29-Dec-2019 12:00 AM
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प्रद्योत कुमार मुखोपाध्याय का नाम पहली बार मैंने अपने मित्र और भारत के श्रेष्ठ दार्शनिकों में एक नवज्योति सिंह से सुना था। उन्होंने मुझे यह भी बताया था कि श्री मुखोपाध्याय न्यायशास्त्र के अद्वितीय दार्शनिक है और यह कि वे तरह-तरह के विचार-सम्पन्न बौद्धिकों से संवाद में रुचि लेते हैं। नवज्योति प्रद्योत कुमार मुखोपाध्याय को ‘मुखोपाध्याय जी’ कहकर बुलाते थे। बाद में मैं भी उन्हें इसी नाम से सम्बोध्ाित करने लगा। मुखोपाध्याय जी लम्बे समय तक कोलकाता के जाध्ावपुर विश्वविद्यालय में दर्शन विभाग के आचार्य (प्रोफ़ेसर) रहने के बाद सेवानिवृत्त होकर इन दिनों बनारस में रहते हैं। कुछ बरस पहले नवज्योति सिंह की प्रेरणा और प्रयासों से भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, बनारस में नाट्यशास्त्र पर कार्यशाला आयोजित हुई थी। मैंने उसी कार्यशाला में लगातार पाँच दिनों तक मुखोपाध्याय जी से न्यायशास्त्रीय दृष्टि से कला के दर्शन को विकसित होते सुना था। यह मेरी उनसे पहली मुलाकात थी। वे हर सुबह तेज़ी से चलते हुए आते और एक घण्टे या उससे कुछ अध्ािक कला के दर्शन पर अपना व्याख्यान देते, उससे उठते प्रश्नों का पूरी स्पष्टता से जवाब देते और फिर उठकर श्रोताओं के बीच आ बैठते जहाँ वे बचे हुए व्याख्यानों को उसी ध्यान से सुनते जैसे वहाँ उपस्थित अन्य श्रोता सुनते थे। उस कार्यशाला के बाद एक बार उनसे भेंट दिल्ली में नवज्योति के साथ हुई थी। नवज्योति के कैंसर से बचने की उम्मीद कम हो चली थी और अस्सी वर्षीय मुखोपाध्याय जी अपने अपेक्षाकृत युवा दार्शनिक मित्र और सहयात्री से आखिरी बार मिलने आये थे। नवज्योति सिंह की मृत्यु के बाद मुझे मुखोपाध्याय जी से मिलने की बहुत अध्ािक उत्सुकता हुई। उन्होंने ‘इण्डियन रियलिज़्मः ए रिगरस डेस्क्रिप्टिव मेटाफि़जि़क्स’ आदि अनेक किताबें अँग्रेज़ी और बंगाली में लिखी हैं और उनके आलेख विभिन्न दार्शनिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। मुखोपाध्याय जी बनारस में रहते हैं, यह मैं जानता था। बनारस अलग-अलग अवसरों पर मैं जाता रहा हूँ। शायद तीसरी बार की बनारस यात्रा में मुखोपाध्याय जी से मिलने उनके घर जा सका। उनका घर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से कुछ दूर एक प्रसिद्ध चैराहे के पास है। वे पहली मंजि़ल पर एक छोटे-से घर में रहते हैं जिसमें शाम होने पर कुछ देर तक पास के चैराहे की आवाज़ें ध्ाीरे-ध्ाीरे आती रहती हैं। वे हमेशा बेहद साफ़ और सफ़ेद कुत्र्ता-ध्ाोती पहनते हैं और उनके चेहरे पर चमक बनी रहती है। यह बातचीत उनके घर में ही हुई। जब मैं इस बातचीत के लिए तीन-चार दिनों तक उनके घर जाता था, मेरे साथ विश्वविद्यालय के मेरे दो मित्र, प्रोफ़ेसर राजकुमार और प्रोफ़ेसर संजय कुमार और एक छात्र भी पूरी जिज्ञासा से साथ आते थे। बातचीत के दौरान उनसे पढ़ रहा एक बालक भी इसे सुनता रहा। उसने भी बीच में एकाध्ा प्रश्न पूछा, जिसका बहुत सीध्ाा सम्बन्ध्ा हमारी बातचीत से नहीं था लेकिन तब भी मुखोपाध्याय जी ने पूरे ध्ाीरज के साथ उसका जवाब दिया और फिर हमारी बातचीत को आगे बढ़ाने लगे। मुझे याद है, पहले दिन की बातचीत के चलने के समय भीतर के कमरे में पण्डित भीमसेन जोशी का राग मालवा का रिकार्ड बजता रहा था।
उदयन- आपने रामकृष्ण परमहंस के विषय में सोचा है और उन्हें विवेकानन्द से अलगाने का दार्शनिक प्रयास भी किया है...
मुखोपाध्याय- हमारी समस्या यह है कि हम रामकृष्ण को विवेकानन्द के माध्यम से जानने का प्रयास करते हैं। इस कारण हमारी ध्ाारणाएँ बिगड़ जाती हैं। विवेकानन्द रामकृष्ण के शिष्य होने के लिए बने ही नहीं थे। उन्होंने अपना कार्य-व्यापार अपने गुरू को नकारकर ही शुरू किया था। मेरे पास इसके कुछ तर्क हैं। भारतीय संस्कृति में खुद को अदृश्य रखना एक बड़ा मूल्य है, पश्चिमी संस्कृति में इससे ठीक विपरीत खुद को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करना। यह इन दोनों संस्कृतियों का बुनियादी अन्तर है।
रामकृष्ण ने एक अवसर पर खुद से पूछा था कि महान व्यक्ति कौन है। फिर उन्होंने उसका उदाहरण दियाः महान व्यक्ति दीवार में छेद की तरह होता है। इस छेद से व्यापक संस्कृति के दर्शन होते हैं, स्वयं व्यक्ति के नहीं। विवेकानन्द ने अपने लेखन और काम में इस सुन्दर रूपक पर कभी ध्यान नहीं दिया। इससे ठीक उल्टा किया। वे अपने को संन्यासी या भिक्षु की तरह प्रस्तुत करने बहुत उत्सुक रहते थे, उसी तरह के कपड़े पहनते थे, खूबसूरत और प्रभावशाली पोशाक से खुद को विभूषित करते थे। अपने को आगे बढ़कर प्रस्तुत किया करते थे। विवेकानन्द पर ध्यान देने से कोई भी चूक नहीं सकता था। लेकिन रामकृष्ण पर ध्यान न जाना स्वभाविक था। मेरे कहने का आशय विवेकानन्द का किसी भी तरह का असम्मान नहीं है बल्कि उनकी अपनी संस्कृति और देश के प्रति निष्ठा है। वह निष्ठा सर्वोपरि है, फिर मैं भले ही विवेकानन्द के बारे में सोच रहा होऊँ या रामकृष्ण, गाँध्ाी या रबीन्द्रनाथ के बारे में। अगर मैं उनके माध्यम से अपने देश को बेहतर या भव्यतर नहीं देख सकता, उनका मेरे लिए मूल्य नहीं है। यह मेरा मत है और अपनी संस्कृति की मेरी अपनी समझ इसका आध्ाार है। रामकृष्ण दरअसल यह कह रहे हैं कि महान व्यक्ति वह है जो आपकी दृष्टि को बाध्ाित करने के स्थान पर उसे बेहतर लक्ष्य तक पहुँचाने में मदद करे। दीवार आपकी दृष्टि को बाध्ाित करने बनायी जाती है, आपको उसके दूसरी ओर का कुछ दिखायी नहीं देता। रामकृष्ण का कहना यह था कि महान गुरू या व्यक्ति आपकी दृष्टि को बाध्ाित या सीमित न करे बल्कि वह उसे अपने आर-पार जाने दे और कुछ अध्ािक व्यापक देख सकने की सम्भावना को उद्घाटित करे। रामकृष्ण खुद को दिखाना नहीं चाहते थे। वे चाहते थे कि उनसे मिलने आये व्यक्ति को कहीं अध्ािक व्यापक यथार्थ के दर्शन हों, जो उनके परे है। ये दो ढंग हैं। एक ढंग खुद बोलने का है और लोगों की दृष्टि को इस तरह बाध्ाित करना का कि वे कहीं अध्ािक समृद्ध, अध्ािक दूरस्थ, अध्ािक व्यापक वास्तविकता न देख सकें। मुझे यह ढंग आधुनिक मानस का लक्षण लगता है। आधुनिकता को दो चीज़ों ने आक्रान्त कर रखा है। पहला व्यक्तिवाद (इण्डिविजुअलिज़्म) और दूसरा मौलिकता। ज़्यादातर मौलिकता का यह दावा अज्ञान आध्ाारित होता है। हमारी अध्ािकांश मौलिकता का अर्थ इतना भर है कि हमें यह पता नहीं रहता कि हमारी मौलिक बात कोई और कह चुका है।
उदयन- आधुनिक मनुष्य कई बार शायद बार-बार पहिये का आविष्कार करता रहता है, विशेषकर भारत का आधुनिक।
मुखोपाध्याय- वह सारे समय व्यक्तिवाद, व्यक्तिवाद रटता रहता है। हमारी प्रवृत्ति इससे अलग है। वह अपने को ग़ायब करने की है। इसीलिए अगर मैं किसी से बातचीत करता हूँ तो मुझे यह सोचना चाहिए कि मैं ऐसा क्यों करूँ। क्या मैं उसे कुछ भी दे सकता हूँ? मेरा मूल्य इसी बात में है कि मैं किन्हीं मूल्यों का वाहक हूँ। मेरा व्यापक अर्थ वे सांस्कृतिक मूल्य हैं।
उदयन- जिनमें दार्शनिक मूल्य भी शामिल ही हैं। आप कह रहे हैं कि बात करते हुए अपने को आरोपित करने के स्थान पर एक विशेष तरह का दीवार में छेद बनूँ जिससे मुझसे बात करने वाला व्यक्ति उस मूल्य सम्पदा के दर्शन कर सके, या उन्हें अनुभव कर सके, जो मुझसे होकर प्रकट हो रहे हैं।
मुखोपाध्याय- कुछ समय पहले एक भारतीय लेखक’ बनारस में कई लोगों से बात कर रहे थे। उनसे किसी ने मेरा जि़क्र किया और वे मेरे पास दो-तीन बार आये। उन्होंने यह प्रस्ताव रखा कि वे मुझे जानना चाहते हैं। मैंने उनसे पूछा कि इस ‘मुझे’ का क्या अर्थ है। आप यह सूचना दजऱ् कर लें कि मैं पाँच फ़ुट, गौर वर्ण आदि का हूँ और लौट जाएँ। वर्ना आप यह परिभाषित करें कि आपका मेरे विषय में ‘मुझ’ कहने का क्या आशय है? अन्ततः उन्होंने कुछ तार्किक बात छेड़ी और बातचीत होती रही। जब वे दूसरी बार आये तो मैंने उनसे कुछ कहा और उन्होंने अपनी नोटबुक बन्द कर ली और कहा कि इतना बहुत है। अब मैं कुछ और नहीं पूछूँगा, इसी पर विचार करूँगा। मैंने उनसे कहा था कि आप भारत को एक विषय के रूप में समझना चाहते हैं और आपने भारतीय समझ और विचार के आध्ाार पर कुछ नहीं सोचा। मैं उनसे यह कहना चाहता थाः मैं यह सोचता हूँ कि मेरे अस्तित्व, शिक्षा और जीवन का मूल्य इस बात पर निर्भर है कि मैंने उन शाश्वत मूल्यों को किसी हद तक अन्तस्थ किया है और उन पर विचार किया है, जो भारतीय संस्कृति में बद्धमूल हैं। दूसरे शब्दों में हम भारत की समझ और विचार के बारे में क्या समझते और सोचते हैं, यह हमारे जीवन से प्रकट होना चाहिए। पर इसमें एक जोखिम है, हो सकता है, हमारी समझ ग़लत हो इसीलिए उसमें मेरी समझ की ईमानदार अभिव्यक्ति होनी चाहिए, वह ग़लत ही क्यूँ न हो। मैं उदाहरण देता हूँ। नवज्योति सिंह के बौद्धिक विकास के दूसरे चरण में हम कुछ लोगों, विशेषकर मुझे और एम.डी. श्रीनिवास को उन्होंने भारतीय विज्ञान के सैद्धान्तिक और पद्धतिमूलक आध्ाारों पर विचार करने को प्रेरित किया। यह एक व्यापक परियोजना थी, जिसके चैदह भाग थे, जिनमें से दो भाग नव्य न्याय और व्याकरण थे। वह परियोजना वित्तीय सहयोग के लिए डी.एस.टी. (विज्ञान और तकनीकी विभाग) के समक्ष प्रस्तुत की
’ श्री मुखोपाध्याय यहाँ अँग्रेज़ी के लेखक आतिश ताहीर का जि़क्र कर रहे है। आतिश ने नयी किताब ‘द ट्वाइस बाॅर्न’ (2018) में इस मुलाकात का विवरण दिया है।
गयी। हमसे वैज्ञानिकों ने इसके लिए गहरायी से बातचीत भी की थी। मैं वहाँ था, हमने उन वैज्ञानिकों को विश्वास में ले लिया था। वह ऐसी पहली परियोजना थी जिसे करने में नवज्योति में साहस और हमें पूरा भरोसा था। हम यह मानते थे कि नव्य न्याय और व्याकरण को सम्मिलित कर बनी इस परियोजना का डी.एस.टी. को सहयोग करना चाहिए। उसके चैदह भागों में से इन दो को कलकत्ते में किया जाना था। हमने यह विचार किया था कि हमारी परियोजना का परिप्रेक्ष्य क्या होना चाहिए, हमारी दृष्टि क्या होनी चाहिए। हम उसके लिए बहुत समय तक ठीक शब्द ढँूढ़ते रहे, अन्ततः हम जिस पर पहुँचे वह था, ‘प्रस्थान मीमांसा’। इसे हम कई बार अँग्रेज़ी में ‘माॅडर्न ट्रेडिशनलिस्ट’ कहते थे। नवज्योति ने भी आपके साथ प्रकाशित हुई बातचीत के दौरान उस बारे में एक जगह कहा है। उस मूल्य के बारे में शायद कोई नहीं जानता और मैं आज भी यह मानता हूँ कि उस वैचारिक दृष्टि को मानने वाले केवल दो लोग थे, एक नवज्योति और दूसरा मैं। अब केवल मैं बचा हूँ, मेरे जाने के बाद कोई नहीं होगा। लेकिन दरअसल ऐसा है नहीं। यह सशक्त विचार है जिसमें यह अपेक्षा है कि हमारी जड़ें अपनी संस्कृति में होनी चाहिए और उसके बाद ही हमें विचार-विमर्श करना चाहिए। जितना सम्भव हो सके, उतना स्वतन्त्र ढंग से विचार करना चाहिए, जितना आलोचनात्मक और खुले रूप में हो सके उतना लेकिन तब भी उसकी जड़ें अपनी सांस्कृतिक अन्तश्चेतना में होनी चाहिए। एक ओर हमारी जड़ें अपनी संस्कृति में होना चाहिए, दूसरी ओर हममें उसके प्रति निष्ठा होना चाहिए। निष्ठा इस तरह आएगी कि हम अपने प्रयासों से लोगों को यह बताने की कोशिश कर सकें कि ये हमारी संस्कृति की अभिव्यक्ति है, हम भले ही इन प्रयासों में विफल हो जाएँ। मैं यह कहता भी हूँ कि हमारी संस्कृति और हमारा समाज खुली बहस का समाज है। यह यहाँ के लोगों का मूलभूत विचार रहा है। इस खुलेपन का अर्थ ‘फ्रीलांस’ विचार नहीं है। ‘फ्रीलांस’ विचार नौसिखियों के लिए उचित होंगे, हमारे लिए नहीं। हम इस विषय में यह वर्गीकरण करते हैंः एक है शास्त्रीय विचार और दूसरा उपशास्त्रीय विचार। लोग शास्त्रीय शब्द को ग़लत समझते हैं। वे सोचते हैं कि शास्त्रीय विचार का अर्थ परम्परा का अन्ध्ाानुकरण है। यह सच नहीं है। प्रश्न यह है कि क्या आप अपने काम से कुछ हासिल करना चाहते हैं। क्या मैं अपने काम से आत्ममहिमा पाना चाहता हूँ, यह भारतीय संस्कृति के लिए सिरे से अस्वीकार्य है। दरअसल, मैं अपने काम से अपनी संस्कृति को बेहतर ढंग से समझने का प्रयास करता हूँ और इस तरह उसमें योगदान करता हूँ।
उदयन- क्या आप सोचते हैं कि नवज्योति सिंह यही कर रहे थे?
मुखोपाध्याय- नवज्योति ने इसे बहुत गहरायी से समझ लिया था। यह एक ऐसा देश प्रेम है, जिसे हम अनेक स्रोतों से आमन्त्रित करते हैं। नवज्योति एक बात कहते थेः ‘उऋण’। हमें यूरोप का ऋण चुकाना है। उससे हमें ‘उऋण’ होना है। यूरोप से हमने बहुत कुछ लिया है, ओरिएण्टलिस्टों का यह कहना ग़लत है कि यूरोप ने यह सब हम पर थोपा है। हमने उनसे तमाम चीजे़ं ली हैं। नवज्योति ठीक कह रहे थे, यही हुआ है। जब एक बार वे यह कह चुके, हमें लगा कि इसमें ग़लत क्या है। ग़लत यह होगा कि हम हमेशा के लिए ऋणी बने रहें। हमें उसे लौटना है। उऋण होने का यह विचार गाँध्ाी में था, के.सी. भट्टाचार्य में था और हम इन सबको ‘माॅडर्न ट्रेडिशनलिस्ट’ मानते हैं। वे बाकी संसार के बारे में सजग थे, उन्हें पता था, समकालीन परिप्रेक्ष्य में यूरोप में क्या हो रहा है, लेकिन उन्होंने काम के स्वरूप पर से नज़रें नहीं हटायीं। मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ, टैगोर, गाँध्ाी और विवेकानन्द लगभग समकालीन ही हैं। कई कारणों से मैं महात्मा गाँध्ाी का आलोचक भी हूँ लेकिन एक बात निर्विवाद है कि मेरी दृष्टि में केवल गाँध्ाी राष्ट्रीय दृष्टि से सोचते हैं, बाकी सब अन्तर्राष्ट्रीयवादी हैं। वे रबीन्द्रनाथ हों या विवेकानन्द, ये दोनों ही अन्तर्राष्ट्रीयवादी हैं। गाँध्ाी निष्ठावान राष्ट्रीय थे। जब रोमां रोलां ने उन्हें यूरोप आकर अपना सन्देश वहाँ फैलाने का न्यौता दिया, गाँध्ाी ने इंकार करते हुए कहा कि मेरा काम भारत में है। अगर मैं यहाँ सफल होता हूँ, मैं वहाँ आने पर विचार करूँगा।
उदयन- क्या आपको इस तरह का देशप्रेम और किसी व्यक्ति में नहीं दीखता?
मुखोपाध्याय- मैं इसे किसी और में नहीं पाता। गाँध्ाी इस विषय में स्पष्ट विचार रखते थे। इसकी तुलना आप रबीन्द्रनाथ से करिये। उनके लिए राष्ट्रवाद गन्दा शब्द था। वे राष्ट्रवाद के इतना खिलाफ़ थे कि वे जापान के कटु आलोचक और विरोध्ाी थे। जापान का केवल इतना दोष था कि वह राष्ट्रवादी देश था। रबीन्द्रनाथ सोचते थे कि जापान का राष्ट्रवाद उन्हें एकबार फिर चीन बल्कि भारत तक पर आक्रमण करने को प्रेरित कर सकता है। चूँकि उनका राष्ट्रवाद का यह विचार था, वे अन्तर्राष्ट्रीयवादी हुए। यह ज़रूर है कि जापान के विषय में उनके विचार आकाकुरा काकूजो के भारत आते ही बदल गये। मेरी दृष्टि में राष्ट्रवाद का आशय अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठा है। यह मेरे लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण मूल्य है।
उदयन- क्या आप राष्ट्रवाद के अपने विचार का कुछ विस्तार कर सकते हैं? इन दिनों इस प्रत्यय के बारे में कई तरह के विचार व्यक्त किये जा रहे हैं। कई विचारक इस पर अलग-अलग तरह से विचार कर रहे हैं। इसलिए यह महत्वपूर्ण होगा कि राष्ट्रवाद के बारे में आपके विचारों में किसी हद तक स्पष्टता हो?
मुखोपाध्याय- इन दिनों हम राष्ट्रवाद की चर्चा राजनीति के सन्दर्भ में अध्ािक करते हैं लेकिन राष्ट्रवाद के विषय में सोचने का एक और मार्ग है जिसे हम संस्कृति कहते हैं। संस्कृति में राष्ट्रवाद का क्या अर्थ हो सकता है? राष्ट्रवाद के प्रश्न ने आधुनिक भारत में ही महत्व ग्रहण किया है। आधुनिक भारत में उन्नीसवीं शती के उत्तराधर््ा और लगभग सारी ही बीसवीं शती में राष्ट्रवाद क्रमशः दो बार में आया है। राजनैतिक राष्ट्रवाद बाद में आया, उसके पहले ही एक और तरह का राष्ट्रवाद अस्तित्व में आया। वह आधुनिक भारत की पश्चिम की आलोचना की प्रतिक्रिया के रूप में आया था। यह दरअसल ध्ाार्मिक राष्ट्रवाद था। पश्चिम से भारत के संयोग के पहले तक भारत के अध्ािकांश बौद्धिकों बल्कि गृहस्थों को भी विशेष रूप से परिवर्तित नहीं किया गया था। इसके पीछे कौन-सा रहस्य छिपा है? ऐसा कैसा हो सका कि जब भारत पर मुसलमानों का शासन था, भारत में बेहद खूबसूरत साहित्य रचा गया, खूबसूरत विज्ञान और खूबसूरत दर्शनशास्त्र भी। यह तर्क दिया गया था कि किसी विदेशी लोगों द्वारा शासित होने का अर्थ अपना राष्ट्रवाद छोड़ना नहीं होता। स्वातन्त्र्य और स्वजाति शासन में अन्तर होता है। शासन से जुड़ा राष्ट्रवाद बहुत बाद में आया है। पहला राष्ट्रवाद देश की उस प्रतिक्रिया में है जो वह बाहरी लोगों की भारत की व्याख्या में हस्तक्षेप करने की प्रक्रिया में आया है जो ज़रूरी नहीं राजनैतिक क्षेत्र में भी हो। आज़ादी और शासन राष्ट्रवाद का बहुत छोटा-सा हिस्सा है।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने जैसे ही मुसलमान शासकों से सत्ता ली, भारत में कोई बड़े परिवर्तन नहीं हुए, उससे हमारे लोगों की रोज़मर्रा की जि़न्दगी पर कोई खास असर नहीं पड़ा। हमें स्थानीय शासकों या राजाओं के बीच के संघर्षों की जानकारी थी पर वे संघर्ष उनके आपस में होते थे। व्यापक जन समुदाय का जीवन इससे अछूता बना रहता था। इसलिए लोग राजनैतिक दृष्टि से अध्ािक सजग नहीं थे। राजनीति के अपने उतार-चढ़ाव होते रहते थे, कई बार शासक अच्छे होते थे, कई बार नहीं। इसीलिए भारत पर मुसलमान इतने लम्बे समय तक शासन कर सके। राजनीति के स्तर पर बहुत कुछ होता रहता था पर इससे सामान्य लोग अप्रभावित रहते थे। इसका एक कारण यह था कि उन दिनों सामाजिक आवागमन कम था और सम्प्रेषण की सुविध्ाा कम थीं। लोग अपने घरों, गाँवों और देश के विभिन्न भीतरी इलाकों में सामान्य जीवन बिताते रहे और उन्हें राजनीति में हुए परिवर्तन की कोई ख़बर नहीं थी। जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी के व्यापारिक स्वार्थों के साथ-साथ ब्रिटिश ईसाई मिशनरियों ने इन्हें बहुत उकसाया, भारत को पहली बार आमने-सामने प्रतिक्रिया करने की आवश्यकता पड़ी। पहले के मुस्लिम शासक यहाँ की स्थानीय संस्कृति में कभी-कभार ही हस्तक्षेप करते थे। अँग्रेज़ शासकों ने यह नहीं किया लेकिन ब्रिटिश मिशनरियों ने अवश्य किया। वे यहाँ आये और उन्होंने यहाँ की स्थानीय परम्पराओं को चुनौती दी। उन्होंने यह पाया कि हिन्दू ध्ार्म अस्वीकार्य है। उन्होंने कहा कि ये लोग विध्ार्मी (हीदेन) हैं और ऐसी ही कुछ और बातें। उन्हीं दिनों भारत का नागर आभिजात्य पश्चिमी विज्ञान, टेक्नोलाॅजी, साहित्य और अन्य ज्ञान से सकारात्मक रूप से भी प्रभावित हुआ था।
उदयन- ऐसी स्थिति में जब हमारे नागर आभिजात्य जन पश्चिम के विज्ञान आदि से प्रभावित थे इस प्रभाव का असर उनकी ध्ार्म और व्यापक ज्ञान की समझ पर ही पड़ा होगा। ऐसा प्रभाव किसी एक अनुशासन (यहाँ विज्ञान) में बँध्ाकर कैसे रह सकता था।
मुखोपाध्याय- पश्चिम के ज्ञान का और ध्ार्म का भी प्रभाव उन लोगों पर हो रहा था। इनमें से अनेक लोग पश्चिमी संस्कृति और ईसाई मज़हब के सम्बन्ध्ा के बारे में स्पष्ट नहीं थे। इसलिए भारत के कई नागर आभिजात्य ईसाईयत के प्रति भी सकारात्मक हो गये। उन्हें यह लगा कि ईसाईयत की बदौलत ही पश्चिम को उच्च कोटि का ज्ञान प्राप्त हुआ है। इनमें से कुछ लोग, जिन्होंने अपने को ईसाईयत में ढाल लिया था, जैसे माईकल मधुसूदन दत्त, हिन्दू ध्ार्म के विरुद्ध प्रचार-प्रसार और उसे निन्दित करने के मिशनरी प्रयासों को किसी हद तक स्वीकार नहीं कर पाये। और उन्होंने पहली बार इसके विरुद्ध प्रतिक्रिया की। उस समय बौद्धिकों की प्रतिक्रिया का रूप दो स्तरों पर था। इससे अध्ािकतर पारम्परिक लोग अप्रभावित बने रहे। वे सोचते थे कि इन्हें यह सब प्रचार-प्रसार करने दो, ये अज्ञानी हैं। उन्होंने इन मिशनरियों को सीध्ो-सीध्ो नकार दिया और कोई प्रतिक्रिया देना ठीक नहीं समझा। यह कई बार हुआ। नागर आभिजात्यों ने सोचा कि यह नहीं चल सकता, हमें इसका उत्तर देना ही होगा। उन्होंने हिन्दू ध्ार्म की ईसाई मिशनरियों द्वारा की गयी आलोचना की प्रतिक्रिया को जाने-अनजाने एक विशेष मोड़ दिया। उन्होंने पश्चिम के हिन्दू ध्ार्म के आलोचकों को पराजित करने ख़ुद हिन्दू ध्ार्म की आलोचना करना शुरू कर दिया। इस तरह उन्होंने पश्चिमी आलोचकों को यह दर्शाया कि इस परम्परा की आलोचना हम तुमसे बेहतर कर सकते हैं। वे यह कह रहे थे कि जो आलोचना तुम कर रहे हो, हमें पहले से पता है। उन्होंने इस प्रक्रिया में परायी आलोचना को इस हद तक अन्तस्थ कर लिया कि वह उनकी ज़ुबान बन गयी। इसी क्रम में उन्होंने ध्ाार्मिक सुध्ाार आन्दोलन शुरू किया। तथाकथित भारतीय पुनर्जागरण (हालाँकि मैं उसे पुनर्जागरण मानता नहीं) के चार सोपान हैं। इनमें से हमें इसके राजनैतिक तत्व के अलावा बाकी तीनों की बहुत कम जानकारी है जबकि वह सबसे बाद का सोपान है। आरम्भिक सोपान ध्ाार्मिक सुध्ाार आन्दोलन है। इसमें उन्होंने विदेशी आलोचकों को यह कहकर पराजित किया था कि आपकी आलोचना जिस हद तक उचित है, वह हिन्दू ध्ार्म के उस भाग पर लागू होती है जो वास्तविक हिन्दू ध्ार्म नहीं है। पर एक वास्तविक हिन्दू ध्ार्म है जिसके विषय में आप जानते नहीं हैं और वह हिन्दू परम्परा आपकी ध्ाार्मिक परम्परा से बेहतर है। इस प्रक्रिया में उन्होंने अपने ध्ार्म के बारे में स्वयं अपनी दृष्टि को परिवर्तित कर लिया।
उदयन- मुझे आप इस परिवर्तन के वास्तविक स्वरूप के विषय में बताएँ? उससे उनकी समझ में क्या फ़र्क पड़ा? यह पूछते समय मैं यह कहना चाह रहा हूँ कि महज़ प्रत्यय बदल देने से दृष्टि में बदलाव नहीं आता। जब तक किसी संघटना, (यहाँ जिस तरह संस्कृति है) की व्याख्या का भीतरी ढाँचा नहीं बदलता, कुछ विशेष नहीं बदलता।
मुखोपाध्याय- इन बौद्धिकों ने वेद और वैदिक संस्कृति के बीच ऐतिहासिक अन्तराल के कारण अन्तर दिखाया। दूसरे शब्दों में उन्होंने यह कहा कि जिसे हिन्दू परम्परा या ध्ार्म कहा जाता है, वह दरअसल लम्बे समय से विकासमान एक प्रक्रिया है जिसके विभिन्न चरण हैं। उन्होंने कहा, इस ध्ार्म परम्परा में तीन मुख्य चरण हैं। आरम्भिक चरण और मध्यकालीन चरण के बीच एक और भी चरण था। उस दूसरे चरण में ध्ार्म के आरम्भिक स्वरूप को नकारा गया था और एक नया उच्चतर ध्ार्म भारत में विकसित हुआ जो सारी दुनिया में अब तक उत्पन्न अन्यान्य ध्ार्मों से कहीं उच्चतर था। तीसरे चरण, मध्य युग में ध्ार्म के पहले चरण का पुनराविष्कार या पुनराख्यान हुआ। ध्ाार्मिक सुध्ाारवादियों ने हिन्दू ध्ार्म के आलोचकों को यह कहकर प्रश्नांकित किया कि आप लोग जिस ध्ार्म की आलोचना कर रहे हैं, वह मध्यकाल में हिन्दू ध्ार्म के आरम्भिक चरण का पुनर्वास है, जो दरअसल इस ध्ार्म का अपेक्षाकृत दरिद्र रूप है। उन्होंने पश्चिमी आलोचना को इस तरह प्रतिरोध्ा दिया था कि उन्होंने वैदिक संस्कृति और वैदिक साहित्य के बीच अन्तर दिखाया था। यह करते हुए उन्होंने वैदिक साहित्य को देखने की पश्चिमी दृष्टि को आत्मसात कर लिया। यह काफ़ी उलझी हुई पर दिलचस्प घटना है। हमें यह जानना ज़रूरी है कि वे हिन्दू ध्ार्म की पश्चिमी आलोचना परास्त करने के लिए पश्चिम की दृष्टि का ही उपयोग कर रहे थे। भारतीय दृष्टि में समूची वैदिक परम्परा में न कोई अन्तराल है और न आपसी स्वीकार या नकार। उसमें शुरू से आखिर तक एक-वाक्यता है। उसमें निरन्तरता है और द्वन्द्वहीन लय है। मेक्समूलर और उनके जैसे अन्य अध्येताओं ने भाषा-शास्त्रीय और विकासवादी दृष्टियों के मिश्रण से यह पाया कि जिसे वैदिक साहित्य कहा जाता है, उसमें कम-से-कम तीन भिन्न सोपान या कम-से-कम दो स्पष्ट सोपान रहे हैं। पहला आरम्भिक वैदिक साहित्य है जिसे संहिता कहा जाता है। बाद का सोपान उपनिषद् हैं। उपनिषद् भाग संहिता के बाद का है। उनके वैदिक साहित्य (संहिता) को उपनिषदों से अलग मानते ही उन्होंने इन दोनों के बीच विषमता उत्पन्न कर दी। यह विषमता काल की भी थी और कथ्य की भी।
उदयन- क्या आप यह कह रहे हैं, भारतीय बौद्धिकों ने अपनी परम्परा को देखने की पश्चिमी पद्धति अपना ली और इस तरह अपनी ही परम्परा का इस नयी दृष्टि के आध्ाार पर पुनर्विन्यास कर लिया?
मुखोपाध्याय- यह दृष्टि भारतीयों के लिए भले नयी हो, पश्चिम के अध्येताओं के लिए सहज थी क्योंकि उनके चिन्तन में विकासवाद अन्तर्निहित है। इसीलिए वे मानते थे (हैं) कि जो भी पुराना है, वह नये की तुलना में आदिम (कम विकसित) है और बाद की चीज़ या विचार अपेक्षाकृत अध्ािक विकसित है। इसी कारण ये पश्चिमी अध्येता पश्चिम को यह बताने लगे कि प्राचीन ध्ार्म परम्परा अपेक्षया निम्न कोटि की थी। इस विचार को भारत के शहरी आभिजात्य बौद्धिकों ने स्वीकार कर लिया। उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया कि भारत में उपनिषदों में वर्णित ध्ार्म ही श्रेष्ठतम था लेकिन मध्ययुग में इस श्रेष्ठ ध्ार्म को तिरस्कृत कर पुरोहितों ने स्वार्थ के लिए आरम्भिक वैदिक ध्ार्म का पुनर्वास किया ताकि वे लोगों का शोषण कर सकें। यह सारी-की-सारी पश्चिम की समझ थी। उन्होंने कहा कि वे औपनिषदिक् ध्ार्म की पुर्नस्थापना में लगे हैं। इस तरह वैदिक ध्ार्म फिर औपनिषदिक फिर वैदिक ध्ार्म की पुनस्र्थापना और अन्त में औपनिषदिक् ध्ार्म की पुनस्र्थापना, ऐसी हिस्ट्री तैयार हो गयी। औपनिषदिक् ध्ार्म की पुनस्र्थापना ही ब्रह्मो ध्ार्म है। यही अपने दूसरे रूप में आर्य समाज है। इसी का एक और रूप पार्थ समाज है।
उदयन- इन्हें अलग-अलग आन्दोलनों की तरह भी, बल्कि वैसे ही देखा जाता रहा है...
मुखोपाध्याय- इनमें आपसी अन्तर भी है पर वह अलग बात है। इन सभी ने सीध्ो-सीध्ो या परोक्षतः हिन्दू ध्ार्म के निम्नकोटि होने की पश्चिमी दृष्टि के आगे घुटने टेक दिये, आत्म समर्पण कर दिया। उन्होंने उस दृष्टि में केवल इतना संशोध्ान किया कि उन्होंने कहा कि हिन्दू ध्ार्म का केवल एक चरण यानी वैदिक ध्ार्म ही निम्न कोटि का है पर वह अतीत हो चुका है। उसके बाद का औपनिषदिक् चरण बेहतर है। उन्होंने पश्चिम की दृष्टि की आलोचना नहीं की। उदाहरण के लिए जब यह कहा गया कि हिन्दू ध्ार्म मूर्ति पूजा का समर्थक है, इन बौद्धिकों ने यह तर्क दिया कि ये और बहुईश्वरवाद, दोनों ही तत्व औपनिषदिक् ध्ार्म में नहीं हैं। इसलिए औपनिषदिक् ध्ार्म हिन्दू दृष्टि का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। चूँकि हिन्दू ध्ार्म का श्रेष्ठ रूप उसके औपनिषदिक् रूप में प्रकट होता है, ब्रह्मो समाज ने उसे पुनर्जीवित किया। इस सब पर सोचने को वे सारे लोग ध्ाार्मिक राष्ट्रवाद के कारण प्रेरित हुए थे। वे हिन्दू ध्ार्म के पराये लोगों द्वारा किये जा रहे निरन्तर अपमान को सह नहीं पा रहे थे। दरअसल, यह भले होता रहा हो पर हिन्दू कोई ध्ार्म नहीं, संस्कृति है और हम भारतीय संस्कृति के अनेक अँग्रेज़ों द्वारा किये गये निरन्तर अपमान को सह नहीं सके। उस समय एक और घटना घटी.
उदयन- आप वह घटना बताएँ, इसके पहले जैसा कि आप करते आये हैं, उसकी पीठिका को कुछ और स्पष्ट करने का प्रयास करें...
मुखोपाध्याय- मैंने आपसे कहा ही है कि एक ही समय पर चार बड़े आन्दोलन हुए थे। सबसे आरम्भ में वह ध्ाार्मिक आन्दोलन था जिसकी हम चर्चा कर रहे थे। दूसरा शिक्षा आन्दोलन था। भारत के शहरी शिक्षित जन ज्ञान के क्षेत्र में पश्चिम के प्रदर्शन से अत्यन्त प्रभावित थे। उनमें से कुछ प्रगतिशीलों ने यह सोचा कि इस प्रदर्शन का सम्बन्ध्ा निश्चय ही पश्चिम की सामाजिक प्रगति से रहा होगा। उन्हें यह लगा कि पश्चिम की ज्ञान और अकादेमिक शिक्षा में प्रगति और उनका सामाजिक विकास जुड़े हुए हैं। इसलिए उन्हें लगा कि भारत को राष्ट्र निर्माण के लिए सामाजिक विकास करना है तो पश्चिम के ज्ञान को अनुकुलित करना होगा।
सम्भवतः सन् 1823’ में अँग्रेज़ शासक भारत की शिक्षा व्यवस्था के लिए एक लाख रुपये का छोटा-सा प्रावध्ाान करना चाहते थे। वे यह सोचने लगे कि इस ध्ान को किस तरह खर्च किया जाए। बहुत-सी बैठकें हुईं, बहुत-सी बातचीत हुई। उनमें शामिल हुए लोग दो भागों में बँट गये। इनमें से एक ओरिएण्टलिस्ट स्कूल था, दूसरा एंगलिसाईज़ (अँगे्रजीकरण का हिमायती) स्कूल। अँग्रेजीकरण के हिमायती लोगों में कई भारतीय शामिल थे, ओरिएण्टल स्कूल में भी। ये दोनों ही समूह मिश्रित थे। उनमें कुछ भारतीय थे, कुछ यूरोपीय। उस समय एक महान भारतीय, जिससे अँग्रेज़ों को भी संवाद
’ संयोग से इसी के दस वर्ष पहले है जब ब्रिटिश संसद में ‘भारत के ईसाईकरण’ (क्रिस्चिएनाइजे़शन आॅफ़ इण्डिया) का प्रस्ताव पेश किया था, उस प्रस्ताव पर हुई बहस में विलियम विल्बरफ़ोर्थ जैसे दिग्गज सांसदों ने भाग लिया था। उस पूरी बहस को ध्ार्मपाल जी ने पुस्तकाकार प्रकाशित किया था। उस बहस को पढ़ने पर यह पता चलता है कि उसमें दिये गये झूठे तर्कों से किस हद तक सावरकर जैसे लोग आगे चलकर प्रभावित हुए थे।
करना ज़रूरी था, राजा राम मोहन राय थे। उन्होंने 1823 में भारत के अँग्रेज़ गवर्नर जनरल एमहस्र्ट को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने कहा कि अगर आप यह पैसा भारत में पश्चिमी शैली की शिक्षा व्यवस्था को लागू करने में खर्च नहीं करते, आप इस देश के लोगों (जो आपकी रियाया है) का बहुत अहित करेंगे। आप उन्हें अन्तहीन अन्ध्ाकार में रहने को छोड़ देंगे। उन्होंने यह स्वीकार किया कि हम अंध्ोरे में रहते लोग हैं, हमें यूरोप के सहारे प्रकाश में आना होगा। मिशनरियों का भी ठीक यही एजेण्डा था। मिशनरी यहाँ यह कभी नहीं कहते थे कि वे मज़हबी शिक्षा दे रहे हैं, वे यह कहते थे कि वे भारतीयों को प्रकाश की ओर ले जाने का प्रयास कर रहे हैं। वे हमें ईसाई बनाकर आलोक में ला रहे थे। यहाँ तक कहना सहनीय था। राम मोहन राय ने कहा कि भारतीयों को भी गणित, एनाॅटमी, विज्ञान आदि पढ़ने का अवसर होना चाहिए लेकिन उन्होंने इसके बाद एक पंक्ति और जोड़ी कि इसके साथ ही व्याकरण, न्याय और अन्य शास्त्रों का अध्ययन बन्द कराना चाहिए। इस पत्र की प्रतिक्रिया स्वरूप कई लोग, जिनमें मैं भी शामिल हूँ, यह सोचने लगे कि राजा राम मोहन राय के कारण ही भारत की शिक्षा व्यवस्था का अँग्रेज़ीकरण हुआ है। लेकिन बाद में मुझे पता चला कि मैं ग़लत था क्योंकि लाॅर्ड एमहस्र्ट को लिखे उनके पत्र का उनकी मृत्यु तक कोई जवाब नहीं दिया गया था। ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जिसके आध्ाार पर यह कहा जा सके कि उनके पत्र को अँग्रेज़ी शासन ने गम्भीरता से लिया हो।
उदयन- यह बात इस हद तक अप्रसारित रही होगी कि आप जैसे दार्शनिक भी इससे अनभिज्ञ रहे आये। लेकिन फिर भारत की शिक्षा का अँग्रेज़ीकरण या पश्चिमीकरण हुआ कैसे? यह जानना इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि अब यह शिक्षा व्यवस्था कुछ इस तरह बरती जा रही है मानो यहाँ हमेशा से यही व्यवस्था रही हो और ध्ार्मपाल के इससे सम्बन्ध्ाित हज़ारों आँकड़े प्रकाशित करने के बाद भी हमारे शिक्षितों में यही राय बनी हुई है।
मुखोपाध्याय- वह मैं आपको चैथे चरण के बारे में बताते समय बताऊँगा। नवज्योति यह कहना सही है कि उन दिनों तक हममें पश्चिमी शिक्षा के लिए बहुत अध्ािक उत्सुकता और तत्परता विकसित हो चुकी थी। लोग मानो इसके लिए तैयार बैठे थे। शासकीय रास्ते से पश्चिमी शिक्षा को भारत पर लागू किये जाने के पहले ही कलकत्ता में कई लोगों ने अँग्रेज़ी शिक्षा देने की संस्थाएँ खोल ली थीं। 1835 तक यह निर्णय लिया जा चुका था कि शिक्षा के लिए निधर््ाारित ध्ान अँग्रेज़ी शिक्षा पर खर्च किया जाएगा। अन्ततः 1857 के आसपास तीन विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई, कलकत्ता, मद्रास और बम्बई में। यह भारत में पश्चिमी शिक्षा की शुरुआत का इतिहास है। इसकी बीच-बीच में आलोचना आदि होती रही है। यह सब जानकारी आम है। पर जो बात ज्ञात नहीं है, वह यह है कि 1890 से 1905 के बीच भारत में राष्ट्रवादी शिक्षा आन्दोलन चला था। वह क्या था, हमें इसकी गहरायी से पड़ताल करना चाहिए। इसके पहले यह बात ध्यान रखने की है कि पश्चिमी शिक्षा को यहाँ शासकीय स्तर पर 1857 में आरम्भ किया गया था। 1880 तक यह बात बहुप्रचारित हो गयी कि पश्चिमी शिक्षा व्यवस्था विफल हो गयी है। उसे रेखांकित करने वाले लोगों में एनी बेसेण्ट, रबीन्द्रनाथ टैगोर आदि थे, जिन्होंने पूरा ज़ोर देकर कहा कि यह व्यवस्था विफल हो गयी है। पश्चिमी शिक्षा व्यवस्था के आलोचकों में हार्वर्ड स्पेन्सर भी थे जिन्होंने इस बारे में लिखा भी है और उनका लिखा आज भी मौजूद है। 1905 के आते-आते बंगाल के विभाजन का प्रस्ताव आ गया। भारत ने जब शिक्षा कमीशन आया, उसके पहले से ही शिक्षा व्यवस्था की योजना में भारतीयों की भागीदारी को बेहद सीमित रखने की बहुत आलोचना हुई। इस समय दो विचार सामने आये। पहला था एक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना का प्रस्ताव। इस पर एनी बेसेण्ट और अरविन्दो का विवाद हुआ जो वन्दे मातरम् अखबार में प्रकाशित हुआ। दूसरा था, राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन। यह आन्दोलन इतना सफल रहा कि इसका एक परिणाम भारत के एक श्रेष्ठ जाध्ावपुर विश्वविद्यालय की स्थापना में हुआ। यह राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन कुछ ही वर्षों में बंगाल से पंजाब तक फैल गया और तीन सौ से चार सौ राष्ट्रीय विद्यालय खुले। उन्होंने अपना पाठ्यक्रम विकसित और लागू किया, परीक्षाएँ हुईं, जिनमें उनके अपने बनाये हुए प्रश्नपत्र हल करने होते थे। प्रश्नपत्र बनाने वालों में रबीन्द्रनाथ टैगोर जैसे महान लेखक भी थे। उन्होंने उत्तर पुस्तिकाओं को भी जाँचा। कुल मिलाकर तीन सौ राष्ट्रीय विद्यालय थे और ये सारे संस्थान लोगों की आर्थिक मदद से संचालित होते थे।
उदयन- यह इतना सफल आन्दोलन हुआ और इसकी जानकारी तक व्यापक जन-चेतना बल्कि व्यापक बौद्धिक समाज में लगभग है ही नहीं। यह हमारी सभ्यता के साथ हुई दुर्घटनाओं में एक मानी जायेगी।
मुखोपाध्याय- जब राष्ट्रीय राजनैतिक आन्दोलन आरम्भ हुआ, उसने इन सारे आन्दोलनों को हाशिये पर फेंक दिया। जब हम 1947 में राजनैतिक रूप से स्वतन्त्र हो गये, हमने यह मान लिया कि हम शैक्षिक दृष्टि से भी स्वतन्त्र हो गये हैं। उसके बाद से पहले राध्ााकृष्ण कमीशन, कोठारी कमीशन और फिर राज्य शिक्षा परियोजनाएँ बनती रहीं। उनके अध्ािकतर सुझाव पूरे नहीं हो सके। जहाँ तक मुझे पता है, इन सभी समितियों के सदस्यों में से किसी ने भी राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन के दस्तावेज़ नहीं पढ़े थे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हम यह भूल गये कि उस आन्दोलन की कितनी गहरी पैठ थी और कितनी बारीक़ी-से वह आन्दोलन खड़ा किया गया था। वह आन्दोलन केवल पारम्परिक शिक्षा का पुनर्वास भर नहीं था, उसमें आधुनिक शिक्षा और तकनीकी के ज्ञान का भी स्थान था। इस आन्दोलन की तकनीकी शिक्षा के फलस्वरूप ही बंगाल इंजिनियरिंग महाविद्यालय खुला था। दरअसल, उसी महाविद्यालय से जाध्ावपुर विश्वविद्यालय पैदा हुआ है। इस सफल आन्दोलन पर बाद में ध्यान नहीं दिया गया।
संक्षेप में, विचार यह है कि पहले राष्ट्रीय ध्ाार्मिक आन्दोलन विकसित हुआ जिसने हमें अपनी संस्कृति पर पुनर्विचार करने और पश्चिम की वैचारिक चुनौती का प्रत्युत्तर देने प्रेरित किया। दूसरा आन्दोलन राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन था। वह भी पश्चिम को जवाब देने का प्रयास था। शिक्षा आन्दोलन ने विशेषकर इन दोनों संस्कृतियों में सम्यक सन्तुलन बिठाने का प्रयास किया। उनका कहना था कि हम अपनी संस्कृति में प्रतिष्ठित होकर पश्चिम से उसके श्रेष्ठ तत्वों को ले लें। यही गाँध्ाी की योजना थी और यही के.सी. भट्टाचार्य की। के.सी. भट्टाचार्य का सोचना यह था कि हमें कुछ भी झुककर स्वीकार नहीं करना चाहिए। वे विवेक-सम्मत समन्वय के पक्षध्ार थे। गाँध्ाीजी ने अपने शब्दों में यही कुछ कहा था कि हमें उनसे कुछ भी लेने में तब तक कोई हजऱ् नहीं है जब तक हम उस सबको पर्याप्त ब्याज के साथ वापस कर सकें। यही नवज्योति सिंह का कहना था, यही के.सी. भट्टाचार्य का। इस सारे विचार की हमने अवहेलना कर दी। ये ही असली आधुनिक शिक्षाविद् थे।
उदयन- आपने एक तीसरे राष्ट्रीय आन्दोलन का भी जि़क्र किया था, साहित्य आन्दोलन। उसके बारे में भी बात करें।
मुखोपाध्याय- मैंने एक आलेख लिखा था जिसे मैंने शरारतन चैथा महान आन्दोलन कहा था। उसमें मैंने कहा था कि चार बड़े राष्ट्रीय आन्दोलन हुए हैं, जिनमें से चैथे को उसी के प्रणेता रबीन्द्रनाथ टैगोर ने भुला दिया। रबीन्द्रनाथ ने अपने एक लेख (जिसे राध्ााकृष्णन ने प्रकाशित किया था, उसमें एक लेख महात्मा गाँध्ाी का भी था) में कहा था कि जब वे पैदा हुए, बंगाल में तीन महान राष्ट्रीय आन्दोलन चल रहे थे। राष्ट्रीय ध्ाार्मिक सुध्ाार आन्दोलन, राष्ट्रीय साहित्य आन्दोलन और राजनैतिक आन्दोलन। वे भी राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन का जि़क्र करना भूल गये। मैंने सोचा कि उनकी इस भूल को कैसे समझा जाए।
उदयन- यह कैसी विडम्बना है कि वे उसी आन्दोलन का नाम लेना भूल गये जिसके वे स्वयं अत्यन्त महत्वपूर्ण भाग रहे थे। बल्कि जिसके वे प्रणेताओं में एक थे।
मुखोपाध्याय- वे उसका केन्द्रीय भाग थे और पूरी उम्र उसमें रहे। उनके शान्ति निकेतन की स्थापना भी इस महान शिक्षा आन्दोलन का ही परिणाम था। मेरा सोचना यह है कि उन्होंने यह तथ्य जान-बूझकर अनकहा छोड़ा था।
रबीन्द्रनाथ के कई चेहरे थे, उसमें से एक ब्रह्मो समाजी का था। एक ब्राह्मो सदस्य के रूप में उनके नेता राजा राम मोहन राय थे, और जहाँ तक राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन का प्रश्न है, राम मोहन राय और अन्य विचारकों के मत में काफ़ी अन्तर था। अगर रबीन्द्रनाथ शिक्षा आन्दोलन की चर्चा करते, उन्हें राम मोहन राय की आलोचना करनी पड़ती इसलिए उन्होंने यही ठीक समझा कि उसकी बात न की जाए। दरअसल, राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन का उद्घाटन व्याख्यान रबीन्द्रनाथ ने ही दिया था। उनका वह अन्तर्दृष्टिपूर्ण उद्घाटन व्याख्यान प्रकाशित भी हुआ था। उसमें उन्होंने ठीक ही सतीशचन्द्र मुखर्जी की बहुत प्रशंसा की।
उदयन- ये कौन चिन्तक हैं? मैंने इनका जि़क्र कहीं पढ़ा नहीं है। आप अपनी बातचीत में कई जगह ऐसे चिन्तकों को ले आते हैं जिनसे अनेक लोग अनभिज्ञ हैं और ऐसा करके आप हमारे न पढ़े चिन्तकों की सूची बढ़ाते जाते हैं।
मुखोपाध्याय- वे एक और ऐसे व्यक्ति थे, जिन्हें आज भुला दिया गया है। उनके बारे में ज़रूर जानना चाहिए। वे बनारस शहर में डूबे हुए थे। वे यहाँ क़रीब सत्रह-अठारह वर्षों तक रहे या शायद उससे कुछ ज़्यादा। वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रोफे़सर मलकानी के साथ लम्बे समय तक संवाद करते रहे। उनके वे संवाद आज भी सुरक्षित हैं। महात्मा गाँध्ाी उन्हें अपने क़रीब मानते थे। वे राष्ट्रीय शिक्षा समिति (काउंसिल) के संस्थापक थे। वे डान सोसायटी और डान पत्रिका के भी संस्थापक थे। वे महान बौद्धिक ही नहीं, वैसे ही ध्ाार्मिक भी थे।
उदयन- वे कलकत्ता और बनारस में ही रहे?
मुखोपाध्याय- वे उस समय कलकत्ता में वकालत करते थे। इतने सारे कामों को वे किस तरह संयोजित कर सके? यह प्रश्न किसी को भी आश्चर्य में डाल सकता है। भारत का ऐसा कोई कोना नहीं था, जहाँ राष्ट्रीय आन्दोलन, वह शिक्षा आन्दोलन हो या राजनैतिक आन्दोलन और वे इनसे किसी तरह जुड़े न रहे हों। वे अद्वितीय चिन्तक और महान आयोजक थे। उन्होंने ही श्री अरविन्द को बड़ौदा रियासत से लाकर राष्ट्रीय शिक्षा समिति का अध्यक्ष बनाया था। श्री अरविन्द के तत्वावध्ाान में ही उनके आक्रामक राष्ट्रवादी जीवन का आरम्भ हुआ था और बाद में उनका रूपान्तरण हुआ। उन्हें एक महान वैष्णव विजय कृष्ण ने दीक्षित किया था। रामकृष्ण परमहंस के बाद के दिनों में वे सक्रिय हुए थे। वे जैसे ही दीक्षित हुए, विजय कृष्ण गोस्वामी ने उनसे कहा कि अब तुम कमाना छोड़ दो। तुम्हारे पास जो भी है, उसे त्याग दो, न केवल यह बल्कि तुम डान सोसायटी आदि सभी संगठनों को छोड़ दो। तुम कलकत्ता छोड़कर बनारस जाओ, वहाँ रहो। वहाँ कैसे रहोगे, इसकी चिन्ता मत करो। वहाँ जाओ और रहो। सतीश चन्द्र बनारस जाकर सोलह-सत्रह बरस रहे, एक पैसा भी नहीं कमाया और अन्त तक सक्रिय रहे। जब बनारस विश्वविद्यालय के 1905 से 1913 के बीच कभी बनने पर विचार हो रहा था, उन्होंने एक ऐसा प्रश्न उठाया जिसका ध्यान बहुत कम लोगों को था। उन्होंने यह पूछा कि जिस जगह बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय स्थापित होने जा रहा है, वह उसके लिए उचित स्थान है या नहीं। उन्होंने यह प्रश्न अखबारों में प्रकाशित करवाकर सार्वजनिक किया और उसके परिणामस्वरूप कई जवाब आये। कई लोगों ने कहा कि जो स्थान तय किया गया है, उचित नहीं है। उस सारी बहस के सारे विवरण उपलब्ध्ा नहीं हैं पर मैं उस बहस का परिणाम समझ सकता हूँ। इस विश्वविद्यालय के दो नाम हैंः अपने अँग्रेज़ी नाम में यह बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय है और इसका हिन्दी या भारतीय नाम काशी हिन्दू विश्वविद्यालय है। उसमें काशी शब्द आता है लेकिन परम्परानुसार यह विश्वविद्यालय न काशी में है न वाराणसी में। उसके बहुत सारे विवरण मुझे नहीं मालूम पर इसका सम्बन्ध्ा निश्चय ही विश्वविद्यालय के स्थान के औचित्य से होगा।
उदयन- लेकिन अब हमें दोबारा अपने उस बिन्दू पर आना चाहिए, जिसकी चर्चा करते समय आपने टैगोर के हवाले से सतीशचन्द्र मुखर्जी का जि़क्र छेड़ा और ठीक ही किया क्योंकि ऐसे ऐतिहासिक महत्व के व्यक्तियों का विस्मृति में लोप हो जाना, समूची भारतीय सभ्यता के लिए दुःखद है।
मुखोपाध्याय- राष्ट्रीय राजनैतिक आन्दोलन से कहीं पहले शासन व्यवस्था पर केन्द्रित प्रश्न अन्य राष्ट्रीय आन्दोलनों में उठाये गये। ये सारे प्रश्न राष्ट्रीय राजनैतिक आन्दोलन से कहीं पहले राष्ट्रीय सांस्कृतिक आन्दोलन में उठाये गये जो दरअसल ईसाई मिशनरियों द्वारा हिन्दू ध्ार्म के निरन्तर अपमान के फलस्वरूप शुरू हुआ था। लोगों को यह महसूस हुआ कि हिन्दूवाद ध्ार्म भर नहीं, हमारी संस्कृति का भाग है। इस प्रक्रिया में कई आन्दोलनकारी सुध्ाारवाद की ओर मुड़ गये। उनका सुध्ाार का ढंग बहुत सुन्दर था। हालाँकि, वे इस विषय में बहुत स्पष्ट नहीं थे, वह तो एक अध्ाूरा काम था जिसमें बाद के लोगों पर स्पष्टता लाने की जि़म्मेदारी है कि वे इसे गहरायी-से समझें और बताएँ। उन सुध्ाारकों ने सबसे पहले मिशनरियों की आलोचना को अन्तस्थ किया फिर उन्होंने यह दर्शाने का प्रयास किया कि वे हिन्दूवाद के जिस हिस्से की आलोचना कर रहे हैं, वह सारा हिन्दूवाद नहीं है। यह करते हुए उन्होंने खुद को परायी दृष्टि से पराजित कर लिया। उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया को वैदिक परम्परा के विभाजन पर आध्ाारित किया। मिशनरियों के विचारकों का कहना यह था कि वेद इस परम्परा के आरम्भिक भाग हैं और उपनिषद् उसके बाद के। हम इसे नहीं मानते पर ‘हम’ बहुत कम संख्या में हैं। हमारे पहले शिक्षा संस्थाओं से जुड़े अनेक विद्वान उस विभाजन को मानते हैं। लेकिन इस सन्दर्भ में भारत की अपनी वैचारिक स्थिति को भुला दिया गया।
उदयन- आप इसे कुछ और अध्ािक स्पष्ट करें। दयानन्द सरस्वती के विषय में यह जाना-माना तथ्य है कि वे भी एक ध्ाार्मिक सुध्ाारक रहे हैं। यह ज़रूर है कि वे सुध्ाारों से अध्ािक रूपान्तरण में लगे थे।
मुखोपाध्याय- जब ब्रह्मो समाज कलकत्ता के भद्रलोक में लोकप्रिय हुआ, उसी समय रामकृष्ण परमहंस का नाम होना भी शुरू हुआ। वे बिना किसी क्षमा भाव या प्रतिशोध्ा के पारम्परिक हिन्दू व्यवहारिक थे। द्विज पूजा, काली पूजा, काली से बातें करना, इस तरह के कार्यकलापों में उनका जीवन व्यतीत होता। भद्रलोक उन्हें अनदेखा नहीं कर सकता था। विवेकानन्द की दृष्टि इससे भिन्न है। विवेकानन्द ने ऊपर की दोनों विचार-व्यवहार दृष्टियों को मिला दिया। वे ब्रह्मो समाज में ही पैदा हुए और पले बढ़े थे। वे अद्वैत-अद्वैत भी कहते थे पर साथ में यह भी कहते थे कि काली पूजा करो। यह थिगड़े लगाने जैसा था। वे दरअसल राजनैतिक मन के व्यक्ति थे; वे लोगों को सिर्फ़ खुश करना चाहते थे जिससे उनको समर्थन मिल सके। इन लोगों की अपनी संस्कृति के प्रति बेहद कम निष्ठा थी। अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठा का अर्थ उसे अपनी आँखों से देखना है।
उदयन- अपनी आँखों से देखना? इसके बहुत-से अर्थ हो सकते हैं।
मुखोपाध्याय- मैं एक किताब लिख रहा हूँ; ‘इण्डिया इन इट्स सेल्फ़ परसेप्शन’। भारत अपनी दृष्टि में क्या है। इस तरह का काम और भी होना चाहिए। भारत के विषय में ऐसे कितने विचार हैं जो स्वयं भारत के हैं। कई कारणों से, और लोगों को यह पता भी है कि इस परम्परा में टूटन आ गयी है; इसके हर क्षेत्र की चिन्तन प्रक्रियाओं में। इसमें कुछ ग़लत नहीं है, सिर्फ़ इतना ध्यान रखने की आवश्यकता है कि हम इसे कोई दिया हुआ सत्य न मान लें। अगर यह टूटन हुई भी है, वह हो गयी है, पर उसके प्रति सजगता होना चाहिए। हमें अपनी स्थिति को स्वयं परिभाषित करने का प्रयास करना चाहिए। आप अपनी तरह से मुझसे यह पूछ रहे हैं कि मैं कौन हूँ। मेरा उत्तर यह है कि मैंने शुरू से ही आत्म चेतस भारतीय होने का यत्न किया था। यह हासिल करने का पूरा प्रयत्न करता रहता हूँ। मैं अपना नया भारत बनाकर भारतीय नहीं होना चाहता, मैं उस भारत को स्वीकार करना चाहता हूँ जो वह हमेशा से है और मेरे ख़याल से आज भी है। मैं यह सब खुले मन और खुली आँखों से करना चाहता हूँ। मैं यह समझता हूँ कि भीतरी लोगों के अलावा कोई भी किसी भी संस्कृति की सृजनशील आलोचना नहीं कर सकता। वही विश्वसनीय सृजनशील आलोचना है, उसी से देश की निर्मिति होती है। किसी परायी विचार परम्परा के हस्तक्षेप से देश की निर्मिति नहीं हो सकती। मैंने यह बात सीध्ो-सीध्ो भी एक जगह कही है कि हर संस्कृति में विकास की अपनी ध्ाारणा हुआ करती है। हमने सामाजिक प्रगति की भारतीय अवध्ाारणा पर बहुत कम ध्यान दिया। हम पश्चिम की विकास की अवध्ाारणा पर ही ध्यान देते रहे हैं।
उदयन- विकासवाद पश्चिम के विकास की अवध्ाारणा में केन्द्र-स्थानीय है। आप यह कह रहे हैं कि हम लोग वैसे नहीं हैं। हमारा विकास का या प्रगति का विचार काल से बँध्ाा नहीं है, क्या आप यह भी कह रहे हैं?
मुखोपाध्याय- नहीं। हमारे समय का विचार अलग है। मैं आपको उदाहरण देता हूँ। वह एक शब्द है। जब वह शब्द मैंने उस अँग्रेज़ी के लेखक से कहा, उसने अपनी नोटबुक बन्द करके कहा था कि अब हम बातचीत बाद में करेंगे क्योंकि मैं इस विचार पर सोचूँगा। पश्चिम और हमारी काल की अवध्ाारणा में यह फ़र्क हैः पश्चिम के अनुसार अतीत सान्त (स$अन्त) है और भविष्य अनन्त। हमारी दृष्टि में अतीत अनन्त है और भविष्य सान्त। यह समय की हमारी अवध्ाारणाओं में अन्तर का मर्म है। हमारे देश के योजनाकार, हमारे नेता, जो सामाजिक विकास के पक्षध्ार हैं, उन्होंने यह कभी सोचा ही नहीं है कि हमारा समाज किस तरह का है और उसमें किस किस्म का विकास या प्रगति होनी चाहिए, कि हर संस्कृति में विकास की अपनी अलग और विशिष्ट दृष्टि हुआ करती है। उन्होंने यह कभी सोचा ही नहीं कि मूलतः समाज दो तरह के होते हैं। एक सपाट समाज होता है, यूरोप इसका उदाहरण है। लेकिन एक और तरह का समाज भी होता है, जो सपाट नहीं होता। भारत का समाज सपाट नहीं है। सपाट समाज में विकास की विचारध्ाारा को इस तरह परिभाषित किया जा सकता हैः ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों की अध्ािक-से-अध्ािक खुशी। यह मात्रात्मक है यानी क्षैतिज विकास है। लेकिन जिस समाज में क्षैतिज विकास को उध्र्व विकास के साथ जोड़कर देखा जाता है, जहाँ सार्वजनिक विकास को वैयक्तिक विकास के साथ जोड़ा जाता हो, वहाँ आप विकास को केवल सपाट या क्षैतिज अर्थों में नहीं बाँध्ा सकते। वैसा करना केवल सपाट समाजों के लिए ही उचित है। भारत वह नहीं है। इस समाज में आप अध्ािक-से-अध्ािक लोगों की ज़्यादा-से-ज़्यादा खुशी का प्रयास तो करते ही हैं, (सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः) इसके साथ ही यह समाज यह भी मानता है कि व्यक्ति की भी मुक्ति होनी चाहिए। विवेकानन्द ने इसे किस तरह किया? उन्होंने कहा, ‘सात्मन मोक्षार्थं जगतहिताय च’ (अपने और जगत की मुक्ति दोनों के लिए)। यह कहने भर से नहीं हो जाता। व्यक्ति और जगत की मुक्ति को कैसे जोड़ा जाए, यह उन्होंने कभी नहीं दिखाया। यही भारत ने कहा और इसकी व्याख्या की। यह हमारे मानस से बाहर कैसे चला गया? इसका कारण यह है कि हम व्यवस्थित रूप से अपने पारम्परिक लोगों को हाशिये पर फेंकते चले गये। हमने यूरोप के प्रभाव में यह विचार उत्पन्न कर लिया कि पारम्परिक लोग अनिवार्यतः आदिम होते हैं, रूढि़वादी होते हैं। ये सारी शब्दावली पश्चिम की बनायी हुई है, हमारी नहीं। भारत के पारम्परिक लोगों ने इस तरह कभी नहीं सोचा। दयानन्द सरस्वती को पारम्परिक लोगों ने कोई भी प्रताड़ना नहीं दी पर करपात्री बनारस में बैठे हुए विरक्त संन्यासी थे, उन्होंने दयानन्द सरस्वती के हर विचार का शब्दशः खण्डन किया। हमारी संस्कृति यह है। हम जो लोग शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय हैं, उनका यह कत्र्तव्य है कि हम अपनी चेतना के स्तर पर यह सजगता लाएँ कि हम भारत के विषय में क्या सोचते हैं। क्या हमारे मन में भारत के स्वरूप को लेकर कोई ध्ाारणाएँ हैं?
उदयन- क्या आप अतीत की अनन्तता पर कुछ और विस्तार कर सकते हैं, विशेषकर हमारे व्यवहारिक जीवन में? यह तो आप और मैं जानते ही हैं कि तमाम विचारों के मूल में जीवन-व्यवहार ध्ाड़कता है। इसकी जीवन्तता के बिना वे निष्प्राण हो जाते हैं। मैं यह इसलिए पूछ रहा हूँ क्योंकि आपकी भारतीय संस्कृति की अवध्ाारणा में यह एक मुख्य कारक जान पड़ता है...
मुखोपाध्याय- ऐसे अनेक महत्वपूर्ण विचार हैं अगर हम उन्हें अपने मन में स्पष्ट नहीं करते, देश में आत्म सजगता लाना सम्भव नहीं होगा। यह एक आधुनिक अवध्ाारणा है कि भारत एक बहुसांस्कृतिक समाज है। बहुसांस्कृतिक समाज का यह विचार सांस्कृतिक अस्मिता के विचार को हाशिये पर डालने के प्रयास का ही एक भाग था। आज शायद ही ऐसा कोई देश है, जो बहुसांस्कृतिक न हो। फिर भारत को भी वही कहने का क्या अर्थ है? अमत्र्य सेन जब यह कहते हैं, उनका आशय यह है कि भारत में हिन्दू परम्परा, बौद्ध परम्परा आदि समानान्तर परम्पराएँ हैं। अगर वे यह बता सकें तो यह प्रमाणित हो जाएगा कि भारत की संस्कृति में कोई ऐक्य नहीं है। ऐसा क्या किसी और शिक्षित भारतीय विद्वान ने कहा है जिसे भारतीय साहित्य और संस्कृति का सीध्ाा (फस्र्ट हैण्ड) ज्ञान हो? क्या ऐसा कुछ मेरे गुरू गोपीनाथ भट्टाचार्य ने कहा है? क्या ऐसा कृष्णचन्द्र भट्टाचार्य ने कहा है या हरदत्त शास्त्री ने? इन सभी ने इसे अस्वीकार किया है। बौद्ध ध्ार्म भारतीय संस्कृति की ही उपशाखा है। अगर आप मुझसे यह कहेंगे कि तुम्हारे पास इसका क्या प्रमाण है, मैं आपको वह आसानी-से दे सकता हूँ। भारतीय कौन है? इसके लिए उसमें निश्चय ही कुछ मौलिक विश्वास और व्यवहार होने चाहिए। हमें उसे परिभाषित कर पाना चाहिए। वे कौन-से विश्वास और व्यवहार हैं जिनसे सांस्कृतिक अस्मिता किसी हद तक निधर््ाारित होती है? उनमें से एक यह है; आपको ऐसा शायद ही कोई भारतीय मिलेगा, जो कर्म के सिद्धान्त और पुनर्जन्म में विश्वास न करता हो, चाहे वह बौद्ध हो या जैन या हिन्दू। इस तथ्य को दबाने की क्या ज़रूरत है? ये सभी कर्म के सिद्धान्त को मानते हैं और कर्म के सिद्धान्त की तार्किक परिणति अतीत की अनन्तता में होती है। साथ ही इसका अन्तर्सम्बन्ध्ा भारत की समय की ध्ाारणा से जुड़ा हुआ है। यह कहना कि अतीत में अनन्तता है और भविष्य में सीमा, कोई राजनैतिक वक्तव्य नहीं कि कपोल कल्पित हो। लेकिन अतीत की अनन्तता का यह विश्वास किस तरह लोक व्यवहार में आता है? यह कर्म के सिद्धान्त में विश्वास के रास्ते आता है। ऐसा कोई भारतीय लगभग नहीं हुआ, जो इस विचार पर विश्वास न करता हो। इसका सम्बन्ध्ा निश्चय ही पुनर्जन्म से है, जिसकी तार्किक परिणति अतीत की अनन्तता में है।
उदयन- आपने चैथे राष्ट्रीय आन्दोलन के विषय में कुछ देर पहले बात की। वह राष्ट्रीय राजनैतिक आन्दोलन था। आप उसकी शुरुआत और फिर उसके व्यापक विस्तार पर जितनी हो सके, विस्तार से कहिए।
मुखोपाध्याय- इस आन्दोलन की शुरुआत बहुत मामूली और लगभग अनदेखी थी। यह राजा राम मोहन राय के समय हुई थी। संयोग से उसी समय मिशनरियाँ इस संस्कृति की निन्दा में संलग्न थीं। लेकिन तब राष्ट्रीय राजनैतिक आन्दोलन विकसित नहीं हो पाया। राम मोहन राय के समूचे लेखन में हमारी राजनैतिक परतन्त्रता पर ज़रा-सी भी बेचैनी नहीं दिखायी देती। लेकिन रबीन्द्रनाथ के साहित्य में देश की परतन्त्रता की गहरी आत्म सजगता है। अँग्रेज़ी राज और भारत पर उसके प्रभाव आदि के बारे में। लेकिन उनके लिए भी इससे कोई खास फ़र्क नहीं पड़ता था कि भारत का शासन अँग्रेज़ों के हाथ में है या किसी और के। राममोहन राय जब समुद्री यात्रा पर थे, फ्राँसीसी क्रान्ति सफल हुई, वे अपने जहाज़ से उतरकर पास के एक दूसरे जहाज़ में गये, जिसमें फ्राँसीसी नागरिक यात्रा कर रहे थे। उन्होंने वहाँ जाकर उन्हें बध्ााई दी। लेकिन उन्हें भारत की राजनैतिक स्थिति को लेकर कोई बेचैनी नहीं थी। बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में इसकी सजगता विकसित हुई और पहला व्यापक जन राजनैतिक आन्दोलन महात्मा गाँध्ाी के नेतृत्य में हुआ। उसके पहले ऐसा कोई राजनैतिक राष्ट्रीय आन्दोलन नहीं था। उसके पहले तक राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन ज़रूर था पर वह व्यापक जन-आन्दोलन नहीं था। 1905 से 1914 तक जब देश की राजध्ाानी कलकत्ते से दिल्ली स्थानान्तरित हुई, राष्ट्रीय राजनैतिक आन्दोलन की शुरुआत हुई और ध्ाीरे-ध्ाीरे इसके सबसे महत्वपूर्ण आन्दोलन बनने के क्रम में बाकी सारे राष्ट्रीय आन्दोलन हाशिये पर चले गये। इस आन्दोलन का आकर्षण इतना अध्ािक था कि भारतीय समाज के लगभग हर हिस्से के लोग इसमें शामिल हुए। ग्रामीण किसानों से लेकर दिल्ली के नागरिकों तक। ऐसा कोई आन्दोलन तब तक नहीं हुआ था जिसमें ऐसी व्यापक भागीदारी रही हो। अन्य सारे राष्ट्रीय आन्दोलन शहरी शिक्षित लोगों तक सीमित थे। इसका श्रेय उसकी पुकार और गाँध्ाी को जाता है। यह आन्दोलन अपने में सफल था पर यदि इसमें अन्य सारे राष्ट्रीय आन्दोलन भी शामिल किये जा सके होते, भारत पूरी तरह स्वतन्त्र हो सका होता। आज हम स्वतन्त्र देश में अवश्य हैं, पर यह किस हद तक भारत है और किस हद तक गै़रभारत, इसे परखा जाना अभी बाक़ी है।
उदयन- क्या आपको इसके, आपके शब्दों में, पूर्ण स्वतन्त्र होने की कोई सूरत बनती नज़र आती है?
मुखोपाध्याय- जीवन के अन्तिम छोर पर पहुँचकर भी मुझमें अब तक उम्मीद बाकी है। हम पूरी तरह विफल नहीं हुए। भारत में कभी पुनर्जागरण नहीं हुआ, लेकिन मैं सोचता हूँ कि युवा लोग, जिन्होंने हमें विफल होते देखा है, वे एक दिन ऐसा देश बना पाएँगे, जहाँ इसकी अपनी जीवन्त संस्कृति फिर से प्रतिष्ठित हो सके। लेकिन यह केवल तब होगा, जब ऐसे विवेकवान युवाओं के हाथ में शक्ति होगी। वे हमारी विफलता, बेईमानी, झूठ, दोगलापन आदि से साक्षात् कर चुके हैं। मुझे लगता है कि इस अनुभव के कारण वे यह सब करने से बच सकेंगे। कुछ बुद्धिमान, ईमानदार और निष्ठावान लोग देश की संस्कृति का पुनर्वास करेंगे पर यह सिर्फ़ उम्मीद है। केवल उम्मीद...
उदयन- यहाँ एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि ऐसे क्या कारण थे कि राष्ट्रीय राजनैतिक आन्दोलन के चलते अन्य सारे राष्ट्रीय आन्दोलनों की अवज्ञा हुईं? वह विस्मृति क्यों हुई? एक का कारण आपने कुछ हद तक बताया है, जहाँ आपने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन के एक स्तम्भ रबीन्द्रनाथ टैगोर ने ही उसे अपनी राजा राम मोहन राय के प्रति निष्ठा के कारण रेखांकित नहीं किया। क्या इसके अलावा भी इस विस्मृति के पीछे कुछ और था?
मुखोपाध्याय- राजनैतिक आन्दोलन के अलावा जैसा कि मैंने आपको बताया, बाकी सारे आन्दोलन शहरी आभिजात्यों तक ही सीमित रहे आये। उनमें से एक भी वास्तविक जन आन्दोलन नहीं था।
उदयन- आपके कहने का क्या यह आशय है कि इस आन्दोलन में शामिल लोग इसे ग्रामीण क्षेत्रों में फैलाने में समर्थ नहीं हो पाये?
मुखोपाध्याय- उनकी पहुँच व्यापक जन समुदाय की अन्तश्चेतना तक नहीं थी। वे शहरों में फँसकर रह गये और अकादमिक रहे आये। उनकी समझ की जड़ें लोकमानस में नहीं थीं। इसलिए व्यापक जन समुदाय इनसे लगभग अछूता रहा आया जबकि राष्ट्रीय राजनैतिक आन्दोलन ने भारत के व्यापक जनसमुदाय के जीवन को प्रभावित किया। समाज का वह प्रकार, जो हमने स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद स्थापित किया, वह समाजवादी लोकतान्त्रिक गणतन्त्र था। यह करते ही हमें स्वार्थ पूर्ति का अवसर मिल गया। हर व्यक्ति अपने हिस्से के लिए प्रयत्नशील हो गया, चाहे वह फैक्ट्री में काम करने वाला मज़दूर हो या ग्रामीण किसान, वह हिन्दू हो या मुसलमान, सभी अपनी-अपनी स्वार्थ सिद्धि में जुट गये। इस अवसर का लाभ लेकर राजनैतिक नेतृत्व भी भ्रष्ट हो गया। वे अपनी स्वार्थ सिद्धि में जुट गये।
उदयन- आप कुछ देर पहले विज्ञान-तकनीकी के विकास से सम्बन्ध्ा पर बता रहे थे...
मुखोपाध्याय- मैंने आई.आई.टी. संस्थानों और अन्य संस्थानों के विज्ञान विभागों में दिये अपने व्याख्यानों में कहा है कि हमारे देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि भारत समेत कई देशों में सामाजिक विकास का अध्ािकांश वैचारिक निवेश विज्ञान और तकनीकी से आता है। एक समय था जब विश्व पर शक्ति (पाॅवर) का प्रभुत्व था, अब विश्व पर ध्ान शासन करता है। शक्ति को खरीदा जा सकता है। अब विज्ञान और तकनीकी को कम्पनियों ने अपनी गिरफ़्त में लिया है। वे ही इनके आविष्कार की दिशाएँ तय करती हैं और फिर उसे बेचती हैं। मानव शास्त्र के विद्वानों को दरकिनार कर दिया गया है। तब भी इन शास्त्रों के विद्वानों ने किसी हद तक अपना स्वातन्त्र्य बचाकर रखा है। इस सीमित स्वातन्त्र्य के साथ क्या किया जा सकता है? हम बिना किसी भय या पक्षपात के यह तो अनवरत बल्कि जीवन भर कहते रह सकते हैं कि यह हो रहा है, हम इसे इस तरह देखते हैं और ऐसा करके हम इस सबके प्रति सजग हो सकते हैं। किसी भी मूलभूत परिवर्तन का यही आध्ाार होता है कि जो कुछ भी हो रहा है, हम उसके प्रति चैकस रहें। अगर भ्रष्ट आचरण है, हमें उसके प्रति सजग होना चाहिए। जब हमारे शिक्षक संसद में जाते हैं, वे वहाँ संसदीय कत्र्तव्य नहीं निभाते और कहते हैं कि वे शिक्षक हैं और वे लोग ही वहाँ से लौटकर अपने शिक्षा संस्थानों में यह कहते हुए पढ़ाने से बचते हैं कि वे सांसद हैं।
उदयन- अगर मैं आपको इस बातचीत के कुछ पहले ले चलूँ जहाँ आपने यह कहा था कि राष्ट्रीय राजनैतिक आन्दोलन के प्रभुत्वशाली होने का एक बड़ा कारण यह था कि वह शहरी शिक्षित आभिजात्यों से निकलकर गाँव-देहात तक में फैल गया था और उसके ऐसा होने के साथ ही बाकी तीनों राष्ट्रीय ध्ाार्मिक, सांस्कृतिक और शिक्षा आन्दोलन हाशिये पर चले गये क्योंकि वे शहरी शिक्षितों तक ही सीमित रहे आये, क्या ये आन्दोलन, विशेषकर राष्ट्रीय सांस्कृतिक आन्दोलन अपने में दोषमुक्त थे या कोई और ऐतिहासिक कारण इनके व्यापक न हो पाने का होगा? मिसाल के तौर पर भक्ति आन्दोलन सांस्कृतिक आन्दोलन होते हुए भी देश के लगभग हर कोने में फैला था।
मुखोपाध्याय- इन सब चीज़ों पर बात होनी चाहिए। मेरा विचार यह है कि भक्ति आन्दोलन जैसी कोई घटना नहीं हुई। भक्ति आन्दोलन काल्पनिक है। जैसे भारतीय रेनेसाँ कल्पना भर था, वैसे भक्ति आन्दोलन की भी कल्पना की गयी। अगर आप भक्ति आन्दोलन के काल को ध्यान से देखें, आप पाएँगे कि यह लगभग वही काल है जब यूरोपीय रेनेसाँ हो रहा है। हम लोग इस तरह शिक्षित हुए हैं कि अपनी संस्कृति और इतिहास को यूरोपीय आँखों से देखें जिसके अनुसार पहले कोई अन्ध्ाकार युग होना चाहिए, उसके बाद प्रकाश का, ज्ञानादेय का काल आना चाहिए। फिर मध्य युग होना चाहिए, उसके बाद पुनर्जागरण (रेनेसाँ) फिर विज्ञान का युग वगैरह... हम जिसे भक्तिकाल कह रहे हैं, वह छह सौ वर्षों में फैला है और हम आज उसके कितने कवियों आदि के नाम लेते हैं? कुछ सुदूर दक्षिण के हैं, कुछ पंजाब के हैं, इन सारी जगहों पर आन्दोलन जैसा लगभग कुछ नहीं था, सामाजिक गतिशीलता नहीं थी। इस सबको औपचारिक रूप से आन्दोलन कहने की शब्दावली कहाँ से आयी? आपको आश्चर्य होगा कि खुद यूरोप में रेनेसाँ शब्द बीसवीं शताब्दी में बनाया गया है, वह भी उस आन्दोलन के लिए जो 13वीं से 16वीं सदी तक हुआ। भक्ति आन्दोलन के साथ भी यही हुआ है। वर्षों बाद एक ऐसी संघटना को नाम देने का प्रयत्न करना, जो बहुत पहले घट चुकी है, उस घटना का वर्णन नहीं, उसकी निर्मिति है और यह निर्मिति निःस्वार्थ नहीं थी। यह मौलिक भारतीय संस्कृति के अर्थ को ध्ाूमिल करने के विचार से प्रेरित थी। उस संस्कृति को हिन्दू संस्कृति कहा गया, उसे अतीत की चीज़ माना गया, उसके बारे में यह कहा गया कि वह रूढि़वादी है, खराब है, शोषण पर आध्ाारित है आदि। भक्ति आन्दोलन को इसकी प्रतिक्रिया के रूप में चित्रित किया गया। भारत की परम्परा में एक दरार डाली गयी और यह कहा कि भक्ति भारत में अज्ञात थी। मैं भक्ति और उससे जुड़े विचार के वैदिक साहित्य से शुरू करके महाभारत के समय तक के सैकड़ों उदाहरण दे सकता हूँ। भक्ति आन्दोलन की अवध्ाारणात्मक निर्मिति के पीछे कोई उद्देश्य रहा होगा, जिसके चलते उन्होंने भक्ति को किसी ऐसी चीज़ के बरक्स रखा है जिसकी इसे प्रतिक्रिया दर्शायी जा सके। भक्ति आन्दोलन को पहले से चली आ रही ध्ार्म परम्परा के विरुद्ध निर्मित किया गया था, क्योंकि यह बताने की कोशिश की गयी कि प्राचीन ध्ार्म परम्परा शोषक मशीन है और केवल कुछ निहित स्वार्थों से संचालित होती आयी है। इसी शोषक व्यवस्था को भक्ति आन्दोलन में शामिल विभूतियों ने चुनौती दी। एक बार बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग में संगोष्ठी हुई और जहाँ तक मुझे याद है, वह नानक पर थी। वहाँ मुझे सम्बोध्ाित नहीं करना था, पर मैं गया। वहाँ लोगों ने कहा चूँकि ये आ गये हैं, इसलिए क्यूँ न इन्हें भी सुना जाए। मुझसे आग्रह करने वालों में एक सिक्ख थे, जिन्होंने उसी विश्वविद्यालय से पढ़ाई की थी। मैंने वहाँ कहा, मैं वह कहूँगा जो मुझे महसूस होता है। मैंने कहा कि मेरा एकमात्र प्रश्न यह है कि मुझे यह समझ में ही नहीं आ रहा कि आप इस विचार गोष्ठी में क्या करने का प्रयास कर रहे हैं। मुझे इसमें शक नहीं कि आप यह मानते हैं कि नानक एक महान ध्ाार्मिक व्यक्तित्व थे और सिक्ख एक महान ध्ाार्मिक परम्परा है। पर आप यह दर्शाने का प्रयास कर रहे हैं कि नानक हिन्दू ध्ार्म के सभी दोषों और रहस्यों को उजागर करने का प्रयत्न कर रहे थे। इस तरह आप उन्हें एक महान ध्ाार्मिक सुध्ाारक की तरह प्रस्तुत कर रहे हैं। यह मेरी समझ से बाहर है। इसका कारण यह है कि कोई भी सच्चा ध्ाार्मिक व्यक्ति ध्ाार्मिक सुध्ाारक नहीं हो सकता। अगर आप महान व्यक्तित्व बताने के प्रयास में उन्हें ध्ाार्मिक सुध्ाारक कह रहे हैं, आप उनकी अवमानना कर रहे हैं। किसी महान ध्ाार्मिक व्यक्ति का मूलभूत गुण यह होता है कि वह अदोषदर्शी होता है। अगर कोई व्यक्ति अन्य में दोष दर्शन करता है, वह ध्ाार्मिक नहीं हो सकता। मैंने कहा इसीलिए आपको अपना मन बना लेना चाहिए कि अगर आप नानक को महान ध्ाार्मिक व्यक्तित्व बताना चाहते हें तो उन्हें दोषदर्शी मत बताइये। आप नानक में दोनों गुण एकसाथ नहीं दिखा सकते।
कुछ वर्ष पहले मैं और नवज्योति तिब्बतन इंस्टीट्यूट, सारनाथ गये थे, यह पता करने कि क्या वह कार्यशाला, जो हमने बाद में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में की, वहाँ हो सकती है। जब हम वहाँ पहुँचे, सामदोंग रिनपोछे ने हमें बताया कि वहाँ एक व्याख्यान आयोजित हुआ है जो कबीर पंथ के प्रमुख दे रहे हैं।
उदयन- वे सम्भवतः विवेकदास रहे होंगे?
मुखोपाध्याय- उस व्याख्यान को हुए बहुत बरस हो गये, मुझे ठीक से याद नहीं। मैंने उनसे कहा कि ‘आप कह रहे हैं कि वेदों को कचरा पेटी में फेंक देना चाहिए। आप यह क्यूँ कहते हैं? क्या यह कहना आपको महान बना सकता है?’ मैंने उनसे फिर वही कहा जो बनारस की गोष्ठी में कहा था कि ‘क्या कोई ध्ाार्मिक व्यक्ति दोष दर्शी हो सकता है? रामकृष्ण परमहंस या रमण महर्षि या आनन्दमयी माँ, ये सभी इस परम्परा को मानते हैं और इससे प्रतिकृत होते हैं, क्या ये सारे संवेदनहीन हैं या क्षीण बुद्धि हैं? ऐसा तो नहीं है।’ दिलीप राय ने यह प्रश्न महर्षि अरविन्द से पूछा था, ‘आप इस व्यापक जन पीड़ा से उदासीन कैसे रह सकते हैं? आप जो एक समय पर उग्र राष्ट्रवादी रहे हैं, जिसने इतने ढेरों लेख ‘वन्देमातरम्’ में लिखे हैं।’ अरबिन्दो ने इसका कोई जवाब नहीं दिया पर कृष्णप्रेम ने जवाब दिया, ‘वही उनका कत्र्तव्य है।’ हमें उन्हें उनकी आँखों से ही देखना होगा। इस पर दिलीप राय कुछ नहीं बोले। मेरा खयाल है कि हम कबीर और नानक को अपने हिसाब से गढ़ने में लगे हैं। मैं यह नहीं कह सकता कि वास्तव में नानक या कबीर क्या थे लेकिन मैं यह कह सकता हूँ कि हम लोगों ने उन्हें कुछ का कुछ बना दिया है। मैं यह भी कह सकता हूँ कि महान व्यक्तित्वों के स्वीकार में हमने उनके साथ बहुत अन्याय किया है।
उदयन- हमने उन्हें अपनी ध्ाारणाओं में ढाल लिया है... उन्हें आधुनिक पश्चिमी प्रत्ययों में अनुकूलित कर लिया है।
मुखोपाध्याय- यह शायद अनजाने हुआ होगा पर इस कारण हम उन्हें अपने लाभ के लिए उपयोग में ला रहे हैं। हमने उन्हें उनकी शर्तों पर स्वीकारने की कभी तैयारी नहीं की। रामकृष्ण परमहंस के किसी शिष्य ने उनसे कहा कि मैं कुछ परोपकार करना चाहता हूँ। रामकृष्ण का यह जवाब था, ‘कुछ दिन तो आत्मोपकार करो। परोपकार होता रहेगा।’ और रामकृष्ण मिशन क्या कर रहा है?
उदयन- केवल परोपकार...
मुखोपाध्याय- वृन्दावन के विशेष सन्त हैं, गुरू शरणानन्दजी। वे पंजाब के हैं, उनका बहुत बड़ा आश्रम है। वे जब भी आते हैं, कई लोगों से मिलते हैं। कभी-कभी मुझे भी वहाँ आमन्त्रित किया जाता है। एक बार मैं उनके पास बैठा था, कुछ और लोग भी बैठे थे, मैंने उनसे कहा कि आप लोग यहाँ बैठकर अपना समय क्यूँ बर्बाद कर रहे हैं, क्यों न किसी विषय पर चर्चा की जाए? मैंने गुरू शरणानन्दजी से एक प्रश्न पूछने की अनुमति ली। मैंने पूछा, ‘आप हमारे समाज को क्यूँ अस्थिर कर रहे हैं?’ वे मेरे सवाल को समझ नहीं पाये। मैंने कहा, ‘आप महात्मा हैं, संन्यासी हैं, आप यह क्या कर रहे हैं? यह कौन-सी सेवा कर रहे हैं? आप मुझे बताइये कि क्या आपका ध्ार्म, सेवा ध्ार्म है? सेवा ध्ार्म गृही (गृहस्थ) का ध्ार्म है। आप यह क्यूँ कर रहे हैं? आपने गृही का ध्ार्म छोड़ दिया और जो आपका ध्ार्म नहीं है, आप वह कर रहे हैं।’ उन्होंने जवाब दिया, ‘यह हमारी मौज है।’ मैंने कहा, ‘यह कोई जवाब नहीं हुआ। ये सारी हमारी नयी ध्ाारणाएँ हैं। ये हमारे मौलिक विचार नहीं हैं।’ एकबार दिल्ली में भारतीय दार्शनिक परिषद् (आई.सी.पी.आर.) की एक गोष्ठी कुन्दकुन्द भारती में हुई थी। कार्यक्रम यह था कि वहाँ सत्र के खत्म होने पर कुछ विद्वानों का सम्मान किया जाए। सम्मान करने कुछ दिगम्बर संन्यासी मंच पर आ गये। फिर घोषणा हुई कि हम लोगों को कुछ सम्मान राशि दी जाएगी। मैंने वह लेने से मना कर दिया और मैं चला आया। मैंने कहा कि विरक्त संन्यासी हमें कुछ कैसे दे सकता है, इसके उलट होना यह चाहिए कि हम उन्हें कुछ दें। क्या हम संन्यासियों से पैसा लें? यह एकदम ग़लत था। स्थिति यह है कि किसी भी क्षेत्र में हमारी परम्परा, आचार, व्यवहार और हमारा विषय-इन सबका उल्लंघन हो गया है। हमारी चेतना की हालत यह है कि हमें इसमें कोई अन्तर्विरोध्ा नहीं दीखता। हम संन्यासी होकर भी दान करेंगे और गृहस्थ होकर भी दान लेंगे, यह अन्तर्विरोध्ा दिखना बन्द हो गया है। आप खुद सोचिए क्या ज़माना चल रहा है। ऐसे लोग भी अब इस समाज में हैं, जो संन्यासी के पास जाकर उसे दस हज़ार रुपये दे देंगे और जिसकी सेवा करना चाहिए, उसकी सेवा करेंगे नहीं। यह पैसा इसलिए दिया जाता है कि उससे वे अपने को विज्ञापित कर सकें। यह कह सकें कि हम फलाँ संन्यासी के शिष्य हैं और हमने उन्हें इतना पैसा दिया है।
उदयन- अगर आप हमारे इस समय को व्याख्यायित करना चाहें, आप क्या कहेंगे?
मुखोपाध्याय- एक तथ्य यह है कि आज दोयम दजेऱ् के लोग हर क्षेत्र में शासन कर रहे हैं। यह क्षेत्र चाहे राजनीति का हो या संस्कृति का या यान्त्रिकी का, वह हर जगह शासन कर रहे हैं। यह न सिर्फ़ अपने आप में ग़लत है बल्कि इसके कारण वास्तविक प्रतिभा सम्पन्न लोगों को ऊपर नहीं आने दिया जाता। इस दोयम दर्जे़ के शासन का लम्बे समय तक असर रहता है। कोई नहीं जानता कि यह कब तक चलेगा लेकिन अगर यह चलता रहा क़रीब पचास साल तक, बिना कमज़ोर हुए, तब मेरे ख़याल से हम हमेशा के लिए बर्बाद हो जाएँगे। दूसरी बात यह है कि हम लोगों ने सोच-विचार करना बन्द कर दिया है। अँग्रेज़ी लेखक बर्नार्ड शाॅ ने कहा था, ‘सतहीपन एक बीमारी है जो दूसरी बीमारियों की तरह हमने ही बनायी है। यह मृत्यु है जो हमने खुद पर आरोपित की है।’ हम आलसी लोग नहीं हैं, विशेषकर वे जो मानव शास्त्र पढ़ा रहे हैं। हम कुछ-न-कुछ तो कर ही रहे हैं, हम सोचने वाले लोग हैं। वैचारिकता किसी भी संस्कृति की आध्ाारशिला होती है, उसके जीवत्व के लिए, उसे बनाये रखने के लिए। हमें ही यानी मानवशास्त्र के अध्येताओं को यह कहने पर मजबूर होना पड़ता है कि हम समाज में कोई भी महत्वपूर्ण योगदान नहीं कर रहे। इसलिए हम यह सोचने लगते हैं कि हम जो कर रहे हैं, वह कुछ नहीं है। जबकि मेरे अपने मत में हम जो कर रहे हैं वह बिल्कुल वही है जो हमें अपनी संस्कृति के लिए करना चाहिए था।
इसलिए मेरे मन में कोई पश्चाताप नहीं है। यह सच है कि मैं उतना नहीं कर सका जितना करना चाहिए था पर मैंने उतना ज़रूर किया जो मैं कर सका। मैं इस संसार को कम-से-कम न्यूनतम ईमानदारी के साथ छोड़ने का मन रखता हूँ।
उदयन- आपने यह बहुत महत्वपूर्ण तथ्य रेखांकित किया कि मानवशास्त्र अपने तमाम रूपों में आज सांस्कृतिक सजगता और आलोचना का प्रमुख वाहक हो सकता है, जैसा कि हर संस्कृति में हुआ करता है पर विज्ञान बल्कि तकनीकी ज्ञान के आगे उसे बहुत छोटा कर दिया गया है और इस तरह भाषा, साहित्य, दर्शनशास्त्र आदि विभिन्न विध्ााओं की सम्भावित भूमिकाओं को निरन्तर अवरुद्ध किया गया है। इस सन्दर्भ में आपका अपने कर्म यानी दर्शन के प्रति निष्ठा बनाए रखने और उसे पर्याप्त कर्म मानने का उपक्रम अर्थपूर्ण है।
मुखोपाध्याय- यह कहा जाता है कि मनुष्य को ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ के रास्ते चलना चाहिए। इसका क्या अर्थ हो सकता है? अपने दैहिक अस्तित्व में मैं कई शक्तियों के अध्ाीन होता हूँ लेकिन अपने चिन्तन में मैं कुछ स्वातन्त्र्य बनाये रख सकता हूँ। यहीं मैं कुछ स्वतन्त्र होता हूँ। इसीलिए मुझे अपने चिन्तन में जितना हो सके स्वातन्त्र्य बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए। मुझे वह ईमानदारी से कहना चाहिए जिसे मैं सत्य मानता हूँ, कोई मुझे सुने-न-सुने, मुझे वही कहना है। बिना किसी क्षमा भाव या बदले की भावना के। यही मेरा ध्ार्म है। मैं इस तरह ही आधुनिक तनावों को देखता हूँ। यही तनाव एक समय तक सभी शिक्षक महसूस करते थे चाहे वे साहित्य पढ़ाते हों या राजनीति, पर उनका नैतिक परिप्रेक्ष्य यही होता था। वर्जिनिया वूल्फ़ का जाना-माना लेख ‘द लीनिंग टाॅवर (झुकती मीनार) है, उसी तरह मैंने भी समाज से बहुत कुछ लिया है। मैं उसे वापस क्या कर रहा हूँ? किसी विदेशी संस्कृति को नहीं, स्वयं अपनी संस्कृति को।
उदयन- आप कोई कहानी सुना रहे थे...
मुखोपाध्याय- ...हाँ कहानी, मेरे शिक्षक कहा करते थे कि कहानी सुनाने जैसा और कुछ नहीं है। आपने सेमुअल जाॅनसन के बारे में सुना होगा। इंग्लैण्ड में उन दिनों यह कहा जाता था कि वहाँ छह राजा हैं जिनका दरबार लगता है। उनमें एक इंग्लैण्ड के राजा थे, चार ताश के राजा (लाल पान का इक्का, दुकुम, चिड़ी और ईंट का) और छठवें राजा थे, सेमुअल जाॅनसन। उनके चारों ओर दरबार रहा करता था। उनमें साहित्यिक दृश्य के हाशिये के लोग, उनके दोस्त और प्रशंसक हुआ करते थे। वह अद्भुत दृश्य होता था। सेमुअल जाॅनसन की बाॅसवेल लिखित जीवनी अवश्य पढ़नी चाहिए। केवल न्याय शास्त्र पढ़ने से नहीं होगा। इन सबसे कहीं-न-कहीं नवज्योति का सम्बन्ध्ा है। एक बार नवज्योति, मैं, दयाकृष्ण और कुछ और लोग लाॅन में बैठकर बातें कर रहे थे। यहाँ-वहाँ की बातें हो रही थीं। तभी किसी ने नवज्योति से पूछ लिया कि क्या आपने साहित्य पढ़ा है। नवज्योति बोले, ‘अगर मैंने एक कहानी भी पढ़ी होती तो पर्याप्त रही होती।’ वे चेस्टरटन की ‘द क्लब आॅफ़ क्यूवर ट्रेड्स’ जि़क्र कर रहे थे। वह कमाल का जवाब था। दो बातें हो सकती हैं या तो आपके दिमाग में आप जो कहने वाले हैं उसके विषय में पूर्वध्ाारणा हो, वैसा करने पर आपका कथन अध्ािक व्यवस्थित होता है। दूसरा रास्ता हमने हमेशा अपनाया। मैंने क़रीब बयालिस वर्षों तक एक ही तरह के दृश्य के प्रति निष्ठा रखी, यह दृश्य था कि मैं बिना किसी तैयारी के कक्षा में जा रहा हूँ और अपना व्याख्यान दे रहा हूँ। यह इसलिए नहीं था कि मैं कोई महान अध्येता था, जो कुछ भी कह सकता था। मैं यह सोचता था, तब भी और अब भी, कि हर कक्षा या बहस जीवन्त घटना है। हमें अध्ािक तैयारी से उसकी हत्या नहीं करनी चाहिए। इसका एक उदाहरण यह है कि गाते बहुत सारे लोग हैं लेकिन बेगम अख़्तर का गाना कुछ और है, क्रिकेट बहुत-से लोग खेलते हैं पर काॅलिन काउड्रे और मुश्ताक अली का खेलना कुछ अलग था। इसका कारण यह है कि आॅस्ट्रेलिया आदि के क्रिकेट खिलाड़ी इतने अध्ािक पेशेवर हैं, उनके चेहरे इतने गम्भीर होते हैं कि यह स्पष्ट ही है कि वे खेल का आनन्द नहीं ले रहे। असली खिलाड़ी वह है, जो हमें भी आनन्द दे और साथ ही खुद भी आनन्दित हो। मैं सोचता था कि कक्षा चूँकि जीवन्त है, उसे अपने आप विकसित होना चाहिए।
उदयन- मैं यह समझ सकता हूँ। मैं खुद भले ही विज्ञान पढ़ाता हूँ पर इसी तरह पढ़ाने का प्रयत्न करता रहा हूँ। पढ़ाना भी यान्त्रिक होता जा रहा है। मानो मनुष्य की जगह मशीन पढ़ा रही हो।
मुखोपाध्याय- अध्ािकतर समय जीवन्त पढ़ाना फलप्रद ही रहा है। मेरी कक्षा में कुछ चीज़ों पर पाबन्दी थी और कुछ चीजे़ं प्रेरित की जाती थीं। नोट्स लेने पर पाबन्दी थी, मेरी दृष्टि में तो वह लगभग पाप था। मेरे व्याख्यान में किसी भी क्षण हस्तक्षेप करने की खुली अनुमति थी। अगर मेरे व्याख्यान में संगति थी तो वह प्रकट होकर रहती थी। कई लोगों का अपने दर्शन के प्रति कोई गहरा सरोकार नहीं होता। यह अध्यापक के लिए बहुत अच्छा है। उसे अपने दर्शन पर अनावश्यक ज़ोर नहीं देना चाहिए। बेहतर परिणाम समय रहते अपने आप आने लगेंगे। मुझे ऐसा ही करना चाहिए था। मुझे अपने विचारों, अपनी भावनाओं, उद्देश्यों पर ज़ोर नहीं देना था। वही मैंने किया। लेकिन अब जब मैं मुड़कर देखता हूँ, मुझे लगता है कि ऐसे कुछ विचार, उद्देश्य और आदर्श थे जिन्होंने अन्ततः हमें बचा लिया। मैं दरअसल अपने अतीत को देखने का प्रयास कर रहा था कि आखिर हम यह सब सोचने की स्थिति में कैसे आ सके। यह सोचना ग़लत है कि मेरे आज के विचार हमेशा से थे। इनमें से कोई भी विचार शुरुआत से नहीं था। लेकिन समय बीतने के साथ ये सारे विचार मेरे या नवज्योति के पास आये होंगे।
उदयन- आप अपने आरम्भिक जीवन के बारे में कुछ कहें। हमारे देश में अनेक बेहतर दार्शनिकों की जीवनियाँ लिखी नहीं गयीं। बहरहाल लिखी तो हमने महान गणितज्ञ रामाजुनन तक की नहीं है। हम इस बातचीत में आपका टुकड़ा-जीवनी ही ले आयें, तो बेहतर होगा।
मुखोपाध्याय- जब हमने अपना छात्र-जीवन शुरू किया, तब का कुछ बताता हूँ। मैं संयोग से कोलकाता के पास के गाँव में पैदा हुआ था। वह खास तरह का गाँव था। उस गाँव में एक थियेटर हाॅल था।
उदयन- आपके गाँव में?
मुखोपाध्याय- हाँ, बकायदा एक थियेटर हाॅल था। वहाँ मैं जिस स्कूल में पढ़ता था, वह कोलकाता विश्वविद्यालय के दस बरस पहले स्थापित हो गया था। उस समय उस स्कूल की आध्ाार शिला की स्थापना या उसका शुभारम्भ लाॅर्ड बेन्टिंग ने किया था। उस स्कूल में नियमित रूप से संगीत समारोह होते थे। मैं यह 1940 के दशक की बात कर रहा हूँ। उस गाँव में ऐसे कम-से-कम 45 घर थे जिनमें दुर्गा पूजा होती थी। उस गाँव की संस्कृति कुछ ऐसी थी कि उन सारे 45 घरों से हर घर को आमन्त्रण मिलते थे और हरेक से यह अपेक्षा होती थी कि वे इन सभी घरों की पूजा में शामिल हों। हमने पिछले दशकों में ऐसे गाँवों को खत्म कर दिया। मेरे देखते-देखते ही वहाँ कुछ बाकी नहीं रहा।
उदयन- ऐसे गाँव और उसमें इस तरह के स्कूल की कल्पना आजकल बिल्कुल भी नहीं है। ऐसे स्कूल मिलना अब शायद गाँवों में मुश्किल है, और कस्बों में भी। कुछ बड़े शहरों को छोड़कर कहीं भी।
मुखोपाध्याय- वह अच्छा स्कूल था पर मेरे मन में उसके लिए कुछ प्रश्न भी रहे हैं, पर वे उतने महत्व के नहीं हैं। मैंने आपको बताया भी था और कई बार लिखा भी है कि ऐसा कोई समय नहीं था, जब इस देश में तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था की आलोचना न हुई हो, लेकिन कभी ऐसा समय भी नहीं था जब कोई श्रेष्ठ शिक्षक न रहा हो। हमें इन दोनों स्थितियों के संयोग को समझना होगा, तभी हम शिक्षा के मर्म को छू सकेंगे। मनुष्यता के इतिहास में ऐसा समय कभी नहीं आया जब उसके किसी हिस्से की आलोचना न हुई हो। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम उस स्थिति में फँसकर रह जाएँ। हमें हमेशा ही उसके परे निकलने का प्रयास करना होता है। अच्छे शिक्षक या मनुष्य स्वर्ग से नहीं टपकते, वे खुद को बनाते हैं। उनके रास्ते में कितने भी दुर्भाग्य क्यूँ न आते हों। हम अपने विद्यार्थी जीवन से ही यह जानते थे, अगर ऐसा कुछ उस वय में सचेत रूप से जाना जा सकता था कि संस्कृतियाँ दो किस्म की हैं, एक भारतीय और एक ब्रितानी।
उदयन- आप यह बात अपने स्कूल के दिनों की कर रहे हैं, इसका आशय यह भी है कि यह 1940 का दशक है...
मुखोपाध्याय- हाँ बिल्कुल। उन दिनों यह सामान्य ज्ञान था। युवा लोग भी यह अनुभव करते थे कि हम भारतीय लोग हैं, हमारी संस्कृति भारतीय है, ये लोग अँग्रेज़ हैं और हम पर शासन कर रहे हैं।
उदयन- तब आपकी उम्र क्या रही होगी?
मुखोपाध्याय- मैं पाँचवीं या छठी कक्षा में रहा हूँगा।
उदयन- यानी आप 10-11 बरस के रहे होंगे।
मुखोपाध्याय- पर यह समझ आम थी। सभी इसमें साझा करते थे। यह ज़रूर है कि हमें इसके इस विभाजन के परिणाम नहीं मालूम थे पर हम यह ज़रूर जानते थे कि ये साहब लोग हैं और निश्चय ही बुरे हें। लेकिन हमें यह भी अनुभूति थी कि ये गोरे लोग हमारे देश में कई चीज़ें लेकर आये हैं। साथ ही, हमें यह समझ भी थी कि ये लोग विभाजनकारी भी हैं।
उदयन- क्या इस किस्म की बातें परिवारों में भी होती थीं?
मुखोपाध्याय- हर परिवार में तो नहीं पर मेरे परिवार में कभी-कभी ये बातें अवश्य होती थीं। यह मेरे परिवार की अच्छी बात थी। हमारे परिवार की कुछ विशेषताएँ थीं मसलन, जब मैं दूसरी, तीसरी, चैथी या पाँचवीं कक्षा में था, मैं ही नहीं, मेरे बड़े भाई और बहनें भी जब पढ़ते थे, हमारे घर में यह कोई नहीं कहता था कि तुम लोगों को पढ़ाई में लगे रहना चाहिए, कभी भी नहीं। अगर कोई कह देता तो सुनने वाला उससे अपमानित महसूस करता। यह माना जाात था कि अध्ययन हरेक का अपना मसला है, वह उसे खुद सुलझा लेगा। मेरे पिता कुछ अलग कि़स्म के व्यक्ति थे, वे यह कभी नहीं कहते थे कि तुम्हें क्या पढ़ना चाहिए, क्या नहीं। तुम्हें जो पसन्द है, तुम पढ़ो। वे हमारे ग्रेड्स (नम्बरों) की चिन्ता नहीं करते थे। शायद उस समय यह सम्भव भी था। तब स्थिति इतनी खराब और प्रतिस्पधर््ाी नहीं थी। हम सिर्फ़ इतना जानते थे कि हम परीक्षा में बैठेंगे और पास हो जाएँगे। अगर हम पास हो जाएँगे, हम अगले स्तर में दाखिला पा लेंगे। इस कि़स्म की चिन्ताएँ तब नहीं थीं। अगर मैं इन दिनों पैदा हुआ होता, मुझे पक्का भरोसा है, मैं स्कूल की परीक्षा भी पास नहीं कर पाता। हमारे पिता कई बार व्यवहारिक नहीं हो पाते थे। आखिरी परीक्षाओं और अगली कक्षाएँ शुरू होने के बीच कुछ दिन अवकाश के होते थे, उन दिनों हम जो चाहते, पढ़ सकते थे। मेरे पिता ने मुझसे कहा कि मुझे इतिहास पढ़ना चाहिए। उन्हें इतिहास पढ़ना पसन्द था। शायद इसीलिए मैं शुरुआती दिनों में इतिहास को नापसन्द करता था, अब उसकी ओर लौटा हूँ। उन्होंने मुझे कहा, ‘मैं तुम्हें मैकाले का लिखा ब्रिटेन का इतिहास पढ़ाता हूँ। मैंने पाया कि मुझे दस में से आठ या नौ शब्द समझ में नहीं आ रहे हैं, वे इस हद तक अव्यवहारिक हो जाते थे। मैं क्या करता? मैं उनके घर रहते समय गायब हो जाता था। जब वे व्यस्त हो जाते, मैं लौट आता। अन्ततः पिता को बात समझ में आ गयी। उन्होंने मैकाले का लिखा इतिहास पढ़ाना छोड़ दिया। इस तरह मेरे इतिहास अध्ययन का अन्त हुआ। उन्हीं दिनों मैं अपने पिता से पूछा करता था, तब मैं नवे दर्जे़ में था, उन्हें कौन-सा कवि पसन्द है। मैं पूछता, ‘आपको वड्र्सवर्थ और ब्राउनिंग में कौन-सा कवि पसन्द है?’ वे कहते, ‘वड्र्सवर्थ।’ मैं कहता, ‘ग़लत, ब्राउनिंग बेहतर है।’ पिता जवाब देते, ‘तुम बड़े हो जाओ, समझ जाओगे।’ इस किस्म की बातें हमारे बीच होती थीं। हमारे लिए बहुत खुलापन था। हम पर कोई दबाव नहीं था जैसा कि आजकल बच्चों पर होता है, इसीलिए हमने अपना विद्यार्थी जीवन आनन्दपूर्वक बिताया। मेरे पिता को साहित्य से अगाध्ा प्रेम था। विशेषकर अँग्रेज़ी साहित्य से। जब मैं आठवीं में था, मैंने तय कर लिया था कि मुझे आगे चलकर अँग्रेज़ी प्रोफ़ेसर बनना है, मैं कलकत्ता के प्रेसीडेन्सी काॅलेज में मैंने दो-तीन बार अँग्रेज़ी साहित्य पढ़ने की कोशिश की, हर बार मुझे वैसा करने से रोक लिया गया। या तो वह मानवीय अड़चन रही या दैवीय। वह एक अलग कहानी है। मेरा दर्शन में आना महज़ संयोग था। वह मेरा स्वप्न नहीं था। पर आज मैं यह समझ पाता हूँ कि अगर मैंने साहित्य पढ़ा होता, दर्शन की किताब मेरे लिए बन्द रही आती। मेरे दर्शन पढ़ने के कारण, मेरे लिए इतिहास या साहित्य या अन्य विषय खुल गये।
उदयन- आपने यह ख़ास बात कही है कि दर्शन ने आपकी समझ के दरवाजे़ दूसरे क्षेत्रों के लिए भी खोल दिये। आप इसका क्या कारण समझते हैं?
मुखोपाध्याय- मैं भाग्यशाली हूँ कि मैंने दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया। क्योंकि दर्शन आपको अपेक्षा का अवकाश विस्तृत कर देता है। यह दर्शन में कूट-कूटकर भरा है। एक इलाहाबाद के अप्रवासी बंगाली का ऐसे आशय का प्रसिद्ध गीत है। उनका नाम अतुल प्रसाद सेन था। वह महान संगीतकार थे। उन्होंने कई संगीत रचनाएँ बनायी हैं। उन्होंने विशेष तरह की संगीत रचनाएँ बनायी हैं। जिस तरह संगीत की विशिष्ट रचनाओं को ‘रबीन्द्र संगीत’ कहा जाता है, उसी तरह ‘अतुल प्रसाद संगीत’ भी है, उसमें विशिष्ट संगीत रचना और साहित्य है। उन्होंने कई गीत लिखे और उनको शैली विशेष में संगीतबद्ध किया। वे खुद भी बहुत अच्छे गायक थे और उन्होंने कई शिष्यों को सिखाया था। इनके अलावा भी एक ऐसे संगीतकार थे। इन तीनों व्यक्तियों ने संगीत रचनाएँ कीं और गान की तीन अलग विध्ााएँ विकसित कीं और उनमें एक चीज़ सामान्य हैः वे सभी मार्गी संगीत से अलग हैं। यह सोचने की बात है कि ऐसा क्यूँ हुआ होगा कि उस अवध्ाि में ऐसे कई संगीतकार हुए जिन्हें यह महसूस हुआ कि संगीत की एक अलग विध्ाा की आवश्यकता आन पड़ी है। उनकी गीत रचना भी अलग थी और संगीत रचना भी।
उदयन- वे सभी संगीत-रूप मार्ग संगीत से अलग थे, यह कहने में विशेष तथ्य का उल्लेख हो रहा है। यह विचार महत्व का है और यह किसी हद तक उस समय के ऐतिहासिक प्रश्न को भी आलोकित कर सकता है।
मुखोपाध्याय- विशेष बात यह है कि जिन लोगों ने भी ये संगीत रचनाएँ कीं, वे मार्ग संगीत के विशेषज्ञ थे। तब भी उन्होंने अपनी तरह की संगीत विध्ााओं को रचने को वरीयता दी। दरअसल, बात यह है कि कोई भी गीत किन्हीं राग-रागनियों में संयोजित किया जा सकता है, यह अवश्य है कि हो सकता है कि वह रचना कमज़ोर हो। इसलिए ऐसा नहीं था कि रबीन्द्रनाथ आदि के लिखे गीतों को राग-रागिनियों में संयोजित न कर सकते हों। रबीन्द्रनाथ कई मार्ग संगीतों के जानकार थे और वह सब जानकर ही उन्होंने एक अलग, रबीन्द्र संगीत बनाया।
उदयन- यह तथ्य बहुत लोगों को मालूम होगा कि रबीन्द्रनाथ ने विष्णुपुर घराने का ध्ा्रुपद सीखा था।
मुखोपाध्याय- उन्होंने विष्णुपुर घराने के अध्ािष्ठाता जदु भट्ट से संगीत सीखा था। लेकिन उस घराने को भी कई हिस्सों में विभाजित किया जा रहा है। पर वह अलग बात है। सारे मार्ग संगीतकारों ने इन तीनों ही संगीत प्रयोगों की अवहेलना की। जबकि रबीन्द्रनाथ और अतुल प्रसाद सेन आदि ने मार्गी संगीत सीखा था। मार्ग संगीतकारों ने इन संगीत विध्ााओं के विषय में कुछ नहीं कहा, वे चुप रहे आये। अब कुछ संगीतकार रबीन्द्र संगीत का गायन या वादन करने लगे हैं। रबीन्द्रनाथ, अतुल प्रसाद आदि के संगीत के कुछ लोग खिलाफ़ थे, कुछ पक्षध्ार। इस तरह इन संगीत प्रकारों के सन्दर्भ में दो खेमे बन गये। स्थापित मार्गी संगीतकारों को वह संगीत पसन्द नहीं था। यह ज्ञात तथ्य है पर यह पता नहीं है कि ऐसा क्यों था। यह भी बहुत पता नहीं है कि रबीन्द्रनाथ मार्ग संगीत को जानते हुए भी रबीन्द्र संगीत की रचना क्यूँ करने लगे। संगीत को लेकर तीन महत्वपूर्ण व्यक्तियों में बहस हुई थी। इनमें मुख्य व्यक्ति थे, धुर्जटी प्रसाद मुखोपाध्याय। वे भी लखनऊ के अप्रवासी बंगाली थे। वे संगीत के अच्छे आलोचक थे। उनके और रबीन्द्रनाथ के अनेक विषयों पर मतभेद थे। इन दोनों के बीच तीसरे एक और थे, जो स्वयं विद्वान और दिलचस्प व्यक्ति थे। वे ध्ाार्मिक व्यक्ति, बड़े संगीतकार, संगीत रचनाकार और महान अध्येता थे। वे आॅक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के ट्राईपाॅस थे। उन्होंने प्रेसीडेन्सी काॅलेज कलकत्ते से स्नातक उपाध्ाि प्राप्त की थी, गणित और कुछ अन्य विषयों में। उनका नाम है दिलीप राय। वे भी अरविन्द के शिष्य थे। वे धुर्जटी प्रसाद और रबीन्द्रनाथ की बहस के बीच में थे। रबीन्द्रनाथ का मत अपेक्षाकृत स्पष्ट था। स्पष्ट यह नहीं है कि संगीतकार इसके विरोध्ा में क्यूँ थे। ‘रबीन्द्र संगीत’ और ‘अतुल प्रसाद संगीत’ गायक के लिए स्वतन्त्रता का बहुत कम अवकाश छोड़ते थे जबकि मार्गी संगीत की विशेषता यह है कि वहाँ संगीतकार के लिए स्वतन्त्रता का असीम अवकाश है। इसका अर्थ यह है कि एक ही राग को दस लोग दस तरह से गा सकते हैं। लेकिन अगर सौ लोग रबीन्द्र संगीत गाते हैं तो वह सौ बार एक-सा गाना होगा।
रबीन्द्र संगीत में न तो एक आखर और न एक तान जोड़ी जा सकती थी। इसलिए उसमें न तो तान के विस्तार की सम्भावना थी और न गान विस्तार की। हालाँकि, यह भी सच है कि रबीन्द्रनाथ ने ऐसी दो संगीत रचनाएँ की हैं जिनमें उन्होंने आखर जोड़ा है पर वहाँ भी तान विस्तार की गुंजाईश नहीं है। रबीन्द्रनाथ का कहना यह था कि मार्गी संगीत बहुत लम्बे समय से उन लोगों के हाथ में था जो अध्ािकांशतः अशिक्षित थे। उनके पास सामान्य शिक्षा की कमी थी। इसका एक प्रभाव यह पड़ा कि सांगीतिक युक्तियों, उसके तकनीकी पक्ष की संगीत में प्रमुखता हो गयी और संगीत का रस या सौन्दर्य हाशिये पर चला गया। जब अपेक्षाकृत अध्ािक जानकार लोगों का संगीत में प्रवेश हुआ, स्थिति बदल गयी। अब ऐसे संगीतकार शायद कम होंगे, जो कम जानकार हों और इस तरह बिना किसी घोषणा के कुछ परिवर्तन आना शुरू हो गये। एक बार मैं एक संगोष्ठी में गया जिसका विषय थाः संगीत में तर्कातीत। किसी संगीतकार ने वहाँ एक किस्सा सुनाया; वे एक दिन मंच पर गा रहे थे। जब उनका गायन समाप्त हुआ, एक श्रोता उनके पास आया और कहने लगा, ‘उस्तादजी आपने अपने गायन में एक ग़लत स्वर का उपयोग कर लिया, ऐसा क्यूँ किया? वे बोले, जब मैं गा रहा था, वह स्वर मेरे दरवाजे़ दस्तक दे रहा था, वह गाने के भीतर आना चाहता था। मैंने सोचा उसे एक बार आ जाने देते हैं।
उदयन- संयोग से यह घटना कुमार गन्ध्ार्व के साथ घटी थी। वे राग भूपाली गा रहे थे और तभी उन्हें लगा कि मध्यम, जो उस राग का विवादी स्वर है, राग में प्रवेश करना चाहता है। उन्होंने खुद से कहा, ‘अरे भई उसे आने देते हैं, अपना ही स्वर है।’ दुर्भाग्य से विवादी स्वर को वर्जित स्वर भी कहा जाता है पर वह ग़लत इसलिए है क्योंकि विवादी स्वर दरअसल अपनी अनुपस्थिति में राग में उपस्थित रहता है।
मुखोपाध्याय- इस किस्से में एक निर्देश अन्तर्निहित है। मैं यह कह रहा हूँ कि इस तरह के नवाचार की मार्गी संगीत में बहुत अध्ािक सम्भावना है। यह रबीन्द्र संगीत में नहीं है। लेकिन तब भी मार्गी संगीत को गहरायी तक समझने वाले रबीन्द्रनाथ उस दूसरी तरह के संगीत को प्रस्तावित कर रहे थे। उनका कहना था कि मार्गी संगीत में संगीतकार के लिए बहुत अध्ािक स्वातन्त्र्य है पर ऐसे बहुत संगीतकार नहीं हैं जो इस स्वातन्त्र्य को सम्भाल सकें।
उदयन- शायद वे यह कहते समय वही कह रहे हैं जिसे अध्ािकारी न हो पाने की सीमा कहा जा सकता है।
मुखोपाध्याय- जानकारी के अभाव में अध्ािकतर उस्ताद लोग दोहरावग्रस्त होते हैं। एक समय मैं भी बहुत-सी संगीत सभाओं में गया। उन दिनों यह बात थी कि हर गान कम-से-कम तीन घण्टे का तो होता ही था। अभी हाल में अमज़द अली खान ने यह टिप्पणी की कि मैंने एक संगीत सभा रात नौ बजे से सुबह नौ बजे तक सरोद बजाया था। इस तरह के दोहराव पर उन दिनों रविशंकर जैसे कुछ रोशन ख़याल संगीतकारों और चिन्तकों ने ध्यान दिया और यह कहा भी कि यह क्या ज़रूरी है कि सारे राग तीन या चार घण्टें गाये जायें। वे इस मत के थे कि एक राग को तब तक गाया जाना चाहिए जब तक वह समूचे सौन्दर्य में प्रकट न हो जाए। लेकिन यह जैसे ही सम्पन्न हो जाता है, वह पर्याप्त हो जाता है। दरअसल, स्वातन्त्र्य का वही उचित उपयोग था। लेकिन कमज़ोर संगीतकार यह तय करके बैठते थे कि हमें तो कम-से-कम तीन घण्टे या उससे अध्ािक गाना ही है। यह उस दोष का पहला हिस्सा है। दूसरा भाग यह है कि सामान्य श्रोता संगीत का आनन्द धुन में तो लेते ही हैं पर यदि उसमें बेहतर काव्य भी हो और अगर वह संगीत के साथ मिलकर आये, तब संगीत का अनुभव कहीं अध्ािक समृद्ध होता है। लेकिन यह प्रयोग तब तक बहुत नहीं किये गये थे। मार्ग संगीत के गीत कभी राग संगीत की सम्भावना के साथ मिलाकर नहीं लिखे गये। वे केवल सहयोगी ढाँचा भर थे। अगर उन्हें हटा भी लिया जाता, बहुत फ़र्क नहीं पड़ता। सारी राग को तराने में ही गाया जा सकता है। रबीन्द्रनाथ ने सोचा कि यदि विचार और स्वर का संतुलित मेल हो, संगीत का आनन्द कई गुना बढ़ जाएगा। मैं सोचता हूँ कि रबीन्द्रनाथ इस दृष्टि से अस्सी प्रतिशत गीतों में सफल रहे हैं। उन्होंने अपने इस विचार को बक़ायदा प्रदर्शित किया है। सभी संगीत रचनाओं में वे सफल नहीं हो पाए। उस संगीत में एक तरह पूरापन है और वह रंजक भी है। यह सच है कि उन्होंने इस संगीत में संगीतकारों के स्वातन्त्र्य को सीमित किया लेकिन उन्होंने सौन्दर्य और रंजकता में कुछ जोड़ा भी है। वे यह इसलिए कर सके क्योंकि वे न केवल मार्ग संगीत के जानकार थे, स्वयं कवि थे। वे अपने इस प्रयोगों पर इतना भरोसा करते थे कि वे कह सके कि हो सकता है किसी दिन लोग मेरी कविताओं को भूल जाएँ लेकिन वे दो चीजे़ं कभी नहीं भूल सकेंगेः मेरा संगीत और कहानियाँ। यही कुछ अतुल प्रसाद सेन आदि के साथ हुआ। उनके संगीत में वैचारिक समृद्धि है। वे देश प्रेम का संगीत लिख रहे थे। वे गीत कई मनस्थितियों के थे। कुछ गीत ऐसे थे जिनका समकालीन प्रयोजन भी था राजनैतिक हो, न हो। मुख्य बात यह है कि तब तक का मार्गी संगीत से भले ही कई लोग प्रभावित होते रहे हों पर उसमें एक दोष था। वह दोष यह था कि उसमें काव्य कमज़ोर था। संगीत को सुन्दर होने के लिए उसमें प्रयुक्त गीत कैसा भी हो सकता है, यह ध्ाारणा ग़लत है। उन संगीतकारों को कभी भी अच्छे काव्य की आवश्यकता ही महसूस नहीं हुई। वे यह नहीं समझ पाये कि अगर श्रेष्ठ संगीत और उच्चकोटि के काव्य का उचित संयोग होता है तो रंजकता बढ़ जाती है और श्रोता को संगीत में कुछ भी कभी महसूस नहीं होती, तब अभाव उतना उभरकर नहीं आएगा जितनी कि समृद्धि। मैंने यह पूरी विवेचना इसलिए की क्योंकि मैं यह बताने की कोशिश कर रहा था कि वे कौन-से विचार और लक्ष्य थे जिन्होंने हमारी पीढ़ी की मानसिकता को आकार दिया। हम उन दिनों यह नहीं जानते थे कि अच्छा क्या है, बुरा क्या, पर यह पता था कि ‘साहेब लोग’ अच्छे नहीं हैं। लेकिन जब हम कुछ बड़े हुए, हमें यह समझ में आ गया कि हम अपने सांस्कृतिक आध्ाार बहुत हद तक खो चुके हैं। या कि हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को बहुत तेज़ी-से खो रहे हैं। यह बात कई लोगों तक फैली थी। कुछ लोगों को यह लगा कि भारतीय संस्कृति के बीसवीं सदी के मध्य तक आने में मिशनरी ध्ाार्मिक प्रपोगण्डा का स्थान राष्ट्रीय ध्ाार्मिक आन्दोलन ने एक विशेष काल में ले लिया था। तब हालाँकि हम ध्ाार्मिक आन्दोलन की बात कर रहे थे पर दरअसल हम अपने तेज़ी-से क्षीण होते सांस्कृतिक आध्ाारों की खोज कर रहे थे। आधुनिक भारत के जन्म के समय का यह संकट था। आधुनिक भारत के जन्म के समय के दो पहलू स्पष्ट थे। एक ओर रूढि़वादी लोग थे, पुरानी पीढ़ी के लोग। उन्हें हर आधुनिक चीज़ से आपत्ति थी। उनके लिए आधुनिकता एक गन्दा शब्द था। दूसरी ओर पश्चिम से प्रभावित अति-आधुनिक लोग थे। जिनके लिए पुराने लोग और सारा कुछ प्राचीन खराब था। ये दो अतियाँ उस समय यहाँ थीं। लेकिन इन दोनों के बीच भी कुछ लोग यहाँ थे, राष्ट्रीय ध्ाार्मिक आन्दोलन के अध्ािकांश लोग इसी तीसरे समूह के सदस्य थे।
उदयन- क्या आप इसका कोई ठोस उदाहरण दे सकते हैं?
मुखोपाध्याय- वह मुझे देना ही होगा वरना यह महसूस होगा कि यह सब कुछ महज बनावटी है। मधुसूदन दत्त प्रारूपिक आधुनिक पश्चिम-प्रभावित बौद्धिक थे। इसका बेहतर रूप राजा राम मोहन राय थे। दूसरी ओर पुरोहित थे, जिन्हें यह लगता था कि हर आधुनिक चीज़ या विचार अँग्रेज़-विचार है। लेकिन इन दोनों समूहों के बीच कुछ लोग थे। इनका सोचना ये था कि महज़ यह बात कहना कि हम अपने सांस्कृतिक आध्ाारों को खो रहे हैं, पर्याप्त नहीं है। प्रश्न यह है कि हम अपनी सांस्कृतिक ध्ाारा में एक बार फिर अवस्थित हो सकें। यहीं से मेरा विचार है कि माॅडर्न ट्रेडीशनलिस्टों की शुरुआत होती है।
उदयन- इसका अर्थ यह हुआ कि वह समूह यह खोजने में लगा था कि हम उस समय की अपनी स्थिति को, अपने आपको किस तरह देखें।
मुखोपाध्याय- यह एक श्रम-साध्य यात्रा थी। सबसे कठिन था कि उग्र आधुनिकतावादी आपके अपनी परम्परा और संस्कृति की बात करते ही, तुरन्त आपको यह कह कर गिरा देते थे कि यह पुनरुत्थानवादियों का षड्यन्त्र है। इसलिए माॅडर्न ट्रेडीशनलिस्टों की समस्या यह थी कि किस तरह पुनरुत्थानवाद से बचा जाए। पर साथ ही अपनी सांस्कृतिक आध्ाारभूमि को प्राप्त किया जाए। तब तक हम इस बात को समझ गये थे कि आधुनिक होने के अलावा कोई रास्ता बाकी नहीं है। इसीलिए हमने आधुनिकता में कुछ नये आयाम जोड़े। हमारे सामने प्रश्न यह था कि हम आधुनिक अर्थों में विश्वसनीय भारतीय हो सकें। इसके बाद हमारे सामने प्रश्न यह था कि भारतीय होने का अर्थ क्या है। अगर हम अपने आध्ाार को खो चुके थे, अगर हम अपनी जड़ें दोबारा स्थापित करना चाहते तो हमें वह भारत जानने की आवश्यकता थी जिसमें हम अपना आध्ाार खोजते, जिसमें हम अपनी जड़ें दोबारा स्थापित करते। उस आध्ाार को कहाँ ढँूढ़ा जाये, हमारा मुख्य प्रश्न यही था।
उदयन- यह आप ठीक कह रहे हैं। अगर हम अपनी जड़ें खो चुके हैं, हम उन्हें तब तक दोबारा स्थापित नहीं कर सकते जब तक हम वह स्थान न ढूँढ़ लें या वे स्थान न ढूँढ़ लें जिनमें उन्हें स्थापित किया जा सके। लेकिन यह करना आप लोगों के लिए आसान नहीं रहा होगा। आपके पास इसके लिए क्या कुछ विकल्प भी थे?
मुखोपाध्याय- हमारे सामने मोटे तौर पर दो विकल्प थे। हम उन लोगों के पास जायें जो यह अपने शब्दों और कर्मों से यह कह रहे थे कि उनकी जड़ें भारत में ही हैं। ये मुख्यतः पुराने संस्कृतविद् आदि थे। उनका यह दावा कुछ इस तरह था मानो उनकी संस्कृत बोलने आदि की सामथ्र्य ने ही उन्हें यह अध्ािकार दिया हो कि वे यह कह सकें कि वे भारत के असली प्रतिनिध्ाि हैं। लेकिन उनमें से अनेक के साथ हमने यह पाया कि उनके दावे खोखले थे। उनकी भारतीय संस्कृति की समझ अत्यन्त दरिद्र थी। यह सम्भवतः उन्होंने चुना नहीं था, बल्कि वे ऐसा करने को बाध्य हुए। इसीलिए हम उन रास्तों की ख़ोज में लगे, जो हमें वास्तविक भारतीय संस्कृति की समझ की ओर ले जा सकते। पण्डितों के पास जाने के अलावा हमारे पास दूसरा विकल्प लोगों के पास जाना था, पारम्परिक साहित्य की ओर जाना था, जिनमें भारतीय सांस्कृतिक विश्वास और व्यवहार संग्रहीत थे। जब हमने वह यात्रा शुरू की, हमारे सामने एक और अवरोध्ा आया। अनेक आधुनिक और प्राचीन ग्रन्थों में लेखक अपनी ओर से भारतीय सांस्कृतिक व्यवहार के विषय में बोल रहे थे। हमें यह नहीं चाहिए था। हमें यह सूत्रबद्ध करने में कुछ समय लगा कि हम ठीक-ठीक चाहते क्या थे। दरअसल, हमें उस साहित्य की दरकार थी जिसमें भारत स्वयं बोले। हमें भारत पर व्याख्यानों की ज़रूरत नहीं थी, हम स्वयं भारत को बोलता हुआ सुनना चाहते थे। दूसरे शब्दों में, हम ऐसे ग्रन्थों को ढूँढ़ रहे थे जिसमें लेखक स्वयं को ग़ायब कर दे रहा हो या जैसा कि रामकृष्ण ने कहा था कि वह स्वयं इस संस्कृति को देखने छेद बन जाए।
उदयन- इसका अर्थ यह है कि आप लोगों को, ‘माॅडर्न ट्रेडीशनलिस्टों’ को भारतीय संस्कृति की ऐसी अपार्य (ओपेक़) टीका नहीं चाहिए थी जिसमें लेखक अपनी दृष्टि या मूल्यों को प्रस्तावित करे।
मुखोपाध्याय- ऐसी टीका भी हो सकती है जिसमें लेखक चुप रहता, संस्कृति बोलती हो। मसलन रामकृष्ण के शब्दों को पढ़ना एक बात है, उन पर लेखकों के व्याख्यान पढ़ना दूसरी। हमें हमारी आवश्यकता का साहित्य कहाँ मिलता? आपको आश्चर्य होगा यह सुनकर कि हमें वह किस ग्रन्थ में मिलना शुरू हुआ। वह ग्रन्थ ‘मनु संहिता’ था। सबसे तिरस्कृत ग्रन्थ। लेकिन दूसरे भी कई ग्रन्थ ऐसे थे जिनमें भारत बोल रहा था। इसके पहले हमने बहुत-सी हिस्ट्री की किताबें पढ़ ली थीं। हमने कौसाम्बी, रोमिला थापर, एस. गोपाल और ऐसे अनेक लेखकों को पढ़ लिया था। वह हमारे काम के नहीं थे। कुछ हिस्टोरियन ऐसे ज़रूर थे जिनके लेखन में हम कुछ महत्व का पा सकेः राध्ाा कुमुद मुखर्जी, वी.एस. पाठक। हमने अपनी खोज में यह भी पाया कि भारत पर बहुत लिखा गया है। बहुत सारे अन्तर्विरोध्ाी विचार उसके बारे में व्यक्त किये गये। हमें लगा कि लोग यह मानने लगे हैं, मानो भारत की शुरुआत रबीन्द्रनाथ, गाँध्ाी और विवेकानन्द से हुई है। शायद दो सौ साल बाद सभी लोग यह मानने भी लगें। हमें उनकी अभिव्यक्ति में ऐसा क्या लग रहा था कि हम उसे स्वयं भारत की आवाज़ नहीं मान पा रहे थे। भारत विषयक जो विचार व्यापक रूप से प्रचारित किया गया था, वह था कि भारतीय संस्कृति मुख्यतः आध्यात्मिक संस्कृति है। हम यह नहीं मान सकते थे। इसके पीछे पश्चिमी विचारकों की भारतीय संस्कृति की व्याज स्तुति (लेफ़्ट हैण्ड काप्लिंमेंट) थी। यह हम भारतीयों को दिग्भ्रमित करने की युक्ति थी।
उदयन- आपने अपने एक आलेख ‘हिस्ट्री आॅफ़ साइन्स एण्ड टू मेटामाॅरफ़ोसिस आॅफ़ माइण्ड’ में ऐसा कुछ इशारा किया है।
मुखोपाध्याय- मैंने उसमें यह लिखा था कि इन दो ‘मेटामाॅरफ़ोसिस’ (रूपान्तरणों) में एक है कि यूरोप वैज्ञानिक है और दूसरा यह कि भारत आध्यात्मिक संस्कृति है। ये दोनों एक साथ हुए हैं और इनका एक-दूसरे से सम्बन्ध्ा भी है। पश्चिम के लोगों ने यह बड़ा दावा किया जो कि अनिवार्यतः झूठा था कि यूरोप वैज्ञानिक संस्कृति है का अर्थ यह था कि यूरोप वैज्ञानिक ज्ञान परम्परा का संरक्षक है। यह तमाम एशियायी संस्कृतियों को मज़हबी बताने का उपक्रम था। पर विडम्बना यह है कि अपने इस झूठ में यूरोप सफल हो गया, हम विफल हो गये। यूरोप ने एक झूठा दावा किया और उसे सच मानकर सच कर दिया। पर हमने क्या किया? हम आध्यात्मिक हैं, हमने यह कहना शुरू किया और राम मोहन राय के समय से विवेकानन्द तक और फिर अन्ना हजारे तक हमने कौन-सा विकास किया है? हर बीतते दिन के साथ हम ध्ाार्मिक और नैतिक रूप से विपन्न होते जा रहे हैं। हम पश्चिम के झूठ को झूठ साबित नहीं कर सके। हम ‘माॅडर्न टेड्रीशनलिस्ट’ यह समझ गये कि भारत महज़ आध्यात्मिक संस्कृति नहीं। हमने यह पता किया कि अठाहरवीं शती से पहले कभी किसी भारतीय ने यह नहीं कहा कि भारत आध्यात्मिक संस्कृति है। इसका अर्थ यह है कि भारत अपनी दृष्टि में केवल आध्यात्मिक संस्कृति नहीं रहा। यहाँ संस्कृति का हर क्षेत्र विकसित था, वह भले ही विकसित होने के आधुनिक पैमानों पर खरा न उतरे, क्योंकि वह दृष्टि ही अलग है लेकिन हम जैसे ही आधुनिक रेशनेलिटी और विज्ञान को जोड़कर पश्चिमी संस्कृति के विषय में यह कहने लगते हैं कि वह वैज्ञानिक संस्कृति है, भारत की वे सारी दृष्टियाँ और चीजे़ं जो विज्ञान के क्षेत्र से बाहर की हैं, आध्यात्मिक हो जाने को अभिशप्त हो जाती हैं। इसमें भारतविदों (इण्डोलाॅजिस्ट) का बड़ा योगदान है। भारतविद् एक विशेष परियोजना और सम्भावित मानचित्र (ब्लू प्रिण्ट) लेकर भारत आये थे, उसका मूल प्रस्ताव थाः वे सभी जो भारतीय चीजें़ आध्यात्मिक हैं और जो भी वैज्ञानिक है, यूरोपीय संस्कृति है। अगर मैं भारतीय दर्शन पर अँग्रेज़ी में लिखता हूँ तो उसे दर्शन (फि़लाॅसफ़ी) कहा जाता है, अगर वही संस्कृत में लिखूँ तो वह दर्शन नहीं बचता महज़ संस्कृत भाषा हो जाता है।
उदयन- इस सारे अध्ययन और समझ से आप लोग भारतीय संस्कृति के विषय में किस निष्कर्ष या निष्कर्षनुमा पर पहुँचे?
मुखोपाध्याय- हममें यह सोच विकसित हुई कि भारत केवल आध्यात्मिक नहीं, सम्पूर्ण संस्कृति है। चूँकि वह ऐसी है, उसमें मज़हब, आध्यात्मिकता, दर्शन आदि सभी के लिए स्थान है। हम भक्ति आन्दोलन और उससे जुड़े आध्यात्मिक योगदान को जानते हैं पर क्या हम यह भी जानते हैं कि उसी अवध्ाि में और लगभग उसी क्षेत्र में दो महान चीजे़ं हुईं, जिन्हें भारतीय दृष्टि का विश्व को उत्कृष्ट योगदान कहा जा सकता है। पहला है गौड़ीय वैष्णव दृष्टि और दूसरा नव्य न्यायशास्त्र। उसी बंगाल में जहाँ भक्ति आन्दोलन की व्याप्ति थी, नव्य न्याय आया, जो अत्यन्त कठिन, विदग्ध्ा और व्यवहारिक तर्क पद्धति है और वही गौड़ीय वैष्णव भक्ति का प्रतिमान है। उनकी अपनी दृष्टि यह थीः
काव्येषु कोमल धियो वयमेव नान्येव।
तर्केषु कर्कशो ध्ाियो वयमेव नान्येव।।
(काव्य में कोमल, तर्क में कठोर, वही हमारी मति है, किसी और की नहीं। तर्क में कर्कश, वही हमारी मति है, किसी और की नहीं।)
भारत यह हमेशा से जानता था कि मनुष्य एक जटिल इकाई है, उसमें सभी तरह की पसन्द, सरोकार, बेचैनियाँ आदि हैं इसलिए मैं मसलन संगीत में, साहित्य आदि में रुचि के बिना दार्शनिक कैसे हो सकता हूँ? इसी अर्थ में भारत समग्र संस्कृति है। इसीलिए हमने सोचा कि भारतीय संस्कृति को उसकी समग्रता में समझकर ही, हम उसमें अपना आध्ाार खोज सकते हैं। हमारा आध्ाारहीन होना अठारहवीं शती में अपने को आध्यात्मिक संस्कृति कहने से पहले शुरू हो गया था। वह केवल ईसाई मिशनरियों के कारण नहीं था। इसकी शुरुआत तथाकथित भक्ति आन्दोलन के ध्ाार्मिक लोगों ने की थी। तभी से अध्यात्म (काव्य आदि) का तर्क से विभाजन शुरू हुआ। ‘भक्ति आन्दोलन’ में शामिल और उससे सम्बद्ध तमाम व्यक्तित्व शास्त्र की दृष्टि से या तो अशिक्षित थे या कम शिक्षित थे, हालाँकि वे ध्ाार्मिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध थे। इसीलिए सम्भवतः उनका संस्कृत का ज्ञान पर्याप्त नहीं था, वे ज़्यादातर स्थानीय भाषाओं पर निर्भर थे, जो अपने में कोई छोटी बात नहीं है पर इन्हीं भाषाओं के कारण वे लोकप्रिय हो सके। इसका अर्थ यह नहीं है कि उनकी ध्ाार्मिक दृष्टि उनके पहले की ध्ाार्मिक दृष्टियों से अध्ािक समृद्ध थी। वे इसलिए लोकप्रिय हुए क्योंकि वे स्थानीय भाषाओं में लिख रहे थे। उन्होंने ध्ाार्मिक और आध्यात्मिक पक्ष पर अपेक्षाकृत अध्ािक ज़ोर दिया और उनका योगदान बहुत अध्ािक प्रकाश में आया। हम ये तो जानते हैं कि उन दिनों ये कवि कौन-से थेः नानक, कबीर, अल्वार आदि, पर क्या हम यह भी जानते हैं कि उन दिनों श्रेष्ठ तर्कशास्त्री, गणितज्ञ, इतिहासकार कौन थे?
उदयन- क्या आप यह कहने का प्रयास कर रहे हैं कि उनकी लोकप्रियता का अकेला कारण उनका स्थानीय भाषाओं में लिखना ही था?
मुखोपाध्याय- वह केवल एक कारण था। इसके दूसरे भी कारण थे, उनमें से एक मैं बताता हूँ। सभी कारणों को बताने में बहुत समय लग जाएगा। उसी समय जब स्थानीय भाषाओं में ये कविताएँ लिखी जा रही थीं, संस्कृत हाशिये पर जा रही थी। उस समय के कुछ बौद्धिकों ने कुछ इस तरह सोचना और कहना शुरू किया कि संस्कृत बहुत कठिन भाषा है। हिन्दू ध्ार्म, पारम्परिक हिन्दू ध्ार्म को कुछ इस तरह देखा जाने लगा मानो वह संस्कृत साहित्य में ही प्रतिष्ठित रहा हो और वही प्राचीन भारत रहा हो। और वे सारे ध्ार्म जो स्थानीय भाषाओं, गीतों, साहित्यों आदि में प्रतिष्ठित हुए हों, वह आधुनिक भारत है। ऊपर से देखने पर इसमें ग़लत कुछ नहीं लगता, अलावा इसके कि कबीर या रामकृष्ण प्राचीन भारत के ध्ार्म और संस्कृति के विरोध्ा में नहीं थे। उन दिनों यह विचार विकसित हुआ कि संस्कृत साहित्य अत्यन्त कठिन है दरअसल, वह कठिन नहीं था बल्कि वह सरल था, उस पर काठिन्न आरोपित हो गया। चूँकि स्थानीय भाषाओं का साहित्य अपेक्षाकृत आसान था इसलिए संस्कृत वाङ्मय कठिन नज़र आने लगा। इस दृष्टि से यह सही है, वेदों की संस्कृत बहुत कठिन है, शायद कुछ उपनिषदों की और निश्चय ही ब्राह्मणों की संस्कृत। लेकिन आखिर हमने क्यूँ भारतीय इतिहास की सतह से सारे पौराणिक साहित्य सारे तान्त्रिक साहित्य को पौंछने की कोशिश की है? तन्त्र लेखन में अलावा तकनीकी प्रत्ययों और तकनीकों के संस्कृत भाषा अत्यन्त सरल है। पुराणों की संस्कृत को लेकर यह कोई नहीं कह सकता कि उसे समझना कठिन है। तब फिर उन्होंने सारे संस्कृत वाङ्मय को एक मानकर उसे पूरा-का-पूरा क्यूँ कठिन बना रखा है? क्या सारी संस्कृत एक-सी है? वेदों और गीता की संस्कृत में क्या कोई फ़र्क नहीं? क्या ब्राह्मण ग्रन्थों और रामायण की संस्कृत एक है? यह दरअसल हमारी अपनी वाङ्मय के प्रति अनभिज्ञता है जिसने अजनबी लोगों को एक ऐसा अवसर दिया जिससे वे हमें ग़लत सूचना देकर हमारी मानसिकता को बदल सकें। उस समय तक हमने अपने संस्कृत वाङ्मय की अवज्ञा कर उसे भूलना शुरू कर दिया। उसी समय पश्चिम अध्येताओं ने वैदिक साहित्य में रुचि लेना शुरू किया। उन्होंने तुलनात्मक ग्रन्थ मीमांसा (फिलालाॅजी) की शुरुआत कर दी और यह कहना शुरू कर दिया कि वैदिक संस्कृति काल और कथ्य की दृष्टि से उसके बाद की संस्कृति और वाङ्मय से नितान्त पृथक है। वे यह कहने लगे कि वेद पहले हुए फिर जाकर उपनिषद् आये आदि। जब हम भारतीय अपने को उस प्राचीन वाङ्मय और संस्कृति के सहारे भारत से जानने का प्रयास कर रहे थे, हमें यह बताया गया कि वेद, उपनिषद् आदि आपस में पृथक हैं। उनके कथ्य अलग हैं और वे अलग चीज़ों का उपदेश करते हैं। इस तरह एक ग्रन्थ को दूसरे की आलोचना के रूप में प्रस्तुत किया गया। यह दृष्टि पश्चिमी परिप्रेक्ष्य के अनुकूल थी, क्योंकि उनके अनुसार जो पुराना है, आदिम है, जो बाद का है, विकसित है।
उदयन- इसी तरह पश्चिमी दार्शनिक दृष्टि में द्वन्द्वात्मकता है और वे इसी तरह जगत को देखते हैं...
मुखोपाध्याय- हमें ऐसा एक स्थान या ग्रन्थ नहीं मिला, जिसमें यह पार्थक्य ख़ुद भारत के अपने आत्म निरीक्षण के दौरान रेखांकित किया गया हो। हमारा अपनी संस्कृति को देखने का ढंग बिल्कुल अलग था। हमें पारम्परिक वाङ्मय में ऐसी एक जगह भी नहीं मिली जहाँ यह कहा गया हो कि वैदिक वाङ्मय के विभिन्न पृथक ग्रन्थों एक साथ न रख दिया गया हो। मैं एक उदाहरण देता हूँ। हमारी यह समझ बनी कि पश्चिमी अध्येताओं ने भारतीय वाङ्मय पर भारतीय दृष्टि को रूपान्तरित करने में निन्यानवे दशमलव नौ प्रतिशत सफलता पायी है और अध्ािकतर भारतीय यह मानने लगे हैं कि वेद पहले हुए, उपनिषद् बाद में, वेदों में अनुष्ठानों का उपदेश है, उपनिषदों में आध्यात्मिकता का। इन सब विचारों को हम सबने सही मान लिया है।
उदयन- आप बता रहे थे कि इस सब सामान्य ज्ञान के बीच आप लोग यानी ‘माॅडर्न टेªडीशनलिस्ट’ कुछ विशेष ढूँढ़ रहे थे ताकि इन विचारों को प्रश्नांकित किया जा सके।
मुखोपाध्याय- हमने यह जानने की चेष्टा की कि क्या इस वाङ्मय का हमारा वर्णन भी ऐसा ही कुछ है। क्या ऐसा कुछ पारम्परिक शास्त्रीय वाङ्मय में मिलता है? हमें यह पता चला कि वेद शब्द को कई बार एकवचन में, कई बार द्विवचन और बहुवचन में इस्तेमाल किया जाता रहा है, वेद का एक पर्याय तीन भी कहा गया है। इस तरह चार वेद नहीं हो सकते। पश्चिमी अध्येताओं ने वेद के विभाजन को प्रदत्त माना और फिर यह कहा कि पहले यह वेद लिखा गया, फिर यह कि वे अलग-अलग समयों में लिखे गये। वे यह समझते थे कि अगर यह विभाजन स्वीकृत हुआ तो वैदिक साहित्य का वेद, ब्राह्मण, उपनिषद् का एक के बाद दूसरा होना भी स्वीकृत होगा। हमने पाया कि वेद का विभाजन वेदव्यास ने किया था इसीलिए उन्हें वेदव्यास कहा गया। यह उन्होंने द्वापर के अन्त में किया था, इसका अर्थ यह हुआ कि द्वापर तक यह विभाजन नहीं था। इसलिए यह कैसे कहा जा सकता है कि कौन-सा वेद पहले हुआ, कौन-सा बाद में? फिर हमने तमाम तरह की भारतीय समाज विषयक कहानियों आदि को गहरायी-से पढ़ा, जिनका कथ्य संक्षेप में यह था कि भारतीय संस्कृति या पारम्परिक समाज असहिष्णु था, वर्जनापूर्ण था, यहाँ उत्पीड़न की संस्कृति थी, स्त्रियों का सम्मान नहीं था, उन्हें शिक्षित नहीं होने दिया जाता था, प्रभुतासम्पन्न जातियाँ अत्याचारी थीं और ऐसा ही सब था। उन दिनों गोष्ठियों में यह कहा जाता था कि द्रौपदी अपमानित हुई, गार्गी भी हालाँकि वे महान व्यक्ति थीं। राम सनकी थे, अन्यायपूर्ण थे तो हममे से एक उठकर यह पूछता था कि आपको यह कैसे पता चला कि भारतीय समाज और संस्कृति वैसी थी, जैसा आप बता रहे हैं। इसका वे हमारी प्रत्याशा के अनुरूप ही जवाब देते थे कि यह सब आपके वाङ्मय में लिखा है, रामायण में, महाभारत में लिखा है और इसलिए हम यह सब उस पर आरोपित नहीं कर रहे। हमारा तर्क यह है कि इस साहित्य को लिखा किसने है। वाल्मीकि ने रामायण लिखी, व्यास ने महाभारत लिखी और उन्होंने ही यह सब लिखा है। क्या उन्होंने यह सब इसलिए लिखा होगा कि वे अपने पुरखों या समकालीनों को लांछित करना चाहते थे? यह तो सम्भव नहीं लगता। तब उन्होंने क्यों लिखा होगा? उन्हें यह अंकित करना ही पड़ा क्योंकि वे सच्चे लोग थे और वे इन सत्यों को अंकित कर रहे थे। लेकिन इस वर्णन के बाद क्या कोई यह बता सकता है कि इस सबके साक्षी रहने के बाद भी, उन्हें सच्चाई से अभिलिखित करने के बाद भी क्या वेदव्यास का कृष्ण के प्रति सम्मान कम हो गया या वाल्मीकि का राम के प्रति? यह सब देखने के बाद भी उनका राम और कृष्ण के प्रति सम्मान कम नहीं हुआ और आप उन्हें अपमानित करने में लगे हैं। वे इस सबको अंकित करने के बाद भी अपना सम्मान बनाये रख सके और आप उनका वर्णन पढ़कर उन्हें अपमानित करने में लगे हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं जिनमें मुख्य यह है कि आधुनिक अध्येता जानबूझकर या अज्ञानवश यह कर रहे हैंः वाङ्मय का अपठन या अपपठन। मैं जनक की सभा में याज्ञवल्क्य का किया गया गार्गी का अपमान बहुत प्रसिद्ध है। राजा जनक ने एक बड़ा आयोजन किया, जिसमें उन्होंने बहुत-सी गायों का पुरस्कार रखा कि जो ब्रह्मविद्या का श्रेष्ठ अध्येता होगा, वह ये गाएँ ले जा सकेगा। किसी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की और अन्त में याज्ञवल्क्य उठे और अपने शिष्य से बोले कि ये सारी गाएँ अपने आश्रम में हाँक ले चलो। तब सारा नाटक शुरू हुआ। जनक के दरबार के पुरोहित ने इसका पुरज़ोर विरोध्ा किया। उन्होंने याज्ञवल्क्य से कहा ‘क्या तुम तमाम वैदिक अध्येताओं में अपने को श्रेष्ठ मानते हो?’ इसी घटना के बाद के वर्णन में याज्ञवल्क्य को बेहद निरंकुश व्यक्ति की तरह चित्रित किया गया है। वे राजपुरोहित से बोले, ‘मैं उन सबके सामने झुक जाऊँगा जो ब्रह्म को जानते हैं। मैं यह नहीं कहता कि मैं ब्रह्म को जानता हूँ या मैं उनमें श्रेष्ठ हूँ। लेकिन मेरे मन में ब्रह्मज्ञानी का बहुत सम्मान है।’ हम यह जानते ही हैं कि एक श्रेष्ठ स्वाभिमानी मनुष्य किस तरह बोलता है पर याज्ञवल्क्य अत्यन्त विनम्रता से बोले थे, मैं उनसे अध्ािक विनम्र चरित्र से भारतीय साहित्य में नहीं मिला। फिर कि़स्सा यह हुआ कि याज्ञवल्क्य के वैसा कहने पर गार्गी ने उन्हें चुनौती दी और उन्होंने याज्ञवल्क्य से कुछ प्रश्न पूछे, जिनके याज्ञवल्क्य ने जवाब दिये। फिर एक समय पर उन्होंने गार्गी से कहा कि अब आगे का प्रश्न मत पूछो वरना तुम्हारा सिर फट जाएगा। गार्गी के पास कोई विकल्प नहीं बचा और वे चुप हो गयीं। कि़स्सा यह है। इस सन्दर्भ में वाङ्मय यह कहता है कि याज्ञवल्क्य से प्रश्न पूछने वालों में गार्गी पाँचवीं थीं। उनसे पहले चार लोग याज्ञवल्क्य से इस तरह प्रश्न पूछ चुके थे कि वे उन्हें निरुत्तर कर सके। अब आधुनिक लोगों का इस पर कहना यह है कि याज्ञवल्क्य ने गार्गी को रोकने के लिए उन्हें ध्ामकी दी। गार्गी के बाद दो और विद्वानों ने प्रश्न पूछे। जब उनकी शंकाएँ शान्त कर दी गयीं, गार्गी दोबारा आयीं और उन्होंने सभा से कहा कि मैं दो प्रश्न और पूछना चाहती हूँ। सभी ने इसकी इजाज़त दी, याज्ञवल्क्य ने भी। गार्गी ने प्रश्न पूछने से पहले कहा कि मैं दो तीर लेकर आयी हूँ जिनमें से हरेक आपको मार सकता हैः ये प्राणघाती शर हैं। उन्होंने फिर पूछा, ‘क्या आप तैयार हैं?’ याज्ञवल्क्य ने इस पर बिना कोई ध्यान दिये सामान्य स्वर में कहा, ‘आप पूछिये।’ पहले सवाल का जवाब दे दिया गया। गार्गी ने उनके आगे सिर झुकाया और कहा, ‘क्या आप मेरे दूसरे प्रश्न के लिए तैयार हैं? यह प्रश्न कहीं अध्ािक प्राणघातक है।’ गार्गी ने प्रश्न पूछा, याज्ञवल्क्य ने जवाब दिया। इस पर गार्गी ने उनके आगे सिर झुकाया और सारे सभासदों से कहा, ‘याज्ञवल्क्य को पराजित करने का सपना भी नहीं देखना चाहिए।’ यह गार्गी का अन्तिम प्रबोध्ान था। कहानी इतनी ही है, बृद्धारण्यक उपनिषद् में लिखी है।
सोचने की बात यह है कि आखिर इस कहानी पर तरह-तरह की कहानियाँ कैसे बन गयीं। उन्हें किसने शुरू किया? इसमें एक ओर इस संस्कृति को लांछित करने का प्रयोजन तो निश्चय ही है, दूसरा होगा नासमझ। हमने वह सब स्वीकार करना शुरू कर दिया, जो हमारी संस्कृति के विषय में ग़लत-सलत कहा जाता था, हमें उससे सम्बद्ध तथ्यों का परीक्षण करना भी आवश्यक नहीं जान पड़ा।
उदयन- जबकि यह आसानी-से किया जा सकता था, जैसा कि गार्गी-याज्ञवल्क्य का यह संवाद एक ऐसी पुस्तक में लिखा है जो सहज उपलब्ध्ा रही है, भारतीय भाषाओं और अँग्रेज़ी में भी। पर जब अपपाठ की यह सारी परियोजना शुरू हुई, यानी सत्रहवीं-अठाहरवीं शती में, तब किसी बड़े पण्डित या पण्डितों ने इसका खण्डन क्यों नहीं किया?
मुखोपाध्याय- कई ने किया था पर तब तक हमने स्थानीय भाषाओं की लोकप्रियता के कारण संस्कृत से दूरी बना ली। वे लोग जो इन सब ग्रन्थों को समझते थे, उनमें आधुनिक लोगों के प्रति गहरी चिढ़ पैदा हो गयी थी। वे यह समझ गये थे कि ये लोग कुछ समझना नहीं चाहते। उनके मन में यह बहुत साफ़ था कि इन लोगों का उद्देश्य केवल संस्कृति को लांछित करना है, सीखना नहीं जो ये कर सकते थे। मैं आपको एक और मिसाल देता हूँ। रामायण में जब राम सीता को खो देते हैं, उन्हें यह सलाह दी जाती है कि आप सुग्रीव से मैत्री बढ़ाईये, वे सीता को ढूँढ़ने और छुड़ाने में आपकी मदद करेंगे। वे वही करते हैं और इसकी परिणति राम की बाली से लड़ाई में होती है जिसमें बाली मारे जाते हैं। सुग्रीव बाली के हाथों अपमानित हुए थे और भगाये गये थे। इसीलिए सुग्रीव अपना स्थान राम की सहायता से दोबारा पाना चाहते थे। राम उन्हें आश्वासन देते हैं और सुग्रीव बाली को युद्ध के लिए ललकारते हैं। जब राम यह पाते हैं कि सुग्रीव की बाली को जीतने की कोई सम्भावना नहीं है, वे बाली को मार देते हैं। कथा यह है और इसके विषय में कहा यह जाता है कि यह बड़ा भारी अन्याय है, राम का किया हुआ। ऐसी निन्दा करते समय लोगों का भाव कुछ ऐसा होता है, मानो वे ही राम की आलोचना कर रहे हों। सच्चाई यह है कि यह आलोचना स्वयं रामायण में है। रामायण में बाली राम से कहते हैं, ‘रामचन्द्र, हम सोचते थे कि आप महान व्यक्ति हैं पर आप पाखण्डी हैं।’ यही शब्द बाली रामायण में राम से कहते हैं। ‘आपने सामान्य ध्ार्म का उल्लंघन तो किया ही है, राजध्ार्म के प्रति निष्ठावान नहीं रहे।’ बाली को राम यह कहने देते हैं। जब वे कह चुके होते हैं, राम कहते हैं, ‘क्या आपसे यह कहूँ कि आपने क्या ग़लती की?’ फिर राम बाली के एक-एक आरोप का पूरे ध्ौर्य से खण्डन करते हैं। इस संवाद में बाली कठोर शब्द बोलता है, राम विनय नहीं त्यागते। अब इसकी आधुनिक व्याख्या सुनेंः राम को विजेता बताने यह तो होना ही था। यह कोई प्रमाण नहीं हुआ। प्रमाण यह है कि बाली अपनी ग़लती को समझ जाता है। लिखा यह जाता है कि बाली राम की बात माने नहीं थे जबकि इसका प्रमाण यह है कि मरने के पहले बाली अपनी पत्नी और बेटे को राम को सौंप देते हैं। वे राम के सिवा किसी पर भरोसा नहीं करते। राम मरते हुए बाली को दिये गये अपने वचन को, कत्र्तव्य की तरह निभाते हैं। कहानी तो यह है। ऐसा कैसे हुआ कि जो इस कथा के साक्षी थे, जिन्होंने उसे लिखा, उनके मन में हमारी संस्कृति के प्रति कभी असम्मान पैदा नहीं हुआ, हममें हो गया। इसके दो कारण हैं। हम अपने भाषा-साहित्य से दूर हो गये हैं। इसलिए हमारे पास उनका सीध्ाा ज्ञान नहीं है और हम अपनी संस्कृति के विषय में कही गयी किसी भी बात पर बिना विचारे भरोसा कर लेते हैं।
उदयन- आप उस साहित्य को खोजने की बात कर रहे थे, जहाँ भारतीय संस्कृति के विषय में स्वयं भारत बोले पर अभी इस प्रश्न को कुछ स्थगित करते हैं और एक संक्षिप्त भटकाव करते हैं। आपने अभी कहा कि संस्कृत अध्येताओं को आधुनिक अध्येताओं का जवाब देने की आवश्यकता ही नहीं जान पड़ी क्योंकि उन्हें यह लगा कि वे भारतीय संस्कृति लांछित करने का ही प्रयत्न कर रहे हैं। संस्कृत और आधुनिक अध्येताओं के बीच बढ़ती दूरी के क्या कारण रहे?
मुखोपाध्याय- जैसा कि मैंने आपसे कहा कि आधुनिकता अपने आप में महान मूल्य बन गयी थी। उनका अँग्रेज़ी न जानना और न उसे सीखने के प्रति उत्सुक रहने के कारण उन्हें पक्के तौर पर खूसट, पुरानी पीढ़ी का और रूढि़वादी मान लिया गया था। साथ ही उन्हें संस्कृति की सारी बुराइयों का प्रतिनिध्ाि मान लिया गया था। उन दिनों शायद ही कोई उनके पास गया हो। इतिहासकारों ने भी भारतीय संस्कृति को बिना उनकी समझ की मदद से ही उसे अपने आप व्याख्यायित करना बेहतर समझा। उन्होंने उनके अध्ययन लाभ कम ही लिया। वेद के ‘काल’ और ‘कथ्य’ सम्बन्ध्ाी वैभिन्न को स्पष्ट करने की योग्यता बीसवीं शताब्दी के भी कई संस्कृत अध्येताओं में थी और वे इस सन्दर्भ में जवाब देने भी तैयार थे पर न कोई उनके पास पूछने गया और न उनके बोलने पर किसी ने ध्यान दिया। मैंने आपसे यह कल भी कहा था कि हमारा विश्वास है कि बौद्ध ध्ार्म, हिन्दू ध्ार्म के समानान्तर नहीं है, वह हिन्दू ध्ार्म मेें ही एक प्रतिपक्षी शाखा की तरह उत्पन्न हुआ है। यह बात बीसवीं शती के ही गोपीनाथ कविराज ने भी कही है। वे अँग्रेज़ी में भी लिखते थे। हमने उन्हें भी सुनने की कोशिश ही नहीं की।
उदयन- मैं समझ सकता हूँ कि आधुनिक अध्येताओं की इसे न सुनने और न पढ़ने की हठ ने ही ‘माॅडर्न ट्रेडीशनलिस्टों’ को नये मार्ग खोजने की ओर प्रवृत्त किया होगा। इसके बिना इस संस्कृति का परिक्षण और मूल्यांकन सम्भव नहीं हो पाता।
मुखोपाध्याय- हम माॅडर्न ‘ट्रेडीशनलिस्टों’ ने यह सोचा कि क्यूँ न इस मौलिक स्रोत की छानबीन की जाए। हमने सोचा क्यूँ न यह प्रयोग किया जाए कि पता करें कि भारत खुद अपने बारे में क्या कहता है और उसके बाद ही हम उसकी व्याख्या का उपक्रम करें। हमने दो चीज़ों की निश्चय ही पहचान कर ली। पहली यह कि भारत को आध्यात्मिक संस्कृति कहना एक आधुनिक आरोपण है, नवज्योति ने आपसे बातचीत’ में कहा था कि यह आधुनिक मिथक है कि भारत को कृषि प्रध्ाान समाज कहना और इस तरह की तमाम अवध्ाारणाएँ आधुनिक अविष्कार ही हैं। ये सब बातें क्यूँ नहीं कही गयीं? इन्हीं सब कारणों से हमें तत्काल कोई दिशा खोजने की आवश्यकता महसूस हुई। हमें पश्चिमी आधुनिकता और अपनी संस्कृति के श्रेष्ठ तत्वों का समायोजन करने में बहुत मुश्किल आयी। इसके लिए हमें इन दोनों ही संस्कृतियों के विश्वसनीय आध्ाारभूत साहित्य को सीध्ो समझना था। पश्चिम के अध्येता आधुनिक संस्कृति की वैज्ञानिक और अन्य संस्कृति को बखूबी जानते थे। साथ ही हमारे भीतर इतनी राष्ट्रीय भावना थी कि हम अपनी संस्कृति के प्रति जो भी करेंगे, वह पुनरुत्थानवादी नहीं होगा। हम पुनरुत्थानवादी नहीं थे। हम भारतीय संस्कृति के सम्पूर्ण होने का वास्तविक मूल्यांकन करना चाहते थे। जैसा कि चीन में भी है। ऐसा नहीं है कि भारत और चीन और ऐसे ही अन्य क्षेत्रों में केवल ध्ार्म विकसित हुए और अन्य सारे क्षेत्र अविकसित ही रहे आये। यह कहना ही निरर्थक है। आधुनिक अध्येताओं ने भारत के विषय में जो भी कहा, मैं स्वीकार कर लूँगा केवल इस शर्त पर कि उसे दूसरी तरफ से भी प्रमाणित किया जा सके। वे अपने सिद्धान्त की पुष्टि के लिए हमारे वाङ्गमय पुनर्रचना कर रहे थे, हम कम-से-कम अपने वाङ्मय की पुनर्रचना नहीं कर रहे थे, जिससे मेरी स्थापनाएँ पुष्ट हो सकें। हम सिर्फ़ यह जानने का प्रयास कर रहे थे कि वहाँ ठीक-ठीक क्या लिखा है। उनमें से हरेक की एक-एक घटना पढ़कर उसकी अपनी व्याख्या करनी चाहिए थी। आप द्रौपदी की घटना में स्त्री की
’ समास-9 में प्रकाशित ‘भारतीय दृष्टि और पश्चिम से उऋण होने के मार्ग’ नवज्योति से सम्पादक की बातचीत।
पवित्रता का ही नहीं, उसकी गरिमा का भी उल्लंघन देखने की कोशिश करते हैं। वह कभी वैसी नहीं देखी गयी। हम इस तमाम वाङ्मय को तयशुदा विचारों और पैटर्न के अनुरूप ही समझने का क्यों प्रयत्न करते हैं, जिसके तहत हर चीज़ का एक तयशुदा अर्थ है? मैं यहाँ बैठा हूँ, निहत्था, मेरी संस्कृत में कोई खास विशेषज्ञता नहीं है, मेरे पास कोई बम या हथियार नहीं है, मैं हर आपत्ति और आलोचना सुनने को तैयार हूँ, पर मैं अपनी तरह से इन सभी आलोचनाओं का उत्तर दूँगा। यही असली आधुनिकतावादी ढंग है। इसीलिए हम वह थे। इसे मैं कृष्णचन्द्र भट्टाचार्य में भी देखता हूँ। इसी कारण हम लोग सुध्ाारवाद के पक्ष में नहीं थे। सुध्ाारवादियों की मुश्किल यह है कि वे अपने अध्ौर्य के कारण संस्कृति के दोषों और गुणों को समझने से पहले ही उसमें सुध्ाार का काम शुरू कर देते हैं। इस तरह वे संस्कृति के उत्कर्ष को सम्भव करने के स्थान पर पहले से तैयार योजना लागू करने लगते हैं। सुध्ाारवादी इस संस्कृति को मृत मानकर अपना कार्य करते हैं। वे भारतीय संस्कृति को विशेष काल में ठहरा हुआ मानते हैं। और उसके आगे की संस्कृति को भारतीय मानने से इंकार कर देते हैं, जिसके अनेक पक्षध्ार (जिनमें अमत्र्य सेन सबसे अध्ािक वाचाल हैं) मानते हैं कि मुगल संस्कृति और अँग्रेज़ों का योगदान ही आज की भारतीय संस्कृति है। यह कहने का आशय है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति अब विकसित होना बन्द हो गयी हैं। हम यह स्वीकार नहीं कर पाते। हम भारतीय संस्कृति की उद्विग्नता आदि को समझते हुए उसमें अपना आध्ाार खोजने का प्रयास करते हैं। यह आध्ाार खोजना ही इन सारे लोगों की चिन्ता के मूल में है, जिन्हें सामूहिक रूप में ‘माॅडर्न ट्रेडीशनलिस्ट’ कह रहा हूँ। हम यह मानते हैं कि भारत को निश्चय ही बदलना चाहिए, उसका रूपान्तरण होना चाहिए पर वह उसकी सांस्कृतिक अन्तश्चेतना के एजेण्डा के इंगित पर होना चाहिए। बदलाव की पहली शर्त यह है कि वह उस चीज़ की आन्तरिक जीवन्त गतिशीलता के आध्ाार पर होना चाहिए, जिसे आप बदलने की कोशिश कर रहे हैं। यह आरोपण के सहारे नहीं किया जा सकता। हमारे भीतर इतना ध्ाीरज होना चाहिए कि हम भारतीय संस्कृति को यह अवसर दें कि वह स्वयं को बदल सके। अतीत में यह संस्कृति बार-बार रूपान्तरित हुई है। यह सम्भावना आज भी है पर उसे स्वयं को रूपान्तरित करने का अवकाश ही नहीं दिया जाता और इसका आरोप इस संस्कृति पर यह कहकर लगा दिया जाता है कि यह अत्यन्त रूढि़वादी होती जा रही है।
उदयन- आप सम्भवतः यह कह रहे हैं कि हमारे कई तरह के सुध्ाारवादियों ने भारतीय संस्कृति की स्वचेतना की आन्तरिक गतिशीलता का तिरस्कार कर उसे अपने आदर्शों में ढालने का प्रयत्न किया और इस तरह उस संस्कृति की नैसर्गिक समृद्धि को, जिसे आप रूपान्तरण कह रहे हैं, को अवरूद्ध कर दिया।
मुखोपाध्याय- भारत अपने सांस्कृतिक स्वभाव के अनुकूल ही विकसित हो सकता है, जो यह है कि भविष्य सीमित है और अतीत असीम। हमारे योजनाकार सोचते हैं कि इन मूल तथ्यों को छोड़कर ही भारत की प्रगति सम्भव है। जबकि हमारी दृष्टि में उनका यह प्रयास भारत को उसके रूपान्तरण के नाम पर मार डालना है। इस तरह रूपान्तरित भारत के नाम पर हमें जो उपलब्ध्ा होगा, वह रूपान्तरित भारत न होकर आविष्कृत और अविश्वसनीय भारत है। यह मानते हुए भी हम ‘ओरिएण्टलिस्ट’ बहस में पड़ना नहीं चाहते थे क्योंकि ऐसा करने से हम उस बहस में फँस कर रह जाते। इसीलिए हम अपने स्रोतों को, जिस हद तक वे उपलब्ध्ा थे, समझकर उसमें से अपनी समझ उत्पन्न करने का प्रयास कर रहे थे।
उदयन- आपने हमारी इस बातचीत के किसी हिस्से में मनुस्मृति का सन्दर्भ दिया था। हमें उस पर कुछ और बात करना चाहिए क्योंकि वह पुस्तक इन सालों में एकतरफा निन्दा का विषय बन गयी है और जैसी हमारे राजनैतिक और बौद्धिक विमर्श में होता ही जाता है, हम ग्रन्थों को पूरी तरह पढ़े-समझे बगैर ही उन पर एक तरह की समझ को आरोपित कर दिया जाता है। यह शोर इतना अध्ािक होता है कि उसको सचमुच समझकर बोलने वाला चिन्तक या तो अनसुना कर दिया जाता है या उसे भी आरोप के फैलते घेरे में ले लिया जाता है।
मुखोपाध्याय- मेरे लिए उसे पढ़ना ऊँचा अनुभव था। आप पढ़ेंगे, आपको भी वैसा ही अनुभव होगा। मनु के विषय में कहा जाता है कि वे सबसे भ्रष्ट, सबसे पुराने तरह के तानाशाहपूर्ण, वर्जनाशील भारतीय समाज के पितृपुरुष थे। इसीलिए एक नया प्रत्यय बनाया गया है कि या तो आप मनुवादी हैं या अम्बेडकरवादी। इनके बीच आप कुछ नहीं हो सकते। लोकप्रिय विश्वास यह है कि मनु ने उच्च जातियों को निम्न जातियों पर वरीयता थी और उन्होंने निम्न जातियों के शोषण की स्वीकृति दी विशेषकर शूद्रों, दलितों आदि की। पहले जिन्हें हरिजन कहते थे, अब उन्हीं का नाम बदल, दलित कर दिया गया है। मेरे पास मनुस्मृति बिल्कुल ढंग से आयी। जब मैं स्नातकोत्तर कक्षा का छात्र था, मुझे मनुस्मृति के अध्ययन की त्वरित आवश्यकता महसुस हुई। उसके पहले तक मैंने मनुसंहिता के बारे में सिर्फ़ सुना था।
उन दिनों मैं किसी कारण बिहार गया और वहाँ एक गाँव में कुछ दिन के लिए ठहरा। मैंने वहाँ स्थानीय पुस्तकालय की खोज की। वह वहाँ मिल गया। वहाँ मुझे मनुसंहिता का एक संस्करण मिल गया, वह हिन्दी में था और मेरी हिन्दी कमज़ोर थी पर मैं उसे पढ़ने लगा। मुझे उस किताब से पहली अपेक्षा यह थी कि यहाँ जो भी बातें स्त्रियों के लिए लिखी होंगी, वे ग़लत ही होंगी, स्त्रियाँ उन्हें मानने के लिए तैयार नहीं हैं। इसका कारण यह है कि हम मनु को इस तरह प्रस्तुत करते हैं, मानो वहाँ कुछ ऐसे प्रस्ताव हैं जिनकी रोशनी में कुछ विशेष सामाजिक योजनाएँ और विचारध्ााराएँ लागू की जाएँ।
उदयन- मनु को इसी तरह प्रस्तुत किया जाता रहा है...
मुखोपाध्याय- मुझे मनु संहिता पढ़ते हुए पहली बात यह समझ में आयी कि उसके विरोध्ा में बोलने वालों की भाषा मनु संहिता की भाषा से बिल्कुल अलग है। ऐसे लोगों की भाषा प्रचार-प्रसार की, प्रोगण्डा की भाषा ही हो सकती है। माक्र्सवादी भाषाशास्त्र में प्रयोगण्डा एक महान हथियार है। उस भाषा का विपर्यास क्या है? विवेकानन्द का अध्ािकांश साहित्य प्रयोगण्डा साहित्य है। उनके व्याख्यानों में वे लोगों को भरोसा दिलाने की कोशिश करते थे, ध्ाारा-प्रवाह भाषा में वे बड़े-बड़े दावे करते थे। यही प्र्रषोगण्डा शैली है। मनु संहिता की भाषा इतनी अध्ािक वस्तुपरक है कि उसमें कहीं भी किसी प्रस्ताव का दूर तक संकेत नहीं है। न ही तिरस्कार है। उसे पढ़ते हुए ऐसा लगता है मानो लिखने वाला कहीं खड़े होकर वह सब देख रहा है, जिसे वह लिखता जा रहा है। इसलिए यह बहुत स्पष्ट है कि हमारे समाज के दोषों के लिए जो भी जि़म्मेदार रहा हो, मनु संहिता का उसमें योगदान नहीं था। मनु स्मृति (या संहिता) ने इतना भर किया कि उसने अपने लिखे जाने के समय की परिपाटियों और विश्वासों को दर्ज कर लिया। मैं उदाहरण देता हूँ- मनु संहिता का लेखक तय नहीं हो पाया है। यह नहीं पता लग पाया है कि उसे कब लिखा गया और यह भी कि पहला मनु कब हुआ था? वाङ्मय के अनुसार मनु कई हुए हैं। इससे भी असंख्य अतीत का विचार भी पुष्ट होता है। हमारे तमाम वाङ्मय में चाहे वह उपनिषद् हो या महाभारत, रामायण कहीं भी भारत नहीं बोलता, भारत उनके रास्ते सुनायी पड़ता है। कोई यह नहीं कहता कि यह मैं लिख रहा हूँ, सब यही कहते हैं कि मैंने ऐसा सुना था। श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन-कृष्ण संवाद अद्भुत है। उस संवाद की शुरुआत में अर्जुन युद्ध के विषय में एक मत रखता है। कृष्ण उससे कहते हैं कि तुम्हें युद्ध करना चाहिए और उसका अन्त अर्जुन के यह कहने में होता है-
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्ध्ाा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।
‘आपके वचनों से मेरी शंकाओं का निवारण हो गया है और मैं स्थिर हो गया हूँ। इसके कुछ देर बाद महाभारत में यह दर्ज है कि अर्जुन दोबारा कृष्ण के पास जाकर पूछते हैं कि आपने गीता में जो उपदेश किया था, वह मैं भूल गया। आज के शिक्षक ऐसा कहने पर अपने शिष्य को कहेंगे, तुम्हें यह कहने का साहस कहाँ से आया? मैंने तुम्हें वह सब पढ़ाया था और तुम भूल गये, तुम कितने लापरवाह हो। कृष्ण बहुत अच्छे शिक्षक थे। वे गीता के उपदेश के खत्म होने से ठीक पहले अर्जुन से पूछते हैंः क्या तुमने मुझे सचमुच सुना और समझा? इसी के जवाब में अर्जुन कहते हैं कि मेरी शंकाओं का निवारण हो गया आदि। अर्जुन ने उस उपदेश को भूलने की बात कहकर कृष्ण को उसे दोहराने को कहा, वे बोलेः मैं उसे दोहरा नहीं सकता, मैं उस अवस्था में नहीं हूँ। उनका कहना यह था कि मैं अब वह कहने में अक्षम हूँ। यह मुश्किल क्यों थी, जब अर्जुन महज उनसे वही दोहराने को कह रहे थे जो कृष्ण कह चुके थे। बहरहाल कृष्ण कहते हैं, मैं इतना ज़रूर कर सकता हूँ कि मैं तुम्हें वह कहूँ, जो मैंने किसी से सुना है। तब वे वही कहते हैं। यानि वे यह दोबारा खुद नहीं कह रहे, वे वह कह रहे हैं, जो उन्होंने सुना है। ख़ुद गीता में वे कहते हैं कि मैं योग के विषय में तुम्हें जो कह रहा हूँ, उसे मैंने पहले सूर्य विवस्वान या सूर्य से कहा था। वह अत्यन्त सतर्क शिष्य था। वह तुमसे पहले हुआ था। फिर श्रीकृष्ण जवाब देते हैं और कहते हैं कि तुम यह भूल गये कि कितने सारे अतीतों में तुम और मैं पहले भी हो चुके हैं। इसी कारण हम कभी आधुनिक अर्थों में नयी बात नहीं कहते, हम तो कहानी कहने वाले लोग हैं। नवज्योति इसको समझ गये थे, वे बार-बार कहते थे कि सभी समस्याओं के समाध्ाान हो चुके हैं, हम इतना भर कर सकते हैं कि अतीत में उन्हें खोज लें। हम इस विश्वास के साथ मरना पसन्द करेंगे अगर हम किसी और को इसका भरोसा न दिला सकें। मैं इतना भर कह सकता हूँ।
(इस बातचीत के दौरान बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के अँग्रेज़ी विभाग के संजय कुमार भी थे। इस बातचीत की अपेक्षाकृत शुरुआत में कहे मुखोपाध्याय जी के इस विचार पर कि भारत की भौतिक और आध्यात्मिक संस्कृति के बीच का अलगाव भले ही अँगे्रज़ों ने बहुत तेज़ी से अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में किया पर वह भक्तिकाल में ही शुरू हो गया था, उन्होंने यह प्रश्न उठाया कि उन्हें यह अलगाव और इसका भक्तिकाल में शुरू होने का विचार स्पष्ट नहीं हो सका है क्योंकि उस काल के कबीर और रैदास जैसे कवियों ने अपनी तरह की कविताएँ लिखते हुए भी अपनी कारीगिरियों को छोड़ा नहीं था। इस पर मुखोपाध्याय जी ने यह विस्तार किया था।)
एक बिन्दू जो मैं कह नहीं सका और जो अत्यन्त महत्व का है, उससे शुरू करता हूँ। इस बिन्दू का सम्बन्ध्ा उस तथाकथित अलगाव से है जिसका अभी जि़क्र हुआ है।
मान लीजिए किसी महान ध्ाार्मिक व्यक्ति के कुछ वचन हम तक अध्ािकांशतः गीत या कविताओं में पहुँचते हैं, जिसे शास्त्रीय ज्ञान नहीं था, जिसने अपनी बोली में वह सब लिखा था। यह तथ्य इस बात को कैसे साबित कर सकता है कि इससे हमारी शास्त्रीय भारतीय संस्कृति से दूरी बनी होगी। पहली बात तो यह है कि जिस भाषा में भक्ति कवि लिख रहे थे, उसका प्रयोग जैन और बौद्धों ने शुरू किया था। बुद्ध ने अपने उपदेश ‘पालि’ में और महावीर आदि ने ‘मागध्ाी’ में दिये थे। इस कारण बुद्ध के वचन, ज़ाहिर है, अध्ािक लोगों तक पहुँचे। तमाम लोग (जिन्होंने बुद्ध और महावीर के वचनों को जाना था) न तो संस्कृत के जानकार थे और न ही उन्होंने संस्कृत वाङ्मय को समझने का प्रयत्न किया। इसके फलस्वरूप हुआ यह कि जिन लोगों को इनमें से अनेक नये वचन जान पड़े, वे यह मान बैठे कि ये विचार पहले नहीं थे। हम उन लोगों पर अध्ािक निर्भर होते गये जिनका खुद ही पारम्परिक वाङ्मय से सम्बन्ध्ा नहीं रहा था। शताब्दियों के बीतने के साथ ही इनकी संस्कृत से दूरी बढ़ती गयी। स्थानीय भाषाओं ने किसी हद तक उसका स्थान लेना शुरू कर दिया और अन्ततः अँग्रेज़ी भाषा आ गयी।
उदयन- आप इसका कोई उदाहरण देने वाले थे? क्या आप बौद्ध ध्ार्म की भारत में स्थिति के सन्दर्भ में स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे। यह अक्सर कहा जाता रहा है कि बौद्ध ध्ार्म भारत से विलुप्त हो गया। इसे तथ्य की बताकर कई कहानियाँ बनायी जाती रही हैं जिनकी न दार्शनिक और न ऐतिहासिक ही प्रामाणिकता है।
मुखोपाध्याय- यह लोकप्रिय विश्वास है। वह भारत में आरम्भ अवश्य हुआ, उसका विकास भारत के बाहर हुआ, यह तथ्य है लेकिन हम इस तथ्य का कल्पना से बेहद विस्तार कर देते हैं और यह अभिव्यक्त करते हैं कि भारत ने बौद्ध ध्ार्म का उत्पीड़न हुआ। यह पूछने पर कि वह उत्पीड़न किसने किया, त्वरित बना बनाया जवाब दे दिया जाता हैः ज़ाहिर है ब्राह्मणों ने। और ब्राह्मण कौन हैं? प्रभुत्वशाली जाति और क्या! वे प्रभुत्वशाली कैसे हो गये? क्या ऐसा संस्कृत में है? संस्कृत में ब्राह्मणों के लिए वर्णश्रेष्ठ शब्द है, इससे यह कहाँ निकल गया कि वे प्रभुत्वशाली हैं? श्रेष्ठ का अर्थ प्रभुत्वशाली किस तरह हो सकता है? यह देखिये कि ये अनुवाद किस हद तक पूर्वग्रहीत हैं। चैथा वर्ण किस तर्क से गिरा-कुचला हो गया। बहरहाल हमने अपनी खोज में यह पाया कि बौद्ध परम्परा के दो स्तर रहे हैं। एक है बौद्ध दर्शन का, दूसरा बौद्ध ध्ार्म का। बौद्ध ध्ार्म भारत से लगभग विलुप्त हो गया और बौद्ध दर्शन भारत में रहा आया बल्कि वह दर्शन मुख्यतः भारत में ही है। आपको बर्मा, चीन, थाईलैण्ड आदि में बौद्ध दर्शन नहीं मिलेगा। आपको वहाँ केवल बौद्ध ध्ार्म का उनका अपना संस्करण मिलेगा। अब प्रश्न यह है कि ऐसा क्यूँ हुआ कि बौद्ध दर्शन तो भारत में बना रहा, बौद्ध ध्ार्म लगभग विलुप्त हो गया। अगर बौद्धों की प्रताड़ना हुई होती, बौद्ध दर्शन भी यहाँ से चला गया होता। इसलिए प्रताड़ना का तर्क ग़लत है।
उदयन- लेकिन बौद्ध ध्ार्म का भारत से लगभग विलोपन तो हुआ है। उसे कैसे समझा जायेगा?
मुखोपाध्याय- बौद्ध ध्ार्म के भारत से विलोपन का कारण यह है कि बौद्ध ध्ार्म ने हिन्दू ध्ार्म में कोई भी नया योगदान नहीं किया इसलिए उसके सम्पर्क में आये लोगों को उसमें कुछ भी नया नहीं जान पड़ा। उदाहरण के लिए बौद्ध ध्ार्म के सन्दर्भ में अहिंसा का हवाला दिया जाता है, हिन्दू ध्ार्म में अहिंसा पहला तत्व है- अहिंसा, सत्य, अस्तेयं, ब्रह्मचर्य, असंग्रह.... कुछ विचारकों का कहना था कि गाँध्ाी की अहिंसा, जो जैन अहिंसा का अंश है, हिन्दू यथार्थवादी अहिंसा से अलग है बहरहाल। बौद्ध ध्ार्म में ‘बुद्धं शरणं गच्छामि, ध्ार्मं शरणं गच्छामि, संघ शरणं गच्छामि’ कहा जाता है, ये सभी हिन्दू ध्ार्म के विचार हैं।
उदयन- बौद्ध ध्ार्म आदि की ऐसी समझ दरअसल ‘समझ का एक माॅडल’ है जिसमें एक का दूसरे से विरोध्ा दिखाकर यह साबित करने के प्रयास किया जाता है कि चूँकि हिन्दू ध्ार्म ने बौद्ध ध्ार्म के साथ ऐसा व्यवहार किया था इसलिए अगर बाद में इस्लाम ने हिन्दू ध्ार्म के साथ ऐसा ही व्यवहार किया तो क्या ग़लत किया? यह करने के पीछे इस्लाम के इस हिंस्र व्यवहार के बावजूद उसे स्वीकारने की सद्इच्छा ही होगी। पर यह बौद्धिक आलस्य है क्योंकि अगर हिन्दू ध्ार्म का बौद्धों से अलगाव और उनकी बौद्धों पर हिंसा की झूठी कहानियाँ न भी बनायी जायें तब भी इस्लाम के मानने वालों को भारत में बने रहने का पूरा हक़ अक्षुण्ण रहता है। हमें इस्लाम को भारत में बने रहने का कोई और ‘माॅडल’ खोजना था। हमने पश्चिम से आया हिंसा और एक-दूसरे के विरुद्ध आन्दोलन करने का ‘तैयार’ माॅडल ही अपनी बौद्धिक काहिली और नसमझ के कारण स्वीकार कर पूरे भारतीय अतीत को उस पर उभार दिया।
मुखोपाध्याय- बुद्ध का अर्थ ज्ञानी होता है, जिसके प्रति गहरा सम्मान हो। संघ का अर्थ है परम्परा। उसे बौद्ध परम्परा में संकुचित कर दिया जाता है। बुद्ध ने यह कभी दावा नहीं किया कि वे कोई नया ध्ार्म प्रस्तावित कर रहे हैं। उन्होंने कहा है, ‘एष ध्ार्मः सनातनः।’ इस तरह एक तरफ तो यह लोकप्रिय भ्रान्ति है। ऊपर से जब इस रास्ते बौद्धों का प्रचार हो गया, उन्होंने इस भ्रान्ति को दूर करने का प्रयास कभी नहीं किया। उन्हें यह ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई कि वे स्रोत वाङ्मय या वाल्मीकि आदि के पास दोबारा जाएँ। रामायण आज तक अत्यन्त लोकप्रिय है पर यह तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’ है, वाल्मीकि की रामायण को भुला दिया गया है। ‘महाभारत’ अत्यन्त लोकप्रिय है लेकिन वह (बंगाल में) काशी रामदास महाभारत है। यह स्थानीय बोलियों का प्रभाव है। तुलसीदास, कृत्तिवास, काशी रामदास बहुत अच्छे लेखक हैं लेकिन वे हममें वह प्रेरणा जगा नहीं सके कि हम मूल ग्रन्थों की ओर जा सकते। ऐसा क्यूँ है कि तुलसीदास को पढ़ने के बाद हमें यह महसूस नहीं होता कि हम वाल्मीकि को पढ़ें। पाठकों को तुलसीदास रामायण में ही वह सब मिल जाता है, जो वे चाहते हैं। इस तरह के ग्रन्थों के लिखे जाने में कुछ ग़लत नहीं है, रबीन्द्र संगीत के बनने में भी कुछ ग़लत नहीं है, लेकिन केवल तब तक जब तक उन्हें पढ़कर या सुनकर हमें यह न लगने लगे कि मार्गी संगीत की आवश्यकता ही नहीं है। ऐसा होना ग़लत है। हमारे यहाँ ठीक यही हुआ है। स्थानीय भाषाएँ आवश्यक हैं लेकिन इसका यह आशय नहीं है कि सारी संस्कृत समझ में नहीं आती, न यह ही कि संस्कृत गैर-ज़रूरी है।
उदयन- आप यह कह रहे हैं कि स्थानीय भाषाओं के इस साहित्य ने कहीं अध्ािक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी होती, अगर वह ‘स्वयं होने’ के साथ-साथ अपने स्रोतों का भी मार्ग प्रशस्त करता। स्थानीय भाषाओं के लेखकों और पाठकों का अन्य साहित्यों से सम्बन्ध्ा का स्वरूप भी क्या इसी रास्ते निकलेगा?
मुखोपाध्याय- अगर आप अपनी स्थानीय भाषाओं के प्रति इतने अध्ािक निष्ठावान हैं तो यह बताएँ कि आपने कितने पारम्परिक ग्रन्थों का स्थानीय भाषाओं में अनुवाद किया है, साथ ही आपने कितने अँग्रेज़ी उपन्यासों का बांग्ला में अनुवाद किया है? आज हम बहुत-सा अँग्रेज़ी या पश्चिम का साहित्य पढ़ते हैं, इसमें कोई ग़लती नहीं है पर आपको इनका अनुवाद अपनी भाषाओं में करके उन्हें समृद्ध करने का प्रयास क्यूँ नहीं करना चाहिए? मैंने खुद बहुत-सा पश्चिम का दार्शनिक लेखन पढ़ा है। यह विशेषकर तब की बात है जब मैं दर्शन का विश्वविद्यालय में छात्र था। शुरू में ही मैंने अपने आप से यह प्रश्न किया कि मुझे यह दार्शनिक लेखन पढ़ना ही क्यूँ चाहिए? इसका एक सीध्ाा जवाब तो यह था कि वह पाठ्यक्रम में है। लेकिन वह मुख्य कारण नहीं है। चूँकि मुझे दार्शनिक लेखन पढ़ना ही है, उसका सच्चा प्रयोजन क्या है? इसका केवल एक जवाब हैः अपनी दार्शनिक परम्परा को समृद्ध करने। अगर हम यूनानी, फ्राँसीसी या लातिन पढ़ते हैं और उससे अपनी अध्येतावृत्ति के सहारे अपनी स्थानीय संस्कृति को समृद्ध नहीं करता तो क्षमा करें, वह हमारी विफलता है। यही विफलता हमारे स्थानीय भाषाओं के साहित्य में हुई है।
उदयन- विवेकानन्द जैसे चिन्तकों की स्थिति इससे अलग है, उनके कहे या लिखे में भले ही वे अनुगूँजें न हों जिनका आप जि़क्र कर रहे हैं पर वे पारम्परिक ग्रन्थों के नाम अवश्य लेते रहते थे।
मुखोपाध्याय- उन्हें इसलिए क्षमा किया जा सकता है कि वे भले ही अनजाने वेद-वेद करते रहते थे, वह उचित ढंग तो नहीं है पर उनका साहित्य पढ़कर पाठकों को यह ज़रूर लगेगा कि वेद, उपनिषद् जैसे ग्रन्थ भी अस्तित्व में हैं। इस तरह उनमें से कुछ उन ग्रन्थों को पढ़ने की सोचेंगे। दूसरी ओर स्थानीय भाषाओं ने हमें यह भरोसा दिला दिया कि उनमें सारा ज्ञान समाहित है। यह दावा करने के पीछे महाभारत के दावे को इन सब भाषाओं पर आरोपित कर दावे किये जाने लगे। यही दावे कृत्तिवास रामायण या काशी रामदास और तुलसीदास की कृतियों के लिए किये गये। इन्हें पढ़ने के अलावा कुछ भी पढ़ना गैर-ज़रूरी है। अगर कुछ और पढ़ना ही है तो ईसाई दर्शन पढ़ो, अँग्रेज़ी साहित्य आदि पढ़ो। यह पारम्परिक वाङ्मय के हाशिये पर चले जाने का एक कारण है। दूसरा यह है कि भौतिक संस्कृति दरकिनार हो गयी।
उदयन- पर भारत की भौतिक संस्कृति के कमज़ोर होने के ठोस कारणों पर भी विचार करना होगा।
मुखोपाध्याय- आधुनिक भारत एक ओर उन पश्चिम प्रभावित अध्येताओं का सृजन है जो हमारे देश के योजनाकत्र्ता हुए, प्रशासक भी। वे विवेकानन्द, तुलसीदास आदि के विषय में बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। इनकी दो सीमाएँ हैं। इनके पास सामान्य ज्ञान और कुछ हद तक साहित्य का ज्ञान है, दूसरी ओर ये लोग पूरी तरह से ध्ार्म के प्रति निष्ठा रखते हैं इसलिए उन्हें इस बात की चिन्ता नहीं थी कि अन्यत्र क्या हो रहा है। उनमें एक ओर अज्ञान है, दूसरी ओर रुचि का अभाव। इसलिए उनका यह काम ही नहीं है कि वे हमारा ध्यान भारतीय संस्कृति की ओर खींच सकें। यह दूसरे लोगों के लिए छोड़ दिया गया और हमने इस काम को सरल बना लिया और सभी लोग भक्त हो गये। भक्त का अर्थ होता है कि हर तरह की बहानेबाजी के सहारे अपनी अकर्मण्यता को बनाये रखना क्योंकि गुरूजी ने कुछ भी करने को मना किया है। आजकल कबीर की शिक्षाओं के विषय में बातें होती हैं, पर यह ग़लत है। उन्हें शिक्षक होने की कोई ज़रूरत नहीं है। उन्हें ध्ाार्मिक व्यक्ति बने रहना था और अनुयायियों के साथ बैठकर विचार-विमर्श करना चाहिए था। उन्हें समाज सुध्ाारक क्यूँ मान लिया गया। उन्हें शिक्षक बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है। हमारी परम्परा में व्यक्ति कुछ अर्हताएँ के आध्ाार पर ही शिक्षक का दजऱ्ा पाता था। सब शिक्षक नहीं बन जाते थे। मुनि अनेक थे लेकिन उनमें से केवल छह या सात ही शिक्षक हो सके और उन्होंने शास्त्र रचे। वह प्रक्रिया अच्छी तरह परिभाषित थी। जो लोग पढ़ाने के काम में नहीं थे, शिक्षक नहीं थे अगर रबीन्द्रनाथ महान् कवि थे तो उन्हें हमारी संस्कृति और समाज के बारे में कुछ भी कहने का अध्ािकार नहीं हो जाता। मैं अपनी संस्कृति के विषय में जानने-समझने रबीन्द्रनाथ के पास क्यूँ जाऊँगा। भारतीय समाज में ज्ञान एक महत्वपूर्ण विषय है। अकादेमिक संस्कृति में भी यूरोपीय विचारध्ाारा व्याप्त है, वहाँ ज्ञान के खातिर ज्ञान प्राप्त किया जाता है। इसके अलावा ज्ञान प्राप्ति का कोई और तर्क नहीं है। यह हमारे समाज में पूरी तरह अस्वीकृत है। हमारी संस्कृति में ऐसा कोई ज्ञान नहीं है जिसे तर्क की कसौटी पर कसा न जाए और न ही जिसका कोई प्रयोजन हो। ध्ार्म को भी तर्क की कसौटी पर कसा जाता है। यह मनुसंहिता है जिसमें कहा गया है कि ‘यत् तर्केण अनुसन्ध्ान्ते स ध्ार्मं विगणित।’ जो व्यक्ति तर्क में निष्णात नहीं है, वह ध्ार्म नहीं समझ सकता। यह हमारी संस्कृति है। ध्ार्म कोई अन्ध्ाविश्वास नहीं है। लेकिन ज्ञान के विषय में हमारी एक और समझ है, बल्कि दो अन्तर्विरोध्ाी समझ हैं। ज्ञान हमेशा ही उसके उपयोगकर्ता के पास होना चाहिए। इसका निरन्तर ह्रास हुआ है, लेकिन इसी कारण आज भी एक निरक्षर बढ़ई कुछ ही क्षणों में यह बता सकता है कि कोई भी फर्नीचर बनाने में कितनी लकड़ी लगेगी। लकड़ी की मात्रा का अनुमान करना बहुत कठिन है क्योंकि उसमें तीन-चार मानक इस्तेमाल होते हैं। उनके पास इस गणना की ऐसी पद्धतियाँ हैं कि वे यह तुरन्त बता सकें। इस कौशल के होते किसी बढ़ई को ज़रूरत ही क्या थी कि वह बढ़इगिरी के आधुनिक पाठ्यक्रम का अध्ययन करता। पश्चिमी संस्कृति इससे भिन्न हैं, वहाँ सारा ज्ञान कूटबद्ध होना आवश्यक है। वहाँ आप किसी भी पुस्तकालय में जाएँ और आपको बढ़इगिरी, साहित्य, भाषा और ध्ार्म आदि की पुस्तकें मिल जाएँगी। ध्ाार्मिक व्यक्ति अलग-अलग तरह के होते हैं। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि आप ध्ाार्मिक व्यक्ति या ध्ार्म के व्यवहत्र्ता हैं या ध्ार्म के शिक्षक। अगर इन भूमिकाओं को जोड़ दिया जाए जैसा कि हमारे समय में हुआ है, समाज के साथ ऐसा करना अन्याय है।
उदयन- जो इन दिनों चारों ओर फैले तथाकथित ‘गाॅडमैन’ हैं और लोगों को तरह-तरह से ‘शिक्षित’ करते रहते हैं, उन्हें भी इसी मिश्रित भूमिका में रखा जाएगा।
मुखोपाध्याय- ये लोग भी वेद, रामायण, भागवत, महाभारत आदि बहुत सारे ग्रन्थों की व्याख्या करते रहते हैं और लोगों को पढ़ाया करते हैं। उनके पास ऐसा करने का क्या अध्ािकार है? उन्होंने इसका प्रशिक्षण कहाँ लिया है? ये लोग दूसरे क्षेत्रों के विषय में कुछ नहीं जानते, इनका कोई अध्ययन नहीं है। जो वास्तविक शिक्षक होते थे, वे साध्ाारण जीवन जीते हुए अपने विषय में डूबे रहकर उसे पढ़ाते थे। कबीर भी ऐसा ही करते रहे होंगे फिर वे भले ही बड़े कवि रहे हों पर वे शिक्षक के रूप में सफल नहीं कहे जा सकते। इसमें कुछ भी मुश्किल नहीं है। हर ध्ाार्मिक व्यक्ति अच्छा शिक्षक ही हो, आवश्यक नहीं है। एक महान आध्यात्मिक व्यक्ति का महान शिक्षक बनने का एक उदाहरण हैः गुरूस्तु मौनं व्याख्यानं, शिष्यस्तु विगत संशयः। गुरू चुप बैठता है और शिष्य को अपने संशयों के समाध्ाान मिल जाते हैं। यह क्या सुन्दर दृश्य है कि गुरू वटवृक्ष के नीचे शिष्यों से घिरा बैठा है। गुरू युवा है और शिष्य उम्रदार। गुरू बोलता नहीं और शिष्य सब कुछ जान जाता है। अब ध्ाार्मिक व्यक्तित्व, शिक्षक आदि के कत्र्तव्यों के बीच घालमेल हो गया है, यह पारम्परिक भारत में नहीं था। केवल वे लोग जिन्हें ज्ञान-पिपासा है, गुरू के पास जाते थे। पूरी विनम्रता से। क्षत्रियः समित्पाणि ब्रह्मनिष्ठं गच्छेत्। यदि गुरू उन्हें उपयुक्त समझता, शिक्षा शुरू होती। एक बार एक परिचित जो अब किसी विश्वविद्यालय के कुलपति हैं, ने मुझसे पूछा, तुम विदेश क्यों नहीं जाते। मैंने जवाब दिया, ‘मैं वहाँ शिक्षक की तरह जाऊँ या शिष्य की तरह? शिक्षक की तरह इसलिए नहीं जा सकता क्योंकि शिक्षक कहीं नहीं जाता, शिष्य उसके पास आते हें। क्या मैं अपना शास्त्र पढ़ने वहाँ जाऊँ? उसके योग्य शिक्षक वहाँ हैं ही नहीं। वे केवल यहाँ हैं और उनकी चीज़ मैं यहीं रहकर सीख सकता हूँ।’ पश्चिमी विद्वानों के लिखने का ढंग कुछ ऐसा है कि वे जो भी ग्रन्थ लिखते हैं, उनसे अपने आप केवल पढ़कर सीखा जा सकता है।
उदयन- उनको समझने के लिए गुरू या शिक्षक की आवश्यकता नहीं है बल्कि उनके लिखने का ढंग ही ऐसा है जिसमें गुरू की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। आपकी गुरू और शिक्षक के अन्तर की व्याख्या में एक प्रश्न अनुत्तरित रहता है। अगर मध्यकाल के कवियों और सन्तों की शिक्षक होने की अर्हता नहीं थी, और यह बात समाज से भी छिपी नहीं होगी, फिर ऐसा क्यूँ हुआ कि इन कवियों आदि से शिक्षा लेने यह समाज बहुत अध्ािक उतावला था जबकि वह समाज ऐसे शिक्षकों आदि के प्रति इतना ग्रहणशील नहीं था।
मुखोपाध्याय- झूठी उम्मीद और वैसा ही आश्वासन, मेरी समझ से इस उतावलेपन के पीछे थे। ध्ार्म के शिक्षक भारत में आधुनिक अविष्कार है। विवेकानन्द ने यह कहा भी है कि वे पहले हिन्दी भिक्षु हैं जिसने विदेशी भूमि पर जाकर हिन्दू ध्ार्म की शिक्षा दी, उसका उपदेश दिया। हिन्दू ध्ार्म में ध्ार्म ध्ाार्मिक शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है, हमारे लिए यह अज्ञात है। वे महान व्यक्तित्व अवश्य थे, लोग उनके पास जाकर बातचीत करते थे। यह बातचीत दो तरह की होती थी। एक थी अपेक्षाकृत अध्ािक औपचारिक, जिसमें सभा या शास्त्रार्थ होता था। दूसरी कहीं अध्ािक विशिष्ट और बन्द दरवाज़ों में हुआ करती थी। यह उच्च स्तर के व्यक्ति के लिए होती थी। लेकिन इनमें ध्ार्म की शिक्षा देना नहीं होता था। इसका एक कारण यह है कि पारम्परिक भारतीय संस्कृति अपने किसी प्रतिपक्षी की उपस्थिति की सजगता के बगैर विकसित हुई है जबकि सामी संस्कृतियों का हर रूप अपने से अलग और अपनी प्रतिद्वन्द्वी संस्कृतियों की सजगता के साथ विकसित हुआ। प्रतिद्वन्द्वी संस्कृति के हो सकने की सजगता के अभाव ने अन्य संस्कृतियों का सामना होने पर हमें उनके विषय में गहरी समझ विकसित करने में बाध्ाा पहुँची।
उदयन- क्या अन्य संस्कृतियों के विषय में यहाँ जानकारी तक नहीं थी। मैं इसलिए पूछ रहा हूँ कि हम जानते हैं, हमारे देश का अन्य देशों और उनकी संस्कृतियों से सम्बन्ध्ा पुराना रहा है।
मुखोपाध्याय- यह सही है कि ऐसा नहीं था कि हमें उनकी जानकारी न रही हो। मसलन महाभारत में एक स्थान पर इन्द्र मनु के पास गये। इन्द्र ने कहा, ‘मैं शासक हूँ, न सिर्फ़ इस क्षेत्र का बल्कि समूचे ब्रह्माण्ड का एक प्रभावशाली शासक होने के लिए मुझे सभी ध्ार्मों को जानना है।’ मनु संहिता में भी यह वर्णन आता है कि जब-जब लोग ध्ार्म के विषय में जानने मनु के पास गये। मनु बोले, ‘वर्णाश्रमेतरानांच ब्रुहि ध्ार्मा अशेष’। वर्णाश्रम ध्ार्म और अन्य ध्ार्म की भी शिक्षा। इसका अर्थ है कि सभी ध्ार्मों के अन्तर्विरोध्ाी प्रभावों की सजगता होना बेहतर है।
उदयन- आपने इस बातचीत के दौरान एक से अध्ािक बार यहाँ की संस्कृति की पूर्णता की बात कही है। आपने उसका पर्याप्त विस्तार नहीं किया। आज की बात हम वहीं से शुरू करें।
मुखोपाध्याय- संस्कृति अपने में सम्पूर्ण होती है, उसी तरह जैसे मनुष्य भी होता है। मैं अपने इस विश्वास को इस हद तक ले गया कि मेरे गुरू ने मुझसे कहा कि ऐसा करके तुम अपने वास्तविकता बोध्ा को दाँव पर लगा रहे हो और आदर्शवाद की ओर झुक रहे हो। मैं यह उदाहरण पहले भी देता था कि अगर कोई व्यक्ति अच्छा गायक है, मसलन कोई रबीन्द्र संगीत का अच्छा गायक है, मैं यह मान नहीं सकता कि वह खराब व्यक्ति होगा। इसका अर्थ यह है कि जीवन का हर पक्ष अपनी सम्पूर्णता के लिए अन्य सभी पक्षों के पर्याप्त विकसित होने की प्रत्याशा रखता है। इसलिए हर समृद्ध संस्कृति का हरेक पक्ष अपेक्षया समृद्ध होता है। सामान्यतः ऐसा होना मुश्किल है (इसके निश्चय ही अपवाद हैं) कि किसी समृद्ध संस्कृति का कोई एक पक्ष बाकी पक्षों की समृद्धि की कीमत पर वैसा हो। यह सम्भव नहीं है कि किसी व्यक्ति के हाथ-पाँव सशक्त हों और सीना निर्बल हो। संस्कृति एक जीवित संघटना है। इसमें सम्पूर्णता और एकत्व होता है। इसे जटिल एकत्व कहा जाता है। इसी तरह हर व्यक्ति में जटिल एकत्व होता है। संस्कृति के सभी आयाम भिन्न होते हैं, अन्तर्विरोध्ाी नहीं। इन विभिन्न आयामों को कोई संस्कृति किस तरह संयोजित करती है, यही उसका मुख्य चरित्र है। इसीलिए भारतीय संस्कृति में दर्शन, विज्ञान, चिकित्सा शास्त्र, कलाएँ, साहित्य आदि सबकुछ है। इन्हें जोड़ने की आध्ाार-भूमि भी यहाँ है। यह अलग बात है कि वह क्या है? इसीलिए हम माॅडर्न ट्रेडीशनलिस्टों को संस्कृति के हर क्षेत्र को समझने की आवश्यकता महसूस हुई थी। यह करते हुए हम यह समझ पाये कि आधुनिक भारतीय दो तरह के हैं। एक है परम्परावादी आधुनिकतावादी और दूसरे विशुद्ध आधुनिकतावादी। इन दोनों ने ही भारत को सम्पूर्ण संस्कृति नहीं माना। इसलिए ये लोग भारतीय संस्कृति को आध्यात्मिक आदि विशेषणों से मण्डित करते रहे।
उदयन- कल यहाँ बातचीत में उठायी गयी उस चिन्ता के बारे में आप सम्भवतः यह जवाब दे रहे हैं, जहाँ यह कहा गया था कि भारत ने अपनी आध्यात्मिक परम्परा पर अत्यध्ािक ज़ोर देने की प्रक्रिया में अपनी सामाजिक स्थिति और यहाँ की भौतिक संस्कृति की गिरावट का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इनके बीच मानो कार्य-कारण का सम्बन्ध्ा हो।
मुखोपाध्याय- यह एक तरह का आरोप है। इसका स्रोत भी विदेशी अध्येताओं की समझ है। ये सारे आरोप वहीं से आये हैं। भारत में ऐसे दो आधुनिक हुए हैं, जिन्होंने भारत को आध्यात्मिक संस्कृति बताने की अवध्ाारणा को प्रस्तुत किया और उसे लोकप्रिय किया। ये दो लोग हैं, विवेकानन्द और राध्ााकृष्णन्। मैं इनमें श्री अरविन्द को नहीं रखता, जिसका एक कारण यह है कि उनका राजनैतिक दौर सारा का सारा सार्वजनिक था और उसके बाद आध्यात्मिक व्यक्तित्व हो जाने के बाद वे एकान्तिक हो गये। पर यही एक कारण नहीं है। अपने एकान्तिक काल में वे बहुत सारा लिखते रहे और इसलिए हम उन्हें जिस हद तक भी जानते हैं, उनके लेखन से जानते हैं और उनका लेखन बेहद जटिल है। मेरे जाध्ावपुर विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त होने के पहले हमारे दर्शन विभाग ने श्री अरविन्द के अध्ययन के लिए ‘अध्ययन केन्द्र’ खोला। उसके शुभारम्भ के उपलक्ष्य में आयोजित गोष्ठी में मुझे ‘बीज वक्तव्य’ देने आमन्त्रित किया गया। उस गोष्ठी में अनेक महत्वपूर्ण लोगों को आमन्त्रित किया गया था। मैंने अपने वक्तव्य में कहा कि यह मेरी समझ के बाहर है कि दर्शन विभाग में ‘श्री अरविन्द अध्ययन केन्द्र’ क्यों होना चाहिए। अरविन्द के पास दार्शनिक होने की क्या योग्यता है? हमने हरेक को दार्शनिक बना रक्खा हैः रबीन्द्रनाथ दार्शनिक थे, गाँध्ाी दार्शनिक थे! मैंने यह भी कहा कि वे बेहद शिक्षित थे, अत्यन्त प्रतिभावान थे और उनका लेखन बहुत ताक़तवर है। ‘वन्दे मातरम्’ अख़बार के दिनों में उनका लिखा हर शब्द प्रेरक होता था, बोध्ागम्य था। आप उनके मत को स्वीकार करते, न करते पर इसमें शक नहीं था कि वे क्या कहने का प्रयास कर रहे थे। उनमें से एक लेख ‘रेनेसां’ पर था। इसके ठीक विपरीत उनकी पुस्तक ‘डिवाइन लाईफ़’ और वेदों पर उनका लेखन था। एक बार वेद के प्रसिद्ध अध्येता डेविड फ्ऱाॅली वेदों पर व्याख्यान दे रहे थे। मैंने व्याख्यान के बाद अपने अध्यक्षीय उद्बोध्ान में उनसे कहा कि ऐसा जान पड़ता है कि आपने वेदों पर श्री अरविन्द के विचारों के आध्ाार पर ही अपनी समझ विकसित की है, लेकिन तमाम वर्षों में श्री अरविन्द को पढ़ने के बाद भी आपको उनकी और उनके शिष्य कपिल शास्त्री की एक भी आलोचना पढ़ने का अवकाश नहीं मिल सका। वेद पर लेखन करते समय श्री अरविन्द की लेखन शैली पाठकों को मानो भ्रमित करने ही अपनायी गयी थी। एकबार एक विदेशी महिला-अध्येता ने श्री अरविन्द से उनके अँग्रेज़ी लेखन के बारे में यह कहा था कि आपकी भाषा के कारण आपके लेखों का कथ्य स्पष्ट नहीं होता। श्री अरविन्द होशियार व्यक्ति थे, वे इस बात पर विचार कर सकते थे पर उन्होंने इसे टाल दिया।
हाल ही में पद्मभूषण से सम्मानित डेविड फ्ऱाॅली ने अग्निसूक्त के चालीस मन्त्र अनुदित किये हैं। मेरी दृष्टि में यह कोई बहुत बड़ा काम नहीं है। लेकिन इन सूत्रों के आध्ाार पर उन्होंने एक सिद्धान्त प्रस्तावित कर दिया कि वैदिक भाषा गोपनीय थी जिसे केवल कुछ लोग ही समझ सकते थे। जबकि हमें यास्क के निरुक्त के समय से यह पता है कि वैदिक मन्त्रों की तीन अलग तरहों से व्याख्या हो सकती है। यह कहा गया कि इन मन्त्रों की याज्ञिक व्याख्या हो सकती है या आध्यात्मिक या आध्ािदैविक। लेकिन यह किसी ने नहीं कहा कि ये व्याख्याएँ केवल कुछ लोग ही कर सकते हैं, इसे करने पर कोई बन्दिश नहीं थी। श्री अरविन्द ने कहा कि वैदिक मन्त्र रहस्यमय है लेकिन ऐसा कोई तर्क नहीं है जिसके आध्ाार पर वेद के अर्थों को लोगों से छुपाकर रखा जाए। मैंने फ्राॅली से पूछा कि क्या आप बता सकते हैं कि विवेकानन्द और श्री अरविन्द के होने के बाद क्या हुआ। संयोग से दोनों ने ही अपने सम्प्रदाय बनाये। विवेकानन्द के भी अनुयायी हैं और श्री अरविन्द के भी। राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी संख्या में अनुयायी हैं। लेकिन श्री अरविन्द के अनुयायियों ने कितनी बार विवेकानन्द के अनुयायियों से बहस की है? इससे यह पता चलता है कि अरविन्दवादी विवेकानन्द की पूरी तरह अवहेलना कर रहे थे और विवेकानन्दवादी अरविन्द की। ऐसा भारतीय विचार पद्धतियों में नहीं हुआ करता है। भारत हमेशा ही खुली बहसों का समाज रहा है। किसी को भी बख़्शा नहीं जाता था फिर वे शंकराचार्य हों या रामानुजाचार्य। सबको अनिवार्यतः आलोचना का सामना करना पड़ता था। हम दूसरे विचारक के कहे का ध्यान रखकर उससे खुली बहस करते थे, पूरी स्वतन्त्रता से। विवेकानन्द और अरविन्द के बनाये भारत में विचार परम्परा को पूरी तरह महत्त्वहीन बनाते हुए केवल भक्त परम्परा है। अब विचारकों को सिर्फ़ सम्मान देने के लिए ही याद रखा जाता है। सम्मान दर्शाने का यह ढंग भारतीय नहीं है। सम्मान देने का हमारा ढंग यह है कि हम सम्मान्यतः विचारक को आलोचनात्मक ढंग से पढ़ें और उसे समझने का प्रयत्न करें। मैं पक्का नैयायिक हूँ पर शंकराचार्य का बहुत सम्मान करता हूँ और यह हमें अन्तर्विरोध्ाी नहीं लगता।
उदयन- आप बता रहे थे कि इस अध्ययन केन्द्र के खुलने के एक साल बाद सम्भवतः शरारतन आपको श्री अरविन्द पर बोलने आमन्त्रित किया गया था। वहाँ आपने क्या कहा? उस केन्द्र के उद्घाटन समारोह में अपना बीज वक़्तव्य देते हुए आपने श्री अरविन्द को दार्शनिक नहीं माना था और साथ ही उनके ‘अनुयायी’ डेविड फ्ऱाॅली को प्रश्नांकित किया था। इन व्याख्यानों में आपने क्या स्थापना की थी?
मुखोपाध्याय- मैंने सात-आठ व्याख्यान देने का निश्चय किया और यह कहते हुए शुरुआत की कि मैंने श्री अरविन्द को इस केन्द्र के उद्घाटन समारोह में दार्शनिक नहीं माना था, अब मैं यह बताने की कोशिश करूँगा कि वह उन्हें किस रास्ते दार्शनिक बनाया जा सकता है। एक दार्शनिक को ऐसा क्या करना चाहिए कि श्री अरविन्द को दार्शनिक की तरह प्रस्तुत कर सके। इसका अर्थ यह है कि उन्हें दार्शनिक न मानने भर से बात खत्म नहीं हो जाती। पहले आपको यह तथ्य स्वीकार करना होगा और फिर यह देखने की कोशिश करनी होगी कि तर्क को किस तरह रखा जाए कि चीजे़ं वैसी नज़र आएँ जैसी आपको अभीष्ट है लेकिन इसके लिए आप उन पर दार्शनिक होना आरोपित नहीं कर सकते।
उदयन- अगर आप जैसा दार्शनिक श्री अरविन्द को दार्शनिक मानने तैयार नहीं हो पाता (ज़ाहिर है इसके पीछे सशक्त तर्क विध्ाान है) तो अरविन्द की इतनी चर्चा क्यों होती रही है?
मुखोपाध्याय- श्री अरविन्द आधुनिक बौद्धिकों की सम्पत्ति बन गये हैं। उन्होंने शायद ही कोई सहज पठनीय लेख लिखा हो जैसे कि विवेकानन्द ने लिखे हैं। इसका कारण यह है कि विवेकानन्द ने सबके लिए लिखा है, वह सारा लेखन बेहद वाचाल है, इसीलिए उसके प्रभाव में सभी आ जाते हैं और वह लेखन कुछ खास नहीं कहता।
यह मेरे अकेले का मत नहीं है। लियो तोल्सतोय बहुत ध्ाार्मिक व्यक्ति थे। बहुत ध्यान से पढ़ते थे और उन शब्दों को लिख लेते थे जिनमें उन्हें ध्ाार्मिक अभिप्राय दिखते थे। उन्होंने विवेकानन्द को बहुत रुचि से पढ़ना शुरू किया। यह सब उन्होंने लिखा है। कुछ समय बाद उन्होंने रामकृष्ण परमहंस को पढ़ा। इन दोनों को ही पढ़ने के दौरान उन्होंने कुछ नोट्स लिखे। उनमें यह है कि विवेकानन्द महज वाचाल हैं। कोई भी उन्हें ध्यान से पढ़ेगा, यह जान लेगा। श्री अरविन्द ने यह कहने की कोशिश कभी नहीं की कि भारत एक आध्यात्मिक देश है। खासकर भारतीय पुनर्जागरण पर लिखे उनके तीन लेखों में से किसी एक में उन्होंने, अगर मेरी स्मृति मेरा साथ दे रही है, यह लिखा है कि भारत एक समग्र संस्कृति है। श्री अरविन्द ने बाद के वर्षों में और विवेकानन्द ने हमेशा भारत को आध्यात्मिक संस्कृति कहा। उनके यह कहने पर मुझे कोई आपत्ति न हुई होती अगर उसका आशय यह भी न रहा होता कि भारत एक समग्र संस्कृति नहीं है। दरअसल भारत में अत्यन्त विकसित बौद्धिक संस्कृति भी थी और यह लम्बे समय तक रही है। और साथ ही यह संस्कृति विविध्ा थी, एकांगी नहीं। बौद्धिक संस्कृति का साहित्य अत्यन्त विपुल और विविध्ा है। मैकाले मूर्ख था, जब वह यह कह रहा था कि समूचा भारतीय साहित्य पुस्तकालय की एक दराज़ में रखा जा सकता है। उसका एक अंश भी इस तरह नहीं रखा जा सकता। हमारा विपुल वाङ्मय हाशिये पर डाल दिया गया है। यह उन लोगों के कारण है, जिन्होंने भारत को आध्यात्मिक देश की तरह निरूपित किया। मुझे इसका एहसास है कि ऐसा क्यूँ किया गया होगा।
उदयन- आप कल शाम चैन्नई में हुई किसी ऐसी गोष्ठी का जि़क्र कर रहे थे, जिसमें एस. गोपाल भी शामिल थे, जहाँ आपने विवेकानन्द और सर्वपल्ली राध्ााकृष्णन् की पश्चिम में भूमिका पर प्रश्न उठाये थे।
मुखोपाध्याय- मैंने वहाँ यह कहा था कि जिस तरह विवेकानन्द पश्चिम में हिन्दू ध्ार्म के स्व-नियुक्त मिशनरी थे, उसी तरह राध्ााकृष्णन् भी पश्चिम में ही हिन्दू ध्ार्म के स्व-नियुक्त प्रचारक थे। इसके पीछे क्या प्रयोजन रहा होगा? इसका कारण हमें या तो राध्ााकृष्णन् के पारिवारिक या विद्यार्थी जीवन में मिल सकता है। आप उनका लेखन पढ़ें, आप समझ जाएँगे कि वे हिन्दू ध्ार्म को यूरोप में प्रचारित करने कृत संकल्प थे। वे हिन्दू ध्ार्म को लगातार महान बताते हुए पश्चिम की उल्टे रास्ते से की गयी भारत को आध्यात्मिक संस्कृति बताने की कोशिश को उचित ठहरा रहे थे, साथ ही उनकी इस ध्ाारणा को पुष्ट कर रहे थे कि भारत में तर्कपूर्ण, वैज्ञानिक और भौतिक संस्कृति का अभाव है। ये दोनों लोग यूरोप में हिन्दू ध्ार्म को स्वीकार्य बनाने इतने उतावले क्यों थे? यह सवाल सुनकर लोग असमंजस में पड़ गये। मैंने कहा कि क्यूँ न हम यह सवाल एस. गोपाल से पूछें? वे चुप रहे। मैंने जब ज़ोर दिया, वे बोले, ‘राध्ााकृष्णन के पारिवारिक और विद्यार्थी जीवन में ऐसा कुछ था। वे मिशनरी स्कूल में पढ़े थे। वहाँ उन्होंने हिन्दू ध्ार्म के बारे में अनेक अपशब्द सुने। शायद इसीलिए वे यूरोप के लोगों को यह बताना चाहते हों कि हिन्दू ध्ार्म महान है।’ इन दोनों लोगों जैसे विचारकों ने ही भारत को आध्यात्मिक देश निरूपित किया और हम इनके बड़े से बड़ा प्रशंसक होने के लिए होड़ लगाया करते हैं। इस पर विचार-विमर्श क्यों नहीं किया जाता।
विवेकानन्द और श्री अरविन्द ने योग के अपने-अपने सिद्धान्त निकाले। लेकिन उन्होंने यह बताने का कभी प्रयास नहीं किया कि वे पातंजलि के योग से कहाँ अलग हैं? जैसी कि सामान्य भारतीय बौद्धिक परम्परा में अपेक्षा होती है। भारत को आध्यात्मिक संस्कृति बताते रहने का यह परिणाम हुआ कि यहाँ की बौद्धिक संस्कृति दरकिनार हो गयी है। संसार भर में भारत को वेदान्त की भूमि कहा जाने लगा है। वेदान्त और बौद्ध दर्शन ही भारत के प्रतिनिध्ाि हो गये हैं। यह कौन-सा वेदान्त है! यह संवादमूलक वेदान्त नहीं, विवेकानन्द का बताया वेदान्त है। इसने भारत की सभी बौद्धिक, विश्लेषणात्मक विचार पद्धतियों को फीका कर दिया है। हम उन सबको भूल गये। यह हम कैसे कर सके, मेरी समझ से बाहर है। एक सम्पूर्ण संस्कृति का नागरिक संस्कृति के हर पक्ष से किसी-न-किसी स्तर पर परिचित होता ही है, वह भले ही हरेक का विशेषज्ञ न भी हो। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता कि उसे उनमें रुचि न हो। एक ऐसी संस्कृति में जहाँ नव्य-न्याय जैसा जटिल विचार उत्पन्न हुआ, वहीं यह भी कहा गया; साहित्य, संगीत और कला से विहीन मनुष्य साक्षात् पशु के समान है। (साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः) इसका तात्पर्य यह है कि साहित्य, संगीत और कला में रुचि लेने के लिए मनुष्य को दूसरी तरह का नहीं होना होता।
उदयन- शायद यही कारण होगा कि आपने छह वर्ष पहले बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में नवज्योति सिंह और मेरे संयोजन में आयोजित नाट्यशास्त्र पर हुई कार्यशाला में कला के दर्शन पर कुछ व्याख्यान दिये थे...
मुखोपाध्या- इसका एक कारण और भी है। ऐसा विश्वास बढ़ता जा रहा है कि दर्शन के पदार्थवादी (रियलिस्ट) चिन्तन का कला से सम्बन्ध्ा बनना मुश्किल है, कला रहस्यवादियों और विचारवादियों (आईडियलिस्ट) का क्षेत्र है। चूँकि मैं निष्ठावान भौतिकवादी (रियलिस्ट) हूँ इसलिए भी मुझे कला को समझने का अपना मार्ग बनाना आवश्यक था। मैं यह सोचने लगा कि इस क्षेत्र में पदार्थवादी अध्ययन इतने कम क्यों हैं? इसका पहला कारण यह है कि कला की प्रेरणा का उत्स क्या है? और यह कि कला का हमारी बौद्धिक संस्कृति और उपक्रम में क्या स्थान है। मेरा इस ओर ध्यान गया कि भारत में कभी कला का दर्शन विकसित करने का प्रयास नहीं हुआ। इस तथ्य से इस निष्कर्ष पर कूद जाना ग़लत है कि भारत में कला के सिद्धान्त नहीं रहे। कला के सिद्धान्त निश्चय ही विकसित हुए पर कला का दर्शन नहीं। यह पहला प्रश्न था, जिसने मुझे विचलित किया। दूसरा प्रश्न यह था कि कला की प्रेरणा क्या होती है और क्या वह दार्शनिकों और वैज्ञानिकों आदि को प्रेरित कर सकती है?
उदयन- इन सवालों से जूझने की शुरुआत आपके बनारस आने से पहले हुई होगी। ये आसानी से समाध्ाान तक पहुँचने वाले प्रश्न नहीं है।
मुखोपाध्याय- कई बरस पहले मैंने आई.आई.टी. खड़गपुर के अपने व्याख्यान में कहा था कि भारतीय सैद्धान्तिक संस्कृति, विशेषकर दर्शन में कला लगभग तिरस्कृत ही रही है। मैंने उसकी मिसाल यह दी थी कि मैंने लम्बे समय तक दर्शन पर काम करते हुए कला पर दो-तीन ही निबन्ध्ा लिखे हैं। अगर मैं अपने सहचरों का रिकार्ड देखूँ, वह मुझसे भी कमज़ोर है। ऐसा क्यों हुआ? मुझसे एक वर्ष आगे पढ़े प्रभात जीवन चैध्ारी ने विज्ञान पर दो-तीन आलेख लिखे थे, पर उन्होंने कला पर पुस्तक लिखी थी। वह साध्ाारण पुस्तक थी। डी.पी. चट्टोपाध्याय की कला पर पुस्तक भी ऐसी ही थी। मैंने इस पर सोचना शुरू किया और पाया कि भारत में सौभाग्य से सौन्दर्यशास्त्र दर्शन के भाग की तरह विकसित नहीं हुआ। वह स्वतन्त्र रूप से विकसित हुआ है। अगर यह दर्शन के हिस्से की तरह विकसित होता, यह दर्शन का बहुत छोटा-सा अंश बनकर रह जाता। यह स्वतन्त्र रूप से बढ़ा, इसकी सैद्धान्तिकी अत्यन्त विकसित है पर प्रश्न यह है कि सौन्दर्यशास्त्रियों ने सैद्धान्तिकी विकसित करते हुए भी दर्शन की भाषा में विचार नहीं किया। हालाँकि वे सिद्धान्तों को विकसित कर रहे थे तब भी उन्होंने भौतिक दर्शन की भाषा से पूरे एहतियात से खुद को बचाये रखा। इन दोनों प्रश्नों को मिलाकर एक तीसरा मूल प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि नाट्यशास्त्रियों और दार्शनिकों के बीच ठीक-ठीक क्या सम्बन्ध्ा है?
यह मसला तब और अध्ािक जटिल हो जाता है, जब हमें यह पता हो कि हरेक नाट्यशास्त्री का सम्बन्ध्ा एक अलग ही दार्शनिक दृष्टि से रहा है। शंकुक नैयायिक थे, अभिनव गुप्त वेदान्ती थे और भट्टनायक, भट्ट लोल्लट जैसे नाट्यशास्त्रियों के सिद्धान्त भी किसी न किसी दर्शन पर ही टिके थे अन्य नाट्यशास्त्री भी ऐसे ही थे। लेकिन वे तब भी हमेशा ही दर्शन के बाहर रहे आये। इनके बीच आत्मीयता क्यों विकसित नहीं हो पायी?
दूसरा प्रश्न यह है कि कलात्मक उपक्रम किस तरह विज्ञान और दर्शन को उत्प्रेरित कर सकता है? एक बार शान्ति निकेतन के केन्द्र ‘विश्वभारती’ में वैज्ञानिक चन्द्रशेखर की किताब ‘ट्रूथ एण्ड ब्यूटी’ पर गोष्ठी आयोजित हुई। उसमें नवज्योति सिंह भी थे। उसके लिए मैंने एक आलेख लिखा था, जिसमें यही प्रश्न उठाया था। इसके अलावा मुझे नवज्योति के कला-दर्शन ने इस ओर सोचने को प्रेरित किया था। इसके भी पहले दर्शन के छात्र के रूप में मुझे इस प्रश्न ने विचलित किया था कि दार्शनिक, विज्ञानविद् और कलाकार के बीच क्या फ़र्क है। दार्शनिक और वैज्ञानिक के बीच क्या फ़र्क है। पश्चिम में यह विचार है कि वैज्ञानिक की रुचि का क्षेत्र बाह्य जगत होता है, कला वह नहीं है। कला का विशिष्ट क्षेत्र सौन्दर्य होता है। जब तक हम सौन्दर्य और प्रकृति के बीच के सवाल को हल करने की दिशा में आगे नहीं बढ़ते, हम कला और विज्ञान के बीच के सम्बन्ध्ा को स्पष्ट नहीं कर पायेंगे।
उदयन- सौन्दर्य और प्रकृति के बीच भी कई कोटियाँ हो सकती हैं।
मुखोपाध्याय- सौन्दर्य और प्रकृति के बीच प्राकृतिक सौन्दर्य होता है और जब तक हम प्राकृतिक सौन्दर्य के सन्दर्भ में अपनी स्थिति परिभाषित नहीं करते, सौन्दर्य और प्रकृति के सम्बन्ध्ाों पर आगे नहीं बढ़ पायेंगे।
उदयन- इस सन्दर्भ में आधुनिक भारतीय विचारकों की क्या स्थिति है?
मुखोपाध्याय- जहाँ तक आधुनिक भारतीयों का प्रश्न है चाहे वे प्रभाव जीवन चैध्ारी हों या डी.पी. चट्टोपाद्याय, शास्त्रों के गहरे जानकर नहीं हैं। वे अच्छे अध्येता हैं पर शास्त्र के बेहतर अध्येता नहीं हैं। ये लोग मूलतः पश्चिमी दृष्टि को ध्यान में रखकर काम करते रहे। इसलिए वे और कार्ल माक्र्स और मैक्समूलर जैसे पश्चिमी अध्येता यह कहेंगे कि भारत के पास प्राकृतिक सौन्दर्य को देखने की नज़र नहीं है। पर इसकी कोई व्याख्या नहीं की गयी।
उदयन- इस विषय में आपकी स्थिति निश्चय ही इनसे अलग हैं...
मुखोपाध्याय- मेरा सोचना यह है कि वैज्ञानिक-यूरोप प्राकृतिक सौन्दर्य का अनुभव करने में असमर्थ है। इसकी पर्याप्त व्याख्या मैंने चन्द्रशेखर की किताब पर अपने लेख में की है। मैंने यह समझने की कोशिश की है कि कला की उत्प्रेरणा क्या है? इस ‘खोज’ के दौरान मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इस विषय पर विचार करने वालों वे ही रहे हैं जो ‘कला के लिए कला’ के प्रस्तावक थे जो दरअसल ‘ज्ञान के लिए ज्ञान’ का ही सहयोगी तर्क है। ‘ज्ञान के लिए ज्ञान’ उस स्वतन्त्रता का दावा था जिसे सिद्धान्त अन्वेषकों ने बहुत मुश्किल से हासिल किया था। वे इस स्वतन्त्रता को खोना नहीं चाहते थे और यह स्वतन्त्रता उन्होंने अपने अन्वेषणों के लिए ध्ार्म और चर्च के नियन्त्रण से पायी थी। इसके फलस्वरूप ध्ार्म और चर्च ज्ञान के अन्वेषण को नियन्त्रित करने की स्थिति न बचे। हालाँकि यह भूलना नहीं चाहिए कि चर्च में एक समय पर कलात्मक उपक्रमों को बनाये रखा था। इसी तरह जब कलाकार ‘कला के लिए कला’ कह रहे थे कि वे दरअसल वास्तविकतावाद से अपनी स्वतन्त्रता के लिए दबाव डाल रहे थे। और यह वास्तविकतावाद वैज्ञानिक यथार्थवाद था।
अगर इस विचित्र प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जाए तो कलाकार या तो रहस्यवादी हो सकता है या रोमाण्टिक। वास्तविकतावादी कोई कलाकार नहीं हो सकता। इस सन्दर्भ में सबसे सशक्त तर्क आॅस्कर वाईल्ड ने दिया है। उन्होंने कहा कि यथार्थवादी कलाकार का आदर्श ध्ाोबी की नोटबुक ही हो सकती है और वहाँ कला जीवित नहीं रह सकती।
उदयन- इस स्थिति में कलात्मक उपक्रम की उत्प्रेरणा क्या हो सकती है?
मुखोपाध्याय- अगर मैं इसे आॅस्कर वाईल्ड की ही भाषा में कहूँ, कला प्रकृति की अनगढ़ता के विरुद्ध मनुष्य का साहसिक संघर्ष है। ईश्वर के बनाये संसार और प्रकृति बहुत अनगढ़, भौंडे हैं। कलाकार उसके विरुद्ध संघर्ष करता है। ईश्वर की बनायी दुनिया ‘परफेक्ट’ (पर्याप्त-परिपूर्ण) है और वह कलाकार को उसी तरह कोई स्वतन्त्रता नहीं देती जैसे रवीन्द्र संगीत संगीतकार को कोई स्वतन्त्रता नहीं देता। आॅस्कर वाईल्ड यह भी कहते हैं कि कला में ही प्रकृति के लिए सीख है। सीख यह है कि तुम ‘परफेक्ट’ नहीं हो। प्रकृति के इस ‘परफेक्ट’ न होने के कई संकेत हैं जैसे चारों ओर फैली पीड़ा, बेचैनी और दुःख। ‘कला के लिए कला’ के इस सिद्धान्त का प्रणेता आॅस्कर वाईल्ड था। इसमें कुछ नया नहीं था। हम उन्हें इसलिए मानते हैं क्योंकि वे एक महान लेखक थे, इस सिद्धान्त के लिए नहीं। हम उमर खय्याम की रूबाईयत पर सोचें। वहाँ भी यह संकेत है कि संसार पर्याप्त-परिपूर्ण (परफेक्ट) बिल्कुल भी नहीं है और इसका संकेत मनुष्य की पीड़ा और दुःख में है। यहाँ भी एक पर्याप्त (परफेक्ट) संसार बनाने की उत्प्रेरणा है और उसका प्रयोजन मनुष्य को सुखी बनाना है।
संस्कृति में एक सुन्दर श्लोक है। उसे किसी नैयायिक ने ही लिखा होगा। श्लोक मैं भूल गया हूँ पर उसका आशय यह हैः जब ईश्वर ने यह जगत बनाया, उसे उचित सलाह देने कोई नहीं था। वरना ऐसा कैसे हुआ कि इतनी बढि़या सुगन्ध्ा वाले चन्दन के वृक्ष में फूल नहीं होते। अगर वे होते, उनका क्या सुगन्ध्ा हुई होती। गन्ने का पौध्ाा खुद ही मीठा होता है, उसमें फल होते, वे कैसे बढि़या मीठे होते। यह समझ हमेशा से रही कि हम जिस संसार में रहते हैं वह पर्याप्त (परफेक्ट) नहीं है। यह समझ कला की उत्प्रेरणा का एक पहलु रहा है।
कला इस समझ से उत्पन्न हुई है कि हमारी दुनिया पर्याप्त-परिपूर्ण (परफेक्ट) नहीं है। लेकिन इस रास्ते में एक झोल है। संसार पर्याप्त-परिपूर्ण नहीं है, न रहे। इसमें मुश्किल क्या है?
उदयन- पर इससे भी अध्ािक महत्त्व का प्रश्न यह बनता है कि इससे बाहर आने के रास्ते क्या हो सकते हैं?
मुखोपाध्याय- इससे बाहर आने के दो रास्ते हैंः अगर ईश्वर ने ही संसार को ‘परफेक्ट’ नहीं बनाया और हम भी उसी ईश्वर के बनाये हुए हैं, उसे वैसे ही रहने देते हैं, उसके आगे आत्मसमर्पण कर देते हैं। पर कला का रास्ता अलग है। वहाँ इसके पर्याप्त-परिपूर्ण न होने के प्रति विरोध्ा दर्शाया जाता है। पर क्या ईश्वर के प्रयोजन और उसकी शक्ति को प्रश्नांकित करना ही पर्याप्त है। हमें यह दिखाना होता है कि पर्याप्त-परिपूर्ण होना क्या है? आपको एक पर्याप्त-परिपूर्ण सृष्टि की रचना करनी होती है। उमर ख़य्याम ने कहा था कि हम इस कायनात को अपने दिल की आकांक्षा के अनुरूप पुनर्रूप देते हैं। वह एक ऐसा संसार होता है, जो सुख से परिपूर्ण होता है। वहाँ ऐसा कोई अध्ाूरापन नहीं होता कि एक बच्चा अकाल मर जाए और बूढ़ा जीता चला जाए।
उदयन- सम्भवतः कला के हाथों सुख से परिपूर्ण संसार रचने की यह आकांक्षा अनेक सभ्यताओं में मिलती है। तेरहवीं शती के कश्मीरी विद्वान आचार्य काव्यशास्त्री मम्मट कहते हैं कि ईश्वर के संसार में सुख और दुःख दोनों होते हैं जबकि साहित्य और कला के संसार में केवल आनन्द होता है।
मुखोपाध्याय- यह विश्वास हर जगह है। भारत में यह भी कहा जाता है कि अपारे काव्यसंसारे कविरेकः प्रजापतिः (इस अपार काव्य-संसार का प्रजापति अकेला कवि ही है)। शेक्सपीयर ने कहा कि इस संसार में कोई अर्थ नहीं है। हमारी जि़न्दगी इस जगत में आवाज़ों और नाराज़गी से भरी हुई है, जिसके कोई मायने नहीं होते। हमारी सारी उपलब्ध्ाियाँ मृत्यु के आने पर ध्ारी की ध्ारी रह जाती हैं। हर जगह पर एक परिपूर्ण (परफेक्ट) जगत बनाने की आकांक्षा है। लेखक-कलाकार की संवेदना न सिर्फ़ उस जगत की अपर्याप्तता पहचानने को प्रेरित करती है, उसमें यह विश्वास भी उत्पन्न करती है कि वह एक परिपूर्ण जगत बना सकता है। इस तरह कला का संसार परिपूर्ण और पर्याप्त संसार होता है, जो संसार के तमाम भौंडेपन से मुक्त रहता है। कलाकार उस जगत को प्रश्नांकित करता है, उससे व्यथित होता है, जो अध्ाूरा है, जो ईश्वर का बनाया हुआ है और जो वैज्ञानिक का संसार भी है क्योंकि वह ईश्वर के बनाये संसार को ही स्वीकार कर उसका अध्ययन करता है। वह संवेदनशील नहीं होता। वह सोचता है संसार जैसा भी है, मुझे उसका अध्ययन करना है। उससे यह उम्मीद नहीं होती कि वह उस संसार में हस्तक्षेप करे। वह प्रकृति का महज साक्षी होता है। लेखक-कलाकार का कर्म सैद्धान्तिक नहीं, व्यवहारिक होता है। दर्शन और विज्ञान जानने की आकांक्षा रखते हैं, कला सृजन करने की, इसीलिए वह व्यवहारिक होती है।
उदयन- आपने कहा कि कला के जन्म को समझने का एक सिद्धान्त यह भी है कि कलाकार अपनी संवेदनशीलता के कारण संसार की अपर्याप्तता को सह नहीं पाता और एक परिपूर्ण और पर्याप्त संसार को बनाने के प्रयास में लग जाता है। इससे अलग दार्शनिक और वैज्ञानिक हैं जिन्हें जैसा भी संसार मिला है, उसे ही समझने की कोशिश करते हैं और वहीं रुक जाते हैं। क्या आप किसी एक उदाहरण से इन तीनों की भिन्न प्रवृत्तियों को रेखांकित करेंगे?
मुखोपाध्याय- अकाल या दुर्घटना से हुई मृत्यु बेहद आम अनुभव है और वह बहुत तकलीफ़देह होती है। यह संसार की अपर्याप्तता (परफेक्ट न होने) का सबसे बड़ा प्रमाण है। (इसी से जुड़ी एक कहानी ‘चित्रदर्शन सूत्र’ में मिलती है) महाभारत के युध्ािष्ठिर-यक्ष संवाद में युध्ािष्ठिर से यह प्रश्न पूछा जाता है कि सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? इसका जवाब यह दिया जाता है कि अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्। शेष स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् (हर दिन इस संसार से लोग यम के घर को चले जाते हैं, (मर जाते हैं) फिर भी बचे हुए यहीं टिके रहने की इच्छा रखते हैं। इससे बड़ा आश्चर्य और क्या है!) मनुष्य की यह नितान्त मूर्खता महाभारत में ध्ाार्मिक दृष्टि का एक ध्ाागा है। इसके प्रति दार्शनिक दृष्टि यह है कि चूँकि मृत्यु होकर रहेगी, उसकी क्या चिन्ता करना? उसे सहज स्वीकारना चाहिए। यही प्रवृत्ति ध्ाार्मिक व्यक्ति की भी होगी। एक बार गौतमी बुद्ध के पास गयीं, अपने एकमात्र बच्चे को लेकर जो मृत था और उनसे कहा कि इसे जीवनदान दो। पहले बुद्ध सहमत हो गये और बोले कि ठीक है, तुम जाओ और राई के दाने ले आओ, मैं उसे जीवित कर दूँगा। मृत बच्चे की माँ उम्मीद से भर गयी। जब वह राई के दाने लाने के लिए जाने लगी, बुद्ध ने उसके सामने एक शर्त रखते हैं कि ये दाने ऐसे घर से लेकर आना, जहाँ ऐसा शोक कभी न हुआ हो। गौतमी ने वापस आकर कहा कि ऐसा कोई घर नहीं है और उसके मृत बेटे को जीवित नहीं किया जा सका। बुद्ध के शिष्यों ने इस पर हर्षित होते हुए कहा, हमारे बुद्ध कैसे महान गुरू हैं। वे नाचने लगे और बच्चे की माँ दुःख में डूबी रह गयी। दार्शनिक ने क्या कहा? मृत्यु! इस अपर्याप्तता, शोक आदि को जीवन में रहने दो। यह ईश्वर के संसार में अपर्याप्तता नहीं दर्शाती बल्कि मनुष्य में अपर्याप्तता दर्शाता है। दार्शनिक कहता है कि तुम्हारे इस दुःख का क्या किया जाये कि तुम्हारा प्रिय पात्र मर गया है, उससे तुम्हारा अलगाव हो गया है पर अगर तुम सोचते हो कि यह अलगाव सिर्फ़ तुम्हारे भीतर शोक उत्पन्न कर रहा है तो ऐसा है नहीं, तुम्हारी अज्ञानता इसे उत्पन्न कर रही है। अगर तुम्हारे शोक का कारण अलगाव होता, दिन बीतने के साथ यह अलगाव बढ़ता और इस तरह शोक भी। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता है, शाोक कम होता जाता है, इसलिए अलगाव इसका कारण नहीं है। यही बात जब कवि से कही गयी, उसने इसका बेहद सुन्दरता से जवाब दिया; अगर मेरा शोक सामान्य है, इससे वह छोटा नहीं हो जाता बल्कि वह बड़ा हो जाता है (‘इन मेमोरियम’, टैनीसन)। सामान्य होने से यह शोक इसलिए कम नहीं होता क्योंकि इसमें भव्यता है कि मैं मनुष्य अपने प्रिय से अलगाव पर पीडि़त हो सकता हूँ। पर जब यह कहा जाता है कि यह सामान्य शोक है, तुम मेरे शोक को उसकी भव्यता से दूर कर देते हो, उसकी अद्वितीयता से, प्रतिष्ठा से। यहाँ रोमाण्टिक कवि का एक खास ढंग है लेकिन पदार्थवादी क्या करे? क्या वहाँ पदार्थवादी के लिए कोई कविता नहीं है, मेरे मन में यह प्रश्न था। इस प्रश्न का मुझे अपनी तरह से ही समाध्ाान खोजना था। दूसरा प्रश्न अभी भी यह था कि कला की उत्प्रेरणा क्या है? उस विषय एक समाध्ाान यह दिया गया था कि कला दरअसल मानवीय सृजन है और उसकी उत्प्रेरणा जीवन की पीड़ा से गमिमामयी रास्ते पलायन करना है।
उदयन- इसमें आप जैसे पदार्थवादी की क्या स्थिति है?
मुखोपाध्याय- हम पदार्थवादी ‘पुच्छविषाणहीनः’ नहीं हैं, हम भी कलाओं के गुण-ग्राहक हैं। कला के परिपूर्ण संसार बनाने के तर्क पर हमारा कहना था कि ऐसा करके आप अपने को छल रहे होते हैं क्योंकि आप न केवल अपर्याप्त, अध्ाूरे संसार का निस्सहाय उपभोक्ता हो, इससे अध्ािक आप खुद में नया परिपूर्ण संसार बनाने की सामथ्र्य अनुभव कर खुद को ध्ाोखा दे रहे हैं। आपमें यह सामथ्र्य नहीं है, आप सिर्फ़ उसकी आकांक्षा करते हैं। पदार्थवादी दृष्टि में यह आकांक्षा कोई सान्त्वना नहीं है। संसार की अपर्याप्तता, अगढ़पन पर सच्ची, निष्ठापूर्ण और वास्तविक प्रतिक्रिया जो आपको कला के सृजन के प्रति उत्प्रेरित करती है, वह आत्म-छलना नहीं हो सकती। आपको यह कह पाना चाहिए कि संसार सचमुच पीड़ादायक है पर तब भी मनुष्य में यह सामथ्र्य है कि वह इसके परे चला जाये। संसार के भद्देपन का कोई मायने नहीं है, अगर वह आपको नष्ट नहीं कर रहा। दुःख, पीड़ा आदि तभी तक महत्व के हैं जब तक आपको प्रभावित नहीं करते। इसके प्रति प्रास्तविक चुनौती तो तब होगी, जब हम उसे पराजित करें। दुःख की अपर्याप्तता, भद्देपन की शक्तियों को पराजित केवल तब किया जा सकता है जब आप उनसे खुद को प्रभावित होने से बचा लें। अगर आप अपने को बदल सकें। इसके दो रास्ते हैंः यह कहा जाता है कि कलाकार संसार को परिवर्तित करता है और दार्शनिक स्वयं को परिवर्तित करता है। अगर दार्शनिक संसार को बदल दे, वह आपको प्रभावित नहीं करेगा। इससे जुड़ी एक सुन्दर कहानी है। सुकरात एथेन्स की सड़कों पर अपने छात्रों के साथ एक बार गोध्ाूलि के समय घूम रहे थे। सड़क के बराबर से दुकानें और उनकी खिड़कियों में सजी वस्तुएँ दिखायी पड़ रही थीं। सुकरात उन सबको ध्यान से देख रहे थे। उनका एक शरारती छात्र था। वह बोला, ‘हमारे गुरु का असली चेहरा यह है, वे ऐसा दिखाते हैं, मानो उन्हें इन वस्तुओं से कोई लगाव नहीं है, पर उन्हें है।’ यह ध्ाारणा मन में रखकर वह सुकरात से बोला कि आप इन सब वस्तुओं को किस तरह देखते हैं? सुकरात ने जवाब दिया, ‘यहाँ इतनी सारी खूबसूरत चीज़ें हैं पर मुझे इनमें से किसी की भी ज़रूरत नहीं है।’ यह है दर्शन। आप हरेक का सौन्दर्य देख-सुन सकते हैं। इसी दृष्टि से मैं यह सिद्धान्त स्वीकार नहीं करता कि जीवन के वास्तविक दुःखों के लिए यह प्रतिक्रिया की जाए कि यह कल्पना की जाए कि एक और संसार बनाया जाए जो पर्याप्त, परिपूर्ण हो। नाट्यशास्त्र में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कला एक तरह का मनोविनोद है लेकिन वह वैसी अशिक्षितों या कम शिक्षितों के लिए है। लेकिन यह बात भी है कि कलात्मक रसास्वादन के समय शोक आदि का उदात्तीकरण हो जाता है। मसलन अगर बेटा अगर माँ से यह कहता है कि तुमने सब्ज़ी में इतना अध्ािक नमक डाल दिया है कि मुझे उसे खाने में मुश्किल हो रही है। माँ जवाब देती है, तुम ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि मैंने देखा था कि तुमने सब्ज़ी लेने से पहले उसमें बहुत सारी शक्कर मिला दी है, इसलिए अब वह अध्ािक नमकीन नहीं है। इसी तरह कलाकार भी दुःख का उदात्तीकरण करता है। लेकिन वह वास्तविक पीड़ा नहीं होती। वे वास्तविक पीड़ा को नकली सुख से विस्थापित करना चाहते हैं। यह अवश्य है कि कुछ देर के लिए खुशी, प्रशान्ति आ जाते हैं पर वे अस्थायी हैं। दार्शनिकों का प्रयास पक्के समाध्ाान लाने का रहा है। कला आपको कल्पना की दुनिया में अस्थायी राहत देती है। इसकी अपनी शक्ति है, पर यह वास्तविक समाध्ाान नहीं है। एक बात अवश्य है कि प्रकृति के अनगढ़पन के कारण कलाकार के सृजन की सम्भावना अवश्य उत्पन्न हो जाती है। इससे कला का एक सिद्धान्त निकलता है कि कला अनुकरणात्मक नहीं है।
उदयन- इस विषय में आपकी क्या समझ बनी है? आपकी तर्क पद्धति देखने लायक है क्योंकि आप पहले किसी एक दृष्टि को उसकी पूरी सम्भावना के साथ प्रस्तुत करते हैं फिर उसे उतने ही तर्कपूर्ण ढंग से काट देते हैं।
मुखोपाध्याय- मैं शुरू में इसी पर विश्वास करता था कि कला अनुकरणात्मक नहीं हो सकती पर बाद में मेरा मत बदल गया। मैं सोचता हूँ कि अनुकरणात्मक कला भी महान हो सकती है। आखिर एक अनुकरणात्मक कला क्या अनुकरण कर सकती है? यह विचार मेरे मन में तब आया जब मैं कुछ बच्चों को चिडि़याघर के बगीचे ले जा रहा था। वहाँ एक तालाब में कुछ पक्षी थे। मैंने एक खास प्रजाति के पक्षी और उसके रंगों को देखा। मैं आज तक इसकी कल्पना नहीं पाया कि ऐसा रंग संयोजन कैसे किया जा सकता है? शाम को सूर्य डूबता है, उसका रंग बदलता है एक चित्रकार पूरा जीवन लगाकर भी वे रंग नहीं लगा सकता। ऐसे समय प्राकृतिक सौन्दर्य इतना जटिल-गहन होता है, प्रांजल भी कि उसके अनुकरण का विचार महान कला को जन्म दे सकता है।
उदयन- पर यह बात भी सच है जो कि आपके कथन से स्पष्ट भी हो रही है कि कला को देखने की कई दृष्टियाँ होती हैं। उसके लिए किसी एक दृष्टि को ही पर्याप्त मानना स्वयं कला की अवमानना जैसा ही होगा।
मुखोपाध्याय- इसे देखने की अलग दृष्टि भी सम्भव है। वास्तविकतावादी कला सम्भव है, अनुकरणात्मक भी। इसके कई उदाहरण दिये जा सकते हैं। जब एक शिल्पी कोई आकृति गढ़ता है और चूँकि वह कलाकार है, सिद्धान्तकार या वैज्ञानिक से अलग वह प्रकृति में हस्तक्षेप करता है, वह उसे बदलता है। प्रकृति संगमरमर का बड़ा-सा पत्थर है। शिल्पी उसे आकृति में परिवर्तित कर देता है। इतना ही है। लेकिन पत्थर काटने वाले मज़दूर और कलाकार में फ़र्क है। मज़दूर सिर्फ़ पत्थर काटता है जबकि कलाकार के मन में सौन्दर्य की एक छवि है, वह उसी वक़्त वास्तविकतावादी भी है क्योंकि जो छवि उसके मन में है, वह उसे अपने बाहर पत्थर में देखता है। इससे जुड़ी एक कहानी हैः एक राजा था। उसके दरबार में कई शिल्पी, कलाकार आदि थे। राजा के नाती ने माँग की कि उसे घोड़ा चाहिएः खिलौने घोड़ा। राजा ने अपने सबसे बेहतर शिल्पी से कहा कि यह लकड़ी का टुकड़ा है, आप इससे एक घोड़े के आकार का घोड़ा बना दें। उसने कहा, ‘यह सम्भव नहीं है।’ राजा के पूछने पर उसने कहा कि इतना बड़ा घोड़ा बनाते हुए कुछ न कुछ विकृति हो ही जायेगी। राजा इस पर चकित हुए कि इतने बड़े लकड़े के टुकड़े से इतना बड़ा शिल्पी घोड़ा नहीं बना सकता। राजा ने फिर अपने दूसरे शिल्पी से कहा। उसने कहा, ‘मैं वह बना दूँगा।’ राजा ने यह बात पहले शिल्पी से कही। उसने जवाब दिया, ‘यह बढि़या है, क्यों न उनसे घोड़े का यह शिल्प राजमहल में रहकर ही बनवाया जाए। हम उन्हें एक कमरे से छुपकर देखेंगे।’ जब दूसरा शिल्पी कुछ दूर तक वह शिल्प बना चुका, वह भ्रमित हो गया। वह कभी लकड़ी के टुकड़े को एकतरफ से देखता, कभी दूसरी तरफ से। उसे डर था कि उसकी विफलता की ख़बर राजा तक न पहुँच जाए। वह चुपचाप राजमहल के बाहर निकला, उसने लकड़ी का एक और टुकड़ा खरीदा और उसका शिल्प के काम का हिस्सा बनाया और उसे अध्ाूरे शिल्प में जोड़ दिया। जब वह यह कर चुका, राजा और वह बेहतर शिल्पी वहाँ आ गये। राजा ने उससे पूछा कि उसने क्या किया है, वह समझ गया कि उसकी चालाकी पकड़ी गयी है। उसने राजा से कहा कि लकड़ी के इस टुकड़े में कहीं न कहीं कोई दोष अवश्य है। इस कहानी में अन्तर्निहित क्या सीख है? दूसरा शिल्पी लकड़ी के टुकड़े का दोष केवल तब समझ सका जब वह शिल्प बनाने लगा जबकि पहले और बेहतर शिल्पी ने लकड़ी के टुकड़े में ही बराबर के आकार के घोड़े के शिल्प के बनने की असम्भवता को देख लिया था। वह लकड़ी को देख ही नहीं रहा था, वह उसमें शिल्प देख रहा था। यही कारण है कि वह श्रेष्ठ कलाकार था। कलाकार वास्तविकतावादी या रियलिस्ट निश्चय ही हो सकते हैं लेकिन तब जब वे सामग्री में ही शिल्प को देख लें। उसके लिए सामग्री में वह शिल्प महज विचार नहीं और न कल्पना है, वह वास्तव में वहाँ है। इसलिए वह लकड़ी के टुकड़े से घोड़ा नहीं बनाता, वह लकड़ी में घोड़ा देखता है और वह सब हिस्सा हटा देता है, जो घोड़ा नहीं है। कला का यह सिद्धान्त मेरी दृष्टि में पूरी तरह वास्तविकतावाद के साथ जाता है।
उदयन- कला के इसी सिद्धान्त की पुष्टि इटली के महान शिल्पी माईकल एंजिलो के विचार से भी होती है। उनसे जब यह पूछा गया कि आप इतना सुन्दर डेविड का शिल्प कैसे बना पाये? उन्होंने जवाब दिया, ‘पत्थर में डेविड उपस्थित था और कुछ अतिरिक्त भी था। मैंने वह अतिरिक्त पत्थर हटा दिया, डेविड दिखायी देने लगा।’
मुखोपाध्याय- यह वास्तविकतावादी कल्पना है, जिसका आशय यह है कि वास्तविकतावादी कला सिद्धान्त में भी कल्पना का पर्याप्त स्थान है। इसलिए यह कहना पड़ेगा कि संसार वैसा अपर्याप्त या ‘इम्परफ़ेक्ट’ नहीं है जैसा पिछले सिद्धान्त में कहा गया है। यह हर तरह के सौन्दर्य से परिपूर्ण है। यह हमारी विफलता है कि हम उसे देख नहीं पाते। जब हम ईश्वर को संसार के अपर्याप्त और अध्ाूरे होने के लिए दोषी ठहराते हैं, हम यह भूल जाते हैं कि अपर्याप्तता हमारे भीतर है।
उदयन- इसका आशय यह है कि आपका सिद्धान्त पिछले सिद्धान्त से ठीक उल्टा है।
मुखोपाध्याय- संसार में हर ओर पर्याप्तता-परिपूर्णता (परफ़ेक्शन) है पर हमें कलाकार की आवश्यकता होती है कि वह उसे हमें दिखा सके, उसे अनुभवगम्य बना सके। कलाकार इस परफे़क्शन को हर जगह देखता है। यही हरेक को दिखाता है। नैयायिक इसी तर्क से कलाकार है, जो हर ओर परफ़ेक्शन देखता है।
उदयन- यहाँ मैं दो बातें याद कराता हूँ। पहली फ़ारसी कवि रूमी की कविता है, जिसमें वे कहते हैं, मनुष्य सौन्दर्य से घिरा हुआ है पर वह सुन्दरता को देखने उद्यान जाता है। साथ ही ‘ध्वन्यालोक’ में आनन्दवधर््ान का भी लगभग यही मत मालूम देता है। वे कहते हैं कि कवि साध्ाारण में असाध्ाारण देख लेता है। यह अलग बात है कि आनन्दवधर््ान कला-दार्शनिक न होकर सौन्दर्यशास्त्री थे।
मुखोपाध्याय- राॅबर्ट ब्राऊनिंग अपनी एक कविता में कहते हैं कि उसने सारी सृष्टि एकबार में बनायी है, मनुष्य उसे अंशों में देखता है। हमें यह संसार परिपूर्ण नहीं लगता, इसके पीछे हमारी दृष्टि की सीमा है। ईश्वर सबसे बड़ा कवि है। उपनिषद् में भी यही लिखा है। अगर हम अपनी सीमा के परे जा सकें, हम संसार में परिपूर्णता देख सकेंगे। अपनी सीमा के परे जाने का एक रास्ता कलाकार होता है इसलिए हर बेहतर वैज्ञानिक और दार्शनिक कलाकार होता है। इसे मैं इस तरह भी कह सकता हूँ कि हर बेहतर कलाकार दार्शनिक होता है।
उदयन- जब आप कोई खूबसूरत चित्रकृति देखते हैं, आप उसके रंग के अन्तर्सम्बन्ध्ा से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। चित्रकृति में किसी भी आकृति को देखने के कहीं पहले हम उसमें उपस्थित वर्ण-सम्बन्ध्ा को देखते हैं। हम सब जीने के उपक्रम में एक तरह के अन्ध्ोपन को ध्ाारण कर लेते हैं। चित्रकृति के ये वर्ण-सम्बन्ध्ा हमारे उस अन्ध्ोपन को कम करके हममें अध्ािक देखने की सामथ्र्य उत्पन्न कर देते हैं। इसी तरह श्रेष्ठ संगीत सुनकर भी हमारा आंशिक बहरापन किसी हद तक दूर होता है और हम अपने में अध्ािक सुनने के योग्य हो जाते हैं। अब तक आपने शिल्प से उदाहरण दिये हैं। आप संगीत के बारे में वास्तविकतावादी दृष्टि से क्या कहेंगे?
मुखोपाध्याय- नाट्यशास्त्र में अध्ािकतर उदाहरण साहित्य से दिये जाते हैं। श्रव्य काव्य से दृश्य काव्य से भी। हम संगीत को देखें। यह स्वरों की श्ाृँखला होती है। यह सही है कि इसमें सृजित स्वरों की श्ाृँखला का निरूपण बेहद कठिन है। एक ओर वायलिन और सारंगी और दूसरी ओर सितार-सरोद हैं। सितार को इतनी गहरायी से बजा सकते हैं कि उसमें वायलिन का असर पैदा हो जाए। विलायत खाँ ऐसा करने में गर्व महसूस करते थे। मैं कर्नाटक और हिन्दुस्तानी संगीत के अन्तर को, बिना विशेषज्ञ हुए, किस तरह समझता हूँ, वह बताता हूँ। इन दोनों ही संगीत में कोई भी फ़र्क कर सकता है। पर प्रश्न उनके आध्ाार के अन्तर में है। हर दो स्वर के बीच श्रुतियाँ होती हैं, यह सभी संगीतज्ञ स्वीकारते हैं। कर्नाटक शैली में मेरी दृष्टि से वे सिर्फ़ स्वर नहीं, श्रुतियों को भी गाते हैं। इस अर्थ में हिन्दुस्तानी संगीत की स्थिति बेहतर है। श्रुतियों का प्रयोजन उन्हें गाना नहीं है। श्रुतियाँ अनुमानित होती हैं, जिनका प्रयोजन स्वरों के बीच के अन्तराल को चिह्नित करना होता है, जिससे स्वर संयोजन बना रहे। हर दो स्वर के बीच एक खास संख्या में श्रुतियाँ बतायी जाती हैं। अगर दो स्वरों के बीच एक खास संख्या में श्रुतियाँ हैं तो श्रुतियों के बीच भी श्रुतियाँ होंगी वरना वे एक-दूसरे से अलगायी कैसे जाएँगी? अगर ऐसा है तो यह सिलसिला रुकेगा नहीं। इस स्थिति में हम कोई भी स्वर या श्रुति श्ाृँखला कैसे बनाये रख सकते हैं क्योंकि हर श्ाृँखला अलग-अलग अपने में विलक्षण चीज़ों के लगभग संयोग से बनी हैं। इसी स्थान पर नवज्योति ने अक्षर (पंक्चुएटर) की अपनी समझ का विस्तार शुरू किया था। यह विचार उन्हें सबसे पहले ज्यामिति से प्राप्त हुआ था पर दरअसल वे इसे योगशास्त्र से लाये थे। योगशास्त्र में यह कहा जाता है कि यौगिक अभ्यास में योगी को एक ऐसे बिन्दु पर ध्यान करना चाहिए जो काल्पनिक हो, अनुमानित हो। इस बिन्दु को न तो नकारा जा सकता है, न उसकी पहचान की जा सकती है। जब भी कोई साँस लेता और फिर छोड़ता है, बल्कि जब उसका साँस लेना साँस छोड़ने में अन्तरित होता है, तब एक समय ऐसा भी होता है, जब न साँस ली जा रही होती है और न छोड़ी जा रही होती है। लेकिन उस बिन्दु को थामा नहीं जा सकता। लेकिन योगी अपने अभ्यास में उसे थाम लेता है। यही अक्षर की भूमिका हैः वह दो संघटनाओं को (हमारे उदाहरण में वे साँस लेना और छोड़ना हैं) को अलगाता अवश्य है पर उन्हें तोड़ता नहीं। इसे अँग्रेज़ी की दार्शनिक भाषा में ‘डिस्टिंगशन विटाउट सेपरेशन’ कहा जाता है। जीवन के प्रवाह को आप अलगा सकते हैं पर तोड़ नहीं सकते, बिना जीवित चीज़ को मारे।
उदयन- क्या संगीत में भी यही होता है?
मुखोपाध्याय- यही होता है। एक स्वर दूसरे स्वर में जब अन्तरित होता है, उनके बीच क्या होता है? सारंगी और वायलिन उसका प्रवाह बताते हैं और अगर आपको स्वर ढूँढना है, आपको ही उनके बीच के अलगाव को आरोपित करना होगा। आप यह केवल तब कर सकते हैं, जब आपका यह आरोपण काल्पनिक हो, अगर वह सचमुच होगा, संगीत खत्म हो जाएगा। हिन्दुस्तानी संगीत में श्रुतियों को गाया नहीं जाता, उनका अनुमान किया जाता है। इसलिए इस संगीत में नैरन्तर्य या प्रवाह बना रहता है। इसीलिए रबीन्द्रनाथ ने गायन-वादन में संगत के लिए सारंगी या इसराज को स्वीकृति देकर हारमोनियम पर बन्दिश लगा दी थी। मुझे समझ में नहीं आता कि इन दिनों कई हिन्दुस्तानी संगीतकार हारमोनियम के साथ क्यों गाना गाते हैं। मैं उस्ताद अमीर खाँ को हारमोनियम के साथ गाते हुए सोच भी नहीं सकता। यहाँ प्रश्न यह है कि क्या वास्तविकतावाद में ऐसे किसी पदार्थ का स्थान है, जो महज काल्पनिक हो (जैसा कि अक्षर है)? उन्हें उसे स्वीकार करना ही होगा। वैशेषिक न्यायशास्त्र में एक प्रयोग है। हम कहते हैं कि अनन्तरूप से सूक्ष्म परमाणु में कोई हिस्से नहीं होते, उन्हें और अध्ािक नहीं तोड़ा जा सकता। यहाँ एक समस्या होती है। अगर परमाणु के कोई हिस्से नहीं होते तो वह दूसरे परमाणु से कैसे जुड़ सकता है? बुद्ध ने यह प्रश्न उठाया था कि अगर परमाणु में कोई हिस्से नहीं होते, वह दूसरे परमाणु से मिलकर एक हो जाएगा। अगर दो परमाणु मिल सकते हैं तो आप उनमें हिस्से मान रहे हैं। इस समस्या का निदान यह है कि परमाणुओं का संयोग सरन्ध्ा्र (पोरस) होता है। वहाँ खाली जगह होती है। वे एक-दूसरे के साथ मिल नहीं रहे, वर्ना वे एक हो जाते। उनके बीच एक अन्तराल होता है लेकिन यह अन्तराल एक ही तरह के द्रव्यों के परमाणुओं के बीच नहीं होता। इस योग में यह रन्ध्ा्र, अक्षर है। यह दो परमाणुओं को अलगाता है पर तोड़ता नहीं।
उदयन- नवज्योति इसी अक्षर को कथ्यहीन रूप कहते थे, ‘फाॅर्म विदाउट कण्टेट’। आप अलंकारशास्त्र पर भी कुछ बता रहे थे। आपकी श्रुति की व्याख्या हमें ध्वनिशास्त्र के बहुत निकट ले आयी है।
मुखोपाध्याय- अलंकारशास्त्र के कुछ समुदाय हैं। अलंकारवाद, ध्वनिवाद, रीतिवाद आदि। मैं नैयायिक हूँ। वास्तविकतावाद और ध्वनिवाद का सम्बन्ध्ा वेदान्त से है, तब भी मैं ध्वनिवादी हूँ।
उदयन- आप इन दोनों के बीच सामंजस्य किस तरह स्थापित करते हैं?
मुखोपाध्याय- मैं अपने से यह प्रश्न पूछता हूँ कि मैं अलंकारवादी क्यों नहीं हूँ। मुझ नैयायिक को अध्ािक वह सुविध्ााजनक होता। मैं इस अर्थ में अलंकारवादी नहीं हूँ कि मैं अलंकृति को अनिवार्य नहीं मानता। अलंकार होते हैं, अलंकृति भी होती ही है। लेकिन वह कला का अपरिहार्य अंग नहीं है। ऐसा न होने के उदाहरण हैं। मैं ‘कुमारसम्भव’ का उदाहरण देता हूँः
एवं वदिनि देवस्य पश्यपीकरथोमुखी लीलाकमलपत्राणि गुणयामास परिध्ाि।
इसमें एक भी अलंकार नहीं है। अपने बचपन से पार्वती शिव की अपने पति की तरह कल्पना करती आयी थीं। लेकिन वे इस आकांक्षा को किसी के भी सामने कह नहीं सकती थीं। वे इस सपने को अपने भीतर संजोये थीं। जब वे छोटी ही थीं और अपने पिता के बगल में बैठी थीं, नारद आये। उन दिनों देवता संकट में थे। प्रश्न यह था कि सिंहासन से उतारे जा चुके, असुरों से पराजित देवताओं को विजयी कैसे बनाया जाए। नारद को उसका एक ही समाध्ाान मालूम था। पार्वती और शिव के विवाह से सन्तान उत्पन्न हो। वह सन्तान कैसे उत्पन्न होगी, ‘कुमार’ कैसे सम्भव होगा, यही ‘कुमार-सम्भव’ है। अब एक तरफ तो पार्वती ऐसे ही विवाह के स्वप्न देख रही थीं और दूसरी ओर देवलोक को इसकी तत्काल आवश्यकता थी। नारद ने आकर इस विवाह का प्रस्ताव पर्वतराज के समक्ष रखा। पार्वती ने यह सुना। उस समय उनकी क्या स्थिति हुईः वे वहाँ से जा भी नहीं सकती थीं और न ही वहाँ रह सकती थीं। वह बेहद हर्ष का विषय था पर साथ ही उनके लिए लज्जाजनक भी था। इसके वर्णन में न तो एक शब्द लज्जा के लिए या उनके असमंजस के लिए ही है। कालिदास ने सिर्फ़ इतना कहा कि वह अपने पिता पर्वतराज के पास बैठी कमल के फूल की पंखुडि़याँ गिनती रहीं। यह अद्भुत कविता है। वे पार्वती के इन अनेक भावों को इंगित करने सिर्फ़ इतना कहते हैं कि वे एक ऐसे काम में डूब गयीं, जो प्रयोजनहीन था। आखिर कोई ऐसे अवसर पर कमल की पंखुडि़याँ क्योंकर गिनेगा। लेकिन इतना-सा कहकर उन्होंने काव्यात्मक प्रभाव उत्पन्न कर दिया। इसका आशय यह है कि कालिदास के इस कथन ‘वे कमल की पंखुडि़याँ गिन रही थीं’ में वाच्यार्थ है। यहाँ जो अतिरिक्त अर्थ है, वही व्यंजना है। वही ध्वनि है। न कहकर भी कह देना ही ध्वनि है। वह शब्द से नहीं, उसके अभाव से व्यक्त होती है। ध्वनिवाद कश्मीर में विकसित हुआ। तब से ही कला के इस कश्मीरी सिद्धान्त ने कला के क्षेत्र पर कब्ज़ा-सा कर लिया है। भारत के अन्य इलाकों में भी कला के सिद्धान्त विकसित हुए होंगे। उन्हें बाद की पीढि़यों ने भुला दिया। इन पर और विचार किया जाना चाहिए।
उदयन- कालिदास ने यह दर्शा दिया कि बिना तकनीकी या अलंकारों के भी काव्य सम्भव है। इसका प्रमाण बहुत-सी आधुनिक कविता भी है। उसमें आवश्यक नहीं कि अलंकार हों पर वह तब भी कई कारणों से काव्य है।
मुखोपाध्याय- यह कहा गया है कि ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’ (रसयुक्त वाक्य ही काव्य है)। यह नहीं कहा गया कि ‘अलंकारविशिष्टवाक्यं काव्यम्’। इसका अर्थ यह है कि निश्चय ही आप अलंकार से रस का सम्प्रेषण कर सकते हैं पर साथ ही व्यंजना से भी आप यह कर सकते हैं। महत्वपूर्ण बात है रस। अभी हाल में भारतीय कविता के सन्दर्भ में एक नया संवेदनशील तथ्य इंगित किया गया, जिसके कारण सैद्धान्तिकों के संसार में कुछ विवाद उत्पन्न हो गया। मैं यहाँ श्रव्य काव्य के सन्दर्भ में बात कर रहा हूँ। यह कहा गया कि संस्कृत भाषा जिसे संस्कृत के कवि इस्तेमाल करते हैं, वह कविता के लिए बेहद कमज़ोर भाषा है। इस भाषा में लिखने के कारण कवि को बन्दिशें कहीं अध्ािक होती हैं, स्वातन्त्र्य कहीं कम। बर्नार्ड शाॅ अँग्रेज़ी भाषा के निन्दक थे क्योंकि वे मानते थे कि वह वाणिज्य की भाषा है, कला की नहीं। उन्होंने अपनी वसीयत में कुछ पैसा इसलिए भी छोड़ा था कि उसे अँग्रेज़ी भाषा को कविता के योग्य बनाने में उपयोग किया जा सके। जब मैं स्नातक कर रहा था या उसके कुछ पहले बुद्धदेव बसु ने ‘मेघदूत’ के बांग्ला अनुवाद के साथ प्रकाशित अपनी भूमिका में लिखा कि मेघदूत अपनी भाषा के कारण, कवि के किसी दोष के कारण नहीं, एक तरह से खराब काव्य है। मैं तब छोटा था, यह पढ़कर मैंने सोचा कि बुद्धदेव बसु को उसके परिवार और घर के साथ जला देना चाहिए। मैंने यह अपने कुछ दोस्तों से भी कहा। मैं इस बात पर बहुत क्षुब्ध्ा था। दो साल बाद मैंने वह अनुवाद फिर पढ़ा। इस बार लगा बुद्धदेव के तर्क में कुछ बात अवश्य है। ऐसा नहीं है कि वे ही बिलकुल ग़लत कह रहे हों। उनकी बात में कुछ दम है, जिसे मानना होगा। लेकिन तब तक मुझे सबकुछ स्पष्ट नहीं था। स्नातकोत्तर कक्षा में मैंने वह अनुवाद और भूमिका फिर पढ़े और सोचा कि बुद्धदेव ग़लत थे। फिर ऐसा हुआ कि मैं अपने गुरू महान नैयायिक प्रोफ़ेसर गोपीनाथ भट्टाचार्य (वे स्वयं महान कवि भी थे) से कुछ बातचीत कर रहा था। मैंने पूछा, ‘आप कालिदास को रबीन्द्रनाथ की तुलना में कहाँ रखेंगे।’ वे बोले, ‘रबीन्द्रनाथ कहीं बेहतर हैं।’
उदयन- इस वाक्य को सुनकर मुझे एकसाथ गर्व और चोट लग रही है। गर्व इसलिए कि रबीन्द्रनाथ अपेक्षाकृत निकट के कवि हैं, चोट इसलिए क्योंकि कालिदास को किसी भी आधुनिक कवि से कमतर देख पाने की सामथ्र्य कम-से-कम मुझमें बहुत कम ही है।
मुखोपाध्याय- प्रोफ़ेसर गोपीनाथ ने रबीन्द्रनाथ की कविताओं का संस्कृत में बहुत खूबसूरत अनुवाद किया था। उन्होंने रबीन्द्रनाथ और कालिदास की तुलना के विषय में कुछ कहा, जो मुझे स्वीकार्य नहीं था। यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि संस्कृत भाषा में प्रवाह नहीं है। अगर आप कोई काव्य लें, वह मेघदूत हो या कुमारसम्भव और अगर आप ईमानदार हैं, आप पाएँगे कि उसमें एक के बाद दूसरे अलग-अलग तत्व आते हैं। वे काव्य श्लोकों का समुच्चय भर हैं। उनमें निरन्तर प्रवाह नहीं है। हर विचार एक श्लोक के भीतर ही पूरा हो जाता है। हर श्लोक की अपनी पहचान होती है। कोई भी विचार दूसरे श्लोक में अन्तरित नहीं होता। मुझे भी कुछ हद तक यह लगता है। यह एक बात है, दूसरी बात यह है कि अगर हम अपेक्षाकृत बड़ा श्लोक भी लें, दो पंक्तियों के स्थान पर चार, वहाँ भी यही है-
कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाध्ािकारात्प्रमत्तः
शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः।
यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु
स्निग्ध्ाच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु।।
(अपने काम में असावध्ाान यक्ष को यक्षपति ने वर्षभर तक स्त्री-विरह का शाप दिया, जिससे उसकी महिमा ढल गयी। उसने रामगिरि के आश्रमों में बस्ती बनायी, जहाँ घने छायादार वृक्ष थे और सीता के स्नानों से पवित्र हुए जल वाले कुण्ड थे)
इसके अलावा बात यह है कि हमारी संस्कृति के पौर-पौर में तर्कमूलकता है। मैंने पहले ही दर्शा दिया है कि यह ध्ार्म विषयक चीज़ों में भी है। यह इतनी अध्ािक है कि कई बार इससे कोफ़्त होती है। मैं मेघदूत को उसका चैथा या पाँचवाँ श्लोक छोड़े बिना पढ़ ही नहीं सकता। मुझे बहुत खुशी होगी, बहुत अध्ािक, अगर कोई मुझसे यह कह दे कि उस श्लोक को कालिदास ने नहीं, किसी और ने लिखा था। ऐसा किसी ने नहीं कहा। वे कहते हैं-
ध्ाूमज्योतिः सलिलमरुतां संनिपातः क्व मेघः
संदेशार्थाः क्व पटुकरणैः प्राणिभिः प्रापणीयाः
इत्यौत्सुक्यादपरिगणयन्गुह्यकस्तं ययाचे
कामात्र्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेषु।।
(धुआँ, पानी, ध्ाूप और हवा का संयोग कहाँ तो बादल, कहाँ सन्देश की वे बातें जिन्हें जागृत इन्द्रियों वाले प्राणी पहुँचाते हैं। पर उत्कण्ठावश इससे बेख़बर यक्ष ने मेघ से (अपने सन्देश ले जाने की) याचना कर ही डाली। क्योंकि काम से विह्नल हुए लोग चेतन-अचेतन में फ़र्क करने में अक्षम हो जाते हैं।
रबीन्द्रनाथ का काव्यविवेक बहुत तीक्ष्ण था। उन्होंने कहा कि कालिदास को अपने पाठकों पर भरोसा होना चाहिए था। उनके पास भी कुछ कल्पनाराशि है। वे इस सबकी कल्पना कर सकते थे जबकि कालिदास सफ़ाई देने में जुट गये। जब आपने मेघ को दूत बनाया, हमें पता है कि वह वास्तव में दूत नहीं है तब आप सफ़ाई क्यूँ दे रहे हैं कि चूँकि वह कामात्र्त था इसलिए वह चेतन और अचेतन में फ़र्क नहीं कर पा रहा था। इसके सिवा मुझे मेघदूत में कोई मुश्किल जान नहीं पड़ती। इसीलिए मुझे लगा कि बुद्धदेव का तर्क पूरी तरह सही नहीं है। संस्कृत भाषा में अन्तर्निहित बन्ध्ान है, यह बात ठीक है, उसमें प्रवाह नहीं है। वह सितार बजाने जैसी है जिसमें तार को बीच-बीच में छेड़ा जाता है। वह वायलिन की तरह नहीं है। बुद्धदेव ने ज़ोर देकर कहा कि मेघदूत में बहुत सुन्दर छवियाँ हैं, पर उसमें भाव या रस नहीं है। कालिदास सुन्दर दृश्य बनाने की ओर प्रवृत्त होते हैं कि उनका काव्य दृश्यात्मक हो जाए पर वे भाव को भूल जाते हैं। बुद्धदेव ने अपने तर्क का समर्थन अनेक उदाहरणों से किया है, मेरे पास अपनी बात के लिए एक श्लोक है पर वह कुमारसम्भव से है। कुमारसम्भव में पार्वती तपस्या करती हैं और अन्ततः शिव उनके निकट आते हैं पर वे उनकी परीक्षा लेते हैं। वे ब्राह्मण का रूप लेकर पार्वती की तपस्थली पर आते हैं और महादेव के लिए दुर्वचन बोलने लगते हैं। शुरू में पार्वती नाराज़ होती हैं। वे कहती हैं, ‘आप जिस शिव के बारे में बोल रहे हैं, उन्हें मैं नहीं जानती।’ ब्राह्मणरूप ध्ाारी शिव जवाब देते हैं, ‘वही जो आपके प्रिय हैं।’ पार्वती कहती हैं, ‘मैं उन शिव के लिए तपस्या कर रही हूँ जो मेरे भाव में उपस्थित हैं।’ कुमारसम्भव के ये संवाद बुद्धदेव बसु के इस तर्क का स्पष्ट प्रतिवाद है कि संस्कृत साहित्य में भाव नहीं है। लेकिन यह भी सही है कि अनेक स्थानों पर सुन्दर दृश्यों ने संस्कृत साहित्य में मुख्य स्थान लिया हुआ है। वहाँ एक तरह से खूबसूरत चित्रों की नुमाईश है लेकिन वहाँ ध्ाारा प्रवाह संगीत नहीं है।
उदयन- क्या आप माॅडर्न ट्रेडीशनल विचारकों का कोई और भी लक्षण बताना चाहेंगे?
मुखोपाध्याय- भारतीय संस्कृति चूँकि सम्पूर्ण संस्कृति है इसलिए उसमें बावजूद अन्यान्य अनुशासनों की उपस्थिति के, जो आपस में अलग हैं, पर उनमें कोई असामंजस्य नहीं है। हमने कभी ज्ञान को टुकड़ा-टुकड़ा नहीं किया। इसीलिए हम ज्ञान के सारे अनुशासनों के लिए एक ही स्रोत को उत्तरदायी मानते हैं। पहला वेद और फिर महादेव। उपनिषद् में लिखा है कि सारा ज्ञान महादेव से आता है। कहा भी गया है, अगर आपको स्वास्थ्य पाना है, आदित्य की आराध्ाना करो। अगर ध्ान की प्रत्याशा है, अग्नि की उपासना करो। अगर मोक्ष अभीष्ट है, जनार्दन-नारायण की शरण में जाओ और ज्ञान के लिए महादेव की। इस तरह इस संस्कृति में जटिल-एकत्व है। लेकिन यहाँ समझने की बात है कि ज्ञान के टुकड़े करना और उसका विभाजन एक चीज़ नहीं है। आधुनिक पश्चिमी संस्कृति में ज्ञान के टुकड़े-टुकड़े हो गये हैं। यह टुकड़े करने की प्रक्रिया इतनी अध्ािक हो गयी कि सन् 1959 में सी.पी. स्नो को एक किताब लिखना पड़ीः दो संस्कृतियाँ। मानवशास्त्र और विज्ञान के लोगों का एक-दूसरे से इतना अलगाव हो गया था मानो वे दो स्वतन्त्र संस्कृतियाँ हों। हम इस किस्म की विशेषज्ञता के विरुद्ध थे। हम भाग्यवान् थे कि नवज्योति सिंह ने कोई विशेषज्ञता हासिल नहीं की, वे सभी ज्ञान परम्पराओं के सहज नागरिक थे।
उदयन- जब हम यह कहते हैं कि भारत की सभी ज्ञान परम्पराओं का स्रोत वेद में है या शिव में तब क्या हम यह बात एक रूपक की तरह कह रहे होते हैं, जिससे यह इंगित हो जाता हो कि हमारी संस्कृति सम्पूर्ण संस्कृति है।
मुखोपाध्याय- मैं भी यही सोचता हूँ। यहाँ यह कहने की चेष्टा है कि चूँकि वे एक ही स्रोत से बाहर आयीं हैं, ये सभी ज्ञान परम्पराएँ अलग-अलग ‘उप-प्रयोजन’ के लिए अवश्य हैं लेकिन उनके बीच कोई अन्तर्विरोध्ा नहीं है। पश्चिम में ज्ञान परम्पराओं के बीच का विभाजन स्वार्थ की विविध्ाता के कारण हुआ, हमारे यहाँ ज्ञान का यह विभाजन मानवीय जीवन का कोई विशिष्ट लक्ष्य पूरा करने को किया जाता है। मनुष्य के अनेक तरह के सरोकार होते हैं, अनेक तरह की रुचियाँ, अनेक तरह की आवश्यकताएँ। हर ज्ञान का प्रयोजन इन्हे ही पूरा करने होता है। इसलिए सभी ज्ञान परम्पराओं में एक मूल्य सामान्य हैः ज्ञान केवल ज्ञान के लिए नहीं है। ज्ञान मनुष्य के कल्याण, समृद्धि और विस्तार के लिए है। वह व्यक्तिगत समृद्धि के लिए भी है, सामाजिक समृद्धि के लिए भी। पश्चिम में यह विभाजन अनुशासनों के अपने स्वार्थ के लिए हुआ। इसके फलस्वरूप अन्ततः क्या हुआ? कहाँ तो विशेषज्ञता के पीछे यह उद्देश्य था कि उसके फलस्वरूप ज्ञान का विकास होगा जबकि वास्तव में वहाँ ज्ञान का पराभव हो गया। यह प्रश्न महत्त्व का है कि ऐसा क्यूँ हुआ होगा? जब आप किसी क्षेत्र में विशेषज्ञता हासिल करके आगे बढ़ते हैं, आपके शोध्ा और समझ का दायरा सँकरा होता चला जाता है। शायद इसीलिए किसी ने व्यंग्य में कहा था कि विशेषज्ञ लोग बहुत कम चीज़ों के बारे में बहुत ज़्यादा जानते हैं। दूसरा नुकसान यह होता है कि ज्ञान की जितनी अध्ािक विशेषज्ञता विकसित होती जाती है, उसे जानने वालों की संख्या कम से कमतर होती जाती है। विज्ञान के कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं, जिन्हें जानने वालों की संख्या तीन-चार लोगों से अध्ािक नहीं है। उदाहरण के लिए ‘स्ट्रिंग सिद्धान्त’ को पूरी गहरायी से जानने वाले बहुत कम लोग हैं। पूरे भारत में ऐसे दो-तीन से अध्ािक लोग नहीं होंगे। इसीलिए समकालीन आधुनिक समाज में सभी अनुशासनों के लोगों में आपस में एक-दूसरे का समर्थन करने की आस्तित्वगत आवश्यकता आन पड़ी है। इसके फलस्वरूप वे एक-दूसरे को प्रश्नांकित करने के अपने मुख्य ध्ार्म से विरत हो जाते हैं। जब तक आलोचना या प्रश्नांकन नहीं होता, ज्ञान का क्षेत्र विस्तृत नहीं हो पाता। हमने सोचा कि इस दुष्चक्र से बाहर आने का क्या मार्ग हो सकता है? इसके लिए हमने खुद के लिए गैर-पेशेवर विद्वान की भूमिका स्वीकार की लेकिन एक जानकार गैर-पेशेवर की, ज्ञान सम्पन्न शौकिया की। हमारा यह सोचना था कि कोई भी ज्ञान परम्परा जानकार गैर-पेशेवर विद्वानों से घिरे हुए बिना विकसित नहीं हो सकती। खगोल-भौतिकशास्त्र का उदाहरण लें, हाॅकिन्स, पेनरोज़ आदि इसके विशेषज्ञ हैं। लेकिन जब तक उनके चारों ओर जानकार गैर-पेशेवर विद्वानों का समुदाय नहीं होगा जो अपने-अपने क्षेत्रों के विशेषज्ञ होंगे, और अपने विषयों के अलावा दूसरे विषयों में भी सक्रिय रुचि लेंगे, वह विज्ञान विकसित नहीं हो पाएगी। मैं नैयायिक हूँ पर मुझे अलंकारशास्त्र, वेदान्त और विज्ञान आदि में गहरी रुचि है। मैं उनका विशेषज्ञ नहीं हूँ पर चूँकि मैं जानकार गैर-पेशेवर हूँ, मैं मुक्त मन से इन सब पर प्रश्न उठा सकता हूँ, जिसकी हर अध्येता को अपने विषय के विकास के लिए आवश्यकता होती है। जानकार शौकियों को यह स्वातन्त्र्य मिला हुआ है। मैं अपने विषय का विशेषज्ञ होते हुए भी उसमें बँध्ाा हुआ नहीं हूँ। मुझे अन्य अनुशासनों में जीवन्त रुचि है। मेरा उनसे संवाद का सम्बन्ध्ा है और मैं इस तरह अन्य विषयों के विकास में अपनी सराहना और आलोचना से योगदान कर सकता हूँ। मेरी सराहना और आलोचना उस विषय के विशेषज्ञ की तरह अस्तित्वगत अनिवार्यता से बँध्ाी नहीं होती। इसीलिए हम अध्येताओं को ज़रूरत से ज़्यादा विशेषज्ञ नहीं होना चाहिए।