ऐसे कटता है दिन और अन्य कविताएँ ध्ा्रुव शुक्ल
20-Jun-2021 12:00 AM 1442

बिदाः 2020

इतनी दुर्गत
अन्याय सतत
आगत विगत अनागत
मत-सम्मत
सब आहत
जग क्षत-विक्षत

डूबता रहा देश
ऊबता रहा काल
घेरता रहा जीवन को
कपट कुशल
विश्वतरंगजाल

क्या भल-अनभल
जीवन को दल
दुर्भाग्य प्रबल
केवल छल, केवल छल

भर पायेगा अपकर्ष
नये वर्ष में हर्ष?

दो हज़ार ईसवी सन बीसा
दारुण दुख दे बीत रहा
हे! ईसा


राम दुहाई! ये कैसी चैपाई!

बड़े भाग मानुस तन पावा।
हम को घेरे बाज़ार छलावा।।
बाढ़े खूब कुटिल अभिमानी।
होती राज ध्ारम की हानी।।
बाढ़े खल बल चोर जुआरी।
कीसें कहें बिपति अति भारी।।
झूठइ लेना ----झूठइ देना।
झूठइ भाषन झूठ चबेना।।
सब दल कल्पित करहिं अचारा।
बरनि न जाय अनीति अपारा।।
जागो जन सब विविध्ा शरीरा।
सब मिल हरो देश की पीरा।।

विकल सभी जन देश के। सूझ परहिं नहिं पन्थ।।
पाखण्डवाद के सामने। गुमसुम सब सदग्रन्थ ।।

ऐसे कटता है दिन

नींद खुलते ही
प्रार्थनाओं में बीनता हूँ शान्ति
जो भंग होती है अख़बार से
भरी रहती हैं जिसमें आवाज़ें
पाखण्ड, छल और लोभ की

आँख मूँदकर
कर लेता हूँ भरोसा
ध्ार्म के पाखण्ड पर
राजनीतिक छल पर
बाज़ार के लोभ पर
समय नहीं पछताने का
अपने आप पर

टेलीविज़न पर
आलाप लेते शोर में
बीनता रहता हूँ शब्द
हिन्दू और मुसलमान

सड़कों पर भूसे की तरह
उड़ती चली आती भीड़ में
किसको पास बुलाऊँ
किससे दूर चला जाऊँ

आवाज़ों के कचरे में
दिन भर कचरा बीनता रहता हूँ
खाली हाथ लौटता हूँ घर

शाम ढलते ही आती है याद
वह लड़की
जो कचरे से कचरा बीनकर
पीठ पर बोरी लादे
जा रही होगी कबाड़खाने की ओर

यौं है तो क्यों है

बता न पाये कोई
जीवन यौं है
बता न पाये कोई
ऐसा है तो क्यों है

कैसा होकर यौं है
ऐसा होकर क्यों है
जैसा होकर यौं है
वैसा होकर क्यों है

सबकी अपनी यौं यौं
सबका अपना क्यों क्यों
हा हा ही ही हों हों
ध्ाा ध्ाा ध्ाी ध्ाी ध्ाों ध्ाों
ऐसा क्यों है
वैसा क्यों है

क्या जीना ज्यों का त्यों है
क्या मरना ज्यों का त्यों है
यौं है तो क्यों है


महाकाव्य की राख

चिता जल रही महाकाव्य की
रचा-बसा था जिसमें जीवन
बहुरंगी पुरुषार्थ कथाएँ
बहुअर्थी परमार्थ व्यथाएँ
कौन ले गया
इसके शव को श्मशान तक

महाकाव्य का अग्निदाह
जल रहे शब्द
बसे हुए अर्थों में जलते
नव रस से उठती विकल भाप
जलते महाकाव्य की देह-गन्ध्ा
छा रही शेष जीवन पर
ध्ाुएँ में डूब रहे सब छन्द
चिंगारी बन होते विलीन
भाषा की लय में बसे भाव
आग में चटक रहे वाक्यों से
बिखर रहे सब अलंकार
खाक हो रही सब उपमाएँ

महाकाव्य की राख
कौन जाने कब होगी ठण्डी
फिर होगा इसी राख से
जन्म किसी कवि का
फिर होंगे शब्द प्रकाशित
दर्शन होगा जीवन छवि का


बेख़बर बनाती ख़बरें

हिंसा की ख़बरें
प्रचार हैं हिंसा का
जो प्रेरित करती हैं --
आप भी करके देखें हिंसा

राजनीति की ख़बरें
प्रचार हैं भ्रष्ट राज्य-व्यवस्था का
जो प्रेरित करती हैं --
आप भी मज़े मारें भ्रष्ट होकर

बाज़ार की ख़बरें
प्रचार हैं मनमानी लूट का
जो प्रेरित करती हैं --
आप भी लूट सकें तो लूटें

ध्ार्म की ख़बरें
प्रचार हैं उस जड़ता का
जो प्रेरित करती हैं --
आप अपने आपको भूलकर जीते रहें

अख़बार के किसी कोने में
जगह पा गयी भलाई की ख़बर
सन्देह से भरती है --
अरे, यह अभी बची रह गयी है!

कोई ख़बर अब ख़बरदार नहीं करती
बेख़बर बनाती है


ओ मेरे भारत के जन
रवीन्द्रनाथ टैगोर की स्मृति में

भटक गये हैं देश के बादल
सूख रहा है देश का जल
बाँझ हो रही देश की ध्ारती
पशु-पंछी सब यहाँ विकल
बदल गये हैं बीज देश के
बिलख रहे हैं यहाँ किसान
हुनरमन्द असहाय देश के
दो रोटी में अटकी जान
बिखर गया है देश का आँगन
और मर रहे देश के गाँव
भूल गये अपनी पगडण्डी
ठिठक गये हैं देश के पाँव
बिगड़ गयी है देश की बानी
डूब रहा है देश का मन
जहरीली है हवा देश की
टूट रहे हैं देश के तन
अकड़ रहे हैं देश के नेता
पकड़े परदेसी का हाथ
देश बँट गया जात-पाँत में
कोई नहीं है सबके साथ
बेच रहे जो देश के साध्ान
लूट रहे जो देश का ध्ान
उनको कब तक क्षमा करोगे
ओ मेरे भारत के जन


दबे पाँव बढ़ते हैं कद्दू

इतने मोटे-तगड़े कद्दू
लगें देखने में ये फद्दू
कुछ भोंदू-से
कुछ तोंदू-से
बड़े-बड़े-से ढोल
इनकी चितकबरी है खोल

बीज छिपा है इनके भीतर
जिससे ये अपनी बेल बढ़ाकर
घर के छप्पर पर चढ़ते हैं
हरे-हरे पत्तों में छिपकर
दबे पाँव बढ़ते हैं

चुपके-चुपके वजन बढ़ाकर
घर के खपरे फोड़ें
जो ढोता है इनको सिर पर
उसकी कम्मर तोड़ें

कद्दू के आगे छोटी दिखतीं
खरबूज़ों की फाँकें
खट्टे-मीठे आम सभी
कद्दू का मुँह ताकें
कद्दू देखें लाल-लाल जब
तरबूज़ों की आँखें
पीले और केसरिया कद्दू
आपस में मुँह ताकें

दुख जाते-जाते रह जाता है

कुछ छिपते-छिपते दिप जाता है
कुछ दिपते-दिपते छिप जाता है
कुछ ढहते-ढहते रह जाता है
कुछ रहते-रहते ढह जाता है

चुप रह जाता कोई कहते-कहते
कोई चुप रह कर कह जाता है
रह जाता है सुख आते-आते
दुख जाते-जाते रह जाता है

आँसू बह-बह कर रह जाता है
रह-रह कर आँसू बह जाता है

कहाँ मिलेंगे
जन-गण मंगलदायक भरे बाज़ार में!

बने-बनाये घर मिलते बाज़ार में
बने-बनाये डर मिलते बाज़ार में
बने-बनाये पर मिलते बाज़ार में
नहीं मिलती है
अपने मन की उड़ान भरे बाज़ार में!

बने-बनाये प्रेम मिलें बाज़ार में
बने-बनाये फ्रेम मिलें बाज़ार में
बने-बनाये गेम मिलें बाज़ार में
नहीं मिलता है
अपने मन का खेल भरे बाज़ार में!

बने-बनाये मुख मिलते बाज़ार में
बने-बनाये रुख मिलते बाज़ार में
बनी-बनायी तुक मिलती बाज़ार में
नहीं मिलती है
अपने मन की बात भरे बाज़ार में!

बने-बनाये नेता मिलें बाज़ार में
बने-बनाये अभिनेता मिलें बाज़ार में
बने-बनाये विक्रेता मिलें बाज़ार में
कहाँ मिलते हैं
जन-गण मंगलदायक भरे बाज़ार में!

बने-बनाये स्वाद मिलें बाज़ार में
बने-बनाये वाद मिलें बाज़ार में
बने-बनाये विवाद मिलें बाज़ार में
नहीं मिलता है
जीवन का संवाद भरे बाज़ार में!

होता रहता प्रकट, रटा-रटाया दुख
बने-बनाये सुख, पटे पड़े बाज़ार में
कहाँ जरूरत कुछ रचने की
सब मिलता है बना-बनाया भरे बाज़ार में!

प्रेम तुम से जैसे पृथ्वी से

प्रेम करता हूँ तुम से
जैसे पृथ्वी से

सुनायी देती है तुम्हारी देह में
जलों की आहट
लिपटी रहती है मुझ से
तुम्हारे स्पर्श की गन्ध्ा
समायी हो मेरी देह के आकाश में
सूरज-जोत-सी

मैं अँकुराये बीज-सा
जड़ जमाता तुम्हारी देह में
रचती हो तुम मुझे
वृक्ष की तरह

तुम्हारी देह पर
फैलती मेरी शाखाएँ
अंक में भरने को आतुर
पूरी पृथ्वी को

तुम ही
ज़रा-सी ओट देकर सूर्य को
मुझे छिपा लेती हो
अपनी देह की उजास में
अपने जल के बहाव में
अपनी गन्ध्ा की गलियों में

प्रेम तुम से जैसे पृथ्वी से

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