अनासक्ति और सत्याग्रह का मूर्त रूप
06-Jun-2020 12:00 AM 1419
जैनेंद्र कुमार हिंदी के विशिष्ट, श्रेष्ठ एवं सहज लेखक थे | हिंदी संसार में व्यापक तौर पर जो परंपरा से अलग रहने की स्थिति है और रूढ़ एवं संकीर्ण किस्म की "प्रगतिशीलता" का एक समय में जो वर्चस्व रहा है उस के कारण संभवतः जैनेंद्र कुमार जैसे लेखक नेपथ्य में चले गए | भारत और दुनिया के श्रेष्ठ चित्रकार सैयद हैदर रज़ा के प्रयत्नों से बना रज़ा फाउंडेशन रज़ा पुस्तकमाला के अंतर्गत हिंदी के श्रेष्ठ लेखकों एवं कलाकारों की जीवनियाँ लगातार प्रकाशित कर रहा है | हिंदी साहित्य में लेखकों की जीवनी लिखने का काम बहुत कम हुआ है | ले.दे कर अमृत राय की लिखी प्रेमचंद की जीवनी "कलम का सिपाही", रामविलास शर्मा द्वारा लिखित "निराला की साहित्य.साधना" का पहला भाग जिस में निराला की जीवनी है और विष्णु प्रभाकर द्वारा लिखित शरतचंद्र चटर्जी की जीवनी "आवारा मसीहा" ही ध्यान में आती हैं | रज़ा पुस्तकमाला के अंतर्गत हिंदी के आलोचक और कला विषयों पर भी समान अधिकार से लिखने वाले ज्योतिष जोशी ने जैनेंद्र कुमार की जीवनी "अनासक्त आस्तिक" लिखी है | निश्चय ही इस से हिंदी के एक गहरे अभाव की पूर्ति हुई है |

किसी भी लेखक की जीवनी से जुड़ा सब से पहला सवाल यह उठता है कि किसी भी लेखक के जीवन में किसी को क्यों दिलचस्पी होगी ? लेखक का लिखा महत्त्वपूर्ण है, उस का जिया भी क्या मूल्यवान है ? इस प्रश्न का उत्तर जैनेंद्र के प्रिय प्रेमचंद की जीवनी लिखते हुए अमृत राय ने दिया है | अमृत राय ने "कलम का सिपाही" में लिखा है कि "जीवन नित्य जैसा जिया जाता है वही रसायन क्रिया से साहित्य बन जाता है ... प्राण का आवेग लेकर, विवेक की निर्धूम अग्नि में तपकर, स्वप्न को भविष्य बनाकर | " ज्योतिष जोशी लिखित जैनेंद्र की जीवनी पढ़ने से हमें यह प्रामाणिक रूप से पता चलता है कि जैनेंद्र ने नित्य कैसे जीवन जिया, उन के प्राणों का आवेग किस रूप में कहाँ बसता था, उन के विवेक की अग्नि ने उन्हें कितना तपाया और कैसा कुंदन बना कर निखारा और उन के स्वप्न कैसे थे ? यह अच्छा ही है कि जीवनी.लेखक ने प्रामाणिकता के लिए जैनेंद्र के लिखे या उन पर लिखे संस्मरणों पर ही भरोसा किया है | हर जगह उचित संदर्भ भी दिए गए हैं |
जैनेंद्र कुमार का जन्म 2 जनवरी 1905 ई० को अलीगढ़ के कौड़ियागंज क़स्बे में हुआ | उन का देहांत 24 दिसंबर 1988 ई० को नई दिल्ली में हुआ | यह जो समय है 1905 ई० से 1988 ई० तक, इस में भारतीय जीवन के अत्यंत महत्त्वपूर्ण मोड़ हैं | पहले से चली आती ग़ुलामी, आज़ादी के लिए संघर्ष, आज़ादी का मिलना पर देश.विभाजन की क़ीमत पर, आज़ाद भारत में नए भारत के निर्माण का स्वप्न और संघर्ष, कई.कई युद्ध, आपातकाल और फिर आतंकवाद की धमक | यह सब इन्हीं 82.83 वर्षों में घटित होते हैं | जैनेंद्र कुमार का जीवन भी इन्हीं के बीच बना है | उन की रचनात्मकता भी इन्हीं सब के प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव से विकसित हुई है | जीवनी लेखक ज्योतिष जोशी ने इन प्रसंगों का विशेष ध्यान रखा है | उन की सफल कोशिश रही है कि इन प्रसंगों में प्रामाणिक तरीक़े से बात की जाए |
जैनेंद्र के निर्माण में उन के मामा भगवानदीन का योगदान नींव की तरह है | भगवानदीन की संगति में ही जैनेंद्र ने जैन धर्म या दर्शन के ग्रंथों का अध्ययन किया | भगवानदीन पहले "हस्तिनापुर ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम" खोलते हैं और बाद में गाँधी जी के प्रभाव से कांग्रेस के आंदोलन का हिस्सा बन जाते हैं | इसी बीच जैनेंद्र काशी पढ़ाई के लिए जाते हैं | वहीं वे पहली बार महात्मा गाँधी को सुनते.देखते हैं | ज्योतिष जोशी ने जैनेंद्र पर गाँधी के पहले प्रभाव का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि "बेशक, गाँधी जी को निकट से देखना और उनको सुनना उसे रोमांचित कर गया | इक्यावन साल की उम्र का वह दुबलाए पतलाए लम्बा आदमी नपी.तुली बात बोलता था | कोई आवेश नहीं | उसमें सच्चाई की दमक थी जो दिल को छू जाती | उस सच्चाई में ज़बर्दस्त चुनौती रहती जिससे कोई भी व्यक्ति प्रभावित हुए बिना रह ही नहीं सकता था | वे धीरे.धीरे बोलते अपनी बात कह जाते और लोग उसे मन पर लेकर गम्भीर होकर लौटते |" इसी प्रभाव का परिणाम यह होता है कि जैनेंद्र ने आजीवन सत्याग्रह का व्रत ले लिया | यह व्रत केवल कहने के लिए नहीं लिया गया था | यह पूरे मन से आचरण के साथ लिया गया था | इस का पता इस मार्मिक प्रसंग से चलता है कि जैनेंद्र कुमार दिल्ली के दरियागंज मुहल्ले में किराये के मकान में रहते थे | इंदिरा गाँधी उस समय प्रधानमंत्री थीं | वे चाहती थीं कि जैनेंद्र जी को एक बढ़िया मकान हो | दो बार वे आबंटन के लिए फॉर्म भेजती हैं, घर के सदस्य भी चाहते थे कि मकान मिल जाए | पर जैनेंद्र जी मकान के लिए भूमि आबंटन के लिए फॉर्म नहीं भरते | ऐसी विरल अनासक्ति ! इस पूरे प्रसंग को पढ़ कर सिहरन होती है कि कैसे.कैसे लोग हिंदी में हो चुके हैं !
"अनासक्त आस्तिक" को पढ़ कर लगता है कि जैनेंद्र जी का जीवन एक निष्काम कर्मयोगी का था | जितना बन पड़ा उन्होंने काम किया | कोशिश की कि देश का निर्माण होए प्रगति होए जनता सुखी रहे | इन बातों को पता तब चलता है जब वे अफ्रीकी.एशियाई लेखक सम्मेलन के संयोजक प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक मुल्कराज आनंद के साथ बनते हैं | उस आयोजन की सार्थकता का ज़िक्र विस्तार से किताब में है | ठीक इसी तरह आपातकाल के दौर में इंदिरा गाँधी के साथ उन की बातचीत भी अत्यंत प्रेरक है | गाँधी जीए कांग्रेस, नेहरू और इंदिरा से जुड़े होने के बावजूद जैनेंद्र आपातकाल के पक्ष में नहीं रहते | वे साफ़ कहते हैं कि "मेरी तो बस एक ही सलाह है, इसे तत्काल हटा देना चाहिए | आपातकाल का अधिक दिन रहना न देश के लिए अच्छा है, न स्वयं आपके लिए | और एक बात यह भी कि पुलिस पर अंकुश हो कि वह अत्याचार न करे |"

जैनेंद्र कुमार की यह जीवनी हमें यह सिखाती है कि अपना काम ईमानदारी से करते जाना चाहिए और किसी भी प्रकार के लोभ या लाभ की इच्छा नहीं करनी चाहिए | रात के दो बजे ही सुबह के चार बजने का भ्रम हो जाने के कारण रोज की तरह राजघाट से शांतिवन टहलने जाने पर सुरक्षा अधिकारी द्वारा आतंकवादी समझे जाने की स्थिति में वहाँ के माली द्वारा पहचानने पर सुरक्षा अधिकारी द्वारा छोड़े जाने की घटना भी हमें यह बताती है कि वैभव को वैराग्य या निष्काम भाव पर अवस्थित होना ही चाहिए | जिसे प्रधानमंत्री तक बुला कर मिलता हो, उस के घर आने में कर्तव्यबोध समझता हो उसे सुरक्षा अधिकारी द्वारा आतंकवादी समझ लिया जाना भारत में लेखक की विडंबनापूर्ण हाल का द्योतक तो ज़रूर है पर जैनेंद्र जैसे लेखक को इस की कोई चिंता नहीं है | वे अपना जीवन अनासक्त भाव से जीते जाते हैं और कर्मयोगी की तरह लेखन करते रहते हैं | यह जीवनी जैनेंद्र के इस पक्ष को सामने ला कर हिंदी साहित्य की दृढ़ता में इजाफ़ा करती है |

अनासक्त आस्तिक। ज्योतिष जोशी । रज़ा फाउंडेशन व राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।

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