आख़िरी दावत ख़ालिद जावेद अनुवाद: डाॅ. रिज़वानुल हक़
05-Sep-2018 02:19 PM 6222

मैं पहाड़ियों से लाशें उतार लाया हूँ,
तुम्हें बता सकता हूँ कि दुनिया रहम से खाली है,
और सुनो, अगर खुदा ही रहम से खाली हो,
दुनिया में भी रहम नहीं हो सकता।
यहूदा अमीखाई
सबसे पहले मुझे ये इजाज़त दें कि मैं आपको बता सकूँ कि इस कहानी के तमाम किरदार और घटनाएँ काल्पनिक हैं और अगर दुनिया में मौजूद किसी किरदार या होने वाली किसी घटना से उनकी किसी भी किस्म की समानता साबित होती है तो उसके लिए कम-से-कम मैं ज़िम्मेदार नहीं हूँ।
मगर मुझे एक मुखौटा चाहिए। सच बोलने के लिए।
और इस तरह ये कहानी मेरे या आपके नैतिक जीवन में दाखिल होती है। लेकिन मैं आपसे ये कह दूँ कि कहानी की सच्चाई किसी अदालत में नहीं, जबान की अन्दरूनी दुनिया में अपनी शर्तों पर ही हलफ़ उठा सकती है। ये एक किस्म का बड़बड़ाना है। मद्धम और धीमे लहजे में बड़बड़ाना। दूसरी बात ये कि मेरे अन्दर इतना नैतिक साहस कभी नहीं रहा कि मैं किसी सूरते हाल या शख्स पर व्यंग कर सकूँ। इसलिए अगर कहानी को पढ़तें वक्त कहीं-कहीं व्यंग का गुमान हो, आप उसे व्यंग न समझ कर व्यंग का भ्रम ही समझें।
मुझे इस सूरतेहाल से बाहर आये एक अरसा गुज़र चुका है। अब ये उस सूरतेहाल की याद भी नहीं है बल्कि उस याद की याद है। बारिश में भीगते एक फ़िल्मी पोस्टर की तरह। इस तरह कि अब उस सूरतेहाल के नैन नक्श और भंगिमाएँ बहुत कोशिश करने पर ही नज़र आ सकती हैं बल्कि यूँ कहना चाहिए कि उनके बारे में सिर्फ़ अंदाज़ा लगाया जा सकता है। हालाँकि उस सूरतेहाल के बाद जो कुछ हुआ उसकी एक-एक तफ़सील मेरी आँखों के सामने है। एक जमे हुए मंज़र की तरह। मुर्दा और खामोश मंज़र। मगर इसमें मेरी दिलचस्पी नहीं है। मैं तो दरअस्ल जिस सूरतेहाल के बारे में बात करना चाहता हूँ, उसमें सच कहूँ तो कोई वाकेया सिरे से था ही नहीं। वहाँ सिर्फ़ एक एहसास था जो मेरी पीठ पर गंदी और लिजलिजी छिपकली की तरह चिमटा हुआ है। एक वहम या अपशगुन की तरह और जिसे झटक देने के लिए ही मैंने ये कहानी कहने का इरादा कर लिया है। मगर जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ, इंसान को सच बोलने के लिए एक मुखौटा चाहिए। ख़ासतौर से मेरे लिए सच्चाई बयान करना इसलिए और मुश्किल-सा मालूम हो रहा है कि अगर वो हालात एकदम आमतौर के न थे तो फिर उनकी सरहदें मज़ाकियेपन से खुद को कतई तौर पर महफूज़ कर लेने में नाकाम रही थीं। ऐसी सूरत में मज़ाकियापन और उसकी बेरहमीं आपस में इस कद्र गड्डम और घुल-मिल जाती हैं कि दोनों को अलग-अलग करके देख सकना बेहद जान खपाने और पसीना बहाने वाला काम है। और इस कोशिश में मैं अपने होशो-हवास पर ज़्यादा भरोसा नहीं कर सकता और अपने व्यवहार के सिलसिले में तो बजा तौर पर असन्तुलित ठहराया जा सकता हूँ, इस कमज़ोर-से कारण के बाद भी, कि अब हमारा हीरो और मसख़रा एक ही शख़्सियत में गुम हो चुका है और उसकी कोई अपनी समाजी पहचान बाकी नहीं रही है।
अब देखिये मैं अपनी तरफ से हरगिज़ ठोस अहसासों को अमूर्त रूप देने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ, ये ज़रूर महसूस कर रहा हूँ कि किसी अनदेखी ताकत के तहत ये अहसासात अमूर्त बनते जा रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है, मैं भी नहीं जानता।
मगर अब इसके सिवा दूसरा कोई रास्ता भी तो नहीं है। मुझे अपनी याददाश्त का पीछा करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। मैं एक बेचेहरा भूत की तरह अपनी याददाश्त को फिर से पकड़ने के लिए भटकता फिर रहा हूँ। इसके लिए जगह-जगह मुझे बीचा का चेहरा लगाना पड़ सकता है। आप जानते हैं ना कि बेचेहरगी हर भूत का मुकद्दर नहीं। मैं नहीं जानता कि मेरी ये भिनभिनी सी आवाज़ कब तक ज़िन्दगी से अपने हिस्से की रोशनी माँगती रहेगी।
‘आप के पास माचिस होगीं ?’
यकीनन अगर ज़िन्दगी ने पीछे मुड़कर देखा तो पत्थर की हो जायेगी।
तो ये दरअस्ल अपने हाफिजे़ के पीछे मेरी ही दौड़ है। एक जंग की तरह ये एक दूसरा रास्ता है। अपनी निजी और उदास बदशगुनियों से भरा हुआ रास्ता। जहाँ तक मुझे याद पड़ता है वह शाम इन्तेहाई ठण्डी मगर जाड़ों की आम शामों की तरह अँधोरी-सी या अपने बिल में दुबकी हुई-सी नहीं थी।
‘आज भी चाँदनी रात होगी।’ मैंने दिल में ख्याल किया था। अँधोरी चक्करदार गलियों में से गुज़रता हुआ जब मैं उनके घर के दरवाजे़ के तकरीबन सामने पहुँचने ही वाला था तो अचानक बिजली आ गयी। कतार से बने तकरीबन एक जैसे घरों की दीवारों के निचले हिस्से पर बने हुए संडास रोशन हो गये। गली को बीच से काटती हुई नालियों में काला पानी चमकने लगा।
टीन के किवाड़ मेरी दस्तक से गै़र मामूली तौर पर बजने लगे। खिड़की का एक पट थोड़ा-सा खुला। काले मफ़लर में लिपटा उनका चेहरा थोड़ा-सा बाहर आया, फिर पट ज़ोरदार आवाज़ के साथ बन्द हो गया।
अन्दर हल्की-सी हलचल महसूस हुई जैसे कोई मेज़ या कुर्सी फर्श पर इधर से उधर खींची गयी हो। टीन के किवाड़ खुल गये।
‘आओ-आओ, कहाँ रह गये थे ?’ काले मफ़लर में लिपटे उनके ग़मज़दा और गम्भीर चेहरे पर दो आँखें अफ़सोस से भरी थीं।
मैंने अपना हाथ उनके हाथ से मिलाने के लिए आगे बढ़ाया। मगर तब ही मैंने गौर किया कि उनके दोनों हाथ किसी चीज़ में सने थे। जिनको वह जानबूझ कर कपड़ों से अलग किए हुए थे। मैंने अपना हाथ पतलून की जे़ब में डाल लिया और उनके बैठकनुमा कमरे में दाखिल हो गया। वहाँ तख्त पर खाना लगा हुआ था। हम दोनों के दोस्त (जो ग़ज़ल के बहुत उम्दा शाइर हैं और अब आगे कहानी में मैं उन्हें ग़ज़ल गो कहकर मुख़ातिब करूँगा) चमड़े की काली जैकेट पहने खाना खा रहे थे। ग़ज़ल गो का चेहरा हमेशा रूखा और उदास रहता है। सर्दियों में उनके चेहरे की ये ख़ासियत और बढ़ जाती है।
मफ़लर में लिपटे अपने चेहरे को एक बार आस्तीन से पोंछते हुए घर के मालिक ने कहा: ‘बस जल्दी से आ जाओ।’
‘क्या बात है ? आप लोगों ने इतनी जल्दी शुरू कर दिया ?’ मैंने घड़ी को नाखुशगवारी से देखते हुए कहा।
‘अरे भाई... हम लोगों ने अभी-अभी खाना शुरू किया है। काफ़ी देर से तुम्हारा इन्तज़ार कर रहे थे। बल्कि ये तो आधो घण्टे पहले तुम्हें घर से लेने भी गये थे, मगर तुम घर पर थे ही नहीं।’
ग़ज़ल के शाइर ने बड़ी सज्जनता से सफ़ाई दी। ‘मगर जनाब अभी तो आठ बजे हैं। नौ बजे से पहले ही रात के खाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। मुझे तो अभी-भी बिल्कुल भूख नहीं है।’ मैं पशो-पेश में पड़ते हुए बोला।
‘नहीं, तुम समझे नहीं। बस आओ बैठ जाओ। ये लो रकाबी।’
घर के मालिक (ये नज़्म के बहुत उम्दा शाइर हैं) ने अफ़सोस के अन्दाज़ में कहा। वह जब मफ़लर बाँधते हैं तो उनका चेहरा हद से ज़्यादा ग़मग़ीन नज़र आने लगता है। मगर आज ग़मग़ीनी के साथ-साथ उसपर रहस्य के आसार भी नुमायाँ थे।
मैं आज रात यहाँ एक दावत पर बुलाया गया था। ये दावत इस सिलसिले में दी गयी थी कि उनकी नज़्म एक बड़ी साहित्यिक पत्रिका में छपी थी। नज़्म में मुल्क के प्रतिकूल हालात को बड़े नाटकीय अंदाज़ में पेश किया गया था और मेरे ख़्याल में ये नज़्म बयानिया शाइरी की एक अच्छी मिसाल थी। इस दावत के सिलसिले में दो बातें बताना ज़रूरी है।
पहली तो ये कि ये दावत हमारे साझा दोस्त (जो ग़ज़ल के बहुत उम्दा शाइर हैं) के बेहद इसरार पर आयोजित की गयी थी और दूसरी ये कि ये दावत एक बहुत ही पारम्परिक किस्म के खाने पर आधारित थी। इस पारम्परिक किस्म के खाने की लोकप्रियता सर्दियों में बढ़ जाती है। इस खाने के बहुत-से बल्कि सभी हिस्से बड़ी-बड़ी हड्डियों पर आधारित हैं। मैं एक बात ज़ोर देकर कहूँगा कि इस खाने के दौरान आप इन बड़ी-बड़ी हड्डियों को हरगिज़ नज़र अन्दाज़ नहीं कर सकते, हरगिज़ नहीं।
इतनी जल्दी खाना खाने का मेरा कोई इरादा नहीं था। मैं कई लोगों से मिलकर और वहाँ बाक़ायदा नाश्ता वगै़रा करके यहाँ आया था। मेरा पेट भरा हुआ था। मैं तो सिर्फ़ इसलिए अपनी समझ से यहाँ जल्दी पहुँच गया था कि खाने से पहले उनकी नज़्मों और उनकी ग़ज़लों और अपने अफ़सानों पर (हालाँकि अफ़सानों पर आखिर में) पर बातचीत करने का मौका मिल जायेगा। ये तो है कि बातचीत हमेशा की तरह कुछ घिसी-पिटी और सुनी-सुनायी बातों पर ही आधारित रहती है। फिर भी बिल्कुल बातचीत न होने से बेहतर एक घिसी-पिटी बातचीत ही है। जी हाँ और आप ये बात फख्र के साथ कह सकते हैं बल्कि बहुत मशहूर वचन के बराबर में शान से लिख सकते हैं जो कुछ उस तरह है या इससे मिलता जुलता है। फिलहाल मैं इसे सही तौर पर याद नहीं कर पा रहा हूँ। ‘ये बेहतर है कि तुम एक अतृप्त और ग़मज़दा सुकरात बन जाओ, बजाय इसके कि तुम एक तृप्त और नशे में डूबे हुए सुअर बन जाओ।’
हम सुअर नहीं बनना चाहते हैं। जी हाँ हमारी सारी दिमाग़ी कोशिश दरअस्ल इस बिन्दु में छिपी है कि हम एक अतृप्त और ग़मज़दा सुअर बनना नहीं चाहते।
मगर आगे चलकर आपको इस अफ़सोसनाक बात के बारे में पता चलेगा कि हमें बातचीत करने का मौका ही नहीं मिल सका। मगर ये उस बातचीत का जोश ही था जो मैं बहुत तेज़-तेज़ चलता हुआ इन अंधोरी चक्करदार गलियों से गुज़रता हुआ यहाँ तक पहुँचा था।
जब मैं तेज़-तेज़ चलता हूँ तो मेरे कन्धो आप ही आप झुक जाते हैं।
मगर आप खुद समझ सकते हैं कि मुझे कितना बुरा लगा होगा कि जब मैं उनके बैठकनुमा कमरे में दाखिल हुआ तो घर के मालिक और ग़ज़ल के शाइर दोनों बाकायदा खाना खा रहे थे बल्कि खाना खत्म कर चुके थे।
मैं कुछ कशमकश में पड़ता हुआ तख़्त पर बैठ गया।
‘जूते उतारों और सम्भल कर बैठ जाओ। ये लो रकाबी।’ घर के मालिक ने अपनाइयत भरे लहज़े में कहा।
मैंने जब जूते उतारे तो एक नागवार बू कमरे में फैल गयी। सर्दियों में मेरे पैर बहुत पसीजते हैं।
‘दरअसल बात ये है कि...’ वह बहुत राज़दाराना लहजे में मेरे कान के पास अपना मुँह लाये ‘...कि उनकी हालत आज शाम पाँच बजे से बहुत खराब है.... तुम मेरा मतलब समझ रहे हो ना? किसी भी वक़्त कुछ भी हो सकता है।’
‘अच्छा...?’ मैं बेवकूफ़ी भरे अन्दाज़ में बोला हालाँकि उनके लिए या उस बात के लिए ये मेरा सबसे ज़्यादा गम्भीर अन्दाज़ था।
‘हाँ’ उन्होंने सर हिलाया और मफ़लर में लिपटे उनके चेहरे की ग़मग़ीनी कुछ और बढ़ गयी।
‘इसीलिए हमने देर नहीं की।’ ग़ज़ल गो ने खाना ख़त्म करके पानी का कटोरा होठों से लगा लिया। कटोरा ताँबे का था। वो हमेशा ताँबे के कटोरे में ही पानी पीते हैं। इससे उनके खून का दबाव ठीक-ठाक रहता है।
‘बस शुरू करो। लो ठीक से सालन निकालो। अब देर मत करो। वो कभी-भी... मेरा मतलब है कि.... मर सकती हैं।’ घर के मालिक ने सफ़ेद तामचीनी का खूबसूरत डोंगा मेरी तरफ़ बढ़ाया। डोंगा छोटी-बड़ी और अलग-अलग शक्लों वाली हड्डियों से लबालब भरा था।
‘वह कभी-भी मर सकती हैं।’ मैंने एक बार अपने दिल में दोहराया और फिर खाने पर टूट पड़ा।
अब कमरे में तकरीबन सन्नाटा था। सिर्फ़ दीवार पर लगी घड़ी टिक-टिक कर रही थी। वो दोनों तख्त से उतर कर सामने पड़े सोफ़े पर बैठ गये थे और उन्होंने अपने-अपने सिगरेट सुलगा लिये थे। मैं तख्त पर पालती मारे बैठा था। मेरी तंग पतलून कमर और पेट पर फँस रही थी। (इधर कुछ माह से मेरी तोंद फिर निकल आयी है।) मैं बेतहाशा खाये जा रहा था और ये यकीनन एक हैरतअंगेज़ बात थी। एक समझ ना आने वाली बात। उनकी जुबान से ये जुमला सुनते ही कि वह कभी भी मर सकती हैं, मेरे अन्दर न जाने कहाँ की और कब की सोयी हुई भूूख जाग उठी थी। मैं दुनिया की शुरूआत से भूखा था। हालाँकि भूख इंसान के मन में छिपे एक जानवर की ज़रूरत बल्कि इच्छा थी। मगर शायद इस वक़्त मेरे कन्धों पर एक सामूहिक भूख सवार थी। मैं अपने लिए नहीं अंजानी भूख के फन्दे में फँसी इंसानी नस्ल से पहले पैदा होने वाली तमाम छिपकलियों के लिए खा रहा था। मैं विकास की यात्रा में अज़नबी रास्ते पर एक खुद से उगने वाले जंगली पौधो की तरह उगे हुए इंसानी जबड़े का कर्ज़ अदा कर रहा था। वह एक अकेला जबड़ा जिसने चबाना सीखा था। काया-कल्प होती हुई, घटती और लिथड़ती हुई ज़िन्दगी का उतारा गया एक-एक छिलका मेरे ऊपर भूत की तरह सवार था।
लेकिन ये सब तो मैं अब सोच और बता सकता हूँ। उस वक़्त तो मैं सिर्फ़ खा रहा था। पागलों की तरह। बगै़र किसी जज़्बे के। न सुख, न दुःख, न घबराहट, न परेशानी। ये भी हो सकता है कि मैं एक प्रकार से भूत के साये से घिरा हूँ।
‘इससे पहले कि वह मर जाए, तुम खाना खा लो।’
मेरे जिस्म में अपने नंगेपन को समेटती हुई बेहया ज़िन्दगी लालच भरे लहजे में बोली। मैं खाये जाता था। मेरे मुँह से हड्डियाँ चूसते वक़्त सिसकारियाँ निकलतीं, थूक के झाग उड़ते, शोरबे में उँगलियों के पोर और नाखून सब डूबे जाते थे।
कपड़ों पर सालन गिरने लगा। सामने रखी रोटियाँ आहिस्ता-आहिस्ता कम होने लगीं। तामचीनी का डोंगा खाली होने लगा। तख़्त पर बिछी सफ़ेद चादर गन्दी होने लगी।
दरअसल मुझे अपने मुँह और हलक में चलते निवालों और किसी की दम तोड़ती हुई साँसों के दरम्यान एक ख़ास रफ़्तार को बरकरार रखना था।
मैं एक दौड़ लगा रहा था। एक लम्बी निजी मगर बेहद खुदगर्ज़ दौड़। मैं एक सजे-सजाये बिजली की रफ़्तार से दौड़ते घोड़े पर शाहाना अंदाज़ से सवार था। ज़िन्दा मैं मौत से आगे निकल जाना चाहता था। क्या मैं अपनी मौत से मुकाबला कर रहा था ? शायद हाँ, शायद नहीं। क्योंकि इस मुक़ाबले में जीत का अंदेशा सिर्फ़ इस तरह पैदा हो सकता था कि मैं अपने दाँतों, जबड़ों, जु़बान और राल में बदल जाऊँ।
नब्बे साल की एक बूढ़ी औरत की पल-पल डूबती साँसें, बन्द आँखें और पोपला मुँह मेरे खतरनाक दुश्मन थे। मुझे उनसे मुक़ाबला करना था। मैं यकीनन हार भी सकता था।
मगर देखिए अब मुझे ये एहसास होने लगा है कि ये तो कुछ वजह या सफ़ाई पेश करने जैसी बात होती जा रही है। नहीं, मैं आपसे कसम खाकर कहता हूँ कि उस वक़्त मैं सिर्फ़ खा रहा था और ये भी कसम खाकर कहता हूँ कि मैं लाख कोशिश करने पर भी आपको ये नहीं बता सकता कि मैं उस वक़्त खाने के अलावा और क्या कर रहा था। इसलिए मेरी नीयत पर आप शक हरगिज़ न करें वरना इस कहानी में आपकी दिलचस्पी अगर ख़त्म नहीं तो कम ज़रूर हो जाएगी।
अब अगर बेहद सादगी से कहूँ तो बस इतना है कि मैं ये चाहता था कि वो मेरे खाना खा लेने से पहले ही कहीं मर न जाएँ।
असल बात तो इस काम में छिपी है। हालाँकि मैं इसे इतनी आसानी और बेहयायी से उजागर नहीं करना चाहता। अभी तो मैं एक अहसास को दूसरे अहसास की ज़मीन पर बिसात की तरह बिछा रहा हूँ। ये शतरंज की एक मक्कारी भरी चाल है। किसी हद तक कमीनापन लिए हुए जिसमें मेरे दाएँ हाथ की लिखती हुई उँगलियों की अकड़न का अहसास भी शामिल है।
और आखिरकार मैं कामयाब हुआ। मैंने खाना खत्म कर लिया और वो नहीं मरीं। मैंने सुर्ख होकर माथे से पसीना पोछा (मसालेदार खाना की वज़ह से जाड़ों में भी मुझे पसीना आ जाता है। हालाँकि हद से ज़्यादा वहशियों की तरह खाना खाने की वज़ह से मेरे सर के बालों के बीच भी पसीना आ गया था और बाल गीले हो गये थे।)
लेकिन ये इस अहसास का सिर्फ़ एक पहलू या आम-सा बयान है। अगर गहरायी से सोचूँ और गौर करूँ तो पाता हूँ कि भूख के आगे मैं एक बदकार औरत की तरह बिछ गया था। मेरी आँखों बल्कि नाक तक से पानी निकल रहा था।
‘मिर्च कुछ खुल गयी है।’ घर के मालिक ने कुछ अफ़सोस के साथ कहा।
‘कुछ शोरबा भी पतला रहा।’ ग़ज़ल के शाइर ने सिगरेट का लम्बा-सा कश खींचा और उनके होंठ और ज़्यादा खुश्क नज़र आने लगे।
‘नहीं... ऐसी बात नहीं... बहुत अच्छा माल था। तरी के ऊपर का तेल भी खूब दिया। मेरी उँगलियाँ आपस में चिपक रही है।’ मैंने घर के मालिक को अपनी उँगलियाँ दिखाते हुए दिल खोल कर खाने की तारीफ़ की। फिर तख़्त पर बिछे दस्तरख़्वान पर पड़ी हड्डियों को देखने लगा। मेरा हमेशा से ये यकीन रहा है कि खाना या नाश्ता वगैरह जब दस्तरख़्वान या मेज़ पर लगाया जाता है तो बड़ा आकर्षक महसूस होता है। और ये भी है कि उसे आकर्षक बनाने की पूरी कोशिश भी की जाती है। लेकिन अगर आप उसे आकर्षक बनाने की परवाह न भी करें तो भी पकाये जाने वाले बरतनों में से निकला हुआ खाना अपने सामान्य रूप में एक किस्म का आकर्षण रखता है। मगर होता ये है कि लोग खाना खा चुकने या नाश्ता कर लेने के बाद इस बात की आमतौर पर ज़्यादा परवाह नहीं करते। मिसाल के तौर पर प्लेट में छोड़े गये एक-दो बिस्किट उदासी से इधर-उधर पड़े रहते हैं और हड्डियाँ, उनकी तो बात ही मत पूछिये। वह तो बहुत ही भद्देपन और बदसलीकेपन के साथ प्लेट में डाल दी जाती हैं। मेरा ख़्याल है कि छोटी-बड़ी हड्डियों को अगर ज़रा हिसाब-किताब से जमा करके लगा दिया जाए तो खाना खाने के बाद के हैवानी सन्तोष के बाद काफ़ी हद तक सौन्दर्यात्मक या आत्मिक सन्तोष भी हो जाए। कुछ-कुछ इस तरह जैसे जिस्मानी मिलाप के बाद औरत और मर्द करवट बदलकर खर्राटे न लेने लगें और थोड़े से रोमानी होकर (दिखावे में ही सही) एक-दूसरे की बाहों में सिमट कर आँखों में आँखें डाल दें।
यही सबब था कि खाना खाने के बाद दस्तरख़्वान और रकाबी में पड़ी ये हड्डियाँ अपने आर्टिस्टिक ढंग से न होने की वजह से उदास-सी नज़र आयी। मगर अब सोचता हूँ तो साफ़ महसूस होता है कि चूसी गई हड्डियों का यह ढेर शायद अपनी उदासी की वज़ह से कुछ दिलचस्प भी नज़र आता था। या मुमकिन है कि ऐसा सिर्फ़ हड्डियों को खराब ढंग से रखने या भद्देपन की वजह से हो। वैसे मैं एक अरसे से इस उधोड़बुन में फँसा हूँ कि उदासी और भद्देपन के बीच जो एक समझ में न आने वाला रिश्ता है उसे कोई नाम दे दूँ।
माचिस की एक तीली निकाल कर मैं दाँत कुरेदने लगा और थोड़ी-सी देर के लिए खाली दिमाग हो गया। जब आप माचिस की तीली से दाँत कुरेदते हैं तो एक सूफ़ी की तरह बनियाज़ हो जाते हैं।
‘सुना है आजकल यूरोप में शुतुरमुर्ग, कंगारू और जेब्रा का गोश्त खाया जा रहा है।’ ग़ज़ल गो ने बुलन्द आवाज़ में कहा।
‘ऊँ... वह, वहाँ बकरों वगैरह में मुँह और पैरों की बीमारी फैल गयी है।’ घर के मालिक (जो नज़्म के बहुत अच्छे शाइर हैं) की तकरीबन कँपकँपाती आवाज़ इस जानकारी की तमाम फालतू मात्रा को कमरे के एक कोने से दूसरे कोने तक रगड़ने लगी।
‘कंगारू का गोश्त कैसा होता होगा ?’... मैंने माचिस की तीली फेंकते हुए कहा।
‘मेरा ख़्याल है कि कुछ खट्टा-खट्टा-सा होगा।’ नज़्म के शाइर ने आत्मविश्वास भरे लहजे़ में जवाब दिया।
‘ज़रूरी नहीं। मगर रेशे बहुत होते होंगे।’ ग़ज़ल के शाइर ने अपनी काली चमड़े की जैकेट पर हाथ फेरा।
रेशों वाला गोश्त मुझसे खाया नहीं जाता। इसकी वजह मेरी दाढ़ में लगा कीड़ा है। कीड़े ने वहाँ न जाने क्या-क्या चाट डाला है। वहाँ जो चीज़ भी फँस जाए, सड़ने लगती है। इसके बाद गाल का निचला हिस्सा सूजने लगता है। हलक़ की छिपी हुई गिल्टियाँ बाहर उभर आती हैं। दाँत में टीस उठती है। मगर इस बीमारी की वजह से मुझे अपनी दाढ़ को हमेशा जुबान से कुरेदते और ठेलते रहने की आदत पड़ गयी है। और जब मैं ऐसा करता हूँ तो नर्म, मुलायम, अजनबी गोश्त का निहाल कर देने वाला ज़ायका मिलता है। जिनकी दाढ़े नहीं गलतीं या गिरती वो इस रहस्यमय अन्धो ज़ायके को कभी महसूस नहीं कर सकते।
अभी इंसान के अन्दर कितना गोश्त, कितनी हड्डियाँ और कितनी झिल्लियाँ ऐसी है कि ‘जु़बान’ की पहुँच वहाँ कभी मुमकिन नहीं होगी।
मैंने चाहा कि तार्किक सकारात्मक सोच वालों के भाषायी विचारों को बुलन्द आवाज़ में बयान करने लगूँ। मगर इसके बजाय मैंने हिलती दाढ़ के पीछे छिपे गोश्त के उस ज़ायके को फ़तह करने के लिए गुरूर किया।
‘अच्छा साहब ये लोग सब कुछ खा लेते हैं। बस बातें ही बातें हैं।’ घर के मालिक ने अपना काला मफ़लर कुछ और कायदे से लपेटा।
‘कौन लोग ?’ ग़ज़ल के शाइर ने पूछा। फिर फौरन ही समझ गये। आँखें चमक उठी। ‘अच्छा.... ये लोग। हाँ ये तो है।’
‘मगर ये लोग ऐसे नहीं खा सकते।’ मैंने बिखरी हुई हड्डियों की तरफ इशारा किया।
‘बनते हैं। साले सुअर खा रहे हैं। ये नहीं खा सकते!’ नज़्म के शाइर ने अपने चेहरे पर बड़ा तंज़ पैदा कर लिया जो काले मफ़लर की वजह से कुछ और गहरा महसूस हुआ।
ग़ज़ल के शाइर ने खँखारा। जब वो इस तरह खँखारते हैं तो हमारे इल्म में ज़रूर इज़ाफा हो जाता है। उन्होंने कहना शुरू किया:
‘इन लोगों का सांस्कृतिक रूप से स्वाद का कभी पूरी तरह से विकास ही नहीं हो सका। मेरा मतलब है, यूँ तो ये लोग जाने क्या अला-बला खाते रहे। घास-फूस से लेकर तरह-तरह के जानवर, कीड़े-मकोड़े, मगर वह जो एक स्तर होता है स्वाद का.... बुलन्द, आला और नफ़ीस, उसके लिए उनकी जुबान में कभी स्वादेन्द्रिय ही पनप न सकीं। ये सब उनकी तहज़ीब के विकास के अचानक ठहर जाने के कारण हुआ। और साहब खाने का कोई सम्बन्ध आत्मा से नहीं होता। आप किसी भी किस्म का गोश्त खाकर किसी भी किस्म के ऋषि-मुनि हो सकते हैं।’
मुझे माफ़ कीजिए अगर मैं इस दृश्य और बातचीत को हू-ब-हू आप तक नहीं पहुँचा पा रहा हूँ। शायद ये सब उन्होंने बिल्कुल इसी तरह नहीं कहा था। आप ये भी सोच रहे होंगे कि शायद मैं उस मौत को भूल गया हूँ जिसे मैंने खाना-खाकर जीत लिया था। मगर नहीं। जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ कि फिलहाल मैं एक अहसास को दूसरे अहसास पर बिसात की तरह बिछा रहा हूँ और मेरा ये अय्याराना खेल अभी जारी है। मगर आप मुझ से कसम ले लीजिए कि मैं कहीं भी तमसील (जिसमें अमूर्तकथा का सजीव पात्र के रूप में वर्णन हो) या प्रतीक का इस्तेमाल करूँ। और रूपक, इससे तो मैं बहुत पहले तौबा कर चुका हूँ कि वह तो कहानी के खूबसूरत बाग में घुस आया हुआ जंगली सुअर है। (इस कमबख़्त जानवर का नाम न जाने क्यों आज बार-बार दिमाग में चला आ रहा है।)
‘आप लोगों ने शायद कभी इस बात पर ग़ौर नहीं किया, घर के मालिक ने दूसरा सिगरेट सुलगाते हुए कहा। इस वक़्त उनका चेहरा बहुत गम्भीर था जिस पर किसी बेहद खुफिया मगर अहमतरीन पहलू को उजागर कर देने का जुनून भी नज़र आ रहा था।
‘...कि ये लोग दरअस्ल डरते हैं। इन हड्डियों को बर्दाश्त नहीं कर पाते। इन्हें वह देख ही नहीं सकते। इस क़िस्म के खाने देखकर हमारी कौम और मज़हब की शान-ओ-शौकत अचानक उनके सामने आकर खड़ी हो जाती है और ये लोग बेपनाह एहसासे कमतरी में मुब्तला होकर हमारी इबादतगाहों पर हमला करके उन्हें ढहाने लगते हैं।’
कमरे में खामोशी छा गयी, मगर मेरे दिमाग़ में एक बात खटकी।
‘ये हड्डियों से डरने की बात मेरी समझ में नहीं आयी। ये लोग तो छड़ों और मटकों में अपने मुर्दों की हड्डियाँ लिए-लिए फिरते हैं।’
‘बात हड्डियों की नहीं है। खानों की है। इसीलिए तो वह और डर जाते हैं। अस्ल में हम लोगों के खाने बड़े रोबदार किस्म के हैं। हड्डियों का क्या है, वह तो चूस कर फेंक दी जाने वाली चीजे़ं हैं।’ ग़ज़लगो ने सिगरेट का धुआँ मेरे मुँह पर फेंका और इस कोशिश में उनके होंठ और सूख गये। मगर फ़ौरन ही उन्होंने दोबारा कहना शुरू कर दिया।
‘अब इस बाक्ये को ही ले लीजिए। याद नहीं आ रहा है कि किसने अपनी किताब में लिखा है कि एक अँग्रेज़ पुरानी दिल्ली की एक गली में बैठने वाले नानबाई की दुकान से बिरयानी खाकर अपनी बीवी-बच्चों के साथ मुसलमान हो गया था। उसका कहना था कि जिस क़ौम के खानों का स्तर ऐसा ऊँचा और कुलीन हो, उस क़ौम का दीन और मज़हब कैसा बुलन्द और ऊँचा होगा।’
‘बस यही तो मैं कहना चाहता था।’ घर के मालिक जोश में आ गये।
‘गोश्त-वोश्त खाने से कुछ नहीं होता। साले सुअर खा रहे हैं। बात इस बहादुरी और ताक़त और हौसले की है। हमने जिस तरह दुनिया की पशुवत ताक़तों को हराकर विकास के सफ़र को आगे बढ़ाया और अपनी आत्मीय और रचनात्मक सलाहियतों को आगे बढ़ाया, इसमें कहीं इस भरपूर यक़ीन का सहयोग भी शामिल था कि हमारा खाना एक पाकीज़ा और जुर्रतमन्द शिकार, जिसमें बड़े-बड़े जानवरों की हड्डियाँ, यूँ ही चूसकर फेंक दी जाती हैं। यही देख और समझ कर ही तो उन पर एहसासे-कमतरी छायी हैं।’ नज़्म के शाइर (जो घर के मालिक भी हैं) ने जल्दी-जल्दी अपनी बात ख़त्म की और फिर बेपरवाह से नज़र आने लगे।
ज़रा मुलाहिज़ा फरमाएँ कि मैं किस कद्र मुश्किल में गिरफ़्तार हो गया हूँ क्योंकि मैं कहानी बयान कर रहा हूँ इसलिए मुझे इसमें दिलचस्पी की चीज़ें भी बरक़रार रखना चाहिए। अब इस घिसी-पिटी बात को कैसे दुहराऊँ कि कहानी और ज़िन्दगी दोनों एक शै का नाम है। ज़िन्दगी कभी तो दिलचस्प होती है और कभी बड़ी ठस। ये कहानी भी जगह-जगह तो ज़रूर दिलचस्प है मगर जगह-जगह बड़ी ठस। इसलिए दिल से तो मेरी नेक नियत और कोशिश ये है कि मैं कहानी को ज़िन्दगी की तरह आगे बढ़ाता चलूँ। जब कहानी के हिस्से की फ़ितरी दिलचस्पी आएगी तो आप उससे ज़रूर फ़ायदा उठाएँगे। मगर शायद मैं ऐसा नहीं कर पा रहा हूँ और नकली दिलचस्पी पैदा करने के सिलसिले में बेवजह गै़र ज़रूरी चीजे़ं कहानी में ठूँसता जा रहा हूँ। मगर ये भी है कि ये गै़र ज़रूरी चीजे़ं अस्तित्व की अर्थहीनता का रूपक बन सकती हैं। यूँ तो मैं रूपक से तौबा कर चुका हूँ, मगर अगर मेरे किसी शब्द या वाक्य ने खुद ही रूपक बनने की ठान ली हो फिर समझ लीजिए कि कहानी के खूबसूरत बाग़ में जंगली सुअर घुस आया है (अब याद नहीं कि सुअर का लफ़्ज मैंने पाँचवीं बार इस्तेमाल किया या छठी बार)।
‘लाइये साहब मुझे भी एक सिगरेट दें।’ मैंने हाथ बढ़ाया। घर के मालिक ने जो नज़्म के बहुत उम्दा शाइर हैं, मेरी तरफ़ सिगरेट का पैकेट बढ़ा दिया।
जब मैं सिगरेट सुलगाने के लिए झुकता हूँ तो हमेशा कनखियों से इधर-उधर ज़रूर झांका करता हूँ। अज़ब बेतुकी आदत पड़ गयी है। मैंने कनखियों से देखा।
ग़ज़ल के शाइर ने अपनी काले चमड़े की जैकेट को सहलाते हुए शरारती अन्दाज़ में नज़्म के शाइर की तरफ देखा उनके सुते हुए गाल फैलने लगे और फिर वह काफ़ी बदली हुई-सी आवाज़ में बोले।
‘उनकी औरतें.... उनकी औरतें दिल ओ जान से चाहती हैं कि एक बार कोई हममें से एक दिन उनको....’
उन्होंने अपनी पतलून की जेब में हाथ डालकर खुजाया, फिर शायद हँसते-हँसते रह गये।
‘औरत ताक़तवर मर्द के जूतों को बोसा देती है। हमारे खाने बेहद मर्दानगी देने वाले होते हैं।’ नज़्म के शाइर (घर के मालिक) ने फैसला सादिर कर दिया।
इसके बाद उन दोनों में औरत और उसकी कामवासना विषय पर एक ‘मर्दाना’ मकालमा शुरू हो गया जिसमें उन दोनों ने अपनी ऊँची नैतिकता का प्रदर्शन करते हुए मुझे हिस्सा लेने का मौक़ा इसलिए नहीं दिया कि एक तो मैं उम्र में उनसे बहुत छोटा था और दूसरे अभी मेरी शादी नहीं हुई थी।
यहाँ ये एतराफ़ कर लेने में कोई सन्देह नहीं कि मैं एक बेहद बुज़दिल आदमी हूँ और बुज़दिली अपनी कमीनगी को हमेशा पीठ पर लादे-लादे फिरती है। ऐसी कमीनगी कभी अपना अस्तित्व ख़त्म नहीं करती जो बुज़दिली के गर्भ से पैदा होती है।
यह मेरी कमीनगी ही थी जो मैं वहाँ शर्मा-शर्मा कर झेंपती हुई मुस्कराहट के साथ अपने जूतों को देखने लगा जो तख़्त की नीचे थके-थके से पड़े थे। हालाँकि मैं अगर अपनी पर उतर आता तो इस विषय पर ग़ज़ल के शाइर और नज़्म के शाइर दोनों की जुबान बन्द कर सकता था। मगर मैंने रियाकारी से काम लिया। इस क़िस्म की मक्कारियों में हमेशा से मेरा कोई जवाब नहीं है। मैं न सिर्फ़ बेहद ध्यान और दिलचस्पी के साथ उनकी चटखारेदार गुफ़्तगू को सुन रहा था बल्कि इस विषय और बातचीत को एक उच्च स्तर प्रदान करने के लिए बेहद सम्मान के साथ झेंपा-झेंपा सा मुस्करा रहा था और अपने जूते देखे जा रहा था।
‘पता है दुबली-पतली हड्डियों का ढाँचा जैसी औरत अगर एक बार पूरी तरह से जोश में आ जाए तो बड़े से बड़े मर्द को भी कुचल कर रख देती है। उसकी हड्डियों में तो अस्ल जान छिपी रहती है।’ ग़ज़ल के शाइर ने दबी हुई आवाज़ में सूचना दी और उनका चेहरा पहले से भी ज़्यादा सुता हुआ और बेरौनक़ नज़र आने लगा। मगर मेरा दिमाग़ अचानक भटकने लगा। मुझे बेएख्तियार ‘वह’ याद आ गयी।
वह अब इस दुनिया में नहीं है मगर मुझे न जाने क्यों उसकी ये बुरी आदत लज्ज़त के साथ याद आ रही है कि वह मुझे बोसा देने के लिए अपने होंठों को हमेशा खुला रखती थी। आहिस्ता से उसकी उंगली छू लेने पर भी उसके होंठ अच्छे खासे खुल जाया करते थे और आँखें बोझिल होकर बन्द होने लगती थीं (यह एक बुरी आदत थी न)।
ये सारी गुफ़्तगू ठोस चीज़ों के बारे में नहीं थी। ठोस चीजे़ं वही होती हैं जो कि वह हैं। उनके तमाम इमकानात लगभग सब पर ही उजागर होते हैं। वह अपने भेद अपने ‘होने’ में खोल देती हैं। मगर जब वह बेजा तौर पर इंसानी दुनिया और इंसानों के बदलते हुए आपसी रिश्तों की दुनिया में दख़लअन्दाज़ी करती हैं तो उसका नतीजा वही बिखरी हुई सूरते हाल होता है जिसका सबसे प्रमुख घटक मज़ाक है तो क्या हमारी तमाम बातें बेमतलब थीं ? मुझे एक पल को शदीद तौर पर महसूस हुआ कि हम इसके अलावा और कुछ नहीं कर सकते थे। तरह-तरह के खानों के बारे में गुफ़्तगू करना उनके लिए एक पनाहगाह बन गयी थी।
अब अपनी-अपनी शाइरी के बारे में बातचीत करना इसलिए मुमकिन नहीं रहा था कि यहाँ से गुफ़्तगू की गै़रमहफूज़ सरहदें शुरू होती थीं। एहसासे जुर्म को कहीं दबा ले जाना ज़रूरी था। हाँ एक हल्का ही सही, मगर एहसासे जुर्म वहाँ मौजूद था। सिर्फ़ इसलिए कि खाना खाया गया था। उस वक़्त भी जब मौत उन पर मक्खी की तरह भिनभिना रही थी। यह जल्द ही घटित होने वाली एक तैशुदा मौत थीं जो बहुत ही साफ़ और बिना उलझे अन्दाज़ में हमारे दरम्यिान में आ और जा रही थी। मगर हमने उसे झुठलाया था।
खाना खाकर हमने अपनी आँतों, पेटों और जबड़ों की सलामती का जश्न मनाया था।
लेकिन मैं कुबूल करता हूँ कि उन लम्हों में मुझे किसी एहसासे-जुर्म का सीधा-सीधा पता नहीं चल सका (यह तमाम चर्चा तो मैं अब कर रहा हूँ) घर के मालिक के चेहरे पर कभी ज़रूर परेशानी या ग़मगीनी की-सी कैफ़ियत नज़र आ जाती थी मगर उसकी वजह शायद उनके घर में सरसराती हुई वह मौत नहीं बल्कि एक क़िस्म की उलझन और झुँझलाहट रही हो कि आज दावत के मौके पर ही रंग में भंग पड़ गया था या तमाम मज़ा किरकिरा हो गया था। खैर मैं आपको ये भी बता दूँ कि मैं बहुत ज़हीन आदमी हूँ।
और ये सतरें न तो दीवानी हैं न ही इन्हें मैंने हक्का-बक्का रह जाने की हालत में लिखी हैं। ये तमाम तहरीर बहरहाल बिलकुल ही नाकाबिले एतबार नहीं है और यहाँ से मेरी बुद्धिमत्ता का शरारत भरा पहलू शुरू होता है। अपनी और उनकी बेहूदा गुफ़्तगू के बारे में बयान करते वक़्त मैंने काफ़ी छिछोरेपन से काम लिया है मगर लुत्फ़ की बात ये है कि ये छिछोरापन भी फ़िजूल है। सरसरी नज़र से देखें तो बिलकुल इस दुनिया की तरह ही फ़िजूल है। मगर इसकी तरह अन्दर से बेहद चालाकी और फ़नकारी से रचा गया संसार। अपने अन्दर के उलझे हुए धागों में कोई बहुत ही चालाक खेल या व्याकरण ये एक न समझ में आने वाली गणित है। मगर इस गणित के सारे अंक और गिनतियाँ सुर्ख बल्ब की तरह चैकन्ने हैं। वह जलते हैं इन्सान की बुनियादी खुदगर्ज़ नैतिकता की सरहदों पर।
मगर इस तहरीर की नैतिकता की बुनियादी शर्तें ही बेईमानी, बुज़दिली और सतही हैं, और जिन्हें मैं शरारती बुद्धिमत्ता के बलबूते अभी तक पूरा करना रहा हूँ। वरना सच्ची बात तो यह है कि ये तमाम सतहें इसी हास्यप्रद सूरतेहाल से आयी हैं। अपनी याददाश्त को बेशर्मी के साथ झुठलाती हुईं। और अब बेशर्मी का क्या है। अब तक मैंने क्या-क्या न बेशर्मी के साथ झुठला रखा था।
पोपला मुँह, सर के बाल इस दर्जा सफे़द कि उन्हें देखकर दहशत होती थी। उन बालों की सफे़दी की भयानक छूत उनके सारे जिस्म पर पड़ती थी। जिस्म जिसमें कुछ था ही नहीं। खासतौर से हड्डियाँ तो बिलकुल ही नहीं। मुँह से लेकर पाँव की एड़ियों तक बेपनाह झुर्रियों वाली बेहद सूखी और बदरंग खाल शायद हवा जैसी किसी चीज़ पर झूलती रहती थीं। हड्डियाँ उनके अस्तित्व में भेष बदलकर कहीं छिप गयी थीं इस तरह कि उनका एहसास मुश्किल से ही हो सकता था। हालाँकि वह यूँ तो बिलकुल सामने ही थीं। खौफ़नाक पिंजर की सूरत बिलकुल सामने दस्तरख़्वान पर पड़ी बेहंगम छोटी बड़ी हड्डियों पर एक पतंगा डोल रहा था।
जब मैंने उन्हें हफ़्ते भर पहले देखा था तब वह ऐसी ही थीं। मैले बांदों की एक बोसीदा-सी चारपाई थी। जिसके दरम्यिान इतना गड्ढा हो गया था कि वहाँ के बाँध तक़रीबन ज़मीन को छूते रहते थे। चारपाई पर एक पुरानी और गन्दी दरी बिछी हुई थी। उस पर वह लेटी थीं। या शायद पड़ी हुई थीं। उनकी नाक में लगी हुई नलकी साँस के ज़रिए आहिस्ता-आहिस्ता हिलती थी। उनके पैरों के ऊपर चादर थी जिस पर एक बड़ा-सा धब्बा था। धब्बे पर मक्खियाँ चिपटी हुई थीं। उनका बायाँ हाथ बार-बार हवा में उठता था फिर बेजान होकर पलंग की पट्टी से नीचे झूल जाता था।
चारपाई घर के छोटे से आँगन में पड़ी थी, जाड़ों की सुनहरी धूप ऊपर से गुज़र रही थी। धूप से धुँधले होते हुए नीले आसमान पर एक बेरी आहिस्ता-आहिस्ता तैर रही थी। चारपाई के नीचे एलूमीनियम की सिपिलची उल्टी पड़ी थी।
उनकी आँखें अधखुली थीं। उनमें कुछ भी न था। न दुःख, न तकलीफ़, न ज़ज़्बा, न एहसास, ये आँखें कहीं भी नहीं देख रही थीं और उस बेपनाह झुर्रियों वाले ख़ामोश चेहरे पर बिलकुल नक़ली तौर पर लगायी गयी महसूस होती थीं।
वह घर के मालिक की सास थीं। न जाने पहले कहाँ रहती थीं। अब अचानक वक़्त के एक झोंके ने उन्हें यहाँ पहुँचा दिया था। नज़्म के शाइर और ग़ज़ल के शाइर दोनों तरह-तरह के खानों के बारे में चैंका देने वाली बातें करते रहे। उन बातों के आम होने पर इतिहास को नये सिरे लिखने की ज़रूरत पेश आ सकती थी।
मैं तो यह नहीं कहुँगा कि इस वक़्त मैं उनकी गुफ़्तगू में हिस्सा नहीं ले रहा था, मगर बात ये थी कि वह कर्ज़ उतर जाने के बाद मैं कुछ सुस्ती सी महसूस कर रहा था और मेरी आँखें बार-बार बन्द होने लगती थीं। और यक़ीनन वह कर्ज़ था। वह उस सामूहिक भूख का कर्ज़ था जो कुछ देर पहले मैंने अदा किया था।
वह आकर चली गयी थी। जिस्म के एक-एक रोएँ के छेद पर उसके जाते हुए क़दमों के निशान बन गये थे। भूख के खूँखार पाँव, उसकी खौफ़नाक एड़ियाँ और और वहशी पंजे मेरे ऊँघते हुए और रेत की तरह संवेदनहीन होते हुए ज़िस्म पर एक सीधी लकीर की तरह चलते चले गये थे।
अचानक बिजली फिर चली गयी। घर के मालिक ने उठकर मिट्टी के तेल का लैम्प रौशन कर दिया, इस नयी और अलग रोशनी में कमरे की दीवारें काबिले रहम हद तक सपाट नज़र आयीं। कमरे में मौजूद कुर्सी, मेज़ और तख़्त, सबके कोने बहुत उभरे-उभरे से महसूस होने लगे। मैंने यूँ ही बेख़्याली में बाईं तरफ़ की दीवार की तरफ़ देखा। लैम्प की उदास थरथराती हुई रोशनी में वहाँ दस्तरख़्वान पर रखी हड्डियों की परछाइयाँ डोल रही थीं। बेतुकी मगर अपने अस्ल जिस्म से बड़ी होती हुई परछाइयाँ।
दरअस्ल इस इलाके में बिजली बहुत जाती है, यह इलाका इस बड़े शहर की अतिरिक्त आँत की तरह है। एक अन्धी सुरंग जिसमें ज़्यादातर घर एक ही कतार में बने हुए हैं, जिनकी दीवारों की निचली सतह पर संडास हैं। इन संडासों की ज्यामिति कुछ इस तरह की है कि मेहतर को ज़मीन पर लेटकर उनकी सफ़ाई करनी पड़ती है। कभी-कभी आवारा कुत्ते या सुअर भी यहाँ मुँह मारने आ जाते हैं। पतली-सी गली के दोनों तरफ़ दरम्यिान में सड़क को काटती हुई गन्दी सड़ती नालियाँ हैं जिनमें हमेशा काला पानी चमका करता है। यह पानी बहता नहीं है, बस एक ही जगह काँपता हिलता नज़र आता है। गली में सर के ऊपर आसमान नहीं बल्कि बिजली के झूलते हुए तारों के जाल नज़र आते हैं।
इस गली में दूर तक इस्तेमालशुदा प्लास्टिक की गन्दी रंगीन थैलियाँ और केले के छिलके बिखरे हुए हैं।
वह ख़ुद भी एक सूखे हुए केले के छिलके में बदल चुकी हैं। यह मौत से पहले की मौत है। एक ज़्यादा बेरहम मौत, जब वह हमसे एक ख़तरनाक खिलवाड़ करती है। हमारे बूढ़े होते ज़िस्म पर बैठ-बैठकर वह एक शैतान बदनियत और ढीठ मक्खी की तरह उड़ती रहती है।
इस इलाके के बारे में मैंने जो बयान किया उसका कोई समाजी पहलू नहीं है। और मैं पहले भी कई बार आगाह कर चुका हूँ (आगाह लफ़्ज में अभिमान की बू आती है, इसके लिए मुझे माफ़ करें) कि मैं किसी भी क़िस्म की तमसील (जिसमें विचार को जीव की तरह प्रस्तुत किया जाए) या प्रतीक का इस्तेमाल हरगिज़ नहीं करूँगा और रूपक के बारे में तो अब आप बखूबी जान गये हैं कि मेरा इसके बारे में क्या ख़्याल है।
मगर चन्द व्याख्याएँ ज़रूरी हैं, बेहद ज़रूरी।
यह बहरहाल एक कहानी है। आजकल लोग बाग कहानी में ‘कहानीपन’ कुछ इस तरह तलाश करते हैं जैसे ‘औरत’ में ‘औरतपन’ की तलाश या उसकी आरजू की जाती है। मगर इसे क्या कीजै कभी-कभी औरत के छुपे से छुपे अन्तर में भी ‘औरतपन’ ग़ायब रहता है। इसके लिए आपको माफ़ ही करना पड़ेगा।
(इस कहानी में भी कहानीपन, पता नहीं कहाँ होगा, इसके आख्यान के उलझे हुए धागों और पाठ या अन्तरपाठ के आपसी रिश्तों के टकराव में ? अगर कहीं वह होगा तो ज़रूर मिल जाएगा वरना कहानी को आपको माफ़ करना ही पड़ेगा बिलकुल अपनी औरत की तरह।)
जहाँ तक मेरा सवाल है, आपकी क्या मजाल कि आप मुझे माफ़ कर सकें। माफ़ तो खुद को मैंने ही किया था। उस भूख के आगे अपने ज़िस्म को एक बेहया औरत की तरह बेशर्मी से पेश कर देने के लिए। यकीनन एक बेहया औरत की तरह जिसके पास इस जिल्लत भरे काम के लिए ज़िन्दा होने जैसे छिछोरे, नखरे भरे, मगर बेहद घटिया से तर्क के अलावा और कुछ न था।
जब आप खुद को माफ़ करते हैं तो हद से ज़्यादा शेखी बघारने वाले हो जाते हैं। इस कमरे में मिट्टी के तेल का लैम्प रौशन होने से बहुत पहले ही मैंने खुद को माफ़ कर दिया था। शेखी मेरी रग-रग में भर गयी थी।
मुझे अफ़सोस है कि मैं आपको बताना भूल गया कि इस गुफ़्तगू के दरम्यिान घर के मालिक का छोटा भाई कई बार कमरे में आया था। वह वहाँ से झूठी रकाबियाँ और गिलास उठाकर ले गया था। दूसरी बार आकर उसने घर के मालिक से कुछ कान में कहा था, जिस पर वह एक पल को फ़िक्रमन्द नज़र आये थे। तीसरी बार आकर उसने एक गीले कपड़े से तख्त की चादर के एक हिस्से पर गिरे सालन के धब्बे को साफ़ किया था और चैथी बार सिगरेट लाकर दिये थे। मगर दस्तरख़्वान पर पड़ी उन हड्डियों को उसने अभी तक नहीं उठाया था। शायद बाहर हड्डियाँ फेंकने का अभी वक़्त ही नहीं आया था।
और अब जब कमरे की दीवार पर उन हड्डियों की बेहंगम परछाइयाँ आहिस्ता-आहिस्ता काँप रही थीं तो मैंने साफ़ तौर पर महसूस किया कि घर के अन्दर (शायद आँगन पार कर लेने के बाद) कहीं दूर एक दो सिसकियाँ ही फ़िज़ा में गूँजती हैं और फिर दबकर रह जाती हैं।
जाड़ों की रात बढ़ी चली आ रही थी। सर्द हवा के झोंके शायद तेज़ हो गये थे। वह खिड़की जो कमरे से अन्दर आँगन में खुलती थी, उस पर पड़ा हुआ पर्दा बार-बार हिलने लगा था। आज चाँदनी रात है, मैंने सोचा, पर्दा हिलता था तो नज़र आता था। ख़ामोश आँगन में चाँदनी उनके बूढ़े और वहशतनाक बालों के गुच्छों की तरह जगह-जगह बिखरी पड़ी थी। उन बालों के गुच्छों को बगै़र धुतकारे पार नहीं किया जा सकता था।
ग़ज़ल के शाइर किसी खाने की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक अहमियत जताते-जताते अचानक रूक गये। नज़्म के शाइर ने एक पल को कान खड़े किये फिर बेहद सुकून के साथ कहा:
‘तुम्हारी भाभी हैं। रो रही हैं। आखिर उनकी तो माँ हैं।’
हज़रात आप यक़ीनन सोच रहे होंगे कि वह बड़ी ड्रामाई सूरते हाल थी। मगर नहीं जनाब, ड्रामा तो यहाँ ये छिछोरी सतरें पैदा कर रही हैं। वर्ना यकीन करें कि वह बिलकुल आम और रोज़मर्रा सी सूरतेहाल महसूस होती थी और जहाँ तक मुझे याद है कि उस वक़्त पेटभर के खाने के बाद की हल्की-सी सुस्ती के अलावा मेरे दिमाग़ में कोई दूसरी बात सवार न थी। मुझे अपनी गरदन घुमाकर इधर-उधर देखने में भी दिक्कत महसूस हो रही थी। बिलकुल एक सुअर की तरह (इस बार इस बदकिस्म़त लफ़्ज का यह इन्तेहाई ईमानदाराना इस्तेमाल है)।
अब वक़्त आ गया है कि मैं आपको बता दूँ कि ये एहसास उस एहसास से बिलकुल अलग है जब मैं उस हास्यप्रद गम्भीर सूरतेहाल से दो-चार था। मगर अब कहानी बयान करते वक़्त मैं उन दोनों एहसासों को बयान करने के लिए बचकाना ख़्वाहिश से ख़ुद को बचा नहीं पा रहा हूँ और इस कोशिश में गोया भाण्ड हुआ जा रहा हूँ। मैं मायूस कर देने की हद तक एक बेवकूफ़ फोटोग्राफ़र की तरह हक़ीक़त के पीछे हाथ धोकर पड़ गया हूँ।
मगर मैं कसम खाकर कहता हूँ कि मेरा ये भाण्डपन अस्ल में एक बड़ा नैतिक पहलू भी लिये हुए हैं। मैं ज़िन्दगी के साथ-साथ लिथड़ जाना चाहता हूँ, मेरा पूरा अस्तित्व ज़िन्दगी के हर गन्दे से गन्दे चीथड़े तक को सूँघ कर उसकी बू में नहा जाना चाहता है। कुछ-कुछ उस तरह जैसे कबीलों में मर्द को अपनी औरत के दुःख-सुख में इस दर्जा ईमानदारी से शरीक होना पड़ता हे कि ये उसका बिलकुल फ़र्ज़ है कि प्रसव पीड़ा में मुब्तिला अपनी औरत की दर्दनाक और दिलचीर देने वाली चीखों के साथ वह भी उस तरह चीखे और तड़पे। उसे बच्चा पैदा करने के अमल की पूरी-पूरी नकल उतारना पड़ती है।
या यूँ कह लें कि मैं यहाँ एक व्यक्ति बन कर नहीं रहना चाहता। मैं खुद को ‘कई’ में महसूस करना चाहता हूँ और इस तरह मैं एक होते हुए भी ‘बहुत सों’ में बट जाना चाहता हूँ। इसलिए इस कहानी का हर किरदार मेरे लिए फाँसी का एक झूलता हुआ फन्दा है। मैं फन्दे में अपने सर पर काला कपड़ा डालकर गले की नाप लेने जाता हूँ और मायूस होकर वापस आ जाता हूँ। कोई फन्दा ऐसा नहीं जो एकदम मेरे गले के बराबर आये। यहाँ दम घुटता है। दम निकलता नहीं यह एक भयानक और गन्दा खेल है जिसमें अपनी आज़ादी और मुक्ति के लिए मैं खुद को मुख़्तलिफ सर्वनामों में तक़सीम करके अपनी संज्ञा की तलाश जारी रखना चाहता हूँ।
जैसा कि मैंने पहले इशारा किया था कि एक दुबका हुआ एहसासे जुर्म वहाँ ज़रूर था और आहिस्ता-आहिस्ता शायद अब इस सन्नाटे में गूँजती-डूबती सिसकियों के साथ वह अपने बल खोल रहा था।
उन दोनों को भी एहसासे-जुर्म था। मगर उससे छुटकारा पाने का हर एक का एक निजी तरीक़ा होता है। यह मेरा अपना तरीक़ा है जो आप से मुख़ातिब हूँ। उनकी बेमानी बातें, काला मफ़लर और चमड़े की जैकेट शायद इस एहसासे-जुर्म का ही हिस्सा थीं। ये इंसान की अपनी अकेली दुनिया है, इसमें दख़ल अन्दाज़ी की इजाज़त किसी को नहीं दी जा सकती।
आपको याद है कि शुरू ही में मैंने बता दिया था कि अपनी याददाश्त को फिर से दबोच लेने के लिए मुझे जगह-जगह बीचा का मुँह लगाकर भी भटकना पड़ता है। आपको बीचा का मुँह तो याद होगा। वह जिसे बच्चे लगाये फिरते थे और आपको अचानक उठा दिया करते थे।
वह बीचा का चेहरा मैंने अपनी कमर में बाँध रखा है। एक चालाक और कमीने हथियार की तरह।
इस कहानी में मौक़ा देखकर मैं झट ये चेहरा मैं अपने चेहरे पर लगा लेता हूँ। इसकी भयानक फैली-फैली मगर हैरान-सी आँखों से आँसू गिरते हैं। बड़े-बड़े बदनुमा खौफ़नाक दाँत जबड़ों को फाड़कर बाहर निकलने लगते हैं। बीचा का चेहरा उन आँसुओं से गीला हो जाता है। उसके तेज़ सुर्ख और पीले रंग फैलने लगते हैं। वह क़ाबिले-रहम नज़र आता है और अपने पीले-लाल रंग को बहने देता है। नीचे की तरफ़। इंसानी गर्दन से लेकर इंसानी एड़ियों तक ये रंग बहते जाते हैं।
मुझे एतराफ़ है कि ये एक बचकाना हरकत है और बार-बार इसे दोहराने से तो इसका असर बिलकुल ही खत्म हो सकता है मगर हर बचकानेपन की अपनी एक बेरहमी भी होती है। एहसास और अक़्ल की एक निचली सतह पर उस बेरहमी का असर हमेशा क़ायम रहता है।
ठहरिये.... कहानी में वह मौक़ा बस आने ही वाला है। मैं आपको इस बार पहले ही से ख़बरदार किये देता हूँ और कमर से बीचा का मुँह यूँ निकालकर चेहरे पर लगा लेता हूँ।
नहीं, इस बार रोने या सिसकियों की आवाज़ नहीं थी। ये तो दो औरतें मिलकर शायद कुछ पढ़ रही थीं। मध्यम और उदास आवाज़ में।
न जाने क्यों अचानक मुझे सर्दी-सी लगने लगी। सेहन की तरफ़ खुलने वाली खिड़की का पर्दा अब बहुत तेज़ी के साथ लहराने लगा था। रात बढ़ती जाने के साथ-साथ हवाएँ भी बढ़ती जाती थीं। कमरे में रोशन मिट्टी के तेल का लैम्प भड़कने लगा। घर के मालिक ने उठकर उसकी लौ कम कर दी। कमरा कुछ और धुँधला हो गया। वह दोनों एक लम्हे को जाने क्यों खामोश हुए, ऐसा लगता था जैसे अपनी-अपनी जगह दोनों कहीं खो गये हैं। शायद वह कुछ याद करने की कोशिश कर रहे थे। अन्दर से पढ़ने की आवाजे़ं फिर उभरीं। कमरे में सन्नाटा कुछ और फैला। ‘यासीन शरीफ़ है।’ एक ने बहुत ही धीमी आवाज़ में कहा। ‘हाँ, यासीन शरीफ़ ही है’ दूसरे ने खुद कलामी के अन्दाज़ में दोहराया।
मैं झूठ नहीं कहूँगा। उस वक़्त मुझे ‘व्याख्या से परे क़िस्म’ का ख़ौफ़ महसूस हुआ और मेरी रीढ़ की हड्डी में सुइयाँ चुभने लगीं।
मैं जानता हूँ कि यासीन शरीफ़ जान निकलते वक़्त के हालात में पढ़ी या सुनायी जाती है। इसके सुनने से और पढ़ने से जान निकलने में ज़्यादा तकलीफ़ नहीं होती। रूह बहुत आसानी से जिस्म से निकल कर उड़ जाती है। (मगर ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ मरते हुए इंसान की तकलीफ़ कम करने की ग़रज़ से ही यासीन शरीफ़ का पढ़ना अच्छा हो, बल्कि यासीन शरीफ़ तो हर शख़्स को पढ़ना और सुनना चाहिए। ख़ासतौर से तब जब उसके पुट्ठे और होश अच्छी तरह अपने फ़र्ज़ को अंजाम दे रहे हों)।
कौन सुन रहा था ?
‘यासीन शरीफ़ तो ये लोग कल से ही पढ़ रही हैं... मगर...’ घर के मालिक वाक्य अधूरा छोड़कर खामोश हो गये।
कौन सुन रहा था ?
इन्ना जअलना फ़ी अना क़िहिम आलन फ़मी इला ला ज़काने
(तहक़ीक किया हमने बीच गर्दनों उनके पट्टे। इस तरह वह ठोड़ियों तक है)
दोनों औरतों की आवाजे़ं तक़रीबन गै़र जज़्बाती होते हुए भी काँप रही थीं या मुझे काँपती हुई महसूस हुईं।
दस्तरख़्वान पर पड़ी झूठी हड्डियों के ढेर पर वही पतंगा बार-बार उड़े जा रहा था। लैम्प की लव मद्धम हो जाने की वजह से कमरे की सफ़ेद चूने से पोती गयी दीवार पर उन हड्डियों के साये क़ाबिले रहम हद तक धुँधले नज़र आते थे। किसी भी किस्म के इमकान से यकसर खाली, क़तई मायूस कुन।
काल मन यही अलअजाम वही रहीम कुल यहीहा अलज़ी इन्शाहा अव्वल मर।
(बोलो ऐसा कौन है जो हड्डियों को ज़िन्दा करे जब वह बिलकुल गल गयीं। तुम कह दो उन्हें वह ज़िन्दा करेगा जिसने पहली बार उन्हें बनाया।)
और अब मुझे साफ़ एहसास हुआ कि धीमे लहजे में यासीन शरीफ़ पढ़ती उन दो औरतों की आवाज़ों में से एक की आवाज़ शायद आहिस्ता-आहिस्ता रूँधती जा रही है। जाड़ों की लम्बी रात अपने सन्नाटे की तरफ़ बढ़ रही थी। धुँधले होते हुए उस आधो अँधोरे कमरे और यासीन शरीफ़ दुहराती हुई उन उदास आवाज़ों के दरम्यिान एक ख़ामोशी आकर खड़ी हो गयी।
सबसे पहले ग़ज़ल के शाइर उठे थे। आखिरी सिगरेट जूते से मसलकर उनकी काले चमड़े के जैकेट का कालर खिड़की से आने वाली हवा में फड़फड़ाया। मैं तख़्त से उठकर अपने जूते पहनने लगा। और तब मेरे साथ घर के मालिक भी अपना काला मफ़लर सख़्ती से कानों से लपेटते हुए खड़े हो गये। उन्हें ज़ुकाम बहुत जल्द-जल्द हो जाता है। उस वक़्त भी उनकी नाक सुरसुरा रही थी।
जब मैं जूते पहनकर खड़ा हुआ तो मुझे महसूस हुआ कि मेरे जूते तंग नहीं है और पैरों को कहीं से नहीं काट रहे हैं। हालाँकि जब भी मैं खाना खाकर ज़्यादा देर इस तरह बैठा रहता हूँ तो मेरे पैर सूज जाते हैं और जूते उन्हें काटने लगते हैं। मगर इस बार सब ठीक था। कोई मसअला ही न था।
‘देखो शायद आज रात में ही....’ नज़्म के शाइर ने फ़र्श की तरफ देखते हुए दबी-दबी ज़बान में कहा। मगर उनका लहजा सन्देह की दहशत से खाली था। ‘हाँ लगता तो यही है। कल दिन भी अच्छा मिल जाएगा।’ ग़ज़ल के शाइर ने जवाब देने के से अन्दाज़ में आहिस्ता से कहा (कल जुमा है)।
‘बहर हाल.... जैसा भी हो। फ़ौरन ख़बर कर देना।’ मैं अपने संवेदनशील होने का सुबूत देते हुए कुछ-कुछ तसल्ली देने वाले अन्दाज़ में बोला था। खड़े होने पर कमरे की दीवार पर हम तीनों की देव-सी लम्बी परछाइयों ने हड्डियों के उदास साये को पूरा-पूरा ढँक लिया। मगर तब ही मुझे इस नाक़ाबिले यक़ीन बात का एहसास हुआ कि वह हड्डियाँ जो चैपायों के घुटनों और पिण्डलियों में पायी जाती हैं, अचानक उन दोनों के चेहरे पर उग आयी हैं। खुद शायद मेरे चेहरे पर भी, क्योंकि हाथ फेरकर उनकी नोकें और उभार मैंने साफ़ तौर पर महसूस किये।
लैम्प की धँुधली और मैली-सी रोशनी में उन दोनों के चेहरे गन्दे सालन की तरह नज़र आ रहे थे।
दाँतों के दरम्यिान फँसे गोश्त के चन्द रेशे और सरसराती हवा और पेट में बनने वाली नर्म गैस की बदबू लिए हुए एक सुअर (सुअर लफ़्ज़ अब मैंने आखि़री बार इस्तेमाल किया है) की तरह जब मैं सामने को गर्दन उठाये घर से बाहर डोलता हुआ चला तो मेरे पीछे टीन का दरवाज़ा हवा से बजने लगा। अचानक बिजली आ गयी। नालों में रुका काला पानी चमकने लगा।
गली के दोनों तरफ़ तक़रीबन एक से बने मकानों के नीचे सण्डास फिर रौशन थे। उन पर मेरी निगाह पड़ी तो मैंने उकार ली (या शायद उकराया)। यहाँ तक की रात तो गुज़र गयी थी। अब घर पहुँच कर सो जाना था।
बस अब राम गंगा में क़िले की नदी गिरती है। मायूस नाली की तरह, सुस्त रफ़्तार और सड़ती हुई। ये मेरी भटकन की बन्द गली है। अपनी याददाश्त का पीछा करने की मेरी आखिरी कोशिश। ये एक क़िस्म की बेचेहरगी है। एक भिनभिनी नाक से निकलती आवाज़ के अलावा मेरे पास अब कुछ नहीं है। वह बीचा का चेहरा मैंने उतारकर रख दिया है कि अब उससे मुझे या आपको कोई फ़ायदा नहीं पहुँचने वाला।
ये एक क़िस्म की ख़ुदकशी है। बुज़दिली, बेईमानी, सुस्ती और काहिली के साथ जब आप मौत को फ़तह करने के लिए निकलते हैं तो अंज़ाम यही होता है। इसके बावजूद कि ये कहानी एक किस़्म की खुदकुशी थी, मैं आपको ये बता देना चाहता हूँ कि ये सतरें हरगिज़ उदास न थीं। ये दरअस्ल उदास हो जाने की कोशिश में लिखी गयी थीं।
मैं तो खुशी के एक झूमते हुए कीचड़ के रंग के हाथी पर सवार हूँ। मस्त हाथी, गुरूर से भरा, नशे में झूमता हुआ शहर की चैड़ी-चैड़ी सड़कों पर डोलता है। शेख़ी उसकी मिची हुई आँखों और हिलती हुई सूँड से टपकती जाती है। बिखरती जाती है। उसके खम्भों जैसे बेख़बर पैरों के नीचे उसकी अपनी ही शेख़ी कुचली जाती है। अपनी ही अना और अपना ही नशा कुचला जाता है।
चलिए.... चवन्नी वाला खेल ख़त्म हुआ।
तमसील, प्रतीक और रूपक से बिलकुल खाली ये कहानी इस मक़ाम पर आकर ख़त्म हो जाती है। अब मुझे कुछ नहीं करना है सिवाए ये देखने के कि क्या मेरी पीठ पर वह गन्दी लिजलिजी छिपकली अभी तक चिपकी हुई है या उतर चुकी है। मगर अपनी पीठ तक हाथ ले जाने में मुझे ख़ौफ़ क्यों महसूस होता है।

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