अज्ञेय गाँधी . ज्ञेय गाँधी - मिथलेश शरण चौबे
18-Jun-2020 12:00 AM 1645
हमारे पास सच्चाइयों का एक बहुत बड़ा जखीरा ऐसा है, जिसे हम जानते तो हैं लेकिन उसकी चर्चा नहीं करते – अनकहा सच !
यह वह सच है जिसे झेलने का सामर्थ्य हममें नहीं है – यह हमारे जीवन की, हमारी दुनिया की वह कड़वी सच्चाई है जिससे सभी मुँह चुराते हैं |
यह डर या मुँह चुराना हमारे भीतर एक अन्धकार या शून्य का निर्माण करता है जिसकी गुमनामी में दूसरी सच्चाइयों का बार-बार क़त्ल होता रहता है |
यही कारण है कि हमारी दुनिया भीतर ही भीतर इतनी घायल व रक्तरंजित है |
                                                    ख्रिस्ती संन्यासी लेखक, मेर्टन
              
हमारे समय की खौफ़नाक सच्चाइयों में एक यह भी है : हम अफ़वाहों व उनसे बनते भ्रमों, प्रायोजित अनर्गल क़िस्सों, दुर्व्याख्याओं, औचित्यहीन आधारों, गैरज़रूरी केन्द्रीयताओं से इस कदर आक्रान्त कर दिए जाते हैं कि इनमें बताए जा रहे के आलावा कोई अन्य सच हो सकता है, इसकी सम्भावना ही नहीं बच पाती | यह एक तरफ़ा नहीं है | इसमें आक्रान्त हो रहे मनुष्यों के आलस्य और बेईमानी का अपार और असन्दिग्ध योगदान है | वे त्वरित परोसे गए की उपलब्धि पर बेइन्तहा मुग्ध हैं कि किसी भिन्न स्वाद का होना, उसकी आकांक्षा या पाने का उपक्रम सिरे से गायब हो चला है |
          
किसी महान शख्सियत को उसके मूल विचार पढ़-समझकर जाना जा सकता है | उन विचारों के विश्लेष्ण पर एकाग्र किताबें भी माध्यम हो सकती हैं | गाँधी जैसी शख्सियत जिनका मूल लिखा तथा सम्बोध्य-सम्भाषित मिलाकर पचास हज़ार पृष्ठों में फैला हुआ है, उस पर हुए विश्लेषण पर ही अनेक विचारपरक किताबों और लेखों का सिलसिला निरन्तर है | मूल विचार व अनुभव, उस पर उपलब्ध विश्लेषण, और अब उस विश्लेष्ण पर भी विश्लेष्ण | इन सबसे दूर रहकर गाँधी अज्ञेय ही रहेंगे या फिर जितने ज्ञेय हो सकेंगे, वे प्रायोजित दुर्व्याख्याओं में सिमटे हुए होंगे |
          
जिन प्रचलित तरीकों मसलन पाठ्य पुस्तकों, दो अक्टूबर-पन्द्रह अगस्त-छब्बीस जनवरी के भाषणों तथा अखबारों के लेख व टेलीविजन आदि से गाँधी के बारे में पता चलता है, उस स्वरूप में गाँधी को दक्षिण अफ़्रीकी भारतीय समुदाय के लिए संघर्षशील युवा वकील, स्वाधीनता आन्दोलन का महान नेतृत्त्वकर्ता, लिंग-जाति-धर्म-भाषा-सम्प्रदाय-क्षेत्रीयता आदि प्रचलित भेदों को मिटाने के लिए यत्नशील तथा हाशिए पर ठेल दिए गए लोगों को केन्द्र में स्थापित करने के प्रति चिन्तातुर और कारगर रूप से सक्रिय व्यक्तित्त्व, जैसी स्थूल छवि में वर्णित कर दिया जाता है | यह गाँधी स्वरूप का आसानी से दिखाई देता एक पक्ष है | एक दूसरी व्याख्या उन अधीर, अल्पज्ञ और समझने की आकांक्षा से विहीन लोगों की है जिन्हें किसी व्यक्तित्त्व या विचार के बारे में जानने की तो कोई आवश्यकता होती ही नहीं है लेकिन हरेक विषय पर विशेषज्ञतापूर्ण अभिव्यक्ति की आतुर ललक ज़रूर बेचैन करती है | क्योंकि रस्मी तौर पर जब अखबारों-पत्रिकाओं को छापने की सामग्री और आयोजनों को भाषण की दरकार रहती है, यही जमात उन्हें अपनी तंग नज़र की वजह से उपलब्ध हो पाती है | ऐसी ही जमात द्वारा गाँधी को उद्घोषपूर्वक देव या देवतुल्य बताया जाता है | हालाँकि कुछ अभारतीय विचारकों-पत्रकारों सहित भारतीय व्याख्याकारों ने भी गाँधी की महानता को अतिमानव की भाँति वर्णित किया है लेकिन उन सबने गाँधी को गहरे स्तर पर समझा और उनकी क्रियाशीलता के असर को अनुभव किया था | किसी के विचार, क्रियापद्धति, सरोकार, मूल चिन्ता और साधनों की दृष्टि को जाने बगैर उसे देवता बता देने की उत्सुकता दरअसल एक षड़यन्त्र है | ऐसा कर, एक तो किसी भी महान मनुष्य को जानने की कवायद नहीं करना पड़ती ; दूसरा जैसे देवताओं के समक्ष कुछ देर नतमस्तक होकर, अनेक मनुष्य पूरे दिन छल-प्रपंच-बेईमानी के लिए वैधता प्राप्त कर लेते हैं, ठीक वैसे ही कुछ विशेष दिवसों में दुर्नीति, अपराध और पूँजी की शक्ति के पर्याय लोग गाँधी को ज़ोर-शोर से याद करने का नाटक करते हैं | इसकी व्याप्ति अब इस कदर हो गयी है कि साधारण मनुष्य भी इस अभियान में लिप्त है | देवता बना देने से समग्रता से जानने की झंझट से तो मुक्ति मिलती ही है, ऐसा कर उनकी सम्भवता, उनसे अपने नैकट्य की उम्मीद को भी पनपने नहीं देते |
          
देवता बना देने पर उतारू लोग नहीं जानते हैं कि गाँधी ने खुद को बार-बार मिस्कीन कहा है | दो अक्टूबर 1947 के प्रार्थना प्रवचन में वे कहते हैं – ‘आज तो मेरी जन्मतिथि है | मेरे लिए तो आज मातम मनाने का दिन है | मैं आज तक ज़िन्दा पड़ा हूँ इस पर मुझको खुद आश्चर्य होता, शर्म लगती है | आज तो मेरी कोई सुनता नहीं | ऐसी हालत में हिन्दुस्तान में मेरे लिए जगह कहाँ है, और मैं उसमें ज़िन्दा रहकर क्या करूँगा |’
          
लेकिन यह भी पूरा सच नहीं है | एक समय उनकी आवाज़ पर करोड़ों हिन्दुस्तानी उनके साथ संघर्ष के लिए सब कुछ खोने की स्थिति में भी तत्पर रहते थे | पूरी दुनिया में, उनके विचारों पर चलने वाले लोग, अपने-अपने देश में महान व्यक्तित्त्व के बतौर प्रतिष्ठित हुए | 1909 में जब वे चालीस बरस के थे, उन्होंने जहाज पर यात्रा करते हुए दस दिनों में हिन्द स्वराज के रूप में सभ्यता विमर्श प्रस्तावित किया और उसी बरस एक ब्रिटिश पादरी ने उनकी जीवनी लिखी | गाँधी क्या-क्या थे और हैं ; कितना विस्तार उनका सम्भव-असम्भव के बीच मौज़ूद है, इसे जानने के कोई संक्षिप्त व तात्कालिक तरीके नहीं हो सकते | भारतीय सभ्यता और गाँधी के गहन अध्येता बनवारी ने भारत का स्वराज्य और महात्मा गाँधी किताब में इसे सम्भव किया है, जिसे वे स्वयं ‘भारतीय सभ्यता की दृष्टि से लिखी गयी एक राजनीतिक जीवनी’ कहते हैं |
          
दरअसल जिस दौर में गाँधी की दुर्व्याख्या और अन्तरराष्ट्रीय मजबूरी में उन्हें प्रतीक रूप में याद करने की विवशता, अपने चरम पर दिखाई दे रही है, गाँधी के नाम स्मरण और उनके हत्यारे को भारत रत्न देने की माँग, एक साथ हो रही हो, किंचित स्पष्टता के साथ गाँधी को जान लेना और भी ज़रूरी हो जाता है | बनवारी ने इस जीवनी में गाँधी की निर्मिति को सूक्ष्मता से वर्णित किया है | गाँधी की बहुप्रचारित राजनीतिक कार्यावाहियों के साथ ही यहाँ गाँधी के सामाजिक और सभ्यतागत विचार को मुख्यता की दृष्टि से लिया गया है | दरअसल गाँधी समाज के उन्नयन के लिए चिन्तित और क्रियाशील रहे | समाज को उन्होंने हमेशा राजनीति के ऊपर रखा | ज़ाहिर है कि व्यक्ति ही इसकी पहली सीढ़ी है | उन्हें अंग्रेज़ों से पहले के भारतीय समाज के विवेक और भारतीय सभ्यता की उनकी समझ और आग्रह पर भरोसा था | उनकी दृष्टि में यूरोप की भौतिक उन्नति के विचार के विलोम ‘भारत में सभ्यता का अर्थ नैतिक जीवन रहा है |’ भारतीयों को यदि यूरोपीय सभ्यता के आकर्षण से मुक्त किया जा सके तो फिर वे स्वयं स्वाधीनता के लिए उत्कंठित हो उठेंगे | इसीलिये ‘देश के साधारण लोगों के आत्मगौरव को जागृत करना उन्हें सबसे अधिक आवश्यक लगता था |’
          
हमारा समय राजनीति से इस कदर आक्रान्त है कि बगैर उसकी दुर्नीतियों की प्रशंसा के काम ही नहीं चलता | नैतिक-अनैतिक के विचार से विरत दलों और व्यक्तियों की विरुदावली में लीन लोगों ने अपने मनुष्य होने और किसी कर्म की जवाबदेही को एकदम नज़रन्दाज़ ही कर दिया है | जबकि ‘गाँधी जी यह भी नहीं चाहते थे कि भारत के लोगों का वैसा राजनीतिकरण हो जाए जैसा यूरोपीय लोगों का हो गया है | यह स्वाभाविक ही है कि ऐसा होने पर लोगों के सामाजिक धर्म गौण हो जाते हैं |’ उनका नैतिक जीवन पर प्रबल आग्रह रहा है जिसके फलस्वरूप ही समाज,राजनीति सहित अन्य सभी जगहों पर नैतिकता की उम्मीद की जा सकती है | अँग्रेज़ों के शासन से मुक्ति गाँधी की दृष्टि में कोई अभारतीय शासन से ही मुक्ति नहीं थी | वे उस अनैतिक और भौतिक उन्नयन के यूरोपीय शासन से भारतीयों की नैतिक शक्ति द्वारा पराजय चाहते थे | इसीलिये गाँधी के लिए स्वाधीनता का अर्थ ‘अँग्रेज़ी शासन से मुक्ति भर नहीं था, अपने देश के लोगों को समर्थ बनाना,निर्भय करना और अपने आत्मगौरव के प्रति सचेत करना भी था |’
         
 दुर्व्याख्याओं के क्रम में विभाजन को लेकर मनगढ़न्त किस्सों की भी भरमार है | इस क़िताब में लेखक ने पूरी तफ़तीश पेश कर विभाजन को रोकने के गाँधी जी के प्रयासों का वर्णन किया है | मुस्लिम लीग ने मुसलमानों की आबादी बहुल राज्यों पर शासन की माँग कर, बँटवारे का बीजारोपण किया था | गाँधी जी ने प्रयास किया कि वायसराय मुस्लिम लीग की ओर से जिन्ना को सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित करें | उन्होंने अपना सारा कौशल जिन्ना को शान्त करने और उनके नेतृत्त्व में संयुक्त अस्थायी सरकार बनाने के लिया लगाया | गाँधी जी बँटवारे के प्रश्न को स्वाधीनता मिलने के बाद के समय पर छोड़ना चाहते थे | लेकिन अँग्रेज़ों ने, काँग्रेस के समकक्ष लीग की सहमति भी समूची सत्ता हस्तान्तरण की प्रक्रिया में शामिल कर, विभाजन के प्रश्न को ज्वलन्त रहने दिया | काँग्रेस के लोग लम्बे समय से पूर्ण स्वाधीनता के लिए संघर्षरत थे, ‘स्वाधीनता प्राप्त करने की उतावली में गाँधी जी को किनारे करके अँग्रेज़ों की बँटवारे की योजना के सामने झुक गए |’  
          
कुछ इसी तरह की भ्रान्ति भगत सिंह की फाँसी की सजा को लेकर फैलाई जाती है कि गाँधी जी ने उन्हें बचाने का प्रयास नहीं किया | सान्डर्स की हत्या के आरोप में कैद भगत सिंह व उनके कुछ साथी, भारतीय कैदियों के साथ होने वाले भेदभाव के खिलाफ़ मियांवाली जेल में उपवास कर रहे थे | बनवारी ने स्पष्ट किया है – ‘जवारलाल नेहरु भगत सिंह से मिलने जेल गए |कांग्रेस ने उनके समर्थन में एक प्रस्ताव पास किया | अन्त में उनके पिता कांग्रेस का प्रस्ताव लेकर उनके पास गए और उनका उपवास तुड़वाया | उनकी सजा कम करवाने के लिए देशभर में प्रयास हुए | गाँधी जी लार्ड इरविन से मिले | उन्होंने सार्वजनिक बयान देकर कहा कि वे भगत सिंह ,राजगुरु और सुखदेव को मृत्युदण्ड दिए जाने के विरुद्ध हैं |’ अहिंसा का प्रबल आग्रही और सशस्त्र क्रान्ति का विरोधी होने के कारण कुछ आक्षेप आसानी से लगा दिए जाते हैं किन्तु आक्षेपी यह भूल जाते हैं कि गाँधी ने ‘अत्यन्त आवश्यक हो तो हिंसा का उपयोग करने का पक्ष लिया था |’
         
सुभाषचन्द्र बोस ऐसी दूसरी महत्त्वपूर्ण शख्सियत हैं जिन्हें गाँधी के विलोम रखने की दुर्व्याख्या की जाती है | गाँधी जी के कहने पर ही सन 1938 में सुभाष बाबू को काँग्रेस अध्यक्ष बनाया गया था और गाँधी जी के नहीं चाहने पर भी वे 1939 में दोबारा अध्यक्ष बने हालाँकि बाद में उन्होंने पद और काँग्रेस छोड़कर फारवर्ड ब्लॉक पार्टी बना ली थी | इन सुविदित तथ्यों के बीच यह बात विस्मृत कर दी जाती है कि काँग्रेस के भीतर गाँधी जी के विचारों से असहमति रखने वालों में जवाहरलाल नेहरु  और सुभाषचन्द्र बोस जैसे युवा प्रमुख थे | अनेक मुद्दों पर असहमति के वक़्त नेहरु व सुभाष बाबू साथ दिखाई पड़ते हैं | लेकिन ये असहमतियाँ अपनी दृष्टि से उस समय के प्रतिउत्तर स्वरूप थीं | सभी में स्वाधीनता प्राप्ति का उद्वेलन था | कार्यप्रणाली के स्तर पर भिन्नता के बावजूद सभी में एक दूसरे के प्रति अपार सम्मान,प्रेम और लक्ष्य के प्रति गहन आश्वस्ति का भाव था | जब सुभाषचन्द्र बोस ने आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया तो ‘फौज की पहली डिविज़न की गुरिल्ला रेजीमेंटों को क्रमशः सुभाष रेजीमेंट, गाँधी रेजीमेंट, आज़ाद रेजीमेंट और नेहरु रेजीमेंट नाम दिया |’ गाँधी के प्रति सम्मान की असन्दिग्धता तो इसी से पता चलती है कि सुभाष बाबू उन्हें राष्ट्रपिता कहकर अपने संघर्ष के लिए आशीर्वाद माँगते हैं | लेखक ने सुभाष बाबू व आज़ाद हिन्द फौज की कार्ययोजना को विश्लेषित कर स्पष्ट किया है – ‘सुभाषचन्द्र बोस इसे देश के भीतर गाँधी जी और काँग्रेस की कोशिशों का पूरक ही समझते थे, उसका विकल्प नहीं |’ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि जब फौज के सोलह हज़ार सैनिक पकड़े गए व कुछ पर देशद्रोह का मुकदमा चला तो जवाहरलाल नेहरु सहित काँग्रेस से संबद्ध लोगों ने उनके पक्ष में पैरवी की |
        
मौजूदा राजनीति की उस दौर से तुलना एकदम बेमानी ही है लेकिन नज़ीर के बतौर हम उस राजनीति के कुछ दिलचस्प पहलू देख सकते हैं | इस समय राजनैतिक दलों के शीर्ष पर काबिज व्यक्ति, दल को अतिक्रमित कर अपने वर्चस्व के प्रति सचेत रहते हैं | सन 1934 में गाँधी जी ने काँग्रेस छोड़ने का निर्णय लिया और उस पर भ्रान्तियों को दूर करने, सरदार पटेल को पत्र लिखकर ‘अपने नाराज़ होने या तैश में आने या निराश होने’ का पटाक्षेप किया | बनवारी बताते हैं – ‘उनका तर्क था कि काँग्रेस उनके व्यक्तित्त्व के नीचे दबी रहती है और अपना स्वाभाविक विकास नहीं कर पाती | एक लोकतान्त्रिक संगठन के लिए यह बात उचित नहीं है |’
        
नेहरु बनाम पटेल के सरलीकृत कुतर्कों में इस बात को नज़रन्दाज़ किया जाता है कि अनेक मसलों पर गाँधी जी से दोनों की असहमति रहती थी, ज़ाहिर है उन पर वे एकराय हुआ करते थे | विभाजन व देशी रियासतों के विलय पर साथ खड़े नज़र आते नेहरु व पटेल एक और स्थिति में गाँधी से विमुख, साथ नज़र आते हैं | गाँधी जी चाहते थे कि काँग्रेस भंग कर उसे लोक सेवक संघ के रूप में परिवर्तित किया जाए और वह ग्राम स्वराज्य के काम में पूरी तरह संलग्न हो | इस मसले पर नेहरु और पटेल की सहमति गाँधी के लिए असम्भव लगी | 
        
गाँधी जी के जीवन में बैरिस्टर की पढ़ाई के दौरान से, अफ़्रीका के समूचे प्रवास और फिर भारत लौटकर, स्वाधीनता संघर्ष के लिए व्यापक जनसमुदाय को जोड़ने की कोशिश में, एक सातत्य नज़र आता है | वे मुश्किलों की बुनियाद को समझते हैं, जिनको उनसे निजात दिलाना है उनके निजी गुण-दोषों को जानते हैं, जिनसे संघर्ष करना है उनकी कार्यपद्धति पर विचार करते हैं और फिर भारतीय सभ्यता से अर्जित जीवन मूल्यों को, अपने आचरण से चरितार्थ कर, प्रतिकार को साकार करते हैं | उन्होंने कभी किसी नए विचार या कार्ययोजना पर अपना दावा नहीं किया, सर्वत्र यही माना कि जो कुछ वे कर पा रहे हैं वह इसी भारतीय संस्कृति का प्रदाय है,वे निमित्त मात्र हैं | यह विनय व स्वीकार भाव उनकी अद्भुत शक्ति है |
         
गाँधी जी चीज़ों को, घटनाओं को उनके होने के वास्तविक अर्थों में जानने की अव्याख्येय सामर्थ्य रखते थे | इसीलिये ऊपरी तह पर दिखाई देती उनकी सफल क्रियाशीलता के पार्श्व में अनेक तहों में लिपटी अप्राप्तियाँ हैं | इस किताब में गाँधी की दूरगामी दृष्टि और मनुष्य के उन्नयन की चिन्ता मुख्य टेक की तरह ध्वनित होती है | गाँधी जी के आरम्भिक पारिवारिक जीवन के उन प्रसंगों से यह किताब शुरू होती है, जिनके घटित होने का परिणाम, नैतिक जीवन की अभीप्सा प्रवाहित कर सका | भारत में सामाजिक और काँग्रेस के ज़रिये राजनीतिक सक्रियता से पूर्व उनका भारत भ्रमण, देश को समग्रता से जानने की मुमुक्षा का ही प्रमाण है | उनके जैसा शख्स लोकप्रियता के भुलावे में, बुनियादी और दूरगामी लक्ष्यों को गौण नहीं करता बल्कि गलत समझे जाने के जोखिम को झेलकर, समूची मानवता के उत्कर्ष में निमग्न रहता है | उसके साधन और प्रयोग किन्हीं भौगोलिक सीमाओं में संकीर्ण नहीं रहते | गाँधी जी को सूक्ष्मता से जानना, इन तमाम प्रत्ययों के उदात्त से परिचित होना है | अपने देश से तो उनका प्रेम इस कदर है, बनवारी लिखते हैं – उनमें जितनी उत्कट इच्छा अपने मोक्ष की है उतनी ही चिन्ता भारत की मुक्ति की भी है |’ लेकिन इस प्रेम की वजह से अँग्रेज़ों तक से रंचमात्र भी घृणा उनमें कभी उत्पन्न न हो सकी | 
         
तथ्यों के संकलन और स्तुति बखान में तत्पर रहती जीवनी विधा के बरअक्स यहाँ अनुल्लेखनीय रह जाती मूल्यवान सूक्ष्मताओं की तफ़तीश इसे उल्लेखनीय बनाती है | यहाँ विचार, विश्लेष्ण और अन्वेषण के भावों में प्रतिकृत हैं इसलिए उनसे गुज़रना वैचारिक कवायद में खो जाने का सुख देता है | लेकिन यह वैचारिकता खंडन-मंडन से सर्वथा दूर, बुनियादी गुणसूत्रों को व्यक्त करने की आकांक्षा लिए है | अनेक किताबों के बीच, नैतिकता के आग्रह पर केन्द्रित राजनीतिक जीवन के समूचे नैरन्तर्य को जानने तथा अज्ञेय से ज्ञेय गाँधी की सम्भवता के अर्थ में, बनवारी के इस जीवनी उपक्रम को पढ़ा जाना चाहिए |
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भारत का स्वराज्य और महात्मा गाँधी
बनवारी
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