समय। पहले विश्वयुद्ध में ब्रिटेन के विरुद्ध लड़ने वाला जर्मनी का सम्राट उस समय के ब्रिटेन के राजा का चचेरा भाई था। इस तरह पहले विश्वयुद्ध में दो भाईयों के बीच की लड़ाई में पाँच करोड़ लोग मारे गये। मेरे ख़याल से तब तक अँग्रेज़ राजमहल में जर्मन ही बोली जाती थी।
उदयन- आधुनिक राजसत्ता के बनने की कहानी को एशियायी देशों ने बिल्कुल ग़लत समझ रखा है।
आशीष दा- हाँ। वे सोचते हैं कि यूरोपीय देशों की शक्ति का आधार उनका नेशनलिज़्म है और उसी कारण उन्होंने विश्व को जीता है, अपने साम्राज्यों को स्थापित किया है। सच्चाई ये है कि युद्धों में विजय स्थानीय लोगों के कारण हुई।
उदयन- आपने नरसंहारों का गहन अध्ययन किया है ?
आशीष दा- नरसंहारों पर शोध करते हुए हमने पाया कि सबसे भयानक और क्रूरतम नरसंहार तब हुए जब दोनों प्रतिद्वन्द्वी अज़नबी नहीं थे बल्कि एक-दूसरे के बेहद क़रीब थे क्योंकि तब यह संहार झाड़फूँक या भूत उतारने का रूप ले लेता है। भारत के दो राज्यों पंजाब और बंगाल में हिन्दू और मुसलमानों का सम्बन्ध बहुत गहरा था। पंजाब में तो बंगाल से भी अधिक था क्योंकि बंगाल में अस्सी प्रतिशत ज़मीदारी हिन्दुओं के हाथ में थी लेकिन तब भी वहाँ दोनों समुदायों के बीच क़रीबी थी। उन दोनों ही राज्यों में जैसा कि तुम्हें पता ही है, भीषण नरसंहार हुआ था। यहाँ देखने की बात यह है कि यह संहार भूत भगाने जैसा कार्य इसलिए है क्योंकि आप उस अन्य को अपने भीतर अनुभव करते हें (‘मैं भी उसी की तरह हूँ)’ और चूँकि वह मेरे भीतर के अन्य का प्रतीक बन जाता है, इसलिए वह हिंसा का लक्ष्य हो जाता है।
उदयन- आप यह कह रहे हैं कि लगभग सभी नरसंहार भूत भगाने जैसा कर्म ही है।
आशीष दा- मेरा यही अनुमान है पर इसके अलावा उसी आपसी शत्रुता को उस हद तक पैना किया जाता है कि अलगाव हो सके। महाभारत भी इसी का अच्छा उदाहरण है, वह चचेरे भाईयों के बीच हुआ है। इसी तरह की और भी कई मिसालें हैं। जैसे बोस्नियायी मुसलमानों और सर्बों के बीच की शत्रुता। तीस प्रतिशत बोस्नियायी मुसलमानों की सर्बों से रिश्तेदायिाँ थीं। उनके शादी-ब्याह के सम्बन्ध थे। यह कोई कम संख्या नहीं है, तीस प्रतिशत, तब भी वहाँ नरसंहार हुआ और वह आखिरी बड़ा नरसंहार था।
उदयन- क्या आपने नरसंहार के बाद हिंसा करने वालों पर कोई शोध किया है ?
आशीष दा- हम कर रहे हैं। हमने कोई बारह लोगों से बात की है और वह हमारा प्रस्थान बिन्दु है। उन्होंने अक्सर कहा है कि वे सुखी हत्यारे नहीं हो सके। वे बड़े ताम-झाम के साथ बड़ी वीरता से यह कहते हैं कि उन्हें वह सब क्यों करना पड़ा। एक व्यक्ति ने तो हमसे बोल दिया था कि अगर हम उसे ‘नेशनलिस्ट’ नहीं मानते, वह हमसे मिलेगा ही नहीं। वह कोलकाता का था, नाम था गोपाल पाठा। पाठा वह नपुंसक बकरा होता है जिसे खाया जाता है। वह मर गया वरना मैं उससे ज़रूर बात करता। मदनलाल पाहवा ने भी मुझसे यही कहा था।
उदयन- मदनलाल पाहवा से आपकी और क्या बातचीत हुई थी ?
आशीष दा- शुरू में वह बड़ी-बड़ी बातें करता रहा। दरअसल, जब तक वह वयस्क हुआ, वह पूरी तरह हत्यारा हो चुका था। वह भारत शरणार्थी होकर आया था, उसमें बहुत कड़वाहट भरी थी।
उदयन- वह दिल्ली आया था ?
आशीष दा- पहले वह दिल्ली आया, वहाँ से बम्बई गया, फिर हैदराबाद। हर जगह वह दंगों में मुसलमानों की हत्याएँ कर रहा था। वह उस समय युवा था। शुरू में वो गाँधी के लिए बोला, ‘वो साला मार दिया गया है।’ गाँधी की हत्या के पहले ही उसे जेल भेज दिया गया था। वह गाँधी को मारने वालों के समूह का युवतम सदस्य था।
उदयन- उसी ने गाँधी की हत्या के पहले उनकी प्रार्थना सभा के निकट बम फेंका था...
आशीष दा- इसीलिए पुलिस ने उसे पकड़ लिया था। गिरफ़्तार होने के एक दिन बाद ही वो पुलिस के सामने बुलबुल की तरह सब कुछ गाने लगा था। उसने तुरन्त पुलिस को सब बता दिया, अपनी मित्र का नाम, चिट्ठियाँ जिनका आदान-प्रदान हुआ वगैरह। यह सब कुछ बम्बई के गृहमन्त्री को बता दिया गया था। उन्होंने भी इस सब पर विश्वास नहीं किया।
उदयन- मदनलाल पाहवा के बयानों पर ?
आशीष दा- नहीं। उन पत्रों पर जो इनके समूह के किसी सदस्य ने किसी प्रोफेसर को लिखे थे। केन्द्र के गृह मन्त्री वल्लभ भाई पटेल थे। वे बहुत शिथिल-मानस व्यक्ति थे। उनपर देश को चलाने की जो नयी ज़िम्मेदारी आ गयी थी, उसके विषय में उन्होंने तब तक कोई विचार नहीं किया था। इन सब लोगों को वह बूढ़ा व्यक्ति बोझ लगने लगा था जो पाकिस्तान को पचपन करोड़ रुपये लौटाने पर ज़ोर दे रहा था। चारों ओर हिंसा हो रही थी, नरसंहार हो रहा था, शरणार्थियों का ताँता लगा हुआ था। पहले दौर में दो करोड़ शरणार्थी आये थे। बाद में और भी आये। इस सब के बारे में पटेल और अन्य राजनेताओं ने कुछ सोचा ही नहीं था। उन्हें लग रहा था कि गाँधी शासन के कार्य में हस्तक्षेप कर रहे हैं। वे सभी राजसत्ता के विषय में एक तरह से सोचने के लिये तैयार किये गये थे। पटेल नेहरू की तुलना में कहीं अधिक देहाती जान पड़ते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि पटेल का परिवार नेहरू के परिवार की तुलना में कहीं अधिक पश्चिम-प्रभावित था। वल्लभ भाई पटेल अपने घर में किसी अँगे्रज़ की तरह रहते थे। उनके भाई विट्ठल भाई पटेल भी वैसे ही थे।
उदयन- आप मदनलाल पाहवा पर कुछ कह रहे थे...
आशीष दा- मदनलाल पाहवा की हालत बाद के वर्षों में, जब मैं उससे मिला, दारूण थी। उसका समाज में अपनी स्वीकार्यता पाने का प्रयास बेहद करुण था। वो कहता था कि उस उम्र में मैं वैसा था पर अब मैं मानवतावादी हूँ। दो-तीन मुलाकातों के बाद वह गाँधी के बारे में भी दूसरी तरह से बात करने लगा था। वह कहता था कि वे (गाँधी) महान नेता हो सकते थे पर वे मुसलमानों के पीर होना चाहते थे। साथ ही वह गाँधीवादी मूल्यों को पसन्द करने लगा था। जब मैं उससे मिला, वह जेल से बाहर आ चुका था और ग्लानि में डूबा था। पर वह उसे व्यक्त नहीं करता था क्योंकि तब तक वह दक्षिणपन्थियों का नायक बन चुका था। संकट के समय में जब आप भीड़ का उल्लास बन जाते हैं तभी आप नायक बनते हैं। ऐसे में आप विशेष समुदायों के नायक होते हैं क्योंकि आपने मसलन मुसलमानों को मारा है। लेकिन जब जीवन सामान्य हो जाता है तब यह हत्याएँ अपने हत्यारों का पीछा करती हैं, उनके चारों ओर मंडराने लगती हैं। जिन 6-7 इस तरह के लोगों से हम मिले थे, सभी की यही स्थिति थी अलावा एक व्यक्ति के। वह एक सरदार था। वह अलग आदमी था। उसका किस्सा ही अलग था। वह विभाजन के दंगों को युद्ध मानता था और कहता था कि उन्होंने हम पर हमला किया, हमने उनपर। उसने अपने को एक सेवानिवृत्त सैनिक मान रखा था। उसका नज़रिया अलग था क्योंकि उसके क़रीबी रिश्तेदारों की हत्या हुई थी और उसने भी लोगों को मारा था। उसके मन में मुसलमानों के लिए कोई कड़वाहट नहीं थी। ‘उन्होंने हमें मारा, हम उनसे लड़ लिये। बात खत्म, सच मानिये तो मैं अपने मुसलमान दोस्तों पर हिन्दुओं की तुलना में कहीं अधिक यकीन करता था।’ यह उसने साफ़-साफ़ कहा था।
उदयन- सिखों की जो हत्याएँ की गयी उन्हें क्या कहा जाएगा ?
आशीष दा- उसे नरसंहार केवल इसलिए कह सकते हैं क्योंकि उन्हें उनके सिख होने के कारण मारा गया था। अगर आप सिख समुदायों की कुल संख्या की तुलना केवल दिल्ली शहर में हुई उनकी 5000 हत्याओं से करें तो उसे नरसंहार कहना पड़ेगा।
उदयन- इस घटना में दो समाजों की क़रीबी और संहार के बीच क्या सम्बन्ध है ?
आशीष दा- वह क़रीबी सबसे अधिक महत्व की है। यही मैं कह रहा हूँ। हिन्दू सोचते हैं कि सिख वीर हैं, हिम्मती है और वे संरक्षक हैं आदि। सिख सोचते हैं कि अगर मैं हिन्दू हो गया, मेरा कोई हिस्सा छूट जाएगा। हिन्दू को सिख होने के लिए अपना कोई हिस्सा छोड़ना होगा। यह बात भी तो है। मुसलमानों के साथ भी यही है। मुझे किसी ने कहा कि उसे किसी विदेशी ने कहा है कि मुसलमानों का भगवान हिन्दुओं के भगवान से अधिक ताकतवर है इसीलिए हिन्दुओं को इतना कुछ सहना पड़ा। अब इस पर क्या कहा जाए! मुख्य बात यह है कि आप उनकी कुछ वृत्तियों को मूल्यवान मानते थे और वे आपकी कुछ वृत्तियों को। यह परस्पर विनिवेश और तादात्म्य की स्थिति है इसलिए जब इन दो समूहों के बीच कड़वाहट आ जाती है, तब यह परस्परता ही मुश्किल बन जाती है। इस समय आपको अपने आप का एक बड़ा हिस्सा नकारना पड़ता है ताकि आप शुद्ध हिन्दू या शुद्ध मुसलमान हो सकें। पर यह हो ही कैसे सकता है ? यह असम्भव है। जैसा कि सावरकर ने महाराष्ट्र में मराठी भाषा से सारे अरबी और फ़ारसी शब्द हटाने का प्रयास किया था। उसी से आर.एस.एस. की हिन्दी भी प्रभावित हुई जिसे आर.एस.एस. हिन्दी कहा जाने लगा। सावरकर ने मराठी में भी यह किया था। वे खुद भी वैसे ही लिखते थे। महाराष्ट्र में उसे आम तौर पर आर.एस.एस. हिन्दी ही कहते हैं पर इन्हें सारे अरबी-फ़ारसी शब्दों की पहचान नहीं है इसलिए उन्हें पूरी तरह से कैसे हटाएँगे। ‘अलमारी’ शब्द अरबी का है, यह कितनों को पता होगा ? जैसे ‘साबुन’ पुर्तगाली शब्द है। इस तरह के काम का कोई अन्त नहीं है। खुद ‘हिन्दू’ फ़ारसी शब्द है। यह इसलिए आया क्योंकि फ़ारसी भाषी ‘स’ का उच्चारण नहीं कर पाते थे। वे सिन्धु नहीं बोल पाए इसलिए उन्होंने सिन्धु के पास रहने वालों को हिन्दू कहा।
उदयन- यह भूगोल की ओर इशारा है। ‘हिन्दू’ वैसे भी मज़हब या रिलिजन नहीं है।
आशीष दा- चतुर्वेदी बद्रीनाथ इसीलिए हमारे जैसी सभ्यताओं को ‘धार्मिक’ सभ्यताएँ कहते हैं। यहाँ ‘धर्म’ शब्द बहुत महत्व का है। स्वधर्म, परधर्म। अगर किन्हीं अन्य का यानि किसी ‘पर’ का धर्म यानि परधर्म मार-पीट करना है तो उसे ‘मेरा’ धर्म या स्वधर्म क्यों होना चाहिए?
उदयन- इसका सम्बन्ध नैतिकता या ‘एथिक्स’ से अधिक है।
आशीष दा- साँपों का भी स्वधर्म है: डसना। वह उल्लू की तरह बैठा नहीं रहता।
उदयन- आपने एक जगह लिखा है कि हिंसा की आकांक्षा इन स्थितियों में इतनी गहरी हो जाती है कि वह आकांक्षा अपना विषय ढूँढती है, यह कैसे होता है ?
आशीष दा- हिंसा इधर-उधर घूमती फिरती है और वह अपना निशाना खोजती है क्योंकि आप उन चीज़ों के प्रति गुस्से से भर जाते हैं जिन्हें आप जानते नहीं। आप उसे पहचान नहीं पाते। अभी हाल में ‘पद्मावत’ फ़िल्म की मुख़ालिफ़त करते हुए कुछ लोगों ने बच्चों की बस पर पत्थर फेंके, यह घटना भी यही बता रही है कि वे लोग नाराज़ हैं पर उन्हें पता नहीं है कि वे किस बात से नाराज़ हैं। इसलिए बच्चों की बस उनके लिए एक तुरन्त उपलब्ध लक्ष्य हो गयी।
उदयन- सुरक्षित लक्ष्य भी...
आशीष दा- सुरक्षित लक्ष्य और यह लगभग मानसिक रोग है। इस तरह यह स्पष्ट ही है कि हिंसा का भाव पहले आता है और फिर वह अपना लक्ष्य खोज लेता है।
उदयन- उनके असन्तोष का कारण कोई भी चीज़ या स्थिति हो सकती है...
आशीष दा- वह कुछ भी हो सकता है, धुँधली-सी नाराज़गी ही। जैसे जब आप अपने पैतृक घर से अलग जा पड़े हों, शरणार्थी हो गये हों तब भी आप नाराज़ रहते हैं। एक अमरीकी शोधकर्ता ने यह पाया था कि शरणार्थी परिवारों के भीतर और बाहर अपेक्षाकृत अधिक हिंसा होती है।
उदयन- आप कह रहे हैं कि अनेक तरह के कारणों से उपजी हिंसा अपना लक्ष्य ढूँढती हैं...
आशीष दा- लेकिन यहाँ महत्वपूर्ण यह है कि हिंसक व्यक्ति या व्यक्तियों को ये कारण पता नहीं होते। आप जानते नहीं हैं कि आप नाराज़ क्यों हैं, कि आप अलगाव क्यों महसूस कर रहे हैं, कि आपमें यह स्थायी किस्म की कड़वी झुँझलाहट क्यों है, कि आप अपनी पत्नी को क्यों पीट रहे हैं, या बच्चों को, ऐसा साल दर साल क्यों चल रहा है। एक दिन अचानक आप क्यों फट पड़ते हैं।
उदयन- इसका अर्थ यह हुआ कि जो शक्तियाँ नेशन स्टेट का निर्माण करती है या जनसाधारण को ‘हिस्ट्री’ के विमर्श में डालती है और उनकी अस्मिताएँ गढ़ती हैं, उन्हें लोग पहचान नहीं पाते और अचानक समुदायों के सदस्यों में साम्प्रदायिकता की (एथनिक) भावना उत्पन्न हो जाती है और वे अलगाव महसूस करने लगते हैं। वे इन सारी प्रक्रियाओं को समझ नहीं पाते, उनके भीतर असन्तोष पैदा होता है और वे उसके कारण कहीं और ही खोजने लगते हैं मसलन फ़िल्म ‘पद्मावत’ में।
आशीष दा- हमारे समक्ष एक ऐसा भी प्रसंग आया जहाँ पति शराबी था और उसके गुस्से के कारण समस्या हुई। चारों ओर दंगे चल रहे थे। वह पहले अपनी बीवी पर नाराज़ हुआ फिर उसने अपने दो छोटे बच्चों को छत से नीचे फेंककर मार डाला। जब उससे पूछताछ की गयी, उसने कहा मुसलमानों ने उन्हे मार दिया। उसकी पत्नी ने यह सारा किस्सा बताया था।
उदयन- नवज्योति सिंह ने यह कहा है कि स्वतन्त्रता आन्दोलन में भारतीय दार्शनिक परम्परा के धारक या भारत की शास्त्र परम्परा के धारक अध्येताओं को स्थान नहीं मिल सका। आप इस बारे में क्या सोचते हैं?
आशीष दा- हाँ, नहीं मिला। पर वह सायास था, वह पहले भी नहीं हुआ था। कहा जाता है कि विवेकानन्द ने इसका प्रयास किया था पर यह पूरी तरह सच नहीं है। उन्होंने यह प्रयास बहुत सीमित अर्थों में किया था: उन्होंने यह कुछ धार्मिक आन्दोलनों के सन्दर्भ में किया था, इससे अधिक नहीं।
उदयन- क्या आप समझते हैं कि शास्त्रियों के स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग न लेने का कारण शास्त्रियों का अपना निर्णय रहा होगा ?
आशीष दा- अंशतः यह सही है। हमारे शास्त्री हमेशा ही प्रभुता के पक्ष में रहे हैं, वह प्रभुता किसी की भी रही हो। यह स्वाभाविक सम्बन्ध माना जाता था क्योंकि उन्हें शासकों से ही अपनी प्रभुता प्राप्त होती थी चाहे वह मुसलमान नवाब ही क्यों न हों। एक जर्मन अध्येत्री आन्द्रे त्रुश्के ने दो ज़िल्दों में अपना शोध प्रबन्ध लिखा है: ‘संस्कृत एट द मुगल कोर्ट’। वे अब जर्मनी के रुटजर्स विश्वविद्यालय में हैं। उससे पता चलता है कि उन दरबारों में कितनी जीवन्त चर्चा होती थी और वह कई भाषाओं में हुआ करती थी। चूँकि इस बीच मुगलों का भारतीयकरण हो चुका था। चीन में यह हुआ था कि जो लोग चीन के बाहर से आये थे, वे दो पीढ़ियों के बाद पूरी तरह चीनी हो गये थे। इसी तरह यह जानना चाहिए कि अकबर की मातृभाषा भोजपुरी थी।
उदयन- इसके बाद भी यह बात तो बनी ही रहती है कि पारम्परिक शास्त्रियों की अन्तर्दृष्टियाँ आधुनिक भारतीय बौद्धिक विमर्श का हिस्सा नहीं बन सकीं...
आशीष दा- नहीं बन सकीं। वे शामिल हुई भीं तो बिल्कुल पालतू किस्म की संस्कृत में। लेकिन वह हिस्सेदारी अलग तरह की ही है। अँग्रेज़ों ने दरअसल संस्कृत अध्ययन को अपेक्षाकृत कहीं अधिक समर्थन दिया था। जैसा कि उनके पहले के मुगल साम्राज्य ने भी किया था। कलकत्ता के फोर्ट विलियम काॅलेज में कई शास्त्री प्रोफे़सर बनाये गये थे और आचार्य मृत्युंजय तर्कालंकार ने यह कहा कि मनु संहिता हिन्दुओं का प्रमुख ग्रन्थ है और वे यह कहकर सती प्रथा को बचाने का प्रयास कर रहे थे पर उसका परिणाम यह निकला कि हिन्दुवाद ही सती प्रथा के लिए ज़िम्मेदार ठहरा दिया गया जबकि वह हिन्दुओं के बहुत छोटे से अंश में प्रचलित थी, उनमें से ज़्यादातर घटनाएँ शहरी कलकत्ता से सम्बन्धित थीं।
उदयन- बनारस के सारे शास्त्री जिनकी श्रेष्ठ विद्वान होने की कीर्ति बींसवी सदी के आरम्भ तक थी, लगभग खत्म हो गयी। अब उनके लिए कोई जगह शायद ही बाकी हो।
आशीष दा- अब स्थिति यह है पर यह नहीं भूलना चाहिए कि संस्कृत काॅलेज की स्थापना अँग्रेज़ों ने की थी और वह कोरिन्थियायी स्तम्भों से बनी खूबसूरत इमारत है जिससे पता चलता है कि अँग्रेज़ इस काॅलेज को कितना महत्व देते थे। लेकिन वहाँ भी अँगे्रज यहाँ की बहुवचनात्मकता नहीं समझ पाये। अगर मृत्यंुजय तर्कालंकार ने कुछ कहा था तो इसके अलावा भी मत थे, इस पर ध्यान नहीं दिया गया। उन लोगों ने चैन्नई से एक संस्कृत पण्डित को बुलाकर उससे राममोहन राय का सार्वजनिक शास्त्रार्थ कराया था। राममोहन राय ने उसे पराजित किया था जिसे सारे उपस्थित पण्डितों ने स्वीकारा था जिनमें से कई सतीप्रथा के समर्थक थे।
उदयन- स्वतन्त्रता आन्दोलन में देश के कारीगरों के साथ क्या हुआ था ?
आशीष दा- असल में नुकसान उन्हें हुआ था। वह दरअसल कौशल की हत्या (टेक्नोसाईड) थी। उनमें जिजीविषा का अभाव हो गया था। कारीगर ज़्यादातर नीची जातियों के थे और वे अलग-अलग तरह के सम्प्रदायों से आते थे और स्थानीय बोलियों का व्यवहार करते थे। अपने कौशल का उनके पास कोई सिद्धान्त नहीं था। वह शुद्ध ‘टेक्ने’ था, ‘एपिस्टिम’ नहीं। उनकी स्थिति करुण है। उन्हीं का स्वतन्त्र भारत में सबसे अधिक नुकसान हुआ है।
उदयन- कारीगरों पर एक हमला यूरोप की औद्योगिक क्रान्ति के कारण भी हुआ था जो अपनी सार्वभौमिक (एकसी) डिज़ाइन की वस्तुएँ पूरी दुनिया में भेज रहे थे जिससे वे सारे हाट जिनमें हमारे कारीगर अपनी बनायी वस्तुएँ बेचते थे, विस्थापित हो गये। लेकिन कारीगरों का यह अलगाव स्वतन्त्रता आन्दोलन में भी जारी रहा।
आशीष दा- कुछ नेताओं ने उनका विरोध अवश्य किया था पर गाँधी कारीगरों के हित को आन्दोलन में लाये। बहुत बड़े स्तर पर जो अभी कुछ दो-तीन वर्ष पहले तक चलता रहा। तब तक चलता रहा जब तक मौजूदा सरकार ने मसलन गाँधी से जुड़े खादी ग्रामोद्योग से जुड़े लोगों को यह आदेश नहीं दिया कि वे अपने उद्योग की वित्तीय आवश्यकताओं को स्वयं पूरा करें। लोग इसके विरुद्ध लड़ रहे हैं पर यह हारी होड़ है खासतौर पर तब जब हम यह देख रहे हैं कि चीन में हाथ का बना कपड़ा ख़त्म हो गया। वह मोटा कपड़ा होता था जो भारत में बहुत सस्ता मिलता था। वह परिष्कृत कपड़ा नहीं था। मेरे पास उस कपड़े की तीन पोशाकें हैं जिनमें से एक कच्ची रेशम (राॅ सिल्क) की भी है और वे सभी मैंने शांघाई की एक दुकान से खरीदी हैं। चीन में हाथकरघा नष्ट हो चुका है जो थोड़ी बहुत जगहें बाकी हैं, उन्हें ‘आर्टिस्ट स्टूडियो’ की तरह चलाया जाता है। मैंने जिस दुकान से वे कपड़े लिये थे, उसे एक जापानी महिला चलाती थीं। उन्होंने वह दुकान चीनी हाथकरघा कारीगरों की करुण स्थिति देखकर खोली थी। जब वे बूढ़ी हो गयीं, उन्होंने वह दुकान कारीगरों की सहकारी संस्था को सौंप दी और खुद जापान वापस चली गयीं। जब मैं उस दुकान पर बिल चुकाने लगा, मेरे दोस्त की पत्नी, जो मुझे वहाँ लेकर गयी थीं, दौड़ती हुई आयीं और उन्होंने मेरे हाथ से बिल छीन लिया पर इस बीच मैं बिल पढ़ चुका था: वह हाथकरघा का कपड़ा सिल्क से अधिक मँहगा था। क्योंकि वह बहुत कम बनता है और लगभग सारे कपड़े नीले रंग के होते हैं। अलग-अलग नीले रंगों के।
उदयन- वह शायद इसलिए होगा क्योंकि साम्यवादी चीन में शायद मज़दूरों आदि की पोशाक नीली होती थी। भारत और चीन सम्भवतः ऐसे आखिरी देश होंगे जिनमें हाथकरघा उद्योग बचा रहा होगा...
आशीष दा- भारत इस उद्योग को कब तक बचा सकेगा, मैं कह नहीं सकता। वे इसे मारने के प्रयास में लगे हैं।
उदयन- ऐसे में भारत में लोकगीतों और नृत्यों की क्या नियति होगी ?
आशीष दा- आधुनिक भारतीयों ने प्रोसीनियम रंगमंच पर उनका पुनर्वास कर लिया है जबकि ये कलाएँ ग्रामीण लोगों के जीवन में आनुष्ठानिक महत्व की थीं। चीन में भी यही हुआ है। मुझे वहाँ नाक्सी गाँव ले जाया गया, जो कुंग, ‘सब चाईना’ के क़रीब है। मैंने वहाँ उनके आनुष्ठानिक नृत्य और दूसरे आनुष्ठानिक प्रदर्शन देखें। मैंने पूछा कि, ये लोग क्या कर रहे हैं ? तुम्हें ज़वाब सुनकर आश्चर्य होगा: वे बोले, ‘ये कुछ नहीं कर रहे! आपके पहले यहाँ जापानी आये थे, उनके सामने भी यहीं सब हुआ था, अब आपके सामने हुआ है। आपके जाने के बाद सैलानियों का कोई और समूह यहाँ आयेगा और ये लोग उनके सामने भी यही सब करेंगे। यह थोड़ा-बहुत बदल भी जाता है पर शाम तक यही होता रहता है।’ वे लोग अलग-अलग तरीकों से अपने को नाक्सी बताने की चेष्टा कर रहे थे और कुछ नहीं।
उदयन- यानि विशुद्ध अस्मिता प्रदर्शन था।
आशीष दा- बिल्कुल। मुझे बहुत निराशा हुई। दोपहर के भोजन के दौरान वे लोग नाक्सी गाने सुनाते रहे। जो दस-बारह गाने उन्होंने सुनाये, वे सभी राग मालकौंस में थे। मेरे लिए यह दिलचस्प खोज थी। हो सकता है राग मालकौंस वहाँ से आयी हो। यह राग औड़व जाति की है यानि इसमें पाँच स्वर होते हैं, चीनी संगीत भी पाँच स्वरों का होता है।
उदयन- यह भी हो सकता है कि कुछ बौद्ध जाप मालकौंस के क़रीब के हों और उन जापों के सहारे यह राग वहाँ पहुँची हो।
आशीष दा- यह सम्भव है। लेकिन नाक्सी पूरी तरह बौद्ध नहीं हैं, उनके आदिवासी देवी-देवता होते हैं। मुझे वहाँ यही लगा था।
उदयन- अधिकांश आदिवासी अब कहने भर को हैं। मैं पहाड़ी कोरबाओं से मिलने कई साल पहले गया था। मैंने पाया कि उनका अपने सत्य से, पेगन सत्य से सम्बन्ध लगभग टूट-सा गया है। वे फोटोग्राफरों, फ़िल्मकारों के सामने पहाड़ी कोरबा हो जाते हैं। वे शहर में रहने वालों जैसे ही होकर रह गये हैं अपेक्षाकृत कहीं अधिक गरीब।
आशीष दा- भारत के अस्सी आदिवासी समुदाय अब लगभग आदिवासी नहीं रह गये हैं। वे ‘डीट्रायबलाईज़’ हो गये हैं। उनकी ज़िन्दगी आदिवासियों की-सी नहीं है। वे आदिवासी सिर्फ़ आरक्षण और शासकीय आँकड़ों के लिए हैं। उनका कोई आदिवासी सामुदायिक जीवन भी नहीं है। वे बिखर गये हैं और शहर की बेनाम ज़िन्दगी में खो गये हैं। यह भारत के एक तिहाई आदिवासी समुदाय हैं, भारत में कुल दो सौ पचास के क़रीब आदिवासी समुदाय हैं।
उदयन- इन दिनों जो देश में जगह-जगह दलित आन्दोलन चल रहे हैं, उन्हें समझना मुश्किल हो रहा है। हर जन आन्दोलन का एक आदर्श, एक युरोपिया होता है। इन दलित आन्दोलनों का क्या युटोपिया हो सकता है ?
आशीष दा- उनका कोई विशेष युटोपिया नहीं है। उनके नेता सोचते हैं कि उनकी आत्म-आग्रहीता (सेल्फ असर्शन) की यह माँग है कि वे कहें कि वे अँग्रेज़ी शिक्षा के पक्ष में हैं, कि वे महात्मा मैकाले के भक्त हैं और भारतीय सभ्यता के पास उन्हें देने कुछ नहीं है। उनके ये स्पष्ट विचार हैं। दलितों के उत्पीड़न का इतिहास तीन हज़ार साल पुराना है। यह बात अलग है कि प्राचीन पोथियों में केवल दो वर्ण मिलते हैं, ब्राह्मण और क्षत्रिय। उनकी यह समझ दुखद है पर वह वही है। यही उनका लोकप्रिय मिथक है। आपको लगता है कि आप 2008 से प्रयास शुरू करेंगे और दस साल में ब्राह्मणों और दूसरी ऊँची जातियों के बराबर आ खड़े होंगे। यह दारुण है। वे यह कर नहीं सकते।
उदयन- और वह भी अँग्रेज़ी के रास्ते...
आशीष दा- अभी पाँच प्रतिशत लोग अँग्रेज़ी बोलते हैं फिर दस या पन्द्रह प्रतिशत बोलने लगेंगे, इससे क्या होगा ?
उदयन- पर क्या हमारे देश में कोई युटोपिया बाकी भी है ?
आशीष दा- आज के भारत से सारे युटोपिया चोरी चले गये हें। मसलन हमारा आज युटोपिया यह है कि हम आगे जाकर वह हो जाएँ, जो अमरीका आज है।
उदयन- आपने एक जगह लिखा है कि हमारा अतीत और भविष्य चुरा लिया गया है और यही हमारा सबसे बड़ा संकट है।
आशीष दा- हमारा वर्तमान भी चोरी हो गया है क्योंकि वर्तमान अतीत और भविष्य का प्रतिफल होता है। अतीत की चोरी इस तरह हुई कि हम अपने अतीत के विषय में अलग ढंग से सोचने में अक्षम हो गये हैं। हमारे अतीत का ‘हिस्ट्रीकरण’ हो गया है और बड़े से बड़े अध्येता भी इस बारे में सजग नहीं है।
उदयन- इनमें वामपन्थी, दक्षिणपन्थी और दलित सभी तरह के अध्येता शामिल हैं।
आशीष दा- ये सभी सोचते हैं कि उनका अतीत ही असली अतीत है। हमारा अतीत दलितों के अतीत को शामिल नहीं करता, उसमें दलितों की टेकनाॅलाजी का इतिहास नहीं है जबकि वह भारत के अतीत का अभिन्न अंग है तब भी हमने उसे मूल्यवान नहीं माना। इसीलिए अब दलितों के मत में हमारा अतीत मूल्यहीन है। उन्हें इस अतीत से घृणा है। इसलिए जब एक हिन्दी फ़िल्म के गाने में ‘मोची’ शब्द का प्रयोग हुआ तो चर्मकारों ने कहा कि ये उनकी जाति का अपमान है और इस शब्द को हटाना पड़ेगा और उसे हटाना पड़ा। जबकि ‘मोची’ नाम की एक अन्तर्राष्ट्रीय कम्पनी भारत में और भारत के बाहर जूते बेचती है। मैंने उस कम्पनी के जूते बांग्लादेश में बिकते देखे हैं। अभी हाल में मैंने उन जूतों की दुकान कोलकाता में देखी थी, वह ब्रांड आजकल चलन में है, उसके जूते आदि महँगे भी होते हैं।
उदयन- क्या अब हमारी सभ्यता एक तरह के शून्य में है ?
आशीष दा- कई लोगों के अनुसार सभ्यता अपने में ही एक विध्वंसक (सबवर्सिव) शब्द है। सभी जानते हैं कि हम एक महान सभ्यता हैं, इसमें नया क्या है ? मैं यह कहना चाहता हूँ कि हम अपने प्रपौत्रों के लिए भविष्य के कुछ दृश्य प्रस्तावित क्यों नहीं करते। तुम मुझे बताओ कि उनसे क्या कहा जा सकता है। मैं ‘सभ्यता’ शब्द का प्रयोग ज़्यादा नहीं करता। मैं ‘संस्कृति’ का प्रयोग करता हूँ। हालाँकि सभ्यता को संस्कृति के ऊपर रखा जाता है। दरअसल सभ्यता संस्कृतियों का विन्यास होती है। सभ्यता में जो भी दोष या रोग उत्पन्न होता है, संस्कृति उसमें सुधार ले आती हैं। कई सांस्कृतिक धाराएँ हुआ करती हैं और वे जीवन्त होती हैं और सभ्यता के दोषों को समझकर उनमें सुधार करती हैं। इसीलिए मुझे भारत में वर्तमान शासक दल के आने पर चिन्ता नहीं है। यह अच्छा है कि यह दल शासन कर रहा है क्योंकि इससे वह शासन करने के दायित्व को जान सकेगा। जाने से पहले इसके लोग इस दायित्व को सीख जाएँगे। मेरा विश्वास है कि वे जाएँगे। हमेशा ही ऐसा हुआ है। लोगों को यह याद नहीं है कि इनके भी दिन आये थे, बीसवीं सदी के पहले दशक में।
उदयन- किनके ?
आशीष दा- उनके जिन्हें आमतौर पर लोग दक्षिणपन्थी हिन्दू कहते हैं। दरअसल वे हिन्दू दक्षिणपन्थी नहीं हैं, उन्हें कुछ और कहना चाहिए। वह कुछ हिन्दुओं का अपनी निम्नता की अनुभूति को हटाने के लिए किया गया हिंसक प्रयास था। अगर आप आर.एस.एस., सावरकर आदि की पुस्तकों को ध्यान से पढ़ें और उनके इशारों को समझने का प्रयास करें, आप पाएँगे कि उनमें हिन्दुओं के प्रति कितना अधिक तिरस्कार का भाव है और वे मुसलमानों और ईसाइयों के प्रशंसक हैं, ईसाइयों के अधिक।
उदयन- इसीलिए वे यह कहते रहे कि हिन्दुओं को ये खाना चाहिए, वो खाना चाहिए, उन्हें कहीं अधिक मर्दाना होना चाहिए....
आशीष दा- यही सब। बंगाल के हिन्दुओं में विद्रोह का पहला संकेत गाय का माँस खाना था और हड्डियों को पारम्परिक घरों में फेंकना था।
उदयन- ताकि वे अपने स्त्रैणपन को हटा सकें....
उदयन- आपने कहा है कि सार्वजनिक मूल्यों के स्रोत करुणा, कलात्मक सौन्दर्य और रीज़न में होते हैं। आपने जापान का उदाहरण भी दिया है जहाँ कलात्मक सौन्दर्य ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। क्या आप इस पर कुछ विस्तार से कहेंगे।
आशीष दा- यह कहा जा सकता है कि सार्वजनिक मूल्य कलात्मक सौन्दर्य, रीज़न और आदर्शों से आते हैं। कलात्मक सौन्दर्य कुछ मूल्यों को हटाने का कार्य करते हैं, मसलन हर विचार धारा एक डिज़ाईन प्रस्तावित करती है, आप उसके सौन्दर्य से ही प्रभावित होते हैं मसलन समाजवादी यूरोपिया में सम्पूर्ण समानता का आश्वासन एक सुन्दर प्रस्ताव है। यह सौन्दर्य ही आपके मूल्यों को प्रेरित करता है और तब यह विचार आता है कि सभी पश्चिमीकृत अभिजात लोगों को खत्म कर दिया जाए। कम्यूचिया में यही हुआ था, वहाँ केवल दो सौ सतासी बेहतर पढ़े-लिखे लोग बचे थे। मैंने एक बार कोशिश की कि कोई कम्यूचियायी अध्येता ही वहाँ हुए नर संहार पर लिखे तो मुझे ज़वाब मिला कि हम किसी को यह सब इतिहास लिखने को प्रेरित करें या उसे शिक्षा मन्त्री या विश्वविद्यालय का कुलपति बनाने का प्रयत्न करें। उनके पास पढ़े-लिखे लोग ही नहीं बचे। सारे देश में केवल दो सौ सतासी लोग बचे थे। ऐसी स्थिति में अगर आपके पास विज्ञान की डिग्री हो तो आप किसी विज्ञान विश्वविद्यालय के कुलपति बन सकते थे या किसी तकनीकी विश्वविद्यालय के। कम्यूचिया के नरसंहार के विषय में विदेशियों ने लिखा है। मैं यह कह रहा हूँ कि सौन्दर्यात्मक चयन इतना निष्ठुर भी हो सकता है। यह विचार इसलिए पुष्ट हो सका क्योंकि पाॅल पाॅट और कई अन्य पेरिस के सोर्बोन विश्वविद्यालय में पढ़े थे और वहीं उन्होंने माक्र्सवाद पढ़ा और माक्र्सवादी स्वर्ग का सौन्दर्य भी उन्होंने वहीं सीखा था जिसे उन्होंने पूरी कठोरता से लागू किया। जब भी ऐसा किया जाता है, आप स्थानीय झगड़ों, विभाजनों, प्रतिस्पधर््ााओं आदि सबको अनदेखा करते हैं।
उदयन- इस अनदेखी से यह सम्भव हो जाता है कि लोग विचारधारा की आड़ में अपने हिसाब चुका लेते हैं।
आशीष दा- स्तालिन या ख्रुश्चेव के समय का एक पत्र व्यवहार सोवियत यूनियन में प्रकाश में आया था। कोई नौकरशाह एक दूरस्थ प्रान्त के अफ़सर को लिख रहा है कि तुम्हारे इलाके में पचासी हज़ार क्रान्ति विरोधी लोग काम कर रहे हैं। इसका वहाँ से ज़वाब आया, ‘कामरेड हम इस मसले की छानबीन कर आपको रपट देंगे।’ कुछ महीनों बाद रपट आती है, सभी पचासी हज़ार क्रान्ति विरोधी मार दिये गये हैं। कौन लोग थे जिन्हें मार दिया गया, किन्होंने मारा, क्यों मारा, उन्हें यह कैसे पता चला कि वे क्रान्ति विरोधी थे। मारने वालों के पास कोई आँकड़े नहीं थे। मारे गये लोगों में कितने लोग मारने वाले लोगों के अपने ज़ाती दुश्मन थे ? इस बारे में कोई नहीं जानता। लेकिन यही हुआ करता है।
उदयन- क्या यह कहा जा सकता है कि विचारधाराएँ जिन सौन्दर्यात्मक मूल्यों के ढाँचों को ओट लेती हैं, वे वास्तविक कलात्मक सौन्दर्य मूल्यों को विस्थापित कर देते हैं। विचारधाराओं के सौन्दर्यात्मक मूल्य एकांगी होते हैं जबकि कलात्मक मूल्य हमेशा ही दुविधापूर्ण होते हैं...
आशीष दा- सौन्दर्यात्मक मूल्य हमेशा ही दुविधापूर्ण नहीं होते। वे कई बार बहुत आग्रही भी होते हैं। सौन्दर्यात्मक मूल्य किन्हीं आदर्शों के प्रति बहुत आग्रहपूर्ण भी होते हैं। आप जो भी करें, रूप के स्तर पर मधुबनी चित्र, मधुबनी चित्र ही रहेंगे। खतरा तब पैदा होता है जब आप यह आग्रह करने लगें कि वास्तविक लोगों को भी मधुबनी चित्रों के चरित्रों की तरह ही होना चाहिए, भले ही वे इसके लिए प्लास्टिक सर्जरी करा लें। यह नार्सिसिस्टिक दृष्टिकोण हो सकता है। जापान में यह बहुत है। मैंने ‘कामीकाज़ी विमानकों’ के बारे में पढ़ा है। वे आरम्भिक आत्मघाती हमलावर थे। वे अपने विमानों को बम सहित दुश्मन के पोत में घुसा देते थे। वे भाप के जहाज़ों की चिमनी में अपने विमान को घुसाकर विस्फोट कर देते थे और सारे जहाज़ में आग लग जाती थी। दूसरे विश्वयुद्ध में इस तरह कई लोग मरे और मारे गये। मैंने उनके इन कृत्यों का वर्णन पढ़ा है। वह इस तरह होता है: वे ऐसे गिर रहे थे जैसे आकाश से चेरी के फूल। जापान में चेरी की मंजरियाँ सुन्दरता को बताती है। विमान चालकों के अभिभावकों को इसी तरह की भाषा में शोकपत्र भी लिखे जाते थे। यह दूसरी तरह का सौन्दर्यीकरण है। सेप्पकू और हाराकरी की भी इसी तरह, फूलों के खिलने आदि से उपमा दी जाती थी। उसकी सुन्दरता का बखान किया जाता था।
उदयन- संस्कृत के महाकवि भास के नाटक में भी युद्धभूमि में क्षत-विक्षत योद्धा का शरीर अशोक के फूलों की तरह वर्णित किया गया है।
आशीष दा- वह अलग बात है। क्योंकि वैसा वर्णन कवि का अधिकार है। वह सांस्कृतिक जगत का हिस्सा है। जिस तरह केवल सौन्दर्यीकरण खतरनाक हो सकता है, वैसे ही केवल रीज़न भी अकेले लागू किये जाने पर खतरनाक होता है। रीज़न भी बीमारी बन सकता है। मैंने तुम्हें इसका उदाहरण दिया था कि 1920 के दशक में चिकित्सकों ने उन लोगों को मारने का अधिकार अपने हाथ में ले लिया था जिनमें, उनके अनुसार, जीने की सामथ्र्य नहीं थी। मानों वे साक्षात् ईश्वर हों।
उदयन- आपने जो फ्रांसिस बेकन का मुर्गी को बर्फ़ खिलाने का उदाहरण दिया था, वह भी रीज़न की सीमा बताता है।
आशीष दा- उसकी दूसरी व्याख्या है। वह शायद अप्रमाणिक कहानी है, लेकिन वह खूबसूरती से रीज़न की सीमा को दर्शाती है, हालाँकि वहाँ रीज़न चुटकुले में तब्दील हो गया है। क्योंकि कोई भी होशियार आदमी यह पहले ही बता सकता था मुर्गी को बर्फ़ खिलाने से वह मर जायेगी। पर वही बेकन ने किया और बर्फ़ के अपने स्वास्थ्य पर हुए असर के कारण वह खुद भी मर गये। इसका कहीं अधिक बड़ा उदाहरण वो सात-आठ लाख पशु हैं जिन्हें छात्रों को पढ़ाते समय प्रयोगशालाओं में मार डाला जाता है। चिकित्सा महाविद्यालयों में ज़िन्दा मेंढ़कों को चीरकर पढ़ाया जाता है।
उदयन- कुछ बड़ी कक्षाओं में कुत्तों का भी डिसेक्शन किया जाता है।
आशीष दा- एक सौ पैंतीस छात्रों को एक सौ पैंतीस ज़िन्दा मेढ़क देने की क्या ज़रूरत है ? आप सारे छात्रों को छः या सात के समूहों में क्यों नहीं बाँट सकते थे। ऐसा करने से मेंढ़कों को एक बटे छः या सात भाग कम मारना पड़ेगा। मानो ख़ुद मेंढ़क की चीरफाड़ करना कोई बड़ी बात हो।
उदयन- सारे मेंढ़कों के जीवित रहते हुए उनकी स्पाईनल काॅर्ड नष्ट की जाती है, उसके परिणामस्वरूप वे पूरी तरह शिथिल हो जाते हैं और जब उनकी चीर-फाड़ की जाती है, वे जीवित ही रहते हैं।
आशीष दा- और अमरीकी विश्वविद्यालयों के आँकड़ों के अनुसार ऐसे मेंढ़कों की संख्या जैसा कि मैंने बताया प्रतिवर्ष तीन-चार लाख होती है, केवल अमरीकन विश्वविद्यालयों में।
उदयन- आपकी दृष्टि में पारम्परिक भारत में सार्वजनिक मूल्यों के स्रोत क्या रहे हैं, क्या वे पश्चिम के ऐसे ही स्रोतों से भिन्न रहे हैं ?
आशीष दा- वे अलग-अलग सम्प्रदायों में अलग-अलग रहे हैं। पर कुल मिलाकर भारत में संरचनात्मक या संस्थानीकृत हिंसा सीधी हिंसा की तुलना में कहीं अधिक है। हालाँकि हाल के वर्षों में स्थितियाँ कुछ बदली हैं जिससे हम हतप्रभ रह गये हैं। लेकिन यह हतप्रभ रह जाना भी हमारी इस स्थिति का संकेत भी है कि हमें खुली हिंसा की आदत नहीं है। नक्सलवादी हिंसा की चरम स्थिति के समय मैंने पाया कि नक्सलवादियों के हाथों मारे गये लोगों और पुलिस के हाथों मारे गये नक्सलियों का कुल आँकड़ा शिकागो या डेट्राईट में उस समय सामान्यतः मारे गये लोगों की संख्या से कहीं कम था।
उदयन- ऐसा क्यों है ? क्या इसलिए कि यहाँ करुणा अधिक है ?
आशीष दा- मेरा सोचना यह है कि भारत हमेशा ही हिंसक देश रहा है। मेरे एक जापानी अध्येता मित्र मुझे बता रहे थे कि जापान में निष्ठा, अनुशासन, व्यवस्था आदि सारे मूल्य इसलिए आये क्योंकि जापान बहुत अव्यवस्थित था और हर दिन किसी न किसी की हत्या कर दी जाती थी, क्योंकि वहाँ निष्ठा नाम की कोई चीज़ नहीं थी इसलिए स्वाभाविक रूप से जापान कुछ अधिक ही अनुशासित, संगठित, व्यवस्थित, अधिक ही विनयशील समाज बन गया।
उदयन- क्या ऐसा ही हिंसा के सन्दर्भ में हम भारतीयों के साथ हुआ है ?
आशीष दा- भारत की स्थिति अलग है, एक समय में यहाँ हिंसा पूरी तरह छिपी हुई भी नहीं थी और ढाँचों के बाहर की हिंसा भी बहुत थी। मारवाड़ी साहूकार कितने भी नृशंस हो सकते हैं लेकिन वे चीटियों को खाना खिलाते हैं और दावा करते हैं कि वे निष्ठावान जैन हैं। कहानी का यह पहलू भी है। जाॅन वाॅल्टन पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने ढाँचागत हिंसा (स्ट्रक्चरल वायलेंस) प्रत्यय का इस्तेमाल किया था। वे मानते थे कि अगर किसी समाज (मसलन रेड इण्डियन्स की) के सदस्यों की सम्भावित औसत आयु पचहत्तर है और बाकी समाज की सौ वर्ष है जैसी उदाहरण के लिए प्रभुतासम्पन्न गोरों की अमरीका में है तो वे यह मानकर चलेंगे कि हर चार में से एक रेड इंडियन को मारा गया है। यह न्यायसंगत लगता है। भारत में भी यह है। मैं जातिगत सम्भावित औसत आयु की दरों के आँकड़े देखना चाहूँगा। इसीलिए जापान की मिसाल के आधार पर देखें तो भारत ने पिछले तीन हज़ार सालों में ईसा पूर्व एक हज़ार साल पहले जैन तीर्थंकर फिर ईसा पूर्व पाँच सौ में बुद्ध से लेकर हमारी शती तक गाँधी जैसे लोग उत्पन्न किये हैं। यह इसलिए हुआ होगा क्योंकि हम हिंसक रहे हैं। इसका उलट नहीं हो सकता। इसीलिए गाँधी को यहाँ पूरी तरह, कभी भी, स्वीकार नहीं किया गया। विशेषकर समाज के नेताओं द्वारा, उच्च वर्गों द्वारा, जो समाज को बाँधकर रखते थे, ब्राह्मणों द्वारा, कुछ हद तक क्षत्रियों द्वारा। 1930 के बाद गाँधी कभी गुजरात वापस नहीं गये। आरम्भ में यह लगा था कि वे महाजन संस्कृति में खप जायेंगे पर बाद में समझ में आया कि वे अप्रत्याशित व्यक्तित्व हैं और वे कुछ और ही कर रहे हैं और उनकी वंशावली कुछ अलग ही है। वह नाटक जो गोडसे को सही ठहराता है और जिसका मुम्बई में बहुत विरोध हुआ था, वह उसके पहले दो साल तक गुजरात में दिखाया जाता रहा और किसी ने इस पर कोई आपत्ति नहीं की थी। मुम्बई में भी इसका सबसे पहले स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी और भारत छोड़ो आन्दोलन में शामिल उषा मेहता ने विरो किया था और उसके बाद यह विरोध बढ़ गया, उसमें मराठा शामिल हो गये, उन्हें चितपावन ब्राह्मणों पर हमला करने का अच्छा बहाना मिल गया।
उदयन- गाँधी के हस्तक्षेप से भारत के भक्ति आन्दोलन की याद आना स्वभाविक है। आपने भक्ति आन्दोलन के विषय में गहन विचार किया है। आपके अनुसार उसने किस तरह वह रूप लिया, जिससे हम सब आज उसे जानते हैं।
आशीष दा- मेरे अनुमान से भक्ति आन्दोलन सात-आठ सौ वर्ष पहले शुरू हो गया था। बौद्ध धर्म में धीरे-धीरे कठोर ब्राह्मणवादी अनुष्ठानों का प्रवेश हो गया था, जिनमें कुछ हिंसक अनुष्ठान भी शामिल हो गये थे। ब्राह्मणवादी कठोरता की स्वयं की गयी या देखी गयी हिंसा से दूरी बनाये रखने की सामथ्र्य की सीमा और इस पर उस समय निम्न वर्णों तक फैल गयी बौद्ध दृष्टि के प्रतिपक्ष के कारण ब्राह्मणवादी सभ्यता और उसके प्रतिपक्ष के बीच नैतिक और बौद्धिक अन्तराल उत्पन्न हो गया। इस प्रतिपक्ष में न सिर्फ़ बौद्ध दृष्टि थी बल्कि इस्लाम का भी एक अंश था जो सूफ़ी मत के साथ आया था। वह इस शक्तिशाली ढंग से इसलिए आया था क्योंकि भारत के कई हिस्सों में वैष्णव और बौद्ध मतावलम्बी हमेशा निम्न वर्ण के होते थे, जैसे कि पूर्वी भारत में और उन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया था। इसीलिए बहुत-से बंगाली लेखकों का मुसलमानों के प्रति रुख बहुत अलग था। उन्हें हिंसक समुदायों की तरह नहीं देखा गया बल्कि उन्हें अधिकतर प्रकृति के निकट समझा गया।
उदयन- क्या इसका कोई उदाहरण साहित्य में मिलता है ?
आशीष दा- टैगोर की कृतियों में मुसलमान कुछ-कुछ प्रकृति की तरह हैं। मानो कोई तूफ़ान आ रहा हो और थम गया हो या बाढ़ आयी हो और उतर गयी हो। मैंने इसी तरह का वर्णन कई जगह देखा है। वे आवेग संचालित लोगों की तरह वर्णित हैं। यह तथ्य कि वे वैष्णव या बौद्ध धर्म से धर्मान्तरित होकर मुसलमान बने थे, उन्हें भारत के अनेक हिस्सों में कुछ अलग ही व्यक्ति बनाता था। एक अर्थ में भक्ति आन्दोलन की एक प्रेरणा यह भी है। आप नानक का उदाहरण लीजिए। नानक गुरू गोविन्द सिंह नहीं थे। गाँधी ने यह कहा भी था। गाँधी जैसे कि वे थे, यह कह सके थे कि नानक ही असली गुरू थे। वे यह कह सके थे क्योंकि उन्होंने गुरुद्वारों का प्रबन्धन अपने हाथ में लेने के सिक्खों के आन्दोलन का समर्थन किया था। 1936 तक सारे गुरुद्वारे ब्राह्मणों के नियन्त्रण में थे। उसके बाद वे सिक्खों के नियन्त्रण में आ गये। उनके सिक्खों के अपने नियन्त्रण में आने को गाँधी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन की पहली जीत कहा था। बहुत-से सिक्खों को यह पता तक नहीं है। उन ब्राह्मणों के पास धन था। भारत से हिन्दू-मुसलमान समस्या खत्म हो चुकी होती, अगर ब्राह्मणों को उनके योग्य कार्य दिया जाता और उदाहरण के लिए अगर मस्जिदों का प्रबन्धन भी उन्हीं पर छोड़ दिया जाता। अगर चर्मकार ब्राह्मणों को पूजा ही नहीं विवाह, मृत्यु से सम्बन्धित अनेक अनुष्ठानों के लिए बुला सकते हैं तो मुसलमान अपनी मस्जिदों का प्रबन्धन उनसे क्यों नहीं करवा सकते। पर समस्या यह है कि मुसलमानों के अपने पुरोहित हैं। ब्राह्मण भी पुरोहित ही हैं। मैंने तुम्हें कल थाईलैण्ड में ब्राह्मण पुरोहित के बारे में बताया था। वह एक बौद्ध देश में बौद्ध अनुष्ठान आदि करवाने में प्रसन्न हैं। मैं यह कहने की कोशिश कर रहा था कि भक्ति आन्दोलन में उस तरह के सेतुओं का बड़ा स्थान है जिनका मैंने ज़िक्र किया है। उसमें हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच तो सेतु बना ही है साथ ही उसमें बौद्ध धारा भी इस्लाम में शामिल होकर आ गयी थी। इस तरह वे विचार भी इस आन्दोलन में सहज रूप से शामिल हो गये। वह सिर्फ़ विचारधारात्मक या आस्था का चुनाव ही नहीं था, यह उस काल में हर ओर उपस्थित दो अन्तर्विरोधी खिंचावों, चेतना की दो अन्तर्विरोधी अन्तधर््ााराओं के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयास था जो एक अर्थ में पहली बार सम्भव हो पा रहा था। यह बात लोग आसानी से कह जाते हैं कि लालन फ़कीर भक्ति आन्दोलन का उत्पाद थे, पर वे यह याद नहीं रखते कि वे मुसलमान थे। अगर अमीर खुसरो यह कह सकते हैं कि ‘भला हुआ मेरी गगरी फूटी, मैं पनिया भरन से छूटी’ तो इसे वैष्णव दृष्टि से कैसे अलगाया जायेगा। वैष्णव विचार की यह धारा सूफ़ी विचार में शामिल हुई हैं। दिल्ली के टोल स्कूलों में गायी जाने वाली कव्वालियों को तुम्हे सुनना चाहिए, वे अद्भूत रूप से मार्मिक होती हैं। तुम देख सकोगे कि इन दृष्टियों का समायोजन किस हद तक हो गया था। ‘समायोजन’ भी यहाँ ठीक शब्द नहीं हैं, बल्कि यह कहना चाहिए कि यहाँ पारलौकिकता (ट्रांसेन्डेन्स) के नये विचार ने हर ओर आकार ले लिया था। पारलौकिकता की एक नयी धारा ने। यह देखकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जब लोग निज़ामुनद्दीन औलिया की दरगाह में जाते हैं, वहाँ एक जगह रूढ़ीवादी इन्हें कहते हैं कि आपको यहाँ नहीं आना चाहिए, इस्लाम में इस स्थान को पवित्र नहीं माना जाता। वहाँ गये लोग आठ-दस के समूह में इकट्ठा होकर इस सबको बड़ी शान्ति से सुनते हैं - वहीं उनके होल्डाॅल या बक्से रखे रहते हैं और वे उन्हे खडे़-खड़े सुनते हैं - फिर वे अपना बोरिया-बिस्तर लेकर वहीं यानि निज़ामुद्दीन औलिया की मज़ार पर चले जाते हैं। मानो वहाँ जाने से पहले वह सब सुनना भी उनका काम था। यही कुछ अजमेर शरीफ़ जाने वालों के साथ होता है। वहाँ भी जाने से पहले उन्हें इसी तरह के उपदेशकों को सुनना पड़ता है। उन उपदेशकों में सलाफ़ी भी होते हैं। श्रृद्धालु उन्हें सुनते हैं फिर अजमेर शरीफ़ में चले जाते हैं। ये लोग अधिकतर उत्तरप्रदेश और बिहार से आते हैं।
उदयन- शायद आप यह कह रहे हैं कि भक्ति आन्दोलन में वैष्णव दृष्टि, बौद्ध दृष्टि और सूफ़ी विचार एक-दूसरे के क़रीब आ गये थे।
आशीष दा- मैं सीधे-सीधे ‘बौद्ध’ नहीं कह रहा क्योंकि 14वीं और 15वीं शती के पहले ही बौद्ध धर्म यहाँ अन्तःसलिल हो गया था। पर उसकी एक धारा इस्लाम में शामिल होकर भक्ति आन्दोलन में आ गयी थी। आखिर महाभारत में परिवर्तन कर देना मज़ाक नहीं है (कुछ अध्येता उसके अन्त में आये ‘शान्ति पर्व’ को बाद में जोड़ा हुआ मानते हैं, वे यह भी मानते हैं कि यह जुड़ाव बौद्ध प्रभाव में हुआ था।) यहाँ अद्वैत और निरीश्वरवादी दृष्टियों के बीच के द्वन्द्व का समाहार हो गया था। निरीश्वरवादी विचार संसार के प्रति निरावेग या निष्करुण दृष्टि के साथ नहीं आता। मेरा खयाल है कि वह विचार संसार के प्रति करुणा की आँच में तपा हुआ होता था। शंकराचार्य का भजन, ‘भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम् मूढ़मते...’ द्वैतवादी भजन हैं। यह उन्ही शंकराचार्य का सीधा-सीधा द्वैतवादी भजन है जिन्हे हम अद्वैत की बात करने वाले विद्वान की तरह जानते हैं। मेरा सुझाव यह है कि भक्ति आन्दोलन ने इन सारे विचारों के बीच सम्बन्ध-सूत्र बनाये, उनके बीच पुल बनाये और उसी के फलस्वरूप वह समाज बना है जो आज हम हैं।
उदयन- आपका यह कहना बेहद अर्थपूर्ण है कि हमारे आज के समाज की जड़ में भक्ति आन्दोलन हैं।
आशीष दा- आज हम जिन अनेक विचारों की चर्चा करते हैं, उनकी आधारशिला भक्ति आन्दोलन में रखी गयी। उस भक्ति आन्दोलन की परम्परा को भंग करने की चेष्टा उन्नीसवीं शती में अँग्रेज़ी राज और तथाकथित समतावादियों और अन्यों द्वारा लाये गये एक नये तरह के भौतिकवाद ने की थी जिसमें एक नयी किस्म की ऊँच-नीच बनी जिसमें इस परम्परा को अन्धविश्वास आदि घोषित किया गया। वे लोग जिन्होंने पश्चिम के प्रति प्रमुख अनुक्रिया निर्मित की और जो पश्चिम की दृष्टि को अपने में शामिल करना चाहते थे, उन्होंने वैसा सख्त शैव पद्धति से किया था, उसी की पैदाईश हम बंगाली लोग हैं, जहाँ सारे ऊँचे वर्ण के लोग शाक्त हैं, असम में, सारे मिथिला में भी, वहीं एक और अनुक्रिया नये दार्शनिक स्कूल नव्य न्याय में हुई जिसमें तर्क की परिणति तर्क में ही होती है। इन दोनों ही विचार परम्पराओं के और भी भीतर झाँकने की आवश्यकता है। शाक्त परम्परा में हिंसा की अपेक्षाकृत अधिक स्वीकृति है। उसमें मुख्यतः अट्ठारवीं शती के अन्त और उन्नीसवीं शती की शुरुआत की सती प्रथा जैसे सामाजिक दोषों का भी अधिक स्वीकार है। यह जानना शायद दिलचस्प है कि अधिकांश ठग जिनमें मुसलमान शामिल हैं, काली पूजक थे। नव्य न्याय में तर्क का अन्त तर्क में होता है। बल्कि उस दर्शन में तर्क-विधान का महिमा-मण्डन किया जाता है और उसे करुणा और पोषण के जैसे मानवीय मूल्यों पर वरीयता दी जाती है। यहीं से उसमें हिंसा के स्वीकार का स्थान बन जाता है। बीसवीं शती में तर्कणा (रीज़न) के दोष ने कहीं अधिक हिंसा की है। इस शती के अनेक नरसंहारों को- फिर भी सोवियत रूस के हों या आयरलैण्ड या बंगाल के। बंगाल के अकाल को भी ज़ोर-ज़बरदस्ती से विज्ञान के तर्कों के आधार पर ही आरोपित किया गया था। तुमको यह जानकर आश्चर्य होगा कि जिन वर्षों में बंगाल अकाल से मर रहा था, उन वर्षों में वहाँ अच्छी-खासी फसल हुई थी और वहाँ उत्पन्न सारा अनाज ब्रिटिश गोदामों को भरने के लिए उठाकर बंगाल को अकाल में झोंक दिया गया था। रीज़न की परिणति यह भी है। उन्ही शाक्त और नव्य न्याय की शर्तों पर उन्नीसवीं शती में पश्चिम की दृष्टि को समाहित किया गया था। पर जानना आवश्यक है कि पश्चिम की ज्ञानोदय से अलग एक और परम्परा है जिसमें राॅबर्ट ब्लेक थे, थोरो थे, उसका हमारी विचार-सम्पदा में समावेश न हो सका। नव्य न्याय आदि पश्चिम के विचारों के प्रति हमारी एक अनुक्रिया थी जिससे हमारे अनेक श्रेष्ठ चिन्तक प्रेरित हुए जैसे राजा राममोहन राय, विवेकानन्द आदि। विवेकानन्द का कहना था कि उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस थे जबकि रामकृष्ण की पश्चिमी विचार पर अनुक्रिया कहीं अधिक प्रामाणिक थी क्योंकि उनका सम्बन्ध भक्ति परम्परा से था, विवेकानन्द का नहीं था। उनकी यह अनुक्रिया तर्कशीलता से अधिक पे्ररित थी। इसी कारण इस संस्कृति में वह उभयलिंगी (एन्ड्रोजीनस) रंग है जो हमारी कला और अन्य सांस्कृतिक उपक्रमों में बना रहा। अमिताभ बच्चन के आने से पहले हमारी नायक की अवधारणा में भी वही उभयलिंगी रंग था। मैं अत्यन्त विस्तृत वितान की बात कर रहा हूँ। पर इस वितान की सभ्यता के इतिहासकार बेहतर व्याख्या कर सकते हैं। यही मेरी इस सभ्यता को समझ है।
उदयन- भक्ति आन्दोलन आज तक जीवित है...
आशीष दा- यह हमारा आधार स्रोत है। आप अन्य संस्कृतियों को भी शामिल कीजिए, पर इस विपुल सम्पदा राशि को विस्मृत मत कीजिए। लोग यान्त्रिक ढंग से कबीर के सन्दर्भ में ‘हिन्दु-मुसलमान’ आदि की बातें करते हैं पर वह उपयोगितावाद ढंग है। पाकिस्तानियों को यह देखकर आश्चर्य होता है कि गुजराती लोग मुसलमान सन्त साईं बाबा की पूजा करते हैं। वे सोचते हैं कि वहाँ मुसलमानों के प्रति नफ़रत हैं पर तब भी वहाँ लोग साईं बाबा के मन्दिरों में जाते हैं। हमें यह समझना चाहिए कि सभ्यता का अलग गणित हुआ करता है। वह राजसत्ता के गणित को लाँघ जाता हैं, वह मानकीकृत व स्वीकृत ज्ञान के परे जाता है और अन्ततः वह व्यवहारिकता के गणित को भी लाँघ जाता है। लेकिन वह होता है और अपने सबसे सृजनात्मक क्षणों में हम उसके प्रति कृतज्ञ होते हैं कि वह उस तरह जीवित रह आया है जैसे वह रहा आया है ताकि हम उसमें से कुछ ग्रहण करते रह सकें।
उदयन- जब आप साधारण लोगों की सामथ्र्य में गहरी निष्ठा व्यक्त करते हैं, क्या आप सभ्यता के इसी गणित में निष्ठा व्यक्त कर रहे होते हैं।
आशीष दा- बिल्कुल। इसलिए नहीं कि साधारण लोग अपनी ओर से बोल रहे होते हैं बल्कि इसलिए भी क्योंकि वे हमारे किन्ही अंशों की ओर से भी बोलते हैं, इसमें नरेन्द्र मोदी भी शामिल है। जब मैं गाँधी के हत्यारे, मदनलाल पाहवा का साक्षात्कार कर रहा था, मुझे महसूस हुआ कि उसमें कितना सारा गाँधी प्रवेश कर चुका है। गाँधी को गाली देकर भी वह अपने को गाँधी की आँखों से देखने से नहीं बचा पा रहा था। खासकर अपने अन्त काल में। एक अर्थ में वह जानता था कि वह उनसे पराजित हो चुका है।
उदयन- गाँधी आधुनिक युग में ऐसे व्यक्ति हैं जो भक्ति को एक अलग ही ऊँचाई पर ले गये थे।
आशीष दा- हाँ। कुछ लोग कहते हैं कि वे भारतीय शास्त्रीय ग्रन्थों से अधिक परिचित नहीं थे। पर अधिकांश भक्ति आन्दोलन के सन्त भी ऐसे ही थे। उन्हें वैसा होने की आवश्यकता भी नहीं थी। उन्होंने उनकी अन्तर्दृष्टियों को सोख लिया था। इस जगह पर रामचन्द्र गाँधी सही नहीं थे। मैंने उनसे इस विषय पर बहस भी की थी। वे बेहद अच्छे बहस करने वाले थे। आपको शास्त्रीय ग्रन्थों को दोहराने या उनसे अनुक्रिया करने की आवश्यकता नहीं है। यह अध्येताओं का काम है। आपको ऐसी अपेक्षा कबीर से क्यों होनी चाहिए। उनका विवेक स्वतःस्फूर्त (इन्स्टिक्टिव) होता है। लालन का विवेक भी स्वतःस्फूर्त है। नानक का भी। रहस्यवादी साधनाएँ (मिस्टिज़िज्म) आपके व्यक्तित्व के गुह्यतर स्तरों को उद्घाटित करती हैं जिन्हे पाने की आप चेष्टा कर रहे होते हैं। यह एक अलग ही मामला है। सभ्यताएँ इस तरह की चीज़ों पर चला करती हैं। यह हमारी एक अलग प्रकृति है, दूसरी नहीं, तीसरी प्रकृति। भक्त कवि और साधक अपनी चेतना के ही नहीं, बल्कि सभ्यता बोध के भी वाहक थे। हमें उनका उन्ही के सन्दर्भों में मूल्यांकन करना होगा। वे अंशतः हमारी अवचेतना के भी आगार (भण्डार) हैं। वे यह मानते थे कि उनके भीतर कुछ शक्तियाँ उनसे ऐसा करवाती है।

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