अब? गिरध्ार राठी
29-Dec-2019 12:00 AM 3047

कविता ‘अब’ पढ़ते हुए एक अजीब-सा खयाल उभर अया। 40-50 साल जिस कवि से हम गाहे-ब-गाहे ही सही, लेकिन रू-ब-रू मिलते रहे हों, उसके गुज़र जाने पर उसकी कविता क्या कुछ अलग तरह से पढ़ी जानी चाहिए? लिखे जाते समय कवि और कविता - का जो ‘अब’ था, गुज़र जाने के बाद कवि से, कविता से और हमारे ‘अब’ से उसके साथ क्या वही रिश्ता रहा आएगा जिसकी परिकल्पना या अनुभूति हमें कवि के जीते-जी होती रही थी, या हुई थी?
अजीब होने के बावजूद ऐसे खयाल का औचित्य कुछ इस तरह परखा जा सकता हैः हमारे अपने समय में देखे-सुने-पढ़े गये कवियों के व्यक्तित्व और कृतित्व का आकलन हम जिस सख़्ती से करते हैं, उतनी सख़्ती से अन्य युगों के कवियों का (शायद?) नहीं! अमीर खुसरो ने बादशाहों के जो कसीदे पढ़े, या उनके सामने जिस तरह समर्पण किया, उसे जानकर भी हमें (शायद?) वैसा गुस्सा नहीं आता, जैसा कि चापलूसी करने वाले अपने परिचित किसी सम-कालीन कवि पर।
लिहाज़ा, कुँवर नारायण की ‘अब’ पर ग़ौर करें जो कि ‘सब इतना असमाप्त’ में, उनके निध्ान के बाद छपे (2018) संग्रह में है।
दरवाज़ा खटखटा कर ‘अब’ कवि के पास अचानक आ गया है। कवि उसे ‘मेरे घर से, मेरी कविता से, मेरी अध्ाूरी दुनिया से...’ हुलस कर मिलवाता है। मगर अगली पंक्तियाँ हैं-
भर जाओ मुझमें अब
मुझसे भी ऊपर तक
जल्दी करो
केवल अब ही तो बचा है अब
मेरे पास
पाठकों को याद होगा, ‘नयी कविता’ के दौर में क्षणवाद पर घनघोर बहसें हुई थीं। विगत और आगत की अतिरिक्त चिन्ता छोड़कर वर्तमान क्षण को भरपूर जीने और जानने-समझने का वह आग्रह भी खासा उत्तेजक था। मगर यह जो ‘अब’ है, वह ‘सदियों बाद’ आया है और इतना विस्मयकारी है कि ‘विश्वास नहीं होता’! इस संग्रह की कविताएँ 2010 के बाद की हैं जब कुँवर नारायण 80 से अध्ािक बरस पार कर चुके थे।
यह ‘अब’ अगर आह्लादकारी है तो यह विषाद भी छिपाये नहीं छिपता कि ‘केवल अब ही तो बचा है अब मेरे पास’! संग्रह के ब्लर्ब में यह बात अच्छी तरह पकड़ी गयी हैः ‘संग्रह की कविताएँ बहुत अनोखे ढंग से बेचैन करती हैं और आश्वस्त भी। इनमें एक बड़े कवि के समस्त अनुभवों की काव्यात्मक फलश्रुति है और अक्सर एक भव्य उदासी का गूँजता हुआ स्वर।’
प्रबुद्ध, मितभाषी और लगभग वीतराग भारती नारायणजी ने अपने पति कवि की इसी मनोदशा को ‘एक खास तरह की प्रबुद्ध उदासी का भाव’ कहा है। ‘कुँवर नारायण हमेशा अपनी बात बहुत ध्ाीमे स्वर में, लेकिन पूरी स्पष्टता और साहस से कहते रहे हैं।’ इस दूसरे नुक्ते पर आने से पहले ‘अब’ को ही कुछ देर और समझने की चेष्टाः
इन्हीं दिनों संयोग से गगन शिल की पुस्तक हाथ लग गयी- देह की मुँडेर पर। इसमें एक पैराग्राफ ‘अब’ से शुरू होता हैः
‘अब नहीं तो कब?
‘यह सवाल आपके साथ हमेशा रहना चाहिए। जीवन जीने की प्यास लगातार बढ़ती रहनी चाहिए।...अक्सर युवाओं को लगता है, अभी समय पड़ा है, थोड़ा अभी जी लेते हैं, थोड़ा बाद में जी लेंगे। ऐसी ग़लती मत करियेगा। अगले बरस दर्पण में यह चेहरा नहीं मिलने वाला। मित्रो! पकड़ो दौड़कर समय को। ैमप्रम जीम कंलए ैमप्रम जीम कंल!ण्ण्ण्ण्ण्श्
दो अलग पीढि़यों के दो कवियों की ‘अब’ के साथ मुठभेड़ में कुतूहल की कमी नहीं है। वयोवृद्ध कवि के यहाँ ‘अब’ खुद आकर दरवाज़ा खटखटा रहा हे, और उध्ार 55-60 की आयु की कवि युवाओं को आगाह कर रही है- ‘पकड़ो दौड़कर समय को।’ साॅल बेलो का उपन्यास (और फि़ल्म) ैमप्रम जीम कंल एक आह्वान बन जाता है। पीढि़यों का अन्तराल ही नहीं, स्त्री-पुरुष भी शायद कोई कारक यहाँ हो? कमतर आयु में अभी उदासी नहीं, व्यग्रता है। ‘अब’ को भरपूर जीने की चाह और संकल्प दोनों दशाओं में है।
कमसिनी में स्वाभाविक इस व्यग्रता को ‘शब्द तक’ कविता में देखेंः
‘मैं तब की बात कर रहा हूँ
जब तुम रुकोगे कुछ देर
अभी बहुत उतावली में हो
कहीं और जाने की
कुछ और पाने की
कुछ से कुछ और हो जाने की...’
कुँवर नारायण इस कविता में ‘सब कुछ-शब्द तक’ छोड़ जाने से उत्पन्न ‘विकलता’ की ओर इशारा करते हैं, कुछ वैसी ही विकलता जैसी कि इस ‘अब’ से भरपूर भेंट अगर नहीं हो पायी, तो नहीं होगी।
दूसरी ओर वह वैचारिक मनोभूमि भी है, ‘पहले सोचता हूँ’ में,
‘दृष्टा हूँ, विमुख नहीं,
विचार करते या कर्म करते या शब्द देते
सब को समेटती एक निःसंग आत्मीयता
जिसमें न विह्वलता न कातरता न आत्मदया-
केवल एक खोज का अनवरत जीवन-चक्र।’
शब्दबद्ध होने से पहले हमारे मानस में जो है- और जो कि एक कवि के तईं, शब्दबद्ध होते ही कर्म की भूमिका भी बन जाता है... यहाँ कहीं हम ‘स्फोटवाद’ के दायरों में आ पहुँचते हैंः वैखरी, परा, पश्यन्ती इत्यादि के उत्तरोत्तर विकसित होने वाले भाषायी स्तरों या चक्रों में। एक दूसरी कविता विटगेंस्टाइन के भाषा-दर्शन को छूती है और वहाँ इसकी ठीक उलटी स्थिति दरपेश है। वहाँ शब्दबद्ध हुए बगै़र कोई विचार, विचार नहीं बन पाताः
‘हमारी भाषा की सीमाएँ हमारे संसार की सीमाएँ हैं।’
इस उद्धरण के साथ कवि ने उस भाषा-दर्शन को एक दूसरा ही आयाम दे दिया हैः पवित्रता, शान्ति, प्रेम जैसे शब्द ‘भाषा से बाहर’ चले गये हैं, और इसी के साथ इन तत्वों का अस्तित्व भी समाप्त हो गया है! (‘शब्द जो खो जाते हैं’)
कुँवर नारायण की कविता हमेशा ही भावात्मक उत्ताप और लयात्मक उछ्वास से कुछ परहेज़ करती रही है- लेकिन ‘बौद्धिकता’ का उस पर आरोपण कुछ ज़्यादती ही है। लेकिन यह भी सच है कि सीध्ो-सरल शब्दों से या बेलाग-लपेट अभिव्यक्ति से जो स्तर सहज-सुलभ होता है, वह थोड़ा मंथन या मनन करने पर सैद्धान्तिकी या दर्शन इत्यादि की ओर ले जाने लगता है। ‘केवल एक खोज का अनवरत जीवन-चक्र।’ जैसे ‘उत्प्रेक्षा’ शब्द को देखें, ‘निकटता’ कविता मेंः
‘अकेलापन एक तरह की दूरी है
.... अपने से
एक ढीठ उत्प्रेक्षा
मेरे पास सरक आती।’
यहाँ अकेलापन में दूरी, हँसी में निकटता, परायेपन में अपनापन और दूरी इत्यादि कई तरह की विरोध्ााभासी उलटबाँसियाँ हैं। इसे यों ही समझकर आगे बढ़ जाने के बाद उत्प्रेक्षा शब्द फिर लौटा लाया- यहाँ क्या केवल अलंकार का जि़क्र है, या कुछ और भी? और अलंकार का जि़क्र किसलिए?
क़ायदे से ‘मानो’, ‘जानो’ इत्यादि वाचक शब्द लगे हों, तभी उत्प्रेक्षा अर्थालंकार पूरा होता है। लेकिन डाॅ. श्याम बहादुर वर्मा और डाॅ. ध्ार्मेन्द्र वर्मा ने अपने बृहत् हिन्दी शब्दकोश में यह भी बतलाया हैः
वाचक शब्द का अभाव होने पर उसे ‘गम्योत्प्रेक्षा’ या ‘प्रतीयमाना उत्प्रेक्षा’ कहा जाता है। उत्प्रेक्षा के तीन भेद प्रसिद्ध हैं- वस्तूत्प्रेक्षा, हेतूत्प्रेक्षा और फलोत्प्रेक्षा। इनमें से प्रथम में एक वस्तु में दूसरी वस्तु की सम्भावना, द्वितीय में अ-हेतु में हेतु की कल्पना और तृतीय में अन्य फल में फल की सम्भावना की जाती है।’ और उत्प्रेक्षण में जाएँ तो (1) ऊपर की ओर देखना। (2) उत्कृष्ट रूप से या ध्यान से देखना।
यहाँ कवि उत्प्रेक्षा जैसा परिभाषिक (अतः कुछेक काव्यानुशासनों द्वारा वर्जित) शब्द लाकर पाण्डित्य नहीं दिखा रहे बल्कि शायद ‘ध्यान से देखने’ की ओर ध्यान दिला रहे हैं। बेशक भाषा के अनेक शब्द रचनाकार की निजी जानकारी के बगै़र भी पाठक को शास्त्रचर्चा में ले जा सकते हैं, लेकिन यहाँ जानकारी भी है, सजग प्रयोग भी, लेकिन कुछ विनोदमय खिलंदड़ापन भी है। सम्भवतः पाण्डित्य पर भी चुटकी है!
‘सब इतना असमाप्त’ में कुँवर नारायण की कविता के कई रंग हैं। कुछ कविताएँ सीध्ो-सीध्ो प्रहार करती हैं, जैसे ‘लिस्टों से बाहर’ ‘दौलत की बदौलत’, ‘अर्थ-शास्त्र’, ‘बदलना चाहिए’ आदि। मुद्दों और मसलों पर जीवन भर की पीड़ा जैसे यहाँ फूट पड़ती है। ‘दामोलकर, पानसरे और कलबुर्गी की हत्या के बाद’ लिखी गयी- ‘जितना ही खुश रखना चाहता हूँ@ उतनी ही उदास होती जाती हैं मेरी कविताएँ@विह्वल प्रार्थनाओं में बदल जाते हैं शब्द!’
कुछ कविताएँ हैं जो अलंध्य विडम्बनाओं को रेखांकित करती हैं, जैसे ‘ईश्वर साक्षी है’। ‘बुरे वक़्तों की कविता’ बेर्टोल्ट ब्रेष्ट के साथ संवाद जैसी है। ब्रेस्ट की कविता थी- ‘अँध्ोरे ज़मानों में@गाया भी जाएगा वहाँ?@ गाया भी जाएगा वहाँ!@ अँध्ोरे ज़मानों पर।’ (जीवन मन्त्र)। कुँवर नारायण पूछते हैंः ‘कैसी हो ऐसे@ बुरे वक़्तों की कविता।... कैसे हो बुरे वक़्तों की कविता...’। इसी तरह ‘अध्ाूरी कविताएँ’ में कुँवरजी ‘नहीं लाना चाहता@कविताओं का अन्त।’ कहते समय कहीं दूसरे छोर से ब्रेष्ट से मुखातिब हैं, जिसने लिखा था-
‘कितनी देर@टिकती हैं कृतियाँ? उतनी देर@... जब तक वे मचाती रहती हैं उपद्रव@ वे समाप्त नहीं होतीं।’
उक्त भाव-विचार को ही मानो इस संग्रह का नाम मिला हैः सब इतना असमाप्त। ‘इतना पाकर भी उतना ही आकांक्षी,@ सब कुछ जानकर भी उतना ही अनभिज्ञ,@... हर क्षण समाप्त होते हुए भी@ उतना ही असमाप्त।’ (उतना ही असमाप्त)।
यहाँ भी कुँवर नारायण की कविताओं में उनकी चिरपरिचित मननशीलता है। भारती नारायणजी ने उन कुछ कविताओं की ओर भी ध्यान दिलाया है जो.. ‘...इध्ार के वर्षों की उनकी मनःस्थिति को प्रकट करती हैं, जैसे कि एक प्रेम-भाव की निरन्तरता; बढ़ती उम्र और मृत्यु के ख्याल; और बिगड़ते समाज की चिन्ता। इन सबके बीच से निकलती हुई एक दूरदृष्टि और दर्शन भी इन कविताओं में है।’
और ‘फागुन’ जैसी कुछ गीतात्मक रचनाएँ, और ‘कुछ अश्आर’ (ग़ज़ल) भी ः
‘ये कैसे दौर में जि़न्दा हैं हम ख़ुदा जाने
ये कैसी नफ़रतें भर करके अपने सीनों में।’

सब इतना असमाप्त ( कुँवर नारायण)
राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली
प्रकाशन वर्ष - 2018

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