अलफतिया ध्रुव शुक्ल
29-Dec-2019 12:00 AM 3849

सबसे पहले अपना परिचय देना ठीक रहेगा- मैं एक अवांछित व्यक्ति हूँ, अनाधिकार चेष्टा मेरी आदत है। किसी के भी जीवन में ताक-झाँक किये बिना जी नहीं सकता। एक नम्बर का मुफ़्तखोर हूँ। ये गुण जिस व्यक्ति में कूट-कूटकर भरे हों, उसे ही अलफतिया कहा जाने लगता है। दुनिया में मेरे जैसे लोगों की कमी नहीं है। वे हर गाँव-शहर में मिल जायेंगे। जैसे लोगों के नाम होते हैं, मेरा भी एक नाम है जिसे आपको नहीं बताऊँगा। जो लोग मेरी विशेषताओं को जल्दी ही पहचान लेते हैं, वे मन-ही-मन मुझे अलफतिया मान लेते हैं। फिर कोई मुझे किसी भी नाम से पुकारे, उसके मन में मेरा नाम अलफतिया ही होता है।
मेरा घर कहीं नहीं है, जहाँ होता हूँ वहीं से निकल पड़ता हूँ। कॅाफ़ी हाउस के बाहर खड़ा हो जाता हूँ। कोई तो ऐसा मिल ही जाता है जो कभी पहले भी मिला होगा। उसके साथ सुबह का नाश्ता और चाय का जुगाड़ बड़ी आसानी-से हो जाता है। अगर वही आदमी रोज़ मिले तो किसी खम्बे की ओट में छिप जाता हूँ, किसी दूसरे की राह देखता हूँ। चाय पीते हुए कोई ऐसी बात बढ़ा देता हूँ कि दूसरी बार मिलने पर कॅाफ़ी हाउस का दरवाज़ा मेरे लिए फिर खुल सके। मुझे तो बस कॅाफ़ी हाउस के बाहर खड़े होने भर की देर है, कोई-न-कोई मेरा हाथ पकड़कर भीतर खींच ले जाता है। बात फिर इतनी आगे बढ़ा देता हूँ कि कभी खत्म होने की नौबत ही न आये।
अपने अनुभव से कहता हूँ कि लोगों को बात बढ़ाने की आदत है। जब उन्हें कोई नहीं मिलता तो वे सड़क पर चलते हुए अपने आप से बतियाते रहते हैं। वे कहीं अकेले बैठे-बैठे अचानक ऐसे बोल पड़ते हैं जैसे किसी से कुछ कह रहे हों, जबकि उनके आसपास भी कोई नहीं होता। वे मन ही मन कुछ कहते रहते हैं और उनके हिलते हुए होठों को देखकर मैं अंदाज़ लगाया करता हूँ कि वे कौन-सा शब्द बोल रहे होंगे। वे कभी मन्द-मन्द मुस्कराने लगते हैं जैसे किसी ने उन्हें गुदगुदा दिया हो। कभी उन्हें अकेले बैठे-बैठे ज़ोर की हँसी आ जाती है तो मुँह को रूमाल से छिपाने की कोशिश करते हैं कि कहीं कोई देख न ले। वे अक्सर रोने भी लगते हैं और जल्दी मुँह नहीं छिपा पाते।
कोई पीछे आ रहा हो तो आगे चलने वाला मुड़कर देख लेता है, सतर्क होकर चलने लगता है। औरतों को यह दिव्य दृष्टि जन्मजात मिली हुई है। पर ज़्यादातर लोग अपने आप से बातें करते हुए कहीं नहीं देखते। मैं ऐसे लोगों का रोज़ पीछा करता हूँ, उनकी बातें सुनता हूँ। जिन बातों को वे मन में रख लेते हैं उन बातों का अंदाज़ उनकी सुनी हुई बातों से लगाता हूँ। कुछ लोगों की आँखों में उनकी बोली तैरती दिख जाती है तो उसमें डूबा साधकर उसे भी सुनने की कोशिश करता रहता हूँ। मैं लोगों की हरकतों, फुसफुसाहटों और कानाफूसी की थाह लेकर उनका पीछा करता हूँ। ये लोग मुझे पहचान नहीं पाते पर मैं तो इन्हें अच्छी तरह पहचान लेता हूँ। मेरी रोज़ी-रोटी इन्हीं से चलती है।
रात काटने के लिए मैंने एक बढि़या तरीका खोज निकाला है- रेल्वे स्टेशन पर चला आता हूँ और रात की किसी भी गाड़ी के जनरल डिब्बे में बैठ जाता हूँ। जब टिकट चेकर आता है तो थोड़ी देर के लिए टाॅयलेट में छिप जाता हूँ। रात के खाने की जुगाड़ करने के लिए बड़ी देर तक मुसाफि़रों को ताड़ना पड़ता है- डिब्बे में बारी-बारी से भिखारी आते ही रहते हैं- अन्धे-लूले-लंगड़े। कई मुसाफि़र तो उनकी तरफ देखते ही नहीं। भिखारी तेज़ चलती रेलगाड़ी में सबको दुआएँ देते हुए हौले-हौले कदम बढ़ाते हैं जैसे भीख देने के लिए सोचने का मौका दे रहे हों। पर आजकल लोग सोच-विचार में ज़्यादा रुचि नहीं लेते। कुछ सोचते भी हैं तो न जाने क्यों उन्हें सोचने में देर लग जाती है। फिर वे भिखारी को अपने पास बुलाते हैं। अगर वह लंगड़ा हुआ तो अपनी सीट से उठकर उसे कुछ दे आते हैं। लूला और अंधा भिखारी अपनी तरफ से हाथ फैलाने के लिए किसी छोटे बच्चे या औरत को अपने साथ रखता है। लंगड़ा भिखारी रेंगकर पास आता है।
कुछ मुसाफि़र ऐसे होते हैं कि भिखारी को पास आता देख पहले से ही तैयार होने लगते हैं- कोई जेब टटोलने लगता है, कोई अपने रात के भोजन का डिब्बा खोलकर अपनी रोटियाँ गिनने लगता है और फिर न जाने क्या सोचकर उनमें-से एक रोटी निकालकर तुरन्त भिखारी के हाथ पर रख देता है और भिखारी के आगे बढ़ते ही मैं उन महानुभाव के पास खिसक आता हूँ। उनकी प्रशंसा में दो शब्द कहता हूँ- आजकल आप जैसे दयालु लोग कितने कम होते जा रहे हैं। यह सुनते ही वे मुझे अपने पास बिठाने की कोशिश करने लगते हैं। वे अपनी सीट पर इतना सिकुड़ते हैं कि मेरे लिए जगह निकल आती है और वे अपनी थाली में भी दो रोटी की जगह निकालकर मुझे दे देते हैं।
रोटी का जुगाड़ होता देख सुबह की चाय का इंतज़ाम भी लगे हाथ कर ही लेता हूँ- जब वे दयावान मुसाफि़र अपने दाहिने हाथ से मेरी तरफ रोटियाँ बढ़ाते हैं तो रोटियाँ लेते ही उनका खाली हाथ पकड़ लेता हूँ और इससे पहले कि वे मुझसे कुछ पूछें, बस एक ही बात कहता हूँ कि आप दस दिन बाद मुझे ज़रूर याद करेंगे। तब वे पूछते हैं कि क्या आप भाग्य बाँचना जानते हैं, आपने मेरे हाथ की रेखाओं में ऐसा क्या देख लिया। और मैं कहता हूँ, अब आप चैन की नींद सो जाइए, सबेरे चाय पीते हुए बात करेंगे, आपको ऐसी बात बतायेंगे जो आपका जीवन बदल देगी। वे मन्द मुस्कुराकर अपनी बर्थ पर लेट जाते हैं। मैं भी सुबह की चाय पक्की करके सो जाता हूँ।
रेलगाड़ी में सुबह का अलार्म नहीं लगाना पड़ता। भोर होते ही चाय वाले जगा देते हैं। मुझे अच्छी तरह मालूम है कि अपने भाग्य की चिन्ता में यात्रा करते लोग चैन की नींद नहीं सो पाते। वे चाय वाले की आवाज़ से पहले उठकर मुझे जगा देते हैं और जैसे ही चाय वाला आता है, उससे चाय लेकर मेरी ओर बढ़ा देते हैं। खाने के लिए कुछ नमकीन-बिस्कुट भी मिल जाता है और मैं मौका मिलते ही टाॅयलेट जाने के बहाने किसी स्टेशन पर उतर जाता हूँ।
मेरे जीवन में सबेरा अक्सर किसी-न-किसी रेल्वे स्टेशन पर ही होता है। फारिग होने और नहाने-धोने के लिए स्टेशन एक खुली धर्मशाला है। अगर बातें बनाना आता हो तो दुनिया का हर प्लेटफ़ाॅर्म दया की भीख माँगने के लिए सबसे अच्छी जगह है। राह चलते लोग मदद करना तो दूर, किसी की नहीं सुनते। बेचारे खुद ही न जाने किससे मदद माँगने की जल्दी में भागे चले जाते हैं। स्टेशन ऐसी जगह है जहाँ भागते-भागते लोगों को कुछ देर ठहरना भी पड़ता है- कुछ देर ठहरकर ही दूसरों को गौर से देखा और सुना जा सकता है, उनके बारे में सोचा जा सकता है। अगर रेल्वे स्टेशन न होते तो मेरा जीना मुश्किल हो जाता।
मैं अक्सर अपने लिए छोटे और मँझोले स्टेशन चुनता हूँ- जहाँ रेलगाडि़याँ कम आती हैं और जो आती हैं वे लेट भी हो जाती हैं। तभी तो मुझे प्लेटफ़ाॅर्म पर प्रतीक्षा करते लोगों के क़रीब जाने का मौका मिलता है। मैं अच्छी तरह समझ चुका हूँ कि लोगों से दूर रहकर किसी का जीवन नहीं चलता। मुझे अपना जीवन चलाने के लिए तरह-तरह के अजनबी लोग चाहिए जिनसे छोटी-सी दोस्ती गाँठकर अपना गुज़ारा चला सकूँ।
आप पूछ सकते हैं कि भाई साब, कोई काम क्यों नहीं करते। सच मानिए, मैं जहाँ भी होता हूँ, काम की तलाश में ही भटकता हूँ पर दोपहर होते-होते भूख लग आती है तो रोटी का जुगाड़ करता हूँ। काम मिलने में देर लगती है पर भूख लगने में देर नहीं लगती और जब रात घिरने लगती है तो फिर किसी प्लेटफ़ाॅर्म पर लोगों को खोजने लगता हूँ, रेलगाड़ी में बैठ जाता हूँ।
मुझे अपने बारे में सिर्फ़ इतना ही मालूम है कि मेरे माँ-बाप मुझे किसी स्टेशन पर छोड़कर न जाने कहाँ चले गये। मुझे एक कुली ने पाल-पोसकर बड़ा किया, कुछ पढ़ाया-लिखाया, फिर वह कुली भी भगवान को प्यारा हो गया। कभी-कभी सोचता हूँ कि भगवान का प्यारा होने के लिए जि़न्दगी नहीं, मौत ज़रूरी है। मैंने किसी से जीवन माँगा नहीं और माँगने से मौत भी आती नहीं। क्या जीते-जी पल-पल होती मौत को कोई प्यार नहीं करता? उसे प्यार करने लिए पूरी मृत्यु ही क्यों चाहिए? क्या तिल-तिल मरते, रोते-बिलखते बेबस जीवन से किसी को प्यार नहीं? अभी तक यह तय कहाँ हुआ कि भगवान है और उसे भूख लगती है कि नहीं। पर यह तो तय है कि जीवन है और उसे भूख लगती है।
जन्म लेते ही सबसे पहले भूख लगती है। शिशु माँ का स्तन खोजते हैं और उमर बढ़ते-बढ़ते माँ को छोड़कर रोटी की तलाश में घर से बाहर निकल पड़ते हैं। जीवन का सारा खेल अपनी जान बचाये रहने का है। जान बचाते-बचाते जान एक दिन चली जाती है पर भूख नहीं मिटती, अगले जन्म में पीछा करती है। जिसे जीवन की भूख मिटाने की कला आ जाये, वही ज्ञानी है और ज्ञानी को अपने जीवन से मुक्ति की भूख लगती है पर बिना रोटी के मुक्ति की बात करते हुए मैंने किसी को नहीं देखा। सब कहते हैं कि भूखे भजन नहीं होता और अकेले भजन से भूख नहीं बुझती। भूख बुझाने की जि़म्मेदारी भगवान पर नहीं छोड़ी जा सकती, उसका उपाय खुद ही करना पड़ता है। भिखारी भगवान के नाम पर भीख माँगते हैं पर उन्हें अपना हाथ फैलाना पड़ता है। आवाज़ लगाना पड़ती है। मन मसोसकर भीख माँगते हुए कहना पड़ता है कि जो भीख दे रहा है भगवान उसका भला करे, भले ही हमें भिखारी बनाये रखे। भिखारियों ने भीख देने वालों को उनकी तिजोरी भरी रहने की दुआएँ देकर ही तो धनवान बनाया है। पता नहीं यह जीवन कबसे इतना असहाय है कि अपने ऊपर दया करने वालों की रचना करता रहता है। राजा और रईस इसी जीवन ने पैदा किये हैं। मैं भी इसी जीवन का हिस्सा हूँ, किस्सा गढ़कर रोटी का जुगाड़ करता हूँ।
जो जैसा किस्सा गढ़ लेता है, ये दुनिया उसके किस्से जैसी हो जाती है। आदमी ही क्या, किस्से के बिना भगवान को भी इस दुनिया में रहने की जगह नहीं मिलती, वे किस्सों में ही रहते हैं। किस्सा एक ऐसी जगह है जिसमें अवतार लेकर बेघर का घर बसाया जा सकता है। वरदान और शाप का खेल खेला जा सकता है। भाग्य की कल्पना करके सौभाग्य की कामना और दुर्भाग्य का भय रचा जा सकता है। ऐसा कोई नहीं जो इस किस्से के बाहर हो। आप उसे इस किस्से में बाँध लीजिए, वह आपका मुरीद हो जायेगा और आपकी हर मुराद पूरी करेगा। वह आपका पेट भरने के लिए खुद भूखा मरने को तैयार हो जायेगा। जो लोग दूसरों के भविष्य के किस्से गढ़ लेते हैं, उनकी रोज़ी-रोटी चल निकलती है।
मन्दिरों में जाओ तो वहाँ भविष्य के भगवान विराजे हैं। जब तक पिछले जन्म के कर्मों का इस जन्म में हिसाब-किताब नहीं हो जाता, तब तक भगवान का पता लगाना उस भूल-भुलैया जैसा है जिसमें घुसने के बाद बाहर निकलने की राह नहीं मिलती। उसमें भटकते-भटकते कई जन्म बीत जाते हैं पर कर्मों की रोकड़बही बन्द ही नहीं होती। लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी भविष्य के भगवान को भजते रहते हैं, मन्दिरों में चढ़ावा चढ़ा-चढ़ाकर जीवन बीतता रहता है। पण्डों की रोज़ी-रोटी चलती रहती है, भगवान के भक्त दर-दर भटकते हैं।
धर्म ने भगवान के भक्तों को चार टुकड़ों में बाँट रखा है। जो कुछ कर नहीं सकते, बस रोते और भजन गाते हैं, वे ही तो पिछड़े वर्ग के भक्त हैं। मन्दिरों में भीड़ उन्हीं से बढ़ती है। जो हाथ-पाँव मारकर धनवान बन जाते हैं, वे अपने काले कर्मों का चैक काटकर मन्दिर की गुप्तदान पेटी में छिपा देते हैं। पता नहीं इस पेटी में भरे इन टेक्स-फ्री काले कर्मों का हिसाब कौन करता है। जो भगवान को खोजने निकलते हैं वे मन्दिर-मन्दिर जाकर भण्डारे के भोजन पर पलते हैं। जिनकी ज्ञान की भूख बुझ जाती है, वे भी रोटी खोजते फिरते हैं। भगवान किसको मिला, आज तक किसी ने सबूत ही नहीं दिया।
संसद में जाओ तो वहाँ भविष्य के पकवानों के लिए बहस चल रही है कि जनता उन्हें पाँच साल बाद कैसे खायेगी। बजट बन रहा है। वहाँ भी पुरानी देनदारियों का हिसाब हो रहा है। जब तक वे चुक नहीं जातीं, तब तक नेता जनता की कढ़ाही में तेल ही नहीं डालेंगे। लोग भविष्य के पकवानों की आशा लगाये हर पाँच साल में वोट डालते रहते हैं और नेता बड़े मज़े-से सत्ता का डोसा मसाला पका-पकाकर खाते रहते हैं। सत्ता के गठबंधन के साँभर में लौकी, भिण्डी, टमाटर और बैंगन की तरह तैरते रहते हैं।
धर्म ने जीवन के चार ही टुकड़े किये- रोने-धोने वाला, करने-धरने वाला, ज्ञान पिपासु और संन्यासी जीवन- पर राजनीति ने उसके चालीस टुकड़े कर दिए। साधुओं में चलन है कि वे किसी की जात नहीं पूछते पर राजनीति का काम जात पूछे बिना नहीं चलता। वहाँ भी पिछड़े वर्ग के वोटर हैं जो आम सभा में भीड़ बढ़ाते हैं और जो धनवान हैं, भावी नेता का मंच सजाकर अपनी दूकान बचाते हैं और जो भीड़ के बीच अकेले रह जाते हैं उनकी कोई नहीं सुनता। जो कहते हैं कि उनने माया-मोह त्याग दिया है, नेता उनके पाँव तो पूजते हैं पर उनसे ज्ञान नहीं बूझते। सब कहते हैं कि जनता का राज्य है पर आज तक इसका सबूत नहीं मिला।
मेरी समझ में अब तक यही आया है कि इस दुनिया में जो जहाँ अपना आसन जमाने में सफल हो जाये, उतनी जगह पर उसका राज्य हो जाता है और वहीं से वह अपने राज्य का विस्तार करने लगता है- कोई बाबाजी किसी पेड़ के नीचे अपना आसन जमाकर चिमटा गाड़ देते हैं और पिछड़े वर्ग के भक्तों की भीड़ उन्हें घेरकर बैठ जाती है, फि़ल्मी पैरोडी पर भजन गाने लगती है, देखते ही देखते वहाँ भव्य मन्दिर बनने लगता है, बाबाजी महन्त हो जाते हैं, धंधा चल निकलता है। फिर बाबाजी के चिमटे कोई सरकार भी नहीं उखाड़ पाती। सड़क किनारे की कोई गुमटी आसपास की जगह पर कब्ज़ा करके अचानक किसी बड़ी दूकान में बदलने लगती है और दूकानदार अपनी दूकान पर सत्तारूढ़ दल का झण्डा फहराकर अपना राज्य कायम किये रहता है। सरकार चली जाये पर धंधा कायम रहता है। कोई और सरकार आ जाये तो दूकानदार उसकी पार्टी का झण्डा फहरा लेता है। आये दिन किसी चैराहे पर कोई-न-कोई मदारी कुछ देर के लिए ही सही, अपनी सत्ता स्थापित कर लेता है और चार पैसे भी कमा लेता है।
मदारी मेरा गुरू है। राह चलते लोगों के बीच थोड़ी-सी जगह खोजकर अपना गुज़ारा कर लेता है। वह भी बातें ही बनाता है। ताल ठोककर हर रोग के इलाज का दावा करता है, पिंजरे में कैद तोते को भविष्यवक्ता बनाकर पेश करता है। मदारी का तमाशा देखकर लगता है कि हर आदमी एक पिंजरा है जिसमें एक तोता बैठा है। वह उड़ना भूलकर उड़ने के लिए अपने पंख फड़फड़ाता रहता है, ज़्यादातर जीवन इसी तोते जैसा है। आप उसे अपनी चटपटी बातों की एक मिर्च बार-बार दिखाकर अपनी तरफ आकर्षित कर सकते हैं। अपना गुज़ारा चलाने के लिए मैं भी इसी आज़मायी हुई विधि का इस्तेमाल करता हूँ।
मैं किसी आदमी को लूटता नहीं, बस अपनी ज़रूरत पूरी करके उसे छोड़ देता हूँ। जैसे अपने दाँत माँजने के लिए नीम के पेड़ से एक दातोन तोड़ ली हो। अगर वही आदमी मुझे दुबारा मिल जाये तो उसका मेरे ऊपर भरोसा बना रहता है और मैं उससे अपनी बात फिर बना लेता हूँ।
मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि सब अपने-अपने पेट के लिए जी रहे हैं। पेट न होता तो आदमी को किसी जीवन दर्शन की ज़रूरत ही न होती। दुनिया में जो बिरले लोग जीवन को समझने चले, उनने अपने दर्शन की शुरुआत पेट से की। पेट का सम्बन्ध प्राणों से है, प्राणों का मन से है और मन का बुद्धि से है। पेट खाली हो तो प्राण सूखने लगते हैं और मन मुरझाने से इंकार करते हुए बुद्धि को विचलित करता है और बिचारी बुद्धि बिना सोचे-समझे पेट भरने का उपाय करने के लिए पूरे शरीर को दाँव पर लगा देती है। फिर खाली पेट शरीर में किसी भी तरह भूख बुझाने का अहंकार जागता है और आदमी पेट भरने के उपाय करने के अलावा कुछ नहीं सोचता। मैं भी तो जीवन के इसी खेत की मूली हूँ। पेट भरने वालों के बीच बैठकर अपनी दाल-रोटी की जुगत बिठा लेता हूँ।
जो लोग अपना रोटी-पानी लेकर चलते हैं, वे दूसरे के साथ उसे बाँट लेने में कोई संकोच नहीं करते। उन्हें यह भरोसा रहता है कि कभी उनके आड़े वक्त में कोई दूसरा भी उनसे अपना रोटी-पानी बाँट लेगा। पर जो सबके रोटी-पानी पर गुड़ेरी मारकर बैठ जाते हैं उनसे अपनी रोटी छीनना पड़ती है। उनके खिलाफ़ जुलूस निकालकर धरने पर बैठना पड़ता है। मैं अकेला आदमी कैसे जुलूस निकालूँ और कहाँ धरने पर बैठूँ? मुझे उन लोगों की चिन्ता ज़रूर होती है जो मेरे जैसी बातें बनाकर दो रोटी नहीं जुटा पाते।
राह चलते अनुभव करता हूँ कि सब भिखारियों को भीख माँगना भी नहीं आता, भाषाहीन होकर दुनिया में गुज़ारा कितना कठिन है। वे जैसे ही किसी के आगे हाथ फैलाते हैं और कुछ कह नहीं पाते, वह उन्हें दुतकार देता है। जो भिखारी संतों के रचे भजन गाकर दाता का मन मोह लेते हैं उन्हें भीख मिल जाती है। वे अच्छी तरह जानते हैं कि भीख तो उस भगवान के नाम पर ही मिल सकती है जिसे भीख देने वाले ने देखा ही नहीं। वह तो फि़ल्मी गाना सुनकर इतना जानता है कि भगवान संसार का सबसे बड़ा अमीर है। जो आदमी भिखारी को एक पैसा देता है तो फिर उसके बदले भगवान उसको दस लाख लौटा देता है। इतना मुनाफ़ा तो शेयर बाज़ार में भी नहीं मिलेगा। लोग इस चमत्कार की आशा में भीख देते रहते हैं।
दुनिया में रईस बहुत हैं पर उनके नाम पर कोई भिखारी भीख नहीं माँगता। आजकल लोगों के शेयर का पैसा खाकर रईस भाग जाते हैं, अपने दिवालिया होने का ढिंढोरा पीट देते हैं। उनके नाम पर भीख देने से किसी को क्या मिलेगा। ऐसा भी हो सकता है कि भिखारी जिस रईस के नाम पर भीख माँगे, रईस उसी भीख देने वाले का पैसा उड़ाकर विदेश भाग गया हो। जो भीख देने से पहले ही लूट लिया गया, वह किसी को भीख कैसे देगा। चिंता की बात ये भी है कि अब तो भगवान के घर की तिजोरी को भी लूटकर खाली किया जा रहा है- वन-पर्वत और नदी-सरोवर, औषधियाँ-खनिज और पेड़-पौधे, खेत-खलिहान और सारा जहान-सब ही तो लूटे जा रहे हैं, तब एक पैसे के बदले दस लाख कौन चुकायेगा। पूरी दुनिया भिखारी होने की कगार पर खड़ी है। भगवान को कंगाल बनाकर लोग भीख देने के काबिल ही नहीं रहेंगे।
क्या कभी किसी ने देश के प्रधानमन्त्री के नाम पर किसी भिखारी को भीख माँगते देखा है? प्रधानमन्त्री के पास तो पूरे देश की तिजोरी की चाबी होती है पर उनके नाम पर कोई एक धेला न देगा क्योंकि भिखारी अच्छी तरह जानते हैं कि उनका जीवन प्रधानमन्त्री के भरोसे नहीं, भगवान भरोसे ही चल रहा है। प्रधानमन्त्री के नाम पर तो वोटों की भीख माँगी जाती है, जिससे उनकी सत्ता बची रहे, भले ही भगवान की सत्ता भाड़ में चली जाये। बड़े-बड़े रईस नेता भिखारियों की तरह वोट की भीख माँगकर अपनी सरकार बना लेते हैं और सरकार बनते ही भिखारियों की तादाद बढ़ने लगती है। उन्हें फिर भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है।
कभी कोई ऐसी रात भी आती है जब मैं अपनी बात बनाने में विफल हो जाता हूँ, हर दाँव लगाकर थक जाता हूँ और पूरी रात भूखे पेट रहकर काटना पड़ती है। मैं लोगों से बात बनाने का खेल अचानक बन्द कर देता हूँ, निढाल होकर लेट जाता हूँ और अनुभव करता हूँ कि मेरी भूख गहरी नींद में बदल रही है। भूख कब और कैसे बुझी, पता नहीं चलता। मुझे कभी कोई साधु मिले थे, वे कह रहे थे कि भगवान का घर गहरी नींद में है।
एक दिन इतनी गहरी नींद लग गयी कि सबेरा होते ही खुली नहीं। मैं रेल के जिस डिब्बे में सोया था, वह डिब्बा किसी और गाड़ी में जोड़ दिया गया और वह गाड़ी भी कहीं चल पड़ी। अचानक नींद टूटी तो देखा कि पूरे डिब्बे में बाबा-बैरागी विराजे हुए हैं। पूछने पर पता चला कि यह रेलगाड़ी सीधी प्रयागराज जा रही है, जहाँ गंगा किनारे कुम्भ का मेला लगा है, दुनिया भर के लोग गंगा में डुबकी लगा रहे हैं और ये बाबा लोग भी अपना अखाड़ा लेकर वहीं जा रहे हैं। नंगे, अधनंगे, मौन और बड़बोले, कई तरह के बाबाओं के साथ मैं भी कुंभ नहाने निकल पड़ा।
बाबा लोग बड़े मज़े-से चाय और चिलम पी रहे थे। मैंने एक हट्टे-कट्टे बाबाजी को सादर प्रणाम किया और उनके चरणों में बैठकर उनसे चाय का प्रसाद माँगा। बाबाजी मुझे कुछ देर एकटक देखते रहे जैसे मन ही मन मेरे लिए एक कप चाय बना रहे हों। फिर उनने अपनी भगवा झोली से किसी वरदान की तरह बहुत बड़ा थर्मस निकाला और एक माटी के कुल्लड़ में चाय-प्रसाद प्रदान किया। मैं कड़कड़ाती ठण्ड में दोनों हाथों के बीच कुल्लड़ दबाकर चाय पीते हुए बाबाजी को मन ही मन संदेश देने लगा कि आप बड़े दयालु हैं और बाबाजी मुझे चाय पीता देख यह अनुभव करने लगे कि मैं अपने दोनों हाथ जोड़कर उनका कृपा प्रसाद ग्रहण कर रहा हूँ।
रेलगाड़ी गंगा का पुल पार करने लगी तो बाबा लोग अपना सामान समेटने लगे, लगता है प्रयागराज आ रहा है। मेरे पास कोई सामान नहीं था। मैंने बाबाजी का झोला उठा लिया और स्टेशन पर उतरते ही उनके पीछे हो लिया। गंगा किनारे साधुओं के तम्बू तने थे, उन पर झण्डे फहरा रहे थे। भभूत रमाये नागा साधुओं की जमातों में धूनी रमी थी। उनके भण्डारे देखकर मन खुशी से फूला नहीं समा रहा था। अब मुझे डेढ़ महीने तक रेलगाड़ी में नहीं घूमना पड़ेगा, खूब गंगा नहाऊँगा और दो वक्त की रोटी भी खा लूँगा।
बाबाजी का अखाड़ा आ गया। चेले उनके चरणों में गिर पड़े और मैं उनका झोला रखकर वहीं एक कोने में बैठ गया। बड़ी देर बाद बाबाजी की नज़र मुझ पर पड़ी तो वे बोले -- तू भी यहीं ठहर जा, गंगा नहा और ज्ञान चर्चा सुन। तेरा भी बेड़ा पार हो जायेगा। मैंने कहा -- बाबाजी, मेरे पास तो कपड़े-लत्ते भी नहीं हैं। तब उनकी आज्ञा पाकर उनके चेलों ने मुझे एक जोड़ी भगवा लुंगी और दो चुनरी पकड़ा दीं। जा गंगा नहा ले -- बाबाजी बोले। पर मुझे लगा जैसे बाबाजी कह रहे हों कि तू भी बहती गंगा में हाथ धो ले।
बहती गंगा में हाथ धोना -- एक कहावत है जो किसी ज्ञानी ने मेरे जैसे अलफतिया के लिए ही बनायी होगी। आजकल यह कहावत राजनीति में खूब चलती है क्योंकि वहाँ लोग अपना स्वार्थ साधने के अलावा करते ही क्या हैं। पता नहीं, इनके मन का मैल गंगा कैसे धोती होगी। इन लोगों ने अपने हाथ धो-धोकर ही प्रजातंत्र की गंगा मैली कर दी है। मैं जिस घाट पर पहुँचा वहाँ भाँति-भाँति के नेता गंगा में पूरी डुबकी मार रहे थे। आम चुनाव उनके सिर पर था। उन्हें डुबकी मारता देख मैं यह सोचने लगा कि कहीं चुनाव हार जाने के बाद वे गंगा में डूब मरने का अभ्यास तो नहीं कर रहे। वैसे मैंने किसी नेता की आज तक गंगा में डूबकर मरने की खबर नहीं सुनी। लोग उनकी बेशर्मी देखकर उन्हें गंगा में डूबने की नहीं, चुल्लू भर पानी में डूब मरने की बद्दुआ ज़रूर दिया करते हैं।
नदी में स्नान करने के बाद बड़ी जोर की भूख लगी और मुझे बाबाजी का भण्डारा याद आने लगा -- जहाँ देसी घी से भरी कड़ाही में पूडि़याँ डुबकी मार-मार कर तैर रही होंगी और तीर्थ यात्रियों की पत्तलों में गिरकर उनकी भड़कती हुई भूख बुझा रही होंगी। वे गर्म कड़ी-भात को सानते हुए अपनी अँगुलियाँ जला-जलाकर अपनी जीभ भी जला रहे होंगे।
भूख ऐसी चीज़ है कि उसे बुझाने के लिए आदमी आग से खेलने में भी कोताही नहीं करता। गंगा किनारे आग के गोलों के बीच कितने ही नागा साधु अपनी देह तपाते रहते हैं, चढ़ावा चढ़ाने के लिए सबका ध्यान अपनी ओर खींचते हैं। वे उन बच्चों की तरह लगते हैं जो खाने की चीज़ माँगने के लिए हठ किया करते हैं। साधुओं के बारे में कहा भी जाता है कि वे ज्ञानवान होकर बच्चों जैसे हो जाते हैं।
तन पर भभूत लपेटे, जटाजूट को रुद्राक्ष की मालाओं से सँवारे अपनी चिलम फूँकते नागा साधु ऐसे लगते हैं जैसे छुक-छुक गाड़ी के पुराने इंजन हों। उनके आसपास कतारों में लगे लोग इस इंजन से जुड़े हुए उन डिब्बों जैसे लगते हैं जिन्हें उम्मीद है कि यह इंजन उनके जीवन की रेलगाड़ी को आज भी खींचकर किसी मुक्तिधाम में ले जा सकता है। चारों तरफ आग की लपटों की तरह झण्डे फहरा रहे हैं जैसे जि़न्दगी को चलाने के लिए आग पकायी जा रही हो। नागा साधु अपनी जीभ पर अंगार रखकर ऐसे फुँफकारते रहते हैं जैसे अब रेलगाड़ी चलने वाली है।
नये ज़माने की रेलगाडि़यों में बैठकर लाखों लोग कुम्भ के मेले में ऐसे आ रहे हैं जैसे उन्हें यहाँ आकर किसी सुदूर यात्रा की तैयारी करना हो पर जीवन तो मेले में आकर ठहरा हुआ-सा लग रहा है -- कोई किसी को कहीं नहीं ले जा रहा। जो जहाँ डुबकी मारता है वहीं खड़ा दिखायी देता है, गंगा बहती जाती है।
कुम्भ स्नान करते हुए लगता है कि यह विश्व एक बहुत बड़ा भण्डारा है जो न जाने कबसे नदियों के किनारे सबको पाल-पोस रहा है, पता नहीं, हमारे जीवन के लिए यह अन्न किसका दान है। नदी में स्नान करने से अतृप्ति कहीं बहकर नहीं जाती, वह तो कुछ देर के लिए शीतल होकर फिर नयी भूख-प्यास की आग लगाती है। इस आग को गंगा में रोज़ ठण्डा करके अपनी देह की ज़मीन को नयी भूख-प्यास के लिए तैयार करना पड़ता है।
यह जल न जाने किसका दान है जो हमारी प्यास बुझाने के लिए हमारे क़रीब से बह रहा है? यह सूरज किसका दान है जो गंगा के जल पर अपनी किरनें बिखेर रहा है? यह हवा किसका दान है जो गंगा की लहरों पर हमारी नौकाओं के पाल सँभाल रही है? यह आकाश किसका दान है जिसने गंगा के जल को अपने रंग में रंग लिया है? यह पृथ्वी किसका दान है जिस पर न जाने कबसे गंगा बह रही है और रोज़ सबकी नयी भूख-प्यास बुझा रही है।
हम दानी नहीं, हम तो कुछ देर गंगा किनारे ठहरे हुए यात्री भर हैं। हम इस जल को अपनी अस्थियों के अलावा और कुछ भी दान करने में समर्थ नहीं।
एक दिन बाबाजी कहने लगे कि संसार में जितना भी जीवन है उसे किसी ने किसी से माँगा नहीं। जीवन जहाँ आ गया, वहीं जीने लगा। उसने अपने आपको सुबह-शाम, दिन-रात और ऋतुओं में पलते हुए, बीतते हुए पाया और पता नहीं कब उसकी मौत आ गयी। यही संसार चक्र है -- बाबाजी बोले -- जानते हो, प्रकृति में जीवन के लाखों बीज क्यों होते हैं क्योंकि प्रकृति में जन्म के साथ मृत्यु बसी है। प्रकृति मृत्यु से पार नहीं पा सकती पर वही है जो हर जन्म में जन्म की संभावना को बनाये रख सकती है -- मृत्यु होती रहती है पर जीवन का कभी पूरी तरह नाश नहीं होता।
बाबाजी बोले कि कोई किसी को पाल-पोस नहीं रहा। सब अपने स्वभाव के अनुरूप जीवन में गतिमान होते रहते हैं और उन्हें उनकी प्रकृति ही पालती है। सब अपनी-अपनी प्रकृति के गुलाम हैं -- जिसकी जैसी गुलामी, वैसा उसका पालन-पोषण होने लगता है। राजा और रंक, दोनों अपनी प्रकृति की गुलामी करते हैं, यहाँ कोई किसी का तारणहार नहीं, गुलाम ही एक-दूसरे को गुलाम बनाये हुए हैं। गंगा भी किसी के जीवन को पार नहीं लगाती। वह भी अपनी गति से बह रही है। जीवन को स्वयं उसमें तैरने और डूबा साधने की कला खोजना पड़ती है। जीवन पाकर कोई क्या बनेगा, यह उसी के जीवन पर निर्भर है। हर तैराक अपनी-अपनी कला खोजता है और डूबा साधकर ऊपर आ जाता है पर जो डूब जाते हैं, बह जाते हैं उनकी कौन परवाह करता है।
किसी को लगता है कि हम जैसी बात बनायेंगे, यह दुनिया हमारी बातों जैसी हो जायेगी। किसी को लगता है कि हम कितनी भी बात बनायें, हमारी बात तो बनती ही नहीं -- बाबाजी बोले -- ये दो तरह के लोग ही दुनिया में रहते हैं -- पहले वे, जिनको भ्रम हो जाता है कि दुनिया उनकी बातों जैसी होकर उनकी बातों में आ गयी है और दूसरे वे, जिनको भ्रम हो जाता है कि हमने कितनी भी बात बनायी, हमारी बात तो बनी ही नहीं। जो इस भ्रम में जीने लगते हैं कि दुनिया उनकी बनायी बातों जैसी हो रही है तो वे उनके गले अपनी बात उतारने लगते हैं जिन्हें अपनी बात बनती नहीं दीखती।
मैं सोचने लगा कि बाबाजी तो मेरे जीवन-दर्शन की व्याख्या कर रहे हैं -- जिसने बात बना ली, उसने रोटी पा ली। जिसके शब्द गये हैं सूख, अपनी मिटा न पाया भूख। -- यही तो है मेरा जीवन-दर्शन है।
बाबाजी बोले कि यह संसार हर बनी-बनायी बात के बाहर है। जो लोग पुराने मठ और हठ, पुराने तट और रट, पुराने घट और पट आज भी पकड़े हुए हैं, वे रोज़ बदलते अपने जीवन की आहट नहीं सुन पाते हैं। ज़रा इस गंगा को देखो, जो सारे मठ और तट पीछे छोड़ती हुई बही चली जा रही है।
गंगा स्नान के बाद भगवा लुंगी और दो गज की चुनरिया ओढ़कर जब दुनिया के इस मेले से गुज़रता हूँ तो आते-जाते लोग मुझे भी साधु मान बैठते हैं। मैंने बाबाजी की दी हुई खड़ाऊँ पहनकर राह चलना सीख लिया है। खड़ाऊँ पहनकर चलने से लोग मेरे कदमों की आहट दूर से ही जान लेते हैं और चरण-स्पर्श के लिए मेरे पास भागे चले आते हैं। मैं भी उनसे दूसरे बाबाओं की तरह कह देता हूँ, भगवान तुम्हारा भला करे। पूरे कुम्भ मेले में हर तरफ यही सुनायी देता है, भगवान तुम्हारा भला करे। कोई बाबा लोगों की भलाई का जि़म्मा अपने ऊपर नहीं लेता, भगवान पर छोड़ देता है। कई राजनीतिक दलों के नेता बाबाओं के पाँव पखारते हैं तो बाबा उनसे भी यही कहते हैं कि भगवान तुम्हारा भला करे। उनसे यह नहीं कहते कि तुम सबका भला करो। बाबाजी अपने चेलों से भी सुबह-शाम यही कहते हैं। जब भगवान के अलावा कोई किसी का भला कर ही नहीं सकता तो दुनिया में भलाई करने का इतना कारोबार क्यों चल रहा है? बड़े-बड़े धर्म-ध्वजाधारी और समाज सेवक चढ़ावा और चंदा इकट्ठा करके आखिर किसकी भलाई कर रहे हैं?
एक रात मैंने बाबाजी के पैर दबाते हुए उनसे पूछा कि भगवान ही सबका भला कैसे करता है और हम क्यों भला करने से चूक जाते हैं। मेरी बात सुनते ही बाबाजी नींद में जाते-जाते लौट आये और मेरी तरफ करवट बदलते हुए बोले -- जगत की सत्ता हम सबसे निराली है। हम कई तरह के होते हैं पर वह एक ही तरह की है। हमारा कई तरह का होना ही हमारे बीच भेदभाव और विषमता पैदा करके हमें एक-दूसरे से अलग करता है। पर जगत की चेतना एक ही तरह की होने से हम सब में बिना किसी भेदभाव के समायी रहती है। हम भले ही अच्छे-बुरे होकर आपस में लड़-भिड़कर मर मिटें पर यह चेतना कभी नहीं मिटती, जगत के जीवन उद्योग में सदा अपनी भूमिका निभाती रहती है।
लम्बी जमुहाई लेते हुए बाबाजी फिर नींद से लौटते हुए बोले -- जो लोग सबके जीवन में बसी जगत की सत्ता के सहारे को पहचान लेते हैं, वे भलाई करने के काबिल बनते हैं। आदमी ही क्या, यह धरती, आकाश, हवा-पानी और सूरज भी जगत की इसी चेतन सत्ता के सहारे न जाने कबसे जीवन की भलाई के काम में लगे हुए हैं। वे किसी से कुछ नहीं कहते पर उनकी इस भलाई की खबर पूरी दुनिया को रोज़ मिलती है। गरमी के मौसम में सूरज सबकी भलाई के लिए धरती पर आग उगलता है और यह आग हवा के सहारे धरती के पानी को आकाश में उठा ले जाती है और बादलों की रचना करती है। बादलों में भरा पानी पूरे आकाश में छा जाता है और जब धरती पर झरता है तो यह भेद नहीं करता कि वह किसके घर पर बरस रहा है। बूँदें धरती में पानी बोकर उसे अन्न उपजाने के योग्य बनाती हैं। फिर जो जैसा बीज बो लेता है, वैसा ही काटता है। ऋतुएँ तो सबके बोये हुए को पालना झुलाकर पोसती हैं। फिर बसन्त ऋतु सबके जीवन के लिए पोषण के अनेक उपहार लेकर आती है। भगवान ऐसे ही बिना किसी भेदभाव के न जाने कबसे सबका भला करता आ रहा है। उसकी भलाई का अंत ही नहीं आता।
इतना कहकर बाबाजी तो सो गये पर मैं जागता रहा और सोचने लगा कि जो लोग भगवान के भलाई करने के रास्ते में टाँग अड़ाते हैं वे ही दुनिया की भलाई करने से चूक जाते हैं। यह आकाश में भरता जाता धुआँ, हवाओं में भरती जाती घुटन, सागर की बदहवासी, गंदगी से भरी गंगा, उजड़ते वन और बाँझ होती जाती धरती भगवान के भलाई के रास्ते की बाधा है -- मैं यह सोचकर काँप उठा कि क्या आदमी भगवान को भी भलाई करने के काबिल न रहने देगा।
नींद उड़ गयी तो मन हुआ कि गंगा किनारे जाकर बैठूँ -- कड़कती ठण्ड में गंगा में प्रवाहित दियों की लौ काँप रही थी और तट से कुछ ही दूरी पर तीर्थ यात्री अलाव जलाकर बैठे थे। कुहरे की धुन्ध के बीच से आग ऐसे दीख रही थी जैसे किसी रजाई में दुबक रही हो। चाँद भी बादलों की कथरी में बार-बार अपना मुँह ढाँप रहा था और कोहरे की चादर ओढ़े गंगा चुपचाप बह रही थी।
सुनते हैं कि हमारा जीवन अनंत की गहरी धुंध से ही आया है। वह न जाने कब इस धुंध से झाँकने लगा -- गंगा पर पौ फट रही थी। भोर की उजास में किनारे पर बँधी खाली नौकाएँ यात्रियों से भरने लगीं। ठिठुरती स्तुतियाँ कानों में ऐसे गूँजने लगीं जैसे कोई स्मृति डूबा साधकर घाट की सीढि़याँ चढ़ रही हो। फीकी होती जाती धुंध की ओट में स्नान के बाद वस्त्र बदलते लोगों को देखो तो लगता है कि शायद वे अपने आपको बहुत क़रीब से देख पा रहे होंगे।
मुझे कभी अपने आपको क़रीब से देखने की कला नहीं आयी। अब तक अपने से दूर ही बना रहा। एक दिन बाबाजी किसी से कह रहे थे कि जो लोग अपने आपको देख लेते हैं, वे इस दुनिया में अकेले रह जाते हैं और यह दुनिया भी उनकी नहीं रह जाती। बाबाजी की बात सुनकर मैं घबरा गया कि अपने आपको देख लेना खतरे से खाली नहीं, फिर तो कोई दो रोटी भी न देगा। लगता है कि कुम्भ में अपना अखाड़ा जमाये कितने ही मठाधीशों ने अपने आपको नहीं देखा। अगर देखा होता तो उनके आसपास इतनी भीड़ न होती। वे किसी धुंध की ओट में छिप गये होते।
मेरी रेलगाड़ी गहरी धुंध के बीच से गुज़र रही है। बार-बार रुकती है फिर बड़ी देर में कुछ आगे बढ़कर ठिठक जाती है। जिस तरह अपने आपको देख पाना मुश्किल है उसी तरह कहीं पहुँच पाना भी कितना मुश्किल है और बाबाजी कहते हैं कि अपने आपको देख लेने के बाद कहीं पहुँचते की ज़रूरत ही नहीं रह जाती। इसका मतलब यही हुआ कि अपने आपको देखे-परखे बिना रेलगाडि़यों में बैठकर कोई कहीं नहीं पहुँच रहा है। मैं भी तो दो रोटी की जुगत भिड़ाने के लिए कबसे रेलगाड़ी में बैठता चला आ रहा हूँ, जैसे-तैसे रोटी मेरे पेट में जा रही है पर मैं कहीं नहीं जा रहा हूँ -- कोई कहीं पहुँच नहीं रहा, सब बार-बार आ-जा रहे हैं। वह कौन-सा स्टेशन है जिस पर ठहर जाने के बाद कोई रेलगाड़ी नहीं पकड़ना पड़ती। वह तो बस सामने से गुज़रती है और उसमें बैठने का मन नहीं होता।
मैं स्टेशन की अकेली बैंच पर बैठ गया। कई रेलगाडि़याँ निकलती रहीं पर किसी में नहीं बैठा। अचानक जय-जयकार करती भीड़ पूरे प्लेटफ़ाॅर्म पर फैल गयी तो पता चला कि कोई नेता चुनाव जीत गया है और लोग उसे हार पहनाकर स्टेशन तक छोड़ने आये हैं। शायद ये लोग यह नहीं जानते कि यह नेता ही इन्हें छोड़कर जा रहा है। मज़े की बात यह है कि लोग कभी एक-दूसरे को न तो कहीं छोड़ पाये और न ही कोई कहीं पहुँच पाया। बस एक जीत का भ्रम है जो हार पहनकर न जाने कहाँ जा रहा है। ये तमाशा मैं कबसे देख रहा हूँ और यह रुकता नहीं। यही वो तमाशा है जो किसी को अपनी तरफ देखने नहीं देता। साधु और शैतान रोज़ इसी तरह अपने मन के स्टेशन पर आते हैं। वे खुद भी कहीं नहीं पहुँचते और न ही किसी को पहुँचाते हैं।
हर कोई अपनी बात बनाने के लिए बातें बनाने में लगा हुआ है। किसी से वह चुप्पी नहीं सधती, जिसके आगे कोई बात बनाने की ज़रूरत नहीं। -- एक रेलगाड़ी ने मेरी चुप्पी फिर तोड़ दी। उसमें मुसाफि़र बहुत कम थे, वह शान्त स्टेशन पर खड़ी ऐसे लग रही थी जैसे अपने बारे में सोच रही हो। जैसे ही उसने ज़ोर की सीटी बजाकर अपनी चुप्पी तोड़ी, मैं भी दौड़कर एक खाली खिड़की के पास जाकर बैठ गया। सामने की सीट पर चुपचाप बैठा आदमी ऐसा लग रहा था कि वह आदमी नहीं, चलती-फिरती दूकान है। उसने मुसाफि़रों के काम आने वाली चीज़ों से अपने आपको इस तरह सजाया था कि कोई चीज़ किसी दूसरी चीज़ को छिपा नहीं रही थी और माँगने पर वह हरेक चीज़ को आसानी-से निकालकर दे सकता था -- उसने सूटकेस में ताला डालने वाली चेनों को हार की तरह गले में पहन रखा था। उसी के साथ शेम्पू के छोटे पाउच की माला भी डाले था। अपने दोनों बाजुओं पर मोट-मोटे रबर-बैण्ड बाँधकर उनमें टूथपेस्ट के साथ टूथब्रश और जीभी बड़े ही करीने से फँसा रखे थे। कुहनियों के नीचे दोनों हाथों में कई तरह के कंघे फँसे हुए थे। उसके पेण्ट की कई गहरी जेबों से छोटी टाॅर्च, पानी की खाली बोतलें और चाकू झाँक रहे थे। वह कमर में बँधे बेल्ट के सहारे मोटे तार के कुन्दों में नेलकटर, लिपिस्टिक, छोटे ताले और की-रिंग लटकाये था। उसकी पीठ पर एक बड़ा पारदर्शी बैग था जिसमें भरे -- अण्डर बीयर, मोजे, रूमाल, छोटे तौलिए साफ दिखायी दे रहे थे। बैग की दोनों तरफ प्लास्टिक के खाँचों के सहारे नहाने-धोने के साबुन लटक रहे थे। वह अपने सिर पर एक मोटी जाली पहनकर उसमें रंगबिरंगी टाॅफि़याँ भरे था जिसे बच्चे आसानी-से देखकर बिरज जाते होंगे। उसके पास दो पारदर्शी हैण्डबैग भी थे जिनमें से एक में कई तरह के बिस्किट के पैकेट और दूसरे में खिलौने भरे थे।
वह अचानक उठा और डिब्बे में हौले-हौले चलने लगा -- रेलगाड़ी में चीज़ें बेचने के लिए शरीर को खुली दूकान बनाकर मुसाफि़रों के सामने से गुज़रते हुए उतनी देर ठिठकना पड़ता है जितनी देर में वे पूरी दूकान का मुआयना करके मन-ही-मन अपने बैग की तलाशी ले सकें और याद कर सकें कि सफर पर निकलते वक्त वे टूथपेस्ट और कंघा घर पर ही भूल आये हैं। थोड़ी देर अपनी दूकान दिखाकर उन्हें इस चिंता से भरना पड़ता है कि कहीं रात को सोते वक्त उनका बैग चोरी न हो जाये और वे चैन से सोने की फि़क्र में एक चेन और ताला तो खरीद ही लेते हैं। कई मुसाफि़र तो अपने कपड़े के बैग में भी लोहे की चेन डालकर सो जाते हैं। वे मन-ही-मन मान लेते हैं कि चोर उनके कपड़े के बैग को लोहे की पेटी समझकर उसकी चेन नहीं काटेंगे। यह चलता-फिरता दूकानदार कम-से-कम आवाज़ लगाता है, ग्राहक ही उसे आड़े वक्त में सोप-पेपर के लिए पुकारते हैं।
रेलगाड़ी में चलती-फिरती दूकानों की कमी नहीं। जब भी कोई नया स्टेशन आता है, कोई-न-कोई दूकान रेल में चढ़ आती है। वह एक दरवाज़े से घुसती है और अपनी चीज़ें बेचकर रेल चलते ही दूसरे दरवाजे़ से बाहर निकल जाती है जैसे ईद का चाँद देखते ही देखते ओझल हो गया हो। कभी ऐसे स्टेशन भी आते हैं जहाँ यह ईद का चाँद दिखायी ही नहीं देता और मुसाफि़र मन मसोसकर अपनी खिड़कियों से खाली प्लेटफ़ाॅर्म को देखते रहते हैं और रेल चल देती है। कभी चलती रेल में किसी मूँगफली वाले की आवाज़ किसी दूसरे डिब्बे से सुनायी देती है और हर मुसाफि़र को लगता है कि वह आवाज़ उसके पास आ रही है। सुदूर यात्रा पर जाते हुए जिनके पास वक्त काटने का कोई उपाय नहीं होता, वे मूँगफली खाकर समय काटते हैं और मूँगफली वाला भी ऊबे हुए मुसाफि़रों के चेहरे पहचानकर अपनी मूँगफली टाइमपास कहकर बेचता है।
आजकल चलती रेल में किताबें पढ़ते हुए लोग बहुत कम दिखते हैं। उनके हाथों में मोबाइल और कानों में ईयरफ़ोन ही ज़्यादा दिखायी देते हैं। वे किसी की तरफ नहीं देखते और पता नहीं मोबाइल में क्या देखते हैं और क्या सुनते रहते हैं। चलती फिरती दूकानें अपनी कमर में चार्जर भी लटकाकर घूमने लगी हैं। रेल पकड़ने की हड़बड़ी में जब चार्जर घर में छूट जाता है तो ये दूकानें चलती रेल में प्राण वायु के झौंके की तरह पास आकर जीवन की फ़ेसबुक स्क्रीन पर चमका देती हैं और मुसाफि़र अपने लाइक-डिसलाइक के खेल में खो जाते हैं। उन्हें देखकर लगता है कि वे इस खेल से शायद ही कभी बाहर आ सकें। यह खेल ऐसा धंधा है कि दूकानदार अपने धंधे को बचाये रखने के लिए किसी खिलाड़ी को इस खेल के बाहर नहीं आने देता -- यह खेल का धंधा नये-नये रूप धरकर ललचाता है। कभी अचानक कोई मुसाफि़र रेल की खिड़की पर चेहरा टिकाकर सेल्फी लेने लगता है और उसे फ़ेसबुक के मुखसरोवर में छोड़कर अपने प्रतिबिम्ब को बड़ी देर तक निहारता हुआ ऐसे मन्द मुस्कुराता है जैसे अपनी ही छबि पर रीझ गया हो। जो लोग अपनी ही छबि पर रीझे रहते हैं, उन्हें दूसरों का जीवन दिखायी नहीं देता।
यह धीमी गति की रेलगाड़ी है, सबके स्टेशन पर रुकती है। जब आगे बढ़ती है तो खिड़कियों से धरती पर बिखरा कितना सारा जीवन दिखायी देता है -- बीहड़-वीरानों को पार करती वह हरे-भरे खेतों के बीच बसे छोटे-छोटे गाँवों से गुज़र रही है। ऊँचे-नीचे टीलों पर घास-पूस की टपरियों में बसे जीवन की हलचल साफ दीखती है। बबूल के पेड़ों की छाँव में किसान सुस्ता रहे हैं। किसी छोटी-सी तलैया के पास गायें चर रही हैं और खेत में गढ़ी मड़ैया की निगरानी में फसलें लहलहा रही हैं। अमराई में किसी आम की डाल पर पड़े झूले में कोई छोटा बच्चा सो रहा है और माँ माटी के चूल्हे पर रोटी सेक रही है। रेल धीरे-धीरे चली जा रही है -- खाई - खन्दक - झुरमुट - झाडि़यों के बीच से कहीं-कहीं जल झाँकता है और पीछे छूट जाता है। गाँवों में अब पनघट नहीं दीखते। किसी वीरान गाँव की छोटी-सी मढि़या में विराजा कोई देवता अकेला छूट गया है। दूर किसी कारखाने की चिमनी से निकलता धुआँ आकाश में पताका की तरह फहराकर बिखर रहा है। सूखते वनों, सिकुड़ती नदियों और छोटे होते जाते पहाड़ों के बीच से गुज़रती रेल बार-बार सायरन बजा रही है और मुसाफि़र अपनी फ़ेसबुक पर चेहरों में खोये हुए हैं, गाँव से दूर जाता दिन किसी वीरानी में डूब रहा है।
दिल्ली आ रही है -- किसी ने कहा। मैं भी दिल्ली आ रहा हूँ -- मैंने कहा।
प्लेटफ़ाॅर्म पर उतरते ही दो गुटों के झगड़े के बीच फँस गया। ये गुट अपने-अपने नेताओं की अगवानी करने आये थे। झगड़े के बारे में पूछने पर पता चला कि ये दोनों गुट एक ही राजनीतिक दल के हैं और दोनों के नेताओं का नाम अजित सिंह है। झगड़ा इस बात पर हो रहा है कि किसका अजित सिंह असली और किसका नकली है। दोनों गुट अपने-अपने अजित सिंह को असली कहने के चक्कर में भिड़ गये। मेरे साथ चलते एक यात्री ने कहा कि ये दोनों ही असली अजित सिंह नहीं हैं। असली अजित सिंह को आज तक किसी ने नहीं देखा। मैंने पूछा कि वो दिल्ली में कहाँ रहता है। य़ात्री बोला, किसी को पता नहीं पर जो दिल्ली में असली अजित सिंह को खोज लेता है, दिल्ली उसकी हो जाती है क्योंकि यहाँ कदम-कदम पर नकली अजित सिंह ही मिलते हैं और असली अजित सिंह का पता किसी भाग्यशाली को ही मिलता है। यह पता नकली अजित सिंहों के सहारे ही खोजना पड़ता है। यात्री बोला, मैंने यह भी सुना है कि दिल्ली में नकली अजित सिंहों से दोस्ती गाँठकर कुछ चतुर लोग बड़ी जल्दी असली अजित सिंह तक पहुँच जाते हैं और वर्षों से घिसट रहे नकली अजित सिंह टापते रह जाते हैं। जाते-जाते वह यात्री यह कहते हुए आगे निकल गया कि भाई साब, दरअसल दिल्ली में असली अजित सिंह कोई नहीं है, बस जो भी अजित सिंह सरकार में आ जाता है उसे ही लोग असली मान लेते हैं। लगता है आप यहाँ पहली बार आये हैं। अगर आपको यहाँ कभी असली अजीत सिंह मिल जाये तो मुझे ज़रूर खबर कीजिए।
उस यात्री का फ़ोन नम्बर लिये बिना ही मैं दिल्ली की गलियों में खो गया। दिल्ली के गुरुव्दारों के लंगर ने मुझे रोटी दी और रैन बसेरों ने रात का ठिकाना। जब कभी रैन बसेरों में जगह नहीं मिलती तो देर रात किसी प्लेटफ़ाॅर्म पर आकर टिक जाता हूँ। दिल्ली में हरेक रास्ते का नाम है। बीते ज़मानों में जो आक्रान्ता और लुटेरे, व्यापारी और यात्री यहाँ आते रहे, उनके नाम इस शहर की सड़कों के किनारे पत्थरों पर टँके हुए हैं। उनमें कई ऐसे भी हैं जो खुद भटके हुए थे पर कई रास्ते तो उनके नाम पर भी हैं। कई रास्ते ऐसे भी हैं जो रास्ता दिखाने वालों के नाम पर हैं -- गांधी मार्ग है, जिस पर तेज़ दौड़ती गाडि़याँ देखकर यह अनुभव ही नहीं होता कि वे गांधी मार्ग पर चल रही हैं। यहाँ एक तीस जनवरी मार्ग भी है जो उस जगह जाकर ठिठक जाता है, जहाँ गांधी जी के सीने पर गोलियाँ दागकर उन्हें दुनिया से विदा कर दिया गया। एक राजघाट मार्ग भी है जो गांधी जी की समाधि तक जाता है।
सड़कें मार्ग नहीं हैं। मार्ग तो उन पर चलने वालों से निकलता होगा। किसी जगह आकर सड़कें खत्म हो जाती हैं पर मार्ग समाप्त नहीं होता, पाँव अंतहीन पगडण्डी रचने लगते हैं। दिल्ली के सारे रास्ते छान मारे और उनका अंत किसी-न-किसी कब्रिस्तान और मकबरे पर आ ही जाता है पर गांधीजी की समाधि के पास बैठकर लगता है कि धरती तो पगडण्डियों के लिए ही बनी है जिस पर अपने पाँवों से निकलती राह दीखती है और किसी से रास्ता पूछना नहीं पड़ता।
जन पथ -- यह भी एक मार्ग का नाम है। आम तौर पर मार्गों का नाम उन्हीं के नाम से जोड़ा जाता है जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। शायद यह पहला ऐसा मार्ग है जो जीती-जागती जनता के नाम पर है और इसे संसद मार्ग से जोड़ा गया है। इसी जन पथ से चुनाव जीतकर नेता संसद में जाते हैं और वहाँ पहुँचकर जनता को मरी हुई मान लेते हैं। शायद इसीलिए इस मार्ग का नाम जन पथ रखा गया होगा। चुनाव ही ऐसा समय है जब जनता को जीवित माना जाता है, उसके बाद उसके जीने की फि़क्र कौन करता है। नेता जनता को आये दिन श्रध्दांजलि दिया करते हैं -- वह अकाल, आतंक, दंगे और रेल दुर्घटना में रोज़ मरती रहती है। श्रद्धांजलि देते हुए कोई नेता जनता को स्वर्गीय नहीं कहता। नेता ज़रूर मरने के बाद स्वर्गीय कहे जाते हैं, जनता तो नरक में ही रहती है।
रोज़ गुरुव्दारे के लंगर में दाल-रोटी खाते लोगों के चेहरों को पढ़कर अंदाज़ लगा लेता हूँ कि वे कई दिनों की भूख को सहकर नानक के दरबार में आये होंगे -- नानक नाम जहाज़ है। नेता नहीं, नानक पार लगाते हैं। इस दिल्ली शहर में कितने दिन बीत गये, रोज़ पंछी की तरह दिन भर उड़-फिरकर इसी जहाज़ पर लौट आता हूँ। कभी रैन बसेरे में जगह न मिले पर नानक की थाली में मेरे जैसे मनमुखी के लिए रोटी कम नहीं पड़ती।
लगता है सबका जीवन मनमुखी है और सब अपने-अपने मन-सूबे बाँधते रहते हैं जो कभी पूरे नहीं होते। राह तो मन-सूबों के बाहर है, वह तो गुरूमुखी से निकलती है और करतारपुर तक जाती है -- जैसे दिन की ऊगन से उठती प्रभा अधखुली आँखों में बस गयी हो और किसी उजले बादल-सी रोम-रोम में समाती शीतल अमृतसर में डुबाये चली जा रही हो। जैसे कोई चाँदी-सी चमकती थाली सकल जगत की तृप्ति के लिए परोस दी गयी हो। जैसे कोई अपनापे की संगत हो जहाँ सब प्रेम की नर्म आँच में एक-दूसरे के क़रीब बैठे हों।
रैन बसेरे में जगह भले कम पड़ जाये पर दोस्ती वहाँ भी कम नहीं होती। कितनी भी देर से पहुँचो, कोई-न-कोई देख ही लेता है और अपने पास बुलाकर इतना सिकुड़ता है कि थोड़ी-सी जगह और निकल आये। फिर उस जगह में अपने आपको सिकोड़कर धीरे-धीरे इतना फैलाना पड़ता है कि कमर सीधी हो सके। दिन भर की थकान के बाद जिनके पास लौटने को घर नहीं, वे रैन बसेरे में आकर रात काटते हैं। पक्षियों को भी रैन बसेरे का पता मालूम है, वे शहर की जूठन और गंदी नालियों में अपना दाना-पानी खोज-खोजकर थक जाते होंगे। वे भी रैन बसेरे में आकर बिजली के मीटरों पर बैठ जाते हैं। कुछ देर सबको टुकुर-टुकुर ताकते रहते हैं, चोंच मिलाते हैं। फिर बैठे-बैठे आँखें मींच लेते हैं, अपने पंखों की रजाई में दुबक जाते हैं।
दीवाल पर ट्यूबलाइट की रोशनी में कोई छिपकली किसी कीड़े की ताक में हौले-हौले रेंगती है। बसेरे के कोनों में अपने ही बुने हुए जालों में मकडि़याँ फँसी रहती हैं, वे कहीं नहीं जातीं। रंग-बिरंगे कीड़े भी दीवारों पर अपना बसेरा किये रहते हैं और कभी फर्श पर उतरकर हमारे ऊपर रेंगने लगते हैं। मच्छरों से बचने के लिए मूँ ढाँपो तो मैले-कुचैले चादरों और रजाइयों में इतना दम घुटता है कि प्राण ही निकल जायेंगे। हमारे पाँवों के पास सोये हुए कुत्ते बीच-बीच में आँखें खोलकर हमें देख लेते हैं और निश्चिन्त होकर फिर मूँद लेते हैं।
मैंने उसे बहुत समझाया पर वह मानी नहीं। कोई देख लेगा तो क्या कहेगा -- उसने मेरी बात नहीं सुनी। सब गहरी नींद सो रहे थे, बस वही अकेली जाग रही थी जैसे मेरी प्रतीक्षा कर रही हो। उसने एक ऐसा कोना खोज रखा था जहाँ वह मेरे लिये और मैं उसके लिये ज़रा सिकुड़कर एक-दूसरे में फैल सकें। कुछ कोने सचमुच ऐसे होते हैं जो दूसरों की नज़रों से बचाते हैं और कुछ ऐसे भी होते हैं जिनमें सिमट जाने से यह भ्रम बना रहता है कि कोई हमें देख नहीं रहा।
रैन बसेरे में वह मुझे और मैं उसे अपनी-अपनी कनखियों के कोनों में कई दिनों से खींच रहे थे। एक दिन बड़े सबेरे जब मैं रैन बसेरे से बाहर निकला तो वह न जाने कब पीछे हो ली। इण्डिया गेट के सामने हरे-भरे मैदान पर धुंध छायी थी -- धुंध एक ऐसा खुला कोना है जिसमें दिन उगने से पहले कुछ देर के लिए छिपा जा सकता है। वह मेरे पास आकर छिपते ही बोली -- क्या अलफतिया हो। क्या तुम भी हो -- मैंने पूछा। हाँ, मैं तो जन्म से अलफतिया हूँ। माँ किसी स्टेशन पर छोड़कर चली गयी थी। रेलगाड़ी के सिवा मैं अपना और कोई घर नहीं जानती -- वह बोली। हमारी कहानी कितनी मिलती-जुलती है -- मैंने कहा। हमारा प्रेम भी तो प्लेटफ़ाॅर्म पर हौले-हौले सरकती आती रेलगाड़ी जैसा लग रहा है -- वह बोली और हँस पड़ी।
मैंने उसका नाम पूछा। वह बोली -- क्या तुम भूल गये, अलफतियों का कोई नाम नहीं होता। अगर होता भी हो, वे उसे किसी को बताते नहीं। मैंने तुम्हारा नाम नहीं पूछा और प्रेम हो गया। अब हम जहाँ भी जायेंगे, प्रेम हमारे साथ जायेगा। प्रेम तो हमारे छिपने की जगह है, हमारा घर है। हम अपने घर को साथ लेकर किसी भी रेलगाड़ी में बैठ सकते हैं। हम अपने प्रेम को किसी स्टेशन पर अकेला छोड़कर कहीं नहीं जायेंगे।
भीड़-भाड़ से भरे इस शहर में कोनों की कमी न थी। मकबरों के एकान्त में हम छिप जाया करते। लालकिले के खालीपन में कई कोने हमारा इंतज़ार करते। कभी कुतुब मीनार की सीढि़याँ चढ़ते हुए हम कई बार अपने छिपने की जगह खोज लेते। खण्डहरों के कोनों में दीवाल पर उग आयी हरी दूब और कोई हरी पत्ती देखकर लगता कि यहाँ हमसे पहले भी कोई छिपा होगा।
एक दिन रैन बसेरे के मैनेजर ने हमें अपने कोने से बेदखल कर दिया -- बहुत दिनों के बाद दिल्ली स्टेशन पर रात काटते हुए लग रहा है जैसे अपने घर लौट आया हूँ। कितने दिन बीत गये किसी रेलगाड़ी में नहीं बैठा -- मैंने कहा। वह बोली -- मैं भी तो नहीं। रेलगाडि़याँ ही अलफतियों का गुज़ारा चलाती हैं। वे ही तो अलफतियों का घर हैं जो उन्हें बिन माँगे वरदान की तरह इस दुनिया में मिली हैं।
अचानक एक रेलगाड़ी तैयार होकर प्लेटफ़ाॅर्म पर आ लगी। उसमें अभी मुसाफि़र नहीं थे और कई खाली कोने थे, जहाँ हम कुछ देर छिपकर बाहर आ सकते थे। पर हम एक-दूसरे में इतनी गहरायी तक छिपते चले गये कि पता ही नहीं चला, रेल कब चल दी। अलफतिया रेलगाड़ी का टिकिट नहीं लेते। टिकिट चेकर के आने पर टाॅयलेट में छिप जाते हैं। वे हर डिब्बे में दो होते हैं जैसे हम दोनों के लिए बने हों। जनरल डिब्बे में जगह अक्सर कम पड़ जाती है और उनमें लोग ठुँसे हुए-से जान पड़ते हैं पर सब मिलकर डिब्बे को जल्दी ही चलते-फिरते रैन बसेरे में बदल लेते हैं। कोई ऐसा नहीं जिसके लिए जगह न निकल आती हो।
अब हम एक से दो हो गये। जैसे-तैसे बैठने की जगह भी निकाल ली। भूख लग रही थी और हमें पास बैठे लोगों के दिल में जगह बनाकर पेट भरने का इंतज़ाम करना था। सामने की बर्थ पर एक बूढ़ी अम्मा और बूढ़ा बैठा था। वे दोनों चुप थे। उन्हें देखकर लग रहा था कि वे अब तक के जीवन में बहुत कम ही बोले होंगे। उनकी चुप्पी ऐसी लग रही थी कि वे चुपचाप एक-दूसरे का भार उठाये हुए हैं। उनकी बगल में बैठा एक लड़का फे़सबुक के मुख सरोवर में डूबा साधकर सबसे बेखबर था।
भूख के बारे में सोचो तो भूख और भड़कती है। आसपास बैठे लोगों को भी इलहाम होने लगता है कि वे भूखे हैं। आखिरकार बूढ़ी अम्मा ने अपने कपड़े के झोले से डिब्बा निकाला और उसे खोलकर हमें दिखा दिया। डिब्बा अचार में लिथड़ी हुई रोटियों से भरा था और उनकी गंध हमें लुभा रही थी। बूढ़ी अम्मा ने दो रोटियों पर अचार की कुछ कलियाँ रखकर बूढ़े के हाथों पर जमा दीं। -- आदमी का शरीर इस तरह बना है कि उसे किसी बर्तन-भांडे की ज़रूरत नहीं। हाथ ही थाली बन जाते हैं और भोजन करने के बाद उनकी ओक बनाकर पानी भी पिया जा सकता है। खाना खाते ही बुढ्ढा हाथ का तकिया बनाकर बर्थ पर लेट गया और अम्मा उसके पाँवों की तरफ बैठकर रोटी खाने लगी।
रोटी की जुगाड़ होने का अवसर आता देख हम दोनों ने बिना किसी देर के अलफतिया संवाद प्रारंभ किया -- आज तो हमें भूखा ही सोना पड़ेगा --वह बोली। चिन्ता मत करो, भगवान किसी को भूखा नहीं सोने देता -- मैंने कहा। बूढ़ी अम्मा ने हमारी तरफ देखा और फिर अपनी रोटियों में खो गयी। वह धीरे-धीरे रोटी के कौर को ऐसे चूसने लगी जैसे हमें भी रोटी देने के बारे में सोच रही हो।
चलती रेलगाड़ी में भगवान कहाँ से आ जायेंगे- लेडी अलफतिया ने पूछा। मैंने कहा- मेरे पास तो कई बार चलती रेलगाड़ी में ही आये हैं। वे एक बार बूढ़ी अन्नपूर्णा बनकर आये थे। बिलकुल इस बूढ़ी अम्मा की तरह लगते थे और मुझे दो रोटी खिलाकर चले गये। यह सुनकर अम्मा जैसे ही हमारी तरफ देखने लगी, तभी मैंने कहा- भगवान सबकी माँ जैसे हैं, वे अपने बच्चों को कभी भूखा सोने नहीं देते। अम्मा ने अब हमारी तरफ दया-दृष्टि से देखा और रोटियों पर अचार की कलियाँ सजाकर तुरन्त हम दोनों के हाथों पर रखते हुए बोलीं- भूखे मत रहो बेटा, कुछ खा लो। जैसे ही हम बूढ़ी अन्नपूर्णा के आगे विनत हुए तो उनके चेहरे पर वह खुशी छलक आयी जो अपने बच्चों को अन्न खिलाती माँ के चेहरे से छलकती है। भगवान सब जगह है पर हम जहाँ होते हैं, वहाँ उससे मदद पाने के लिए किसी-न-किसी में उसकी स्थापना करना पड़ती है और वह उसमें हमारे लिए प्रकट हो जाता है।
मैं कुछ कहने लगा और वह सुनने लगी- उस दिन के बारे में सोचो जब पूरी रेलगाड़ी में रोबोट बैठे होंगे और जिनमें कोई संवेदना नहीं होगी। हम कितनी ही बात बनायें, वे हमारी सुनेंगे ही नहीं। रोबोट रोटी नहीं खाते। उन लोगों का क्या होगा जो मदद के लिए रोबोट के सामने हाथ फैलायेंगे और खाली हाथ रेलगाड़ी से उतर जायेंगे। दुनिया की किसी रेलगाड़ी में उन पर कोई नहीं पिघलेगा। रेलगाडि़यों को रोबोट ही चलायेंगे और वे छोटे-छोटे स्टेशनों के आसपास बसे हुए जीवन को पीछे छोड़ती हुई तेज़ रफ़्तार से निकल जायेंगी। किसी गाँव के छोटे-से स्टेशन पर ताज़े अमरूद लेकर खड़ी कोई बूढ़ी अम्मा वहीं खड़ी रह जायेगी। फिर रेलगाड़ी में किसी मूँगफली वाले की आवाज़ नहीं गूँजेगी। समय इतना कम पड़ जायेगा कि मूँगफली खाते हुए समय काटने की फुर्सत किसी के पास नहीं होगी, रोबोट मूँगफली नहीं खाते। उस आदमी का क्या होगा जो अपने शरीर पर चलती-फिरती दूकान सजाये रेलगाड़ी में घूमता है- मंजन, तौलिया, साबुन, कन्धी, टाॅफ़ी और खिलौने बेचकर गुज़ारा करता है। रोबोट को तो सोप-पेपर भी नहीं चाहिए।
वह सुनती रही और में कहता रहा -- एक दिन ऐसा भी आयेगा जब बहुत-से रोबोटों के बीच आदमी को पहचानना कठिन हो जायेगा। रेल के डिब्बे में बैठे लोगों को जब गौर से देखता हूँ तो उनमें-से कई रोबोट जैसे लगते हैं। वे रोबोट की तरह ही किसी पर पसीजते नहीं। लगता है जैसे किसी कम्पनी से अपनी प्रोग्रामिंग करवाकर आये हों। वह बोली- तब तो हमें अपना नाम रख लेना चाहिए। हम बहुत-से रोबोटों के बीच नाम पुकारकर एक-दूसरे को पहचान लेंगे।

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