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अकथ का आकाश - मिथलेश शरण चौबे
मिथलेश शरण चौबे
India
02-Jul-2020 12:00 AM
1653
कविता की अनेक सच्चाइयों में एक यह भी है कि वह ज्ञान देने का स्थूल उपक्रम नहीं करती, भले ही उसे पढ़कर जीवन पद्धति में अनायास धनात्मक इज़ाफ़ा हो | उपदेश जैसी अभिधाग्रस्त कार्यावाही वैसे भी कविता का काम नहीं होना चाहिए, परम्परा में एक प्रयोजन की तरह प्रतिष्ठित होने के बावजूद | कविता वास्तव में ‘देने’ की किसी सुनियोजित चेष्टा से सर्वथा स्वतन्त्र रहती है | इसीलिये उससे सभी को सर्वथा अलग ही हासिल हो सकता है | कविता में रची कल्पना से, उसमें बसी स्मृति से, इनको रूपायित करती भाषा से बहुत सूक्ष्म स्तर पर जो प्राप्तियाँ सम्भव हो सकती हैं, वह किसी निर्धारित उपक्रम का हिस्सा नहीं हो सकतीं | कवि दृष्टि में कुछ नैतिक प्रतिमान, भाषिक अनुष्ठान, वैचारिक सन्धान व काल्पनिक उत्थान ज़रूर होते हैं लेकिन वे सब किसी पूर्व निर्धारित के प्राकट्य के उपकरण नहीं बनते | इसीलिये कविता में, इनमें से किसी का अतिक्रमण सार्थक तो नहीं ही हो सकता | अनेक श्रेष्ठ कविताओं के हवाले इस बात को महसूस कर सकते हैं | संगीतविद और विचारक
मुकुन्द लाठ
के कविता संग्रह
अँधेरे के रंग
में शामिल कविताएँ इस विचार की ओर ध्यानाकृष्ट कराती हैं |
रोज़मर्रा के प्रकट व स्थूल अनुभवों से विरत इन कविताओं में अस्तित्त्व सम्बन्धी प्रश्न और उसके स्वानुभूत संशय केन्द्रीयता से उपस्थित हैं | किसी दार्शनिक की तरह निर्णय की घोषणा से मुक्त इन कविताओं में कवि की तरह प्रश्नों और संशयों को भोगने की प्रक्रिया मिलती है | ‘कौन हूँ’ के प्रश्न से तंग कवि को निरन्तर यह अहसास है कि ‘यहाँ नहीं यहाँ नहीं / कहीं और जाना था |’ वहाँ जहाँ ‘नीड़ की होगी कहीं / सम्भावना छतनार’ | इस कवायद में ‘बैठने के रास्ते मैं ढूढ़ता / चलता गया |’ इस प्रक्रिया में कोई प्राप्ति नहीं है और न प्राप्ति की आतुरता | अपने ‘बन्धमुक्त’ होने के साथ ही ‘आहारलिप्त’ होने के द्वंद्व से गुज़रते हुए भी व्यापक की कामना का नैरन्तर्य है : ‘आकांक्षा की कहाँ चौखट / घर कहाँ बाहर कहाँ |’ यह विचार कामना तक सीमित न होकर तमाम प्रतिकूलताओं के बीच रच लेने के दुस्साहस तक पहुँचता है : ‘धार भीतर छवा लूँगा / पाँच तिनकों की मढैया / डूबती इन पाँच / साँसों के सहारे |’ निरुपायता, व्यर्थताबोध, मृत्यु की आहट, समय के बीतने के तीव्र अहसास की धुन से अस्तित्त्व के प्रश्न व संशय और भी तीक्ष्ण हो उठते हैं | इस अनुभव को हिन्दी में प्रसाद, अज्ञेय व कुँवरनारायण की कविताओं के क्रम में देखा जा सकता है |
यहाँ अस्तित्त्वगत विचार स्वाभाविक ही, दुनियावी सच्चाइयों के विलोम कुछ जीवन सूत्र दे सका है, एक कविता से हम इसे समझ सकते हैं :
पाँचों तो एक से हैं
तुम इन्हीं में तीन-पाँच
करते रहोगे भस्म होने तक ?
पार उसी डाली से
उड़ गयी है चिड़िया, अपार के इरादे से
तुम यहीं फिरोगे रस्म होने तक ?
मिटा है स्वप्न, स्वप्न ही तो था
चुपकारते हैं द्वार, हैं इसी इस्पात के भीतर
यहाँ बैठे रहोगे फिर तिलिस्म होने तक ?
चली हवा पहाड़ ले उड़ी है हाथों में
उड़े हैं रोम तुम्हारे, गड़े हैं पाँव क्यों पागल
किसे निहोरते हो ? छद्म है, ठगे रहोगे छद्म होने तक ?
यह कविता प्रश्नांकित करती है : व्यर्थ की उलझनों को, अपार की अनुभूति दे सकने वाली उन्मुक्त उड़ान को छोड़कर रस्मों तक सिमटने को, स्वप्नों के टूटने पर आश्चर्य के घटित की प्रतीक्षा में निरुपायता को, किसी अन्य उद्धारक की ओर देखने को जबकि खुद में ही सम्भावना है | यह कविता संग्रह की कवि सम्वेदना का वास्तविक मर्म उद्घाटित करती है |
यहाँ अन्यों को अनसुना करती आत्ममुग्धता के प्रश्नांकन रूप में हमारे समय का सत्य है, आत्मकीय रूप में प्रकृति से सामीप्य की चाहना है, ‘उऋण कौन होता है’ जैसा नियतिबोध है तो कल्पना की उच्चता को रचते हुए भी ‘मेरी तो चाह भी न पहुँच सकी’ के रूप में अकारथ का आत्मस्वीकार है |
इन कविताओं में दार्शनिक कथ्य कविता के सम्मुख विनत भाव से आया है इसीलिये कहीं भी कवि की आत्मविद मुद्रा नज़र नहीं आती | यह काव्य कौशल का ही प्रतिबिम्बन है | कुछ नए और गढ़े शब्दों के रूप में भाषिक समृद्धि तो मिलती ही है लयात्मकता का विरल गुण भी अत्यन्त सघनता के साथ मौज़ूद है | तीन व चार पंक्तियों की कुछ छोटी कविताओं में विन्यस्त सूक्तिपरकता भाषिक मितव्ययिता में अर्थ विस्तार को चरितार्थ करती है | लगभग सभी कविताएँ ‘पाठ’ का आनन्द देती हैं | जीवन के औसतपन से मुक्ति की पुकार एक लय की तरह इन कविताओं से ध्वनित होती है | यहाँ स्मृतियाँ भी असारता बोध और औसत के उन्नयन की पुकार लेकर आयीं हैं, चाहे मिथकीय स्मृति हो, या जातीय स्मृतियाँ |
भाषा और अनुभव के आलोक में कविता पढ़ने के अभ्यस्त रसिकों को इन कविताओं में कल्पना और स्मृति से प्रकट, निर्विकार होने का भाव तो मिलेगा ही, यथार्थ के आग्रह से मुक्त यहाँ मनुष्यता के अनिवार्य प्रत्ययों से भी साक्षात होने का विरल अवसर मिल सकेगा | पाठ की गतिमयता के सहारे यहाँ कविता, अकथ के आकाश को निरावृत्त कर, उसके होने के ठोसपन का सामना कराती है | दर्शन और कविता का द्वंद्व कविता के समक्ष तिरोहित होकर दृष्टि के अभाव से सामना कराने की चकाचौंध फैलाता हैं | यहाँ कविता का मतलब काव्यास्वाद की केन्द्रीयता से आगे जाकर जीवन अर्थ की खोज की मुख्यता का वरण करता है | त्वरित से आक्रान्त कविता समय में यह संग्रह एक दीर्घयात्रा का, ऐसी यात्रा जिसमें होने के अर्थ को खोजने की बेचैनी और अकर्मण्यता के दुख से मुक्त होने की कवायद करती उम्मीद, इस कदर असम्पृक्त हैं कि दोनों के उपक्रम एक साथ निरन्तर हो सकें |
इस समूची उल्लेखनीय काव्य प्रक्रिया में किसी निष्कर्ष सत्य के बखान का भाव नहीं है | हालाँकि कुछ नहीं देने के अहंकार से मुक्त कविता, किसी की कुछ पाने की जिज्ञासा और प्रतीक्षा को स्थगित कैसे कर सकती है ? इस देने और पाने के द्वंद्व के आलोक में इस संग्रह की कविताओं से एक बार ज़रूर गुज़रना चाहिए |
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कविता संग्रह : अँधेरे के रंग
कवि : मुकुन्द लाठ
प्रकाशन : रज़ा पुस्तकमाला, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
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