12-Dec-2017 05:52 PM
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लिप्यान्तर उबैदुल्ला मुबारक
अम्मा और मेरी बहनें
खानदान हमारा बड़ा था। हमलोग कोई ग्यारह भाई-बहन होते लेकिन सात बच रहे थे। चार बहनें, तीन भाई। चार बच्चे या पैदा होते ही या बहुत कम उम्र में खत्म हो गये। सबसे बड़ी बहन क़दीरून्निसा को मैं अम्मीजान कहता था। इसलिए कि उन्होंने बचपन में मुझे अपना दूध पिलाया था। अभी कुछ बरस पहले कोई 92 या 93 बरस की उम्र में उनका इन्तकाल हुआ। उनके बाद एक भाई थे हमीद नाम के। उन्हें मैंने नहीं देखा, बारह बरस की उम्र में वो जलकर मर गये। छुट्टियों में बड़े मामूँ के यहाँ बालाघाट गये हुए थे। एक छोटे से टीले पर चार का एक पेड़ देखा, पत्थर फेंककर कुछ फल गिरा लिये, उन्हें उठाने के लिए जब चढ़ने लगे तो देखा कि टीला गरम है, पाँव जलने लगे मगर फिर भी वो चढ़ते रहे और चार उठाकर जब वापस चले तो घुटनों के बल गिर गये, लुढ़कते हुए नीचे पहुँचे। न जाने उस टीले में अन्दर ही अन्दर क्या चीज़ जल रही होगी। क्यास कहता है शायद अन्दर कोयला हो और वह सुलग गया हो।
बहरहाल हाथ-पाँव ज़रा जल गये थे। डॉक्टर ने मरहम पट्टी कर दी लेकिन कुछ ही दिनों में उन्हें सरसाम हो गया और चल बसे। मामूँ के पाँव तले की ज़मीन निकल गयी। खबर भेजी, आपा हमीद बीमार है, तुम फौरन आ जाओ। अम्मा-अब्बाजी जब तक वहाँ पहुँचे, तज़हीज़ों तक्रफ़ीन को चार एक दिन गुज़र गये थे। अम्मा ने मामू पर इल्ज़ाम रखा, रशीद मेरी अमानत को तुमने क्या किया। मामूँ ने ज़ारोकतार होते हुए डॉक्टर की ना अहली को ज़िम्मेदार बताया। अम्मा बेहाल हो गयीं और कब्र पर लोटते हुए कहने लगीं, मैं अपने बेटे की सूरत देखूँगी। अब्बाजी ने बहुत समझाया, यह गुनाहे कबीरा है, क्या तमज़हब बातें कर रही हो लेकिन अम्मा मानने को तैयार न थीं। आखिर कब्र खोली गई। अम्मा बताती थीं कि चेहरे और जिस्म में कोई फ़र्क नहीं आया था सिर्फ़ नाखून बढ़ गये थे। अम्मा का इसरार था कि कब्र पक्की हो और उस पर संगमरमर का निशान हो, जिस पर हमीद अहमद खाँ का नाम खुदा हो। अब्बाजी ने फिर उन्हें समझाने की कोशिश की, पक्की कब्र बनवाना कुफ्र के मुतरादिफ़ है। बहरहाल अम्मा के आगे उनकी न चली। आगरे जाकर संगमरमर ले आये और वही सब किया जो अम्मा चाहती थीं।
हमीद भैया हरदिल अज़ीज़ थे। मामूँ, मुमानी सारा खानदान उन पर जान छिड़कता था। हसीन थे और बहुत सीधे और नेक सीरत। एक बार रायपुर शहर के पानी की टंकी का ढक्कन खोलकर कुछ शरीर बच्चों ने उन्हें सीढ़ी से उसके अन्दर भेज दिया और बेहद वज़नी लोहे का ढ़क्कन वापस रख दिया। कई घण्टे बाद पता चला तो वहाँ से अधमुए निकाले गये। अम्मा कहती थी उस दिन हमीद मरते-मरते बचा था।
अम्मा ने हमीद भैया के जले हुए कपड़े बतौर यादग़ार संभालकर रख छोड़े थे। वक़्तन-फौक़तन वो पोटली खोलकर फटे, बोसीदा अधजले कपड़ों को देखतीं और आँसू बहाती रहतीं। हम लोग सब उन्हें समझाते कि बीती हुई बात तुम्हारे दिल के अन्दर नक़्श है, अब भला इन कपड़ों की क्या ज़रूरत, इन्हें फेंक दो या नज़रे आतिश कर दो, मगर यह बात मनवाते हमें बरसों लग गये। मैं एक बार बम्बई से आया था, उस वक़्त कहीं जाकर उन्होंने वो कपड़े जलाए।
हमीद भैया को याद करके अम्मा दुआएँ करतीं, या अल्लाह मुझे मेरा चाँद जैसा बेटा फिर से अता कर एक लड़का और दे दे। मिन्नतें मानी, वज़ीफे करवाए, बिलाखिर अल्लाह-अल्लाह करके जब मैं वारिद हुआ तो उन्हें कुछ तसकीन हुई। अल्लाह ने उनकी बात सुन ली। दरअसल मैं उस वक़्त आया जब उन्हें यकीन हो गया था कि अब उस उम्र में अगर उन्हें कोई बच्चा होगा तो यकीनन अल्लाह की करामत ही से होगा। वो बिल्क़ीस आपा को पेट पोछन मान चुकी थीं लेकिन मोअज्ज़ा यह हुआ कि बिल्कीस आपा के पाँच साल बाद मैं और मेरे पाँच साल बाद क़ैसर पैदा हुई और कैसर दरअसल पेट पोछन निकलीं।
बहनें मुझे बहुत चाहती थीं। ख़ासतौर से बाजीजान। उन्होंने मुझे बिल्क़ीस आपा को आपाजान कहना सिखाया और अपने बच्चों को सिखाया कि मुझे मामा नहीं प्यारे मामा कहा करें। अम्मा कहा करती थीं कि बाबा को अगर किसी की लाड़ ने बिगाड़ा है तो अख़्तर ने। कभी मुझसे कोई चूक हो जाती तो अम्मा की साज़िश पर दोनों बहनें मुझे उनके सामने सज़ा के लिए पेश कर देतीं और बाद में लाड़-प्यार जताकर तलाफ़ी कर लेतीं। अम्मीजान तो दूल्हा भाई और अपने बच्चों के साथ रहा करतीं। दूल्हा भाई ढोर डॉक्टर थे, कभी नागपुर, कभी बिलासपुर, कभी होशंगाबाद।
कभी कहीं और, जहाँ तबादला हो जाए, वहीं रहते थे। मेरा बचपन आपाजान और बाजीजान के साथ ही गुज़रा। आपाजान जब मेरा हाथ पकड़ लेती थीं तो छुड़ाना बहुत मुश्किल हो जाता था। उनकी ताकत और दिलेरी की हम सब पर उसी दिन से धाक जम गयी थी, जब उन्होंने अकेले एक बहुत बड़े नाग साँप को लाठी लेकर आँगन में कुचल दिया था।
एक दिन की बात है मैं स्कूल से गायब रहा। इधर-उधर घूमता रहा और बहुत देर में घर वापस आया। कुछ सौदा भी मंगवाया गया था, इसके लिए भी वक़्त न निकाल सका था बल्कि सिरे से भूल गया था। डरा हुआ था कि आज पिटाई होगी। सहमे हुए आहिस्ता से दरवाज़े के अन्दर कदम रखा। दालान में देखा तो अजीब सी खामोशी छाई हुई है। अम्मा अपने तख्त पर बैठी पान बना रही हैं बाजीजान एक तरफ बैठी सब्ज़ी काट रही हैं और आपाजान भी एक गोशे में बैठी दाल चुन रही हैं। सर सबके नीचे था, बज़ाहिर किसी ने सर उठाकर मुझे नहीं देखा। सब अपने-अपने काम में मसरूफ़ नज़र आयीं। यह सन्नाटा देखकर मैं ठिठका, धीरे-धीरे कदम अन्दर बढ़ाए और बस ज्यों ही मैं दरवाजे़ से कुछ दूर तक पहुँचा यानी हमले के दायरे के अन्दर आ गया जहाँ से वापस भाग निकलना नामुमकिन था। दोनों बहनें लपकीं, बाजीजान ने दौड़कर दरवाज़ा बन्द दिया, आपाजान ने मुश्कें़ कसीं और अम्मा के सामने पेश कर दिया। बाजीजान ने अम्मा के हाथ में पंखा थमा दिया और अम्मा ने पंखे की डण्डी से मेरी पीठ धुनकना शुरू किया और हुक्म जारी कर दिया कि आज बाबा का खाना बन्द। कुछ देर तो मैं अन्दर के कमरे में जाकर बैठा रहा, इतने में बाजीजान आयी, मुझे खींचकर बावर्चीखाने ले गयीं, मलाई और रोटी जो मेरे लिये रख छोड़ी थी, यह जानकर कि मुझे मलाई बहुत पसन्द है, वो निकाली और दाँत किचकिचाकर मुझे कोसते हुए लुक़्मे मुँह में ढूँसने लगीं, हरामी, माटी मिले, ले खा। इसमें अम्मा की तवज्जो शामिल रही होगी या नहीं यह मैं नहीं जानता, वो अक्सर यही करती थीं। एक तरफ हुक्म इरसाल कर देतीं कि बाबा को आज खाना न दिया जाए और दूसरी तरफ चुपके से यह कह देतीं कि मेरी आँख बचाकर कुछ खिला देना। लेकिन इस तरह अच्छी-अच्छी चीज़ें अलग से मेरे लिये रखकर, बावर्चीख़ाने में चुपके-चुपके खिलाना, यह वैसे भी बाजीजान का दस्तूर था। खाना पकाने में बाजीजान वर थीं। सबसे मज़ेदार हाण्डियाँ उन्हीं के हाथ से पकती थीं, यह सारा घर जानता था।
हफ़ीज़ भैया
हफ़ीज़ भैया बहुत ज़ालिम आदमी थे। ख़न्नास की-सी शक्ल लिये फिरते थे। हँसना तो दूर रहा, उन्हें मुस्कराते भी बहुत कम देखा। पहली बीवी को मारकर बाजीजान से शादी की। दो बच्चे पहली बीवी से साथ लेकर आये थे, एक लड़का और एक लड़की। लड़का दस-ग्यारह बरस का होगा और लड़की पाँच-छह बरस की। बाजीजान को दोनों बच्चे एक आँख नहीं भाते थे। वो उनके साथ सौतेली माँ का-सा सुलूक करतीं। हफ़ीज़ भैया का हाथ टूटा हुआ था। हाथ लोहे का बना था। बच्चों को मारते थे तो वो बहुत देर तक तड़फते रहते। वैसे ही बाजीजान को पीटते थे। शादी के बाद बिलासपुर में रहते थे। एक छोटा-सा घर, जिसमें न साफ़ हवा का गुज़र था न रौशनी का ठिकाना। कंजूस बहुत थे, एक बिजली का बल्ब बहुत कम पावर का घर में जला करता। दिन में अँधेरा, रात बल्ब जलने के बावजूद अँधेरा। बीवी से हर तरह का काम लेते थे। पकाने, रींधने से लेकर नल से पानी भरना, बर्तन माँझना, बिस्तर बनाना, झाड़ू देना, घर के सारे काम बाजीजान करती थीं। नौकर घर में कोई नहीं था, वाहिद नौकर बस बीवी थी।
मेरे स्कूल के ज़माने ही में दोनों बहनों की शादी यके बाददीगरे हो चुकी थी। पहले बाजीजान का निकाह, जो बड़ी थीं और उसके बाद आपाजान की शादी मास्साहब से। हफ़ीज़ भैया का नाम था सैयद हफ़ीजुल हसन। जब मैं मोरिस कॉलेज नागपुर पहुँचा तो उनके छोटे भाई अज़ीजुल हसन से मुलाक़ात हुई। वो एल.एल.बी. कर रहे थे। गंदुमी रंग, ऊँचा क़द, सूरत के अच्छे थे। बाल घुँघरियाले।
आँखों पर एक दबीज़ मोटी-सी काले फ्रेम की ऐनक। रात-दिन किताब पढ़ते रहते थे। पराठे और भुना गोश्त दोनों वक्त और हर रोज़ मतवारि खाते थे। एक आध बार मुझे भी चखाया। खाना लज़ीज़ होता था, मगर मजाल कि कभी उस मीनू में कोई फ़र्क आ जाए। सब्ज़ी कभी नहीं खायी। जब तक़रीबन 45 की उम्र में उनका इन्तक़ाल हो गया तो मुझे ख़्याल आया कि उनकी रोज़ाना की गिज़ा ही उनकी मौत का सबब बन गयी होगी। साथ ही यह ख़्याल भी आया कि उनकी बचपन की तरबियत का भी कुसूर रहा होगा।
मैंने हफ़ीज़ भैया के साथ अज़ीजुल हसन को कभी नहीं देखा। दोनों में ग़ालिबन बनती न थी। उसका सिलसिला भी शायद दोनों के बचपन से होगा। अज़ीजुल हसन ही तरह हफ़ीज भैया भी लम्बे थे मगर सुकटे थे गो बदन में फ़ौलाद की ताक़त थी। यह मैं खुद देख चुका हूँ। जब मैं अज़ीजुल हसन से नागपुर में मिला। उस वक़्त तक बाजीजान का इन्तक़ाल हो चुका था। घर में जब भी हफ़ीज़ भैया का ज़िक्र आता, अम्मा उन्हें खूनी कहकर याद करतीं।
एक बार बाजीजान का पेट का ऑपरेशन न जाने किस बीमारी के सिलसिले में नागपुर में हुआ। ऑपरेशन मायकेवालों ने करवाया था। हफ़ीज़ भैया उस वक़्त बिलासपुर में थे, खब़र सुनी मगर टस से मस न हुए। वहीं बिलासपुर में पड़े रहे। ये मेरा स्कूल का ज़माना था। मैं बाजीजान के साथ चिपका नागपुर पहुँच गया। पहली बार ऑपरेशन देखा, बाजीजान की खि़दमत की और उन्हें शिफ़ायाब होने के बाद रायपुर घर ले आया।
बाजीजान हफ़ीज़ भैया की शिकायत कभी ना करतीं। उन्हें मयके हफ़ीज़ भैया बहुत कम भेजते थे। जब भी रायपुर आयीं, रोते हुए आयीं। अम्मा कुरेद-कुरेदकर पूछतीं, मारता है क्या वो? बाजीजान कुछ जवाब ना देतीं, बस खामोश बैठे आँसू बहाती रहतीं। मैं कह उठता, हाँ मारते हैं। कुछ अर्से बाद उन्हें तपेदिक़ हो गया। हफ़ीज़ भैया ने उन्हें रायपुर भेज दिया। बिलासपुर के पास पेण्ड्रा में तपेदिक़ के मरीजों के लिए एक मशहूर सिनेटोरियम था। हफ़ीज़ भैया से बहुत कहा, वहाँ पेण्ड्रा में उनका इलाज करवाएँ। उनके जूँ न रेंगी, वो न माने। आख़िर रायपुर ही में उनका बत्तीस-पैंतीस की उम्र में इन्तकाल हुआ। हफ़ीज़ भैया मौत पर भी नहीं आये।
बाजीजान का एक लड़का अनवार था, जिसे हम लोग गुण्डा कहा करते। हफ़ीज़ भैया ने पचास से ऊपर की उम्र में दूसरी शादी की थी और चौसठ-पैंसठ की उम्र में गुज़र गये थे। बच्चों को निजात मिली। मैंने अनवार से सन् 1990 में कराची में मुलाकात की। अनवार बहुत होनहार बच्चा था। जवानी में उसे यकायक कराची में देखकर मैं दंग रह गया था। या बचपन में देखा था या अब। एक खूबसूरत क़दावर नौजवान मेरे सामने खड़ा था। वेलकम पाकिस्तान लिमिटेड में मेन्टेनेन्स आफ़िसर था। माक़ूल तन्ख़्वाह थी। वहीं पाकिस्तान में शादी कर ली थी, बाप बन बैठा था।
दूल्हा भाई
दूल्हा भाई थे बहुत मुतफ़न्नी। पहले पहल मुझे अच्छे लगते थे। नाम ग़ुलाम हुसैन खाँ था। मेरी सबसे बड़ी बहन यानी अम्मीजान के शौहर थे। अम्मा अपने दामादों का लिहाज करके पूरा तो नहीं लेकिन कुछ ज़रा-सा पर्दा ज़रूर करती थीं, कम-से-कम सर पर पल्लू दुरुस्त कर लेती थीं। अम्मा को अम्मीजान शुरू से ज़्यादा पसन्द नहीं थीं। बाजीजान और आपाजान का भी यही रवैया था, वो भी उन्हें ज़्यादा ख़ातिर में न लातीं। सिर्फ़ भाईजान थे कि उनके आशिक थे और अम्मीजान भी उनकी बहुत ख़ातिर करतीं। दोनों में महज भाई बहन की मोहब्बत नहीं बल्कि दोस्ती का दिलचस्प रिश्ता था और मैं सबका चहेता था। अम्मीजान मुझे बहुत अच्छी लगतीं थी। आखिर उनका दूध पिया था। उनका हँसता हुआ मुँह देखकर न जाने क्यों मुझे अण्डे की ज़र्दी याद आती थी।
बच्चे सबके सब न जाने काले कैसे निकले। अम्मीजान तो फूट की तरह गोरी थीं और बहुत खूबसूरत थीं। भाई बहनों में सबसे ज्यादा क़द्दावर वही थीं। दूल्हा भाई का भी नाक नक़्शा बहुत अच्छा था। क़द दरम्याना, रंग गंदुमी। आदमी की रंगत बयान करना बहुत मुश्किल काम है। अलफ़ाज ही नहीं मिलते, गोरे रंग की न जाने कितनी किस्में होती हैं, काले की भी वही कैफ़ियत। काले में चाहे कितना ही गहरा काला हो, एक शीशम की-सी चमक, काले में नीलगूँ, अब्बासी उन्नाबी, जामनी, काई की-सी गहरी सब्ज़ रंगत, तवे की-सी स्याही, कोयले की-सी मुर्दनी, गंदुमी में जितने गेहूँ के रंग, उनसे ज़्यादा इन्सान के। कोई लाइट ब्राउन, कोई डार्क ब्राउन, फिर उसमें भी तदरीजी बारीकियाँ। रंगों के मेल में कमी-बेशी के नाज़ुक-नाज़ुक फ़र्क। पेण्टर के लिए रंग पेण्ट करना आसान। राईटर के लिए लफ़्ज़ों में बयान करना तक़रीबन गैर मुमकिन। पेण्टर तो नये-नये रंगों की ईजाद करता है। मसलन रज़ा के तस्वीरों की रंग क्योंकर बयान कीजिएगा। मग़रिबी मुल्कों ने तो यह आसानी से तय कर लिया कि अफ्ऱीका के लोग काले, हिन्दुस्तान के ब्राउन, चीन के पीले और यूरोप-अमेरिका के व्हाइट। ई.एम.फास्टर ने बम्बई में अपनी सन् 1940 की रेडियो टॉक में कहा था- ‘व्हेन आई से ब्लेक, आई डोण्ट मीन ब्लेक।’ फिर ज़रा से वक़्फे के बाद दाँत भींचकर और साँस दबाकर क़दरे ज़ोर से ‘आई मीन ब्लेक।’ यह हाल लफ़्ज़ों के इज्ज़ का है।
बच्चों में एक कुदैसिया की सितवां नाक, होंठ और बत्तीसी अम्मीजान पर गयी थीं, रंग उसका भी साँवला था, हालाँकि सांवलेपन में एक मुलाहत थी। लड़कों में इसहाक का चेहरा कुछ-कुछ दोनों की तरफ गया था। बाप की तरफ ज्यादा माँ की तरफ कम। खूबसूरत बड़ी-बड़ी आँखें दूल्हा भाई की थीं। वह भी साँवला था। बाकी और दो बेटों में सबसे बड़ा मुश्ताक़ काला ठीकरा, नाक बिल्कुल चपटी, ऐसी कि गोया थी ही नहीं। सबसे छोटा लंगड़ा था, रंग का वो भी हल्का साँवला, तबियत का बाप की तरह अव्वल नम्बर का शरारती, नाम इक़बाल। यही कैफ़ियत इसहाक़ की थी। इसहाक़ इक़बाल से भी दो जूते आगे। मुश्ताक़ निस्बतन बहुत सीधा था।
मुश्ताक़ मुझसे एक दो साल बड़ा था। ऊँगलियाँ उस जगह रखे, जहाँ नाक का अता-पता कुछ नहीं था, कुछ इधर-उधर घुमाता था और नाक ऊपर की तरफ सुड़कता रहता था। सर्दी में तिरछी माँग निकालता और कंघी से सामने के बालों को फुला लेता और आईने के सामने खड़े होकर अपनी बेसुरी आवाज़ में गाता रहता-
‘सुबू को उट्ठो हाथा मुँह धो लो
कहना बड़ों का मान लो बच्चो।’
स्कूल की किताब का यह गीत कुछ उसी तरह का था। सुबह को सुबू और हाथ को हाथा कहे बगैर न गा सकता। आपा जान उसका बहुत मज़ाक उड़ाती थीं। उसके नाक सुड़कने और उसके गाने की नक़ल बहुत अच्छी करतीं। खुद हँसती और सबको हँसातीं।
अब कोई बाकी नहीं, सिर्फ़ इसहाक़ है, जो ज़िला बिलासपुर की पेण्ड्रा रोड़ पर मरवाही गाँव में रहता है, भालुओं के साथ। अजीत जोगी के मरवाही गाँव के गिर्द-ओ-नवाह भालुओं से भरे हैं। इसहाक़ मुहब्बतवाला है। वैसा ही जैसे- जिन दिनों मैं पेण्ड्रा रोड़ में बिलासपुर के छत्तीसगढ़ी लोक कलाकारों के साथ साक्षरता पर ड्रामा वर्कशाप कर रहा था, जिसका नतीजा नाटक ‘सड़क’ निकला, रोज़ाना मेरे लिए खाना बीवी से पकवाकर ज़रूर लाता। मरवाही गाँव पेण्ड्रा रोड रेस्ट हॉऊस से, जहाँ मैं था, कोई आठ-नौ मील की दूरी पर है।
वह दिन के वक़्त साइकिल पर खाना लेकर आता, कभी-कभी अपनी बच्ची को मुझसे मिलवाने के लिए साथ ले आता और शाम होने से पहले वापस चला जाता। कहता अँधेरा होने के बाद भालू सड़क तक निकल आते हैं। उस ज़माने में एक दो बार ऐसी वारदात हुई भी थी। वर्कशॉप के ज़माने में ही एक-दो बार ऐसी वारदात हुई थी, वर्कशॉप ही के ज़माने में भालू ने हमला कर दिया था, एक आदमी मर भी गया था। कुछ महीने पहले एक आदमी बुरी तरह जख़्मी हो गया था। अरे जब आदमी ने जानवरों के इलाके़ पर हमला कर दिया और जंगल के जंगल साफ़ कर दिये तो फिर क्यों न जानवर आदमी के इलाके़ पर हमला करें। और न करें तो खाएँ क्या? अब बन्दर, भालू नचाने वाले मदारी भी बहुत कम नज़र आते हैं। नज़ीर अक़बराबादी का ज़माना गया, ‘जब हम भी चले साथ चला रीछ का बच्चा।’
दूल्हा भाई ढोर डॉक्टर थे, जगह-जगह उनका तबादला होता रहता था। चुनांचे जब मैं स्कूल की छुट्टियों में नागपुर उनके पास गया, मुझे चिड़िया घर दिखाने साथ ले गये थे जो उनके घर के बहुत क़रीब था। बड़ी शफ़क्क़त और बड़ी फ़रहत से मुझे शेर, भालू, चीता, बन्दर, हिरण तरह-तरह के परिन्दे वगैरह दिखाये, मैं बहुत खुश हुआ। एक तो नागपुर का चिड़ियाघर उस ज़माने में बहुत मशहूर था, दूसरे मैं पहली बार चिड़ियाघर देख रहा था।
जब-जब मौक़ा मिला, मैं खुशी-खुशी उनके यहाँ जाता, इसलिए भी कि अम्मीजान के हाथ के खाने मुझे बहुत अच्छे लगते। एक बार उनका तबादला होशंगाबाद हो गया। मुझे बुलावा आया, मैं पहुँच गया। उनका सरकारी घर नर्मदा से दूर नहीं था। मैं हर रोज़ कभी सुबह कभी शाम नर्मदा की सैर को निकल जाता। उस ज़माने में नर्मदा पाटोपाट भरी रहती थी। वहीं घाट था, मैं अक्सर सीढ़ियों से उतर कर नर्मदा में नहाया करता था। दूल्हा भाई का घर और अस्पताल दोनों एक ही कम्पाउण्ड में थे। किसान अपने गाय, भैंस इलाज के लिए लेकर आते, दूल्हा भाई उनके मरहम पट्टी में मुस्तैदी से लगे रहते, मैं खड़े-खड़े पूरी कारवाई बड़ी दिलचस्पी से देखता रहता। कभी कोई बैल मचलकर इधर-उधर भागने की कोशिश करता तो उसे रस्सियों से बँधवाकर जे़र किया जाता, उसके जख़्म पर दवा-दारू की जाती, एक मोटी-सी सुई भौंकी जाती, उसकी आँखें फटी हुई नज़र आतीं, अगर किसी और चीज़ की ज़रूरत न होती, उसे वापस भिजवा दिया जाता और अगर इलाज-मआलजा वक़्त तलब होता, उसे वहीं अस्पताल में खूटे से बाँध दिया जाता। कुछ जानवर, बैल, भैंस, बकरियाँ आमतौर से हमेशा अस्पताल में बँधे रहते, वक़्त-वक़्त पर ज़ख़्मों पर पट्टी बदलने, दवा लगाने, इन्जेक्शन देने का काम दूल्हा भाई खुद करते। मैं हर ऐसे वक़्त मौजूद रहता। दूल्हा भाई की मसीहाई की धाक मेरे दिल पर बार-बार बैठ जाती।
बिलासपुर शहर से आगे तख़तपुर से दायें तरफ हटकर एक गाँव है, लुहराकापा। सरकारी मुलाज़मत से पेंशनयाफ़्ता होने के बाद दूल्हा भाई ने यह गाँव ख़रीद रखा था कि रिटायर होने के बाद वहाँ बस जाएँ, यानी वो मालगुज़ार भी बन गये थे। खेती-किसानी से और जंगल के फलों से उनकी आमदनी में इज़ाफ़ा हो गया था। उस ज़माने में मैं मोरिस कॉलेज नागपुर में तालीम हासिल कर रहा था। गर्मियों की छुट्टियाँ गुज़ारने के लिए मैं लुहराकापा चला गया। मुझे यह गाँव बहुत अच्छा लगा। चारों तरफ घने जंगल, बीच में एक छोटा-सा गाँव, पास ही एक छोटी-सी नदी, मनयारी नाम की। गाँव का नाम और नदी का नाम मुझे दोनों बहुत पसन्द थे। मनयारी अपने पथरीले बिस्तर पर गुर्राती, गड़गड़ाती हुई बहती थी। दूर विन्ध्याचल के पहाड़ों का सिलसिला नज़र आता था। मैं रोज़ाना मनयारी नदी की सैर करता, अक्सर उसके पानी से खेल-खेल कर नहाता। इन्हीं जंगलों में और इसी नदी के किनारे मैंने लड़के-लड़कियों को ददरिया गाते सुना, उनसे दोस्ती की, ददरिया लोकगीत की रिवायत के बारे में बातचीत की। पहली बार मुझे मालूम हुआ कि गाँव के अन्दर ददरिया गाना मना है। चुनांचे नौजवान लड़के-लड़कियाँ जब ददरिया गाते, गाँव से बाहर जंगल में लकड़ी काटते वक़्त गाते या नदी के किनारे नहाते वक़्त और लड़कियाँ पानी भरते वक़्त। ददरिया खुद साख़्ता गीत होता है। सवाल-जवाब की सूरत में गाते-गाते ही लड़के-लड़कियाँ फिलबदीह गीत तख़लीक़ करते जाते हैं। यानी वो गीतकार भी होते हैं और गवैये भी। अच्छे ददरिया गाने वालों में एक खटका एक कशिश होती है, उसके ज़ेरे असर लड़कियाँ कभी-कभी अपने प्रेमी के साथ घर छोड़कर भाग जाती हैं, इसीलिए ददरिया गाँव के अन्दर गाने की इजाज़त नहीं है।
पेण्ड्रा रोड़ वर्कशॉप के लिए जगह ढूँढते वक़्त मैंने पहले सोचा था कि वर्कशॉप लुहराकापा में होना चाहिए। गया तो न जंगल बाकी थे, न मनयारी नदी कहीं दिखायी देती थी। मैंने नदी पर एक नज़्म लिखी, जिसका उनवान है ‘पहाड़ी नदी’ :
कहा था मुझसे नदी ने
मैं जाविदाँ हूँ मेरा हुस्न जाविदानी है
मैं जाविदाँ मेरे जज़्बात जाविदानी हैं
अजीब शान से इठला के बह रही थी नदी
कभी गरजके उठाती फु़जू़ल का तूफाँ
कभी चट्टानों के सर से यूँ ही गुज़र जाती
बिछे थे सेज पे कितने ही झाड़ और पहाड़
उन्हीं के बीच में गुर्रा के बह रही थी नदी
कहीं तो सोए हुए पत्थरों को ठुकराती
कहीं पे घाँस की पत्ती को देख रुक जाती
कहीं पे घूम के हल्की-सी एक जुम्बिश से
खुद अपने आपको बस देखती ही रह जाती
खुद अपने हुस्न पे इतरा के बह रही थी नदी
कहा था मुझसे नदी ने
उसी नदी ने कहा था
नज़र उठा के ज़रा मेरे हुस्ने उरियाँ देख
मेरी जबीं के सितारे
उभार मेरे तनफुस का, लौंग की यह हमक
लपक-झपक मेरी बगलों की
मेरे खिंचे हुए अबरू मेरा कमान-सा जिस्म
नशीबे वादी-ए-फ़रहत का यह गुलाब
लिबास उतार मेरे जिस्मो-जाँ का लम्स तो देख
उतर के देख मैं तेरी हूँ
मैं आज तेरी हूँ कल तेरी हूँ सदा तेरी
यही नदी ने कहा था
मेरी नदी ने यही तो कहा था
मगर वह छोटी सी बिफरी हुई पहाड़ी नदी
वह झाड़ और वह पहाड़
नज़र कहीं नहीं आते
वह जंगलात खुद इक नाज़ो-तमकनत की मिसाल
वह सब निगाह से मस्तूर हो गये हैं आज
हुआ कुछ ऐसे कि पहले तो कट गये जंगल
दरख़्त कटते ही कटते नदी भी सूख गयी
नदी के सूखते ही मिट गयी जगह की शनाख़्त
ज़मीं पे बिछ गया गय्युर पत्थरों का दमाग़
तिलिस्म टूट गया
बहार खत्म हुई
मगर नदी ने कहा था
मैं जाविदाँ हूँ, मेरा हुस्न जाविदानी है
मैं जाविदाँ मेरे जज़्बात जाविदानी हैं
मेरे बदन में नदी का बहाव आज भी है
खुमार मौजों का है आज भी लहू में निहाँ
मगर वो छोटी-सी बिफरी हुई पहाड़ी नदी
नज़र कहीं नहीं आती
जब मैं लुहराकापा गया था उस वक़्त दूल्हा भाई वहाँ नहीं थे। न जाने कहाँ थे। वहाँ बस अम्मीजान थीं और कुद्दैसिया। इसके चन्द बरस बाद दूल्हा भाई मए खानदान के रायपुर आ गये और हमारे घर में किरायेदार की हैसियत से रहने लगे। यह वही घर था जो अब्बाजी ने बनवाया था, जिसकी नींव में बचपने में मैं आँख मिचोली खेला करता था। हम लोग अब्बाजी के बनवाए हुए सामने वाले दूसरे घर में रहते थे फिर दूल्हा भाई ने मकान खाली कर दिया और उसी मोहल्ले में हमारे घर के करीब एक बड़ा-सा घर खरीद लिया था, जिसमें बहुत बड़े दो आँगन थे और ये आँगन घर के दोनों रुख घेरे हुए थे। इसमें पीछेवाला आँगन मुर्गियों, बतखों, बकरियों और ख़रगोशों के लिए वक़्फ था। ज़िन्दगी भर जानवरों के साथ रहने की वजह से शायद अब भी जानवरों के बगै़र जी नहीं लगता होगा, लेकिन जानवरों से शग़फ़ क़ायम रहने के बावजूद उनके चेहरे पर एक करख़्तगी आ गयी थी। आँखों में जो मुस्कराहट रहा करती थी, अब खत्म हो गयी, उसकी जगह एक कठोरपन नज़र आने लगा। हर तरह से बहुत बदले हुए नज़र आने लगे।
आगे चलकर हमारे नये घर पर जिसमें वह किरायेदार की हैसियत से रह चुके थे, मिल्कियत का दावा कचहरी में ठोक दिया। अब्बाजी के पास मकान बनाते वक़्त कुछ पैसे कम हो गये थे, दूल्हा भाई से उधार लिया था। रक़म हक़ीर थी, शायद सौ रुपये से भी कम। उसी की बिना पर नालिश की गयी थी। दूल्हा भाई ने जब वह मकान छोड़ा, वहाँ आपाजान और मास्साब रहने लगे थे।
दूल्हा भाई तिकड़मी आदमी थे। न जाने कैसे मुक़दमा जीत भी गये। बच्चों ने मास्साब और आपाजान की ज़िन्दगी हराम कर दी। आख़िर घर से निकालकर रहे। मास्साब सामनेवाले मकान में आ गये। बात किराये की थी। मुक़दमे के दौरान जितनी मुद्दत मास्साब उस मकान में रहे, जिसके ऊपर सारा कज़िया खड़ा हुआ था, दूल्हा भाई ने उस ज़माने का पूरा किराया मास्साब से वसूल किया। इस पर हम सभी को गुस्सा आया। बहनों में भी आपस में कशिदगी और बढ़ गयी।
गरज़ अब दूल्हा भाई के पास तीन मकान हो गये, दो रायपुर में और एक लुहराकापा में। आज हमारे रायपुर के मकान में कोई और रहता है। मकान उसी की मिल्कियत में है। लुहराकापा का मकान भी नहीं रहा और रायपुर का दूसरा खरीदा हुआ मकान भी बच्चों ने बेच-बाचकर उसका वारा-न्यारा कर दिया, पैसा खा-पी गये। सौदा ने क्या खूब कहा है :
पूछा एक रोज़ मैं सौदा से के- ऐ आवारा
तेरे रहने को मुअय्यन भी मकाँ है के नहीं
यकबयक होके बरआशुफ़्ता लगा ये कहने
कुछ तुझे अक़्ल से बहरा भी मियाँ है के नहीं
देखा मैं कस्रे-फ़रीदूँ के दरऊपर एक शख़्स
हल्काज़न होके पुकारा कोई याँ है के नहीं।
तेल वाली नानी
अम्मीजान से अम्मा मुस्तक़िल ख़फ़ा रहती थीं, आपाजान से भी कभी ज़्यादा खुश नज़र न आयीं। वो उन्हें मतलबी और खुदगर्ज़ समझती रहीं। इसमें शायद कुछ हद तक सच्चाई का शाईबा भी था, लेकिन आपाजान थीं बहुत हँसमुख और अच्छी खासी शोबदाबाज़। उनकी हमीदा आपा से बहुत छनती थी। दोनों मिलकर नयी-नयी शरारतें सोच लेतीं और तुर्रा ये कि उस पर बाक़ायदा अमल भी करतीं।
तेलवाली नानी के गुदाज़ फूले-फूले, गोश्त से भरे, गदीले जैसे गाल उन्हें बहुत पसन्द थे। हमीदा आपा से उन्होंने एक दिन कहा-
‘हमीदा, तेल वाली नानी के गाल बहुत अच्छे हैं, एक रेहपट देने में क्या मज़ा आएगा।’
‘बिल्कीस आपा, लेकिन रेहपट कोई कैसे लगाए?’
‘देखती रह, मैं लगाती हूँ।’
अभी नानी ने आँगन में कदम रखा ही था कि बिल्कीस आपा बगुले की तरह लपकीं और आव देखा ना ताव, खींच के एक तमाचा जड़ दिया और बवण्डर की तरह ये जा वो जा, पीछे-पीछे हमीदा आपा खिलखिलाती हुई भागी और ऊपर चाँदनी पर जाकर दोनों तमाशा देखने लगीं। तेलवाली नानी पहले तो शशदर। दूसरे लम्हे जब ख़्याल आया कि उन पर क्या गुज़री है, उनके चौड़े-चकले सीने में मद्दोजज़्जर शुरू हुआ, जो आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता गया, आँखों से दो दरिया फूट निकले और मुँह से दहाड़ें मारकर फ़लक शिगाफ़ चीखें। अन्दर के कमरे से अम्मा हड़बड़ा के निकलीं, दोनों लड़कियों को सख़्त-सुस्त कहा- ‘ना हंजार! आने तो दो इन कमबख़्तों को! ऐसी ख़बर लूँगी कि ज़िन्दगी भर याद रहेगी।’ बिल्कीस आपा और हमीदा आपा हँस-हँस कर खुस-पुस करती रहीं। तेलवाली नानी का रोना भी उन्हें बहुत मज़ेदार लगता था। मैं भी हँस रहा था। बिल्कीस आपा ने हमीदा आपा से कहा- ‘अख़्तर आपा नानी को सिर्फ़ अपनी बातों से रूला देती हैं, महज तेल वाली नानी का बच्चों की तरह बिलबिलाना देखने के लिए।’
अख़्तर आपा, जिन्हें मैं बाजीजान कहता था। उनका तरीक़ा बिल्कुल अनोखा था। वो जिस्मानी तौर पर ज़क नहीं पहुँचाती थीं बल्कि नफ़सियाती सितमरानी का एक तुरफा तरीक़ा अख़्तियार करतीं, ‘अई नानी! ये तुम्हारा क्या हाल हो गया है जी, इतनी झटक गयी हो, आँखें कैसी सूजी हुई हैं बिल्कुल सुर्ख़। क्या हुआ नानी, खैरियत तो है?’
बस इतना सुनना था कि तेलवाली नानी का ज्वार-भाटा शुरू हुआ। बड़ी-बड़ी थल-थल करती छातियाँ ऊपर-नीचे होने लगीं। बड़े-बड़े कूल्हे भींचे, मोटे-मोटे गाल हिलने लगे। सीना जज़्बा-ए-खुद रहमी से लबरेज़, अजीब-सी जुम्बिशों में मुबतला हुआ। बस सारे बदन में एक भूकम्प-सा मचने लगा।
हम लोग यानी बिल्कीस आपा और मैं सूखे मुँह से खड़े ज़ाहिरा हमदर्दी से भरे नानी के तगीयुरात देखते रहे और उनके जाने के बाद वो हँसी! वो हँसी!! सब बाजीजान की दूर रस अक़्ल का लोहा मान गये।
तेल वाली नानी पड़ोस में एक छोटे से घर में अपनी माँ के साथ रहती थीं। घर क्या था, झोंपड़ी थी। एक कमरा, एक बावर्चीखाना, एक छोटा-सा आँगन, दीवारें मिट्टी की, ऊपर टीन की एक छत। एक दरवाज़ा इतना नीचा कि उसमें से झुककर अन्दर जाइये तो ठीक वरना सर टकरा जाने का डर रहता था। नानी उम्र में सत्तर से ऊपर ही होंगी, उनकी माँ उस वक्त 90 से ऊपर थीं। लगभग 110 की उम्र में उनका इन्तक़ाल हुआ। नानी तेल बेचती थीं इसलिए तेलवाली नानी कहलातीं। माँ ठिगनी थीं, नानी ऊँची। माँ सूखी हुई थीं, नानी फ़र्बा, माँ गोरी थीं, नानी काली। माँ कमर से दोहरी हो गयी थीं, नानी सीना तानकर चलती थीं। माँ का चेहरा झुर्रियों से भरा हुआ था, नानी का चेहरा चिकना-चुपड़ा था। माँ की बीनाई तकरीबन खत्म हो चुकी थी, नानी बगैर चश्में के सारे शहर का चक्कर काट लेती थीं। दोनों के हाथ में लाठी थी। दोनों निहायत कंजूस मशहूर थीं।
मैं जब उनके घर जाता, बड़ी नानी की मोटी आवाज़ आती- ‘कौन है?’
‘मैं हूँ नानी, बाबा!’
‘काहे को आया?’
‘हिस्सा लाया हूँ।’
‘हिस्सा? काहे का हिस्सा?’
‘शब बारात का हलवा।’
‘अन्दर आ जा।’
यह कहकर लाठी के सहारे कमान की तरह 90 डिग्री पर झुकी हुई उठतीं और दरवाज़ा खोलकर कहतीं- ‘अन्दर बावर्चीखाने में रख दे।’
‘बर्तन वापस मँगवाया है।’
‘वहीं किसी बर्तन में रख दे और ज़रा दिखा बर्तन।’
मैं कटोरा हाथ में दे देता, उसे टटोल कर देख लेतीं और फिर कहतीं, ‘हमारे बर्तन में हलवा रखकर अपना बर्तन वापस ले जाना।’
मैं जब हलवा रखकर वापस आता तो मेरा बर्तन टटोलकर देख लेतीं और खटिया पर बैठे-बैठे दोनों हाथों से मेरी बलाएँ लेतीं। उसके बाद अपने हाथों से मेरे सारे बदन को टटोल कर जाँचती कि कहीं कुछ चुराकर तो नहीं ले जा रहा है, बिल्कुल वैसे ही जैसे आजकल आतंकवाद के ज़माने में हवाई अड्डों में जाँच पड़ताल होती है। मैं घर पहुँचकर सारा क़िस्सा तफ़सील से बता देता, सब खिलखिलाकर हँस पड़ते।
जब दोनों औरतें मर गयीं, उनके घर में दफ़नाया हुआ कोई सात-आठ तौले सोना निकला। आगे-पीछे उनका कोई और तो था नहीं, सोना सरकारी ज़ब्ती में आया।
बच्चों में एक अजीब स़फाक़ी, बेरहमी का जज़्बा भी होता है। मैंने जो पाटन में बिल्ली के बच्चों को कुएँ में डाल दिया था, वो याद आता है तो महसूस होता है कि हमारे खानदान में इस जज़्बे की कमी न थी। हमारे यहाँ एक नौकरानी थी तारामणि। उसकी बच्ची शान्ति बहुत प्यारी शक्ल की थी। मुझे बहुत अच्छी लगती थी। मैं उसे गोद में लेकर बहुत खुशी महसूस करता था। लेकिन कभी-कभी गर्मियों की जलती हुई छत पर उसे गोद से उतार कर ज़रा-से उसके नर्म नाजु़क पैरों को सीमेंट की छत से छुआ देता था और वो बिलख-बिलख कर रो पड़ती थी। फिर जब मैं उसे फ़ौरन गोद में उठा लेता तो मुझसे लिपटकर रोती रहती थी। मासूम बच्ची माँ से कोई शिकायत भी नहीं कर सकती थी। उसके मुँह से बस इतना सुनने में आता था- ‘तारामनी पानी पिलाओ।’ और जब रोती थी, मुझे और भी प्यारी लगती थी। अब जो सोचता हूँ, दंग रह जाता हूँ कि मुझ में ऐसी सेडीज़्म ऐसी इज़ारिसानी की भी सलाहियत बड़ी हद तक मौजूद थी और ग़ालिबन अभी भी है चाहे उसके इज़हार की नोइयत कितनी ही बदल गयी हो।
मेरे अन्दर एक टार्चर चेम्बर है। इसमें दुनिया भर के शिकंजे, तरह-तरह की मशीनें कारफ़रमा है। न जाने कितने रास्ता चलते लोग, कितनी मोटर गाड़ियों में गुज़रती ख़िलक़त मौत के घाट उतर चुकी है। कतलो ग़ारतगरी ऐसी कि इंसानों के टुकड़े-टुकड़े हो गये हैं और उनको ख़बर भी नहीं। डायरेक्शन करते वक़्त जब मेरा चेहरा सुता हुआ नज़र आता है और दाँत भींचे हुए मालूम पड़ते हैं, कम-से-कम हमारे बुशरा शिनास पुराने ग्रामीण कलाकार सरासीम हो जाते हैं, ये देखकर कि उनका क़ीमा अन्दर ही अन्दर बन चुका है, गो ज़ाहिरा अल्फ़ाज़ और आवाज़ से ऐसा कुछ नज़र न भी आता हो।
मास्साब बिलासपुर में
मास्साब बिलासपुर के थे। बिलासपुर की बातें मुझसे बहुत करते थे। मसलन हरी शेरवानी और शेर गोला लाल तुर्की टोपी पहने निकलते तो देहात की हसीनाएँ मोहित हो जातीं और आवाजें़ करतीं, हाय रे मोर सुव्वा! सुव्वा रे, सुव्वा! छत्तीसगढ़ी में सुव्वा तोते को कहते हैं।
मास्साब के तीन बड़े भाई थे, एक तो उस्मान ग़नी के वालिद थे जिनके दो बेटे थे, दूसरा उस्मान से छोटा शफ़ीक। मास्साब की उस्मान के वालिद से बनती नहीं थी। वो उनसे कभी न मिलते। न खुद उस्मान के वालिद ही उनसे कोई राहो-रस्म रखते, मैंने शाज़ो नादिर ही दोनों को साथ देखा। जब भी देखा, रवा-रवी में देखा। कुछ काम की बातें कीं और चलते बने। बातें आमतौर से आबाई जायदाद की होतीं। बरसों से कुछ घरों के सिलसिले में एक तनाज़ा चला आ रहा था, नौबत अदालत-कचहरी तक आ गयी। उस्मान का ख़ानदान बहुत झगड़ालू था। आखिर मास्साहब हार गये तब कहीं जाकर झगड़ा खत्म हुआ। झगड़ा खत्म हो गया मगर तलख़ी बाक़ी रही। फिर कभी ताअल्लुकात हमवार नहीं हुए। दूसरे भाई थे शरीफ़ साहब, जो हकीम थे और मुज़र्रद थे। उनकी दुकान आरपा नदी के पास सनीचरी बाज़ार के किनारे थी, दुकान ही उनका घर भी था। लकड़ी के तख़्तों का एक चबूतरा जो लकड़ी के छह या आठ पायों पर खड़ा था। उसके पीछे दुकान और घर। बस एक कमरे में दोनों महदूद, जिस पर सामने एक लोहे का दरवाज़ा ऊपर से नीचे आ जाता था और जब बाहर जाते, नीचे उस दरवाजे़ पर एक बड़ा-सा ताला लगा देते थे। अन्दर का कमरा एक क़लमदान से दो हिस्सों में बँटा हुआ था। क़लमदान के पीछे शरीफ़ साहब विराजमान और सामने मरीज़, चारों तरफ अदवियात। क़लमदान के पीछे बिस्तर जिस पर दोपहर को और रात में सो जाते। शरीफ़ साहब भाइयों के जायदाद से मुतअल्लिक झगड़े में शामिल नहीं थे। वो उन बातों से मुस्तग़ना थे।
शरीफ़ साहब के साथ एक पण्डित रहता था। उसके सोने का इन्तज़ाम बाहर के तख़्त पर था। पण्डित की उम्र सौ साल से ज़्यादा हो चुकी थी। शरीफ़ साहब बताते थे कि इसकी उम्र 110 साल से भी ऊपर है। क़दामत आदमी के जिस्म और चेहरे से भी टपकती थी। कमर से दुहरा होकर चलता था, हाथ पाँव की खाल लटक गयी थी। चेहरा झुर्रियों से भरा, बड़ी-बड़ी आँखें बाहर निकली पड़ती थीं, तमाम नीली रगें माथे पर और हाथ पाँव में उभर आयी थीं।
खाना पण्डित पकाता था और बहुत अच्छा पकाता था। वैसे सब्ज़ियाँ भी अच्छी पकाता लेकिन गोश्त खासतौर से बहुत अच्छा पकाता था। बिलासपुर की तरकारियों में मसाले बहुत मखसूस होते हैं, कलोंजी की बहुतायत होती है, जिसकी वजह से खाना खास बिलासपुरी बन जाता है। लेकिन मुझे इतना मज़ेदार लगता था कि पण्डित के हाथ के खाने का मुझे बहुत शौक़ हो गया था। जब भी मौका होता, मैं खाना शरीफ़ साहब के यहाँ खाता।
पण्डित एक ज़माने से शरीफ़ साहब के साथ रहता था। उनका बहुत गिरविदा था, उनकी बहुत खि़दमत करता और शरीफ साहब भी उसका खास लिहाज़ रखते। कहते थे पण्डित कभी बीमार नहीं पड़ता, जब उसे मौत आयी, नींद में आयी। शरीफ़ साहब बताते थे कि एक रात जो सोया तो सुबह देखा कि हमेशा के लिए सो गया है।
मास साहब के तीसरे सबसे बड़े भाई नदी पार रहते थे, मोहल्ले का नाम है चाँटी डीह, जो आरपा के दूसरे किनारे एक टीले पर वाके़े है। ये भी लड़ाका थे, जायदाद के मामले में उनकी भी जीत हुई थी। सबसे पस्ता क़द उस्मान के वालिद थे, शरीफ़ साहब मियाना क़द थे, उनसे ऊँचे मास्साहब और यह सबसे बड़े भाई सबसे लम्बे। क़द की मुनासिबत से उनकी खिचड़ी दाढ़ी भी खासी लम्बी थी। चाँटी ही में दरिया किनारे सबसे ऊँचे टीले पर उनका बड़ा-सा मिट्टी का मकान था, वहाँ वो अपनी बीवी के साथ रहते थे। मास्साब उन्हें भाभी कहते थे, मैं भी भाभी कहता था।
भाभी हँसमुख थी, ऊँचे क़द की थी, बदन गुदाज़, साँवला रंग, चेहरे पर मलाहत, नाक-नक़्श खूबसूरत। मुझसे बहुत तपाक और शक़त से मिलतीं। हाथ में मज़ा था, खाना अच्छा पकाती थीं। तरह-तरह की सब्ज़ियाँ, अनवो-इक़साम की चटनियाँ, मुर्ग़, मछली, झींगा, सब चीजे़ं लज़ीज़। घर सादा था मगर बड़ा था। पहले एक कुशादा बरामदा जिस पर एक बड़ा-सा तख़्त बिछा हुआ था, उसके बाद बरामदे की चौड़ाई का एक उतना ही बड़ा कमरा, उसे पार कीजिए, फिर उसी चौड़ाई का बहुत बड़ा आँगन। आँगन से आगे बढ़िये तो फिर उसी पैमाइश का एक और कमरा और उस कमरे के बाद फिर एक आँगन जहाँ कुछ सब्ज़ियाँ उगायी जाती थीं और उस आँगन की आखरी दीवार के बाद दरिया का किनारा। दोनों कमरों और बरामदे पर छप्पर था और बरामदे के ऊपर एक कोठा जिसमें घर का तमाम अंगड़-खंगड़ पड़ा हुआ था। कुछ ज़मीन वहीं पास में खेती के लिए रख छोड़ी थी।
यानी खाने के लिए तकरीबन सब कुछ घर ही में था। गेहूँ, दाल, चावल खेत से आ जाते, नदी से मछली, झींगा पकड़वा लिया और मुर्ग़ी तो दाल बराबर थी क्योंकि घर मुर्ग़े-मुर्गि़यों से भरा पड़ा था। बस गोश्त और कुछ सब्ज़ियाँ जो घर की बाड़ी में नहीं थी, नदी पार के बाज़ारों से खरीदी जातीं।
बरामदे के एक कोने में बुड्ढा रहता था। हर शख़्स उसे बुड्ढा कहता था। ये आदमी बहुत दिलचस्प था। साँप, बिच्छू, दुनियाभर के कीड़े टोकरियों में, डिब्बों में, माचिसों में उसके पास थे, यही उसका धन्धा था। तरह-तरह के सफू़फ़, अलग-अलग रंग की गोलियाँ बनाने में लगा रहता, दवाएँ बेचता भी था। मरीज़ों को अक्सर मुफ़्त भी दे देता था। गाने गाता था, बातचीत की आवाज़ खरज में और बुलन्द थी। मज़बूत काठी का था। झक सफे़द सिर के बाल, घनी सफ़ेद दाढ़ी, गोरा-चट्टा, ऊँचा-पूरा, सीधा चलता था। बहुत खूबसूरत लगता था। दुनिया देखा हुआ आदमी था, लच्छेदार बातें करता। साँप-बिच्छू के अलावा और दूसरी दुनिया भर की बेहद दिलचस्प कहानियाँ सुनाता। मेरा दिल उसकी बातों में बहुत लगता। मैं उसके साथ घण्टों बातें करता।
बुड्ढ़े का खानदान से कोई ताअल्लुक न था। कहीं से घूमता हुआ आया था, घर का वैसे भी कोई ठिकाना न था। भाभी ने कहा, यहाँ बरामदे में पड़े रहो, बरसों से वहाँ पड़ा था। बीच-बीच में कहीं निकल जाता, कहता जड़ी-बूटी की तलाश में जाना है। महीनों लापता रहता, फिर वापस आ जाता। मैं जब भी वहाँ गया, बुड्ढा मुझे अक्सर मिला। उसका नाम कोई नहीं जानता था लेकिन सब उसे काबिले एहतराम समझते। मास्साहब खुद उससे हँसकर मिलते, मज़ाक करते और बहुत अच्छी तरह पेश आते। एक बार मेरे रहते आरपा नदी में बाढ़ आयी, बुड्ढा मुस्तैदी से नदी के किनारे जा पहुँचा, मैं भी उसके साथ-साथ घर के पीछे नदी के किनारे जाकर बैठ गया। न जाने कितने साँप पकड़े होंगे, कितने बिच्छू, कितने और तरह के जानवर, बुड्ढे की ईद हो गयी। बेहद खुश लेकिन बेहद गम्भीर। आखिर उसका धन्धा था।
बुड्ढ़ा अपना सारा सामान एक झोले में लटकाये निकल जाता, बाज़ार पहुँच खाली जगह देख, एक चादर बिछा देता और उस पर अपना सामान जमाकर खुद सदारत की जगह पर बैठ जाता, साँप, बिच्छू देखकर लोग जमा हो जाते, वो अपनी दवाओं के बारे में बात करता, उनमें जो अज्रज़ा मिलते हैं, उनकी तफ़सील बताता, एक बूँद साँप का ज़हर, क़दुवे के सर के कचूमर में मिलाकर ये गोलियाँ बनी हैं। दिन में दो गोली तीन बार फ़लाँ मर्ज़ के लिए बहुत उपयोगी। मेंढ़क के पैरों को कुचल के उसमें काले बिच्छू के इस हिस्से को पीसकर बनाया हुआ सफ़ूफ़ फ़लाँ बीमारी के लिए, यह दवा गठिया के लिए, वह दमे के लिए, यह सर का दर्द दूर करने वाली, वह बुखार, खाँसी, ज़ु़काम के लिए, वगैरह-वगैरह, साँप-बिच्छू की क़िस्में बताता, उनके खतरनाक पहलुओं पर रोशनी डालता। दवाओं में उनके फ़ायदे समझाता। बहोटी, चार बुँदिया, छह बुँदिया कीड़े उनके खतरे और उनका इस्तेमाल। यह सारी बातें तफ़सील से बयान करता। देहाती जमा हो जाते, ग़ौर से सुनते, उनमें से कुछ लोग दवाएँ भी खरीद ले जाते।
बुड्ढे़ को मदारी नहीं कह सकते, एक ढंग का हकीम या वैद्य कहिये। मगर बुड्ढ़े को देखकर मुझे रायपुर का रंगीला याद आ जाता था। रंगीला पंजाब से आया था, रायपुर की देहाती औरत से शादी कर ली थी, घर खरीदा, सड़क पर मदारी का खेल दिखाना बन्द करके अपना एक दवाख़ाना घर में खोला, सामने एक बोर्ड लगाया, ‘डॉक्टर रंगीला’ जवानी में आया था, बुढ़ापे तक रायपुर ही में रहा, वहीं मरा।
जहाँ हमारे घर की गली बेनसली रोड़ से मिलती थी। मैंने सबसे पहले रंगीला को उस चौक पर देखा था। अच्छा-खासा एक्टर था। बड़े ड्रामाई अन्दाज़ में लोगों को हँसाता। मसलन घुटे हुए सर के फ़ायदे बुलबुलवाले सर के मुका़बले में बयान करते वक़़्त एक्टिंग करके बताता कि हरीफ़ आपके सर के लम्बे बालों को पकड़ सकता है और मुण्डे हुए सर का यह फ़ायदा है कि हरीफ़ का हाथ ठहर नहीं पाता। फ़िसल-फ़िसल जाता है। दोनों पार्ट खुद अदा करता था। उसके खुद के बाल स्याह, घने और घुँघरियाले थे। एक हाथ से अपने सर के बाल पकड़ कर ऊपर उठाता और सख़्त तकलीफ़ का इज़हार करते हुए पंजों पर खड़ा हो जाता। साथ-साथ इजतिजाज करता जाता। वही हाल दाढ़ी रखने वालों का सफ़ाचट चेहरे के मुकाबले में होता। जब अच्छा मजमअ हो जाता और लोग हँसने में लगे रहते तो यकायक एक पिटारी खोलकर ज़ोर से कहता, क्या ही कुण्डल मार के बैठा है, जोड़ा साँप का। यह एक दूसरी किस्म की तफ़रीह होती। साँप-बिच्छू की किस्में बताता और यह समझाने के बाद कि किसमें कितना ज़हर होता है, जब भीड़ और बढ़ जाती तो कहता, अभी एक और साँप बाकी है, हरे रंग का, बाल से बारीक जिसे वो अलग एक डिब्बिया में रखे हुए है। इसी बीच गिरगिट की बात चल पड़ती, साण्डे का तेल निकल आता, कहता ज़रा-सा डण्डी पर लगाइये, नामर्दी काफ़़ूर। यह अपनी अलग एक नोइयत की तफ़रीह होती। बिलाख़िर दवाओं की क़ीमत बतायी जाती, मजमअ छँटना शुरू होता लेकिन फिर भी अच्छी तादाद में लोग फँस चुके होते, जो दवाएँ खरीद कर ही टलते। वो हरा साँप कभी न दिखाया जाता।
रंगीला के हाथों और चेहरे पर नक़्शो निगार गुदे हुए थे। छोटे क़द का था मगर वज़नदार शख़्सियत का मालिक था। कहा करता था मैं साँप पकड़ने का आर्ट जानता हूँ। अभी तक सैंकड़ों साँप पकड़ चुका हूँ। कितने ही साँप मुझे काट चुके हैं। इस जड़ी को यूँ दाँत से छील कर चबा जाइये, साँप का ज़हर छूमन्तर हो जाएगा। लेकिन मैं ये भी जानता हूँ कि एक दिन मुझे मरना है, इसी साँप के ज़हर से। जब रंगीला की मौत हुई तो वह मियादी बुख़ार से हुई।
हमारे ही मोहल्ले में रहता था। जब किसी घर में साँप निकलता, फौरन डॉक्टर रंगीला को बुलाया जाता और रंगीला बड़ी चालाकी से साँप पकड़ लेता, उसके पास एक लम्बी लाठी थी, जिसके एक सिरे पर लोहे के दो अकोड़े लगे थे। बस अकोड़ों को बीच में साँप का सर फँसा लेता और फिर हाथ से उसका गला पकड़ कर झोले में डाल लेता। कभी बगैर लाठी के बड़ी सफाई से साँप को हाथ से पकड़ लेता।
एक बार जब खारून नदी में बाढ़ आयी और आधा रायपुर तमाशा देखने उमड़ आया तो डॉक्टर रंगीला की बन आयी। ढेरों साँप-बिच्छू पानी से पेड़ों से ज़मीन से पकड़ लाया। रायपुर में उसने वो नाम कमाया कि शहर का बच्चा-बच्चा डॉक्टर रंगीला के नाम से वाकिफ़ हो गया।
यह आरपा भी अजीब नदी है। पाट बिलासपुर से लेकर रतनपुर तक बहुत चौड़ा लेकिन यहाँ से वहाँ तक रेत ही रेत। बस इधर-उधर कुछ पानी की धारें बहतीं नज़र आती हैं। बिलासपुर से चाँटी डीह की तरफ और चाँटी डीह से बिलासपुर की तरफ लोग पैदल आते-जाते नज़र आते हैं, साइकिलें लिये नदी पार करते हैं, बैलगाड़ियाँ चलती रहती हैं। कहीं टखनों तक पानी, कहीं घुटनों तक, कहीं-कहीं कमर तक, बरसात के क़रीब के ज़माने में ये भी होता है कि अभी आदमी एक तरफ से चला, दूसरे ने कहा जल्दी करो पानी बढ़ रहा है और जब तक लोग नदी पार करते हैं, नदी इतनी बढ़ जाती है कि दोनों तरफ लोगों की भीड़ खड़ी दिखायी देती है यानी उन लोगों की भीड़ जो अब पानी में क़दम रखने की हिम्मत नहीं कर सकते। नदी पाटो-पाट हो जाती है और धार इतनी तेज़ होती है कि तैराक भी किनारे रुक जाते हैं, फिर जितनी तेज़ी से चढ़ती है, उतनी ही तेज़ी से कभी-कभी उतर भी जाती है और कभी उतरने में दो तीन दिन लग जाते हैं। बरसात के मौसम में हफ़्तों बाढ़ की कैफ़ियत बदस्तूर रहती है।
चाँपा, रायगढ़ की सड़क पर बढ़िये तो बिलासपुर से बाहर निकलते ही आरपा जाकर महानदी में मिल जाती है। बिलासपुर से जाते वक़्त महानदी का लम्बा पुल पार करते ही बायीं तरफ लोग हाथ की उतारी गैर-कानूनी शराब पीते नज़र आते हैं। मेरे ज़माने में वही मंज़र था, आज भी वही मंज़र है सिर्फ़ शराब का मार्केट और बढ़ गया है।
बिलासपुर के पास महानदी जब पुल से आगे बढ़ती है तो मस्तूरी गाँव से ज़रा आगे उसके किनारे शिवरी नारायण का मेला लगता है। छत्तीसगढ़ में मेले बहुत होते हैं लेकिन चन्द मेले पुराने ज़माने से बहुत मशहूर हैं, मसलन राजम का मेला, डोंगरगढ़, रतनपुर, शिवरी नारायण के मेले। मैं उन मेलों में पहले ज़माने में भी गया हूँ और अभी हाल में भी। अब मेलों में न वो जमाव है न वो रौनक। पहले छप्पन छुरी, सर्कस, जादू, गोल घूमते हुए झूले, ऊपर से नीचे आने वाले झूले, बाइस्कोप, यह सब तो होता था मगर होटलें भी भरी होतीं। गहने, कपड़े, खिलौने, सब्ज़ियाँ, फल, उनकी दुकानें दूसरी तरफ मवेशियों का बहुत बड़ा बाज़ार जमा रहता। गरज़ यह कि महज मेला नहीं होता था बल्कि अच्छा-खासा एक कल्चरल सेंटर होता था। अब न तफ़रीह का कोई सामान है न वे दुकानें, वह बाज़ार और न ही मेले जाने वाले लोग, तरक़्की का नतीजा यह है कि जहाँ बहुत कुछ उजड़ा, वहाँ हमारे मेले भी उजड़ गये।
आरपा नदी पर जो रतनपुर जाने के लिए एक पुल था। उस पुल के करीब रफ़ीक भइया का घर था। रफ़ीक भइया मास्साहब के खासुलखास बहुत पुराने दोस्त थे। वो मास्साब को जब भी उनका बिलासपुर जाना होता, खाने पर अक्सर बुलाते। मास्साहब के साथ मैं भी जाता। वहाँ कभी-कभी ग़फ़ार साहब भी बुलाये जाते जो मास्साहब और रफ़ीक भईया के गहरे दोस्त थे लेकिन अक्सर वो मौजूद न होते क्योंकि उनकी बूदोबाश रायपुर हो गयी थी।
जब से मास्साब की आपाजान से निस्बत तय हुई, उस वक़्त से मास्साहब छुट्टियों में मुझे बिलासपुर ले जाते और साथ लिये-लिये घूमते, दोस्तों से बड़े फ़ख्र से कहते ये मेरा होनेवाला साला है। सदर बाज़ार में एक बिसाती की दुकान में गये, दुकानदार से मुझे मिलाया और उससे पूछे बगैर उसके मर्तबानों में हाथ डालकर मुट्ठीभर टाफ़ी यहाँ से, मुट्ठी भर वहाँ से निकालीं और मेरे जेब में डाल दी, पैसे देने का सवाल ही पैदा नहीं होता। मुझ पर मास्साहब की धौंस कायम हो जाती, जो शायद उनका मक़सद भी होता।
या फिर मुझे इस्माइल भैंस की दुकान पर चाय पिलाने ले जाते। इस्माइल भैंस ने चन्द भैंसें पाल रखी थीं और मुहल्ले-मुहल्ले दूध सप्लाई करना उनका वाहिद पेशा था। निरे जाहिल थे, काला अक्षर उनके लिए भैंस बराबर था। नाम ही उनका पड़ गया था इस्माइल भैंस। बिलासपुर में किसी से भी इसी नाम से पूछिये कि इस्माइल भैंस का घर कहाँ है, वो आपको गोल बाज़ार में उनका ठिकाना पूरी तरह समझा देगा। लबे सड़क दुकान और दुकान के पीछे घर। यार दोस्तों ने उनका नाम बहुत सोच समझकर रखा था। भैंस की तरह काले थे, मोटे थे और तोंद बहुत नुमायाँ थी, हालाँकि थे बहुत ताक़तवर और मेहनती। लेकिन आदमी थे पूरा ज़ाफ़रान का खेत। सब दोस्त उनका मज़ाक उड़ाते और हँसते, इस्माइल भैंस उनकी हँसी पर खुद भी हँसते रहते। उनकी तफ़रीह अलग, उनसे कहीं ज़्यादा खुद लुत्फ़अंदोज़ होते, बातें भी कुछ ऐसी करते कि सुनने वाला बिना हँसे न रह सके। रफ़ीक भइया, ग़फ़ार साहब, मास्साहब और इस्माइल भैंस जब मिल बैठते तो हँसी के आबशार लगातार फूटते रहते।
मास्साब शादी होने के बाद भी मुझे मौके़ मौके़ पर बिलासपुर ले जाते थे और फ़ख्रिया अपने नये-पुराने दोस्तों से मिलाते रहते थे। दरअसल मास्साब मुझे बहुत चाहते थे। जब भी बम्बई, देहली से मेरे आने की ख़बर घर पहुँचती, मास्साब खुशी से उछल पड़ते, बाबा आ रहा है, बाबा आ रहा है और जब तक मैं घर रहता, बाज़ार से सौदा सुलफ़ खुद लाते। मेरी पसन्द की सब तरकारियाँ यके बाद दिगरे पकवाते, कभी गोश्त, मुर्गी, कभी करेला, कभी बैगन, कभी मोगरी मछली, कभी झींगे लाते, पकवाते और मेरी रिकाबी में अच्छे-अच्छे हिस्से गोश्त-मछली के अपने हाथ से डाल-डालकर इसरार से शौक़ से खाने की तरग़ीब देते।
आपाजान और मास्साब का पहला बेटा नवेद था जिसने चन्द महीनों की ज़िन्दगी पायी। बहुत खूबसूरत बच्चा था, मैं उसे गोद में लिए-लिए फिरता रहता, बीमार पड़ा तो उसकी दवा-दारू में सारी दौड़-धूप मैंने की, मर गया तो मैं ज़ारो क़तार रोता रहा। उसकी हसरतनाक मौत पर एक जज़्बाती नज़्म मैंने लिखी, जो ज़ाया हो गयी। ये अच्छा हुआ क्योंकि जितना मेरा ग़म उसकी मौत पर गहरा और सच्चा था उतनी वह नज़्म नहीं थी।
नवेद के बाद जावेद बस एक लड़का और आया जो ख़ालसा कॉलेज देहली में अँगरेज़ी पढ़ाता है, नीरज जैन से शादी की है और दो बेटों का बाप है, बादल और कबीर। जावेद के बाद तीन लड़कियाँ नसरीन, सिमीन और खबिस्ता जिसे सब पप्पू कहते हैं।
मास्साब जब बिस्तरे-ए-मर्ग पर थे तो पास बुलाकर मेरा हाथ अपने हाथ में लिया और आबदीदा होकर कहा-पप्पू का ख़्याल रखना। दोनों बड़ी बेटियों की शादी से फ़ारिग़ हो चुके थे, बस एक पप्पू कुँवारी छोड़ गये थे, उसका ग़म उन्हें खाये ले रहा था। इत्तिफ़ाक़ की बात कि उनके इन्तकाल के बाद एक क़लील अर्से के अन्दर पप्पू की शादी एक बहुत अच्छे घर में हो गयी। अब ज़िया और पप्पू शिकागो में है, दोनों मुलाज़मत कर रहे हैं और मज़े में हैं। पप्पू तीन लड़कियों की माँ है, तमकीन, फ़रहीन और नशीत।
पप्पू बचपन में बहुत शरीर थी। मेरी बेटी नगीन के साथ उसे तरह-तरह की शरारतें सूझती रहती थीं, फ़िल्मी गानों की बहर में कभी-कभी तुकबन्दी करके एक हज़्व तैयार कर लेती और दोनों बच्चियाँ उसे गाती फिरतीं और खूब हँसती। एक बार पप्पू ने कहा कि अब्बा बाहर के कमरे में सो रहे हैं, उनके खर्राटे रिकार्ड करेंगे। नगीन और पप्पू दोनों वहाँ टेपरिकार्डर लेकर पहुँच गयीं। मास्साब के खर्राटे रिकार्ड करते वक़्त देखा कि पीछे से हवा भी निकल रही है खर्राटे और पाद दोनों की आवाज़ें रिकार्ड करके खूब हँसती रहीं।
हम लोग घर में चौसर खेला करते थे। मुझे भी चौसर खेलने का शौक था। मैं खेल में बुरा नहीं था। अम्मा, आपाजान, बाजीजान और मैं चार की टीम बनाकर खेलते। अम्मा, मेरी बहनें और मैं खुद सब धोखाधड़ी के आदी थे। लेकिन जब पप्पू खेल में शामिल हो जाती तो कोई न जीत पाता या तो वो और उसका पार्टनर जीतता और या अगर वो अकेली चार के साथ या दो के साथ खेलती तो अकेली जीत जाती। इसका ताल्लुक़ उसकी अच्छी चालों और सिर्फ़ ज़हानत से नहीं था बल्कि चीटिंग से भी था। पप्पू को हार पसन्द न थी। कभी-कभार हार जाती तो उसका मूड खराब हो जाता। बहुत ज़हीन थी मगर जबरदस्त चीट भी थी। ज़रा किसी काम से बाज़ी छोड़कर आप उठने पर मजबूर हुए और पप्पू ने आपके मोहरों की जगह बदल दी, आप हैरान। कुछ कहिए तो एक तूफ़ान खड़ा हो जाता। ये देखकर हम लोग कभी-कभी कोशिश करते कि खुद हार जाएँ।
नसरीन की शादी क़ैस से हुई जो बिहार के सर्किल इन्स्पेक्टर के साहबज़ादे हैं। दोनों रायपुर में हमारे घर रहते हैं। दो बेटे शक़ील और मेअराज परवेज़। एक दुर्ग में दूसरा रायपुर में मुलाज़मत करता है और एक बेटी निम्मा है जो बिलासपुर में रहती है। तीनों की शादी हो गयी है और तीनों अपने-अपने बच्चों के साथ रहते हैं।
मास्साब बहुत मूड़ी आदमी थे। रूठ गये तो रूठ गये। मना-मनाकर थक जाइये, नहीं खाएँगे तो नहीं खाएँगे। इब्त़दाई ज़माने में तो आपाजान से खूब बनती थी, उनकी इज़दिवाजी ज़िन्दगी के आख़री चन्द साल कुछ इस तरह गुज़रे कि वो आपाजान से कुछ चिढ़ने लगे थे। अम्मा भी आपाजान से नाख़ुश रहने लगी थीं। कहती थीं बिल्कीस हमेशा से मतलबी रही है। मोनिका को उनकी सोहबत में बहुत अच्छा लगता लेकिन जब आपाजान ननद होने के नाते आहिस्ता से कुछ जल कटी कह देतीं तो मोनिका भी उखड़ जातीं। वैसे आपाजान के पास गुफ़्तगू के बहुत से मौजू़अ थे। वो कैसर की तरह नहीं थीं कि हर बात को बहुत तफ़सील से बतातीं, कई बात दुहराये बिना उसे इत्मीनान न होता, नतीजा हम लोग सब बोर हो जाते। आपाजान बहुत शिगुफ़्ता तबियत थीं, उनकी बातों में बहुत रौनक लोगों को महसूस होती। बअसानी हँसतीं और हँसाती। अक्सर कैसर की बदी करतीं, कैसर भी अक्सर उनसे नाखुश नज़र आतीं। बहरहाल अम्मा का यह ख़्याल कि बिल्कीस मतलबी है, शायद उतना ग़लत भी न था। आपाजान के मिज़ाज में कुछ सतहीपन कुछ फरुइयत ज़रूर थी। आराम तलब भी थीं, एक हद तक मतलबी भी नज़र आती थीं। नगीन मेरी बेटी के साथ उनकी बनती भी थी और झगड़े भी हो जाते थे। इन तमाम चीज़ों के बावजूद हम लोगों को आपाजान के साथ बैठकर बातें करने में बहुत मज़ा आता था। असल में वो कई तज़ादों की मुरक्कब थीं, इसीलिए बहुत दिलचस्प थीं।
बहरहाल मास्साब का नुक्ता-ए-नज़र शायद कुछ और हो मेरा अपना यह मुशाहिदा है और तजुर्बा भी कि मियाँ-बीवी या तो इब्तदाई तफ़र्रूक़ात के बावजूद पुराने होकर एक दूसरे के और क़रीब आ जाते हैं या इब्तदाई क़ुरबतों के बावजूद पुराने होकर एक दूसरे से ऊब जाते हैं। मास्साब शायद आपाजान से कुछ ऊब से गये थे। कभी-कभी ऐसा लगता था कि उन्हें उनकी कोई बात पसन्द नहीं आती है। उस ज़माने में उनकी तमाम तर तवज्जो क़ैसर पर थी।
क़ैसर हर शख़्स की बँधुवा गुलाम, उसे किसी काम से इनकार न होता, हर किसी का हुक्म मान लेती। आपाजान से झगड़ा भी करती, उनका कहना भी मानती। नौकरों को खड़ी-खड़ी सुना भी देती, नौकर-चाकरों की ख़ातिर मदारत में भी वही लगी रहती। मास्साब भी उससे नरमी बरतते, वह उनका हर काम कर देती। उन्हें खाना खिलाना उसी की ज़िम्मेदारी थी, हालाँकि जब मास्साब रूठ जाते तो उन्हें मनाना उसके बस में भी न होता।
मौलवी यासीन का मदर्सा
मौलवी साहब जब खाते थे तो बहुत मज़े ले-लेकर दायाँ कन्धा उचका-उचका कर खाते थे। कन्धा और कभी नहीं उचकता, सिर्फ़ खाते वक़्त उचकता था, जिससे बच्चे समझ जाते थे कि मौलवी साहब को मज़ा आ रहा है।
मौलवी यासीन तीनों वक़्त का खाना मदर्से ही में खाते, सुबह का नाश्ता, दोपहर और रात का खाना नौकर घर से लाता था। घर मदर्से से लगा हुआ था। वहाँ से मुलाज़िम कपड़े में लपेट कर गर्म-गर्म फ़ुल्के भाग-भाग कर लाता जाता था, बड़े मौलवी साहब चपातियाँ क़ोरमे के साथ खाते रहते थे। बच्चे बैठे आमूखता पढ़ते रहते थे और बड़े मौलवी साहब का मुँह ताकते रहते थे। उनके स्याह होठों को जो असली घी से चमक उठते थे, ललचाकर कभी-कभी देख लेते और फिर अपना-अपना सबक़ हल्की आवाज़ में याद करने में लग जाते।
घर मदर्से से बिल्कुल लगा हुआ था। एक गलीनुमा रास्ता मदर्से के कमरे की चौड़ाई के बराबर आपको मदर्से के अन्दर ले आता था। घर से मदर्से तक का रास्ता कोई मिनट दो मिनट का होगा। नौकर भागे-भागे खाना लाने पर मजबूर था, क्योंकि बड़े मौलवी साहब गर्म-गर्म खाना चाहते थे, चुनांचे नौकर को घर से मदर्से के इस कमरे तक दौड़ लगाने में मुश्किल से दस-बीस सेकेण्ड लगते होंगे। वो भागकर गलीनुमा रास्ते से मदर्से पहुँचकर अपना सन्तुलन सम्भाले हुए तेज़ी से एक यू टर्न लेता और दन से कमरे के अन्दर पहुँचकर चपाती पेश कर देता था। जब तक मौलवी साहब एक फुलका गोश्त के साथ लगाकर चट कर लेते, मुलाज़िम दूसरा गर्म फुलका लिये पहुँच जाता। मौलवी साहब खुश, बच्चे हैरान। हमने मुलाज़िम को गिरते-पड़ते फुलके लाते हुए भी देखा। हम मुलाज़िम की चपातियाँ लाने की फुर्ती, मौलवी साहब की खाने की फुर्ती और मुलाज़िम के बार-बार गिरते-गिरते बच जाने का कमाल, इन तीनों चीज़ों को देखकर सख़्त तअज्जुब में भी रहते कि टाईमिंग इतनी परफ़ेक्ट क्यूँ कर रहती है। किसी दिन ये क्यों नहीं होता कि मौलवी साहब एक फुलका हलक़ से उतारकर दूसरे फुलके के इन्तज़ार में बैठे नज़र आ जाएँ या फिर भागकर फुलके लाने में किसी दिन मुलाज़िम अपना तवाज़ू क़ायम न रख सके, रपट कर गिर जाए, धड़ाम से मुँह के बल फ़र्श पर आ जाए, फुलका उसके सर से कोई तीन-चार फुट आगे निकल जाए, मौलवी साहब उस पर बरस पड़ें और बच्चे सारे एक साथ हँस दें।
हम लाख चाहते रहे कि ऐसा किसी दिन हो जाए पर ऐसा किसी दिन नहीं हुआ। खाने में से कभी क़ोरमे की खुश्बू, कभी खिचड़ी में से असली घी की खुश्बू, कभी हरे धनिये की खुश्बू हमारी नाक तक पहुँचती रहती, हम खुश्बू सूँघकर सब्रो शुक्र करते रहे, अपना सबक़ याद करते रहे, मौलवी साहब हर रोज़ खाते रहे! खाते रहे! और बच्चे तमाम उनका मुँह तकते रहे, सबक़ पढ़ते रहे। गोया अपनी आँखों और नाक से बच्चे भी मौलवी साहब के साथ खाना खाने में शरीक रहते।
उनके साथ बहुत शफ़कत और प्यार का बर्ताव करते थे। मदर्से के उस कमरे के ऊपर, जहाँ मौलवी साहब अपने क़लमदान के पीछे बैठे खाना खाते थे और दूसरे औक़ात पर वहीं बैठे लड़कों को पढ़ाते थे, एक और कमरा था, जहाँ वो दिन में खाना खाने के बाद कुछ देर आराम करते और रात को वहीं सोते। घर जहाँ से खाना आता था, वहाँ सिर्फ़ हफ़्सा आपा रहा करती थीं। कभी-कभी दिन में हफ़्सा आपा के घर जाकर बैठ जाते, उस घर में पहले एक छोटी बैठक, उसके बाद आँगन, आगे बढ़िये तो एक बरामदा जहाँ हफ़्सा आपा बैठकर खाना पकातीं थीं, आखिर में एक छोटा-सा कमरा जहाँ वो सोती थीं। कभी कोई मौलवी साहब से मिलने आ जाता तो आमतौर से मदर्से ही में मिलते, वहीं बाहर से चाय मँगाई जाती, चाय पीते और बातें करते। कभी अगर हफ़्सा आपा के घर हुए तो लोगों से मिलने हफ़्सा आपा की बैठक में आ जाते।
मौलवी यासीन लम्बे क़द के थे, बदन गुदाज़ था, चेहरे पर खूबसूरत आँखों की वजह से नर्मी थी, नाक सुतवाँ, स्याह लम्बी दाढ़ी जो बाद में खिचड़ी हो गयी थी, सर के बाल ख़शशी, पेशानी पर सज़दों का काला चाँद। मदर्से में लुंगी और कुर्ता, सर पर ख़ाकी घास की जालीदार टोपी, पैरों में खड़ाऊ पहनते। जुमे के दिन शरई पायजामा कुर्ता, सफ़ेद साफ़ा और पम्पशू पहनकर बैरन बाज़ार की मस्ज़िद में नमाज़ पढ़ाने जाते। उस मस्ज़िद को मौलवी यासीन के दुश्मनों ने आड़ी मस्ज़िद नाम दे रखा था। ईद-बकरईद में बड़े कर्रो फर से मदीने का एक शानदार चुग़ा कुर्ते पर पहने, कन्धे पर एक लम्बा पीली कशीदाकारी वाला रूमाल डाले उसी मस्ज़िद में नमाज़ पढ़ाने आते। मदर्से में या तो उनके शागिर्द रशीद हाफिज़ इस्हाक़ जुमे की नमाज़ पढ़ाते या फिर उनके वालिद जिन्हें सब बड़े हाफ़िज़ जी कहते थे।
मौलवी यासीन की आवाज़ बहुत मीठी थी। लेकिन जब किसी पर तंज करना हो तो उसी मीठी आवाज़ के सुरों में ज़हर बुझा हुआ महसूस होता था और ये नौबत अक्सर आती थी। मसलन एक दिन मैं घर के किसी काम से या शायद घर से हिस्सा लेकर बड़े मौलवी साहब के पास मदर्से गया। मदर्से के दरवाजे़ पर दस्तक दी, हुक्म था कि जो बच्चों को पढ़ाने के अवक़ात हैं, उनके अलावा अगर कोई किसी और वक़्त आए ये तो बिला इजाज़त अन्दर ना आये।
मौलवी साहब ने कहा, कौन?
‘मैं हूँ।’
‘अमा मैं का कोई नाम भी है?’
‘बाबा हबीब अहमद खाँ।’
‘अन्दर आ जाइये।’
मौलवी साहब के अल्फ़ाज़ कुछ इस तरह से मेरे कान में पड़े कि जी चाहा उल्टे पाँव घर भाग जाऊँ। कभी सिर्फ़ ‘जी!’ कुछ इस तरह से कहते कि आदमी का दम निकल जाए। वैसे शफ़क़त भी आवाज़ से उतनी ही झलकती थी जितना तंज़।
एक बार मदर्से के कुछ लोगों के अलावा मुझे भी अपने साथ भाटापारा के किसी गाँव में दावत पर ले गये। मेज़बान मौलवी यासीन के मौतक़ि में से थे, गाँव के मालगुज़ार थे और पैसे वाले थे। दावत भी बहुत पुर तकल्लुफ़ थी। उस दावत का पुलाओ, दालचा, फ़िरनी, बर्फ़ में लगे आम मुझे आज तक नहीं भूले। मैं भी सैर होकर खाया, मौलवी साहब भी अपने उसी अन्दाज़ से दायाँ कन्धा उचका उचका कर खाते रहे। इतना तो मैं समझ गया था कि उनका दायाँ कन्धा ही क्यों उचकता है, दूसरा कभी क्यों नहीं, क्योंकि जिस हाथ में खाते वक़्त जुम्बिश थी उसी हाथ में तार बर्की भी थी। इसलिए कि दूसरा हाथ आमतौर से दूसरे काम के लिए छोड़ दिया जाता है। हाँ अगर मौलवी साहब लेफ़्ट हेण्डर होते तो और बात होती।
फिर भी जिस बात पर मैं ग़ौर करता रहा वो यह थी कि मौलवी साहब की उँगलियों से मुँह में आने वाला लुक़मा पहले ही से तसव्वुर में लुक़मे का ज़ायका पैदा कर देता है, या मुँह में लुक़मा आ जाने के बाद जायक़ा कन्धे तक उतर आता है, लेकिन टाईमिंग कन्धा उचकने की कुछ ऐसी थी कि किसी नतीजे पर न पहुँच सका।
मौलवी यासीन हर रोज़ सुबह के नाश्ते में बिला नागा बस खिचड़ी खाया करते, लेकिन हफ़्सा आपा की पकाई हुई खिचड़ी कुछ ऐसी होती कि जो पुलाओ को भी मात करे। खिचड़ी के ऊपर ख़ालिस घी में ब्राउन की हुई प्याज़ का तड़का होता, घी की महक मदर्से के पूरे कमरे में बस जाती और सब बच्चे खिचड़ी चखे बगैर सिर्फ़ खुश्बू सूँघ-सूँघ कर सख़्त परेशान हो जाते। ऐसे में भला सबक़ याद करने में किसका दिल लगता। खाने से फ़ारिग होकर मौलवी साहब सबक़ सुनते, बच्चे सबक़ अच्छी तरह याद न होने की अलग डाँट खाते।
दोपहर को कभी कोरमा, कभी गोश्त, कभी मुर्ग़ का और रात को सब्ज़ियों की तरकारी-दाल का बच्चों पर जुल्म कम से कम दिन में दो बार ज़रूर होता, क्योंकि मग़रिब की नमाज़ के बाद बाहर से आने वाले तुलवा के लिए कभी क्लास न लगती। डिनर का ज़ुल्म मदर्से में रहने वाले यतीमों के सर रहता।
मौलवी यासीन की शख़्सियत में बहुत रोब था, लेकिन उनके वालिद हाफ़िज़ जी की शख़्सियत का रोब एक बिल्कुल अलग चीज़ था। मौलवी साहब तो कभी कभार किसी हमजोली के साथ हँस भी लेते थे। हाफ़िज़ जी को कभी किसी ने मुस्कराते भी न देखा होगा, हँसना तो दूर की बात है।
एक यतीमों यसीर बच्चा पैदाईशी नाबीना, तुमसर के पास के किसी गाँव से हाफ़िज़ जी अज़ राहे तरह्हुम ले आये थे, उसकी सआदतमन्दी, शराफ़त, हाफ़्ज़ा और मज़हबी रूझान देखकर उसे कु़रान हिफ़्ज़ कराने में लगे थे। लड़के को हुक्म था कि उनके पीछे-पीछे घूमे और याद किया हुआ सूरा सुनाता रहे। हाफ़िज़ जी अपने काम से लगे रहते, मदर्से में कभी किसी काम से ऊपर जाते, कभी नीचे आते, कभी मदर्से के पत्थर की सहन में वज़ू करने बैठ जाते, कभी मदर्से से बाहर सड़क पर किसी काम से निकल जाते, लड़का जिसका नाम अब्दुल लतीफ़ था, हम उसे बाद में हाफ़िज़ नाबीना कहने लगे थे, मुस्तक़िल उनके पाँव की चाप सुनकर उनके पीछे-पीछे कुरान की आयतें पढ़ता घूमता रहता और कभी कोई ग़लती करता तो हाफ़िज़ जी ‘हैंय, हैंय’ कहकर टोक देते, अब्दुल लतीफ़ आयत दुहराता, अपनी ग़लती ठीक करता और आगे बढ़ जाता। हम उसकी कुरान की तिलावत की बहुत तेज़ आवाज़, बीच-बीच में हाफ़िज़ जी की ‘हैंय हैंय’ की आवाज़ और एक ज़रा ख़ामोशी के बाद अब्दुल लतीफ़ की अज़सरे नौ तिलावत शुरू करने की आवाज़ सुन-सुनकर हैरत में डूबे रहते।
अब्दुल लतीफ़ का हाफ़िज़ा तो खैर था ही कमाल का, हाफ़िज़ जी का अपने रोज़मर्रा के सारे काम बदस्तूर करते रहने के बावजूद हमह तन मुतवज्जो रहना भी लाजवाब था। चन्द ही हफ़्तों में उसने कुरान के पूरे तीस सीपारे हिफ़्ज़ कर लिये थे।
हाफ़िज जी की आवाज़ खरजदार और बहुत दबंग थी। हमको मौलवी यासीन से इतना डर नहीं लगता था जितना कि हाफ़िज़ जी से। हमारे घर उनका आना-जाना नहीं था। अलबत्ता मौलवी यासीन ‘आपा’ पुकारते हुए आ जाते थे और अम्मा से बहुत फुर्सत से बातें किया करते थे। अम्मा अन्दर के कमरे में पर्दा कर लेती थीं, मौलवी साहब बरामदे में कुर्सी पर बैठ जाते। कमरे का दरवाज़ा भेड़ लिया जाता और दरवाजे़ का पर्दा गिरा रहता, मौलवी साहब पान नहीं खाते थे, चुनांचे नाश्ता पेश किया जाता और चाय। उसके बाद सौंफ, इलायची, लौंग अौर छालिया या गुटका।
इस्हाक़ साहब जब देवबन्द से तालीम हासिल करके वापस आये तो पहले तो बच्चों को पढ़ाना और नमाज़ की इमामत उन्हें सौंपी गयी, फिर जब मौलवी यासीन ने बुढ़ापे की तरफ क़दम बढ़ाया तो मदर्से का कारोबार सारा उन्हीं पर छोड़ दिया गया। कुछ दिनों यह सिलसिला जारी रहा, लेकिन जब यह सुना कि हाफ़िज़ इस्हाक़ महासमुन्द के अपने गाँव की किसी बेवा औरत के साथ रहने लगे हैं तो बड़े मौलवी साहब उनसे खिंच गये और मौलवी नवाब को अपना जानशीं मुक़र्रर कर दिया। हाफ़िज़ इस्हाक़ अपने गाँव में रहने लगे थे। ग़ालिबन उनकी दाश्ता जायदाद वाली थी। बाद में उस बेवा से निकाह पढ़वा लिया। लेकिन मौलवी यासीन से अन-बन बदस्तूर रही, बल्कि कशीदगी कुछ और बढ़ गयी। कुछ मज़हबी इख़्तलाफ़ात की बिना पर भी हाफ़िज़ इस्हाक दूर हो गये थे। मौलवी साहब की वफ़ात के बाद जब रायपुर आते तो अम्मा से मिलने ज़रूर आते। अम्मा की खुशनोदी जो पहले उन्हें हासिल थी वो अब बाक़ी नहीं रही थी, हालाँकि अम्मा बज़ाहिर तपाक से मिला करती थीं।
मौलवी नवाब मुझसे बहुत छोटे थे। बहुत सआदतमन्द खुश एख़लाक और मेलजोल रखने वाले आदमी थे। मदर्से की मसनद जो हाफ़िज़ इस्हाक़ को मिलने वाली थी, उन्हें सौंप दी गयी। हमारे घर अक्सर ख़ैरियत दरयाफ़्त करने आया करते थे। जब भी आते ज़रूर पूछते, बाबा दिल्ली से कब आ रहे हैं। मैं रायपुर जाता तो वहीं उसी क़लमदान के पीछे बैठे हुए मिलते। मैं उनके बराबर बैठ जाता, दोनों कुछ मदर्से की, कुछ दिल्ली की बातें करते। मैं कहता इन किताबों का क्या होगा दीवारों के कांस पर चारों तरफ दबीज़ मुजल्लिद किताबें धूल से अटी हुई न जाने कब से रखी हुई थीं। ये किताबें मैं बचपन से देखता चला आ रहा था। मौलवी नवाब बोलते, आपका ज़माना लद गया। उस वक़्त कोई पढ़ा लिखा आदमी इल्मो फ़जल में दिलचस्पी रखने वाला आ निकलता था, पूछता था कि फलाँ किताब आपके यहाँ है या नहीं, होती तो किसी बच्चे को हुक्म दिया जाता कि सीढ़ी लाओ और वो किताब कांस से निकालो। किताब न होती तो कहता मैं मँगवा दूँगा। अब कोई किताब का पूछने वाला ही बाक़ी न रहा। मैं कहता, इसका ये मतलब तो नहीं कि ये बेशबहा ख़ज़ाना कीड़ों के हवाले कर दिया जाए। नवाब साहब कहते कि मदर्से के पास पैसे कहाँ हैं इस काम के लिए।
कभी मौलवी नवाब चंदे के सिलसिले में देहली आते तो मुझसे मिलने ज़रूर आते। मैं भी जब रायपुर जाता तो कम से कम एक बार मिल लेता। जब तक मौलवी नवाब थे, चंदा मदर्से के लिए कुछ न कुछ देता, कभी ये कहकर कि मदर्से की गिरती दीवार के लिए, कभी पेड़ पौधों की देखभाल के नाम से, कभी मज़ीद किताबें खरीदने के सिलसिले में। मज़ीद किताबें? मौलवी नवाब एकबारगी बोल पड़े। अरे साहब अरबी की एक दबीज़ कमयाब निहायत क़ीमती किताब जो हमारे पास थी, उसका उर्दू में तीन ज़िल्दों में तर्जुमा हुआ था, वो भी साथ वहीं रखी हुई थीं; एक दफ़ा मुझे उन किताबों में हवाला देखने की ज़रूरत पेश आयी, मैंने कांस की तरफ आँख उठायी, क्या देखता हूँ चार ज़िल्दों की वो जगह जहाँ वो किताबें रखी हुई थीं, खाली पड़ी है। मैंने दरयाफ़्त किया, लड़का सारी किताबें छान लेने के बाद कहने लगा, वो किताबें तो कहीं नज़र नहीं आतीं।
मैंने कहा, ‘चोरी तो नहीं हो गयीं?’
‘और क्या? ज़रूर चुरा ली गयीं, बाज़ार में बेच दी गयी होंगी।’
मदर्से के ज़वाल की ये शुरूआत थी। ऱता-ऱता मदर्से के पीछे जो एक छोटा-सा मकान था, जिसमें हाफ़िज नाबीना अपने बीवी बच्चों के साथ रहते थे, वो मुक़दमेबाज़ी का शिकार हो गया, उसके बराबर लगा हुआ एक बड़ा-सा घर था, उसके मालिक ने दावा कर दिया कि हाफ़िज़ जी का घर भी मेरी ही प्रापर्टी है। वो मुक़दमा जीत भी गया। इधर मदर्से की तौसी की गई ताकि हाफ़िज़ नाबीना को सर छुपाने की जगह मिल जाए। इस कोशिश में वो गोंदनी का बड़ा पेड़ भी काट दिया गया, जहाँ हम लोग अपने बचपने में पत्थर के फ़र्श पर पक्की-पक्की बिखरी हुई गोंदनियाँ चुन-चुनकर खाया करते थे। उसके साथ ही पीछे की दीवार पर पड़ी बेल, फूलों की क्यारी जो बराबर की एक दीवार के साथ-साथ मदर्से की गलीनुमा रास्ते तक चली गई थी वो भी ग़ायब। मदर्से के दूसरे कमरों के ऊपर मज़ीद एक और कमरा बनवाया गया। उस नये कमरे तक पहुँचने के लिए मज़ीद एक सीढ़ी निकाली गयी। दीवारें अन्दर बाहर की सारी की सारी तरह-तरह के नये सिन्थेटिक बदनुमा रंगों में पोत दी गयी। कांस में रखी हुई किताबें नदारद। गरज मदर्सा वो मदर्सा नहीं रहा जो हम जानते थे।
हम सब मौलवी यासीन के मदर्से के पढ़े हुए थे। भाईजान से लेकर आपाजान, बाजीजान, मैं और मेरे बाद कैसर सब उसी मदर्से की तालीम में अपने-अपने वक़्त पर शामिल रहे। आमदनामा, मामुक़ीमा, सादी की ग़ज़लों का मजमुआ ‘गुलिस्ताँ’, सादी की नस्री हिक़ायतों का मजमुआ ‘बोस्ताँ’, ये सब किताबें निसाब में शामिल थीं। क़ुरआन ख़त्म करना हर तालिबे इल्म के लिए फ़र्ज था। मैंने डिप्टी नज़ीर का कुरआन का तर्जुमा भी पढ़ लिया था। मौलाना अबुल कलाम का तर्जुमा जो मदर्से के मुदरिसों की नज़र में मायूब समझा जाता था, मैंने बरसों बाद पढ़ा, मुझे बहुत पसन्द आया।
क़स्सुल अम्बिया घर में थी, वो मैंने घर में पढ़ी, हालाँकि वो किताब भी मदर्सेवालों के लिए मातूबो मायूब थी। घर में मैं उर्दू के नॉवेल भी पढ़ा करता था। मेरे तकिये के नीचे जब अब्बा जी ने बेहराम, सुल्ताना डाकू, नीली छतरी, दो रंगा शैतान, लाबुते फिरंग जैसे नॉवेल रखे हुए देखे तो कहा, इन फ़जूल किताबों में वक़्त क्यों ज़ाया करते हो। चुनांचे मैं डिप्टी नज़ीर की तौबतननसूह जैसी किताबों और मौलाना अब्दुल हलीम ‘शरर’ के नॉवेलों पर आ गया। बहनें औरतों की किताबें पढ़ा करती थीं, मसलन तालीमे निस्वां, बैताल पच्चीसी।
छोटे मौलवी साहब को न मौलवी यासीन पसन्द करते थे न हमारे घर का कोई शख़्स। कोई न कोई नाम तो उनका होगा ही लेकिन सब लोग चूँकि उन्हें छोटे मौलवी साहब ही कहते थे इसलिए हम भी उसी नाम से उन्हें याद करते। उनका नाम उन्हीं से मालूम करना हमारे बस का रोग नहीं था। अम्मा को शायद मालूम रहा होगा। वो गुज़र गयीं, अब कोई नहीं रहा जिससे मालूम किया जाए।
बहरहाल छोटे मौलवी साहब खुशामदी थे। हर मुतमव्वुल शख़्स के आगे उनका दस्ते तलब दराज़ रहता था, अय्यार, मक्कार मशहूर थे। पहले पहल मौलवी यासीन के मदर्से ही में मुलाज़िम थे। फिर नवाब खुज्जी जो मदर्से आते रहते थे, उनके बहुत गिरविदा हो गये। बिलाखिर नवाब ने उन्हें अपने यहाँ नागपुर बुला लिया था। वहाँ बरसों बड़े ठाठ से रहे, हमेशा लेंडी तर। मुदर्रिसी ही के काम पर फाइज़ थे यानी नवाब के और पड़ोस के बच्चों को पढ़ाते थे। तनख्वाह माकूल थी और ईनामो इकराम अलग। नवाब ने उनकी इज़्ज़तो तौक़ीर बहुत बढ़ा रखी थी।
हमने जो देखा वो ये कि नवाब खुज्जी के गुज़र जाने के बाद छोटे मौलवी साहब ने फिर से मौलवी यासीन के मदर्से में पनाह ली थी। पनाह तो उन्हें मिल गयी थी लेकिन बड़े मौलवी साहब उनसे खुश नज़र नहीं आते थे और हम थे कि उनसे बिल्कुल आजिज़ आ गये थे।
छोटे मौलवी साहब ने अपने हाथों के नाख़ून बहुत बढ़ा रखे थे और उन्हें बच्चों के लिए इज़ा रसानी का हथियार बना लिया था। जिस कमरे में बड़े मौलवी साहब बैठते थे, उसके बराबर वाले कमरे में बैठे बच्चों को पढ़ाया करते और बच्चों का हाथ खींचकर अपने लम्बे-लम्बे नाख़ुनों से गोश्त में गड़ा देते, चिमटियाँ लेते, चुटकियाँ भरते, कुछ इस तरह से कि बच्चों के हाथ सुर्ख हो जाते और कभी-कभी जख़्म आ जाता। बच्चा जब तक तकलीफ़ से तड़फ न जाता, हाथ न छोड़ते। बच्चे ग़लतियाँ करने से डरने लगे थे। इस डर की वजह से ग़लतियाँ कम नहीं होती थीं, और बढ़ जाती थीं। इन बच्चों में मैं भी शामिल था। जैसे ही किसी बच्चे की आमूख्ता सुनाने की बारी आयी कि उसकी पहले ही से कँपकँपी छूटी। दूसरे बच्चे पढ़ना छोड़ उसकी तरफ खौफ़ज़दा आँखों से देखते रहते।
छोटे मौलवी साहब गिड्डे थे, गोरे थे, खिज्जी दाढ़ी रखते थे और पतली-पतली मूँछे। खुशपोश थे। सर पर साफ़ा जो बाद में कपड़े की टोपी से बदल गया था। टोपी ऊँची दीवार की, उस पर पीले धागे की कशीदाकारी, कन्धे पर लम्बा रूमाल, वो भी पीली कशीदाकारी वाला। कभी-कभी शेरवानी में भी नज़र आ जाते। आमतौर से धारीदार रंगीन नफ़ीस सूती कुर्त्ता और तंग पायेंचों की सफ़ेद शलवार और ब्राऊन पम्पशू पैरों में पहनते। हमने उन्हें इसी लिबास में तक़रीबन हमेशा देखा।
बड़े मौलवी साहब के ज़माने में यानी अपने लड़कपन में जु़हर और मग़रिब की नमाज़ पढ़ने मैं अब्बा जी के साथ चला जाता था। कभी चूक जाता तो मौलवी साहब टोक देते, आपको मग़रिब की नमाज़ में नहीं देखा! मैं क़ायल ज़मीन में गड़ जाता।
अब्बाजी पंज वक़्ता नमाज़ अदा करने के आदी थे। मुँह अँधेरे उठकर मुलाज़िमा को नाम से पुकारते, शफ़क़त से नाम को लम्बा करते हुए ‘तारा-अ-अ’। तारा फौरन उठ बैठती, वजू़ के लिए पानी लाकर रख देती, अब्बा जी फ़ज्र की नमाज़ कभी मस्ज़िद जाकर कभी घर में अदा करते। उसके बाद एक लम्बे अर्से तक वज़ीफ़ा करते, या कुरआन हल्की आवाज़ में हिफ़्ज़ करते हुए बरामदे में देर तक टहलते रहते।
तारा उनकी ख़िदमत में लगी रहती। पस्ता क़द, गुदाज़ बदन तारा के चेहरे पर मलाहत थी। मुझसे भी बहुत प्यार से पेश आती। मुद्दतों आती रही, मुझे पूछती, अब्बा जी की बातें करती।
रमज़ान के दिनों में बड़ी रौनकें रहती। सहरी के वक़्त सब भाई-बहन चूल्हे के क़रीब जमा हो जाते, सहरी में अच्छे-अच्छे पकवान पकते, मैं कभी-कभी रोज़ा रख लेता लेकिन रोज़ा रखूँ न रखूँ सहरी और इफ़्तार में ज़रूर शरीक होता। सहरी के वक़्त फ़क़ीर फुक़रा तरह-तरह की दिलचस्प आवाजे़ं लगाते हुए, उठो मोमिनों, जागो कहते हुए सड़कों पर उबल पड़ते। उसी ज़माने में मैंने फ़कीरों को कलाई की छड़ें एक हाथ के डण्डे पर बजाते बड़ी खुश इलहानी से गाते हुए पहली बार सुना था। उनका अन्दाज़, उनकी धुनें ‘आगरा बाज़ार’ के गानों में इस्तेमाल करने का ख़्याल यहीं से पैदा हुआ था।
1961 में मोनिका को लेकर रायपुर आया तो अम्माँ, आपाजान, कैसर सब नयी नवेली दूल्हन को देखने के लिये झूम गयी। अम्मा ने ठुड्डी उठाकर ग़ौर से पहले चेहरा देखा, फिर बाहें, हाथ की उँगलियाँ, पाँव और पैरों की उँगलियाँ देखीं। जब ये मुआयना ख़त्म हुआ तो कहा आओ मेरे पास बैठो। अम्मा को उनका नर्म चेहरा, उसकी साँवली मलाहत, पल्लू में ढँका गोल खूबसूरत सर, उभरा सुडौल माथा, भरी-भरी स्याह भँवें, शर्मीली आँखें बहुत पसन्द आयीं। बहनें भी उनकी बहुत गिरविदा हुईं। अम्मा ने नाम पूछा, मोनिका ने कहा, ‘मोनिका’। अम्मा ने बज़ाहिर दुहराते हुए गोया नाम को सही करते हुए कहा- ‘मलिका’। मास्साब ने बहू का नाम मनक़बत रखा। आपाजान ने उन्हें सलाम करना सिखाया, रिहर्सल करवायी और कहा मदर्से से मौलवी साहब आएँ तो तुम उन्हें अस्सलामो अलैयकुम कहना। वो जवाब देंगे वालैयकुम अस्सलाम। कहो कैसे बोलोगी? मोनिका ने दुहरा दिया।
जब हाफ़िज़ नाबीना घर आये तो मोनिका ने फ़ौरन बढ़कर कहा वालैयकुम सलाम हाफ़िज़ जी! हाफ़िज़ जी ख़ामोश! सर दायें से बायें घुमाते रहे, मुस्कराहट तो उनके चेहरे पर मुस्तक़िल रहती ही थी, जो अन्धों के चेहरे पर अक्सर बिला वजह रहती है। थोड़ी देर चुप रहने के बाद पूछा, आपका नाम?
‘मलिका!’ ये अम्मा बआवाजे़ बुलन्द बोल पड़ीं। पेश्तर इसके कि मोनिका जवाब देने के लिये मुँह खोलतीं, अम्मा खुद बोल उठी थीं ताकि मोनिका को अब और ग़लती करने का मौका न दिया जाए।
सास-बहू दोनों में बहुत जल्द बहुत गहरी दोस्ती हो गयी। अम्मा कहतीं, मलिका मेरी फलाँ चीज़ उठा कर लाना भला, मोनिका जाकर वो चीज़ ले आतीं। इसे ले जाकर वहीं रख दो भला, मोनिका उस चीज़ को रख आतीं। एक दिन कहने लगीं, मलिका मेरे साथ आओ, कुछ मिठाई ले आएँ। रिक्शा रोकी गयी, अम्मा मोनिका को लेकर अपने खास हलवाई की दुकान पर पहुँची, खुद रिक्शे में बैठी रहीं, मोनिका से कहा, ज़रा-सी बर्फ़ी लाकर चखाओ। हलवाई अम्मा से खूब वाक़िफ था। उसने बर्फ़ी का एक छोटा-सा टुकड़ा दोने में रखकर दे दिया। बस इस तरह दो तीन मुख़तलिफ़ मिठाईयों के ज़रा-ज़रा से टुकड़े चख लेने के बाद कहा, थोड़ी-सी बालूशाही तुलवा लो। अम्मा को दो मिठाइयाँ बहुत पसन्द थीं, एक बालूशाही और दूसरी मैसूर पाक।
एक दिन कहा, मलिका ज़रा मेरे साथ कपड़े की दुकान तक चलो भला। दुकान में थोड़ी देर इधर-उधर घूमकर कपड़े देखने के बाद कहने लगीं- ‘अई, मलिका यह भला कौन औरत होगी? मेरा पीछा ही नहीं छोड़ती। देखने में शरीफ़ ख़ानदान की लगती हैं, कपड़े भी साफ़ सुथरे पहनी है। लेकिन जब भी मेरी नज़र उस पर पड़ती है, देखती हूँ कि मुझी पर उसकी आँखें जमी हुई हैं।’ मोनिका ने कहा, अम्मा वो आप ही हैं, वो सामने जो आईना लगा है न, उसमें आप खुद अपने आपको देख रही हैं। मोनिका बंगाली थीं मगर शिमले की उनकी पैदाईश थी। वहीं पली बढ़ीं, वहीं उनकी इब्तदाई तालीम हुई, उर्दू अच्छी ख़ासी बोल लेती थीं। सिर्फ़ कभी-कभी मुज़क्कर, मोअन्नस में ग़लती कर बैठतीं। मसलन-दाल बहुत अच्छा है। बहनें खिलखिलाकर हँस पड़तीं। मोनिका पूछतीं, मैं कुछ ग़लत बोली क्या?
बहनें और ज़ोर से हँस देतीं। कैसर कहती, नहीं-नहीं भाभी तुम बिल्कुल ग़लत नहीं बोले। इतना कहकर हँसे जाती। मैं कहता, तुम शिमले की उर्दू बोलती हो, मेरे घर में रायपुर की उर्दू बोली जाती है। उर्दू-उर्दू में फ़र्क तो होता ही है। ये सुनकर मोनिका खुद ज़ोर से हँस देतीं।
जनवरी, 1965 में मुझे देहली में ख़बर मिली, आपाजान का ख़त आया कि अम्मा की तबियत बहुत खराब है, तुम फ़ौरन चले आओ। नगीन 28 नवम्बर, 1964 को पैदा हुई थी, उस वक़्त दो महीने की थी। मैंने डॉक्टर (मिसेस) शीला मल्होत्रा को फ़ोन लगाकर पूछा कि क्या नगीन को साथ ले जाना मुनासिब होगा या उसे मोनिका के पास छोड़कर अकेला निकल जाऊँ। उन्होंने बड़ी मुश्किलों से नगीन की पैदाईश फोरसेप्स (चिमटे) की मदद से की थी और कह दिया था इसके बाद अब मोनिका को औलाद की ख़्वाहिश्ा नहीं करनी चाहिए। वैसे मोनिका के तीन हमल गिर चुके थे। नगीन जब पेट में आयी तो शीला ने उन्हें तकरीबन सात महीने तक पाँव के नीचे एक मोटा-सा तकिया लगाकर लेटे रहने की हिदायत की थी ताकि खून जो पहले से बूँद-बूँद टपकने लगता था, जिसकी वजह से तीन हमल न बच सके थे, वो रुक जाए और हमल कायम रहे। शीला ने कहा, तुम्हारी माँ पोती को देखकर खुश हो जाएगी। भगवान का नाम लेकर मोनिका के साथ बच्ची को भी रायपुर ले जाओ।
मैं रायपुर शाम के अँधेरे में पहुँचा। नगीन सो रही थी। अम्मा बिस्तर से उठकर बैठ गयीं, नगीन को गोद में लिया, नगीन दोनों मुट्ठियाँ बन्द किये गहरी नींद में थी, अम्मा ने उसकी उँगलियों के जोड़ की हड्डियों को अपनी शहादत की उंँगली के नाखून से धीरे-धीरे मारकर उसे जगाया ताकि उसकी आँखें देख सकें। नगीन रोती हुई उठी। अम्मा ने पहले सैर होकर उसकी आँखें, पुतलियों का रंग, भँवें, नाक-नक़्श, हाथ पांव सब बग़ौर देख लिये फिर लोरी गाकर पुचकारते हुए थपकियाँ दे-देकर उसे सुला दिया।
अम्मा की हालत उसके बाद कुछ बेहतर हो गयी। कोई दस दिनों के बाद जब उनका वक़्त आ गया तो बेसुध बिस्तर पर पड़ी रहीं। कुछ कहने की कोशिश कर रही थीं। हम सब भाई-बहनें झुककर ग़ौर से सुनने और समझने की कोशिश करते रहे। आपाजान ने अपना कान उनके मुँह पर लगाकर सुना। बस फू-फू की आवाज़ मुस्तक़िल मुँह से निकल रही थी। आपाजान दौड़ती हुई बावर्चीखाने गयीं और वहाँ से एक फुलका लेकर आयीं, उसका ऊपर का नर्म छिलका निकालकर एक छोटा-सा टुकड़ा निकालकर अम्मा को खिलाने की कोशिश करती रहीं, लेकिन न अम्मा ने कुछ खाया न उनके मुँह से फू...फू... की आवाज़ बन्द हुई। बड़ी मुश्किल से हमारी समझ में आया कि ‘फूँकवा दो’ कहने की कोशिश कर रही हैं। मैं फ़ौरन दौड़कर मदर्से गया और मौलवी नवाब को साथ लेकर आ गया। उन्होंने सूराए यासीन पढ़ा और अम्मा के सीने पर फूँक दिया। जैसे ही मौलवी नवाब की तिलावत की आवाज़ अम्मा के कानों पर पड़ी, उनकी बेचैनी जाती रही। मौलवी नवाब ये कहकर चले गये कि इनकी हालत की ख़बर मुझे भिजवाते रहियेगा। बस चन्द घण्टों के लिए उनकी साँसें और बाक़ी थीं। बज़ाहिर चैन से सोती रहीं। इसके बाद दो एक हिचकियाँ आयीं, और कूच कर गयीं।
मरते वक़्त अम्मा का बिस्तरा कुछ ज़रा ख़राब हो गया था। आपाजान इस मामले में बहुत कच्ची थीं। उन्हें ऐसे कामों से घिन आती थी। मोनिका में नर्सिंग का जज़्बा बहुत था। उन्होंने बिला तकल्लुफ़ साफ़-सफ़ाई कर दी। इसके बाद औरतें आयीं, उन्होंने नहलाया, कफ़नाया, हम लोगों ने आखरी दीदार किया, मय्यत उठायी गयी, मुहल्ले के शुर्फ़ा, मदर्से के तमाम बच्चे और मुदर्सीन सब डोले के साथ कन्धा बदलते हुए बढ़े, कब्रिस्तान में नमाजे़ जनाज़ा पढ़ायी गयी और बिलाखिर अब्बाजी के बराबर अम्माँ को लिटाकर सुपुर्दे ख़ाक करने के बाद हम आ गये। मैं घर पहुँचा तो घर औरतों से भरा हुआ था।
वो ज़माना गुज़र गया। पहले बड़े हाफ़िज़ जी गये, फिर बड़े मौलवी साहब, उसके बाद हफ़्सा आपा, छोटे मौलवी साहब, मौलवी नवाब सब गुज़र गये। बस एक हाफ़िज़ नाबीना रह गये थे, उनका दम ग़नीमत था। तकरीबन रोज़ाना हमारे घर आते और बहुत देर तक मज़े-मज़े के क़िस्से-कहानियाँ सुनाते। कभी उनकी बेगम आ जातीं। उनकी बेगम सभी को अच्छी लगती थीं, खूबसूरत, साँवली, खुश-खुल्क़ और कमाल ये कि मज़हबी माहौल में रात-दिन रहने के बावजूद बेहद रौशन ख़्याल। उनकी बातें बहुत दिलचस्प होतीं। हमारे घर आ जातीं तो सबका दिल बहल जाता। हाफ़िज़ जी पर जान छिड़कती थीं। हाफ़िज़ जी भी उनसे बहुत प्यार से बातें करते थे। मैं तो उन पर आशिक था। वो आतीं तो मैं खुश हो जाता। आपाजान मुझे छेड़ते हुए कहतीं, तुम्हारी वो आ रही हैं।
रता-रता बीमारी ने उन्हें घेर लिया। हाफ़िज़ जी ने बहुत दौड़ धूप की, बहुत दवा दारू करायी, उनकी सेहत गिरती ही चली गयी। तपेदिक हो गया था, मरज़ बहुत आगे बढ़ गया था।
मैंने हाफ़िज़ जी से कहा- अल्मोड़ा वाले डॉक्टर ख़जान चन्द, जो एक मशहूर टी.बी. स्पेशलिस्ट हैं, उनकी दवा मैंने चन्द मरीज़ों पर कामयाबी से आज़मायी है, वो दवा मेरे पास देहली में है। ऐसे ही मौकों के लिए मैंने कुछ शीशियाँ रख छोड़ी हैं, इंशाअल्लाह वो ज़रूर कारगर साबित होगी। हाफ़िज जी खुश हुए। जब मैं दवा लेकर रायपुर पहुँचा तो बेगम गुज़र चुकी थीं।
डॉक्टर ख़जान चन्द की इस इजाद की भी एक फ़िक्र अंगेज़ हिस्ट्री है जो आगे चलकर लिखूँगा। इस वक़्त तो बस ये कहना चाहता हूँ कि बेगम की वफात के बाद हाफ़िज़ नाबीना जैसे टूट से गये। अन्धे की लाठी वही तो थीं। औलाद ना ख़लफ़ निकली। हाफ़िज़ नाबीना जब चल बसे तो मदर्सा भी सूना हो गया।
हबीब तनवीर की आत्मकथा के प्रस्तुत अंश हमें उनकी बेटी सुश्री नगीन तनवीर के सौजन्य से प्राप्त हुए हैं। हम इनका आभार मानते हैं।