आलोचना की भाषा अशोक वाजपेयी
20-Jun-2021 12:00 AM 1215

कविता की भाषा के अलावा, हमारे यहाँ आलोचना की भाषा पर विचार किया गया है। उसमें कुछ नया जोड़ना मुश्किल है। पर उस विचार वितान का कुछ सर्वेक्षण जैसा किया जा सकता है। आलोचना में भाषा निरी भाषिक अभिव्यक्ति भर नहीं होती, वह दृष्टिसम्पन्न, मूल्यगर्भित और पूर्वग्रहयुक्त होती है। वह साहित्य के अनुराग, साहित्य के लम्बे और गहरे आस्वाद में रसी-रमी भाषा होती है। साथ ही वह ऐसी भाषा भी होती है जो अपने को विस्तृत करने और ज़रूरी हो तो बदलने के लिए भी तत्पर होती है। वह बखान के साथ-साथ विश्लेषण, विशेष से सामान्यीकरण की ओर जाती भाषा होती है।
आलोचना की भाषा कई दबावों के बीच लिखी जाती है और विकसित होती है। पहला दबाव तो रचना की भाषा का होता है। रचना की भाषा तेज़ी से बदलती है पर आलोचना की भाषा बदलने में मन्दगति रहती है। रचना का गुण संश्लेषण होता है जबकि आलोचना का विश्लेषण; और दोनों में स्पष्ट ही तनाव रहता है। आलोचना की अपनी परम्परा का, उसके मूल्यों-अवध्ाारणाओं-पूर्वग्रहों, सामान्यीकरणों का दबाव भी पड़ता है। अन्य क्षेत्रों में विकसित विचार-भाषाओं का दबाव भी होता है। हिन्दी के क्षीण-शिथिल वैचारिक वर्तमान के कारण कई विदेशी विचार-सारणियाँ आलोचना हिसाब में लेती है और उदाहरण के लिए माक्र्सवाद, स्त्री-विमर्श, उत्तर-आध्ाुनिकता आदि का दबाव पड़ता है। चूँकि ज़्यादातर आलोचना अकादेमिक परिसर में ही होती है, अकादेमिक प्रतिष्ठान की अपेक्षाओं, परिपाटियों और प्रक्रियाओं, पूर्वग्रहों का आलोचना पर प्रभाव पड़ता हे, भले आलोचना की अकादेमिक भाषा अध्ािकतर जड़, रूढ़, निष्प्राण और ऊर्जा हीन होती है।
हिन्दी की एक बड़ी विडम्बना यह है कि उसमें मौलिक विचार बहुत कम है और जो है उसकी व्याप्ति और मान्यता बहुत कम है, विचारध्ााराओं और विचारध्ाारा-विरोध्ा के दबावों के बीच आलोचना को अपना वैचारिक और भाषिक सन्तुलन खोजना पड़ता है। बहुत सारी आलोचना राजनैतिक रूप से सही होने की चेष्टा करती नज़र आती है। हमारे समय में, ख़ास कर सम्प्रेषण के नये माध्यमों से पैदा हुई लोकप्रिय भाषा का प्रलोभन भी कई बार आलोचना को भटका दे सकता है। लोकतन्त्र की मुख्य वृत्ति आलोचना, प्रश्नांकन और जवाबदेही की होती है भले वह इस समय बहुत मन्द पड़ गयी है। लोकतन्त्र में जो होता है उसका प्रभाव भी आलोचना पर पड़ता है। कई बार उसमें बखान और विश्लेषण के बजाय फ़ैसला देने की हड़बड़ी दिखायी देती है। हर समय कुछ न कुछ आलोचनात्मक मतैक्य दृष्टि पर सक्रिय रहता हैः उसका वर्चस्व और व्याप्ति आलोचना को कई बार जोखिम उठाने से रोकती है। यह आकस्मिक नहीं है कि अवाँ गार्द अकसर रचना में होता है, आलोचना में नहीं।
अगर हम आज आलोचना की हालत का जायज़ा लें तो पता चलेगा कि प्रशंसा, निन्दा और उपेक्षा के सरलीकरण हावी हैं। साहित्य को निरे विचार में घटाने का उद्यम हो रहा है जो दरअसल साहित्य को एक तरह से उपकरण मानना है। ब्यौरों में जाने के अनिवार्य आलोचनात्मक उद्यम की उपेक्षा हो रही है। फिर आलोचना में नयी अवध्ाारणाओं का अभाव सा हैः सचाई और समाज बदल गये हैं, रचना बदल रही है पर आलोचना विजडि़त है, ठिठकी हुई है, नये ढंग से सोचने से या तो बच रही है या उसे टाल रही है। सचाई और रचना की तरह अपने को वैध्य बनाने के साहस या जोखिम से पीछे हट रही है। अगर थोड़े से आलोचकों को अपवाद मानकर छोड़ दें तो अध्ािकांश आलोचकों पर नितान्त समसामयिकता का आतंक-सा है। आलोचना का एक काम स्मृति को सजीव रखना है जबकि आज ज़्यादातर आलोचना से स्मृति का लोप हो चुका है। जिन मुद्दों पर लम्बी और सार्थक बहस पहले हो चुकी उन्हें फिर उसी सन्दर्भ से उठाया जा रहा है क्योंकि आलोचना को स्वयं अपनी बौद्धिक परम्परा की स्मृति नहीं रह गयी है। आलोचना में इन दिनों बार-बार पहिये का आविष्कार होता है।
आलोचना में स्वयं रचनाकारों ने जो योगदान दिया है, अज्ञेय-मुक्तिबोध्ा-निर्मल वर्मा-मलज-विजयदेव नारायण साही आदि ने वह ध्ाारा सूख चुकी है। हर हालत में वह अवरुद्ध लगती है। पेशेवर आलोचकों पर उस अवदान का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा है जबकि सबसे अध्ािक नये आलोचनात्मक पद और अवध्ाारणाएँ इसी ध्ाारा से आयी हैं। आलोचना में साहित्य से अनुराग की हानि भी स्पष्ट नज़र आती है क्योंकि आलोचना की भाषा में ऐसे अनुराग का कोई साक्ष्य नहीं दीख पड़ता।
जैसे रचना वैसे ही आलोचना स्थापित व्यवस्था को प्रश्नांकित करने का जोखिम उठाये बिना नयी और ईमानदार नहीं हो सकती। इस व्यवस्था को उसकी जटिल सूक्ष्मता में पहचानना ज़रूरी होता हैः सामान्य भाषा से लेकर रचनात्मक भाषा में अनेक गहरे संकेत छुपे होते हैं जो सचाई का हिस्सा होते हैं और जिन्हें रचना और आलोचना दोनों में पकड़ने-समझने का काम जतन और अध्यवसाय की माँग करता है। ऐसा जतन आलोचना में इध्ार कम ही दीख पड़ता है। जैसे रचनाकार को वैसे ही आलोचक को यह हक़ है कि वह बदले, अपनी दृष्टि और अनुभवों के फलितार्थ पर पुनर्विचार करे। ऐसा पुनर्विचार आलोचक के लिए अलग कि़स्म की कठिनाई पैदा करता है। रचनाकार को तो अपने बदले रूख़ का कोई बचाव नहीं करना पड़ता पर आलोचक को ऐसा करना पड़ता है। उसके बदले रूख़ को तभी विश्वसनीय माना जायेगा जब अपने पिछले रूख़ में परिवर्तन का विस्तार से कारण भी बताये। एक दिलचस्प उदाहरण नामवर सिंह का अज्ञेय की जन्मशती के अवसर पर बहुत विध्ोयात्मक आकलन है। दुर्भाग्य से, नामवर जी ने यह नहीं बताया कि लगभग अज्ञेय-विरोध्ा की एक अध्ासदी चलाने के बाद उनका मत-परिवर्तन क्यों और कैसे हुआ। उन्होंने तो नया आकलन ऐसे लिखा जैसे कभी उन्होंने अज्ञेय के बारे में नकारात्मक कुछ लिखा या कहा ही न होः यह आलोचना की और आलोचक की बुनियादी नैतिकता से विरत होना है और नामवर जी का मत-परिवर्तन विश्वसनीय नहीं हो सका।
रचना और आलोचना का साहचर्य ज़रूरी है और वह प्रायः होता ही आया है। लेकिन साहचर्य का अर्थ रचना का अनुगमन नहीं होता। वाल्टर बैन्यामिन ने कहा था कि ‘साहित्य-संघर्ष में आलोचक रणनीतिकार होता है।’ आलोचना की अपनी स्वायत्तता होती है और वह अपनी सही भूमिका अपनी स्वायत्तता की रक्षा कर ही निभा सकती है।
बहुत सारी आलोचना रचना का सघन-सूक्ष्म पाठ करने से संकोच करती है क्योंकि उसकी सार्वजनिक विमर्श होने में दिलचस्पी होती है। लेकिन दोनों में कोई तात्विक अन्तर्विरोध्ा नहीं होता। ब्यौरे समूचे साहित्य के देवता होते हैं, रचना के और आलोचना दोनों के।
कुछ और प्रश्न, इस मुक़ाम पर, उठाये जा सकते हैं। क्या बिना अनुराग, आस्वाद और आदर याने विनय के अच्छी आलोचना लिखी जा सकती है? क्या साहित्य का अनुराग दरअसल संसार की हालत से सरोकार रखने से ही नहीं उपजता या उसी की ओर नहीं ले जाता? क्या दृष्टि होना ज़रूरी तौर पर निश्चयात्मक बनाता है? जैसे जीवनानुभव रचना में मात्र व्यक्त नहीं चरितार्थ होता है, वैसे ही क्या आलोचना में साहित्यानुभव को मात्र व्यक्त नहीं, चरितार्थ होना चाहिये? क्या जीवनानुभव और साहित्यानुभव के बीच अनिवार्य तनाव को जैसे रचना में वैसे ही आलोचना में सर्जनात्मक ऊष्मा और समझ का स्रोत नहीं माना जाना चाहिये?
हिन्दी में रचनाकारों द्वारा की गयी आलोचना की ध्ाारा इतनी कमज़ोर क्यों पड़ गयी है जबकि संसार के अनेक बड़े कवि-गद्यकार ऐसी सर्जनात्मक आलोचना में लगातार सक्रिय हैं? रूसी कवि जाॅसा जोसैफ़ ब्राॅडस्की, आयरिश शीमस हीनी, फ्रैंच ईव बोनफुआ, चैक मिलान कुन्देरा, इस्पानी मारिऔ योसा आदि। इसका कारण सिफऱ़् यह तो नहीं हो सकता कि हमारी पेशेवर आलोचना ने सृजनात्मक आलोचना को जगह या मान्यता नहीं दी। लगता है कि युवतर पीढि़यों में आलोचना वृत्ति आत्मालोचन के साथ ही मन्द पड़ गयी। रचना को अभिघा तक सीमित होने के कारण, एक तरह से आलोचना की ज़रूरत ही नहीं रह गयी!
इस तथ्य को भी हिसाब में लेना ज़रूरी है कि, एक दूसरे स्तर पर, नयी संचार तकनालजी के कारण, हर व्यक्ति को आलोचना करने की सुविध्ाा और अध्ािकार मिल गये। इसे एक तरह की लोकतान्त्रिकता भी कहा-माना जा सकता है। लेकिन उसने बहुत सतही कि़स्म की टिप्पणियाँ करने को ही आलोचना बना दिया लगता है। किसी गम्भीर और सुचिन्तित, विचारोत्तेजक विमर्श की उसमें गुंजाइश बहुत कम है। वह आलोचना को तुरन्त अभिमत में घटाने का अवसर भी देती है।
इस समय आलोचनात्मक मतैक्य का भ्रम पैदा करती हुई एक सोची-समझी विचारध्ाारात्मक रणनीति सक्रिय है जो कुछ लेखकों और कुछ कृतियों के नाम बार-बार दुहराती है और सारे मत-मतान्तरों को उन्हीं के इर्द-गिर्द रखने का माहौल बनाती-पोसती है। इस थोपे गये मतैक्य को प्रश्नांकित करने वाली प्रतिरोध्ाात्मक आलोचना का, दुर्भाग्य से, अभाव है। अगर इस समय ऐसे लेखकों और रचनाओं की सूची बनायी जाये जिनकी आलोचना ने अवहेलना की है तो वह यह भी उजागर करेगी कि आलोचना में न्यायबुद्धि कितनी कम बची और सक्रिय है।
यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आलोचना में कोई अवाँ गार्द क्यों नहीं है। एक तो जो स्त्री-विमर्श और दलित विमर्श चल रहे हैं उन्हें किसी हद तक, अवाँगार्द माना जा सकता है। पर व्यापक रचना-जगत् में ही जब कोई अवाँ गार्द नहीं है तो आलोचना में उसकी उम्मीद कैसे की जाये।
रोलाँ बार्थ की एक अवध्ाारणा याद आती है। उन्होंने कहाः संसार में किसी भी साहित्य ने उन प्रश्नों का कभी कोई उत्तर नहीं दिया जो उसने पूछे और इसी विलम्बन या स्थगन ने हमेशा उसे साहित्य के रूप में विन्यस्त किया है। यह वह भाषा है जो मनुष्य प्रश्न की हिंसा और उत्तर की ख़ामोशी के बीच रखते हैं। यह पूछने का मन करता है कि क्या प्रश्नों की दोपहर और उत्तरों की गोध्ाूलि में कहीं आलोचना का समय है, होता है, हो सकता है। इस समय जब व्यापक लोकतन्त्र में आलोचना लगभग दण्डनीय होती जा रही है तब साहित्य में आलोचना के लिए क्या यह प्रखर और प्रतिरोध्ाक होने का नहीं है। हमारी आलोचना अपनी भाषा में इतना कम क्यों देखती है? इतनी कम रोशनी क्यों डालती है?
आलोचक और आलोचना दोनों को इस समय हिस्सेदार और प्रतिरोध्ाक होने की ज़रूरत है। बल्कि पूरक भी। वे प्रश्न और अभिप्राय जो रचना में नहीं उठ या आ रहे हैं उन्हें आलोचना में जगह मिलना चाहिये। हिन्दी समाज, इस समय हिंसा-हत्या-बलात्कार की भाषा को लगभग वैध्ाता देता समाज बनता जा रहा है। आलोचना को इस समय स्वयं ऐसे समाज के विरुद्ध मुखर और सचेष्ट होना चाहिये। यह समय सिफऱ़् साहित्य तक अपने को महदूद रहने का नहीं हैः आलोचना को व्यापक सामाजिक और लोकतान्त्रिक भूमिका निभाने के लिए तैयार होना चाहिए। ऐसा निरी वाक्शूरता से सम्भव नहीं है। आलोचना को भारतीय सभ्यता के संकट को अध्ािक गहराई और उसकी जटिलता में समझना होगा। बिना इस समय बौद्धिक हस्तक्षेप हुए, बिना दुस्साहस किये आलोचना यह सब नहीं कर सकती।
हिन्दी भाषा इस समय भेदभाव, घृणा, साम्प्रदायिकता और ध्ार्मान्ध्ाता की हिंसक-आक्रामक भाषा सामाजिक संवाद में, सत्ता-राजनीति-बाज़ार-पूँजी-ध्ार्म-मीडिया के अभूतपूर्व गठबन्ध्ान से बनायी जा रही है। आलोचना इस भयानक प्रवृत्ति की अनदेखी नहीं कर सकतीः उसे सविनय अवज्ञा, असहयोग, नैतिक विवेक की उग्र लेकिन सौम्या और भद्र भाषा बनकर दृश्य पर सीध्ो आना होगा। अगर रचना में नैतिक कायरता बढ़ रही है तो उसे इसकी सख़्ती और सहानुभूति से पड़ताल करना होगी। साहित्य आमतौर पर दोटूक ढँग से न तो सचाई को देखता, न व्यक्त करता है। पर यह समय नैतिक द्वन्द्व या विभ्रम का नहीं है क्योंकि लोकतन्त्र, परम्परा, भारतीयता सभी दाँव पर हें। यह समय साफ़ देखने और साफ़ कहने का है। देखना और कहना साहित्य में हमेशा बचाने के पर्यायवाची हो जाते हैं। हम चुप रहकर, या ख़ामोशी की चतुर हरकत से न सिफऱ़् कुछ नहीं बचा पाएँगे बल्कि एक व्यापक सभ्यतामूलक घ्वंस में भागीदार होंगे। आलोचना की भाषा, ठीक इस मुक़ाम पर अगर कभी भी, सिफऱ़् शब्द की नहीं कर्म की भाषा बन जाती है। इस समय रचना कर्म है और आलोचना भीः स्पष्ट, निर्भीक, अदम्य, अहिंसक, साहसी, नैतिक।
।2008 में दिये वक्तव्य का 2020 में लिखित-परिवद्र्धित रूप।

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