'अमोला' त्रिलोचन की अपूर्व काव्‍यशक्‍ति का परिचायक है। ।। ओम निश्‍चल
16-Jun-2020 12:00 AM 4599
Trilochan
सींचइ पातइ डारे खेते बीज ।
रासि मिलइ तउ जाना दइउ पसीज ।
(खेत को सींचिए, अनुकूल नमी होने पर बीज डालिए लेकिन अनाज पूरा मिल जाए तभी जानिए कि ईश्वर का हृदय पसीजा है, उसने आप पर अनुकंपा की है।)
 
'अमोला' त्रिलोचन के काव्‍य का केंद्रबिन्‍दु है किन्‍तु उसे जिस व्‍याख्‍या और उदार चिंतन विश्‍लेषण की दरकार थी, उसे कोई अवधीभाषी कवि ही संभव कर सकता था। पिछले एक दशक से 'अमोला' के पठन पाठन एवं उसकी पदव्‍याख्‍या एवं संदर्भ निर्धारण में संलग्‍न अष्‍टभुजा शुकल ने यह काम बहुत मनोयोग से किया है। अवधी का भूगोल व्‍यापक है। पूर्वी अवधी और पश्‍चिमी अवधी । दोनों इस बोली के दो छोर है। बीच में एक जिले से दूसरे जिले की अवधी में भी तनिक अंतर देखने को मिलता है। बस्‍ती के रहने वाले अष्‍टभुजा शुक्‍ल ने यत्‍नपूर्वक सुल्‍तानपुर की त्रिलोचन की अवधी को न केवल उसकी जड़ों से पहचाना है बल्‍कि उसे काव्‍य का आधान बनाने वाले एवं त्रिलोचन की राह पर चलने वाले वे स्वयं उन्‍हीं के कुलगोत्र के कवियों में भी आते हैं। खुद उनके काव्‍य 'चैत के बादल' में जितनी ध्‍वन्‍यात्‍मकता है, अवधी शब्‍दावली की चहल पहल है, गांव के लोकाचार की जितने स्‍तर हैं वे उनके काव्‍य में आसानी से लक्षित किए जा सकते हैं। उसी का नतीजा है कि वे खड़ी बोली में 'हाथा मारना' जैसी लंबी कविता लिखते हैं तो अवधी क्षेत्र की पूरी खेती किसानी आंखों के सामने कौंध उठती है।
 
'अमोला' कठिन काव्‍य है। जिसे लोकभाषा का पूरा ज्ञान न हो, जो गांव से सम्‍पृक्‍त न हो, वह इसकी व्‍याख्‍या नहीं कर सकता तथा इसके काव्‍यात्‍मक अभिप्रायों को नहीं समझ सकता। त्रिलोचन के इस काव्‍य से गुजरते हुए लगता है जैसे घाघ की परंपरा का कोई आधुनिक कवि बोल रहा है। अष्‍टभुजा शुक्‍ल 'अमोला' की भाषा के बारे में लिखते हैं, 'वह अवधी में भी अवधी है। इस मृदोदभिद् भाषा में मिट्टी का सोंधापन भी है, उसका कीचड़ कॉंदौ और सड़ॉंध भी। इस कर्मोदभूत भाषा में नारों की जगह पुकारने, गोहराने और अनकने की आवाजें हैं।' वही अनकना जिसे एक सोहर 'छापक पेड़ छिउलिया' में 'सबद सुनि अनकइ' कह कर किसी अनाम लोक कवि ने हिरणी की पीड़ा का आभास कराया है। 'अमोला' से गुजरते हुए यह लगता है त्रिलोचन ने जो कहा है कि 'मैं उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा दूखा है', कितना सच है। जीवन से जितने करीब का रिश्‍ता त्रिलोचन का था, दुख-सुख, हारी-बिमारी, उसकी कसक उनके काव्‍य में दिखती है। उन्‍हें यदि उनके सानेटों व अमोला के आधार पर ही किसानी जीवन का महाकवि कहा जाए तो अत्‍युक्‍ति न होगी। 'अमोला' की भाषा कहने के लिए भले अवधी है पर इसका अर्थ कोई यों ही हलोर कर हिलगा नहीं सकता। अष्‍टभुजा जी पाते हैं कि "'अमोला' की अवधी न तो तुलसी की है, न जायसी की, न पढ़ीस की। यह यहां तक त्रिलोचन की अवधी है जिसमें मानक अवधी के व्‍याकरण ढूढ़ने में भी कोई फिसल कर गिर सकता है।"
 
'अमोला' के एक एक बरवै में कोई बड़ी से बड़ी बात समाई हुई है। कोई बड़ा से बड़ा अनुभव समाया हुआ है। पूरा काव्‍य ही लोकजीवनानुभवों का समुच्‍चय है । पर इसमें कवि की अपनी कसौटी भी बोलती है । सच्‍ची रचना की पहचान क्‍या है? अच्‍छी रचना की सार्थकता क्‍या है? इसे त्रिलोचन एक बरवै में यों कहते हैं। इसे अष्‍टभुजा जी अक्सर अपने व्‍याख्‍यानों में सुनाते हुए मम्‍मट और विश्‍वनाथ जैसे वैयाकरणों की कसौटियों से कमतर नहीं मानते।
बकौल त्रिलोचन :
रचना देखत बिसरइ रचनाकार।
तब रचना कइ रूप होई उजिआर।।
 

यानी वही रचना परिपक्व और निखरी हुई होती है जिसे देखते ही पाठक यह भूल जाए कि रचनाकार कौन है, उसका अस्‍तित्‍व विस्‍मृत हो उठे।
 
एक बरवै में वे कहते हैं : इमइँ नाइँ चीन्‍ह्या विपदइ ल्‍या चीन्‍ह/ दइउ न करइ इ तोहँउॅक डारइ बीन्‍हि। यानी हमें नही पहचाना तो लो मेरी विपत्‍ति को ही पहचान लो। कहीं ईश्‍वर न करे यह विपदा तुम्‍हें ही बींध डाले। पग पग पर 'अमोला' के बरवै अनुभव के कैप्‍सूल जैसे हैं कविता की सहज शक्‍ति से परिचित कराते हुए । तेतें पांव पसारिए जेतें लाम्‍बी सौर--सुपरिचित कहावत है। त्रिलोचन इसे अपने बरवै में यों सहेजते हैं:
ओतनइ ओढ़इ जेतना होइ सम्‍हार
टिटमजार तउ जाइ न देए पार ।।
 
इस तरह कोई पचीस पेज की भूमिका व शब्‍दार्थ के साथ 270 पृष्‍ठों का यह काव्‍य हिंदी कविता को त्रिलोचन की एक अनन्‍य देन है। तुलसी के बाद बरवै का ऐसा कुशल प्रयोग त्रिलोचन के 'अमोला' में ही दीख पड़ता है। अष्‍टभुजा शुक्‍ल ने शब्‍दार्थ एवं संदर्भ के साथ इसका संपादन कर बहुत पुनीत कार्य किया है। यह कार्य संपन्‍न किए उन्‍हें चार पांच बरस हो गए थे पर किसी सुयोग्‍य प्रकाशक के अभाव में यह प्रकाश में न आ सका। रज़ा फाउंडेशन ने 'अमोला' का नए रुप में पुनर्प्रकाशन कर हिंदी की एक मौलिक किन्‍तु विस्‍मृत संपदा का पुनरुद्धार किया है इसमें संदेह नहीं। नई किताब प्रकाशन से इसे बहुत ही सुघर ढंग से प्रकाशित किया है, जिसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं।
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अमोला । त्रिलोचन । बरवै काव्‍य । संपादक : अष्‍टभुजा शुक्‍ल। नई किताब प्रकाशन।
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