आलोचना का विषयान्तर मदन सोनी से उदयन वाजपेयी की बातचीत
02-Aug-2023 12:00 AM 3011

मदन सोनी से यह बातचीत करने में मुझे कुछ संकोच था। वे मेरे बहुत पुराने और आत्मीय मित्र हैं। मैंने उनके लेखकीय जीवन को समृद्ध होते अपनी आँखों देखा है। लेकिन यह बात भी सच है कि वे हिन्दी के इस समय के सम्भवतः सबसे बड़े आलोचक हैं। उनकी सभी आलोचना पुस्तकें महत्वपूर्ण हैं। मदन ने हिन्दी में जैसी सघन, कृति-केन्द्रित और प्रांजल आलोचना लिखी है, वैसी किसी और आलोचक ने, कम-से-कम हमारे समय में नहीं लिखी। हिन्दी साहित्य में आलोचना की अनुपस्थिति का जो रोना-धोना सुनायी देता रहता है, वह कहीं अधिक कम होगा यदि हिन्दी के पाठक मदन सोनी और वागीश शुक्ल जैसे आलोचकों को पढ़ने का प्रयास करें। मदन के ‘कविता का व्योम और व्योम की कविता’, ‘विषयान्तर’, ‘कथापुरुष’, ‘विक्षेप’ आदि कई महत्वपूर्ण निबन्ध संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। वे हिन्दी की क़रीब तीन दशकों तक केन्द्रीय रही साहित्यिक पत्रिका ‘पूर्वग्रह’ के सहसम्पादक और सम्पादक रहे हैं। पिछले अनेक वर्षों से उन्होंने आलोचना लिखने के अलावा अनुवाद कार्य बहुत तेज़ी से किया है। वे अपनी तीक्ष्ण और सघन आलोचना के लिए भारतीय लेखकों के बीच जाने जाते हैं। मदन से यह बातचीत सामने बैठकर नहीं हो सकती थी। सामने बैठकर हम उतने औपचारिक नहीं हो पाते जितने हुए बग़ैर इस तरह की बातचीत हो सकती थी। मेरे ई-मेल पर बातचीत करने की सलाह को उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। इस रास्ते हमारे बीच ई-मेल जितनी दूरी हो गयी और इससे औपचारिक बातचीत करने में आसानी पेश आयी। साथ ही यह बात भी सच है कि इस बातचीत के दौरान मदन को अपने बेटे के पास पुणे जाना पड़ा। अगर हम आमने-सामने बैठकर बातचीत करते, मदन के पुणे जाने से इसमें व्यवधान पड़ जाता। यह बातचीत लगभग एक महीने तक हुई है। मैं उन्हें सवाल भेज देता था, वे एक दिन या उससे अधिक या कम में जवाब दे देते। उसे पढ़कर मैं अगला सवाल भेजता। यह कुछ-कुछ जापानी शतरंज ‘गो’ के खेल की तरह हुआ। मैं अपनी चाल चलता था, उसके कुछ देर या दिन बाद मदन अपनी, जिसके कुछ देर या दिन बाद मैं अपनी चाल चल देता था।

उदयन वाजपेयी : तुमने बचपन का बड़ा हिस्सा अपने पिता के काम के कारण जंगलों में बिताया है, उसके विषय में कुछ बताओ। यह प्रश्न जानबूझ कर पूछ रहा हूँ क्योंकि आधुनिक जीवन की परिकल्पना में नगरों का जंगलों से विरोध का रिश्ता है, पारम्परिक जीवन की परिकल्पना से ठीक उलट जहाँ नगरों को जंगलों की निरन्तरता में देखा जाता था। तुम्हारे जैसे आधुनिक भारतीय लेखक के जीवन और सृजन में जंगलों में बीते बचपन ने क्या भूमिका निभाई होगी, यह जानना अर्थपूर्ण होगा।
मदन सोनी : तुम्हारा यह कहना काफ़ी हद तक सही है कि आधुनिक जीवन की परिकल्पना में नगरों का जंगलों से विरोध का रिश्ता रहा है। मेरे सन्दर्भ में - या कहें, मेरे काम के सन्दर्भ में - दोनों के बीच इस तरह का विरोध, शायद, नहीं रहा है। अगर आलोचना एक ‘नागर’ विधा है, तो मेरा लेखन हमेशा रचना की उस ज़मीन से पोषण प्राप्त करने की कोशिश करता रहा है जो उसका सबसे अधिक वनैला और बीहड़ आयाम होता है। मेरी आलोचना (अगर तुम उसे उदारतापूर्वक ‘आलोचना’ कहने पर सहमत हो तो) को रचना का यही आयाम सबसे ज़्यादा अनुकूल बैठता रहा है। इसने मेरे काम को नगर और आधुनिक के प्रति कितना प्रतिरोधी बनाया है, उसे कितना बीहड़ और वनैला बनाया है, इसका आकलन मेरे पाठक ही कर सकते हैं, लेकिन लिखते हुए पूर्व निर्धारित संकेतों के सहारे किन्हीं गन्तव्यों तक पहुँचने की बजाय, रचना के बीहड़ में भटकना, उसके अप्रत्याशित स्थलों या क्षणों की प्रतीक्षा करना - यह मेरा संकल्प अवश्य रहा है।
भटकाव का यह संस्कार शायद मुझे अपने पिता से प्राप्त हुआ था। वे जंगल महकमे के एक बहुत छोटे ओहदे के कर्मचारी थे। सरकार द्वारा ठेकेदारों को बेचे गये जंगल के निश्चित हिस्सों (कूपों) की निगरानी करना उनका काम था। उनके पास साइकल नहीं होती थी। वे पैदल ही गाँव से जंगल जाते थे और वहाँ से शाम को लौटते समय लगभग जानबूझकर गड़वातों (बैलगाड़ियों के आवागमन से बने मार्गों) या पगडण्डियों के रास्ते चलने की बजाय गाँव की दिशा पकड़कर जंगल में अपना रास्ता बनाते हुए चलने में उन्हें मज़ा आता था। इस प्रक्रिया में वे अक्सर भटक जाते थे और कई बार तो उन्हें जंगली जानवरों का रास्ता भी काटना पड़ जाता था। लेकिन वे अन्ततः कई अप्रत्याशित स्थलों से होते हुए वापस घर लौट आते थे। छुट्टियों के दिनों में उनकी इन रोमांचक भटकनों में मैं प्रायः उनके साथ होता था। बाद में, गर्मियों और जाड़ों की लम्बी छुट्टियों के दौरान मैं अन्य मज़दूरों के साथ भी इन जंगलों में काम करने (तेन्दू पत्ता तोड़ने या नीलामी के लिए तैयार किये जा रहे कूप के दरख़्तों के ब्यौरे दर्ज़ करने) जाया करता था। यह सब बहुत एडवेंचर से भरा होता था...
उदयन : तुम्हारी आलोचना भी कम एडवेंचर से भरी नहीं है। कम से कम मुझे उसमें अप्रत्याशित का तत्व बहुत अधिक महसूस होता है। वह ऐसे रास्तों पर जाती है जहाँ से हिन्दी या किसी भी भाषा की आलोचना शायद ही गयी होगी। यह समझने कि तुम यहाँ किस तरह पहुँचे, हमें तुम्हारे लेखन की शुरुआत और उसके परिवेश को जानने का प्रयास करना चाहिए। मुझे उस बारे कुछ पता है, पर जैसे ही तुम जानते ही हो कि अतीत हमेशा एक-सा नहीं रहता, वह बताने की प्रक्रिया में हर बार कुछ बदल जाता है, उसमें ऐसा कुछ दिन जाता है, जो पहले नहीं दिखा था।
मदन : अतीत...मेरा अतीत...। लगता नहीं कि मैंने कोई एक अतीत जिया है। और जैसाकि तुमने संकेत किया, उन्हें किसी एक वर्तमान पर खड़े होकर देखना...लगता नहीं कि मैं वस्तुनिष्ठ हो सकता हूँ। हम अक्सर अपने वर्तमान को सन्तुष्ट करने के लिए अतीत का ‘इस्तेमाल’ करते हैं, उसकी बहुलता और विविधता को ऐकिक और एकसेपन में सिकोड़ कर उसकी कुछ इस तरह पुनर्रचना करते हैं ताकि वह हमारे वर्तमान की टेक के अनुरूप ढल सके।
तब भी, अगर मैं कोशिश करूँ तो कह सकता हूँ कि अपने लगभग शुरुआती अतीत में मैं एक मज़दूर परिवार का सदस्य हुआ करता था। नौकरी करने से पहले मेरे पिता मज़दूरी किया करते थे। लेकिन जब वे नौकरी करने लगे और हम शहर (सागर, जहाँ मेरा जन्म हुआ था) से विस्थापित होकर गाँवों में रहने लगे, तो भी उनकी पगार इतनी कम हुआ करती थी कि उसमें हमारे छह लोगों (तब हम चार भाई-बहन थे) के परिवार का गुज़ारा मुश्किल होता था। इसलिए मेरी माँ मज़दूरी करने लगी। वे बीड़ी बनाती थीं, और यह इल्म उन्होंने मेरी नानी, यानी अपनी माँ से सीखा था। शुरू में मैं इस काम में माँ की मदद करता था, लेकिन बाद के दिनों में मैं भी इसमें दक्ष हो गया और अपनी ‘पढ़ाई’ के साथ-साथ विधिवत यह काम करने लगा। इस काम का दिलचस्प पक्ष यह था कि इसमें आपको निरन्तर छह-सात घण्टे बैठना पड़ता था और उस दौरान जरा भी दिमाग़ नहीं लगाना पड़ता था। शायद इसी दौरान मेरे दिल और दिमाग़ ने उस अवकाश का लाभ उठाना शुरू किया और मैं बीड़ी भाँजने की तर्ज़ पर ‘कविताएँ’ बुनने लगा। वे तमाम छन्दबद्ध कविताएँ हुआ करती थीं - उन छन्दों में निबद्ध जिनमें प्रसाद, निराला, पन्त, महादेवी, बच्चन, नीरज और काका हाथरसी आदि की कविताएँ हुआ करती थीं। ये कविताएँ मुझे अपने स्कूल और कॉलेज के पुस्तकालयों से उपलब्ध होती थीं। मेरे पिता और माँ को भी ये कविताएँ पढ़ने-सुनने का बहुत शौक था और अक्सर देर रात हमारे घर में इनका पाठ होता था।
मेरे पिता को कविताओं के अलावा नाटक (नौटंकी) में भी बहुत रुचि थी। उन्होंने गाँव में आने वाली नौटंकियों में अभिनय भी किया था और एक बार मुझसे भी भक्त ध्रुव नामक नौटंकी में कृष्ण की कुछ मिनिट की भूमिका करायी थी। इसके अलावा वे उपन्यासों के भी शौक़ीन थे और नियमित रूप से इब्ने सफ़ी बी.ए. तथा कुछ अन्य लेखकों के उपन्यास किराये से लाकर पढ़ा करते थे। कभी-कभी इन उपन्यासों का सस्वर पाठ भी हमारे घर में होता था (मैं और पिता बारी-बारी से इन्हें पढ़ते थे और घर के बाक़ी सदस्य सुनते थे)। इसी क्रम में, मुझे याद है कि हमने रेणु के परती परिकथा का पाठ किया था।
बाद में, एक अन्य कॉलेज के हिन्दी के अध्यापक डॉ. हर्ष नारायण ‘नीरव’ को किसी तरह मेरे कविता लिखने के बारे में पता चला, उन्होंने मुझे अपने घर बुला कर मेरी कुछ कविताएँ सुनी और फिर अपनी कुछ कविताएँ सुनाते हुए मुझे बताया कि इन दिनों किस तरह की छन्द-मुक्त कविताएँ लिखने का चलन है। उन्होंने ही मुझे मुक्तिबोध, अज्ञेय, अजीत चौधरी और रामदरस मिश्र आदि की कविता की पुस्तकें उपलब्ध कराते हुए उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित किया। ज़ाहिर है, मैं इन कवियों से प्रभावित होकर कविताएँ लिखने लगा।
मैंने स्नातक की परीक्षा पास की और तभी पिता का सागर में स्थानान्तरण हो गया। ये सत्तर के दशक के आरम्भिक वर्ष थे। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये साहित्य के झंझावाती वर्ष थे। मेरे सामने एक नयी दुनिया खुल गयी। समकालीन साहित्य से गहरे जुड़े सागर के अनेक वरिष्ठ और हमउम्र लेखकों (रमेश दत्त दुबे, गोविन्द द्विवेदी, जितेन्द्र कुमार, अनिल वाजपेयी, नवीन सागर, मुकेश वर्मा, ध्रुव शुक्ल आदि) से मेरी मित्रता हुई और लघु पत्रिकाओं के माध्यम से साहित्य की विमोहक दुनिया से मेरा परिचय हुआ। तब दो-एक सालों तक अपने एक मित्र के साथ एक पाक्षिक अख़बार (पदचाप) निकालने के बाद मैं एक सराय में मैनेजर की नौकरी करने लगा था (यह नौकरी उपलब्ध कराने में मेरे मित्र ध्रुव शुक्ल की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी)। बावजूद इसे कि इसमें मुझे बारह घण्टे तक निरन्तर ड्यूटी निभाना पड़ती थी, इस नौकरी में बहुत अवकाश था और इसका लाभ उठाकर मैंने अपने जीवन की सबसे अधिक पढ़ाई की। मेरा कविताएँ लिखने का सिलसिला भी इस दौरान निरन्तर जारी रहा...
उदयन : तुमने ‘उन’ दिनों के जिन मित्रों का ज़िक्र किया है, उसमें सबसे विलक्षण रमेशदत्त दुबे थे। इसका अर्थ यह नहीं कि बाकी में विलक्षणता का अभाव था पर रमेशदत्त दुबे की बात कुछ अलग-सी थी। उनसे, जितना मुझे पता है, तुम्हारी मैत्री भी अलग-सी ही थी। इसमें शक नहीं कि उन्होने ‘गाँव’ नाम की एक अद्भुत कहानी लिखी है। जो यह इशारा करती है कि वे गाहे-बगाहे कुछ अनोखा ही कर गुज़रते थे। क्या तुम कुछ देर उनके और तुम्हारे सम्बन्धों पर ठहरना चाहोगे? और कुछ देर सागर के उन दिनों के साहित्यिक परिवेश पर भी।
मदन : निश्चय ही वे सबसे विलक्षण थे - एक्सेण्ट्रिक और ईडिओसिन्क्रैटिक, दोनों ही अर्थों में। मँझोला क़द, चेचक के दाग़ों और सलवटों से भरा लम्बोतरा चेहरा, पान (जो उनके मुँह में हमेशा मौजूद होता था) से रँगे हुए होंठ और तम्बाख़ू-चूने की रगड़न के निशान लिए बाँयीं हथेली और दाँयाँ अँगूठा (पान खाने के बाद वे देर तक तम्बाक़ू मलते थे और अक्सर तम्बाक़ू मलते हुए ही आते-जाते दिखायी देते थे), मोटी, खुरदुरी खादी का कलफ़ दिया कुर्ता-पायजामा, और हल्के व्यंग्य की छाया लिये, किंचित असन्तुष्ट और झुँझलाया हुआ-सा चेहरा...। लगता था, किसी भी व्यक्ति के लिए उनसे सहज संवाद करना मुश्किल प्रतीत होता होगा। वे शहर के अनेक प्रसिद्ध, प्रतिष्ठित व्यक्तियों से परिचित थे और राह चलते उनसे बातचीत किया करते थे, या ज़्यादा बेहतर कहना यह होगा कि वे राह चलते उन्हें छेड़ते थे, क्योंकि यह बातचीत कभी भी सहज या औपचारिक नहीं होती थी। उन्हें ऐसा हर व्यक्ति (जिनमें मुझ समेत उनके सारे दोस्त शामिल थे) एक विशिष्ट मुखौटा धारण किये प्रतीत होता था और हर मुखौटे के लिए उन्होंने अलग नाम दे रखे थे, जिनका वे अत्यन्त सूक्ष्म चरित्र-चित्रण करते थे, और बातचीत के दौरान उनका ध्येय उस मुखौटे को स्वयं उस व्यक्ति के लिए गोचर बना देना, या उसे उस मुखौटे का अहसास करा देना होता था। लेकिन इसके बावजूद लोग उनसे कतराते नहीं थे, या शायद कतराते-कतराते भी उनके सामने चले आते थे, क्योंकि उनमें उन्हें विमोहित करने का एक विलक्षण गुण था। लोग मानो उनके पास अपनी शख़्सियत की हजामत बनवाने जाते थे। लगता था, मानो ये व्यक्ति नहीं, दुबे जी (हम में से ज़्यादातर उन्हें इसी नाम से पुकारते थे) के किसी महाकाय उपन्यास के चरित्र थे। लेकिन लोगों को इस तरह चरित्र में बदलते दुबे जी स्वयं भी व्यक्ति से अधिक एक औपन्यासिक चरित्र प्रतीत होते थे।
तुम जानते हो कि वे अशोकजी (अशोक वाजपेयी) के सागर के दिनों के अभिन्न मित्र थे और सम्भवतः उन्हीं के साथ मिलकर अशोक जी ने ‘समवेत’ नामक पत्रिका निकाली थी। लेकिन बाद के दिनों में उनकी साहित्यिक गतिविधियाँ काफ़ी सिमट गयी थीं। बावजूद इसके, वे लम्बे-लम्बे अन्तराल देकर कविताएँ और कहानियाँ लिखते रहे। एक उपन्यास भी उन्होंने लिखा था। सागर के स्थानीय समाजवादी नेता और कार्यकर्ता उनकी मित्रमण्डली में शामिल हो गये थे, और दो-तीन युवा लेखक - नवीन सागर, मुकेश वर्मा और ब्रजेश कठल। 1972-73 के आसपास जब उनसे मेरी मुलाक़ात हुई थी, तब उनके ये साहित्यिक मित्र भी सागर से विदा हो चुके थे, या होते जा रहे थे। इस लिहाज से साहित्य में सक्रिय मैं उनका सम्भवतः एकमात्र मित्र था। हाँ, ध्रुव (शुक्ल) भी कभी-कभी उनकी उस सान्ध्य मण्डली में शामिल होता था, जिसमें हम दोनों के अलावा ज़्यादातर उनके समाजवादी साथी हुआ करते थे।
वे सागर नगर पालिका के एक पुस्तकालय के लाइब्रेरियन थे। यह पुस्तकालय तालाब से लगे पुराने बस अड्डे के पीछे के मैदान के अन्तिम सिरे पर गवर्नमेण्ट हाईस्कूल के सामने स्थित था। पुस्तकालय में उनके अलावा उनके असिस्टेण्ट के रूप में एक और कर्मचारी हुआ करता था। उसे रत्तू के नाम से पुकारा जाता था। इस पुस्तकालय में साहित्य की अन्तहीन पुरानी पुस्तकें थीं। यह एक भुतहा-सा पुस्तकालय था, जिसे देखकर लगता था कि उसकी अलमरियाँ सदियों से नहीं खुली थीं। मुझे याद नहीं पड़ता कि वर्षों की अपनी मित्रता के दौरान, निरन्तर उस पुस्तकालय में जाने के बावजूद मैं कभी भी उससे एक भी किताब हासिल करने में कामयाब हो सका था। या तो उन अलमारियों की चाभियाँ गुम चुकी होती थीं या उनके ताले जाम हो चुके होते थे। वैसे दुबे जी का मानना था कि लोग पढ़ते नहीं हैं, पढ़ने का दिखावा करते हैं। पुस्तकालय के विशाल कक्ष में लट्टुओं की पीली रोशनी फैली रहती थी। बीच के हिस्से में लम्बी मेज़ें और कुर्सियाँ पड़ी होती थीं जिन पर कुछ प्राचीन से लगते, सदा वही-वही लोग पूरे मनोयोग के साथ हिन्दुस्तान, धर्मयुग, दिनमान आदि पत्रिकाएँ और अख़बार पढ़ते रहते थे। दुबे जी और रत्तू उन पर कुछ इस तरह आशंकित-सी निगाह रखते थे मानो वे पाठक नहीं जासूस हों, जो किसी भी वक़्त पुस्तकालय के किसी रहस्य के बारे में कोई जानकारी हासिल कर लेंगे या कोई चुभता हुआ सवाल पूछ बैठेंगे। ये पाठक पत्रिकाएँ इश्यू कराके घर भी ले जाते थे, जिसके लिए उन्हें कुछ इस तरह डरते-डरते अनुरोध करना होता था जैसे वे किसी बहुत बड़े अनुग्रह की माँग कर रहे हों। पत्रिका इश्यू करते हुए दुबे जी पाठक को पत्रिका सुरक्षित वापस करने को लेकर सख़्त हिदायतें देते थे। मुझे याद है कि ऐसे ही एक अवसर पर जब एक पाठक ने दुबे जी को आत्मविश्वासपूर्वक पत्रिका सुरक्षित वापस करने का आश्वासन दिया तो दुबे जी उस पर भड़क उठे थे। ‘आप यह कैसे कह सकते हैं?’ दुबे जी ने उससे कहा, और जब उसने एकबार फिर अपने आत्मविश्वास को दोहराया तब दुबे जी ने उससे कहा, ‘हो सकता है आप पत्रिका छोड़कर ग़ुसलख़ाने में चले जाएँ और इस दौरान आपका बच्चा पत्रिका से खेलने लगे और खेलते-खेलते उस पर टट्टी कर दे!’ जब उस आदमी ने कहा कि उसका कोई छोटा बच्चा नहीं है, तो दुबे जी ने कहा कि ‘तब यह भी हो सकता है कि आप रात को पत्रिका पढ़ते-पढ़ते उसे खिड़की की सिल पर रख दें और रात में बारिश हो और पत्रिका भीग जाए!’ जब उस आदमी ने डरते-डरते कहा कि अभी बारिश का मौसम नहीं है, तो दुबे जी ने पत्रिका के क्षतिग्रस्त होने की सम्भावनाओं की झड़ी लगा दी। मुझे याद है कि वह आदमी पत्रिका छोड़ पुस्तकालय से बाहर चला गया था...
उनकी विनोद-वृत्ति बहुत तीक्ष्ण थी। एक दोपहर जब मैं भीड़-भरे कटरा बाज़ार में उनके साथ टहल रहा था, लोहे का भारी-भरकम सन्दूक़ लिए एक सैनिक ने अपने बूट से उनका पैर कुचल दिया। दुबे जी ने ग़ुस्से से भरकर उसकी ओर देखा तो उस सैनिक के मुँह से सहसा निकल पड़ा, ‘कोई बात नहीं!’ इस पर दुबे जी ने बुरी तरह बौखलाते हुए उससे कहा, ‘अरे वाह, कमाल करते हैं आप! एक तो आपने मेरा पाँव कुचल दिया और ऊपर से मेरा डायलॉग भी छीन लिया!’
उनके संस्मरण अन्तहीन हैं।
दुबे जी जितने विलक्षण थे, उनके साथ मेरा सम्बन्ध भी उतना ही विलक्षण था। जैसाकि मैंने कहा, एक समय था, जब एकमात्र मैं ही उनका साहित्यिक मित्र हुआ करता था। वे मेरे वरिष्ठ मित्र, बड़े भाई, गुरु, मार्गदर्शक और शुभचिन्तक थे। गम्भीर साहित्य की पहली विधिवत शिक्षा मैंने उन्हीं से प्राप्त की थी। मैंने उनके द्वारा उनके निजी पुस्तकालय से उपलब्ध करायी गयी ढेरों पुस्तकें पढ़ी थीं। उनके घर पर उनके बड़े भाई महेश दत्त दुबे, जिन्होंने कभी हण्टर नामक एक अख़बार प्रकाशित किया था, की एक ट्रेडिल प्रेस मशीन थी, जिस पर मैं अपना अख़बार छापता था (मैं उस अख़बार का लेखक, सम्पादक, कम्पोज़ीटर, मुद्रक, प्रकाशक, सभी कुछ था)। इस नाते दुबे जी के घर में मेरा प्रतिदिन आना-जाना और लम्बे-लम्बे समय तक रुकना होता था। यह सिलसिला लम्बे समय तक जारी रहा था। उनसे मेरी मैत्री की प्रगाढ़ता का एक भौतिक कारण यह भी था।
लेकिन, जैसाकि मैंने कहा, उनके साथ मेरा सम्बन्ध भी बहुत विलक्षण क़िस्म का था। एक ओर, जहाँ वे मुझे अपरिमित स्नेह करते थे, मेरी कविताओं और सम्पादकीय समझ की सराहना करते थे, उसके बारे में दूसरे मित्रों को गर्व से बताते थे, वहीं दूसरी ओर मुझे निरन्तर रेतते रहते थे, लगभग मुझे प्रताड़ित करने के स्तर पर मेरी खाल खींचते रहते थे। हम देर रात तक कई-कई घण्टे शहर में साथ घूमा करते थे, जिस दौरान हमारे बीच ज़्यादातर निरन्तर जिरह जारी रहती थी। मैं नहीं जानता कि मेरा कोई मुखौटा था, लेकिन वे मेरे चेहरे पर कोई-न-कोई मुखौटा आरोपित कर उसे उधेड़ने की कोशिश करते रहते थे और इस प्रक्रिया में अक्सर मेरा चेहरा भी नोंच देते थे। वे अक्सर मेरी उन अभिरुचियों, विचारों और आचरणों के लिए आलोचना करते थे, जिनकी मेरे सन्दर्भ में उन्होंने कल्पना कर रखी होती थी। एक ओर वे निश्चय ही अतिरंजना करते हुए यह कहते थे कि मेरे क़द को देखते हुए सागर शहर मुझे ओछा पड़ता है और इसलिए मुझे उसे छोड़कर किसी बड़े शहर में चले जाना चाहिए, और दूसरी ओर, मेरे किसी बड़े शहर में चले गये होने की कल्पना कर मेरा एक स्नॉब व्यक्तित्व उकेरकर उसपर प्रहार करने लगते थे। स्वाभाविक ही, मैं भी पलट वार करता था और हमारे बीच झगड़ा हो जाया करता था। लेकिन यह झगड़ा कभी वैर में नहीं बदला। अगले दिन हम फिर घण्टों साथ होते थे। मेरे साथ उनके सम्बन्ध की विलक्षणता का एक ताज़ा उदाहरण यह है कि अपनी मृत्यु से कुछ पहले भोपाल के एक स्थानीय अख़बार को दिये गये एक साक्षात्कार में जब उन्होंने सागर के उन दिनों की अपनी मित्र-मण्डली का ज़िक्र किया तो उसमें दूर-दूर तक मेरा कहीं भी नाम नहीं था...
तुमने उन दिनों के सागर के साहित्यिक परिवेश के बारे में जानना चाहा है। ऐसा कोई गम्भीर सक्रिय साहित्यिक परिवेश वहाँ नहीं था। ध्रुव मित्र मण्डल नामक एक संस्था चलाता था, जिसकी महीने-पन्द्रह दिन में गोष्ठी हुआ करती थी, जिसमें सागर के स्थानीय कवि कविता-पाठ करते थे। विश्वविद्यालय में मुख्यतः गोविन्द द्विवेदी सक्रिय थे। वे कविता और आलोचना लिखते थे और विश्वविद्यालय की एक बहुत अच्छी पत्रिका ‘तेवर’ का सम्पादन करते थे। तब दुबे जी के बाद और उनके अलावा गोविन्द जी ही मेरे और ध्रुव के सबसे अच्छे मित्र और गुरु थे। विश्वविद्यालय में अनिल वाजपेयी और डॉ. प्रेमशंकर भी थे, जिनसे कभी-कभी मिलना और संवाद होता था। कभी-कभार पचमढ़ी से जितेन्द्र कुमार और भोपाल से नवीन सागर और मुकेश वर्मा भी आ जाया करते थे। तब तक भोपाल से ‘पूर्वग्रह’ का प्रकाशन आरम्भ हो चुका था, जिसकी दो प्रतियाँ गोविन्द द्विवेदी के पास आती थीं, जिनमें से वे एक प्रति बारी-बारी से मुझे और ध्रुव को दे दिया करते थे। यह पत्रिका ही साहित्य की व्यापक दुनिया के साथ हमारे सम्पर्क और हमारी समझ को निर्मित करने का सबसे बड़ा साधन थी। उसमें छपी सामग्री हमारे संवाद का मुख्य विषय हुआ करती थी। और हाँ, दिनमान में छपी सामग्री भी। वह 70 का दशक था। धूमिल हमारे नायक हुआ करते थे।
लेकिन साहित्य से ज़्यादा वे राजनीति के उथल-पुथल के वर्ष थे। और दुबे जी की सान्ध्य मण्डली के समाजवादियों के बीच ज़्यादातर चर्चाएँ राजनीति पर ही हुआ करती थीं। वहाँ नारायण शंकर त्रिवेदी, लक्ष्मीनारायण यादव और रघु ठाकुर भी कभी-कभी हुआ करते थे। और गाहे-बगाहे शरद यादव भी जबलपुर से आ जाते थे। मैं भी लोहिया विचार मंच की गोष्ठियों में भाग लेता था। इन गोष्ठियों में मैंने कुछ पर्चे भी पढ़े थे...
उदयन : सत्तर के दशक में सागर समेत अनेक अपेक्षाकृत प्रबुद्ध किस्म के छोटे शहरों में समाजवादी आन्दोलन पर्याप्त सक्रिय था, कम-से-कम बौद्धिक तबक़ों में। इसके क्या कारण तुम देखते हो? क्या यह सही नहीं कि इसी समाजवादी परिवेश को पूरी चतुराई से विस्थापित कर बौद्धिकों के बीच साम्यवादी विचारों को स्थापित करने का प्रयत्न हुआ था, जो समाजवादी बौद्धिकों की लापरवाही और आत्मसंतोष के कारण किसी हद तक सफल भी हो गया। तुम ख़ुद उन दिनों समाजवादी आन्दोलन से जुड़े थे, तुम उस पूरे परिदृश्य के बारे में आज क्या कहोगे?
मदन : राजनीति की मेरी समझ बहुत कच्ची है, इसलिए मेरा आकलन वास्तविकता से बहुत दूर या उसके बिल्कुल विपरीत या सरलीकृत हो सकता है। लेकिन मुझे लगता है कि वह विकल्प की बेहद हताश खोज का दौर था। आज़ादी मिलने के साथ देश को जो सपने दिखाये गये थे, वे आज़ादी की एक-चौथाई सदी बीतने के बाद चूर-चूर हो चुके थे। मँहगाई और बेरोज़गारी अपने चरम पर थे। युवा वर्ग, किसान और मज़दूर हताश थे। नेहरू की उदार राजनीति का युग बीत चुका था और सत्ता में अधीर नायकवाद पूरी उठान पर था। काँग्रेस का आन्तरिक लोकतन्त्र ढह चुका था और उसकी जगह तानाशाही ले रही थी। देश की लोकतान्त्रिक संस्थाएँ पंगु हो रही थीं। आपातकाल इसी की पराकाष्ठा थी।
जयप्रकाश नारायण का उत्तर भारत का छात्र आन्दोलन और नक्सलवाद इन्हीं सबकी प्रतिक्रियाएँ थीं। धूमिल की कविता में इन प्रतिक्रियाओं को बहुत अच्छी अभिव्यक्ति मिली थी। इन सारी प्रतिक्रियाओं के मूल में एक क़िस्म का नकारवाद था।
जहाँ तक समाजवादी आन्दोलन के प्रभावी होने का प्रश्न है, इसकी सम्भवतः एक साथ कई वजहें थीं। इनमें सबसे मुख्य वजह यह थी कि समाजवादी प्रश्नाकुलता के पीछे डॉ. राममनोहर लोहिया के उन समाज-राजनैतिक विचारों का आधार था जो जाति, सम्प्रदाय और स्त्री जैसी इस देश की मौलिक समस्याओं से प्रतिश्रुत थे। यह, मसलन, नक्सलवादी आन्दोलन से भिन्न स्थिति थी जो उस मार्क्सवादी विचारधारा से परिचालित था, जो उस तरह देश की विशिष्ट समस्याओं से प्रतिश्रुत नहीं थी। दूसरी वजह, स्वयं जयप्रकाश नारायण का वैचारिक स्तर पर समाजवादी होना था, जो उस समय के राजनैतिक असन्तोष को सबसे अधिक समेकित स्वर दे रहे थे। तीसरी वजह सम्भवतः यह थी कि तानाशाही की ओर प्रवृत्त सत्ता के खि़लाफ़ तत्कालीन समाजवादी नेता ही सबसे अधिक सक्रिय थे। मसलन हम रेलकर्मियों के उस तत्कालीन राष्ट्रव्यापी आन्दोलन को याद कर सकते हैं, जिसका नेतृत्व जॉर्ज फ़र्नाण्डिस कर रहे थे। इस तरह, यद्यपि यह सच है कि समाजवादी आन्दोलन बौद्धिकों के बीच काफ़ी समादृत था, लेकिन उसका सामान्य जनाधार भी काफ़ी प्रबल था। चुनावों में इन्दिरा गाँधी और उनकी काँग्रेस पार्टी की अभूतपूर्व पराजय और जनता पार्टी का गठन और चुनावों में उसकी विजय इसी जनाधार के नतीजे थे।
लेकिन, जैसाकि मैंने कहा, सत्तर के दशक की वे राजनैतिक प्रतिक्रियाएँ महज नकारवाद तक सीमित थीं। उनके पास तत्कालीन सत्ता का कोई ठोस राजनैतिक विकल्प नहीं था। इसी का परिणाम था कि बहुत थोड़े-से समय के भीतर जनता पार्टी में राजनैतिक अराजकता फैल गयी और वह बिखर गयी और जनता का उससे ऐसा मोहभंग हुआ कि उसने एक बार फिर उसी काँग्रेस का दामन थामा जिसके खि़लाफ़ वह कुछ ही वर्ष पहले इतनी सघन रूप से संगठित हुई थी।
बौद्धिकों के बीच साम्यवादी विचारों की स्थापना समाजवादियों को वहाँ से विस्थापित करने की वजह से नहीं हुई। समाजवादियों को स्वयं उन्हीं ने विस्थापित किया था। तुम जानते हो कि जॉर्ज फ़र्नाण्डिस समेत ज़्यादातर समाजवादी संघी हो गये थे। लोहिया के गै़रकाँग्रेसवाद का इससे ज़्यादा विकृत और कोई अर्थ नहीं हो सकता था। सम्भवतः समाजवादियों के इस विश्वासघात ने ही समाजवाद को अविश्वसनीय बना दिया। काफ़ी कुछ उसी तरह जैसे साम्यवादियों के विश्वसघात ने साम्यवाद के साथ किया। मुझे याद आता है कि जब जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद सागर में समाजवादियों की एक आम सभानुमा हुई थी तब मैंने उसमें एक लिखित टिप्पणी पढ़कर इस बात के लिए समाजवादियों की भर्त्सना की थी कि उन्होंने जनसंघियों के साथ गठबन्धन किया था।
बहरहाल, साम्यवादी विचारधारा बौद्धिकों के बीच भले ही स्थापित हो, उसका जो भी थोड़ा-सा जनाधार था, वह भी उत्तरोत्तर सिकुड़ता गया है, क्योंकि उसने अपना कोई ठोस हिन्दुस्तानी संस्करण कभी तैयार नहीं किया। और इसे मैं एक अशुभ स्थिति की तरह देखता हूँ। सारे संसार की मुक्ति का सपना देखने-दिखाने वाली एक विचारधारा का बौद्धिकों के विमर्श और कल्पनाओं तक सिमटकर रह जाने से बदतर हश्र और कुछ नहीं हो सकता।
उदयन : मैंने पिछला सवाल इस दृष्टि से पूछा था कि हम जानते ही हैं कि समाजवादियों के अलावा उन वर्षों में कोई ऐसा राजनैतिक मत नहीं रहा है जिसमें कला की अपनी मर्यादा की चेतना हो। इनके कमज़ोर होने पर अब कोई भी ऐसा राजनैतिक मत नहीं है जिसमें कला के स्वरूप का ज़रा भी एहसास हो। इस मत को मानने वाले धीरे-धीरे या तो दक्षिणपन्थी होते गये या वामपन्थी। इन दोनों की दृष्टियों में (कम-से-कम भारत में) कला की मर्यादा की न तो गहरी समझ है, न उसे समझने की आकांक्षा ही। मेरी जिज्ञासा यह है कि आखिरी बौद्धिकों में कला की मर्यादा के प्रति जो जागरूकता साठ के दशक तक रही, वह धीरे-धीरे कम कैसे होती चली गयी?
मदन : तुम्हारा सवाल मुझे बहुत स्पष्ट नहीं है, उदयन। कला की मर्यादा की चेतना से तुम्हारा क्या आशय है और ऐसी कोई चेतना समाजवादियों में भी कब रही है? हम कुछ ऐसे लेखकों के नाम ज़रूर ले सकते हैं, जिनका समाजवादी रुझान असन्दिग्ध रहा है, जैसेकि विजयदेव नारायण साही, रेणु, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना और कमलेश आदि। इनमें तुम निर्मल वर्मा का नाम भी शायद शामिल करना चाहो, हालाँकि किन्हीं लोगों को विशेष रूप से उनके अन्तिम वर्षों के दक्षिणपन्थी रुझान की वजह से इससे असहमति भी हो सकती है। ये निश्चय ही वे लोग रहे हैं जो अगर, मसलन अशोक वाजपेयी की तरह, कला (साहित्य) के स्वायत्त स्वरूप के मुखर पक्षधर नहीं रहे तो उसका अहसास उनमें अवश्य रहा है। विशेष रूप से रघुवीर सहाय के यहाँ इसकी चेतना और राजनीति तथा साहित्य के सम्बन्ध को लेकर एक क़िस्म की उलझन स्पष्ट दिखायी देती है। अगर आखि़री बौद्धिकों से तुम्हारा यही आशय है तो इनके यहाँ यह चेतना अन्त तक बनी रही है।
लेकिन अगर इनके बाद की पीढ़ियों के बहुसंख्यक लेखकों के यहाँ राजनीति, वह भी एक ख़ास तरह की राजनीति, साहित्य पर प्रभावी रही है तो स्वयं इन ‘आखि़री बौद्धिकों’ के अपने अनेक समकालीनों के यहाँ भी यही स्थिति थी। ठीक उसी तरह, तुम्हारी अपनी पीढ़ी में भी, अल्पसंख्यक ही सही, तुम समेत ऐसे अनेक ऐसे लेखक हैं, जो साहित्य के स्वायत्त स्वरूप का सम्मान करते हैं।
लेकिन यह बात हम लेखकों के सन्दर्भ में ही कर सकते हैं, या शायद नेहरू, लोहिया जैसे ‘इण्डिविजुअल’ राजनेताओं के सन्दर्भ में। क्योंकि जहाँ तक राजनैतिक मतवादों का प्रश्न है, वे दक्षिणपन्थी, वामपन्थी या समाजवादी, किसी भी तरह के मतवाद क्यों न हों, सभी के लिए राजनीति न सिर्फ़ साहित्य-कलाओं के आगे, बल्कि किसी भी चीज़ के आगे चलने वाली मशाल ही रही है...। हाँ, यह प्रश्न अवश्य विचारणीय है कि हिन्दुस्तान में, बाद के दौर में, राजनीति के इस क़दर चरम अग्रभूमि पर आते जाने की क्या वजहें रही हो सकती हैं।
उदयन : तुम कविताएँ लिखा करते थे, सागर के साहित्य मण्डल में तुम्हारा एक स्थान भी कविताओं के कारण बन ही गया था फिर तुम आलोचना में पूरे दल बल सहित कैसे आ गये? मेरे कहने का आशय है कि कवि होने के बावजूद तुमने आलोचना शुरू से ही ऐसी अधिक तन्मयता से की मानो तुम्हे हमेशा से यही करना था।
मदन : पता नहीं। कविताएँ मैं लिखा ज़रूर करता था, बड़ी संख्या में लिखी भी थीं, वे उस समय की कुछ पत्रिकाओं में छपती भी थीं, लेकिन, सच पूछो तो उनको लेकर कभी मेरे मन में सन्तोष नहीं होता था। इसका यह मतलब क़तई नहीं कि बाद में मैं जो कुछ लिखने लगा, जिसे अब हम लोग ‘आलोचना’ कह रहे हैं, उसे लेकर मेरे मन में असन्तोष नहीं होता था, या नहीं होता है, लेकिन वह उस तरह का मूलगामी क़िस्म का असन्तोष नहीं था, नहीं है, जैसा उन ‘कविताओं’ को लेकर होता था।
हल्का-सा विषयान्तर करने की इजाज़त दो तो कहूँगा कि हम लेखकों में और दूसरे लोगों में शायद अन्तर यह है कि दूसरे लोगों से भिन्न, हम दुनिया को तात्त्विक रूप से भाषा के प्रिज़्म के माध्यम से देखते हैं, कुछ इस क़दर तात्त्विक रूप से मानो भाषा ही हमारी आँख है। हमें नंगी आँखों से दिखायी देनी वाली दुनिया उतनी विश्वसनीय नहीं लगती। जिसे हम ‘रचना’ कहते हैं, जिस पर ‘आलोचना’ केन्द्रित होती है, वह एक अपेक्षाकृत अधिक पेचीदा प्रिज़्म है, एक क़िस्म का मेटा-प्रिज़्म, जिसमें भाषा पहले ही एक दृष्टि में फलित हो चुकी होती है। मुझे शायद ऐसे ही प्रिज़्म की ज़रूरत थी, जो मेरी ‘कविताएँ’ मुझे उपलब्ध नहीं करा पाती थीं। इसीलिए मैं शायद उस मेटा-प्रिज़्म की ओर आकर्षित हुआ जिसके माध्यम से देखने को ‘आलोचना’ कहा जाता है। इस अर्थ में मेरी ‘आलोचना’, शायद, मेरे काव्यात्मक संवेगों के दमन या उनकी विफलता का नतीजा नहीं है, वह उन संवेगों के उन्मोचन का, मेरे अधिक अनुकूल पड़ने वाला, विकल्प है। दूसरे शब्दों में, मैं अब भी कविताएँ ही लिखता हूँ - ऐसी कविताएँ जिनके लिखने से उपजने वाला असन्तोष, जैसाकि मैंने कहा, उतना मूलगामी नहीं है।
उदयन : तुम्हारे जीवन का एक और विलक्षण व्यक्ति तुम्हारी माँ रही हैं। मुझे लगता तुमने समय-समय पर उनको जितना उद्धृत किया है, कम ही लोगों को किया होगा। जैसा कि तुमने कहा कि उन्होने बीड़ी बनाना अपनी माँ से सीखा था, इसका आशय यह हुआ कि उन्होंने बहुत अभावों में जीवन जिया था। इसके बावजूद उन्होंने तरह-तरह के सृजनशील मार्गों से एक तरह का वैभव अपने घर में बनाये रखा। यह मैं हमारी पहले हुई बातों के आधार पर कह रहा हूँ। तुम उन्हें किस तरह देखना चाहोगे? यहाँ यह स्पष्ट करना शायद उचित हो कि यह प्रश्न पूछने का आधार उनकी विलक्षणता ही है।
मदन : ‘वैभव’ तो नहीं लेकिन ‘गरिमा’ (‘ग्रेस’) उसके लिए शायद सही शब्द होगा। उन्होंने हमें गरिमापूर्ण, सम्मानजनक, सौजन्यपूर्ण ढंग से जीवन जीने की शिक्षा दी। वे दो चीज़ों के बीच फ़र्क़ करती थीं : निर्धनता और दरिद्रता। निर्धनता हमारे लिए एक तरह से प्रदत्त स्थिति थी, लेकिन दरिद्रता (‘दलिद्दर’) से बचा जा सकता था। कपड़े फटे हो सकते थे लेकिन उन्हें साफ़ रखना, सुघड़ता के साथ पैबन्द लगा कर, सलीक़े से पहनना सम्भव था। पैरों में जूते या चप्पल न हों, लेकिन पैरों को दोनों वक़्त ख़ूब अच्छी तरह धोकर साफ़ रखा जा सकता था। भले ही मज़दूरी से आजीविका कमाना पड़े लेकिन सिर तान कर चलना, हीनता-बोध से बचना, अच्छी भाषा बोलना, समय निकाल कर पुस्तकें पढ़ना... यह सब सम्भव था। उन्होंने यह सब सम्भव किया। वे अपनी पुरानी साड़ियों के खोल में धान का पुआल भर कर हम सब के लिए बहुत सुन्दर गद्दे और रजाइयाँ तैयार करती थीं। हमारे आसपास के दूर के लगभग सभी रिश्तेदार अपेक्षाकृत सम्पन्न थे (वे सोने-चाँदी के व्यापारी थे) और उन्हें मेरी माँ को बीड़ी बनाते देख सामाजिक शर्मिन्दगी महसूस होती थी, लेकिन मेरी माँ इसकी ज़रा भी परवाह नहीं करती थीं।
वे अपने गाँव के एक अत्यन्त लब्धप्रतिष्ठ, कला-प्रेमी भूतपूर्व सैन्य अधिकारी पिता और एक सर्वथा निरक्षर और लम्बे घूँघट में ढँकी माँ की बेटी थीं। उनके पिता की युवावस्था में ही आकस्मिक मृत्यु ने उनके पूरे परिवार को भीषण निर्धनता और असहायता की हालत में ला छोड़ा था। तेरह वर्ष की उम्र में उनका विवाह मेरे उतने ही निर्धन और मज़दूर पिता के साथ हो गया। सत्रह वर्ष की उम्र में उन्होंने मुझे जन्म दिया और फिर उनकी आठ सन्तानें हुईं (जिन में से अब हम चार ही बचे हैं)। मेरे पिता किंचित कर्म-शिथिल और पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ निभाने के मामले में कमज़ोर थे। नतीजतन मेरी माँ को मज़दूरी कर अपने परिवार का पालन-पोषण करना पड़ा। तब भी उन्होंने अपने बच्चों को स्कूल और कॉलेज की शिक्षा दिलायी, कलात्मक संस्कार दिये, हमें अपने पैरों पर खड़ा किया।
स्वयं उनकी कोई उल्लेखनीय स्कूली शिक्षा नहीं हो सकी थी, लेकिन उन्होंने यथासम्भव स्वाध्याय कर ख़ुद को न सिर्फ़ रामचरित मानस और महाभारत पढ़ने योग्य बल्कि आधुनिक साहित्य में भी रस लेने योग्य बनाया। वे बहुत व्यंजनापूर्ण भाषा (बुन्देली) बोलती थीं, जिसमें लगभग हर स्थिति के लिए, कभी-कभी अत्यन्त सूक्ष्म स्थितियों के लिए, बुन्देली की कहावतें और मुहावरे शामिल होते थे (जो जब-तब किंचित भदेस और ‘अश्लील’ किन्तु बेहद सटीक हुआ करते थे)...
उदयन : सागर के दिनों में, जैसा तुमने बताया भी, होटल में मैनेजरी करते हुए, तुम अपनी मित्र मण्डली के अलावा किन लेखकों से मिलते थे? उस दौरान पढ़ी कौन-सी किताबों का तुम पर गहरा असर हुआ?
मदन : बहुत ज़्यादा लेखक तो उन दिनों सागर में आते नहीं थे। गाहे-बगाहे जितेन्द्र (कुमार) आते थे। दो-एक बार अशोक जी भी आये थे। एक बार उनके आगमन पर उनके साथ सागर के स्थानीय कवियों की गोष्ठी भी ऋषभ समैया के ‘कविता कक्ष’ में हुई थी। उन दिनों वे सम्भवतः पूर्वी यूरोप की यात्रा करके लौटे थे। वहाँ के संस्मरण भी उन्होंने सुनाये थे। प्रसंगवश, जब गोष्ठी के बाद हम मित्र उन्हें उनके घर छोड़ने चकराघाट से गोपालगंज तक नाव में सवार होकर जा रहे थे तो गोविन्द द्विवेदी ने उनसे उन सम्भावनाशील कवियों के बारे में जिज्ञासा की थी, जिनकी कविताएँ उन्होंने उस गोष्ठी में सुनी थीं। जानते हो, तब उन्होंने किसका नाम लिया था? मेरा! (जबकि उस गोष्ठी में ध्रुव भी मौजूद था!) ख़ैर...
हाँ, मेरी मित्र-मण्डली ज़रूर लगभग रोज़ ही वहाँ जमा होती थी। रात के 9 के आसपास जब सराय की मेरी ड्यूटी समाप्त होने को होती थी, तो अक्सर दुबे जी, ध्रुव, स्वतन्त्र सिंह चौहान आदि मित्र वहाँ एक-एक कर आ जाते थे और फिर मेरी ड्यूटी समाप्त होने पर हम सब शहर में घूमने और गप लगाने निकलते थे।
जैसाकि मैंने कहा, सराय की उस नौकरी में मेरा लगभग पूरा दिन ख़ाली होता था। इसलिए उन दिनों पढ़ना बहुत हुआ था। पुस्तकों का सबसे बड़ा स्रोत था, सागर विश्वविद्यालय का विशाल पुस्तकालय जहाँ से गोविन्द (द्विवेदी) जी मुझे हिन्दी की पुस्तकें उपलब्ध करा देते थे (तब मैं अँग्रेज़ी नहीं पढ़ पाता था)। उस पुस्तकालय में भारतीय और गै़रभारतीय भाषाओं की पुस्तकों (विशेष रूप से उपन्यासों) के बहुत सारे अनुवाद उपलब्ध थे। तॉल्स्तॉय के पुनरुत्थान और अन्ना कारेनीना, दोस्तोएव्स्की के बौड़म और अपराध और दण्ड आदि, गोर्की का माँ, फ्लॉबे का मादाम बॉवेरी, चेख़ॅव, कुप्रिन, कारेल चापेक, बाल्ज़ाक, एमिल ज़ोला, हेनरी जेम्स, मोपाँसा, स्टेण्ढाल आदि अनेक लेखकों की कृतियों के अनुवाद मैंने वहीं पढ़े थे। धर्मवीर भारती कृत विश्व कविता के अनुवाद का संचयन देशान्तर भी पढ़ा था। प्रेमचन्द का गोदान। मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, दूधनाथ सिंह, जगदीश चन्द्र, परसाई आदि अन्तहीन कथाकारों की रचनाएँ। अज्ञेय, रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा आदि समेत हिन्दी के अनेक कवियों की कविताएँ तो पढ़ी ही थीं। (संयोग से आलोचना की पुस्तकें लगभग नहीं।) लेकिन हिन्दी के जिस एक लेखक की रचनाओं ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया था (और जो प्रभाव मुझ पर आज भी बना हुआ है), वह थे निर्मल वर्मा। उसी होटल में बैठकर, मुसाफ़िरों द्वारा छोड़ दिये गये सराय के बिलों के पीछे के कोरे पन्नों पर, मैंने एक चिथड़ा सुख पर अपना पहला लेख लिखा था।
उदयन : निर्मल वर्मा के उपन्यास ‘एक चिथड़ा सुख’ में वह कौन सी ख़ास बात/बातें थी कि तुम्हें उस औपन्यासिक स्पेस और समय में भागीदारी करने की ज़रूरत महसूस हुई, अगर मैं तुम्हारी आलोचना को इस तरह देख सकूँ। यह प्रश्न विशेषकर इसलिए पूछ रहा हूँ क्योंकि तुम्हारा अपना सांस्कृतिक परिवेश उस परिवेश से बिल्कुल अलग था, जिसका इस उपन्यास में साक्षात्कार होता है।
मदन : शायद एक वजह तो यही थी...वह अनुभव जो दोनों परिवेशों की इस भिन्नता के बावजूद उभयनिष्ठ था, उस ‘बुनियादी अकेलेपन’ का अनुभव, जिसका ज़िक्र शायद मैंने अशोक जी के हवाले से किया था। निर्मल वर्मा के पहले तक मैंने ऐसा कुछ भी नहीं पढा था, और उनके बाद भी आज तक नहीं पढ़ा। मैंने निर्मल वर्मा की कहानियाँ, लाल टीन की छत नामक उपन्यास और उनकी डायरियाँ पढ़ रखी थीं, और उनके अनुभव से अभिभूत भी था, लेकिन एक चिथड़ा सुख ने जैसे मेरे उस अनुभव को एकदम नये सिरे से आलोकित कर दिया था। एक-के-बाद-एक सारे पात्रों का अपना अनूठा अकेलापन और एक ओर, इन सबके बारे में डायरी लिखते बच्चे के माध्यम से भोक्ता और दृष्टा का, अकेलेपन (लोनलीनेस) और एकान्त या एकाकीपन (सॉलीट्यूड) का संश्लेष, और दूसरी ओर, अतीन्द्रिय रूप से ऐन्द्रिय प्रतीत होती उपन्यास की वह भाषा जिसमें यह संश्लेष निरन्तर टूटता और बँधता है। एक चिथड़ा सुख अपने ही एक पात्र, इस बच्चे, में मूर्तिमान या रूपायित होता उपन्यास है जिसके संश्लिष्ट स्वत्व में उपन्यास के बाक़ी सारे पात्रों, इरा, डैरी, नित्ती, बिट्टी, के स्वत्व समाहित हैं। मैंने पहली बार एक ऐसा उपन्यास पढ़ा था जो जितना अपने से बाहर की उस दुनिया के बारे में था जिसका वह चित्रण करता है, उतना ही वह अपने बारे में था...हालाँकि ये सारी बातें तब मैंने इस रूप में नहीं लिखी थीं...
उदयन : तुम्हारे उस पहले लेख के प्रकाशित होने पर कैसी और किनकी प्रतिक्रिया हुईं थीं? उनका तुम पर क्या असर हुआ था? नये लेखक और वो भी आलोचक की शुरुआती पहचान तब भी और अब भी क्या मायने रखती है?
मदन : संयोग से, तुम्हारा यह सवाल बहुत दिलचस्प है, क्योंकि उस पर हुई प्रतिक्रिया बहुत ही दिलचस्प थी, ख़ास तौर से इसी अर्थ में कि वह मेरी पहली ‘आलोचना’ पर पहली ऐसी प्रतिक्रिया थी जिसका स्वरूप मेरी बाद की (अब तक की) आलोचनाओं पर हुई प्रतिक्रियाओं से कुछ-कुछ मिलता-जुलता है। उसके प्रकाशन को भी एक प्रतिक्रिया ही कहना चाहिए क्योंकि वह उस पत्रिका (पूर्वग्रह) में हुआ था जिसे मैं हर दूसरे महीने लगभग धार्मिक निष्ठा और उत्साह के साथ पढ़ता था और जिसमें प्रकाशित होने का सपना भी मैं तब नहीं देख पाता था।
हुआ यह था कि पत्रिका में प्रकाशित कराने से पहले मैंने उसे अपने अभिन्न मित्र ध्रुव शुक्ल को पढ़कर सुनाया और वह उसे सुनकर इतना प्रभावित हुआ कि उसने उसके सार्वजनिक पाठ और उसपर चर्चा के लिए अपने मित्र संघ की एक गोष्ठी रखने का प्रस्ताव किया। मैं सहमत हुआ और गर्मियों की एक शाम ध्रुव के मकान की छत पर वह गोष्ठी आयोजित हुई जिसमें सन्तोषजनक संख्या में स्थानीय लेखक और अन्य लोग उपस्थित हुए। उनमें से दो लेखकों की विशेष उपस्थिति और दो की विशेष अनुपस्थिति का मुझे ख़ास तौर से स्मरण है। दो विशेष रूप से उपस्थित लेखक थे, कपिल तिवारी (जो उन दिनों सागर विश्वविद्यालय से उपन्यास पर शोध कर रहे थे) और कमला प्रसाद जो न जाने किस निमित्त से विश्वविद्यालय में आये हुए थे। जो दो लेखक (जैसे जानबूझकर) अनुपस्थित थे, वे थे रमेश दत्त दुबे और गोविन्द द्विवेदी - दोनों ही मेरे आरम्भिक गुरु और अभिन्न मित्र।
ख़ैर... मैंने काँपते-काँपते निबन्ध पढ़ा और फिर उस पर तीखी आलोचनाएँ की (विशेष रूप से कमला प्रसाद और कपिल तिवारी की ओर से) जो बारिश हुई, उसने मुझे शब्दशः दहला दिया। किसी सार्वजनिक साहित्यिक गतिविधि में बौद्धिक भागीदारी का वह मेरा पहला अनुभव था, इसलिए मैं इस तरह की प्रतिक्रियाओं का तनिक भी अभ्यस्त नहीं थ। मेरा आत्मविश्वास धूल चाट गया और शर्म और ग्लानि ने मुझे जकड़ लिया। मैंने मन-ही-मन तय कर लिया था कि मैं आलोचना जैसा कुछ लिखने का भविष्य में कभी दुस्साहस नहीं करूँगा। हाँ, उन आलोचनाओं में सबसे प्रबल उस निबन्ध के, कलावादी-रूपवादी आदि होने के अलावा, अबोधगम्य और दुरूह होने की थी। ध्रुव भी इन आलोचनाओं से हतप्रभ था।
कई दिन बीत जाने के बाद जब मैंने साहस बटोर कर वह निबन्ध गोविन्द द्विवेदी को दिखाया तो उन्होंने उसकी ओर विस्मय-युक्त प्रशंसा के भाव से देखते हुए उसे पूर्वग्रह को भेजने का परामर्श दिया। मैंने उन्हें अविश्वास से देखा, तो उन्होंने आदेशात्मक ढंग से अपने परामर्श को दोहराया। ख़ैर, मैंने भरपूर असमंजस और अविश्वास के साथ, ध्रुव की मदद से लिफ़ाफ़ा तैयार किया और उसे भोपाल रवाना कर दिया। कुछ महीने बाद, एक शाम जब मैं सराय से लौटा, मेरे घर के एक ताख में पूर्वग्रह का लिफ़ाफ़ा रखा हुआ था। वह अंक (38) जिसमें मेरा वह निबन्ध अविकल रूप से छपा हुआ था।
लेकिन हम बात प्रतिक्रियाओं की कर रहे थे। चार, बल्कि पाँच, वरिष्ठों की प्रतिक्रियाएँ मुझे याद हैं, रमेशचन्द्र शाह, अशोक जी, राजेश जोशी और स्वयं निर्मल वर्मा। इन प्रतिक्रियाओं में एक चीज़ सर्वनिष्ठ थी : सभी का कहना था कि निबन्ध पढ़कर उन्हें नहीं लगा था कि वह किसी मेरे जितने युवा (सम्भवतः, उन्होंने विनम्रतावश ‘अपरिक्व’ नहीं कहा था) व्यक्ति का लिखा हुआ हो सकता था। हाँ, पाँचवीं प्रतिक्रिया : वर्षों बाद जब मलयज के दिवंगत होने के बाद रमेशचन्द्र शाह और मलयज का पत्रव्यवहार प्रकाशित हुआ तो मलयज के एक पत्र से मैंने जाना कि उन्हें वह निबन्ध पसन्द नहीं आया था। ज़ाहिर है, वह निबन्ध मेरी किसी पुस्तक में जगह नहीं पा सका।
उदयन : यह संयोग नहीं है कि जिन निर्मल वर्मा के उपन्यास पर तुमने अपनी पहली आलोचना लिखी थी, आगे जाकर उन्हीं पर पूरी किताब ‘कथा पुरुष’ लिखी। तुम्हारी किसी भी एक लेखक पर लिखी यह इकलौती किताब है। क्या ऐसे कोई और लेखक भी हैं जिनपर तुम किताब लिखना चाहो?
मदन : यूँ तो ऐसे कई लेखक हैं जिनपर मैं सम्पूर्ण पुस्तकें लिखना चाहूँगा, लेकिन अपने लेखन की गति और जीवन के बचे हुए समय का हिसाब लगाने पर यह सपना पूरा होता नहीं लगता। फिर भी, एक लेखक ऐसा है जिस पर, अगर अवसर मिल सका तो, एक पूरी पुस्तक लिखना चाहूँगा : कृष्ण बलदेव वैद। निर्मल वर्मा के अलावा वैद एकमात्र ऐसे लेखक हैं जिन्होंने हिन्दी भाषा और आख्यान की सम्भावनाओं को उनके सीमान्तों पर जाकर खोजा और चरितार्थ किया है। उनकी हिन्दी पढ़ने पर यह विस्मित करने वाला अहसास होता है कि इस भाषा में ऐसी विलक्षण अभिव्यक्ति की सम्भावनाएँ भी छिपी हुई हैं। जैसाकि तुम जानते हो, मैंने उनपर फुटकर लेखन तो किया ही है...
उदयन : तुम उन बहुत थोड़े से लेखकों में हो जिन्हें निर्मल जी और वैद साहिब दोनों ही पसन्द आते हैं, जो इन दोनों ही विलक्षण लेखकों में से किसी एक को उनके लेखन के बीच के फ़र्क़ के बावजूद चुनते नहीं हैं जो दोनों की ही विलक्षणता का सम्मान कर पाते हैं। ज़्यादातर लेखकों ने इन दोनों लेखकों के व्यक्तिगत विवादों को ही इनमें से किसी के लेखन को नापसन्द करने का आधार बना रखा है। ऐसा सम्भव नहीं था, अगर इन लेखकों की किताबों को सचमुच पढ़ा गया होता। हिन्दी समाज में किताबों की क्या स्थिति है? क्या हम कभी भी पढ़ने वाला समाज रहे हैं? आज मौखिक परम्पराओं के अभाव में, बिना किताबों के इस समाज में ज्ञान और सृजनात्मकता के स्रोत क्या हैं?
मदन : हाँ, हिन्दी में इस क़िस्म के विरुद्धार्थी युग्मों की एक छोटी-मोटी परिपाटी-सी ही बनी रही है : प्रसाद-निराला, अज्ञेय-मुक्तिबोध, निर्मल वर्मा-वैद...। मैं इनके बीच विरोध नहीं देखता, फ़र्क़ अवश्य देखता हूँ, जैसाकि तुमने कहा। इन सभी ने भाषा और अपनी-अपनी विधाओं में मूलगामी (रेडिकल) योगदान किया है। निर्मल वर्मा और वैद को एक साथ पढ़ना इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इन दोनों ही लेखकों के यहाँ आख्यान के विक्षेप रचने में भाषा अलग-अलग तरह से विशिष्ट योगदान करती है, और इस मामले में ये दोनों ही लेखक अद्वितीय हैं - मेरा मतलब है, आख्यान में भाषा की ऐसी केन्द्रीय, प्रभावी भूमिका और किन्हीं लेखकों के यहाँ नहीं है।
तुम्हारा यह कहना सही है कि इन लेखकों की किताबों को ‘सचमुच’ नहीं पढ़ा गया है। वैद को तो ज़ाहिर तौर पर ही नहीं पढ़ा गया है, निर्मल वर्मा को ज़ाहिर तौर पर पढ़ा अवश्य गया है (शायद काफ़ी सन्तोषजनक मात्रा में पढ़ा गया है), लेकिन उस पठन का कोई टिकाऊ आलोचात्मक सारतत्त्व निकलकर नहीं आ सका। उनकी भाषा पर अन्यथा गम्भीर कहे जा सकने वाले पाठकों का ध्यान गया अवश्य है लेकिन इनमें से ज़्यादातर ने उसका कवियाते हुए गुणगान भर किया है, आख्यान में उसकी विशिष्ट भूमिका को रेखांकित किसी ने नहीं किया।
हिन्दी समाज में पुस्तकों की स्थिति के इतिहास को मैं नहीं जानता, लेकिन उसका वर्तमान बहुत दुखद है। यह सही है कि एक समय में मौखिक परम्पराएँ एकान्त में बैठकर किये जाने वाले मौन पठन का बहुत बड़ा विकल्प हुआ करती थीं। वे एक क़िस्म के सामूहिक पठन की भूमिका निभाती थीं। चूँकि भारतीय समाज में बहुत सारी कृतियाँ साहित्यिक होने के साथ-साथ धार्मिक भी थीं, वे प्रवचन आदि सामूहिक प्रस्तुतियों के माध्यम से उस व्यापक समाज तक पहुँचती थीं जो शायद अन्यथा उनको पढ़ने के लिए समय न निकाल पाता। और वे इस व्यापक समाज के लिए महज़ श्रद्धा ही नहीं, ज्ञान और सृजनात्मकता (पुनराख्यान) का स्रोत भी थीं। मैंने स्वयं महाभारत, श्रीमद्भागवत, रामचरित मानस समेत अनेक कृतियों को पढ़ने के बहुत-बहुत पहले इन्हीं मौखिक परम्पराओं के माध्यम से सुना-समझा था, और मुझे विश्वास है कि इस मामले में मेरे जैसे अन्तहीन लोग रहे होंगे।
चूँकि ये मौखिक परम्पराएँ अब लगभग समाप्त हो चुकी हैं, एकान्त, मौन पठन ही पुस्तकों की एकमात्र नियति है। यूँ भी, ऐसा पठन आधुनिक साहित्य की बनावट में ही अन्तर्निहित, पूर्वापेक्षित है। ऐसे में पढ़ने की एक विस्तृत संस्कृति का होना अनिवार्य था। ऐसी संस्कृति हिन्दी समाज में दुर्लभ है। आधुनिक मध्यवर्ग के भौतिक और मानसिक स्थापत्य में पुस्तकों के लिए कोई जगह आकल्पित नहीं है। ज़्यादातर, पढ़ने का काम उन लोगों ने सँभाल रखा है जो स्वयं लिखते हैं, जो ज़ाहिर है, अत्यन्त अल्पसंख्यक हैं। और, हिन्दी में ये लोग किस तरह पढ़ रहे हैं, इसका अनुमान इस भाषा में आलोचना की दयनीय हालत से किया जा सकता है, क्योंकि आलोचना पठन-संस्कृति का ही एक परिष्कृत अनुभाव है। ऐसे में, ज़ाहिर है, ज्ञान और सृजनात्मकता के कोई स्रोत नहीं बचे हैं। लेकिन इससे भी दारुण बात यह है कि ऐसे स्रोतों का अभाव हमारी उद्विग्नता का विषय नहीं रह गया है। लगता यही है कि सृजनात्मकता और ज्ञान की जगह सूचना की रचना और उसके ग्रहण की ‘ओपन मार्केट इकॉनॉमी’ ने ले ली है, जिसके लिए, दुनिया के अन्य समाजों की ही भाँति हमारे यहाँ भी, टेलिविज़न और सोशल मीडिया उपयुक्त प्लेटफ़ॉर्म बने हुए हैं। इन प्लेटफ़ॉर्मों से ज्ञान और सृजनात्मकता की माँग या उम्मीद करना व्यर्थ है, क्योंकि ये चीज़ें इन माध्यमों की स्वाभाविक बनावट से बाहर की हैं।
उदयन : तुमने हमेशा ही साहित्य की स्वायत्तता का व्यवहार किया है और इसी अन्तश्चेतना के साथ साहित्यिक कृतियों की आलोचना की है। यह सब करना कितना मुश्किल रहा है ख़ासकर उस हिन्दी साहित्यिक संस्कृति में जहाँ साहित्य को, तुम्हारे ही शब्दों में, राजनीति या समाजशास्त्र या विचारधारा का उपनिवेश बनाने में ही सारी आलोचनात्मक ऊर्जा व्यय होती रही है।
मदन : सिर्फ़ आलोचनात्मक ऊर्जा ही नहीं, बहुत-सी रचनात्मक ऊर्जा भी। बल्कि, इस साहित्यिक संस्कृति को गढ़ने में दोनों के बीच एक क़िस्म की ‘कॉम्प्लीसिटी’ का योगदान रहा है। एक दुश्चक्र के तहत दोनों एक-दूसरे को वैधीकृत और पुष्ट करती रही हैं। इसका सबसे ज़्यादा नुकसान उस साहित्य को तो उठाना ही पड़ा जो इस तरह का उपनिवेश बनने से इनकार करता रहा (जैसेकि मसलन, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद, अशोक वाजपेयी आदि), लेकिन इसका उससे भी बड़ा नुक़्सान हमारी कुल साहित्यिक संस्कृति का इस रूप में हुआ कि हम साहित्य की अपनी स्वायत्त शक्ति को तलाशने, पहचानने, रेखांकित करने आदि से लगातार चूकते रहे। साहित्य के छद्मवेश में हम जो कुछ भी लिखते रहे उसमें राजनीति, समाजशास्त्र या विचारधारा आदि का ही पुनराख्यान और वैधीकरण करते रहे।
साहित्य की स्वयत्तता का अतिरिक्त इसरार, दरअसल, इस उपनिवेशवाद का ही आनुषंगिक परिणाम है। साहित्य शायद उतना स्वायत्त नहीं होता जितने का भ्रम उसकी स्वयात्तता के इस अतिरिक्त इसरार से जागता है, जो कुछ लोगों को इसलिए करना पड़ा क्योंकि उन्हें इस उपनिवेशवाद के खि़लाफ़ उसका बचाव करना ज़रूरी लगा। अन्यथा, साहित्य सम्भवतः एकमात्र ऐसी कला या विद्या है जिसे राजनीति, समाजशास्त्र और विचारधारा समेत दुनिया की किसी भी चीज़ से कभी परहेज़ नहीं रहा। इस अर्थ में वह अत्यन्त परिग्रही और समावेशी कर्म है। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि इनमें से कोई भी चीज़ साहित्य में प्रवेश करने के बाद अपनी निश्चयात्मकता और वह ‘दिव्यता’ या प्रदत्तता खो देती है जिससे हमने उसे मण्डित कर रखा होता है। मोटे तौर पर, ज्ञान के लगभग सारे रूप चीज़ों को पहले उनके सत्त्व में संकुचित करते हैं और फिर इस सत्त्व के आधार उन्हें उस परिभाषा में संहत करते हैं जिसमें उस वस्तु की सारी सम्भावनाएँ परिसीमित हो जाती हैं। साहित्य वस्तुओं को उनकी इस परिभाषा से बहाल कर उन्हें एक ऐसे ‘ज़ोन’ में ले आता है जहाँ वे अपनी उन तमाम अप्रत्याशित सम्भावनाओं के साथ स्पन्दित होने लगती हैं जिनकी कोई स्मृति उनकी परिभाषा में नहीं थी। और यह ‘ज़ोन’ कोई रहस्यमय इलाक़ा नहीं बल्कि सत्त्वान्वित परिभाषा से मुक्त मनुष्य के अन्तःकरण और सत्त्वान्वित परिभाषा से मुक्त वस्तुओं की अन्तर्क्रिया से निरन्तर बनता-मिटता क्षेत्र है। इसलिए अगर हम साहित्य की (एक स्वस्थ) संस्कृति विकसित कर सके होते, तो दूसरी चीज़ों के साथ-साथ राजनीति, समाजशास्त्र और विचारधाराओं आदि को भी उनकी सम्भावित शक्तियों और सीमाओं के साथ अधिक सम्यक ढंग से पहचान सकते।
उदयन : तुमने मेरे सवाल का पूरी तरह से सैद्धान्तिक जवाब दे दिया जो ठीक भी किया लेकिन मेरे सवाल में एक जिज्ञासा यह जानने की भी है कि मुख्य धारा की अधिकांश समाजशास्त्रीय और विचारधारात्मक आलोचना के बीच तुम्हें अपनी तरह की आलोचना लिखने और संचारित करने में किस तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ा और वह करते हुए क्या तुम्हें किन्हीं आलोचना की नयी युक्तियों को खोजना पड़ा?
मदन : किन्हीं ख़ास मुश्किलों का सामना तो शायद, नहीं करना पड़ा, सिवा इसके कि जो कुछ भी मैंने लिखा वह मुख्य धारा की अधिकांश ‘आलोचना’ के बीच उत्तरोत्तर अजनबी-सा होता गया। क़ायदे से देखा जाए तो, जिसे हम समाजशास्त्रीय और विचारधारात्मक आलोचना कह रहे हैं, उसकी समस्या उसका समाजशास्त्रीय या विचारधारात्मक होना उतना नहीं है, जितना उसका ठीक-से आलोचना न होना है। पश्चिम की वामपन्थी आलोचना के सामने यह लगभग शून्य है। हिन्दी आलोचना की यह लगभग शून्य के स्तर पर सिमटी अल्पता ही मेरी समस्या थी और है। वह न कोई प्रस्थान उपलब्ध कराती है न किसी तरह के टकराव की कोई सम्भावना। एक चुनौतीहीन वातावरण।
मुझे अपने लेखन को ‘आलोचना’ कहने में संकोच होता है, तो इसीलिए कि मुझे अपनी भाषा में आलोचना की ऐसी कोई परम्परा या परिपाटी दिखायी नहीं देती जिसकी पुष्टि या विरोध में मैं अपने लेखन को रखकर देख सकूँ।
तब भी, मैंने कुछ लेखकों से काफ़ी-कुछ सीखना चाहा है (सीख सका हूँ या नहीं यह मैं नहीं जानता) : शुरुआती वर्षों में विजयदेव नारायण साही, मलयज, रमेशचन्द्र शाह, अशोक वाजपेयी, प्रभात त्रिपाठी से, और बाद के वर्षों में वागीश शुक्ल से।
मुझे लगातार लगता रहा है कि हिन्दी ‘आलोचना’ की पारिस्थितिकी (‘इकॉलॉजी’) में कृति की अपनी आवाज़ को श्रव्य बनाने की कोई गुंजाइश नहीं है; इस पारिस्थितिकी में वह गूँगेपन (और इसलिए बहरेपन) की शिकार हो रही है। और इसलिए मैंने एक ही काम करने की कोशिश की, जिसे तुम चाहो तो ‘युक्ति’ भी कह सकते हो : कृति के यथासम्भव इतने क़रीब जाना कि मुझे उसके लेखक और उसके सामाजिक, सांस्कृति, राजनैतिक परिवेश की आवाज़ों के बीच स्वयं उसकी आवाज़ सुनायी दे सके; वह आवाज़ जिसमें कृति का संकल्प, उसकी महत्त्वाकांक्षाएँ, उसके स्वप्न, उसकी सफलताएँ-विफलताएँ आदि मुखरित होती हैं। इसके लिए मुझे कभी-कभी अपने कानों को इन दूसरी आवाज़ों को अनसुना करने का अभ्यस्त भी बनाना पड़ा। मैं जानता हूँ कि यह ठीक नहीं है; साहित्य की सृष्टि में इन दूसरी आवाज़ों का भी बहुत महत्त्व है। लेकिन इन दूसरी आवाज़ों को किसी हद तक अन्यत्र भी सुना जा सकता है; कृति की आवाज़ को अन्यत्र नहीं सुना जा सकता। पश्चिम की तमाम महान आलोचना-परम्पराओं में कृति की आवाज़ के इस महत्त्व का विवेक है (जिसे वे ‘क्लोज़ रीडिंग’ कहते हैं)। इनमें तथाकथित समाजशास्त्रीय और विचारधारापरक आलोचनाएँ भी शामिल हैं, इस मोटे-से फ़र्क़ के साथ कि वे कृति की आवाज़ को दूसरी आवाज़ों की ही निर्मिति मानती हैं...
उदयन : तुमने पश्चिम के आलोचनात्मक उद्यम का ज़िक्र किया, क्या तुम अपने पसन्द की कुछ आलोचनात्मक कृतियों के बारे में बताना चाहोगे? तुम ख़ुद किसी भी कृति को आलोचना के लिए किन आधारों पर चुनते हो?
मदन : उनकी संख्या बहुत है और इतना अधिक वक़्त गुज़र जाने के बाद अब उन सबके नाम याद कर पाना मुश्किल है, फिर भी मसलन, एफ़.आर. लीविस की कॉमन पर्स्यूट, नॉथ्रोप फ्ऱाई की (सम्भवतः) क्रिटिकल पाथ, वाल्टसर बेंजामिन की इल्युमिनेशन्स, रोलाँ बाख़्त की क्रिटिकल एस्सेज़ और रीडर, ब्लांशो की वर्क ऑफ़ फ़ायर, सुसन सोण्टौग की अगेन्स्ट इण्टरप्रिटेशन्स, पॉल डि मान की एलेगॅरीज़ ऑफ़ रीडिंग, ज़ाक देरीदा की एक्ट्स ऑफ़ लिटरेचर, और हेराल्ड ब्लूम, टेरी ईगलटन, ज़्याँ फ़्रांसुआ ल्योतार, उम्बर्तो एको आदि अनेक लेखकों की आलोचनात्मनक, सैद्धान्तिक कृतियाँ।
जहाँ कृति के चुनाव का सवाल है, अधिकांश दफ़ा तो यह चुनाव मुझे करना ही नहीं पड़ा। मेरा अधिकांश लेखन पूर्वग्रह में प्रकाशित हुआ और उसके सम्पादक ने जिस कृति या लेखक पर लिखने को कहा उसपर मैंने लिखा। लेकिन जब चुनाव का विकल्प मेरे पास रहा तब मैंने कृति की आत्म चेतना, उसकी संश्लिष्ट बनावट, उसके अर्थ की अनिवार्यता, भाषा के साथ उसका समस्यात्मक सम्बन्ध, उसकी प्रश्नाकुलता, और अन्ततः अस्तित्व तथा जागतिक सच्चाइयों के साथ उसकी अनबन... जैसी चीज़ों को अपने चुनाव का आधार बनाया।
उदयन : तुम्हारी पहली किताब ‘कविता का व्योम और व्योम की कविता’ के लिखने की क्या पृष्ठभूमि थी? वह एक तरह से साठ के दशक से अगले तीस साल की कविता पर सबसे बड़ा आलोचनात्मक उपक्रम था। वह जितनी आलोचनात्मक, उतनी ही सैद्धान्तिक विमर्श की पुस्तक थी। इस पुस्तक को लिखने के पीछे क्या प्रेरणाएँ सक्रिय थीं, उसे लिखने की प्रक्रिया क्या थी?
मदन : इस पुस्तक का बीज तो शायद तभी पड़ गया था जब उसके वर्षों पहले मैंने होना शुरू होना नामक उस पुस्तक का सम्पादन करते हुए जिसमें तुम सहित चार कवियों की कविताएँ संकलित थीं, एक विस्तृत भूमिका लिखी थी। बहुत मोटे तौर पर बात की जाए तो, इसकी पृष्ठभूमि में मेरे मन में उस तत्कालीन प्रभावी मुख्य धारा की कविता के प्रति गहरे असन्तोष का भाव था जिसे ‘कविता की वापसी’ के नाम से मिथकीकृत किया जा रहा था। उस कविता की गिजगिजी रूमानियत और बचकानापन, उसका वामपन्थी विचारधारा के लगभग अभिधात्मक पद्यानुवाद के स्तर का अन्धानुकरण, उसका संरचनात्मक लद्धड़पन, उसकी लाक्षणिकता और आर्थी संकुलता, उसका वैचारिक शून्य आदि तमाम चीज़ें उसके कवियों की अल्पप्राण प्रतिभा का उद्घोष कर रही थीं। अपने युवा उत्साह में मैं ‘कविता की वापसी’ के उस मिथक को भंग करना चाहता था, विशेष रूप से इसलिए ताकि उसके कोलाहल से उसी के समानान्तर लिखी जा रही गम्भीर, अर्थ-गझिन, संश्लिष्ट अनुभवों से युक्त, किन्तु अलक्षित जा रही उत्कृष्ट कविता की आवाज़ को अलगाकर सुना जा सकता। यह उस पुस्तक की बीज प्रेरणा थी।
बाद में, लिखने की प्रक्रिया में, जब मैंने मुक्तिबोध की ‘अँधेरे में’ कविता से उत्प्रेरित होकर किंचित गम्भीरता और एकाग्रता के साथ सोचना शुरू किया तो मुझे लगा कि हिन्दी कविता, अपनी परम्परा में, अपने मूल स्वरूप में, मुख्यतः काल की कविता रही है : कालमूलक, कालोन्मुख, कालानुकूलित कविता। लेकिन, मुझे लगा कि आधुनिक परिस्थिति ने काल की हमारी पारम्परिक अवधारणा में गम्भीर विचलन पैदा किये हैं जिन्होंने, जहाँ एक ओर, इस तरह की कविता के लेखन को असम्भव बना दिया है, वहीं दूसरी ओर मुख्यधारा की कविता अभी भी किसी-न-किसी रूप में उसी अवधारणा परिचालित है, जो वास्तव में समकालीन सचाई के सन्दर्भ में इस कविता की अव्या-प्ति का कारण है। मुझे लगा, वे विचलन एक नयी तरह की कविता की माँग करते थे, जिसे मैंने ‘व्योम’ (‘स्पेस’) की कविता के नाम से पुकारने और विश्लेषित करने की कोशिश की थी। ज़ाहिर है कि ये अहसास एक ठोस अनुभव में रूपान्तरित होने के लिए किंचित गम्भीर वैचारिक विमर्श की माँग करते थे। यह अकारण नहीं कि उसमें ‘पाद टिप्पणी’ शीर्षक से एक समूचा अध्याय ही है जो शुद्ध सैद्धान्तिक विमर्श है।
उस पुस्तक के लिखे जाने की प्रक्रिया? यूँ इसका उल्लेख मैंने पुस्तक की भूमिका में किया है। संक्षेप में, उन दिनों त्रिलोचन जी सागर विश्वविद्यालय से सम्बद्ध मध्यप्रदेश संस्कृति विभाग की मुक्तिबोध सृजन पीठ के अध्यक्ष थे, जिन्होंने विश्वविद्यालय में समकालीन कविता पर एक विशेष परिसंवाद का आयोजन किया था और उस कार्यक्रम में मैंने समकालीन कविता पर एक विस्तृत निबन्ध पढ़ा था। परिसंवाद के दौरान और बाद में मित्रों से उस निबन्ध पर हुई चर्चा के बाद मेरे मन में उसे लेकर गहरा असन्तोष जागा और मैंने उसका पुनर्लेखन करने का निश्चय किया। वह पुनर्लेखन कुछ इस तरह विस्तार और सर्वथा नया रूप लेता गया कि वह मूल निबन्ध उसमें पूरी तरह दफ़्न हो गया और यह पुस्तक अस्तित्व में आ गयी। मैंने तत्कालीन कविता की प्रवृत्तियों के प्रतिनिधि कवियों को लक्ष्य कर उन पर पुस्तक के विभिन्न अध्यायों में लिखा था। अन्तिम अध्याय तुम समेत उन चार कवियों पर केन्द्रित था जिनमें से तीन की कविताएँ ‘होना शुरू होना’ में शामिल थीं। उस अध्याय में, मैंने सैद्धान्तिक और व्यावहारिक विमर्श को आपस में गूँथते हुए अपने उस ‘प्रिपॉजीशन’ की पूर्णाहुति की है जिसे मैंने ‘व्योम की कविता’ कहा है।
उदयन : इसमें सन्देह नहीं कि ‘कविता का व्योम और व्योम की कविता’ पिछले कई दशकों में लिखी गयी न सिर्फ़ सबसे महत्वपूर्ण आलोचना पुस्तक है, सबसे अधिक साहसी भी। मुझे याद पड़ता है, तुम्हारे उसे लिखने के दौरान हमारी बहुत बातें बल्कि बहसें हुआ करती थीं। तुम अपने लेखन कर्म में इस तरह के या इससे भिन्न संवादों की क्या भूमिका मानते हो? ज्ञान मात्र के उद्घाटन में ऐसे संवादों का क्या स्थान रहा है?
मदन : तुम तो जानते ही हो कि एफ़.आर. लीविस ने आलोचना को ‘कॉमन पर्सूट’ की संज्ञा दी है। मेरी वह पुस्तक उस तरह ‘सर्वनिष्ठ उद्यम’ तो नहीं लेकिन एक ‘उभयनिष्ठ उद्यम’ का नतीजा अवश्य थी। तुमने एकदम सही स्मरण दिलाया; उस पूरी पुस्तक को लिखने के दौरान हमारी बहुत चर्चाएँ, बहसें हुआ करती थीं। वस्तुतः, विभिन्न अध्यायों को लिखने के दौरान मेरे मन में जो भी विचार, रूपक, प्रतिज्ञप्तियाँ उभरते थे, मैं उन्हें पूरे उत्साह या कहें जोश के साथ तुम्हारे समक्ष रखता था और हम घण्टों शहर की सड़कों के चक्कर लगाते हुए उन पर चर्चाएँ किया करते थे, उन पर बढ़त या उपज करते थे, उससे जुड़ी ‘पॉलिमिक्स’ का आनन्द लेते थे, उसकी सैद्धान्तिक अटकलों को मापते-तौलते थे। इसमें कोई सन्देह नहीं कि उस पुस्तक के लेखन में इन अनौपचारिक, आत्मीय सत्रों का बहुत बड़ा योगदान रहा था। यह प्रक्रिया बाद के कुछ वर्षों में भी जारी रही और मेरा बाद का काफ़ी लेखन इस तरह के संवादों का ऋणी है।
लेकिन, दुर्भाग्य से, तुम्हारे साथ के इस अपवाद को छोड़कर, और किसी के साथ ऐसे संवादों से मैं लाभान्वित नहीं हो सका। नहीं, एक और अपवाद है, हमारे मित्र दीपेन्द्र बघेल, जो बाद के मेरे बहुत-से लेखन के दौरान मेरे वैसे ही अनौपचारिक आत्मीय संवादी रहे हैं। हम मानकर चल सकते हैं कि हिन्दी में ऐसे संवादों के और भी दृष्टान्त होंगे, लेकिन जिस ‘सर्वनिष्ठ उद्यम’ की बात लीविस ने की है, जिसमें औपचारिक सार्वजनिक स्तर के संवाद और बहसें आलोचना को उत्प्रेरित कर सकें, उसे आकार दे सकें, तराश सकें - संवाद की ऐसी संस्कृति हिन्दी में दुर्लभ है। यह आलोचना के लिए बहुत प्रतिकूल स्थिति है। इसके अभाव में आलोचना को, सृजनात्मक लेखन की तरह, ऐकान्तिक कर्म के रूप में साधना होता है, जो एक बड़ी चुनौती है। आपको सारे सम्भावित पूर्वपक्षों की कल्पना करनी होती है, अपनी चेतना को इन पूर्वपक्षों की समरभूमि में बदलकर उसमें अपने पूर्वग्रहों को एक पक्ष के रूप में झोंकना पड़ता है। हाँ, अगर यह उद्यम सध पाता है, तो उससे उत्तीर्ण होकर आयी आलोचना में एक अनूठी ऊर्जा पैदा होती है, जिसे मलयज ने ‘रचना की शर्तों पर लिखी गयी आलोचना’ जैसा कुछ कहा है। लेकिन हिन्दी में, स्वयं मलयज को छोड़कर, ऐसी आलोचना के दृष्टान्त भी दुर्लभ हैं।
उदयन : हम तुम्हारी किताब पर कुछ ज़ल्दी पहुँच गये। तुम्हारे सागर से भोपाल आने को बीच में छोड़ आये। उस पर कुछ देर के लिए लौटते हैं। भोपाल के शुरुआती दिनों में तुम्हारे क्या अनुभव थे? अगर मैं ठीक याद कर पा रहा हूँ तो उन दिनों तुम कला और साहित्य की सूचना, समीक्षा आदि प्रकाशित करने वाली पत्रिका कलावार्ता में काम करते थे।
मदन : मैं सितम्बार’80 में भोपाल आया था। एकदम शुरुआती दिनों में मैं लगभग अकेला था। सिर्फ़ मनोहर वर्मा और मुकेश वर्मा थे जिनके साथ चाय पीते, गपशप करते, मैं शाम का कुछ वक़्त बिताता था। कभी-कभी वहाँ नवीन सागर भी आ जाया करते थे। यह तो तुम जानते ही हो कि मैं मध्यप्रदेश कला परिषद में छोटी-सी नौकरी करने लगा था। वर्मा बन्धु वहीं पास में प्रोफ़ेसर कॉलोनी में रहते थे। शाह साब (रमेशचन्द्र शाह) भी वहीं रहते थे। अशोक जी मेरे सर्वोच्च अधिकारी थे, लेकिन तब उनके साथ मेरा मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध विकसित नहीं हुआ था। बाद में शाह साब और ज्योत्ना व जी (ज्योत्सना मिलन) से मुलाक़ात हुई और उनके घर आने-जाने का सिलसिला शुरू हुआ। इस दौरान संजीव क्षितिज से मेरी दोस्ती हुई और हमारी लम्बी शामें साथ बीतने लगीं। संजीव पास ही में मध्यप्रदेश साहित्य परिषद में नौकरी करता था - वह वहाँ से सोमदत्त के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका साक्षात्कार में सहसम्पादक था। कुछ समय बाद ध्रुव (ध्रुव शुक्ल) भी प्रतिनियुक्ति पर कलापरिषद के ही परिसर में स्थित उस्ताद अलाउद्दीन ख़ाँ संगीत अकादेमी में नौकरी करने आ गया और पूर्वग्रह के सम्पादकीय सहयोगी के रूप में काम करने लगे। तब तक उदय प्रकाश भी भोपाल आ चुके थे और वे पूर्वग्रह के उपसम्पादक हो गये थे। ध्रुव उन्हीं का सहयोगी था। उदय प्रकाश से भी रोज़ मिलना-जुलना होने लगा। उनका व्यवहार मैत्रीपूर्ण था, लेकिन उनकी वामपन्थी विचारधारा हमारी अन्त रंगता के आड़े आती रही।
अब हम तीन मित्र हो गये थे : संजीव, ध्रुव और मैं। तुम्हें याद होगा कि उन दिनों तुम मुझसे मिलने कला परिषद में आया करते थे - कन्धे पर चमड़े का थैला लटकाये हुए। तुम्हारे साथ कभी-कभी राजेन्द्र धोड़पकर भी होता था। एक दिन सहसा मुझे तुम्हारे उस थैले में तुम्हारी कविताओं के होने का पता चला और यह भी पता चला कि तुम्हारा दोस्त राजेन्द्र धोड़पकर भी कविताएँ लिखता था। हमने ध्रुव के घर बैठकर तुम दोनों की कविताएँ सुनीं, उनसे काफ़ी प्रभावित हुए, और इस तरह हम पाँच लोगों की वह मण्डली अस्तित्व में आयी जो अपनी साहित्यिक खुराफ़ातों के लिए धीरे-धीरे कुख़्यात होने लगी।
भोपाल का साहित्यिक वातावरण ज़बरदस्त रूप से आविष्ट था। भारत भवन का उद्घाटन हो चुका था और वहाँ लगभग हर महीने कोई-न-कोई बड़ी साहित्यिक गतिविधि होती थी; संगीत, नृत्य, नाटक आदि की गतिविधियाँ तो रोज़ ही होती थीं। अशोक जी की अदम्य सांस्कृतिक ऊर्जा अपने चरम पर थी। शहर में प्रगतिशील लेखक संघ पहले से ही सक्रिय था और अब जनवादी लेखक संघ की नींव भी पड़ चुकी थी जिसमें उदय प्रकाश और विनय दुबे विशेष रूप से सक्रिय थे। भारत भवन के साथ इन दोनों संगठनों का राष्ट्रीय स्तर पर तनावपूर्ण सम्बन्ध विकसित होने लगा था, यद्यपि नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह आदि प्रखर प्रगतिशील नियमित रूप से भारत भवन के आयोजनों में आते थे (नामवर सिंह की प्रसिद्ध उक्ति ‘दुश्मन के मंच का इस्तेमाल’ इन्हीं दिनों की घटना थी)। (सं)घर्षण के लिए उद्यत कई धड़े बन चुके थे : जनवादी और प्रगतिशील तो थे ही, कई मिले-जुले स्वतन्त्र समूह भी थे। इनमें एक सबसे बड़ा समूह था जे. स्वामीनाथन, ब.व. कारन्त, अशोक वाजपेयी, रमेशचन्द्र शाह, सोमदत्त, भगवत रावत, फ़ज़ल ताबिश, सत्येन कुमार आदि का। यह मण्डली लगभग हर दूसरी-तीसरी शाम, ज़्यादातर अशोक जी के घर पर मिलती थी। जब-तब भारत भवन के साहित्यिक आयोजनों में बाहर से आये लेखक भी इन सान्ध्यकालीन पान-गोष्ठियों में शामिल हुआ करते थे। ज़ाहिर है, इनमें से कईयों के बीच गम्भीर वैचारिक, विचारधारात्मक, अभिरुचिपरक और अन्य तरह के मतभेद थे जिनसे ये शामें आविष्ट हुआ करती थीं और जब-तब इनमें, अशोक जी के शब्दों में, ‘जूतमपैज़ार’ तक की नौबत आ जाती थी। लेकिन अगली शाम तक सब कुछ ‘सामान्य’ हो जाता था। इस वातावरण में हम पाँचों की शिक्षा-दीक्षा हो रही थी।
श्रीकान्त जी (श्रीकान्त वर्मा) भी उन दिनों अक्सर भोपाल आया करते थे - अपनी राजनैतिक या साहित्यिक यात्राओं पर। हम पाँचों को उनका असीम स्नेह प्राप्त था। वे मेरे साथियों की कविताएँ सुनते थे और हमारे साथ साहित्यिक ‘गॉसिप’ का आनन्द लेते थे। उन दिनों वे मगध की कविताएँ लिख रहे थे और हमने उनसे उस संग्रह की अनेक कविताएँ ऐसी ही मुलाक़ातों के दौरान सुनी थीं।
लेकिन हमारी इस शिक्षा-दीक्षा का सबसे बड़ा केन्द्र था प्रोफ़ेसर्स कॉलोनी में रवीन्द्र भवन के सामने स्थित निर्मल वर्मा का वह विमोहक घर जिसमें बैठकर उन्होंने कव्वे और काला पानी की ज़्यादातर कहानियाँ लिखी थीं और जिसके छोटे-से, किंचित उजड़े-से लॉन में जाड़ों की सुबहों में बैठकर वे प्रूस्त का रिमेम्ब्रेंस ऑफ़ थिंग्स पास्ट पढ़ा करते थे। निर्मल वर्मा निराला सृजन पीठ के अध्यक्ष होकर आ चुके थे, जिनसे हम पाँचों का लगभग रोज़ मिलना-जुलना होता था, और किन्हीं-किन्हीं शामों में रम के साथ लम्बे-लम्बे वार्तालाप हुआ करते थे। ‘वार्तालाप’ शब्द का इस्तेमाल मैं जानबूझ कर कर रहा हूँ, क्योंकि निर्मल जी सिर्फ़ बोलते ही नहीं थे, वे हम लोगों को लेकर असाधारण जिज्ञासा दर्शाते हुए घण्टों सुनते भी थे और हमारे पढ़ने-लिखने के अनुभवों आदि को लेकर गम्भीर सवाल-जवाब करते थे। हम अपने जीवन में सबसे ज़्यादा शायद निर्मल जी के साथ बैठकर ही हँसे होंगे। हँसी के ये दौरे कभी-कभी इतने प्रबल होते थे कि निर्मल जी की आँखों से आँसू बहने लगते थे। और ये निर्मल जी ही थे जिन्होंने हमें होना शुरू होना नामक वह पुस्तक निकालने का सुझाव दिया था जिसने भोपाल के उस विक्षुब्ध साहित्यिक समुद्र में अपना छोटा-सा द्वीप बसाने में हमारी मदद की थी। यह पुस्तक हमने अशोक जी से पूरी तरह गुप्त रखते हुए विभिन्न वरिष्ठ लेखकों-कलाकारों की आर्थिक मदद से प्रकाशित की थी जिसमें सबसे बड़ा योगदान निर्मल जी ने किया था (उन्होंने अपना एक महीने का निराला सृजन पीठ का पूरा पारिश्रमिक हमें दिया था)। प्रसंगवश, जब यह पुस्तक प्रकाशित हो गयी और अशोक जी को इसके बारे में पता चला, तो वे इतने उत्साहित हुए कि उन्होंने निराला सृजन पीठ (जहाँ से तब तक निर्मल जी जा चुके थे और उनकी जगह कृष्णा जी (कृष्णा सोबती) आ चुकी थीं) के तत्त्वावधान में उसके विमोचन का एक विस्तृत आयोजन प्रस्तावित किया। विमोचन के लिए कुँवर नारायण को आमन्त्रित किया गया और उस अवसर पर पुस्ततक में शामिल चारों कवियों का सार्वजनिक कविता-पाठ और ‘इधर की दुनिया, इधर की कविता’ नामक एक परिसंवाद आयोजित हुआ जिसमें नामवर सिंह, नेमिचन्द्र जैन, कुँवर नारायण, कमलेश आदि ने शिरकत की। उसमें मुझे भी बोलने का अवसर दिया गया। वह दिग्गजों से भरी वैसी बड़ी सभा में बोलने का मेरा पहला अवसर था।
मैं जो एक छोटे-से क़स्बे से, तरह-तरह की मज़दूरियाँ और नौकरियाँ करने के बाद, अन्तहीन जिज्ञासाओं से भरा उस शहर में आया था - मेरे लिए वह सारा वातावरण किसी जादुई लोक का-सा लगता था। मैंने अशोक जी का विशाल पुस्तकालय देखा जिसमें उस अँग्रेज़ी की किताबें अँटी पड़ी थीं जिसका ए.बी.सी.डी. भी मुझे नहीं आता था। मेरा क्या होगा, मैं ‘नर्वस’ होकर सोचता था...
और, हाँ, तुम्हें ठीक याद है : कला परिषद में मैं बतौर प्रकाशन सहायक वहाँ के प्रकाशनों को छपाने, पूर्वग्रह की प्रसार-व्यवस्था देखने के काम के साथ-साथ कलावार्ता का सम्पादकीय सहयोगी भी था (पत्रिका के सम्पादक श्रीराम तिवारी थे)।
उदयन : अब जब कि तुम्हारे अनेक लेखकों से सम्बन्ध की बात हो रही हैं, हमें तुम्हारे वागीश शुक्ल से रिश्ते की बात भी करना चाहिए। उनके लेखन का भी तुमसे एक गहरा रिश्ता बना है। तुमने उनके लेखन पर कम सही लिखा भी है। तुम अपनी लेखन यात्रा में उन्हें कहाँ रखते हो। वे भोपाल भी आते रहे हैं, यहाँ साल भर रहे भी हैं।
मदन : बेशक, वे मेरे प्रातःस्मरणीय अग्रज और गुरु जैसे हैं। तुम्हें शायद स्मरण होगा कि उनकी खोज, पूर्वग्रह और भोपाल-मण्डली के लिए उनकी खोज, मैंने ही की थी। आलोचना में दो क़िस्तों में उनकी एक बहस प्रकाशित हुई थी : ‘मम्मट की मरम्मत?’ जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, यह राधावल्लभ त्रिपाठी के किसी ऐसे मज़मून पर उठायी गयी बहस थी जिसमें श्री त्रिपाठी ने काव्यशास्त्र के आचार्यों के बरक्स तत्कालीन कवियों को रखते हुए उनके बीच एक तरह का सोपानक्रम स्थापित किया था। मैंने उनके ये लेख पढ़े और मैं उनकी विद्वत्ता से, उनकी ज़िरह की शैली से और उनकी भाषा से इस क़दर प्रभावित हुआ कि मैंने उनसे तत्काल सम्पर्क कर पूर्वग्रह के लिए लिखने (अज्ञेय की ‘असाध्य वीणा’ पर लिखने) के लिए आग्रह किया। इससे पहले मैंने उनका नाम तक नहीं सुना था। उन्होंने मेरे पत्र का जवाब देते हुए मुझसे जानना चाहा कि मैं उन्हें किस रूप में जानता हूँ और उनसे क्यों लिखाना चाहता हूँ, इत्यादि। ख़ैर, मैंने जवाब दिया और उन्होंने ‘असाध्य वीणा’ की दिलचस्प व्याख्या लिखी। इसके साथ ही उनके साथ मेरे/हमारे प्रगाढ़ रिश्ते का सिलसिला आरम्भ हुआ था।
यद्यपि मैंने उन पर लिखा है, उनकी विद्वत्ता की गहराई और विस्तार की थाह लेना मेरे बूते के बाहर है। संस्कृत, फ़ारसी, उर्दू, अँग्रेज़ी और हिन्दी के वांग्मय पर उनका समान रूप से असाधारण अधिकार उन्हें हिन्दुस्तान के अद्वितीय विद्वान के रूप में प्रतिष्ठित करता है। लेकिन उनकी विद्वत्ता से अधिक उनकी अनन्य लेखकीय प्रतिभा, उनके लेखन को चमत्कृत कर देने वाली शैली और ज्ञान के तमाम रूपों के बरक्स साहित्य की उनकी लगभग इकतरफ़ा पक्षधरता मुझे आकर्षित करती है। वे साहित्य को एक पेगन सृष्टि के रूप में देखते हैं, और इस अर्थ में पूरब-पश्चिम जैसे विभाजनों को ‘डिकॉन्स्ट्रकक्ट’ करते हैं। एक ऐसे समय में, जब हिन्दू धर्म को एकेश्वरवादी धर्मों के रूप में पुनर्परिभाषित और स्थापित करने का व्यापक अभियान चल रहा है, वे अकेले व्यक्ति हैं जिन्होंने हिन्दुस्तान की पेगन परम्परा का पुनराविष्कार किया है। जिन ग्रन्थों को हम धर्म-ग्रन्थों के रूप में पढ़ते आये थे, उन्होंने उन्हें साहित्यक कृतियों के रूप में व्याख्यायित कर हिन्दुस्तान में धर्म और साहित्य के द्वैत को प्रभाव-शून्य किया है। वे जिस तरह लिखते हैं, उसके लिए हिन्दी में कोई कोटि उपलब्ध नहीं है।
मैंने उनसे कितना सीखा है, यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन सीखना बहुत-बहुत चाहा है, आज भी चाहता हूँ। उनका शिष्य होना बहुत बड़ी योग्यता की माँग करता है। फिर भी, इतना अवश्य है कि जब भी मैं कुछ लिखता हूँ, उनकी गौरवपूर्ण उपस्थिति और तीखी निगाह मेरे इर्द-गिर्द बनी रहती है।
लेकिन वे बेहद आत्मीय मित्र भी हैं। हमने हज़ारों घण्टे उनका आत्मीय सान्निध्य और उदार आतिथ्य प्राप्त किया है। जिन दिनों वे भोपाल में थे, और बाद के वर्षों की तरह जीवन को आपद्धर्म की तरह नहीं जिया करते थे, वे मेरी जिजीविषा का और जिजीविषा के अर्थ का स्रोत हुआ करते थे। आज मैं उनसे मृत्यु का अर्थ और ‘मृत्यु का सामना करने की विधि’ सीखने की कोशिश करता हूँ।
उदयन : तुम्हारी एक क़िताब का नाम ‘विषयान्तर’ है। तुम इस शब्द का उपयोग भी काफ़ी करते हो। क्या तुम्हें लगता है कि चूँकि किसी भी सर्जनात्मक कृति का मर्म अन्ततः अनुदघाट्य ही रहता है, हर आलोचना कमोबेश विषयान्तर ही होती है? अगर ऐसा है तो साहित्यिक संस्कृति में आलोचना ने क्या भूमिका निभायी है। आलोचना रचना के साथ ऐसा क्या करती है जो कोई भी और नहीं कर पाता?
मदन : जब मैंने उस पुस्तक का नाम विषयान्तर रखा था तब, हालाँकि, मेरा अभिप्राय, किंचित व्यंग्यपूर्ण ढंग से, साहित्य मात्र को ‘विषयान्तर’ कहने का था : मुख्यधारा के तथाकथित प्रासंगिक, मूल, अपरिहार्य, आदेशात्मक विषयों से हटना, भटकना। एक ऐसे समय में जबकि संसार के तमाम विषय मुख्यधारा की सतत शक्तिमूलक गुहार के अधीन उत्तरोत्तर एकविषयात्मकता की ओर बढ़ रहे हैं, भटकने या विषयान्तर करने का यह, अपराध-बोध से मुक्त अवकाश साहित्य ही उपलब्ध कराता है।
लेकिन जिस अर्थ की ओर तुमने संकेत किया है, उसकी भी एक भिन्न ध्वनि इस पद के चुनाव में थी। मैंने पुस्तक की भूमिका (‘विषयान्तर’) में इस पद पर किंचित विस्तार से लिखते हुए ‘कृति-समय’ और ‘व्याख्या-समय’ की दो अवधारणाएँ करते हुए यह कहने की कोशिश की थी कि एक तो कृति स्वयं विषयान्तरधर्मी होती है : कृति-समय युगपत् रूप से अनेकविषयी और अन्तरविषयी होता है; उसमें एक साथ कवि-व्यक्तित्व की, काव्य-विषय की, भाषा और कृति-परम्परा की अनेक पर्तें, अनेक संकल्प और अनेक फलश्रुतियाँ समाहित होती हैं; कोई भी कृति कवि के अपने संकल्प के बावजूद किसी विषय विशेष पर ठहरी हुई नहीं होती, वगै़रह; और दूसरे, यह कहने की कोशिश कि व्याख्या-समय कृति-समय की बहुलता का संघटक भी है और उस बहुलता से इस तरह संघटित भी है कि कृति-समय की विषयान्तरधर्मिता स्वयं व्याख्या-समय को विषयान्तरधर्मी बनाती है; व्याख्या कृति के सन्दर्भ में नहीं बल्कि उसके साथ और समानान्तर विषयान्तर करती है : कृति कोई निष्क्रिय विषय (ऑब्जैक्ट) नहीं है जिसमें कृतिकार की चेतना और संकल्प ‘स्थिर’ हों और यद्यपि कृति में निहित चेतनाएँ और संकल्प स्वचालित नहीं होते, लेकिन जब एक व्याख्यात्मक चेतना का संस्पर्श उन्हें मुखरित करता है, तब वह कृति न केवल महज़ एक विषय नहीं रह जाती और अपने विषयकरण (ऑब्जैक्टिफ़िकेशन) के विरुद्ध प्रतिरोध करती है, बल्कि स्वयं अपनी व्याख्या के लिए प्रस्तुत चेतना का विषयकरण करते हुए, उसमें संक्रमित होकर, उसे रूपान्तरित करती है। यह स्थिति कृति और व्याख्या के सम्बन्ध को विषय-विषयी सम्बन्ध की एकरैखिक संरचना की बजाय उसे एक सतत अन्तरविषयी संरचना प्रदान करती है; एक ऐसी संरचना जिसमें कृति और व्याख्या संश्लिष्ट होती हैं और जिसमें व्याख्या कृति के श्लेष में एक अतिरिक्त योग करती है तथा कृति व्याख्या को श्लेषधर्मी बनाती है, वगै़रह...
उदयन : तुम्हें साहित्यिक सैद्धान्तिक विमर्श में गहरी रुचि है, स्वयं तुम्हारा लेखन भी व्यवहारिक आलोचना होने के साथ ही सैद्धान्तिक होने की ओर झुका हुआ है। लेकिन तुम जानते ही कि साहित्यिक सिद्धान्त की गहरी आलोचना होती रही है। तुम साहित्य और सिद्धान्त के सम्बन्ध पर क्या सोचते हो?
मदन : मनुष्य पर केन्द्रित कोई भी सिद्धान्त, शायद, हमेशा अपूर्ण और अपर्याप्त होने के लिए अभिशप्त है, क्योंकि सिद्धान्त हमेशा एक सत्त्व की, और उसके एक स्थिर, निश्चित बिन्दु पर ‘होने’ की पूर्वापेक्षा करता है, जबकि मनुष्य को कभी भी उसके किसी निश्चित, स्थिर सत्त्व में नहीं पकड़ा जा सकता, क्योंकि मनुष्य हमेशा सम्भवन (बिकमिंग) की अवस्था में, होने की प्रक्रिया में होता है। उसका सत्त्व भ्रामक, मायावी, यथार्थाभासी होता है; वह हर बार पकड़ में आते-आते हाथ से छूट जाता है। यही नहीं बल्कि तमाम तरह की सर्वनिष्ठताओं के बावजूद हर मनुष्य में बहुत कुछ ऐसा होता है जो अनन्य (सिंग्युलर) होता है। इन अपरिमित अनन्यताओं को किसी एक निश्चित परिभाषा के दायरे में समेटना असम्भव है। और यही बात मनुष्य के कृतित्व पर लागू होती है, विशेष रूप से साहित्य पर, जो मनुष्य को उसकी अधिकतम पूर्णता में प्रतिबिम्बित करता है। साहित्य मानवीय सत्त्व की इस अस्थिरता, अनिश्चितता, सम्भवनशीलता, भ्रामकता और अनन्यता को अपने डी.एन.ए. में धारण किये होता है। वह स्वयं सम्भवन की अवस्था में होता है। इसलिए साहित्य अपने किसी, कितने ही समावेशी, सिद्धान्त में अँटता नहीं है। उसका बहुत-सा हिस्सा सिद्धान्त के बाहर बना रहता है।
लेकिन, सिद्धान्त गढ़ना भी इसी मनुष्य की फ़ितरत में है। मानो यह मनुष्य के स्वत्व की ही दूसरा हिस्सा होता है जो उसके पहले हिस्से की उक्त अनिर्धायता को, मानो एक चुनौती की तरह अनुभव कर, उसे निर्धारित करने या बाँधने या परिभाषित करने की कोशिश करता है (क्या यह कुछ-कुछ निराकार, निर्गुण को सगुण रूप देने की कोशिश से मिलती-जुलती चीज़ नहीं है?)। इस कोशिश की विफलता ही उसे उसकी ओर बार-बार लौटने को बाध्य करती है। और, उसका यह बार-बार लौटना ही सिद्धान्त की बहुलता में, और हर बार उनकी अपर्याप्तता के तथ्य में फलित होता है। इस तरह, हम, शायद, कह सकते हैं कि साहित्य और उसके सिद्धान्त एक ही मनुष्य के श्लिष्ट स्वत्व के दो हिस्से हैं, जिनमें से एक कृतिकार के रूप में और दूसरा सिद्धान्तकार के रूप में भासित होता है।
साहित्य और साहित्य सिद्धान्त मुझे ऐसे ही एक श्लिष्ट स्वत्व के दो हिस्सों के परावर्तनों की तरह प्रतीत होते हैं। हम चाहें तो कह लें कि साहित्य-सिद्धान्त साहित्य की सगुणोपासना है (व्यावहारिक आलोचना इस उपासना का कर्मकाण्ड है) - इस शर्त के साथ कि जहाँ साहित्य में अपनी असम्भव निर्धायता की आकांक्षा स्पन्दित होती है, वहीं साहित्य-सिद्धान्त में अपनी हर सृष्टि के साथ अपनी अपर्याप्तता का बोध स्पन्दित होता है। या होना चाहिए। अगर उसमें यह बोध होगा, तो वह भी सम्भवनशील होगा; वह कृति की अनन्यता की ‘डायनामिक्स’ को अपनी सीमाओं में अवरुद्ध करने की बजाय अपनी सीमाओं का विस्तार करेगा, ख़ुद को उस ‘डायनामिक्स’ के अनुरूप ढालेगा।
उदयन : तुम हिन्दी के सम्भवतः अकेले आलोचक हो जिसने रोगों पर लिखा है। तुम्हारे दो लेख इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण हैं: एक एड्स पर और दूसरा कोरोना पर। यह शायद संयोग नहीं कि इन दोनों ही रोगों का व्यापक प्रभाव हमारे सार्वजनिक जीवन पर पड़ा है। तुम्हारे इस लगाव के क्या कारण रहे हैं?
मदन : कारण वही रहे हैं जिनका तुमने उल्लेख किया - हमारे सार्वजनिक जीवन के साथ इन रोगों के सम्बन्ध। ये रोग या इनके वायरस सिर्फ़ हमारे जैविक शरीर तक सीमित नहीं हैं बल्कि अपने विस्तार में वे हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक शरीर को भी समेटते हैं : छूत और रोग की अवधारणा और हमारे सामाजिक संसर्ग पर उसका प्रभाव ध्यान देने की बात यह है कि ये दोनों ही महामारियाँ हमारे इस समय में पनपी हैं जब शरीर विज्ञान और चिकित्सा विज्ञान और चिकित्सा उद्योग अपने आत्मविश्वास के उस चरम पर हैं जहाँ उन्होंने लगभग औपचारिक रूप से महामारियों के युग से मुक्ति की घोषणा जैसी कर रखी है। इन दोनों ही महामारियों की अभूतपूर्व प्रकृति, एड्स के वायरस की समस्यात्मक बनावट और उस उत्तर आधुनिकता के समस्यात्मक ‘वायरस’ के साथ उसकी समानता जिसमें इस वायरस का हमला हुआ, इस वायरस की छाया में यौन-कर्म और विवाह नामक संस्था, स्वास्थ्य, आरोग्य और चिकित्सा-विज्ञान नामक संस्थानों और विकास के हमारे मॉडलों और तथा विशेषीकृत ज्ञान की अवधारणा पर लगे प्रश्नचिह्न, प्रकृति की अप्रत्याशितता और उस पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त कर लेने का आधुनिक अहंकार, आदि वे नुक़्ते रहे हैं जिन्होंने मुझे इन रोगों की सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना पर बात करने के लिए प्रेरित किया। ज़ाहिर है मैं शरीर विज्ञान या चिकित्सा विज्ञान का ज्ञाता या छात्र नहीं हूँ और इसलिए इन निबन्धों में इस तरह की समझ का कोई दावा नहीं है। मैंने महज़ एक साधारण व्यक्ति की जानकारी, जिज्ञासा और प्रश्नाकुलता के साथ इन बीमारियों को देखने और उनके आधार पर कुछ उत्प्रेक्षाएँ करने की कोशिश की है...
उदयन : मैं जिस सवाल पर आना चाहता था, तुम्हारे जवाब ने उसका रास्ता ख़ुद ब ख़ुद बना दिया। तुम जिसे उत्तर आधुनिक स्थिति कह रहे हो, वह क्या है? इस सवाल में एक किस्म का बचकानापन सहज ही लक्षित हो रहा है और ऐसा भी लग सकता है कि इस सवाल का जवाब पहले ही दिया जा चुका है। पर शायद उत्तर आधुनिकता का एक लक्षण यह भी है कि यहाँ हर सवाल को फिर से उठा कर उस पर विमर्श सम्भव करने का प्रयास होता है।
मदन : निश्चय ही यह एक विकट सवाल है, हालाँकि अन्त में तुमने ‘सवाल’ के सन्दर्भ में उस ‘स्थिति’ पर जो अटकल लगायी है, उससे इसके जवाब का या और भी बेहतर होगा, इसके जवाब को टालने का एक रास्ता खुलता है। लेकिन बजाय इसके कि अकेले मैं यह जवाब दूँ या इसके जवाब को टालूँ, हम दोनों मिलकर यह कोशिश करके देखें। दूसरे शब्दों में, ‘संपेम.दवने चंतसमत’ (समज ने जंसा/ आओ, हम बात करते हैं), जैसाकि जस्ट गेमिंग नामक पुस्तक की शुरुआत करते हुए उत्तर आधुनिक दशा के महान व्याख्याकार ज़्याँ फ्ऱाँसुआ ल्योताख़् कहते हैं। बजाय इसके कि कोई एक व्यक्ति जवाब दे, कोई एक व्यक्ति जवाबदेह हो, कोई एक जवाब हो, जो पुनरावलोकी क्रम में किसी एक सवाल का हवाला देता हो, हम इस एक को बहुगुणित, बहुवचनात्मक कर दें; बजाय इसके कि तुम पूछो और मैं जवाब दूँ, या मैं पूछूँ और तुम जवाब दो, बजाय इसके कि हम सवाल-जवाब की एकरैखिकता और सोपानक्रम का अनुसरण करें - बेहतर होगा कि हम बात करें, निरन्तर बात, अथक ‘निगोशिएशन्स’ करें, इस शब्द के तमाम अर्थों में; बात को अनुलम्ब (वर्टिकल) विन्यास देने की बजाय उसे क्षैतिज विन्यास देते हुए, कन्द मूल (‘राइज़ोम’) की तरह हर दिशा में फैलने दें। एक निरन्तर सम्भवनशील लोकतन्त्र। (क्या) यही वह चीज़ नहीं है, जिसे ‘उत्तरआधुनिक स्थिति’ कहा गया है (?)। हाइडेग्गर ने ‘प्रश्न’ को आधुनिकता का सत्त्व कहा था, क्या उत्तरआधुनिकता इस प्रश्नवाचकता को प्रश्नांकित नहीं करती? वह विधेय के अन्त में लगे प्रश्नचिह्न को कोष्ठक के हवाले कर सवाल और जवाब को परस्पर-व्याप्त नहीं कर देती है? वह प्रश्न और उत्तर के सत्त्वों का हरण कर उन्हें प्रश्नाभास और उत्तराभास में बदल देती है, जहाँ प्रश्न और उत्तर अपनी देहरचना (एनॉटॅमी) में तो प्रश्न और उत्तर होते हैं, लेकिन अपनी देहक्रिया (फ़िज़ियॉलॉजी) में प्रश्न और उत्तर नहीं होते - एच.आइ.व्ही. की तरह, जिसका शायद, इसी कारण टीका नहीं बन पा रहा है। ऐसी कोई एजेन्सी नहीं है जो आप में उत्तरआधुनिक स्थिति के प्रति प्रतिरोधक क्षमता आरोपित कर दे। लेकिन जैसाकि मैंने कहा, यह एक रास्ता है...
उदयन : लेकिन इसके बावजूद मैं इसे पोस्ट ट्रूथ दशा कहने से गुरेज़ करूँगा। यहाँ तर्क पर भावना को वरीयता नहीं दी गयी है बल्कि यहाँ तर्कों की बहुलता का स्वीकार है। क्या यह स्थिति आज नहीं है या कभी भी नहीं थी कि किसी की घटना की एक से अधिक तर्कसंगत व्याख्याएँ हो सकती हैं, हुई हैं। यहाँ सत्य के अकाट्य होने का मिथक टूट जाता है।
मदन : निश्चय ही। यह पोस्ट ट्रूथ दशा नहीं है। हाँ, पोस्ट ट्रूथ उत्तरआधुनिक समय की एक संघटना अवश्य है। तुम्हारा यह कहना भी सही है कि यहाँ तर्कों की बहुलता का स्वीकार है, लेकिन मैं इसमें इतना और जोड़ूँगा कि ये तर्क विरोधाभासी और विरोधाभाषी हो सकते हैं। और यहाँ सत्य की अकाट्यता का मिथक तो टूटता ही है, किसी ऐसे एक, महत्, सार्वभौम, सार्वकालिक सत्य के होने का मिथक भी टूटता है जो छोटी-छोटी स्थानीय या तात्कालिक सचाइयों को वैधीकृत करने का दावा कर सकता हो। यह ‘पेगन इथॉस’ के निकट की चीज़ है।
उदयन : तुमने इटली के बहुत बड़े सिद्धान्तकार और उपन्यासकार उम्बेर्तो ईको के पहले उपन्यास ‘नेम आफ़ द रोज़’ पर लम्बा लेख लिखा है। मुझे यह महसूस होता है कि तुम्हारी इस उपन्यास की रीडिंग की तुम्हारे बाद के कुछ लेखों में बढ़त हुई है। एक तरह से तुम्हारी आलोचना का यह लेख एक अन्तरिम प्रस्थान बिन्दु साबित हुआ है। तुम इस उपन्यास के चुनाव और उस पर लिखने की अपनी प्रक्रिया के बारे में कुछ बताओ।
मदन : प्रसंगवश, यह मेरे उन दो-एक निबन्धों में से एक है जिन्हें मैंने कुछ घण्टों की एक बैठक में पूरा किया था। यह बात इसलिए उल्लेखनीय है क्योंकि अन्यथा मेरी लेखन-प्रक्रिया बहुत ही थका देने वाली होती है : मुझे एक औसत आकार का एक निबन्ध लिखने में दो-तीन महीने तक का वक़्त लग जाता है। मैंने इस उपन्यास को पढ़ा और भारत भवन के एक केबिन (जिसमें कभी कमलेश जी बैठा करते थे) में बैठकर उसपर तत्काल लिख डाला। ख़ैर...
यह अद्भुत उपन्यास है जिसका घटनाक्रम तो सम्मोहित कर लेने वाला है ही (मुझे रोमांच कथाएँ बहुत पसन्द आती हैं) उस घटनाक्रम के साथ अविनाभाव गुँथा हुआ प्रमेय भी बहुत आकर्षक है। पुस्तक (‘द बुक’), उसे जान पर खेलकर पढ़ने की इच्छा; ज्ञान को अभेद्य और आतंकदायी, सांघातक मिथक में बदल देने का हत्यारा प्रतिपाठकीय उद्यम; ज्ञान की आत्माघाती वासना; पाठ के मर्म तक पहुँचने की जोखि़मपूर्ण रोमांचक यात्रा; पुस्तक का स्वप्न और स्वप्न का पुस्तक के रूप में पठन; अनन्त पुस्तकों के बीच जारी मौन और आत्मीय वार्तालाप और विनिमय; सत्य की जिज्ञासा, उसकी सम्भावनाशीलता और उसकी अन्तिमता के बीच द्वन्द्व; मज़हब का आतंकदायी, हिंस्र स्वरूप; ईश्वर में विनोदवृत्ति देखने और इस तरह उसे ‘सेक्युलराइज़’ करने का मानवसुलभ कौतुक...और अन्त में सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण, उपन्यास (द नेम ऑफ़ द रोज़) का अपने ही इस कलेवर से आत्यन्तिक रूप में आविष्ट होकर स्वयं उस कलेवर के प्रतिरूप में बदल जाना।
यह सब कुछ इतना सम्मोहक और वाध्य कर देने वाला था कि मुझे इस उपन्यास को न चुनने का अवसर ही नहीं मिला। उपन्यास के मुख्य किरदार ब्रॅदर विलियम और उसकी पाठकीय प्रज्ञा के साथ मेरा कुछ ऐसा तादात्म्य बैठा कि लिखते हुए लग रहा था कि मानो मैं उसपर लिख नहीं रहा था बल्कि उसकी स्पेस में उसी तरह विचरण कर रहा था जैसे ब्रॅदर विलियम उस ईसाई मठ में करता है।
उदयन : तुमने हिन्दी के कई ऐसे लेखकों पर विस्तार से लिखा है जिन्हें हिन्दी की तथाकथित मुख्य धारा ने त्याज्य मान कर उनके लेखन को हाशिये पर डाल दिया था। उसमें एक लेखक कमलेश हैं। कमलेश जी से तुम्हारे व्यक्तिगत सम्बन्ध भरे रहे हैं। उनके लेखन और उनसे अपने सम्बन्ध के बारे में कहो।
मदन : कमलेश जिन अन्यान्य कारणों से मुझे शुरू से ही आकर्षित करते रहे हैं (तुम जानते ही हो कि अपनी पहली पुस्तक कविता का व्योम... में मैंने उनकी कविता पर एक पूरा अध्याय लिखा है) उनमें से एक यह है कि उनकी कविता मनुष्य की मूलभूत अस्तित्वपरक अवस्थिति से बहुत गहरे प्रतिश्रुत रही है। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह उसकी राजनैतिक-सामाजिक अवस्थिति से बेख़बर है। इसके विपरीत, वस्तुस्थिति यह है कि उनकी कविता में राजनीति, समाज और इतिहास के प्रश्न और इनके सन्दर्भ में मनुष्य के अधिकारों और न्याय के प्रश्न ज़बरदस्त हलचल पैदा करते हैं, किन्तु इन प्रश्नों का परिप्रेक्ष्य निरा स्थानीय, तात्कालिक या समसामयिक न होकर एक क़िस्म की सार्वभौमिकता और सार्वकालिकता लिये हुए है, और यह अस्तित्वपरकता मनुष्य-केन्द्रित न होकर अपने विस्तार में मनुष्येतर जीव-जगत और प्रकृति को, जीवन के साथ-साथ मृत्यु और जीवितों के साथ-साथ मृतकों को, समकालीनों के साथ-साथ दिवंगत पूर्वजों को, नगर के साथ-साथ गाँवों और वनों को समेटे हुए है। यह वृहत, संश्लिष्ट और समावेशी अस्तित्व-दृष्टि कमलेश की कविता की अनन्य विशेषता है। और इस अस्तित्व-दृष्टि के विक्षेप के तौर पर उभरते विस्थापन, बेठौरपन, चरिष्णुता और खोज के भाव इन कविताओं को आधुनिक जीवन के हाशिये पर जी रहे मनुष्य की नियति से जोड़ते हैं। ये कविताएँ स्वत्व के अपरिग्रह और अहंकार के हनन के संवेगों से इस क़दर भरी हुई हैं कि उनमें स्वत्व का स्वर और उसकी उपस्थिति एक आपद्धर्म की तरह लगते हैं, मानो कवि कविताओं को अपने स्वत्व से पूरी तरह रिक्त कर देना चाहता है... यह अकारण नहीं कि उनकी कविताओं की निर्मिति में ज़बरदस्त रन्ध्रिलता, भुरभुरापन, भंगुरता और लाघव है।
और ठीक यही गुण कमलेश जी के व्यक्तित्व की निर्मिति में भी थे : रन्ध्रिलता, भुरभुरापन, और भंगुरता; स्वत्व का अपरिग्रह और निरंहकार। वे अपनी काया में और अपने ज्ञान में जितने भारी थे, अपने होने में उतने ही हल्के थे। हमेशा संकोच में डूबे हुए। उनके साथ लगभग 30-35 वर्ष के अपने परिचय और मैत्री के दौरान मैं जब भी उनसे मिला, उनकी इस ‘अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ़ बींग’ ने हमेशा मेरे मर्म को छुआ।
लेकिन उनके व्यक्तित्व का एक और भी पहलू था - कम-से-कम मुझे उसका अहसास होता था : रहस्य। उनके चेहरे की रहस्यमय और जब-तब बालसुलभ-सी हो उठती मुस्कान, जिसे देखकर लगता था कि वे हमारी अपनी दुनिया में किसी विस्थापित की तरह रहने के साथ-साथ वस्तुतः किसी और दुनिया में रहते थे। जब वे कई बार बरसों बाद दोबारा मिलते थे, तो लगता था कि वे उसी ‘दूसरी दुनिया’ से लौटकर आ रहे हैं...
उदयन : हिन्दी के हाशिये के बारे में तुम क्या सोचते हो? संस्कृति मात्र में हाशिये पर कुछ बढ़त कर सको तो अच्छा होगा।
मदन : अगर हिन्दी में मेरी कोई जगह है, तो वह निश्चय ही हाशिये पर ही कहीं होगी, और इसलिए हाशिये के बारे में बात करना ‘अपनी जगह’ के बारे में, अपने बचाव में, बात करने जैसा होगा, जो न तो मुझे शोभा देता है, न ही मैं उसके योग्य हूँ, बावजूद इसके कि मैं जानता हूँ कि उसमें मुझसे कहीं बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण लेखक हैं : विजयदेव नारायण साही, विपिन कुमार अग्रवाल, कृष्ण बलदेव वैद, कमलेश, जितेन्द्र कुमार, वागीश शुक्ल, तुम, शिरीष ढोबले...। उस पर लेखक ही नहीं, कई विषय भी हैं, जैसे कि श्रृंगार या रति, ‘इन्सेस्ट’, समलैंगिकता, मृत्यु, बुढ़ापा, हिंसा, ईश्वर, देवता, धर्म, आध्यात्म, भाषा, शैली, विधा...।
हाशिये, शायद, किसी भी संस्कृति और सांस्कृतिक निर्मिति का अनिवार्य हिस्सा होते हैं : उन अल्पसंख्यकों के आवास-स्थल जो संस्कृति या सांस्कृतिक निर्मिति की मुख्यधारा में बहकर उपान्त पर आ लगते हैं। जहाँ तक हमारी संस्कृति मात्र में हाशिये का प्रश्न है, एक ओर, यह विडम्बना ही है कि उस हाशिये पर सबसे बड़ी जगह यही साहित्य घेरता है जिसने ख़ुद अपने भीतर हाशिये बनाकर उक्त लेखकों और विषयों को उन पर डाल रखा है। लेकिन, दूसरी ओर, दिलचस्प तथ्य, इसी के साथ-साथ, यह भी है कि यही वे लेखक और विषय हैं जो संस्कृति में साहित्य के उक्त पार्श्वीकरण (मार्जिनलाइज़ेशन) के विरुद्ध सबसे ज़्यादा प्रतिरोध बरतते हैं या बरत सकते हैं। इनमें से अधिकांश लेखक वे हैं जिनमें साहित्य की अपनी स्वायत्त महत्ता का सबसे प्रबल आग्रह है। और यही वे विषय हैं जो उस विचारधारा और राजनीति के सरलीकरणों में अँटने से इनकार करते हैं जिनका पिछलग्गू हमारा तथाकथित मुख्यधारा का ज़्यादातर साहित्य बना रहा है। बल्कि यूँ कहना चाहिए कि ये अल्पसंख्यक लेखक और विषय अपने उक्त प्रतिरोध और आग्रह की वजह से ही हमारे साहित्य के हाशिये पर हैं। और इस हाशिये पर इनकी मौजूदगी की वजह से ही साहित्य संस्कृति के हाशिये पर अपनी सार्थक जगह बनाये रख पाता है।
उदयन : तुम्हारी भाषा तत्सम प्रधानता से अलंकृत है। इसे पढ़ना उन पाठकों को कठिन महसूस होता है जो अपनी भाषा की स्मृति से या तो कट चुके हैं या उससे दूर हो गये हैं। तुम्हारे जैसे लेखन को जिस तरह की वैचारिक और तार्किक एक्ज़ेक्टनैस अभीष्ट है, वह तत्सम बहुलता में ही सम्भव है। तुम्हारे कम पाठकों जानते होंगे कि तुमने जर्मन रंगनिदेशक फ्रीट्स बैनिविट्स और ब.व. कारन्त के लिए कुछ नाटकों का बुन्देली में अनुवाद किया है। बुन्देली से जुड़ी अपनी स्मृति और फ्रि़ट्स और कारन्त जी के साथ काम करने के अनुभवों के बारे में कहो।
मदन : मेरा ख़याल है, इस ‘कठिनाई’ के मसले पर थोड़ी बात करना ज़रूरी है। मुझे लगता है कि यह मसला तत्सम शब्दावली तक सीमित नहीं है, जिसका अव्वल तो मैं यूँ भी बहुत अधिक इस्तेमाल नहीं करता, और दूसरे, कम-से-कम गम्भीर साहित्य के पाठकों को (जिनमें से ज़्यादातर स्वयं लेखक होते हैं) इस शब्दावली से उस तरह की कठिनाई नहीं होनी चाहिए। मैं समझता हूँ, और मेरी यह समझ मुझ तक दबे-छिपे पहुँचती रही शिकायतों से बनी है, कि कठिनाई मेरे कुल वाक्य-विन्यास और विमर्श की संरचना से होती है। यह सही है कि मैं वैचारिक और तार्किक सटीकता पर बल देता हूँ जिसके लिए मुझे विमर्श की सूक्ष्म और संश्लिष्ट संरचना का और तकनीकी शब्दावली का सहारा लेना ज़रूरी होता है, लेकिन इन चीज़ों को आलोचना के सन्दर्भ में सहज माना जाना चाहिए। मुझे अफ़सोस है कि मैं अपना बचाव करता लग सकता हूँ, लेकिन तब भी मैं यह कहूँगा कि जिस तरह कविता और अन्य साहित्यिक कृतियों को पढ़ने के लिए उसका संस्कार, प्रशिक्षण और एकाग्र अभ्यास ज़रूरी है, उसी तरह आलोचना को पढ़ने के लिए भी एक अलग क़िस्म का संस्कार, प्रशिक्षण और एकाग्र अभ्यास अनिवार्य है। हिन्दी में इन चीज़ों के अभाव की समस्या सिर्फ़ आलोचना तक सीमित नहीं है, वह कविता, उपन्यास, कहानी आदि के सन्दर्भ में भी उतनी ही तीखी है। मसलन, बहुत-सी महत्त्वपूर्ण कविताओं को लेकर उनके ‘कठिन’ होने की शिकायत भले न की जाती हो (ऐसी स्वीकारोक्ति साहस की माँग करती है), लेकिन उन पर लिखी गयी आलोचनाओं को पढ़कर साफ़ समझ में आता है कि वहाँ वे कविताएँ, उनकी संश्लिष्टता और सूक्ष्मता में पढ़ी ही नहीं गयी हैं; उन्हें वक्तव्यों की तरह पढ़ा गया है। प्रसंगवश, मैंने यह भी लक्ष्य किया है कि जिन लेखकों को मेरा लेखन कठिन लगता रहा है, उन्हीं लेखकों को वह तब न केवल कठिन नहीं लगता, बल्कि सहज समझ में आ गया लगता है जब संयोग से मैंने उन्हीं की कृति के बारे में लिखा होता है! दूसरे, हमारे यहाँ शायद आलोचना से यह उम्मीद की जाती है कि वह जिस कृति पर केन्द्रित हो, उसे पाठक को सरल भाषा में समझा दे। हिन्दी में आलोचना के नाम पर इस तरह के सरलीकरण ही ज़्यादातर चलन में हैं।
हाँ, मैंने फ्रि़ट्ज़ बेनेविट्ज़ और ब.व. कारन्त के लिए नाटकों के बुन्देली अनुवाद किये हैं। बेनेविट्ज़ के लिए ब्रेख़्त का कॉकेशियन चॉक सर्किल (इंसाफ़ का घेरा नाम से) और शेक्सपीयर का टेमिंग ऑफ़ द श्रू (मो सम पुरुष न तो सम नारी नाम से) और ब.व. कारन्त के लिए कालिदास का मालविकाग्निमित्रम् तथा चतुर्भाणि के दो प्रहसन। इंसाफ़ का घेरा के देश भर में एक सौ से ज़्यादा प्रदर्शन हुए थे। ये अनूठे अनुभव थे, विशेष रूप से बेनेविट्ज़ के साथ काम करने के, जिन्हें बुन्देली तो दूर, हिन्दी भी नहीं आती थी, और मुझे क़ायदे की बोलचाल योग्य अँग्रेज़ी नहीं आती थी (बेनेविट्ज़ के सह-निर्देशक अतुल तिवारी हम दोनों के बीच दुभाषिये की भूमिका निभाते थे, और कारन्त जी के सह-निर्देशक अलख नन्दन मेरी बुन्देली और कारन्त जी की हिन्दी के बीच दुभाषिये की भूमिका निभाते थे)। एक अन्य कठिनाई, इन सभी नाटकों के मामले में, यह थी कि इन सभी में काम करने वाले अभिनेता खड़ी बोली बोलते थे (बुन्देली उनमें से लगभग कोई नहीं बोलता था) और तुम जानते हो कि बुन्देली के लहजे़ को लिपिबद्ध करना असम्भव काम है। ये अभिनेता बुन्देली को भी खड़ी बोली के लहज़े में बोलते थे, और इस असंगति की ओर, स्वाभाविक ही, इनके निर्देशकों का ध्यान नहीं जाता था। नतीजतन, मुझे विशेष रिहर्सलों में शामिल होकर बुन्देली के उच्चारणों पर काम करना होता था। यह क़वायद बहुत शिक्षाप्रद और रोचक हुआ करती थी।
बुन्देली मेरी मातृभाषा है, हालाँकि मैंने सागर में रहने के दौरान ही इसे बोलना लगभग बन्द कर दिया था, जिसके पीछे शायद यह दुर्भाग्यपूर्ण मनोविज्ञान रहा था कि उसे बोलना पिछड़ेपन की, गै़रशहरी या गँवई होने की निशानी माना जाता था, और शायद इसलिए भी कि मैं एक क़िस्म के सार्वजनिक जीवन में सक्रिय हो गया था जिसमें मेरा अक्सर गै़रबुन्देली भाषा लोगों से दिन भर सामना होता था। लेकिन इसके दो अपवाद रहे : एक मेरी माँ, जिनके साथ मैं उनकी मृत्युपर्यन्त बुन्देली में बात करता रहा, और दूसरा, मेरी पत्नी (जो स्वयं भी बुन्देली है) जिसके साथ मैं आज भी खड़ी बोली और बुन्देली के मिश्रण का इस्तेमाल करता हूँ।
यह एक अत्यन्त समृद्ध बोली है जिसकी व्यंजना-शक्ति बहुत प्रबल है और इसमें हज़ारों की तादाद में बहुत व्यंजक और सूक्ष्म अर्थगर्भी कहावतें और मुहावरे हैं। इसमें ईसुरी नामक एक बड़े कवि हुए हैं, शृँगार के। नाटकों, विशेष रूप से इन्साफ़ का घेरा के लिए यह काफ़ी मुआफ़िक बैठती थी। मालविकाग्निमित्रम् को कारन्त जी ने एक कॉमेडी में बदल दिया था जिसके लिए भी वह बहुत सृजनात्मक साबित हुई थी।
उदयन : निर्मल वर्मा के अलावा जिन लेखकों पर तुमने विस्तार से लिखा है उनमें श्रीकान्त वर्मा, रमेशचन्द शाह अशोक वाजपेयी प्रमुख हैं। क्या तुम इन लेखकों के प्रति अपने लगाव पर विस्तार से कुछ कहना चाहोगे?
मदन : उतना विस्तार से तो मैंने इन तीनों में से किसी पर नहीं लिखा है जितना निर्मल वर्मा पर लिखा है। श्रीकान्त वर्मा की कविता पर एक निबन्ध, और रमेशचन्द्र शाह के एक उपन्यास पुनर्वास पर एक निबन्ध और बहुत आरम्भिक दिनों में उनके एक कहानी-संग्रह की एक समीक्षा। बस इतना ही। हाँ, अशोक जी की कविता और आलोचना पर ज़रूर तीन-चार बार लिखने की कोशिश की है। लेकिन जहाँ तक लगाव का प्रश्न है, श्रीकान्त वर्मा को छोड़कर बाक़ी के साथ मेरा दशकों लम्बा मैत्री का रिश्ता रहा है। इन सभी से मैंने बहुत कुछ सीखा भी है इसलिए ये मेरे लिए गुरु तुल्य भी रहे हैं। अगर इनके प्रति मेरे लगाव से तुम्हारा आशय इनके लेखन के प्रति मेरे लगाव से है, तो इस लगाव के रूप और कारण इनपर किये गये मेरे लेखन में बेहतर उभरते होंगे। उन्हें उनके विस्तार में दोहराना सम्भव नहीं है और उनका सार-संक्षेप प्रस्तुत करना अपना ही सरलीकरण करना होगा। इतना कहना पर्याप्त है कि इन तक मेरी पहुँच इनके लेखन के माध्यम से ही बनी, और बाद में इनके व्यक्तिघ्त्व या व्यक्ति का ‘टैक्स्ट’ मेरे सामने खुला। मैं इन सबसे मिलने से पहले इन सभी को भरपूर पढ़ चुका था। ये सारे ‘टैक्स्ट’ भी बहुत गझिन, संश्लिष्ट और विमोहक साबित हुए। रमेशचन्द्र शाह के व्यक्तित्व का लालित्य, सहज दार्शनिकता, विनोद-वृत्ति, क़िस्सागो अन्दाज़, परिप्रेक्ष्य का विस्तार... अशोक जी की उदारता, अपने पूर्वग्रहों के प्रति अडिग रहते हुए भी अन्य के पूर्वग्रहों, उनके विचारों, विचारधाराओं, दृष्टियों, अभिरुचियों आदि के प्रति उत्कट उत्सुकता, जिज्ञासा और सम्मान का भाव, आतिथ्य, यारबाज़ी, साहित्य और कलाओं की स्वायत्तता के प्रति दुर्धष आग्रह और अटूट प्रतिबद्धता...। इन लेखकों के ज्ञान और स्नेह का कोष तो अत्यन्त समृद्ध रहा ही है। मैं ऋणी महसूस करता हूँ कि मैं इनके समय में पैदा हुआ और मुझे इनका अपार स्नेह और मार्गदर्शन प्राप्त हुआ।
उदयन : पिछले कुछ वर्षों में तुम भारतीय उपन्यास पर विचार कर रहे हो। तुमने उपन्यास विधा पर निबन्ध भी लिखा है और इसके पहले से ही यह विधा तुम्हारे लेखन में विशेष स्थान पाती रही है। तुमने निर्मल वर्मा, कृष्णबलदेव वैद, अबर्तो ईको, अरुन्धति राय, रेणु, अज्ञेय आदि के उपन्यासों पर लिखा भी है। तुम्हारे लेखन के इस लगाव के क्या कारण हैं? आधुनिक संस्कृति में उपन्यासों का क्या भूमिका रही है?
मदन : हाँ, मैंने उपन्यास पर कुछ ज़्यादा ही लिख डाला है। कुछ नाम तो तुमने लिये ही हैं, इनमें तुम रवीन्द्रनाथ ठाकुर, जैनेन्द्र, विनोद कुमार शुक्ल, रमेशचन्द्र शाह, गीतांजलि श्री, ओरहान पामुक आदि के नाम भी जोड़ सकते हो। तुमने ‘लगाव’ शब्द का इस्तेमाल किया है लेकिन, इतने सारे उपन्यासों पर लिखने के बावजूद, मैं इसे ‘अलगाव’ कहना ज़्यादा बेहतर समझता हूँ। मुझे हिन्दी (अगर भारतीय न भी कहूँ तो) उपन्यास से बहुत शिक़ायत रही है। उपन्यास पर मैंने जो निबन्ध लिखा है, उसका शीर्षक ही है, ‘हिन्दी उपन्यास की अल्पता पर कुछ ऊहापोह’। उपन्यास विधा के प्रति मेरे इस ऑब्सेशन की मुख्य वजह यह है, जैसाकि मैंने उक्त निबन्ध में संकेत किया है कि इस विधा में मनुष्य-केन्द्रित, या इहलौकिक दुनिया की सबसे सम्यक् मीमांसा उभरती है। वह इस मनुष्य के पार्थिव, दुनियावी, राजनैतिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक जीवन में लिथड़ी हुई, उसमें गहरे धँसी हुई विधा है। अगर हम अपने समय के ‘आधुनिक’ मनुष्य की संश्लिष्ट और जटिल अवस्था को, उसकी अस्तित्वपरक अवस्थिति को, उससे इतर सत्ताओं के साथ उसके रिश्ते को, उसकी जीवन-दृष्टि या विश्व-दृष्टि को, उसके धर्मसंकट, दुविधाओं, अन्तर्विरोधों और विरोधाभासों को, उसके दुर्निवार सांसारिक आकर्षणों और नैतिक अन्तश्चेतना के बीच के द्वन्द्वों को, उसके संकल्पों और कृत्यों के बीच की दूरी को, उसकी सामर्थ्य और लाचारियों को, उसकी सम्भावनाओं और विफलताओं को, उसकी सत्यनिष्ठा, प्रेम और करुणा को, उसके झूठ, घृणा और हिंसा को, उसकी न्यायप्रियता और अन्याय को, उसकी अकिंचनता और दम्भ को, इन सबके पूरे विवरणों के साथ, हमारे ऐन्द्रिय संवेदनों को स्पर्श करती, विश्वसनीय जीवन-लीला में चरितार्थ होते देखना चाहते हैं, तो केवल उपन्यास की विधा में ही यह मुमकिन है। यही, तुम चाहो तो कह लो, उपन्यास की सांस्कृतिक भूमिका है।
हिन्दी उपन्यास, अपनी एक सदी से भी ज़्यादा की यात्रा के बावजूद, इन अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सका। वह न पश्चिम (जहाँ से उसने इस विधा को लिया है) के उपन्यास की कसौटियों पर खरा उतरता है, और न अपनी किन्हीं कसौटियों का आविष्कार कर सका है। ‘आधुनिकता’ के साथ भारतीय मनुष्य के टकराव ने इस मनुष्य की मानसिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, राजनैतिक काया में जो विक्षेप और आघात पैदा किये, उनका सृजनात्मक इन्दराज, ज़ाहिर है, उपन्यास के उन पश्चिमी रूपों में मुमकिन नहीं है जिनसे हमारा उपन्यास अभी भी चिपका हुआ है। ये विक्षेप और आघात जिस एक सर्वथा नये क़िस्म के उपन्यास की, विधागत स्तर पर एक सर्वथा मूलगामी स्तर पर पुनराविष्कृत उपन्यास की माँग करते हैं, वह उपन्यास हम विकसित नहीं कर सके हैं। इसके विपरीत, जिस तरह हमारी आधुनिक संस्थाएँ पश्चिम की लोकतान्त्रिक संस्थाओं की कैरीकेचर बनी हुई हैं, लगभग उसी तरह हमारा उपन्यास पश्चिम के उपन्यासों का कैरीकेचर बना हुआ है।
उदयन : तुम्हारे लिखने की प्रक्रिया बेहद धीमी है। तुमने अभी कुछ देर पहले कहा कि तुमने उम्बेर्तो ईको पर अपना लेख शीघ्र लिख लिया था पर ऐसा कम ही हुआ है। हम जानते हैं, किसी हद तक ही, कि अनेक उपन्यासकार अपने उपन्यास किस तरह शुरू करते हैं, कवियों ने भी इस विषय पर समय-समय पर कुछ कहा ही है। आलोचकों की लेखन प्रक्रिया पर नहीं के बराबर जानकारी है। यह जानते हुए भी लेखन बुनियादी रूप से रहस्यमय कर्म है, यह जानने की इच्छा बनी रहती है कि विभिन्न लेखक किस तरह अपना काम करते हैं।
मदन : हाँ, मेरे लिखने की प्रक्रिया बहुत दर्दनाक ढंग से धीमी है। इसका बहुत सीधा सम्बन्ध मेरे सोचने की प्रक्रिया से है : यह प्रक्रिया भी बहुत धीमी है। लिखने के पहले मैं सम्बन्धित कृति के दो-तीन पाठ करता हूँ (और लिखने के दौरान भी पढ़ने की यह प्रक्रिया जारी रहती है)। इन आरम्भिक पाठों के दौरान, यद्यपि, मैं कुछ नोट्स भी लेता रहता हूँ, लेकिन, ज़्यादातर मामलों में ये नोट्स काम नहीं आते। लम्बे समय तक एक ही सिलसिला जारी रहता है कि प्रतिदिन मैं जितना लिखता हूँ लगभग उतना ही पिछले लिखे हुए में से काटता या रद्द करता रहता हूँ। अन्ततः, इस ‘फ़ोरप्ले’ के बाद वह दिव्य क्षण आता है जब कोई प्रत्यय या कोई विचार सहसा मन में कौंधता है। इसके बाद कुछ समय तक मैं उस ‘नैरेटिव’ की तलाश करता हूँ जिसमें मैं उस प्रत्यय या विचार की बढ़त को बाँध सकूँ। और जब यह ‘नैरेटिव’ हाथ लग जाता है, तो लिखने का वास्तविक सिलसिला शुरू होता है। बेशक, इसमें पिछले लिखे हुऐ के कोई अंश या नोट्स भी शामिल होते जाते हैं।
जिस ज़माने में मैं हाथ से लिखता था, यह पूरी प्रक्रिया बहुत ही कष्टसाध्य और सम्भ्रमित करने वाली होती थी, लेकिन कम्प्यूटर पर लिखना शुरू करने के बाद इसमें काफ़ी आसानी हुई है।
उदयन : तुम्हें सम्पादन का भी सुदीर्घ अनुभव है। शुरू में तुम कलावार्ता और बाद में बरसों पूर्वग्रह का सम्पादन करते रहे हो। तुम सम्पादन की अपनी दृष्टि के बारे बताओ। तुमने खुद सम्पादक होने से पहले दो सम्पादकों के साथ काम किया है। सम्पादकों की कार्यशैली के फ़र्क़ को भी तुमने महसूस किया है। उस बारे में भी कुछ कहो।
मदन : कलावार्ता कलाओं की रिपोर्टिंग और समीक्षा की पत्रिका थी जिसके सम्पादन में सहयोग मेरे लिए एक तरह के प्रशिक्षण का दौर था। सम्पादन का मेरा अनुभव मुख्यतः पूर्वग्रह से सम्बन्ध रखता है जिसमें मैंने कई वर्ष अशोक जी के सम्पादकत्व में सहसम्पादक का काम किया और बाद में उसका सम्पादक हुआ (तब भी यद्यपि अशोक जी प्रधान सम्पादक हुआ करते थे, लेकिन सम्पादन की ज़्यादातर ज़िम्मेदारी मैं ही निभाता था)। अशोक जी के साथ काम करना अद्भुत अनुभव था। कुछ पत्रिकाएँ होती हैं जो डाक से प्राप्त होने वाली ज़्यादातर अनामन्त्रित सामग्री के भरोसे चलती हैं। इसके विपरीत पूर्वग्रह अपने आरम्भ से ही योजनाबद्ध ढंग से प्रकाशित होती थी। हम आगामी अंकों के बारे में नियमित रूप से बैठकें कर योजना बनाते थे - अंक किस लेखक या विषय या विचार पर केन्द्रित होगा, किस विषय या लेखक या पुस्तक पर कौन लिखेगा, वगै़रह, वगै़रह। इसी योजनाबद्धता की वजह से पूर्वग्रह के अधिकांश अंक विशेषांकों के रूप में प्रकाशित हो सके। बेशक, इस योजनाबद्धता की वजह से उसके अंकों के प्रकाशन में कभी-कभी विलम्ब भी हो जाया करता था।
मुझे लेखकों, पुस्तकों, रचनाओं, विषयों आदि के चुनाव की प्रक्रिया में अशोक जी की ओर से पूरी स्वतन्त्रता मिली हुई थी। कभी-कभार असहमति के मुद्दे उठने पर हम आपस में बातचीत कर उन्हें सुलझा लेते थे।
अशोक जी बहुत उदार सम्पादक रहे हैं, लेकिन यह उदारता वे सामग्री के स्तर के मामले में नहीं बरतते थे, उस मामले में वे बहुत सख़्त थे। उदारता अभिरुचि, विचार और विचारधारात्मक स्तर पर थी। इसीलिए यह अकारण नहीं कि तत्कालीन प्रतिबद्ध पत्रिकाओं के बरक्स पूर्वग्रह में इन स्तरों पर न केवल परस्पर भिन्न मत रखने वाले लेखक प्रकाशित होते थे, बल्कि सम्पादक से सर्वथा विपरीत मत रखने वाले लेखक भी प्रकाशित होते थे। अशोक जी अपने या स्वयं पत्रिका के विरोध में लिखी गयी चीज़ों को पूरे सम्मान और उत्साह के साथ प्रकाशित करते थे। प्रसंगवश, मुझे याद है कि जब मैंने मराठी लेखक दिलीप चित्रे पर प्रकाशित विशेषांक (जिसका मैं स्वयं सहसम्पादक था) के सन्दर्भ में दिलीप चित्रे पर बहुत तीक्ष्ण रूप से आक्रामक टिप्पणी लिखकर उसे कलावार्ता में छपाना चाहा था, तो अशोक जी ने आग्रहपूर्वक उसे पूर्वग्रह के ही अगले अंक में छापने का निर्देश दिया था। ज़ाहिर है कि वह टिप्पणी केवल दिलीप चित्रे के खि़लाफ़ नहीं थी, परोक्षतः वह उन पर अंक निकालने के पूर्वग्रह के निर्णय के खि़लाफ़ भी जाती थी। वह हमारे सम्पादकीय मतभेद का खुला संकेत था, जिसे पत्रिका में जगह देकर सार्वजनिक किया गया। इसी तरह, जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, अशोक जी ने कलावार्ता में एक स्तम्भ शुरू कराया था, ‘निन्दक नियरे राखिए’ (या ऐसा ही कुछ)। उन दिनों भारत भवन के तथाकथित अभिजात के विरुद्ध स्थानीय अख़बारों में बहुत छपा करता था। अशोक जी ने इस स्तम्भ में इस तरह की रिपोर्टों की कतरनों का पुनर्प्रकाशन आरम्भ कराया था।
तुम समास के उन आरम्भिक (चार) महत्त्वपूर्ण अंकों का ज़िक्र करना, शायद, भूल गये जिनका सम्पादन हम तीनों (अशोक जी, तुम और मैं) किया करते थे। तुम्हें याद होगा, इसमें हम लोगों ने एक अनूठा और सम्भवतः अभूतपूर्व प्रयोग किया था : इनमें किसी एक सम्पादक का लिखा हुआ सम्पादकीय नहीं होता था। इसकी बजाय हम तीनों किन्हीं मुद्दों पर बातचीत करते थे, और उस बातचीत से उसके तीनों संवादियों के नाम हटाकर उसे ‘सम्पादकीय संवाद’ के नाम से प्रकाशित करते थे।
उदयन : पूर्वग्रह पत्रिका ने पाठकों के एक बड़े वर्ग को साहित्य और अन्य कलाओं को स्वतन्त्र रूप से अनुभव करने के लिए संस्कारित किया था। अपने समय में यह दायित्व केवल पूर्वग्रह ने ही निभाना था। उससे जुड़े अनेक लेखक आज हिन्दी साहित्यिक संस्कृति में सम्मान्य हैं। तुम लोगों ने उसके कई विशेषांक भी प्रकाशित किये थे जो आज तक याद किये जाते हैं। तुमने पूर्वग्रह के लिए ही अनुवाद करने शुरू किये। तुम्हारे कई महत्वपूर्ण उत्तर-आधुनिक विचारकों के निबन्धों के अनुवाद पूर्वग्रह में प्रकाशित हुए थे। अब तुम हिन्दी के सबसे महत्वपूर्ण अनुवादक हो। तुम अनुवाद के क्षेत्र में कैसे आ गये?
मदन : निश्चय ही एक समय था जब इस पत्रिका का वैभव था। वह भोपाल में आरम्भ हुए सांस्कृतिक ‘रेनेसाँ’ का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हिस्सा थी। उसकी व्यग्र प्रतीक्षा की जाती थी - केवल उन लोगों द्वारा नहीं जो उसकी दृष्टि के समर्थक थे, बल्कि उन लोगों द्वारा भी जो उसके प्रबल विरोधी थे। उसने तत्कालीन युवा लेखकों और पाठकों को संस्कारित करने का काम तो किया ही था। इतने विशेषांक शायद ही किसी पत्रिका ने प्रकाशित किये होंगे, जितने पूर्वग्रह ने किये थे। इनके पीछे यही आग्रह होता था कि किसी भी लेखक या कलाकार को उसकी अधिक-से-अधिक समग्रता में, और अधिक-से-अधिक दृष्टियों से समझने की कोशिश की जाए। अगर ‘पॉलिमिक्स’ को सकारात्मक अर्थों में लिया जाए, तो मुझे लगता है कि इसकी शुरुआत पूर्वग्रह ने ही की थी, और नयी कविता के बाद हिन्दी में व्याप्त शिथिलता और मन्दी के वातावरण में एक ज़बरदस्त उत्तेजना पैदा की थी। उसने अन्तहीन बहसों का सिलसिला चलाया। मैं नहीं समझता कि अपने समय का कोई भी ‘ट्रेण्ड’, कोई भी नवाचार, कोई भी साहित्यिक आन्दोलन, कोई भी गम्भीर विचारक, इसकी नज़रों से ओझल हुआ होगा। इन सबका सबसे पहला नोटिस लेने वाली पत्रिका पूर्वग्रह ही हुआ करती थी। उत्तर आधुनिकता और उत्तरआधुनिक चिन्तन का भी।
इसी क्रम में, मैंने वे अनुवाद किये या कराये थे, जिनका तुमने ज़िक्र किया है : देरीदा, ब्लाँशो, लियोताख़, जॉर्ज पुले, बॉद्रिला, ऑक्तॉवियो पॉज़, मिलान कुन्देरा...। ये अनुवाद करने के लिए मुझसे किसी ने आग्रह नहीं किया था, यह ज़िम्मेदारी मैंने ख़ुद ही ओढ़ ली थी। और बहुत-से लोगों ने इनका स्वागत किया था।
मेरा अनुवाद के क्षेत्र में आ जाना! सबसे पहले, ये अनुवाद मेरे पढ़ने-समझने की प्रक्रिया का प्रतिफल हुआ करते थे। अनुवाद करने के लिए आपको (कम-से-कम मुझे तो निश्चय ही) अनुवाद्य पाठ को शब्दशः पढ़ना होता है। इस पढ़ने की प्रक्रिया में ही वे अनुवाद होते चले गये। द नेम ऑफ़ द रोज़ का अनुवाद भी ऐसे ही हुआ था, वह मैंने भारत भवन की अपनी नौकरी के दौरान ही किया था। बहुत बाद में, जब मैं नौकरी में नहीं रहा, तब ये अनुवाद मेरी आय का साधन बनने लगे। अब, ज़्यादातर पुस्तकों का चुनाव मेरा नहीं, प्रकाशक का होता है। लेकिन कभी-कभी अच्छी पुस्तकें हाथ लग जाती हैं। तब इस कर्म में बहुत आनन्द आता है। तब यह दोहरे आतिथ्य का अनुभव होता है : आप मानो किसी के घर में लम्बा आत्मीय वक़्त बिताते हैं, उसकी रुचियों, उसकी भाषा, उसके विचारों, अनुभवों, भावनाओं आदि में साझा करते हैं; वहीं, दूसरी ओर, यह अन्य को आतिथ्य प्रदान करने जैसा भी होता है। आप अपनी भाषा में किन्हीं सर्वथा अन्य अनुभवों, भावों, विचारों, प्रत्ययों आदि को बिला शर्त जगह देते हैं और इस प्रक्रिया में अपनी भाषा (और इस तरह, वस्तुतः, अपने स्वत्व) को उदार और समावेशी बनाते हैं।

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