आधुनिक भारतीय कला-जीवन एवं दृष्टि की झाँकी
21-Jun-2020 12:00 AM 1585
हिंदी में कला से संबंधित पुस्तकों और कला-आलोचकों का अभाव है | एक ज़माना था कि राय कृष्ण दास ने भारतीय चित्रकला और मूर्तिकला पर श्रेष्ठ किताबें लिखी थीं | बाद में वासुदेवशरण अग्रवाल ने भी भारतीय कला पर विचार किया था | हजारीप्रसाद द्विवेदी के लेखन में भी कला-संबंधी चिंतन मिलता है | रज़ा फाउंडेशन, दिल्ली के अंतर्गत रज़ा पुस्तकमाला का उद्देश्य ही है कि हिंदी में व्याप्त अभाव की पूर्ति सुरुचिपूर्ण तरीक़े से हो | इसलिए रज़ा पुस्तकमाला के अंतर्गत केवल साहित्य से संबंधित किताबें ही नहीं प्रकाशित हुई हैं बल्कि शास्त्रीय संगीत एवं शास्त्रीय नृत्य के साथ-साथ भारतीय कलाओं और कलाकारों पर भी पुस्तकें प्रकाशित की गई हैं | उदाहरण के लिए कथक नर्तकी रोहिणी भाटे के लेखन का एकत्र रूप ‘लहजा’, नृत्यशिल्पी उदय शंकर की शंकरलाल भट्टाचार्य लिखित जीवनी ‘उदयेर पथे-पथे’, उस्ताद विलायत ख़ाँ की आत्मकथा ‘कोमल गांधार’ और वामनराव हरि देशपाण्डे की लिखी ‘घरानेदार गायकी’ देखी जा सकती है | इसी क्रम में वरिष्ठ हिंदी लेखक एवं अपनी सुरुचि के लिए विख्यात प्रयाग शुक्ल द्वारा प्रसिद्ध चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन की लिखी जीवनी भी है|
   
जगदीश स्वामीनाथन का जन्म 21 जून 1928 ई. को शिमला में हुआ था | अप्रैल 1994 ई. में उन का देहांत हो गया | स्वामीनाथन मूलतः तमिलभाषी थे पर वे उत्तर भारत में पले-बढ़े थे | वे न केवल श्रेष्ठ चित्रकार थे बल्कि उच्च कोटि के कला-आलोचक भी थे | स्वामीनाथन की इस जीवनी को पढ़ कर पता चलता है कि आज़ाद भारत में नव-निर्माण को ले कर कितना उत्साह था ! उस समय का बौद्धिक और कला परिदृश्य एकदम जगमगाता-सा लगता है | स्वामीनाथन ने सृजनात्मकता और कला-प्रसंगों को विस्तार देने के लिए कुछ दोस्तों के साथ मिलकर ‘ग्रुप 1890’ बनाया था | इसी से जुड़े एक प्रसंग से यह बात स्पष्ट हो जाएगी | स्वामीनाथन ने लिखा है कि “इसी समय जेराम और अम्बादास से मेरी भेंट हुई, हमने कॉफ़ी के प्यालों और रम तथा बियर के साथ हज़ारहा बातें कीं, न जाने कितनी बातें कीं ! चर्चा मानो थमती ही नहीं थी, और हमने तय किया कि हम एक ग्रुप बनायेंगे | हम ने चर्चा की, और दूसरे कलाकारों से भी सम्पर्क किया, ख़ास तौर पर राजेश मेहरा, गुलाम मोहम्मद शेख, ज्योति भट्ट और राघव कनेरिया से | हमने कई बैठकें कीं और अन्तत: हम भावनगर गुजरात में, ज्योति और जयन्त पण्ड्या के घर पर मिले | १९६२ में हमने यहीं ‘ग्रुप १८९०’ की स्थापना की --- औपचारिक रूप से | ‘१८९०’ उस मकान का ही नम्बर था जहाँ हम ग्रुप की स्थापना के लिए मिल रहे थे | इसी नम्बर के नाम पर हमने ग्रुप का नामकरण किया | ‘ग्रुप १८९०’ की पहली और आख़िरी प्रदर्शनी १९६२ के अगस्त महीने में हुई | इसका उद्घाटन किया था जवाहरलाल नेहरू ने |” पहली बात तो यह कि इस उद्धरण में जितने कलाकारों के नाम आए हैं वे बाद में भारत के श्रेष्ठ कलाकार के रूप में उभरे | दूसरी बात यह कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की कला-संस्कृति से जो जुड़ाव की स्थिति थी उस ने भारत के साहित्यिक-सांस्कृतिक जगत को विश्वस्तरीय बनाया | आज भारत में जो राजनीति का हाल है उसे महसूस कर नेहरू के व्यक्तित्व और उन के ऐसे प्रयत्नों की बहुत याद आती है |
    
इस जीवनी की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इस में स्वामीनाथन के विचारों को भरपूर स्थान दिया गया है | उन से यह पता चलता है कि स्वामीनाथन भारतीय कला-दृष्टि के दाय को स्वीकार करते हुए इसे आधुनिकता से लैस बनाना चाहते थे | उन के लिए आधुनिकता  पश्चिम से प्रेरित मात्र ही नहीं थी बल्कि अपने भारतीय स्वरूप में सृजित भी थी | ऐसा इसलिए भी संभव हो पाया कि वे यूरोपीय कला से भी गहराई से परिचित थे | बाद में जब भोपाल, मध्य प्रदेश में ‘भारत भवन’ का निर्माण हुआ तो उन्होंने ‘रूपंकर’ कला-संग्रहालय की स्थापना की और उस का संचालन भी किया | इस कार्यकाल में उन्होंने आदिवासी कला की मार्मिकता, उस की सहजता और सहजीविता को अनुराग से बरतते हुए उसे एक पहचान दिलाई | इस जीवनी में सीरज सक्सेना के माध्यम से यह स्पष्ट किया गया है कि स्वामीनाथन आदिवासी जीवन और कला को कितनी संवेदनशीलता से देखते थे ! सीरज सक्सेना लिखते हैं कि “आदिवासियों को कितना भी अमूर्त चित्र दिखाइये, उनके दिमाग़ में कहीं यह ग्रन्थि काम नहीं कर रही होती है कि यह हमारे सामने अचानक क्या रख दिया | मेरे एक आदिवासी मित्र ने अम्बादास के चित्र पर इतना अच्छा बोला कि मैं नतमस्तक हूँ | वे सहज स्वीकार कर लेते हैं कि ऐसा कुछ, जो उन्होंने कभी नहीं देखा, वह प्रकृति में हो सकता है | वे उसे देखने का यत्न करने में संलग्न हो जाते हैं | अपनी स्मृति में चले जाते हैं | चित्र का एक काम यह भी है कि वह स्मृति में ले जाये |” इसी तरह जब जीवनी-लेखक प्रयाग शुक्ल उन से मनुष्य और कला के रिश्ते पर पूछते हैं तो वे कहते हैं कि “कला में मनुष्य, मनुष्य को ही सम्बोधित होता है, किसी, पशु-पक्षी या वनस्पति-जगत् को नहीं | उसके सोचने-करने में भले ही सृष्टि के अनेकों तत्त्व समा जायें, पर, वह जो कुछ भी सोचता-करता-बनाता है, वह मनुष्य को ही तो ध्यान में रखकर --- उसे ही प्रेषित करता है |” इस उद्धरण को पढ़ कर हजारीप्रसाद द्विवेदी के प्रसिद्ध निबंध ‘मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है’ की याद आ जाती है |
    
ऊपर यह संकेत किया गया है कि स्वामीनाथन की कला-दृष्टि अत्यंत आधुनिक और गहरी थी | कला की निजता की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा है कि “अगर एक कलाकृति को इस तरह बनाया-बरता जाता है, मानो वह सूचना-संसार का (कम्यूनिकेशन) का काम कर रही हो, और किन्हीं निर्धारित विचारों, अनुभवों की संवाहक हो, तो फिर उसे कलाकृति के रूप में  देखा ही नहीं जाना चाहिए | उसकी  सार्थकता तो इसी में है कि उस से  जो कुछ उद्भूत हो, वह  स्वयं उसी  से निकला हो, उसी  के विचार और अनुभव का ‘अपना’ सृजन हो |... (जैसे) सूर्य हमसे जीवन के अर्थ के बारे में कुछ ‘कहता’ नहीं है, वह तो बस ‘देता’ है | यह कहना कि सूर्य हमें जीवन देता है, न तो उसके ऐश्वर्य में कुछ जोड़ता है, न घटाता | कला का चेहरा भी कुछ सूर्य जैसा ही है, जो कुछ बनता-कहता नहीं है, बस देता है |” यह उद्धरण इसे स्पष्ट करने के लिए काफ़ी है कि कला की विशिष्टता क्या है और जीवन से उस का कितना गहरा संबंध है !
    
जीवनी में लेखक या कलाकार या जिस की भी जीवनी लिखी जा रही है उस के रोजमर्रा के जीवन के बारे में और उस के दोस्तों के बारे में भी होना चाहिए | इस से यह पता चलता है कि वह व्यक्ति कैसे बना है ? स्वामीनाथन के दोस्तों का दायरा बहुत ही बड़ा था | उस में आक्तोविओ पॉज़ से लेकर निर्मल वर्मा तक शामिल थे | अपने समय के तमाम लेखकों-कलाकारों से उन की घनिष्ठता थी | जीवनी में ऐसे प्रसंग बहुत ही कम आए हैं | इन्हें और विस्तार में लिखा जाना चाहिए था | यह पढ़ कर कितना रोमांचक लगता है कि स्वामीनाथन की शादी जब भवानी से हुई तो कामरेड डांगे ने उन्हें हनीमून मनाने के लिए बेतूल(मध्य प्रदेश) के जंगलों में बने सैनिटोरियम में जाने के लिए टिकट दिया | जब नव-विवाहित जोड़ा वहाँ पहुँचा तो यह पाया कि स्वयं कामरेड डांगे गेट पर स्वागत के लिए खड़े हैं और उन के दोनों हाथ फूलों से भरे हैं | ठीक इसी तरह प्रसिद्ध चित्रकार, लेखक और निर्मल वर्मा के भाई रामकुमार ने यह देखा कि स्वामीनाथन की चप्पलें फटी हैं और आर्थिक तंगी के कारण वे ख़रीद न पा रहे तो ख़ुद चप्पल ख़रीदने का बहाना कर उन्हें दुकान में ले गए | एक जोड़ी चप्पल को देख कर रामकुमार ने कहा कि “जरा यह पहनकर देखो, कैसी लगती है|” स्वामीनाथन ने जैसे ही चप्पलें पहनीं वैसे ही रामकुमार ने उन की पुरानी चप्पलें पैक करवायी और दुकान में पैसा दे कर बाहर आ गए | यह छोटी-सी घटना यह बताती है कि स्वामीनाथन कितने सहज और कला के प्रति समर्पित थे | स्वामीनाथन जैसे कलाकार की यह जीवनी हमें बताती है कि कला के प्रति समर्पित हो कर उस में अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान किया जा सकता है |       

 

-योगेश प्रताप शेखर, सहायक प्राध्यापक, दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय
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