02-Aug-2023 12:00 AM
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वागीश शुक्ल अपने अद्वितीय निबन्धों, टीकाओं और अपने लिखे जा रहे उपन्यास के लिए प्रसिद्ध हैं। वे सम्भवतः हिन्दी के ऐसे लेखक हैं जो हिन्दी के अलावा अंग्रेज़ी, संस्कृत, फ़ारसी और उर्दू पर समानाधिकार रखते हैं। यही कारण है कि उनकी भाषा में बहुकोणीय समृद्धि अनुभव होती है। प्रस्तुत कविताएँ वागीश जी का नवीन सृजन हैं। हाल ही में उनपर पत्नी-शोक जैसी भारी विपदा आन पड़ी। हममें से जिन लोगों ने उन्हें उनकी पत्नी के साथ देखा है, वे जानते हैं कि इन दोनों का साथ असाधारण था। वे इतने अधिक निकट थे जितने दो मनुष्य हो सकते हैं। ‘आहोपुरुषिका’ वागीश जी की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक है। इसमें उन्होंने वैदिक विवाह-सुक्तों का अनुवाद किया है। इसी पुस्तक की शुरुआत में नीचे प्रकाशित कविताएँ हैं। इन कविताओं में संस्कृत, फ़ारसी और उर्दू की कविताओं के प्रचुर मात्रा में सन्दर्भ हैं। सुखद बात यह है कि इन सन्दर्भों के कारण ये कविताएँ बोझिल होने के स्थान पर कहीं अधिक प्रांजल और बहुआयामी हो उठी हैं। ये हिन्दी की अनूठी कविताएँ हैं। हर कविता के साथ बाक़ायदा नोट्स भी प्रकाशित हैं जो इन कविताओं का अनेक दिशाओं में विस्तार करते हैं। ‘आहोपुरुषिका’ के आरम्भिक ‘बक रहा हूँ जुनूँ में क्या-क्या कुछ’ भाग में 44 कविताएँ प्रकाशित हैं। हम उनमें से 20 कविताएँ प्रकाशित कर रहे हैं। हमें विश्वास है कि ये कविताएँ हिन्दी और अन्य भाषाओं के पाठकों को वागीश जी की सर्जनात्मकता के बिलकुल नये और अनूठे आयाम से परिचित करायेंगी।
क्वणत्का´्चीदामा करिकलभकुम्भस्तननता
परिक्षीणा मध्ये परिणतशरच्चन्द्रवदना
धनुर्बाणान्पाशं सृणिमपि दधाना करतलैः
पुरस्तादास्तां नः पुरमथितुराहोपुरुषिका ।।
-सौन्दर्यलहरी; श्लोकाङ्क 7
(हमारे समक्ष कृपालु होकर शिव की आहोपुरुषिका देवी पार्वती उपस्थित हों जिनकी करधनी की झनकार गूँज रही है, जो हाथी के बच्चे के मस्तक जैसे स्थूल उरोजों के भार के नाते थोड़ा झुकी हुई हैं, जिनकी कमर बेहद पतली है, जिनका मुख शरत्कालीन पूर्णचन्द्र की तरह है, और जिनकी चारों हथेलियों में धनुष, बाण, पाश, और अङ्कुश हैं।)
बक रहा हूँ जुनूँ में क्या-क्या कुछ
(Schrödinger की बिल्ली का टुकड़े-टुकड़े प्रलाप)
1. तुम निहारती रहीं मुझमें अपने को
अट्ठावन बरस निहारती रहीं तुम मुझमें अपने को
और फिर सामने से हट गयीं
शायद तुम्हारा सिंगार पूरा हो गया।।
(‘आहोपुरुषिका’ का अर्थ है, ‘अहो पुरुषोऽहम् (= अरे, मैं पुरुष हूँ)’ का आश्चर्य-बोध। इसका वास्तविक तात्पर्य सौन्दर्यलहरी के सातवें श्लोक से स्पष्ट होता है जिसे मैंने मङ्गलाचरण के रूप में इस पुस्तिका में दिया है और जिसमें भगवती पार्वती को भगवान् शिव की ‘आहोपुरुषिका’ कहा गया है। ‘आहोपुरुषिके’ सम्बोधन है।)
2. यह सच है
कि मेरे दिल+ए+तंग में
इतनी वुसअत न थी
कि इतना हुस्न बटोर-संभाल पाता
पर तुम तो दिलकुशा थीं
कुल्हड़ को क़दह, क़दह को सुराही
सुराही को खुम, और खुम को खुमख़ाना में बदलती
तुम तो उनमें से न थीं
जिनकी बज़्म में मौजूदगी
चिराग़ों से रोशनी ग़ाइब कर देती है
तुम तो जहाँ-ताब हो ।।
(दिल+ए+तंग = अल्पावकाश हृदय, बेचैन आशिक़ के लिए इस्तेमाल होता है; वुसअत = विस्तार; दिलकुशा = हृदय को विस्तार देने वाली, माशूक़ा को कहते हैं; क़दह = शराब पीने का बड़ा प्याला; खुम = घड़ा; खुमख़ाना = मदिरालय; बज़्म = महफ़िल
पाठक निश्चय ही यहाँ अल्ताफुर्रहमान ‘फ़िक्र’ यज़दानी का मशहूर शेर है -
‘व आये बज़्म में इतना तो ‘फ़िक्र’ ने देखा
फिर इसके बाद चिराग़ों में रोशनी न रही।।
जहाँ-ताब = संसार को प्रकाशित करने वाला; इसका अर्थ मैं यहाँ ‘सूर्य’ न मानकर ‘सूर्या’ लेना चाहता हूँ जो सूर्य की बेटी कही गयी है और जिसके सोम से विवाह की कथा उन वैदिक विवाह-सूक्तों में आ रही है जिनका अनुवाद मैंने इस पुस्तिका में आगे करने का प्रयास किया है)
3. जहाँ-ताब हो
तभी तो मुझमें
उम्मीद से जगमग
झलक रही है तुम्हारी उन बिन्दियों की सफ़-आराई
जिनमें से चुनती थीं तुम
किसी एक को
उसकी ज़ीनत को बलन्दी बख़्शने के लिए।
या मैं कुछ और ही देख रहा हूँ
या यह है ही वही जो यह था
और मैं यही देखता रहा हूँ
विशुद्धज्ञानदेह त्रिवेदीदिव्यचक्षु
सोमार्द्धधारी सोम
के अधिवास ज्योत्स्नावती में
एक वृषस्यन्ती नवोढा का मणिमण्डप
जिसमें एक गु़न्चे का नीमबिस्मिल तबस्सुम
अपने हज़ार-हा अक्स
दिपदिपा रहा है ।।
(सफ़-आराई = पंक्ति-बद्धता की सजावट; ज़ीनत = शोभा, विशुद्धज्ञानदेह = विशुद्ध ज्ञान ही जिनका शरीर है; त्रिवेदीदिव्यचक्षु = तीनों वेद, अर्थात् ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद (अथर्ववेद की गणना अलग से होती है) ही जिनकी तीनों आँखें हैं; सोमार्द्धधारी = मस्तक पर अर्द्धचन्द्र धारण करने वाले।
(भगवान् शिव के ये तीन विशेषण ‘विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे; श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्द्धधारिणे’ से लिये गये हैं जो सप्तशती के कीलक-स्तोत्र का प्रथम श्लोक है।)
‘सोम’ का अर्थ यहाँ ‘उमया सहितः सोमः’ समझते हुए ‘उमासहित’ अर्थात् ‘अर्धनारीश्वर शिव’ है।
महाकवि रत्नाकर के ‘हरविजय’ महाकाव्य के अनुसार भगवान् शिव का निवास मन्दर पर्वत पर स्थित ‘ज्योत्स्नावती’ नाम की नगरी है; वहाँ कभी अन्धकार नहीं होता।
वृषस्यन्ती = रति की इच्छा करती हुई; नवोढा = नवविवाहिता; मणिमण्डप = मणियों से बना कक्ष, ‘शीशमहल’ का बेशक़ीमत संस्करण; गु़न्चा = कली; नीमबिस्मिल = घायल; तबस्सुम = मुस्कराहट, कली के खिलने की शुरुआत से तात्पर्य है; हज़ार-हा अक्स = हज़ारों प्रतिबिम्ब)
4. हँस रही हो और काजल भीगता है साथ-साथ
तुम नेदिष्ठ थीं
अपटान्तर
शायद भूल हुई सूत्रधार से
या शायद नाटककार का ही प्रमाद है
जवनिका-पात
शायद नाट्य-निर्देश नहीं था
बस नज़र की कमींगाह में पिनहाँ
ग़फ़लत की आँख झपक गयी है।
शायद मैं दूर नहीं
शायद यह आँखमिचौली है
यहीं कहीं... ...
मैं अबोला बोला
आता हूँ मैं
कि इस सादालौह पर सारी क़लमकारी
तुमसे है।
(परवीन शाकिर के शेर है :
लड़कियों के दुःख अजब होते हैं, सुख उनसे अजीब,
हँस रही हैं और काजल भीगता है साथ-साथ ।।
नेदिष्ठ = अत्यन्त निकट, अपटान्तर = इतनी नज़दीक कि एक कपड़े की भी दूरी न हो, जवनिका = परदा।
नज़र = दृष्टि, कमींगाह = घात लगा कर बैठन की जगह, पिनहाँ = छिपी हुई, ग़फ़लत = अ-सावधानी।
(गफ़लत की नींद नज़र की कमींगाह में घात लगाये बैठी है। साये के पीछे शाम छिपी है कि सुबह पर डाका डाल सके।)
सादालौह = ऐसी तख़्ती जिस पर कुछ लिखा न हो, कोरा काग़ज़, यहाँ ऐसा आइना समझना चाहिए जिसके सामने कुछ भी नहीं है और इसलिए उसमें कोई छवि नहीं उभरी हुई है, क़लमकारी = चित्र-लेखन।))
5. कान्दिशीक दर्पण
प्रतिबिम्ब की आस लिए बिम्ब का मुतलाशी
किन्तु मुझे सुराग़ मिले।
देखा मैंने कृष्णाष्टमी के चन्द्रमा को
जो माघ के कुहू-स्नान के लिए तेज़ी से भाग रहा था
ताकि पुण्योज्ज्वल हो कर
कान्तिमान् विवर्धमान उभरे
और वसन्त पंचमी पर जा मिले
अपने मित्र वसन्त की अगुआनी करने
कि फागुन में विश्वविजय के लिए
पंचबाण ने इन दोनों सामन्तों को तलब किया था।
बेसब्र था चन्द्रमा
कि तुम्हारे पैरों के नाखूनों तक पहुँचे
और अपनी ताक़त को दसगुना बढ़ा ले
उधर वसन्त दौड़ता आ रहा था
कि तुम्हारी साँसों से मादकता माँग कर
मलयानिल में शस्त्रता का संचार कर सके ।।
(कान्दिशीक = ‘कां दिशं यामि’ अर्थात् ‘किस दिशा को जाऊँ’ कहता हुआ; मुतलाशी = तलाश करने वाला, कुहू = अमावास्या, माघ की अमावास्या को किया जाने वाला तीर्थ-स्नान सनातन धर्म का एक प्रमुख पुण्यकृत्य है, प्रयाग में प्रतिवर्ष लगने वाले माघ मेले का केन्द्र यह पर्वस्नान ही है। चन्द्रमा और वसन्त कामदेव के सहायक माने जाते हैं।)
6. सुराग़ मिले मुझे
केकी कामोपनिषत् का पाठ दुहरा रहे थे
कुछ इस कोशिश में कि
उनके उदात्त अनुदात्त और स्वरित
ठीक उन ठेकों पर उतरें
जो अंक, आलिग्यंक और ऊर्ध्वक
के त्रिपुष्कर से
कच्छपी की संगत में उठते हैं
जब तुम बोलती हो खुशकलाम!
आख़िर सरस्वती ने अपनी वीणा
जतन और भरोसे से सौंपी थी तुम्हारे कण्ठ को
जब वे अपनी सौत के पद्मालय
पर बढ़त के लिये तुम्हारे पद्मविजयी मुख
में आ बसीं।
उन्हीं मयूरों ने मुझे कहा
यहीं कहीं... ... ।।
(केकी = मयूर। उच्चारण के उतार-चढ़ाव के संस्कृत व्याकरण द्वारा तीन भेद स्वीकार किये गये हैं : उदात्त, अनुदात्त और स्वरित। मृदङ्ग के तीन प्रकार होते हैं, अंक, आलिग्यंक, और ऊर्ध्वक - इन तीनों का समाहार त्रि-पुष्कर कहलाता है जैसे तबले की जोड़ी होती है। ‘कच्छपी’ वीणा का एक प्रकार है, विशेषतः देवी सरस्वती की वीणा के लिए कहते हैं।
खुशकलाम = मधुर और प्रसन्न वाणी बोलने वाली।
लक्ष्मी और सरस्वती भगवान् विष्णु की दो पत्नियाँ हैं। लक्ष्मी ‘पद्मालया’ हैं, अर्थात् उनका घर कमल है। पद्मविजयी = कमल को जीत लेने वाला।)
7. सुराग़ मुझे मिले
हिरनियाँ भाग रही थीं
इधर से उधर से इधर
बेलाग बेतहाशा बयाबाँ में
मैंने कहा, ठहरो
भर नज़र देखो मुझे कि सुनता आया हूँ
तुम्हारी आँखें कुछ वैसी हैं
उन्होंने कहा, नहीं
मजनूँ की घाटी है यह
हमारी वहशत ने ही
हमें यहाँ पनाह दी है
और हमारी आँखें
उस महमिल की रवानी के नाते चंचल हैं
जिसे एकटक ताक रही हैं हम
सुनो उसके जरस की बाँग
वह इस बयाबान से बाहर है
लेकिन यहीं कहीं ... ... ।।
(फ़ारसी-उर्दू काव्य-परिपाटी में मजनूँ को बयाबान (उजाड़ प्रदेश) में भटकता हुआ दिखाते हैं; यह ‘उजाड़’ जंगल, रेगिस्तान, पहाड़ की घाटी, आदि की सारी विशेषताओं को समेटता है इसलिए इसमें जंगली जानवर भी दिखाये जा सकते हैं जिनमें हिरनों की मौजूदगी विशेषतः है। वहशत = जंगलीपन।
लैला को प्रायः महमिल (= पर्दा) में एक ऊँट पर सवार किसी कारवाँ में यात्रा करते हुए दिखाते हैं। ‘जरस की बाँग’ से आशय है उस कारवाँ के सबसे आगे के ऊँट के गले में बँधी घण्टी की आवाज़ जिसको सुन कर उसके पीछे के ऊँट चलते हैं।
इन्हीं बातों को ध्यान में रख कर ये पंक्तियाँ लिखी गयी हैं।)
8. सुराग़ मुझे मिले
मिलते गये मुझे सुराग़
इठलाती लताओं में तुम्हारे विभ्रमों की छवि थी
नदियों की लहरों में तुम्हारी भौंहों का बाँकपन।
राजहंस तुम्हारी चाल अपनाने के उद्यम में लगे थे
और शालभंजिकाएँ तुम्हारा ठाट।
विद्रुम ने तुम्हारे ओठों का रंग पकड़ लिया था
और शङ्ख ने तुम्हारी ग्रीवा का ढंग।
शिरीष-पुष्प तुम्हारे सौकुमार्य से ईर्ष्या-तप्त थे
और गुलाब की पंखुड़ी तुम्हारे गालों से शर्मसार
अपनी देह में काँटे चुभो रही थी।
और यद्यपि नागिनें तुम्हारे गेसुओं से हार कर बाँबियों में चली
गयी थीं,
तुम्हारी देहवास से परास्त कस्तूरी मृगनाभि में छिप गयी थी,
तुम्हारे कटाक्षों के आगे कुन्द
तलवारें म्यान में थीं और तीर तरकश में,
और अश्वत्थ-पत्र लाज के मारे बोल नहीं पा रहे थे
कि वे किसके डर से थरथरा रहे हैं
इन सबने मुझे कहा
यहीं कहीं... ... ।।
(विभ्रम = अदा; अश्वत्थ-पत्र वाले वाक्य को समझने के लिए देखिए नैषधीयचरित 7-91।)
9. सुराग़ तो मुझे मिले ही
मैंने देखा एक गन्धर्वनगर
नीले आसमान में दूधिया सफ़ेद चाँदनी में
पद्मराग मणि के हर्म्य-शिखर अपना राग बिखेर रहे थे
सेत, स्याम, रतनार
या यह तुम्हारी बड़री आँखें थीं
जिन्होंने जाम+ए+जम की तरह
पूरी कायनात अपने में झलका ली थी।
सेत, स्याम, रतनार !
कृष्ण और अर्जुन और लाल देह लाली लसै।
मामक को परास्त करता कृष्णार्जुन-संवाद था यह हर्फ़+ए+ताज़0 में लिखे गये
जिसके स्मर-भाष्य की थाप
मैंने सुनी
उस तौर्यत्रिक में जो
मेघ-मुरज के इशारों पर
विद्युल्लासिका दिखा रही थी।
नक्षत्रों की करधनी की आवाज़ थी शायद
शायद मौलाना रूमी गा रहे थे
‘इँ ख़िरक़0+ए+हस्ती-रा दर मयकद0+ए+वहदत
सद बार गिरौ कर्द-म, उरियान+ए+ख़राबात-म’
लेकिन अहल+ए+ख़राबात ने मुझे बताया
यहीं कहीं ... ... ।।
(‘गन्धर्वनगर’ आकाश में दृष्टिभ्रम के नाते दिखायी देने वाले नगर को कहते हैं। पद्मराग मणि को अँगरेज़ी में ruby कहते हैं और हिन्दी में यह ‘मानिक’ या ‘लाल’ के नाम से जाना जाता है। हर्म्य-शिखर = महल का ऊँचा कँगूरा। राग = रंग। जाम+ए+जम = ईरान के पुराकालीन बादशाह जमशेद का मदिरा-चषक जिसमें पूरी दुनिया दिखायी देती थी। कायनात = दुनिया।
कृष्ण = काला, अर्जुन = सफ़ेद, ‘लाल देह लाली लसै’ = कुरुक्षेत्र में अर्जुन के रथ की ध्वजा पर स्थित हनुमान् जी- इस प्रकार उस रथ में काला, सफ़ेद और लाल ये तीनों रंग कल्पित किये जा सकते हैं।
‘मामक = मेरा’, श्रीमद्भागवद्गीता में धृतराष्ट्र ने दुर्योधन आदि अपने बेटों को ‘मामक’, तथा युधिष्ठिर आदि को ‘पाण्डव = पाण्डु के बेटे’ कहा है। यहाँ ‘मामक को परास्त करने’ से ‘खुदी’ मिटा कर ‘बे-खुदी’ में जाना समझना चाहिए।
यद्यपि श्रीमद्भागवद्गीता को भी कृष्णार्जुनसंवाद कहते हैं, यहाँ शब्दच्छल है, और यहाँ इससे आँखों में कजरारेपन और सफ़ेदी के बीच चलने वाला संवाद समझना चाहिए।
हर्फ़+ए+ताज़ा = नये गढ़े गये शब्द, neologism।
परवीन शाकिर का शेर है :
हर्फ़+ए+ताज़ा + नयी खुशबू में खिला चाहता है
बाब इक और महब्बत का ख़ुला चाहता है ।।
(बाब = दरवाज़ा, अध्याय)
स्मर-भाष्य = कामदेव द्वारा किया हुआ भाष्य। तौर्यत्रिक = नृत्य, वाद्य, और गायन के साथ की गयी नाट्य-प्रस्तुति। मेघ-मुरज = मेघ-रूपी मृदङ्ग; विद्युल्लासिका = बिजली-रूपी नर्तकी।
‘इँ ख़िरक़0+ए+हस्ती-रा दर मयकद0+ए+वहदत; सद बार गिरौ कर्द-म, उरियान+ए+ख़्राबात-म’ = ‘इस अस्तित्व-रूपी वस्त्र को एकत्व के मदिरालय में मैंने सैकड़ों बार गिरवी रखा, मैं इस मदिरालय में निर्वस्त्र हो गया।’ मैंने यह शेर प्रसिद्ध अफ़ग़ानी गायक उस्ताद सर-आहंग की गायी एक ग़ज़ल में सुना था और उनके बेटे ने मुझे बताया था कि यह मौलाना रूमी की ग़ज़ल है।
अहल+ए+ख़राबात = मदिरालय में बैठे पियक्कड़)
10. आतिश+ए+तर का धुआँ बाम+ए+फ़लक तक पहुँचा
पहुँचा ही दिया मुझे ख़राबातियों ने
गन्धर्वों के उस नगर तक।
चंचूर्यमाणा परिखा लबालब थी
चित बेबाक न्यौतती हुई
रुकना ही पड़ा मुझे थोड़ी देर
ज्ञातास्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्थः।
उस पार से अप्सराएँ इशारे कर रही थीं
‘इधर आओ, इधर’।
याद आया मुझे
तुम्हारे लावण्य-समुद्र में तिरते रहने के लिए
तुम्हारे कुचकुम्भ ही हस्तावलम्ब थे।
उठाये मैंने दो मटके फिर
जो वहाँ पीर+ए+मुग़ाँ ने रख छोड़े थे
बर-अक्स तुम्हारे हुस्न के मुहीत+ए+बेकराँ के
परिखा तो अपार न थी।
पार करता हुआ बेधड़क मैं
गन्धर्व-वीणाओं के प्रक्वाणों के बीच जा गिरा।
लेकिन यह उपकण्ठ था
क़दम मेरे बढ़े ज्यों ही आगे
उस ज्योतिर्मय नगर के द्वार पर
रोक लिया मुझे दरबान ने
बिफरा मैं
‘यमराज, यहाँ तुम्हारा क्या काम है
देखते नहीं लिखा है दरवाज़े पर
तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय’।
दरबान मुस्कराया
‘ठीक कहते हो तुम
किन्तु मेरा नाम धर्मराज भी है
विवस्वान् का बेटा हूँ मैं
तेजस् और तमस् के बारे में मुझसे अधिक कौन जानता है
कौन जानता है मुझसे अधिक मृत्यु और अमरता के बारे में
जिसने अमर्त्य देव हो कर भी
ऋत की रक्षा के लिए
मरने का चुनाव किया।
यह हुस्न की अदबगाह है
ऐसे नहीं घुस सकते तुम धड़धड़ाते हुए यहाँ
यहाँ की राह आसान नहीं
बस इतना समझ लीजे
इक आग का दरिया है, और डूब के आना है
याद करो
मैंने नचिकेता को भी
अग्नि-चयन का ही उपदेश दिया था।’ ।।
(आतिश+ए+तर = द्रवीभूत अग्नि, अर्थात् मदिरा; बाम+ए+फ़लक = आकाश की छत। इस पंक्ति को मैंने मुहसिन काकोरवी के शेर से बनाया :
आतिश+ए+गुल का धुँआँ बाम+ए+फ़लक तक पहुँचा
जम गया मंज़िल+ए+खुर्शीद की छत पर काजल।।
जो उनके उस प्रसिद्ध नातिया क़सीदे में आता है जिसकी शुरुआत ‘सिम्त+ए+काशी से चला जानिब+ए+मथरा बादल’ से होती है।
ख़राबाती = पियक्कड़।
चंचूर्यमाणा = इठलाती हुई, यह शब्द भट्टिकाव्य में कामातुर शूर्पणखा की उस अवस्था को बताने के लिए आया है जब वह भगवान् राम को अपने ऊपर मोहित करने के लिए विविध चेष्टाएँ कर रही है।
परिखा = नगर की सुरक्षा के लिए खोदी गयी खाई।
‘ज्ञातास्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्थः ‘ऐसा कौन है जो उस आस्वाद को जानते हुए भी ऐसी युवती को छोड़ दे जिसका वस्त्र कमर से नीचे खिसका हुआ है’ -मेघदूत, पूर्वमेघ-44। कालिदास ने गम्भीरा नाम की नदी को इस अवस्था में कल्पित किया है और मेघ को कहा है कि यहाँ तो तुम्हें कुछ देर इस कारण से रुकना ही पड़ेगा।
पीर+ए+मुग़ाँ = शराबख़ाने का बूढ़ा मालिक।
मुहीत+ए+बेकराँ = अपार समुद्र जिसका कोई किनारा न हो।
प्रक्वाण = वीणा की झनकार।
‘उपकण्ठ’ का अर्थ ‘समीप’ होता है; यहाँ ‘नगर के परकोटे के बाहर की बस्ती’ समझना चाहिए- इस प्रयोग के लिए देखिए कुमार-सम्भव 7-51। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय = अन्धकार को नहीं, प्रकाश को ले जाओ, मृत्यु को नहीं, अमरता को ले जाओ’ प्रसिद्ध औपनिषदिक प्रार्थना है।
‘विवस्वान् = सूर्य’ यम के पिता का नाम है। यम एकमात्र देव हैं जिन्होंने मृत्यु का वरण किया ताकि वे मृत्यु को प्राप्त हुए लोगों की नगरी का शासन सँभाल सकें।
जिगर मुरादाबादी का यह शेर दिमाग़ में रखना चाहिए :
ये इश्क़ नहीं आसाँ, बस इतना समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।।
नचिकेता और यम की कथा कठोपनिषद् में दी हुई है।
11. ‘लौटना ही होगा तुम्हें
अग्नियों से राह माँगने के लिए
लेकिन यमराज से मिल कर
कोई भी वही नहीं रहता
जो वह था।
अब धरती बदल चुकी है तुम्हारे लिए
सूरज वैसा ही नहीं उगेगा तुम्हारे लिए
तारे वैसे ही नहीं चमकेंगे तुम्हारे लिए।
कविता की रीति नयी होगी
जो उतनी ही पुरानी है
जितनी उस क्रौंच की छटपटाहट
जिसका गला आधा रेत कर
व्याध ने छोड़ दिया है
और अगोर रहा है कि
देखें श्लोक की शुरुआत इस बार कैसे होती है।
तुम्हारा नामा+ए+आमाल
एक सर्वथा नयी लिपि में लिखा जायेगा
जो उतनी ही पुरानी है जितनी कि घुन की चाल।
लौटना ही होगा तुम्हें
अग्नियों से राह माँगने
उन गुल्फों तक पहुँचने के लिए
जिनकी खोज में तुमने
उन आसनों का अभ्यास किया
जिनका आविष्कार
इन्द्राणी ने तब किया
जब वात्स्यायन के सूत्र
अपने भाष्य में गुम हो गये।
अग्नियाँ ही बतायेंगी तुम्हें उनका रहस्य
क्योंकि वे ही उस कोहबर में मौजूद थीं
जिसमें पार्वती के पैरों की महावर
चन्द्रमा से टपकते अमृत को अरुणाभ कर रही थी
और धीरे-धीरे
अनङ्ग की राख में
मृतसंजीविनी उतर रही थी’
यमराज कहते ही चले गये।।
(नामा+ए+आमाल = कर्मों का लेखा-जोखा जो क़ियामत के दिन पेश किया जाता है।
रूपवर्णन में गुल्फों को अदृश्य माना जाता है।
कामसूत्र के अनुसार एक रतिबन्ध का आविष्कार इन्द्राणी ने किया था। शिव-पार्वती के कक्ष में अग्नि के प्रवेश की कथा आगे इक्कीसवें टुकड़े पर टिप्पन में आ रही है।)
12. ‘लौटो अब
और जल्दी करो
यमराज किसी को मुहलत नहीं देते’
कहते हुए उन्होंने मुझे एक दरवाज़े में ढकेला
जिसकी खूँटी पर मेरा गिरवी रखा पुराना ख़िरक़ा
जस-का-तस लटका हुआ था
दास कबीर ने भरोसे से बताया
कि सुर-नर-मुनि किसी ने उसे मैला नहीं किया।
यह शब की पी हुई का खुमार ही रहा होगा
कि मैंने जब जमुहाई ली
तो मैं गन्धमादन पर था
पृथु, स्थूल, और उन्नत
तुम्हारे जघन की अनुकृति
जिसके भराव में
तुम्हारे बिछुओं की तजल्ली से भी
उतना ही स्पन्द होता था
जितना प्रकाश में विमर्श से
हाँ मगर तेग़+ए+कोह थरथराती रहती देर तक ।।
‘गिरवी रखा खि़रक़ा’ के लिए मौलाना रूमी का वह शेर देखिए जो ऊपर आ चुका है।
कबीर का झीनी झीनी बीनी चदरिया ... वाला पद दिमाग़ में रखना चाहिए।
मुझे एक शेर इस तरह याद हैः
जो आज पी हो तो साक़ी हराम शै पी हो
य0 शब की पी हुई मय का खुमार बाक़ी है।।
किन्तु शाइर का नाम याद नहीं।
‘गन्धमादन’ एक पौराणिक पर्वत का नाम है।
‘तजल्ली = ज्योति’। प्रसिद्ध कथा है कि ‘तूर’ नामक पर्वत पर हज़रत मूसा ने अल्लाह से कहा कि मैं तुम्हें देखना चाहता हूँ। प्रत्युत्तर में एक ज्योति गिरी जिससे तूर पर्वत चूर-चूर हो गया और हज़रत मूसा की आँखें बन्द हो गयीं जिससे वे कुछ न देख सके।
काश्मीर शैवदर्शन में ‘प्रकाश’ शिव का नाम है जो निष्क्रिय है और ‘विमर्श’ शक्ति का जिसके नाते प्रकाश में स्पन्द आता है और विश्व का प्रसार होता है।
तेग़+ए+कोह = पहाड़ की ‘तलवार’, उसकी नुकीली चोटी को कहते हैं।
13. पर्वतो वह्निमान् धूमात्
रोमावली ने मुझे चेताया
अग्नि की तन्मात्रा यहीं है
यहीं है स्वाधिष्ठान
अनुत्तर अनच्क काकली ने ताईद की
तुम्हारे मणित की प्रतिध्वनि जैसी
यहीं कहीं ... ...।।
‘पर्वतो वह्निमान् धूमात् = पहाड़ी पर आग है क्योंकि धुँआँ उठ रहा है’, अनुमान-प्रमाण का प्रसिद्ध शास्त्रीय उदाहरण है।
‘रोमावली = नाभि से ऊपर उठती हुई रोम-रेखा’; धुँए की लकीर इसका प्रसिद्ध उपमान है।
‘अग्नि की तन्मात्रा’ रूप है।
‘स्वाधिष्ठान चक्र’ जघन-प्रदेश में स्थित माना जाता है; इसका तत्त्व अग्नि है। शार्ङ्गदेव के सङ्गीतरत्नाकर के प्रथम अध्याय में (श्लोक 124) यहाँ कामशक्ति का निवास बताया गया है। इसके कामशास्त्रीय अर्थ के लिए देखिए पौरूरवस-सूत्र जो ढुण्ढिराज शास्त्री द्वारा सम्पादित और चौखम्बा से प्रकाशित कामकु´्जलता में सङ्कलित है। इसको इस दृष्टि से भी देखना चाहिए कि सामान्यतः सर्वत्र षट्चक्र की शब्दावली पुरुष-देह के सन्दर्भ में इस्तेमाल होती है किन्तु पौरूरवस-सूत्र में स्वाधिष्ठान की उपस्थिति को स्त्री-देह में भी बताया गया है।
‘अनुत्तर’ काश्मीर शैव-दर्शन में सर्वोच्च तत्त्व को कहते हैं। ‘अनच्क’ वह शब्द है जिसमें कोई स्वर नहीं है और इसलिए जिसका उच्चारण सम्भव नहीं है। अनुत्तर से इसके सम्बन्ध और कान्तारतिकूजित से इसकी तुलना के लिए देखिए अभिनवगुप्त का तन्त्रालोक, 3-147 तथा थोड़ा आगे-पीछे; जयरथ की टीका बहुत सहायक है।
काकली = मधुर और धीमी ध्वनि; मणित = रतिकूजित
14. वहीं से मैंने गरबीले मन्दर को देखा
और कहा ‘हुँह
दो-दो मन्दर मेरी प्रिया ने मुझे सौंपे थे
तुमसे ऊँचे, तुमसे ठोस, तुमसे संगीन
दो-दो वासुकि जुल्फ़ों के
लहर दुगुनी थी जिनमें
दुगुना था पेंच
कि मैं अधरों के दो-दो समुद्रों
को मथ कर एक साथ
अमृत की दो-दो धारों से आप्लावित रहूँ
देव और असुर का
स्वर्ग और पाताल का
इन्द्र और बलि का
ऐश्वर्य एक साथ मुझे सौंपा था उसने’।
और थोड़ा धँसता हुआ
अपध्वस्त मन्दर अपनी कन्दराओं में बुदबुदाया
‘यहीं कहीं ... ...’।।
(समुद्र-मन्थन की मथानी मन्दर पर्वत में वासुकि नाग को लपेट कर बनायी गयी थी और देवों तथा असुरों ने मिल कर उसे मथा था- अमृत इसी मन्थन से निकला था।
जुल्फ़ें दो होती हैं। ‘लहर’ का इशारा लहराने की ओर है। लेकिन साँप का ज़हर चढ़ने को भी ‘लहर उठना’ कहते हैं। पेंच = घुमाव। अपध्वस्त = जिसने फटकार खायी हो। ‘अधर’ का अर्थ ‘ओंठ’ भी होता है, ‘निचला’ भी।)
15. रामगिरि की टेकरी कुछ दूर न थी
कालिदास बोले
चल कर वहीं डेरा जमाओ
भेज सकते हो तुम बादल से सँदेसा
आज़माया हुआ नुस्ख़ा है यह मेरा
अलकापुरी तक वह जाता है
थोड़ा भटकता घूमता ठहरता ठिठकता
छोकरियों की चाहत और कुलटाओं की शहवत
से जूझता-उलझता-निबटता
हसीनाओं का मनबसिया रसिया है वह
नज़रबाज़ और हरजाई
पर भाभियों का भरोसेमन्द
दुलारा देवर
आज़मा चुका हूँ मैं ।।
(शहवत = कामवासना।
मेघदूत के यक्ष का निर्वासन-निवास रामगिरि पहाड़ी पर था। पूर्वमेघ-9 (तां चावश्यं...) में यक्ष ने अपनी पत्नी को मेघ की भाभी कहा है।)
16. तभी दिखा भोर का तारा
बोला ‘चलता हूँ
फिर शाम को मिलूँगा
और उसके बाद फिर कल सुबह
आता-जाता रहता हूँ मैं शाम+ओ+सुबह
सँदेसा भी मैं ही हूँ, सँदेसिया भी मैं ही’।
हाँ हम इसी को शाम का तारा भी कहते थे
शुक्र या वीनस
पुरुष या स्त्री
मिथक-संसार की सैर के लिए
मनचाहा दरवाज़ा खोलते ही
हम एक-दूसरे में बदल जाते थे
आख़िर ऐकाधिपत्य-योग था हमारी कुण्डलियों में
भरोसा पूरा दिया था उसने
डरा नहीं मैं
शुक्र से रार रखने वाले
बृहस्पति से
जो मेरे लग्न पर अपने भारी-भरकम चूतड़
डाल कर बैठ गये थे
कितना ही पादे वे सीधे मेरी नाक में
ठीक सामने, सातवें घर में
आक्सीजन कन्सेन्ट्रेटर की तरह
तुम बैठी थीं
एक हाथ में रोग और दूसरे में मृत्यु
की गर्दन दबाये।
डरा नहीं मैं
भले ही मेरे नाम पर
उन्होंने क़ब्ज़ा जमा लिया था।
डरा नहीं मैं
तुम्हारा नूपुर
अभय-मुद्रा देखते हुए तुम्हारी
वृष के सूर्य की तरह जाज्ज्वल्यमान
उस अन्धकार को छाँटती हुई
जिससे जानकीजानि को भी
भरमाने की कोशिश
गुरु के चेले ने की थी।।
(‘भोर का तारा’ अर्थात् morning star और ‘शाम का तारा’ अर्थात् evening star एक ही ग्रह के दो नाम हैं जिसे हम भारतीय खगोल में ‘शुक्र’ और पश्चिमी खगोल में ‘वीनस (= venus)’ कहते हैं। यह भारतीय मिथक-सम्पदा में पुरुष और पश्चिमी मिथक-सम्पदा में स्त्री माना जाता है; दोनों में यह प्रेम का अधिष्ठाता है। भारतीय ज्योतिष में यह बृहस्पति का शत्रु है जो उस दर्शन के प्रणेता हैं जिसे हम ‘चार्वाक दर्शन’ के नाम से जानते हैं। इसी का आश्रय लेकर जाबालि ने जानकीजानि (= माँ जानकी के पति, अर्थात् भगवान् राम) को भरमाने का प्रयास किया था ताकि वे पिता की अवज्ञा करें जब वे पिता की आज्ञानुसार वन को जा रहे थे। बृहस्पति को ही ‘गुरु (= भारी)’ तथा ‘वागीश’ भी कहते हैं।
कुण्डली में यदि किसी का मीन लग्न हो तो चूँकि मीन का स्वामी बृहस्पति है इसलिए वही लग्नेश कहलायेगा। वृष और तुला दोनों राशियों का स्वामी शुक्र है अतः क्रमशः वृष राशि और तुला राशि वाली दो कुण्डलियों के मेलापक में ‘ऐकाधिपत्य योग’ होगा जो उत्तम मेलापक को बताता है। लग्न से सातवाँ स्थान पत्नी का होता है, और सातवें की दोनों तरफ़ छठा स्थान रोग का तथा आठवाँ स्थान मृत्यु के होते हैं।
‘वृष’ राशि में सूर्य अत्यन्त प्रखर होता है। ‘तुला’ राशि का नाम तो है ही, उसका एक अर्थ ‘नूपुर’ भी है।)
17. लेकिन चूक गया मैं
भूल गया
कि तुम्हारे अपने नाम में क्या रहस्य छिपा था
भूल गया मैं कालिदास को
भूल गया मैं
कि उर्वशी, रम्भा, मेनका, तिलोत्तमा, विश्वाची, घृताची, पुंजिकस्थला
को अपनी वीणा से बेताला होते देख कर
देवर्षि की उचटती नज़र
तुम पर पड़ेगी
और वे स्वर्ग से एक माला फेकेंगे
तुम्हें बुलाने को
कि उर्वशी, रम्भा, मेनका, तिलोत्तमा, विश्वाची, घृताची, पुंजिकस्थला
के गेसुओं में पेचीदगी, अदाओं में बाँकपन,
मुरझाते ओठों में रस, कुम्हलाते कपोलों में ताज़गी
सूखती आँखों में स्निग्धता, श्लथ नूपुरों में ऊर्जा
भर्राती आवाज़ों में माधुर्य, उखड़ती साँसों में टिकाव
ढीली कंचुकियों में कसाव, सोलह सिंगारों में बनाव
की आमद हो
गान्धर्व की लता लहलहाती रहे
सामगान की धुनें गूँजती रहें अन्तरिक्ष में
ताण्डव को लास्य, डमरु को तुलाकोटि
छूटने न दें अपनी पकड़ से
रौद्र और भयानक पर श्रृंगार और अद्भुत
का वर्चस्व रहे
क़ाइम और दाइम रहे
ऋत की अनृत पर प्रधानता।।
(अज की पत्नी इन्दुमती की मृत्यु का वर्णन कालिदास ने रघुवंश के अष्टम सर्ग में किया है। उसके अनुसार देवर्षि नारद की वीणा पर लिपटी हुई पुष्पमाला उड़ कर इन्दुमती के सीने पर जा गिरी जिसकी चोट से उसका शरीरान्त हो गया। उर्वशी, रम्भा, मेनका, तिलोत्तमा, विश्वाची, घृताची, पुंजिकस्थला, कुछ प्रमुख अप्सराओं के नाम हैं।
‘तुलाकोटि = नूपुर’। इस शब्द का प्रयोग भगवत्पाद ने सौन्दर्यलहरी-86 में किया है जिसमें उन्होंने लिखा है कि एक प्रणयापराध की क्षमा माँगने भगवान् शिव देवी पार्वती के चरणों में झुके और देवी ने उनके माथे पर लात मारी जिससे होने वाली नूपुर-ध्वनि ऐसी लगी जैसे कामदेव शिव से पुराने वैर का बदला चुक जाने पर खिलखिला कर हँसा हो। टीकाकार लक्ष्मीधर के अनुसार ‘तुला’ का ही अर्थ ‘नूपुर’ होता है और उसकी ‘कोटियाँ’ से तात्पर्य उन मणियों का है जो उसमें जड़ी होती है और जिनके नाते नूपुर बजते हैं।
‘क़ाइम और दाइम = दृढ़-स्थित और अनश्वर’। ‘ऋत = सत्य’ जिसके नाते संसार में व्यवस्था है, ‘अनृत = असत्य’ जो अव्यवस्था फैलाने का प्रयास करता है।)
18. अट्ठावन बरस
सोचो तो आठ पाँच तेरह
तिरिया तेरह
हाँ यही उम्र रही होगी
जब विश्वावसु ने तुम्हें सौंपा अग्नि को
कि तुम्हारे बदन में चिनार का मौसिम जगाये।
वक़्त तो लगा होगा बाद0+ए+ख़ाम को पुख़्त0 करने में।।
(‘विश्वावसु’ गन्धर्वों के राजा का नाम है।
‘चिनार का मौसिम’ परवीन शाकिर के इस शेर से लिया गया है :
वह आग है कि मेरी पोर-पोर जलती है
मेरे बदन को मिला है चिनार का मौसिम।।
जैसा कि सर्वविदित है, ‘चिनार’ मुख्यतः काश्मीर में पाया जाने वाला एक वृक्ष है जिसकी पत्तियाँ अक्टूबर-नवम्बर में लाल रंग की होकर झड़ने लगती हैं जिसके नाते कविसमय है कि इससे चिनगारियाँ झड़ती हैं।
बाद0+ए+ख़ाम = कच्ची शराब जो अभी पीने के योग्य नहीं हुई; पुख़्ता = पकी हुई, यह वह शराब है जो कुछ पुरानी हो जाती है और पीने के योग्य होती है।)
19. चिनगारी को लपट बनने में कुछ वक़्त तो लगा होगा
वक़्त तो लगा होगा
काली-कराली-मनोजवा-सुलोहिता-सुधूम्रवर्णा-स्फुलिगिंनी-विश्वदासा
के लपलपाने में।
एक बरस आरजू़ का एक इन्तिज़ार का।
पन्द्रह कलाएँ पूर्ण की होंगी चन्द्रकलाओं ने
पूर्णचन्द्र बनने में
नख-शिख शिख-नख पूरने में कलावाद।
पन्द्रह अक्षरों ने ही काम को नयी ज़िन्दगी बख़्शी थी।
पन्द्रह तक गिनने के बाद ही
अग्नि ने सौंपा तुम्हें मुझे
कि कमल में मन्थन
सम्भव हो और
वे प्रकट हो सकें
अपना नक़ाब नोंच कर फेंकते हुए।।
(अग्नि की सात लपटें मानी जाती हैं जिसके नाते उसका नाम ‘सप्तार्चि’ है; काली-कराली- मनोजवा-सुलोहिता-सुधूम्रवर्णा-स्फुलिगिंनी-विश्वदासा, उन्हीं सात लपटों के नाम हैं।
सौन्दर्यलहरी-31 (चतुःषष्ट्या तन्त्रैः ... ...) की टीका में लक्ष्मीधर ने ‘कलावाद’ को एक तन्त्र-शास्त्र बताया है। उन्होंने यह भी बताया है कि इसका तात्पर्य है ‘चन्द्रकलाज्ञान’, अर्थात् यह जानकारी कि स्त्री के किस अंग में किस तिथि को काम का वास रहता है।
अनंगरंग जैसे कामशास्त्रीय ग्रन्थों में इसका जो विवरण है उसके अनुसार शुक्लपक्ष में नखशिख क्रम से दाहिने भाग में और कृष्णपक्ष में शिखनख क्रम से बायें भाग में काम की उपस्थिति होती है- इस प्रकार कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को सिर के बायें हिस्से के बालों में और शुक्लपक्ष की पूर्णिमा को सिर के दाहिने भाग के बालों में, तथा इसी क्रम से अमावस्या को बायें पैर के अँगूठे में और शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को दाहिने पैर के अँगूठे में काम का वास होता है। यह चन्द्रकलाज्ञान स्त्रीशरीर में कामोद्दीपन हेतु उपयोगी माना जाता है तथा तन्त्र-साधना में भी सहायक है।
श्रीविद्या सम्प्रदाय की मान्यता है कि जब शिव ने काम को भस्म कर दिया तो पार्वती ने उसे पुनरुज्जीवित किया और काम ने पन्द्रह अक्षरों के एक मन्त्र से देवी की आराधना की।
सामवेद के प्रथम अध्याय के प्रथम खण्ड के नवें मन्त्र ‘त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत।...’ के अनुसार अग्नि को अथर्वा ऋषि ने कमल में मथ कर प्रकट किया था।
सनातन विश्वास के अनुसार स्त्री का पहला पति सोम है, दूसरा पति गन्धर्व है, तीसरा पति अग्नि है और इन तीन दैवी पतियों के बाद जिस मनुष्य के साथ उसका विवाह होता है वह उसका चौथा पति होता है जो उसका प्रथम मानव पति होता है। इस सम्बन्ध में शास्त्रीय वचन आगे विवाह-सूक्तों के अनुवाद में आयेंगे, फ़िलहाल यहाँ याज्ञवल्क्यस्मृति - 1-71 ‘सोमः शौचं ददावासां गन्धर्वाश्च शुभां गिरम्; पावकः सर्वमेध्यत्वं मेध्या वै योषितो ह्यतः (= सोम ने इनको शुचिता दी, गन्धर्वों ने इन्हें शुभ बोलना सिखाया, और अग्नि ने इन्हें सर्वत्र सर्वदा पवित्र रहने का वर दिया अतः स्त्रियाँ हमेशा पवित्र होती हैं)’ प्रासंगिक है। इसकी दूसरी पंक्ति इस प्रकार भी मिलती हैः ‘अग्निः सर्वांगकान्तित्वं तस्मान्निष्कसमाः स्त्रियः (= और अग्नि ने उनके सम्पूर्ण शरीर को कान्तिमय बनाया, इसलिए स्त्रियाँ स्वर्ण के समान होती हैं)’।)
20. तिरिया पन्द्रह मरद अठारह
जब अग्नि ने सौंपा मुझे तुम्हें तुम्हें मुझे
और रह पाये हम हिन्दू
कि गार्हस्थ्य को संस्कार की ही नहीं
सरकार की भी अनुमति चाहिए थी।।
(हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 में पहले वर की न्यूनतम आयु अठारह वर्ष और वधू की न्यूनतम आयु पन्द्रह वर्ष निर्धारित थी, 1-10-1978 में एक संशोधन द्वारा इन्हें क्रमशः इक्कीस वर्ष और अठारह वर्ष कर दिया गया है।)