12-Dec-2017 05:37 PM
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1.
महात्मा गाँधी ने पारम्परिक दृष्टियों से कुछ प्रत्ययों को लेकर, उनमें अपने समय के अनुकूल नये अर्थ शामिल किये और इसके बाद ही वे उन्हें उपयोग में लाये। वैसे यह भी सच है कि शब्द और प्रत्यय इतिहास के परे वास करते हैं, वे इतिहास से अपने घर्षण के सहारे ही अलग-अलग अर्थ उत्पन्न करते हैं। अहिंसा भी ऐसा ही एक प्रत्यय है जिसे गाँधी ने जैन और बौद्ध दृष्टियों से आयत्त किया था पर उसे औपनिवेशिक काल में कहीं अधिक व्यापक और समकालीन सन्दर्भों में उपयोग में लाये। मैं इस पर कुछ विस्तार से कहूँ, इससे पहले मैं आपको साँची लिये चलता हूँ।
साँची के बौद्ध स्तूप के चार ओर चार तोरण द्वार बने हैं। इन पत्थर के द्वारों पर बौद्ध के पिछले जन्मों की कथाएँ (जातक) अंकित हैं। इस अंकन की शैली कुछ ऐसी है मानो वे जातक कथाएँ पत्थरों पर नहीं, पटचित्रों पर अंकित हों। इनमें से एक तोरण में बहुत सुन्दर ढंग से कई तरह के पशु-पक्षी बैठे हुए दिखायी देते हैं। इन्हीं के बीच में ही कहीं महात्मा बुद्ध की उपस्थिति का प्रतीक चिह्न बना है। साँची के तोरणों में उकेरे हुए जातकों में कहीं भी महात्मा बुद्ध को व्यक्ति-रूप में नहीं दर्शाया गया है। उनकी उपस्थिति विभिन्न प्रतीकों से उद्भासित की जाती है। पशु-पक्षियों के बीच (प्रतीक रूप में) महात्मा बुद्ध बैठे हैं और वहीं कहीं एक चक्र भी बना है, यह धर्म चक्र है। इस अंकन का इंगित यह है कि महात्मा बुद्ध के द्वारा उद्घाटित धर्मचक्र में सिर्फ़ मनुष्य ही नहीं, सभी प्राणी शामिल हैं। धर्म का दायरे में मनुष्य अन्य पशु-पक्षियों के साथ और बीच में ही आता है। 20वीं और 21वीं शताब्दी की जीव-विज्ञान भी अपनी तरह से इसी तरह के सिद्धान्त पर आ पहुँची है। महात्मा गाँधी के लिए भी प्रजा का अर्थ सिर्फ़ मनुष्य समुदाय नहीं रहा। उनके लिए भी इसका अर्थ सभी पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और इनके बीच रहते मानवीय समुदायों से है। आकाश, वायु, जल आदि भी इसी व्यापक प्रकृति का ही अंश हैं। बौद्ध विचार यह है कि मनुष्य को इन सभी के सान्निध्य में कुछ इस तरह जीवनयापन करना होगा कि सभी जीव-जन्तु जीवनयापन कर सकें। यही धर्म चक्र है, धर्म का पहिया, यही मनुष्य के मानस में बुना हुआ है उसी तरह जैसे अन्य पशु-पक्षियों की जैविकी में। इसी से मानो गाँधी ने अहिंसा का अपना विचार लिया था।
2.
देश के विलक्षण चिन्तक आशीष नन्दी ने हिंसा के अपने अध्ययन के दौरान कुछ अनोखे तथ्य खोज निकाले जिनसे अहिंसा के विचार पर प्रकाश पड़ता है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान क़रीब छह करोड़ लोग मारे गये थे। यह बहुत बड़ी संख्या है अगर यह ज्ञात हो कि इनमें अधिकांश को मौत के घाट उतारा गया था। बहुत गोलाबारी हुई थी। आशीष नन्दी का कहना है कि यह सच है कि युद्ध के दौरान असंख्य गोलियाँ चलायी गयी थी। पर यह भी सच है कि इन गोलियों में सत्तर प्रतिशत गोलियाँ सैनिकों ने या तो शत्रु-सैनिकों के ऊपर की ओर चलायी या ज़मीन की ओर। गोलियाँ इस तरह तब चलायी गयी थीं जब शत्रु-सैनिक ठीक सामने थे और उनके सीने पर गोलियों से वार किया जा सकता था। दूसरे शब्दों में दोनों ही ओर से सैनिकों ने सत्तर प्रतिशत गोलियाँ इस तरह चलायी कि कहीं वे शत्रु- सैनिकों को लग न जाएँ। उन्होंने ऐसा यह जानते हुए किया था कि वे युद्ध में है। इस तथ्य से एक निष्कर्ष यह निकलता है कि सैनिक हत्याएँ करना नहीं चाहते थे। वे गोलियाँ भले ही चला रहे हों, शत्रु-सैनिकों की हत्या करना नहीं चाहते थे। इस तथ्य से भी हम यह प्रतिपादित कर सकते हैं कि अहिंसा मनुष्य का सहज स्वभाव है, हिंसा उस सहज स्वभाव पर आरोपण है। अगर मनुष्य को सहज रूप से आचरण करने दिया जाए, उसका आचरण अधिकतर अहिंसक ही होगा। इसी अर्थ में अहिंसा को भगवान बुद्ध और महावीर ने जीव धर्म माना होगा। यानि सिर्फ़ मनुष्य का ही नहीं सभी जीव-जन्तुओं का सहज स्वभाव अहिंसक ही हुआ करता है। शेर या अन्य हिंस्र जीव-जन्तु भी केवल तब हिंसा करते हैं, जब ऐसा करना उनके जीवित बने रहने के लिए अनिवार्य हो। खाये-पीये शेर के चारों ओर हिरण चौकड़ी भरते रहते हैं और वह उन्हें हिरण सिर्फ़ की तरह देखता है, किसी खाद्य सामग्री की तरह नहीं। धर्म के अनेक अर्थ हुआ करते हैं, उनमें से एक अर्थ ग्रीक भाषा के ‘एथिक्स’ के क़रीब का भी है। हालाँकि इस प्रत्यय की व्याप्ति इससे कहीं अधिक है। धर्म में स्वभाव के साथ ही परभाव की चेतना भी उपस्थित रहती है। यह चेतना हर प्राणी में अन्तर्भूत है। इसे सीखना नहीं पड़ता। मनुष्य समेत सभी जीव-जन्तुओं को धर्म के इसी अर्थ में अहिंसक कहा जा सकता है।
3.
गाँधी ने अहिंसा के इसी शाश्वत मूल्य को स्वतन्त्रता आन्दोलन के तात्कालिक ऐतिहासिक कार्य में संलग्न करने का अनूठा प्रयास किया। उनके अहिंसा के आग्रह के पीछे सम्भवतः यह दृष्टि थी कि यह सहज मानवीय स्वभाव है, हिंसा इसके ऊपर आवरण की तरह चढ़ी हुई है और इसलिए इसके रास्ते संवाद की सम्भावना खुल जायेगी। अँग्रेज़ों को भी इसी रास्ते कहीं अधिक कारगर ढंग से सम्बोधित किया जा सकेगा जिससे वे भी अपने हिंसा के असहज व्यवहार को त्याग सकें। अगर हिंसा के आवरण को माननीय स्वभाव के ऊपर से हटा दिया जाये, उसका सहज स्वभाव, उसका सहज अहिंसक स्वभाव आलोकित हो जायेगा। अहिंसा गाँधी के लिए इसी अर्थ में धर्म है। यह सहज मानवीय स्वभाव है जिसे सभी मनुष्य उसी तरह पेट से सीखकर आते हैं जैसे तैरना। इसे आधुनिक शब्दावली में कहे, यह कह सकते हैं कि अहिंसा मनुष्य का आद्य-स्वभाव (प्राइमल नेचर) है। यही बात अन्य जीव-जन्तुओं के विषय में भी सही है। इसका एक आशय यह है कि यदि ऐसी स्थितियों को अनुशासित किया जा सके जिससे मनुष्य हिंसक हो सकता है, मनुष्य स्वभाविक रूप से अहिंसक व्यवहार ही करेगा। कई आधुनिक चिन्तकों के मत में मानवीय परिस्थितियों को सामान्य करने के लिए हिंसा का उपयोग उचित है क्योंकि अन्ततः इससे मनुष्य अपने सहज अहिंसक स्वभाव को प्राप्त कर सकेगा पर गाँधी इस दृष्टि से असहमत थे। यह बीसवीं शताब्दी के चिन्तन में उनका मौलिक हस्तक्षेप है। उनके अनुसार उपनिवेशवाद जैसी असामान्य और हिंसक मानवीय परिस्थति का नियन्त्रण भी अहिंसा से ही किया जा सकता है। मानवीय परिस्थिति में हिंसा के उपयोग से सुधार नहीं, ‘कुधार’ (गुजराती के मूल ‘हिन्द स्वराज’ में गाँधी द्वारा प्रयुक्त प्रत्यय) होता है।
4.
अहिंसा के प्रश्न को एक और दृष्टि से देखना होगा। हम एक-दूसरे के प्रति आत्यन्तिक रूप से हिंसक कब होते हैं? हम दूसरे के प्रति हिंसा कब बरतते हैं? शायद तब जब हम अपने को दूसरे से आत्यन्तिक रूप से भिन्न मानते हैं। जैसे ही हमारे लिए कोई अन्य मनुष्य आत्यन्तिक रूप से अजनबी हो जाता है, हम दोनों के भीतर हिंसा की सम्भावना उत्पन्न हो जाती है। संसार की सभी पेगन परम्पराओं में सभी मनुष्यों, जीव-जन्तुओं और पेड़-पौधों में एक ही आधारभूत तत्व स्वीकारा गया है। इसीलिए इन परम्पराओं में कोई भी जीव या मनुष्य आत्यन्तिक रूप से अजनबी या पराया हो ही नहीं सकता। परायापन केवल तब तक है जब तक हम उसके और अपने भीतर के सामान्य तत्व का अनुभव नहीं कर लेते। इस अथ्ार् में परायापन या दूसरापन अन्तरिम अवस्था है, आत्यन्तिक नहीं। गाँधी-विचार का यह मूल स्तम्भ है। सभी जीव-जन्तुओं और मनुष्यों में एक ही तत्व विद्यमान है। सभी मनुष्य तत्त्वतः एक ही हैं भले ही एक जैसे न हों। मानवीय भिन्नताएँ समुद्र में लहरों की भिन्नताओं जैसी हैं। भिन्नता का यह उदाहरण योगवाशिष्ठ जैसे तात्विक ग्रन्थों में भी मिलता है। यह सच है कि समुद्र में अनेक लहरें हैं पर यह भी सच है कि अगर हर लहर को दोनों ओर विस्तृत कर दिया जाये, हर लहर में बाकी सारी लहरें समा जायेंगी, इस तरह समूचा समुद्र भी। इस न्याय से हर लहर, लहर भी है और समुद्र भी। इसी आत्म-चेतना को कबीर ने दरिया का लहर में समा जाना (दरिया लहर समाए) कहा है। जैसे ही आप यह अनुभव करना शुरू कर देते हैं कि आपमें और अन्यों में कोई आत्यन्तिक भेद नहीं है, वैसे ही आपके भीतर किसी के भी प्रति परायेपन का भाव शान्त हो जाता है। इस अनुभव के अभाव में ही मानवीय हिंसा का उत्स है। जैसे ही इस अज्ञान का आवरण मानवीय चित्त से हट जाता है, मनुष्य अहिंसा के अपने सहज स्वभाव को प्राप्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में आकर किसी से भी संवाद करने का अर्थ अपने को ही जानने का प्रयास हो जाता है। किसी का भी कल्याण पर-उपकार न रह जाकर स्वयं अपना सुख हो जाता है। इस अवस्था में संवाद की स्थिति औपचारिक न रह जाकर अस्तित्वमूलक और अनिवार्य हो जाती है। दूसरे से बात करना इसलिए अनिवार्य हो जाता है क्योंकि इसी रास्ते आप अपने विस्तार को जान पाते हैं, अपने स्वरूप का अनुभव कर पाते हैं। संवाद का यह रूप आत्मबोध का फलितार्थ भी है और उस तक पहुँचने का मार्ग भी। स्वयं और अन्य को तत्वतः एक मानने से आप जो भी कर्म करते हैं, वह अहिंसक ही होता है क्योंकि सारा कर्म आप स्वयं को अनुभव करने के लिए ही करते हैं।
अहिंसा को सामान्य मानवीय स्वभाव स्वीकारने का आधार पेगन परम्पराओं में सहज उपलब्ध अद्वैत बोध है। जब तक यह बोध किसी सभ्यता में व्याप्त नहीं होगा, अहिंसा केवल एक युक्ति बनकर रह जायेगी। वह जीवन-मूल्य नहीं बन सकेगी और इस तरह वह उस सभ्यता के सदस्यों के दैनन्दिन व्यवहार का भाग भी नहीं बन सकेगी। उसे लागू करने कानून बनाने होंगे।
5.
पश्चिमी सभ्यता की दार्शनिक परम्पराओं और भारत एवं अन्य एशियाई सभ्यताओं की दार्शनिक परम्पराओं में अत्यन्त बुनियादी भेद यह है कि पश्चिम में ज्ञान हासिल करने का उद्देश्य उसे कर्म में फलित करना हुआ करता है। दूसरे शब्दों में पश्चिम का मनुष्य ज्ञान इसलिए हासिल करता है कि वह उसके सहारे कर्म कर सके। शायद इसलिए पश्चिम में तकनीकी ज्ञान की चर्चा भी बहुत होती है और उसका व्यवहार भी व्यापक है। शायद इसीलिए पश्चिमी सभ्यता तमाम ज्ञान को टैक्नालॉजी में अन्तरित करने में ही अपनी सफलता मानती हैं। वे पहले परमाणु का ज्ञान हासिल करते हैं और फिर इस ज्ञान के आधार पर परमाणु बम बनाने का कर्म सम्पन्न करते हैं। फिर इस कर्म की व्यापकता को समझने के लिए उसे नागासाकी पर डाल देते हैं। (समाज वैज्ञानिक जीत ओबेरॉय के अनुसार संयुक्त राज्य अमरीका ने हिरोशिमा पर परमाणु बम युद्ध में जापान को पराजित करने डाला था जबकि नागासाकी पर बम वैज्ञानिक परीक्षण के लिए फेंका गया था।) भारत और एशिया की अन्य सभ्यताओं में कर्म और ज्ञान का सम्बन्ध इससे ठीक उल्टा है। (यह सामान्यीकरण करने से पहले मैं वागीश शुक्ल का यह कथन याद करना चाहता हूँ कि भारतीय सभ्यता में सर्वस्वीकृत केवल यही है कि यहाँ सर्वस्वीकृत कुछ नहीं है।) इन सभ्यताओं में कर्म इसलिए किया जाता है कि ज्ञान प्राप्त हो सके। यहाँ कर्म कार्य है और ज्ञान उसका फल। यह सम्बन्ध पश्चिम में इससे ठीक उलट है : वहाँ ज्ञान कारण है और कर्म उसका फल। इस अन्तर को समझने के बाद हम अपने ही पिछले तर्क को उलट कर यह कह सकते हैं कि भारत और एशियाई सभ्यताओं में आप अहिंसक कर्म करने के रास्ते भी यह आत्मबोध प्राप्त कर सकते हैं कि आपमें और अन्य सभी जीवों में एक ही तत्व विद्यमान है। इस जगह आकर हम गीता के एक प्रसिद्ध श्लोक की पुनर्व्याख्या कर सकते हैंः
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूः मा ते संगोस्त्वकर्मणि।।
इस श्लोक के आशय को यदि हमारी भारतीय सभ्यता के विषय में की गयी उपर्युक्त स्थापना को जोड़ दिया जाये, एक गहन अर्थ उत्पन्न हो जायेगा। कर्म करने पर फल की इच्छा नहीं रखना चाहिए, ऐसा कहने की व्यंजना यह है कि यदि कर्म करने पर तात्कालिक फल की इच्छा नहीं रखी जाती तब इस कर्म से ज्ञान उत्पन्न होता है। यह ज्ञान अपने स्वरूप का ज्ञान ही है। इसे अहिंसा के साथ रखकर देखने पर हम यह पाते हैं कि जब हम अहिंसक कर्म करते हैं, हमें इस कर्म का फल आत्मज्ञान के रूप में प्राप्त होता है। आधुनिक भारतीय मनुष्य का बुनियादी आत्म-संकट यह है कि उसे चारों ओर से घेरे रीति-रिवाज़, उसकी सांस्कृतिक प्रवृत्ति आदि में कर्म का लक्ष्य ज्ञान है जबकि उसकी आधुनिक शिक्षा प्रणाली उसे इससे ठीक उलट-ज्ञान का लक्ष्य कर्म, व्यवहार करने को प्रेरित करती है। यहीं आकर वह सभ्यतागत आत्म-विभाजन का शिकार हो जाता है।
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स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हमने भारत को राष्ट्र के रूप में अधिक, सभ्यता के रूप में कम देखा है। यहाँ यह प्रश्न उठाना चाहिए कि सभ्यता क्या होती है? सभ्यता वह मूल्य है जिसके कारण तमाम समुदायों का आपसी संवाद सम्भव हो पाता है। चूँकि यह संवाद युगों-युगों तक चलता रहता है, इसमें ऐसे अनेक संकेत या प्रतीक विकसित हो गये होते है जिनका उपयोग करते ही सभी संवादी उसका आशय या अभिप्राय समझ लेते हैं। इन संकेतों के सहारे संवाद में सघनता और गहरायी आ जाती है। हमने भारतीय सभ्यता के विभिन्न सदस्यों से स्वतन्त्र भारत में बहुत कम संवाद किया है। उदाहरण के लिए हमने दक्षिण पूर्वी देशों जैसे- इण्डोनेशिया, थाईलैण्ड, बर्मा (म्यामांर), कम्बोडिया, वियतनाम आदि से जितना करना चाहिए था, संवाद नहीं किया। आज किसी भी पढ़े-लिखे भारतीय को जितनी यूरोप के साहित्य और दर्शन के विषय में जानकारी है, उतनी इन दक्षिण-पूर्वी देशों के विषय में नहीं है। जबकि हमें इन देशों के साहित्य और दर्शन के गहन आशय अधिक सुगमता से ग्राह्य होते हैं। इन देशों से अहिंसा पर संवाद करना यूरोप की तुलना में कहीं अधिक आसान होता और ऐसा कर हम अहिंसा के मूल्य को कहीं अधिक व्यापक बना सकते थे। पर हमने यह किया नहीं। शायद इसलिए कि यह कार्य गाँधी जी अपने जीवनकाल में नहीं कर सके थे। हम यह नहीं समझ सके कि गाँधी इस सभ्यता की आवाज़ भी थे और इसका वह कर्त्तव्यबोध भी जिसे उनके बाद की पीढ़ियों को धारण करना था। अभी बहुत देर नहीं हुई है : हम अन्यान्य एशियाई देशों से अपने अवरुद्ध संवाद को दोबारा शुरू कर सकते हैं। पर यह केवल तब होगा जब हम यूरोपीय सभ्यता की दहशत से बाहर आ सकें।
7.
गाँधी ने ‘हिन्द स्वराज’ में एक बहुत खास बात लिखी है जिसे हमें अहिंसा के मूल्य से जोड़कर देखने की चेष्टा करना चाहिए। उन्होंने एक जगह लिखा है, ‘धर्मों का धर्म’। इस धर्मों के धर्म को समझना चाहिए। सभी धर्मों का क्या उद्देश्य हुआ करता है? देश के विलक्षण दार्शनिक नवज्योति सिंह ने अपने एक निबन्ध में यह लिखा है कि सभी धार्मिक परम्पराओं का कम-से-कम एक सामान्य लक्ष्य है : शिष्ट व्यक्ति की रचना। इसी शिष्ट व्यक्ति को यूनानी में युसेविया कहा जाता है सम्भवतः ‘देवानां प्रियः’ भी इसी की एक व्याख्या है। गाँधी के लिए धर्मों का धर्म का आशय सम्भवतः यह है कि जो शिष्ट व्यक्ति बने, वह अहिंसक हो। उनके अनुसार जब मनुष्य के ऊपर से तमाम आवरण हट जायेंगे, उसका सहज स्वरूप सामने आयेगा। यह सहज स्वरूप अहिंसक व्यक्ति का है। उनके अनुसार सभी धर्मों का धर्म यह है कि वह एक संवाद करते हुए अहिंसक और इस तरह शिष्ट व्यक्ति को तैयार करे। क्या स्वतन्त्र भारत में हम इस उद्देश्य के आसपास भी आ सके हैं ? अगर नहीं, तो यह किसका दोष है ?