01-Sep-2020 12:00 AM
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यूँ तो अभिव्यक्ति हर व्यक्ति को प्राप्त मौलिक अधिकारों में शामिल है लेकिन अपने आप को अभिव्यक्त करना इतना आसान काम भी नहीं है. सामान्य लोग जिन्हें हम आम लोग या ‘मैंगो पीपल’के नाम से भी जानते हैं – अपने आप को सही तरीके से अभिव्यक्त करने में सक्षम नहीं हैं. बहुत तरह कि ताकतें, बंधनें, ऐतिहासिक-सामाजिक बोझ उनके कन्धों पर है जिनकी वजह से अभिव्यक्त करने कि क्षमता और कई बार तो इच्छा का विकास भी उनके भीतर देखने में नहीं आता है.अभिव्यक्ति एक मूल्य है. इसे अर्जित करना पड़ता है.ऐसे में जिन लोगों को अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता हासिल है और जिन्होंने अपने आप को अभिव्यक्त करने का सलीका भी अर्जित कर लिया है वो इसके मूल्य से वाकिफ हैं. वे जानते हैं कि एक मरे हुए देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार से ज्यादा एक साहसी कदम है.इसके अपने खतरे और नुकसान भी हैं.इसलिए ज्यादातर लोग अपनी अभिव्यक्तियों का सौदा करना पसंद करते हैं. वे अपनी अभिव्यक्ति की अर्जित क्षमता का जबरदस्त इस्तेमाल अपने, लाभ और स्वार्थ की पूर्ति के लिए करते हैं.ऐसे में वह अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्तेमाल कुछ इस तरह की कतर-ब्योंत के साथ करते हैं कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे. ऐसे में अपनी अभिव्यक्तियों में यही कटौतियाँ, चुप्पियां, चतुराई और चालाकियाँ उनके काम आती है. वह खतरा सूंघकर या नुकसान की भरपूर आशंका का सटीक आकलन करते हुए वह या तो बोलते हैं या बिलकुल चुप रह जाते हैं. ऐसी जगहों पर जहाँ नुकसान की ज़रा भी आशंका उन्हें दिखती है वह अपने मुंह बंद रखने में ही बेहतरी समझते हैं.
यूँ तो यह एक ऐसा फेनोमेनन है जो कास्ट, क्लास, जेंडर, रिलिजन, कल्चर की सीमा से परे है. ब्लैक अमेरिकी Thomas Sowell की‘Evolutionary Morality’ के सिद्धांत के आधार पर समझने की कोशिश करें तो वो इसकी दो श्रेणी बताते हैं. पहला है ‘Unconstrained Vision’ जिसे वह ‘Vision of the Anointed’ भी कहते हैं के सन्दर्भ में समझ सकते हैं. उनका कहना है कि कोई भी व्यक्ति (जिसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हासिल है और उसने यह कला अर्जित की है- खासकर बुद्धिजीवी)अपनी पैदाइश में एक पूर्ण और पवित्र इकाई है. समाज उसे भ्रष्ट बना देता है. उसे अपनी ‘reputation’ की फ़िक्र कुछ भी कहने के दौरान नहीं रहती क्यूंकि वो जानता है कि ज्यादातर लोग फैक्ट शीट लेकर नहीं बैठे हैं. और अगर उसकी बात कल को गलत भी साबित हो जाए तो लोग उसे याद रखने वाले नहीं हैं. तीसरी बात यह कि वह कोई बात तभी कहेगा जब उसे कोई शारीरिक या दूसरे किस्म का कोई नुकसान उससे नहीं है. दूसरी श्रेणी में वह ‘Constrained Vision’ जिसे वह ‘Tragic Vision’ भी कहते हैं कि बात रखते हैं. इसके अनुसार मनुष्य अपनी प्रकृति में ही अपूर्ण है और समाज उसके काम को आसान बनाने का जरिया मात्र है. इसके लिए वह किसी भी जायज या नाजायज तरीके का इस्तेमाल करता है.
हमारा समाज भी ऐसे ही व्यक्तियों से बना है जो अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सौदा कई बार उनमें कटौतियों, तो कई बार ओढ़ी हुई चुप्पियों, या फिर चतुराई और चालाकियों की मार्फ़त करता है.