02-Aug-2023 12:00 AM
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मेरे काव्य रसिक सहृदय मित्र चौरसियाजी एक दिन बग़ैर किसी भूमिका प्राक्कथन के मुझसे पूछ बैठे जीवनलाल वर्मा के बारे में क्या जानते हों? कौन है ये? मैंने स्मृति पर ज़ोर डालते हुए कहा, जहाँ तक मुझे याद है, मैं इस नाम के किसी व्यक्ति को नहीं जानता। क्या बात है, कोई ख़ास है?
‘ख़ास! कुछ नहीं... ये कवि है।’ उन्होंने बताया कि मुझे लगा शायद तुमने इन्हें पढ़ा हो।
जी नहीं। मैं तो यह नाम ही पहली बार सुन रहा हूँ। मैंने जिज्ञासा से पूछा-
क्या कुछ विशेष है?
विशेष! वे बोले अद्भुत... सुनो-
कागभुशुण्डि गरुड़ से बोले, आओ कुछ लड़ जायें चोंचें।
चलो किसी मन्दिर के अन्दर, प्रतिमा का सिन्दूर खरोंचें।
वाह! क्या बिम्ब है। मैं चहक उठा।
उन्होंने शायराना अंदाज़ से मुझे देखा, दाद चाही और मेरे चेहरे से दाद बटोरते हुए कहने लगे- प्यारे!... आज के राजनैतिक पाखण्ड पर करारा व्यंग्य है।... हे ना!
एकदम सटीक। मैं उत्साह से बोल उठा। सरल-सहज अमिधा, प्रसाद का माधुर्य... कवि की उत्प्रेक्षा तो स्तुत्य है।... आगे...
बस इतना ही। वे विराम लेते हुए बोले- पता नहीं कहाँ पढ़ी थी, ये लाईने। किसी अख़बार में या किसी पत्रिका में। याद नहीं आ रहा है। किन्तु मुझे लगा कि तुमने शायद इस कवि को कभी कहीं पढ़ा हो।
जी नहीं। अनन्त शास्त्रं बहुलाश्च विद्या। मैं तो यह नाम ही पहली बार सुन रहा हूँ। क्या नाम बताया... हाँ जीवनलाल वर्मा। वैसे इस नाम की बनावट को देखते हुए मुझे ऐसा लगता है कि ये चालीस या पचास के दशक में हुए होंगे। असहयोग का जमाना या सद्य-आज़ादी के आस-पास।
हाँ हो सकता है। चौरसियाजी सहमति देते हुए बोले मगर पता नहीं अभी धरांगत है कि दिवंगत। खैर तुम पता करो।
क्या!... क्या पता करूँ। मैं कुछ चौंकते हुए बोला। यही जीवनलाल वर्मा की जीवनी, उनकी काव्यधारा, विचारधारा वग़ैरह वग़ैरह।
मगर कुछ और भी क्लू बतलाईये।
कागभुशुण्डि... खरोंचे। कविता है और कवि का नाम है जीवनलाल वर्मा जो कुछ है बस यही है और इतना ही मुझे मालूम है। शेष इन्हीं सुराग़ों के आधार पर आगे तुम्हें मालूम करना है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुम कर सकते हो, इसलिए तुम कर लोगे। बड़े ही लाड़ की लालीपॉप मुझे थमाते हुवे वे गुनगुनाने लगे-
कौन सो काम कठिन जग माहि।
जोपे तात होत तुम नाहि।।
चौरसियाजी के इस जामवन्तीय विश्वास की विश्वसनीय प्रशंसा से प्रशंसित मैं जीवन की तलाश हेतु काव्येतिहास के पारावार में लंगोट बाँधकर कूद पड़ा। जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
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अपने इस अभियान के प्रथम सोपान पर जेहि सुमिरत सिधि होई की कामना में मेर चित्रकार, साहित्यकार मित्र अखिलेश को कई बार फ़ोन लगाया। हर बार बेल जाती रही मगर उठायी न जाने के कारण, कालान्तर में कॉल-मिस होने से मेरी पुकार कुँआरी ही रह गयी।
अस्तु, द्वितीय सम्भावना स्वरूप भोपाल संस्थित चित्रकार-साहित्यकार-गायक-वादक-शिक्षक- प्रशिक्षक-चिकित्सक डॉ.एस.डी. शुक्ला (शिवदत्त) अर्थात् सर्व-शुक्ला के फ़ोन को टुन टुना दिया। थोड़ी ही देर में मेरे मोबाईल में सरोद पर प्रणवनाद करता उनका धीर-गम्भीर स्वर गूंज उठा।
हलो... ओऽम। कैसे हो...। औपचारिक ख़ैर-ख्वाही की पूर्ति-आपूर्ति पर्यन्त जब मैंने उनसे जीवनलाल के बारे में जानना चाहा तो वे बताने लगे- जीवन का असली नाम ओंकारनाथ धर था। वे मूलतः कश्मीरी थे। धार्मिक फ़िल्मों में देवर्षि नारद को एक नये लुक में स्थापित करने वाले चरित्र अभिनेता एक सफल खलनायक भी रहे हैं। उनकी प्रमुख फ़िल्में नया दौर, कोहिनूर, जॉनी मेरा नाम, अमर-अकबर-एन्थो...
चचा! मैं कवि जीवनलाल वर्मा की बात कर रहा हूँ। मैंने उनकी बात काटते हुए कहा।
ये कवि हैं... कवि जीवनलाल वर्मा।
नहीं ! मैं इस नाम के किसी कवि को नहीं जानता। शिव-सर्वज्ञ सर्वज्ञता का विरुद त्यागकर बोल रहे थे। ओम ! जब तुम पूछ रहे हो तो निश्चित ही ये कमाल के कवि होंगे। वैसे तुम्हें तो मालूम ही है, मुझे कवियों से बड़ा ख़ौफ़ रहता है। अंचल जी, रामविलासजी, कृष्णकांत निलोसे इन सबको मैंने बहुत-बहुत झेला है, रात-रातभर।
ओम तुम्हें याद होगा। एक बार तुम अपने किसी दोस्त को लेकर मेरे यहाँ आये थे और परिचय में तुमने बतलाया था कि ये कवि हैं। मैंने औपचारिकता में उनसे कुछ सुनाने को कहा तो वो गाने लगे। तुम्हें याद है ना? हाँ... हाँ, वे विनोद मंडलोई थे।
मुझे लगा कि अगली कविता सुनाने के लिए ये हारमोनियम तबले की डिमाण्ड न कर बैठे।
एऽय बॉसोन्ती! तोमार बाड़ तोबला आछे। और दुखियारी बसन्ती रथिजीत भट्टाचार्य को नको कहकर चली जाती है।
तभी, दोनों ओर से उठी हुई ठहाको की अनुगूँज इन्दौर-भोपाल के मध्य व्यापती हुई शून्य में विलीन हो जाती है। और फिर पुनः शुक्लाजी का पुर-खरज स्वर सुनायी देता है।
ओम तुम्हें मालूम है, ये गली चौराहो पर मंच लगाकर कवि सम्मेलन एवं मुशायरों की परम्परा सिर्फ़ हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में ही है। दुनिया में ऐसा और कहीं नहीं होता।
कविता इतनी बाजारू नहीं है। वह तो पत्नी जितनी अन्तरंग है, उसे तो बेडरूम में पलंग पर लेटकर एकान्त में प्रेयसी की तरह सेवन करना चाहिये।
वैसे तुम्हें बता दूँ कि कविता सुनाने का यह हिन्दुस्तानी तरीक़ा, भई मुझे तो क़तई पसन्द नहीं है... कविता से ही चिढ़ हो गई... ओह सॉरी, कविता से नहीं कवियों से। मैं दूसरों की कविता खुद पढ़ता हूँ और अपनी कविताएँ दूसरों को पढ़वाता हूँ।
सुनता सुनाता तो क़तई नहीं। वैसे तुम्हारी उदर पीड़ा को समझते हुए तुम्हें इजाजत है कि जीवनलाल वर्मा की कोई कविता तुम सुना सकते हो। बशर्त बराए मेहरबानी बस छोटी हो।
जी... आलम-पनाह ! बस दो रक़ात-
कागभुशुण्डि गरुड़ से बोले, आओ कुछ लड़ जाऐं, चोंचें।
चलो किसी मन्दिर के अन्दर प्रतिमा का सिन्दूर खरोंचें।।
वाक़ई खूब कही। वे बोले, आगे कहो
अरे हुजूर! कहे तो शेर जाते हैं, यह तो कविता है, श्रीमान।
ठीक है... ठीक है, आगे बढ़ो। हँसी के स्वर फूटते है। आगे तो आपको जानना है श्रीमान और इस नाचीज़ बन्दे को भी जानना है कि ये जीवनलाल वर्मा कौन है? आपने तो अनेकों बार अंचलजी को चोंच लड़ाते और परसाईजी को सिन्दूर खुरचते बहुत ही नजदीक से देखा होगा, नहीं तो सुना तो होगा ही। हो सकता है उसी गिरोह से इस कवि जीवनलाल वर्मा का भी पास नहीं तो दूर का ही सही कुछ जायज़ या नाजायज़ रिश्ता रहा हो। याद कीजिये, अपनी स्मृति पर ज़ोर डालिये, शायद कोई भूला-सा याद आ जाये।
हाँऽऽ... वैसे हमारे कॉलेज में जीवनलाल नाम का एक चपरासी तो था।... मगर उसमें ऐसी कोई सम्भावना नहीं थी कि कविता का कौतुक खिले।... एक काम करते हैं मैं नेट पर सर्च करूँगा और हो सका तो उदयन, ध्रुव से भी पूछकर तुम्हें बताता हूँ।... और सुनाओ राजेन्द्र, प्रहलाद के क्या हाल है? मिलते हैं...
प्रहलाद तिवारी तो अक्सर मिलते रहते हैं। महीने बीस दिन में अक्सर मुलाकात हो ही जाती है। मैंने उन्हें बताया कि अभी-अभी उनके दो नये उपन्यास मार्केट में आये हैं। महाभारत की पृष्ठभूमि पर है। ‘कौरवराज दुर्योधन’ और ‘अट्ठारह दिन’ की प्रति देने घर आये थे। और राजेन्द्र मिश्र से मिले तो वाकई में मुझे भी बहुत दिन हो गये हैं। हो सकता है आज ही मैं उनसे मिलुँगा। ठीक रखता हूँ।
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मैं कल्पना करता हूँ कि कवि जीवनलाल वर्मा कैसे रहे होंगे। धोती पहनते थे कि पाजामा या पतलून। गरुड़ की तरह गोरे रहे होंगे कि कागभुशुण्डि की तरह काले।
अगर उनके जीवन पर कल्पित रूप में ही सही फ़िल्म की स्क्रिप्ट लिखने का मौका मिले तो निश्चित ही उनके कार्यक्षेत्र की लोकेशन उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश ही तय करूँगा। न जाने क्यूँ, किस टेलीपेथी के आधार पर मेरा मन उन्हें इन्हीं प्रदेशों से सम्बन्धित करने की प्रेरणा दे रहा था और इनके कांग्रेसी या कम्युनिस्ट होने से इन्कार करता हुआ इन्हें लोहिया एवं जयप्रकाश नारायण का अघोषित झण्डाबरदार घोषित कर रहा था।
राजनारायण के अखाड़े में दण्ड पेलते जीवनलाल के पास डाकिया ख्वाजा अहमद अब्बास का पत्र लेकर आता है, जिसमें उन्हें आर.के. बेनर में बतर्जे शैलेन्द्र गीत लिखने का ऑफर और ऑफर को स्वीकारने हेतु सरदार जाफरी का अनुशंसात्मक निवेदन होता है।
कवि जीवनलाल पत्रोत्तर प्रतिक्रिया में धाँसू डायलॉग बोलने के लिये गला खँखार ही रहे होते हैं कि... अचानक मेरे मोबाईल की घण्टी बजने लगती है। देखा तो अखिलेश का फ़ोन था।
हाँ... ओम! उसका स्वर गूँजा। बोल...
फ़ोन क्यों नहीं उठा रहा था।
असल में मैं दूसरे कमरे में लगेज पेक कर रहा था, घण्टी नहीं सुन पाया। अभी जब तेरा मिसकॉल दिखा तो...
तू है कहाँ! क्या कहीं जा रहा है
अभी मैं बॉम्बे में हूँ। दो घण्टे बाद मेरी फ़्लाईट है। मैं क़तर जा रहा हूँ, बाबा (एम.एफ. हुसैन) के पास। मक़बूल की कुछ कॉपियों पर उनके ऑटोग्राफ़ लेना है।
वापस, कब तक लौटने की सम्भावना है?
वहाँ से अगर पेरिस नहीं गया तो अगले मंगलवार तक भोपाल पहुँच जाऊँगा।... हाँ तू बोल कैसे फ़ोन किया था।
कागभुशुण्डि गरुड़ से बोले, आओ कुछ लड़ जाएँ चोंचें।
चलो किसी मन्दिर के अन्दर, प्रतिमा का सिन्दूर खरोंचें।।
यह तूने लिखा?
नहीं। कोई कवि है जीवनलाल वर्मा। असल में मेरी प्राब्लम ये है कि इनकी इस दो लाईन की कविता और दो शब्दों के नाम के अलावा इनके बारे में हाल-फिलहाल मैं कुछ नहीं जानता। मैंने तुम्हें इसलिये फ़ोन किया कि कवि जीवनलाल वर्मा के बारे में और जो कुछ समथिंग-समथिंग हो उसे जानने में तुम मेरी मदद करो।
वैसे इसी उद्देश्य से मैंने डॉ. शुक्ला से सम्पर्क कर कहा था कि आपने अंचलजी को चोंचे लड़ाते और परसाईजी को सिन्दूर खुरचते अनेकों बार देखा होगा। हो सकता है उनके जबलपुर की इस मित्र-मण्डली से जीवनलाल वर्मा का भी जायज़-नाजायज़ रूप से पास या दूर का कोई सम्बन्ध रहा हो।
शुक्लाजी का जहाँ तक खयाल है उस मित्र-मण्डली में कवि जीवनलाल वर्मा नामक कोई प्राणी नहीं था। बल्कि वे यह नाम ही पहली बार सुन रहे है। वैसे उन्होंने मुझे आश्वस्त किया है कि वे नेट पर ढूँढेंगे और उदयन, ध्रुव के पूछकर बतायेंगे। ओम, सुनो! उदयन, ध्रुव को छोड़ों और तुम तो वागीशजी से बात करो। तुम्हारे पास ‘विशेष’ की प्रति है उस पर वागीशजी का मोबाईल नम्बर लिखा है। अगले हफ्ते मिलते हैं। तुम भोपाल आ जाना, सम्भवतः भारत भवन के ‘वागर्थ’ में भी इस जीवन के चिह्न मिल सकते हैं। लेकिन वहाँ भी मदन (सोनी) के भरोसे न रहकर तुम्हें ही ढूँढना होगा... और हाँ एक मिनिट होल्ड करो... ये वागीशजी का नम्बर लिखो। ...वैसे मुझे मालूम है तुम साले वागीश जी को फ़ोन नहीं करोगे। ठीक... फिर मिलते हैं।
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और गतान्तोद्गत्वा अन्ततः आषाढ़स्य प्रथम दिवसे एक दिन,
डॉ. राजेन्द्र मिश्र डी लिट (साहित्य चिकित्सक) के द्वार देशस्थिति, नारिकुचाग्रचंचु स्वरूपा डोरबेल को मेरी तर्जनी ने माईकल ऐन्जिलो के ‘बर्थ ऑफ ह्यूमन’ का पोज़ देते हुए स्पर्श कर दिया। मिश्रजी के ईडन-गार्डन में संगीत की स्वर-लहरियाँ फूट पड़ी।
प्रथमतः प्रथम प्रसूत महामानव ने डोर-होल से मुझे आँख मारी और फिर विमान परिचारिका की सी मधुर मुस्कान के साथ द्वार-कपाट खोल मदिर-मादक-मुस्कान के साथ पुकार उठे-
कहाँ हो... आओ। कहकर सर्वस्व अर्पिता नायिका की तरह दोनों भुज-मृणाल उठा दिये-
इस तरह कुछ हो गया है प्राण का आलम,
बिन बजाये बज रही है, साँस की सरगम।
टूटना मुमकिन नहीं है, प्यार का बन्धन,
हर समय तुमको बहुत ही पास पाता हूँ,
याद रखने को तुम्हें खुद को भुलाता हूँ।।
पता नहीं कब! उनके बाहु-पाश से मुक्त हो मैं उन्मुक्त सा सोफ़े पर जा धँसा। और एक टक उन्हें निहारते हुए पूछ बैठा, क्या, कहीं जा रहे हो?
जा नहीं, आ रहे हैं। उन्होंने टी.वी. में साबुन का विज्ञापन करने वाले मॉडल सा इतराते हुए कहा और खिल-खिलाकर हँस पड़े और कहो क्या हाल है? बहुत दिनों बाद दिख रहे हो।
कभी कभार आ जाया करो। वैसे तिवारी जी से तुम्हारी जानकारियाँ मिलती रहती है। तिवारीजी बतला रहे थे तुमने खिलौनों की दुकान डाल ली। यह तुमने बहुत अच्छा किया।
हाँ! दुकान डाले तो सात-आठ महिने हो गए। मैं बोला अब तो आप सुनाओ कि आप कैसे हैं।
अपना क्या है, डॉक्टर! हम एक अजीब-सी उम्र से बन्ध गये हैं। बस रिटायर्ड हो गये है। चश्में से छनकर आती हुई उनकी नटखट मुस्कराहट अंगड़ाई लेने लगी।
बालक होते तो जो हम में होता, उसमें हम होते। यौवन में किस को रोते? क्योंकि उस समय हम होते और कोई नहीं होता था और अब जब हम वृद्ध होते हैं, तब सब कुछ खोते हैं, क्योंकि अब सब कुछ होता है, केवल हम नहीं होते। वे बड़े ही दार्शनिक अंदाज़ में कहे जा रहे थे। उम्र का यही निरोध है फिर अचानक खिलखिलाकर हँस पड़े।
फॉरेन हो आये। कविता-संग्रह तो पहले ही कई निकल चुके हैं, एक उपन्यास ‘छायाचित्र’ भी छप चुका। बच्चे सेटल्ड हैं। गोया सीनियर सिटीज़न का तमगा... एक आम हिन्दुस्तानी मुहावरा बक़ौल बाबा नागार्जुन। बस गंगा नहा लिये और वाक़ई में वे एक तृप्त-डकार नुमा अंगड़ाई लेते हुए बाबा नागार्जुन की तरह अपनी दाढ़ी खुजलाने लगे। और कहो! तुम्हारे क्या हाल है, क्रिऐशन कैसा चल रहा है?
ठीक-ठाक ही है। वैसे उल्लेखनीय कुछ भी नहीं, सिर्फ़ पठन-पाठन। इसके आगे कि वे कुछ प्रतिक्रिया देते उससे पहले मैंने अपनी जीवनलाल वर्मा वाली समस्या रख दी।
वे एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुनि आध मुझे हैरत-ओ-ताज्जुब से देखते रहे फिर प्रतिप्रश्न कर बैठे। तुम क्यों जानना चाहते हो कि जीवनलाल वर्मा कौन है?
मुझे इनकी लिखी सिर्फ़ दो लाईने ही मिली है, मैं इनकी और रचनाएँ भी पढ़ना चाहता हूँ। अपने कथन को और भी मज़बूती प्रदान करते हुए मैं बोला- रचना पसन्द होने पर पाठक की रचयिता के प्रति जिज्ञासा होना तो स्वाभाविक है।
तो क्या इतना काफ़ी नहीं है कि वह एक कवि था और उसने अपने सम्पूर्ण जीवन में सिर्फ़ यही दो लाईने लिखी हो... या यह भी हो सकता है कि किसी दबाव में या स्वप्रेरणा से शेष रचनाओं को लेखक ने स्वयं ही नष्ट कर दिया हो।
कौन सा दबाव! मैं चौंकता हूँ... स्वप्रेरणा? हाँ होता है, धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक कुछ भी दबाव हो सकता है। इन अलग-अलग कोणों में सबके अपने कोण है, अनेक शब्द एक ही अर्थ देते हैं। अतीत में अनेकों बार ऐसा हुआ है जिनका...
मिश्रजी की घन-गम्भीर वाणी, बाहर तेज बरसते पानी से जुगलबन्दी कर रही थी।
गौ घाट की ऊपरी सीढ़ियों से मैं देख रहा था- यमुना का प्रवाहमान संवेग। तभी...
काक पक्ष का जूड़ा बाँधे, खोर का तिलक लगाये पच्चीस-छब्बीस साल का एक विषण्णमुख नवयुवक यमुना के बीच नाभि तक जल में खड़ा कुछ पाण्डुलिपि के पन्नों को एक-एक कर यमुना के पानी में प्रवाहित कर रहा था। और दूर तक बहते हुए पन्नों को अपनी डब-डबाई आँखों से देर तक देखता रहा। फिर अगले क्षण, उसने एक ही बार में पाण्डुलिपि के सारे पन्नों को पानी में गहरे डुबो कर छोड़ दिया।
भक्ति-पुष्प शतदल पुण्डरीक सा बिखर गया। तभी घाट पर खड़ी भीड़ का जयघोष गूँज उठा।
बोलो- कृष्ण कन्हैया लाल की जय
धन्य हो महाराज! आपने किरपा-करिके हम ब्राह्मनन की वृत्ति बचाय दीनि।
नन्ददास! विट्ठलनाथ जी का स्वर गूँज उठा।
या तो तेने उचित ही कीनो, जो भाषा-भागवत इन ब्राह्मनन के सम्मुख ही श्रीजमुनाजी में पधराय दीनि। याते इनकी जीविका रे गई, अरू इनकी व्यावृत्ति की पुष्टि को संकट भी नष्ट व्है गयो।... अरे तू तो श्रीनाथजी की ड्योढ़ी को नाथ, ठोढ़ी को हीरो है।
मैं अवाक सा देखता हूँ। भीड़ में पुनः कृष्ण कन्हैया लाल का जयकारा गूँजता है। नन्ददास सीकरी चला गया... यमुना अब भी अपने उत्ताल प्रवाह के साथ बह रही है। तभी चाय की प्याली की आहट से मेरी तन्द्रा टूटती है। मिश्रजी कहे जा रहे थे। सब क्रियाएँ अलग-अलग आयाम में एक ही प्रक्रिया का अंग है, या एक ही प्रक्रिया के अलग-अलग आयाम अनेक क्रियाओं को जन्म देते हैं। अन्तर क्रिया की व्याख्या का है, प्रक्रिया व्याख्यातीत है। जो है उसी क्षण अतीत है। अर्थात् जीवनलाल वर्मा एक अस्तित्वहीन कल्पना है? जिसका कभी कोई अतीत न था। मैंने चाय की चुस्की लेते हुए पूछ लिया।
नहीं... नहीं! वे बोले- जिनका कोई इतिहास नहीं बनता, उनका वर्तमान भी तो रहा ही होगा।
तो क्या समकालीन कविता में कवि के संघर्ष और मनोस्थिति की अभिव्यक्ति नहीं होती?
कम-से-कम उनकी कविता के अर्थ द्वारा, हम उनकी राजनैतिक, सामाजिक निष्ठाओं का पता तो लगा ही सकते हैं कि वे कम्युनिस्ट थे कि सोशलिस्ट...
राजेन्द्र मिश्र अवाक, कारुण्य दृष्टि से कुछ देर मुझे घूरते रहे फिर गुरु गम्भीर संयत स्वरों में बोले- ओम भाई! कहीं ऐसा न हो कि इस अर्थ के चक्कर में तुम जाने-अनजाने लोगों को अपना दुश्मन बना बैठो। फिर अपनी बात को और भी स्पष्ट करते हुए वे कहने लगे।
कला में एक वस्तु के अनेक अर्थ निकलते हैं। जहाँ शुक्ल पक्ष की द्युति-धवल चाँदनी है वहीं कृष्ण पक्ष का अंधियारा। एक ही बिम्ब में गरुड़ की शुभ्रता और कागभुशुण्डि का तमसाविल दोनों है।
अब यह कि आलोचक तुम्हें किस दृष्टि से देखता है, यह उसकी नियत पर निर्भर करता है। तुम नायक हो कि खलनायक यह तुम्हारे प्रति उसकी मानसिकता पर निर्भर है। वह तुम्हारा दोस्त है तो तुम हीरो और दुश्मन है तो तुम्हें ज़ीरो सिद्ध करेगा।
इसलिये! सत्ता को सलाम करो, ईश्वर को मानो और आदमी से डरो। याद रखो लोग रोज हत्या से ज़्यादा आत्महत्या कर रहे हैं। फिर मुस्कुराते हुए कहने लगे- ओम भाई! इस जीवन का केवल एक ही अर्थ है, अनर्थ से बचो।
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रातभर से रह-रहकर बरसता पानी अब जाकर थमा था, मगर बादलों ने अपना मोर्चा नहीं छोड़ा था। खुशगवार मौसम की मादक मस्तियों का मज़ा लेता हुआ तस्सवुरे जाना के साथ मैं घर की छत पर बैठा सुहाने मौसम में बादलों की अठखेलियाँ देख रहा था।
रूद्र के उद्दण्ड पुत्र मरुतों के उन्चास खानदानों में से पता नहीं किन-किन की सन्ताने उच्छृंखल क्रीड़ा विनोद करती हुई, आकाश में धमाचौकड़ी मचा रही थी। जिसके कारण आम्रकूट पर आपानक रचाने की इच्छा से जाने को आतुर हुए देवगणों के गगनचारी विमान एअरट्राफ़िक के जाम में फँसकर आपस में ही गुथ्थम-गुथ्था हो रहे थे।
ठीक उसी वक्त भूतलीय पथों की अवरुद्ध-अर्गला-अवरोधो के मकड़जाल को तोड़ते हुए प्रो. प्रहलाद तिवारी का प्राकट्य पदार्पण हो गया।
भये प्रगट कृपाला, दीनदयाल।
आओ दासाब!... अबकी दफे तो नरा दन में चक्कर लग्यो। होठों से मालवी मिठास टपकने लगी।
आजकल अँई सीटी आड़ी आनो कम होय। पड़ोस में कुर्सी पर बैठते हुए वे बतलाने लगे। एक तो घर दूर हुई गयो। घर से कॉलेज अने कॉलेज से घर। इकामेज दन पूरो हुई जाय। फिर दूसरी बात या की आजकल भीड़ अने ट्राफिक कूँ देखता अब इनी ऊमर में स्कूटर चलाने की हिम्मत बी नी होय। वैसे कदी सदी अँई सेर (शहर) आड़ी आनो होय तो सबसे मिली-जुली लाँ, ओर कई चलीरियो हे!
मैंने बग़ैर किसी भूमिका के उनके सामने कवि जीवनलाल वाली समस्या रख दी और समाधान की प्रत्याशा लिये उनका मुख निहारने लगा।
तिवारीजी ने सिगरेट का एक लम्बा-सा कश खेंचा। फिर ढेर सारा धुँआ आकाश की ओर अपुष्ट मेघों को पुष्ट करने की पारमार्थिक भावना के साथ छोड़ दिया।
सत्य ही सज्जन पुरुषों की सदा से यही रीति रही है कि वे सदैव ही चाहे अनचाहे दूसरों का भला करने को हमेशा तत्पर रहते हैं।
वैसे तिवारीजी स्थानीय होल्कर कॉलेज में गणित के प्रोफेसर है। गणित की ही तरह उनका स्वभाव भी धीर-गम्भीर है। मेरी जीवनलाल वर्मा वाली समस्या को भी प्रमेय की तरह गणितीय गम्भीरता से सुना और बोले।
तिवारी उवाच- ओम भाई ये कवि जीवनलाल कम्युनिस्ट रहे हो या सोशलिस्ट इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। अभी तो हमें सिर्फ़ कविता पर बात करना चाहिए न कि कवि की राजनैतिक निष्ठा पर। यहाँ कविता को पोस्ट-मार्टम करने की बजाए काव्य प्रतीकों के विमर्श की आवश्यकता है।
मैं। क्योंकि गरुड़ और कौआ दोनों ही चोंचलिस्टों की तरह चोंचे लड़ाने की बात कर रहे हैं।
तिवारीजी मुस्कुराकर! हाँ, यह भी हो सकता है। मगर फिर भी हर चीज राजनैतिक चश्मे से नहीं देखी जानी चाहिये। इस बिम्ब को यों समझे कि गरुड़ जहाँ धवलता, शुचिता एवं श्रेष्ठता का प्रतीक है तो वहीं कौआ कालिमा, सतर्कता, चपलता और धूर्तता का प्रतीक है अर्थात् अच्छाई और बुराई। इसी ब्लेक एण्ड व्हाईट जो कि रात और दिन है, जिसका संधि काल (सायं-प्रातः) की सिन्दूरी लालिमा ही क्रान्ति बेला है। अर्थात परिवर्तन का समय।
अक्सर देखने में आता है कि सुबह-शाम के इन्हीं क्षणों में पक्षी सबसे ज्यादा चंचल होकर शोर मचाते हुए कलरव करते हैं। अर्थात यह परिवर्तन के स्वागत की उत्तेजना है। अब दूसरी बात चूँकि सहज परिवर्तन की गति मन्द होने से उसे तीव्रता प्रदान करने की क्रिया को क्रान्ति कहते हैं। तो इसका तात्पर्य यही हुआ कि एक धूर्त कौआ भोले-भाले गरुड़ को क्रान्तिरूपी षडयन्त्र के लिए उत्प्रेरित कर अपनी साजिश में शामिल करना चाहता है।
नहीं... नहीं! तिवारीजी सिगरेट की राख झाड़ते हुए बोले। एकदम इस तरह निष्कर्ष पर पहुँचना जल्दबाज़ी होगी।
गरुड़ और कौआ दोनों ही नभचर प्राणी है अर्थात खग चूँकि आकाश बोधी ‘ख’ शून्य का प्रतीक होने से हम इन्हें शून्याचारी यानी शून्य में विचरण करनेवाला कहते हैं। मगर यहाँ ध्यान रहे कि यह शून्य यहाँ बौद्धो वाला नहीं है, क्योंकि कवि ने कौवे लिये काग, बायस आदि नामों का उपयोग न करते हुए कागभुशुण्डि शब्द का उपयोग किया है जो इंडियन मायथोलॉजी का आदर्श पौराणिक पात्र है। अतः यहाँ यह शून्य, अद्वैत दर्शन का ब्रह्म है। अब कविता का अर्थ स्वतः स्पष्ट है कि यह दो क्रान्तदर्शो मनीषियों की मन्त्रणा है जो अनुकूल समय की सिद्धि हेतु काल का अतिक्रमण करना चाहती है।
यानी कि इसको एकसूत्र वाक्य में कहें तो अथातो ब्रह्म जिज्ञासा।
क्या बात है। आपने तो कविता को एक नया आयाम दे दिया। मगर, दासाब! मन्दिर...
मन्दिर का अर्थ देवालय के अलावा पवर्त-पहाड़ भी होता है। यानी कि वे पुण्य-पवित्र स्थान जो धार्मिक आध्यात्मिक चेतनाओं की गतिविधियों को अनुकूल वातावरण प्रदान करे।
वाह! अब कवि के बारे में भी कुछ जानकारी...
यार ओम भाई! मुझे तो इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। तुम मिश्रजी से मिलो। वही तुम्हारी मदद कर पाएँगे। मैं मिला था।... मुझे लगता है वे टाल गए। कह रहे थे तुम इस प्रपंच में मत पड़ो, उलझ जाओगे। बैठे बिठाये लोगों को अपना दुश्मन बना लोगे। ऐसा क्या है इसमें?
यह तो मिश्रजी ही बता सकते हैं। तिवारीजी कह रहे थे- मगर वे जब ऐसा कह रहे हैं तो कुछ तो होगा ही। वे काफी अनुभवी है और प्रेक्टिकल भी। वे राजनीति का साहित्य और साहित्य की राजनीति दोनों को ही अच्छी तरह गहराई से समझते हैं।
तिवारीजी ने एक नई सिगरेट जला कर तीली को फूँक मारकर बुझाते हुए कहने लगे-
वैसे आजकल का दौर बहुत ही घटिया है। किसी भी फ़ील्ड को लो खेलकूद, कला, संगीत हर क्षेत्र में राजनीति घुसी हुई है और टेलेन्ट गु्रपिज्म का शिकार होकर नष्ट हो जाते हैं और उसमें भी हिन्दी साहित्य की स्थिति तो दयनीय होकर निकृष्टतम हालात में है।
आज हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में दादागिरी, गुण्डागर्दी, चोरी, सीनाज़ोरी, राजनीति, दलाली अपने टुच्चे स्तर पर दिखायी देती है। नये लेखकों को छोड़ो बल्कि बड़े-बड़े स्थापित लेखक तक इनके शिकार हो जाते हैं।
ओम भाई! तुम्हें मालूम है बेचन शर्मा उग्र की ‘चाकलेट’ के खिलाफ बनारसीदास चतुर्वेदी किस तरह लठ्ठ लेकर पिल पड़े थे और इस विवाद में गांधीजी तक को घसीट लाये थे।
खैर यह तो पुरानी बात है। हाल फ़िलहाल के लेटेस्ट उदाहरणों में हरिशंकर परसाई को ही लो, अपनी रचना धर्मिता के कारण दो बार पिट चुके हैं और आरोप लगा महिलाओं से छेड़खानी का।
साहित्य समाज का दर्पण है, यह जानते हुए भी मानते
इन बातों से डरा हुआ लेखक, सत्य को स्वीकारने का साहस खो चुका है। बल्कि अपने सुरक्षा-कवच की तरह रचना के साथ नोटनत्थी कर देता है कि इस रचना में वर्णित सभी पात्र एवं घटनाएँ कल्पित है, जिनका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति या व्यक्तियों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कोई सम्बन्ध नहीं है अगर हो भी तो उसे मात्र संयोग ही कहा जायेगा। जिसके लिए लेखक उत्तरदायी नहीं है।
ओम भाई! स्थिति इतनी बदतर है कि आपकी जानकारी के बग़ैर आपकी रचना कब, कहाँ, किस पत्रिका या अख़बार में किसी अन्य के नाम से छप जाये नहीं कह सकते। बल्कि दावा करने पर आप ख़ुद ही अपनी रचना के चोर कहे जाते हैं। साहित्य के ज्यादातर मुकदमें कॉपीराईट को लेकर ही चलते हैं।
मेरे एक दोस्त ने मुझे बतलाया था कि उनके किसी मित्र ने इंडियन आर्ट पर एक शोधपूर्ण किताब लिखी। छापने के लिये जहाँ कई प्रकाशकों ने हाथ ही नहीं धरने दिया तो कुछ प्रकाशक पुस्तक छापने के लिये राइर्टर से पैसे मांगने लगे। तब उन्होंने अपनी पाण्डुलिपि कल्चर विभाग के किसी आला अधिकारी को दिखायी, उन्होंने संस्कृति विभाग के माध्यम से छपवाने का आश्वासन देकर पाण्डुलिपि अपने पास रख ली। बाद में लेखक द्वारा बार-बार पूछने पर अण्डर प्रोसेस, प्रेस में होने का हवाला देकर टालते रहे। फिर डेढ़ दो साल बाद एकदिन लेखक ने किसी पुस्तक मेले में वही पुस्तक उन अधिकारी के नाम से छपी हुई देखी तो चौंक गए।
बाद में पूछने पर वे अधिकारी बड़ी ही ढीठ किस्म की निर्लज्जता से स्वीकारते हुए कहने लगे- हाँ यह तो हो गया है, अब क्या कर सकते हें। किताबें मार्केट में भी सर्कुलेट हो गई, वापस आने से तो रही। आप चाहो मेरे ऊपर कोर्ट में मुकदमा दायर कर दो या फिर इसे स्वीकारो और भूल जाओ, जो होना था वो तो हो गया। मजबूर करता भी क्या सो आठ हजार रुपये लेकर चुपचाप अपने घर बैठ गया।... आज वो बुक बेस्ट सेलर है।
फिर थोड़ी देर के डेडलॉक में क्षणिक मौन श्रृद्धांजलि के बाद तिवारीजी पुनः कहने लगे- आज साहित्यकार के लिए सिर्फ़ रचनाधर्मी होना ही पर्याप्त नहीं है। उसे स्वयं को सुरक्षित रखने के लिए किसी न किसी गुट से जुड़ना ही होगा। हालाँकि इसमें भी अन्तरकलह के साथ एक-दूसरे की धोती खींचना, टाँग खिंचाई होती रहती है, मगर फिर भी पुरस्कारों के लिए यही गुट आपकी अनुशंसा करता है, आपको वोट देता और दिलवाता है। वैसे तो पद और पुरस्कारों के लिए आजकल दलाल भी सक्रिय है प्रत्येक पुरस्कारों के भाव नियत है, बस पेमेंट करो और घर बैठे ही पुरस्कार प्राप्त कर लो।
मगर आर्थिक विपन्नतावश घोस्ट-राईटिंग को मजबूर लेखक के लिए इस सुविधा का कोई औचित्य नहीं है।
तभी तो आज कई बड़े तथाकथित साहित्यकार इन मजबूर लेखकों की मजबूरी का दोहन कर उनकी रचनाएँ खरीदकर उनके नाम का यश अपने नाम से छपवा लेते हैं। उनमें कईयों के भूत-लेखन के कारख़ाने चलते हैं। उनका यही धन्धा है बस फु़र्सत में रहते हैं और साहित्य की राजनीति करते हैं।
हाँ, यह सच है। मैं उन्हें बताने लगा कि मेरे फ़िल्म निर्देशक मित्र एस.एस. सोलंकी ने मुझे बताया था कि प्रसिद्ध संवाद लेखक पण्डित मुखराम शर्मा के यहाँ किस तरह फ़िल्म पटकथा लेखन की फ़ैक्टरी चलती थी, उन्होंने कई लेखकों अपने यहाँ तनखा पर रख रखा था। आप आधी रात को उठकर उनके यहाँ चले जाओ। धार्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, कॉमेडी, जासूसी जिस विषय पर चाहो उस विषय की पटकथा कहानी हाज़िर-स्टॉक में उनके नाम से तैयार मिल जाएगी।
वैसे इन साहित्यिक धाँधलियों की परम्परा को अतीत में देखें तो इसके सूत्र राजा भोज के समय से मिलते हैं।
कहते हैं कि राजा भोज के बजट में साहित्य के लिए काफी बड़ा फ़ण्ड निकलता था। पुरस्कार एवं पद की लालसा में दूर-दूर से आए हुए लेखकों, कवियों की भीड़ से धार नगरी भरी रहती थी। मगर पहले से ही दरबार में अपनी पैठ बना चुके पीठासीन धनपाल, परिमल, जैसे सीनियर कवि किसी नये कवि को दरबार में राजा तक पहुँचने ही नहीं देते थे, बल्कि पुरस्कारों की राशि आपस में ही अपने-अपने गुटों में मिल-बाँटकर हज़म कर जाते थे।
तो क्या राजा को मालूम नहीं पड़ता था?
सब मालूम होगा। आखिर यह सब उनकी नाक के नीचे ही तो हो रहा था। सामन्ती युग था।... दा साब!
राजा चाटुकारिता पसन्द करते थे। दरबारी कवियों में परिमल जिसे राजा ने स्वयं अभिनव कालिदास की उपाधि से नवाज़ा था कि सारी कविताएँ शुद्ध चाटुकारिता से भरी पड़ी है।
वैसे राजा खुद! स्वयं भूत-लेखन करवाते थे। सरस्वती कण्ठाभरण, समरांगण सूत्र, मनुस्मृति-टीका, चम्पू रामायण ये सब क्या है?
सोचने वाली बात है कि जो व्यक्ति जीवनभर अनेकों शत्रुओं के साथ निरन्तर सतत युद्धों में व्यस्त रहा हो, उसे वास्तुशास्त्र, व्याकरण, काव्य अश्वचिकित्सा, स्मृति आदि विभिन्न विषयों पर ग्रन्थ रचना का समय कब मिला होगा।
यहाँ ध्यान देने वाली बात यह भी है कि संस्कृत के पुराने प्राध्यापकों की किसी एक ही ग्रन्थ को पढ़ाने में विशेष मास्टरी होती थी। अर्थात जो शिक्षक वेणी संहार पढ़ाता था वह जीवनभर अपने शिष्यों को केवल वेणीसंहार ही पढ़ायेगा। याने कि वाक्पदीय पढ़ाने वाला शिक्षक अपने विद्यार्थी को नैषधीय चरित नहीं पढ़ा पाता था।
कहने का तात्पर्य यह कि जब पढ़ाने वाले का दायरा इतना सीमित हो तो कोई लेखक अपनी राजनैतिक व्यस्तताओं के बावजूद इतने धीर-गम्भीर अलग-अलग विषयों पर इतनी सारी पुस्तकें कैसे लिख सकता है। निश्चय ही ये पुस्तकें किन्हीं अन्य लेखकों की है जिनके यश का अपहरण हुआ है।
अतः यह स्वतः सिद्ध है कि इन कृतियों को मूल लेखक से खरीदा गया होगा जिसके लिए सौदेबाज़ी भी हुई होगी। भाव-ताव हुए होंगे और सौदा न पटते देख मूल लेखक ने बार्गेनिंग करते हुए आख़िरी बार भी कहा होगा-
हे साहसांक! कवयामि वयामि यामि।
वैसे यह सब भाग्य का ही खेल है। तिवारी जी कहने लगे- भाग्यं फलन्ति सर्वत्रं, न च विद्या, न कौशलं।
हाँ, दासाब!... ऐसा नहीं कि सब शोषण ही होता था। भाग्यशालियों की सफलता के उदाहरण भी मिलते हैं जैसे कवि भर्तुमेण्ठ। ये महावत थे। बाद में महावतगिरि छोड़ कविता करने लगे और सफल कवि कहलाये।
वहीं वेद व्यास को कहना पड़ा था कि मेरी तो कोई सुनता ही नहीं। मैं कब से हाथ उठाये पुकार रहा हूँ। तो कालिदास कहते थे कि पुराना होने से ही सब कुछ श्रेष्ठ नहीं हो जाता। नये को भी देखो।
भवभूति तो इसी उम्मीद में लिखते और जीते रहे कि मुझे समझने वाले आज नहीं तो कल पैदा होंगे।
साहित्यकारों के साथ यह विडम्बना ही रही।
6
मिश्र बन्धु विनोद से लेकर रामनरेश त्रिपाठी की कविता-कौमुदी के चारो खण्ड खखेर लिए। विगत दिवंगत कवियों के क़ब्रिस्तान में भी जीवन का कोई सुराग़ न था।
वाक़ई में श्रीयुत जीवनलाल वर्मा ने मेरी बेचैनी बड़ा दी थी। उत्कण्ठित उत्कण्ठा से तारसप्तक के तारों को झनझनाता उर्ध्वमुख जमीन सूंघती हवाओं में उनके चरण चिह्न खोजता, पूछत चला लता तरु पाती।
तभी इत्तिफ़ाक़ की फ़ाक़ के फ़ोकस में प्रकाश शुक्ल का श्वेत-आलोक उदित हो गया।
तुम मैच नहीं देख रहे हो! कमरे में घुसते ही वे कहने लगे। बड़ा इन्ट्रेस्टिंग मैच चल रहा है। टी.वी. रिमोट हाथ में लेकर-
ये टी.वी. क्यों नहीं चल रहा है?
लाईट नहीं है।
हमारे यहाँ भी नहीं है। रिमोट रखकर अख़बार उठाते हुए वे बोले- बारिश में मेन्टेनेन्स के नाम पर सुबह से ही पॉवर कट है...
सारा संडे खराब कर दिया।
जीवनलाल वर्मा को जानते हो? मैंने टॉपिक बदलते हुए पूछा।
सब दारू में ख़त्म हो गये।
कौन! आप किसकी बात कर रहे हो?
तूने अभी जीवनलाल वर्मा बोला था ना! हाँ मैं उसी की बात कर रहा हूँ। अपने अखाड़े का ही था।
कल्याण मिल में मुकादम था... साल खाते में।
अच्छी रियाज़ थी... गजब की लकड़ी चलाता था। चारों तरफ से मशीनगन से गोलियाँ भी चलायी जाये... लकड़ी से ऐसी फिरकी घुमाता कि बदन पे जरा खरोंच तो आ जाये।... तूने तो देखा होगा! अहिल्या उत्सव में अपने अखाड़े में बनेटी... ग़जब की फुर्ती... सब ख़त्म हो गये दारू में... छोटा रिक्शा चलाता है... वो भी बाप जैसा... बर्बाद है दारू-दंगड़ में।
भिया! मैं कवि जीवनलाल वर्मा की बात...
हाँ, हाँ ये भी पहले रामदंगल ही गाया करता था। बाद में अपने ब्रह्मचारी बाबा के साथ चन्दूज्ञानी की पार्टी में क़व्वाली गाने लगा।... उसी सोहबत में वहीं से बिगड़े। नहीं तो पहले इधर तोड़े पर रहता था, सुबह चार बजे अपने अखाड़े पर आ जाता था, रोजाना सौ दण्ड दो सौ बैठक लगाता और फावड़ा लेकर अखाड़ा खोदता था फिर वहीं कुएँ पर नहा धोकर पोने सात की सीटी के साथ मिल चला जाता।
शाम को मिल से लौटते वक्त फिर अखाड़े आ जाता। अक्सर पिताजी के साथ चाय पीता था।... हमारे दादा तो उसे हीरा कहते थे... असली हीरा।
अभी एक दिन कोर्ट में मिल गया था। बोल रहा था- बब्बू भिया! नगर-निगम से पेन्शन दिलवा दो... छोरा तो पूछता ही नहीं... बता रहा था बाणगंगा तरफ कहीं रहता है।
भैय्या! ये वो नहीं है। मैं कवि जीवनलाल वर्मा की बात कर रहा हूँ। और जहाँ तक मेरा ख़याल है कि ये यूपी. बिहार या मध्यप्रदेश में से कहीं के हो सकते हैं।
हो सकता है। वे बोले- मगर इन्दौर भी तो मध्यप्रदेश में ही आता है।
हाँ! पर मुझे नहीं लगता कि वे इन्दौर के होंगे।
होगा!... वैसे क्या खास बात है इनमें?
मैं... कागभुशुण्डि गरुड़ से बोले, आओ कुछ लड़ जाएं चोंचें।
चलो किसी मन्दिर के अन्दर, प्रतिमा का सिन्दूर खरोंचें।।
अच्छा व्यंग है। आज के राजनैतिक पाखण्ड पर।...
किसकी कविता है?
जीवनलाल वर्मा की।
तुमने कहाँ पढ़ी?
पढ़ी नहीं, सुनी है। मेरे मित्र से। असल में भिया! मैं इस कवि और उसकी अन्य रचनाओं के बारे में और भी कुछ जानना चाहता हूँ। इसलिए आपसे जीवनलाल वर्मा के बारे में पूछ रहा था कि शायद आपको कुछ मालूम हो। हाँ, पर ये वो जीवन नहीं हो सकता। फिर से बोल तो पता करते हैं। वहाँ कॉफ़ी हाऊस पर बहुत से पत्रकार, साहित्यकार आते हैं।
भैया! कागज पर कविता लिखकर पुर्ज़ा जेब में रखते हुए कहने लगे-
तुमसे कितनी बार कहा कि शाम को वहाँ कॉफ़ी-हाऊस आया करो। एक से एक लोग आते हैं, सम्पर्क बनता है। तुम्हारा टेलेन्ट लोगों को पता तो चले वरना जंगल में मोर नाचा, किसने देखा!
तुम लोग अपनी ज़िन्दगी इसी घर-गिरस्ती के चक्कर में ही ख़तम कर लोगे। कुएँ के मेंढ़क की तरह... एक तुम और वो दूसरे हमारे दिनेश। इतना टेलेन्ट होते हुए भी बस... भांग खाकर पड़े रहते हैं।
उस दिन ज़ाकिर (हुसैन) घर आया तो इनको देखकर अल्लाह, अल्लाह... करने लगा।
ज़ाकिर कई बार ऑफर दे चुका था। बम्बई, कलकत्ता, अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्ऱांस में उसकी तबले की क्लासें चलती है।... कहीं भी रहते नाम और पैसा दोनों मिलता...
वो फूल सर चढ़ा, जो चमन से निकल गया।
इज़्ज़त उसे मिली, जो वतन से निकल गया।।
मैंने तो अब कहना ही छोड़ दिया। पर क्या करें साला मन नहीं मानता।
तुमसे भी कितनी बार कहा कि सुबह जल्दी उठा करो। उठकर थोड़ा योग किया करो ताकि चित्त में स्थिरता आये। हमारे गुरु ‘शिवोऽम तीर्थ’ की एक पुस्तक दूँगा तुम्हें ‘शक्तिपात रहस्य’ पढ़ना। अभी मुन्ना पढ़ रहा है कि किस तरह मन को कंट्रोल किया जाता है। इतना टेलेन्ट होते हुए भी तुम लोग कुछ नहीं कर पाएँ।
ये सब पूर्व जन्मों के कर्मों के अवरोध है। ये अवरोध गुरुकृपा से ही कटते हैं। तुम्हारे गुरु कौन है? कृष्णं वन्दे जगद्गुरु
ठीक है, पर उस परमगुरु तक पहुँचने के लिए भी तो गुरु की आवश्यकता होती है। सिर्फ़ किताबी ज्ञान से उसे नहीं पाया जा सकता है। सबसे पहले तुम गुरु बनाओ।
गुरु बिना गति नहीं और गति में ही प्रगति है। फिर भैया को अचानक कुछ याद आया और विषयान्तर करते हुए बोले- चलो अमरनाथ! अगले हफ़्ते हम जा रहे हैं। तुम दोनों का भी रिज़र्वेशन करवा देता हूँ, चलो अभी कहाँ, फिर कभी देखेंगे। मैंने कहा।
अभी नहीं तो कभी नहीं। वे कहने लगे। अभी हाथ-पाँव चल रहे हैं, तो भ्रमण करो।
घर गृहस्थी से तो कभी फु़र्सत नहीं मिलेगी।
इसे छोड़ोगे तभी छूटेगी।