अनेकध्ाा भक्ति वागीश शुक्ल
29-Dec-2019 12:00 AM 5626

भक्ति एक विशेष सम्बन्ध्ा का नाम है जो भक्त और भगवान के बीच बनता है। किन्तु यह सम्बन्ध्ा सभी भक्तों के लिए एक-जैसा ही नहीं है, भक्त की इच्छा के अनुरूप ही भगवान वह स्वरूप ध्ाारण करते हैं जिसमें उसकी भक्ति होती है। उदाहरणार्थ यशोदा के लिए कृष्ण उनके पुत्र के रूप में हैं, गोपियों के लिए उनके कान्त के रूप में, अर्जुन के लिए उनके सखा के रूप में। अतः भक्ति के शास्त्रीय विवेचन के अन्तर्गत उसके भेद-प्रभेद गिनने की प्रक्रिया भी प्रारम्भ हुई। इस आलेख में इन भेदों की एक परिगणना का प्रयास किया गया है ताकि भक्ति के वैविध्य का प्रारम्भिक परिचय हो सके।
1 पौराणिक विवरण
पùपुराण (4-85-4 से 24) में भक्ति को त्रिविध्ा बताया गया है और इस त्रैविध्य को दो अलग त्रिकों से निरूपित किया गया है। पहला त्रिक मानसी-वाचिकी-कायिकी का है जिसमें मानसी भक्ति के उदाहरण हैं ध्यान, वेदस्मरण आदि, वाचिकी भक्ति के उदाहरण हैं वेदमन्त्रों का उच्चरण, जप आदि, तथा कायिकी भक्ति के उदाहरण हैं व्रत, उपवास, इन्द्रियजय आदि। दूसरा त्रिक लौकिकी-वैदिकी-आध्यात्मिकी का है जिसमें लौकिकी भक्ति के उदाहरण हैं पादवन्दन आदि उपचारों से पूजा, नृत्य तथा वाद्य आदि से देवता को रिझाना आदि, वैदिकी भक्ति के उदाहरण हैं वेदाध्ययन, यज्ञ आदि का सम्पादन और आध्यात्मिकी भक्ति के उदाहरण हैं सांख्य तथा योग के द्वारा तत्वज्ञान। यहाँ ‘सांख्य’ और ‘योग’ स्पष्ट ही श्रीमद्भगवत्गीता (2-39) में आये ‘सांख्य’ और ‘योग’ के दो उपदेशों की ओर संकेत करते हैं किन्तु यद्यपि सांख्यों की आध्यात्मिकी भक्ति का तात्पर्य ‘ब्रह्मतत्वज्ञान’ आदि है और इस प्रकार उसे ‘ज्ञानमार्ग’ मानते हुए भगवत्पाद के गीता-भाष्य से संगत मान सकते हैं, ‘योग’ का तात्पर्य यहाँ प्राणायाम, ध्यान आदि बताया गया है जो इस भाष्य से संगत नहीं है - भगवत्पाद के भाष्य में ‘योग’ का तात्पर्य ‘कर्म-मार्ग’ है।
भक्ति के त्रैविध्य की इसी द्विरूपता को प्रायः इन्हीं शब्दों में पùपुराण (5-15-164 से 191) और स्कन्दपुराण (प्रभासखण्ड, 107-2 से 16) के अन्तर्गत भी दिया गया है। यह विवरण बहुत सूक्ष्म नहीं है और इसमें भक्त की अपनी इच्छा तथा रुचि की कोई भूमिका नहीं है फिर भी अन्य विवरणों में दी गयी ‘ज्ञान-मिश्रा भक्ति’ और ‘कर्म-मिश्रा भक्ति’ का समायोजन इसमें कर लिया गया है और इस प्रकार ‘भक्ति-मार्ग’ के अन्तर्गत ही ‘ज्ञान-मार्ग’ और ‘कर्म-मार्ग’ को समेटने के प्रयासों का यह एक निदर्शन अवश्य है। भक्ति की भेद-गणना का ऐतिहासिक दृष्टि से यह सम्भवतः प्रथम प्रयत्न है जिसे परिष्कृत करते हुए परवर्ती व्यवस्थाओं का निबन्ध्ान हुआ है।
2 वोपदेव
वोपदेव का मुक्ताफल प्रारम्भ में ही यह सूचित कर देता है कि उसका प्रतिपाद्य पाँच प्रकार के विष्णु-भेदों, अठारह प्रकार के भक्ति-भेदों, उन्नीस प्रकार के भक्तिवर्गों, और नौ प्रकार के भक्त-भेदों की गणना करना है, अर्थात् यह ग्रन्थ भक्ति के भेद-प्रभेद गिनने के उद्देश्य से ही लिखा गया है। वोपदेव को हेमाद्रि का आश्रय प्राप्त था जो देवगिरि के यादव राजाओं के महामन्त्री थे और जिन्होंने ध्ार्मशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ चतुर्वर्गचिन्तामणि तैयार किया है। मुक्ताफल पर हेमाद्रि की लिखी कैवल्यदीपिका नाम की टीका है। इस प्रकार यह ग्रन्थ और इसकी यह टीका, दोनों ही तेरहवीं सदी ईसवी के हैं।
कैवल्यदीपिका में लिखा है कि इसे परमहंसप्रिया नामक टीका देखकर लिखा गया है। ऐसी अनुश्रुति है कि श्रीमद्भागवत की परमहंसप्रिया नामक एक टीका वोपदेव ने लिखी थी और यह लगभग निश्चित है कि हेमाद्रि का संकेत इसी टीका की ओर है। वैसे श्रीमद्भागवत की परमहंसप्रिया नामक एक टीका उसके प्रथम तीन श्लोकों तक उपलब्ध्ा है किन्तु वह मध्ाुसूदन सरस्वतीजी की लिखी बतायी जाती है जिनका समय सत्रहवीं सदी ईसवी तक खिंचता है। यदि हेमाद्रि का संकेत इसी टीका की ओर है तो हम यह मानने को विवश हैं कि परमहंसप्रिया मध्ाुसूदन सरस्वतीजी की लिखी नहीं है और यह वोपदेव की टीका का ही अंश है, अन्यथा हमें यह मानना होगा कि श्रीमद्भागवत की परमहंसप्रिया नामक दो टीकाएँ लिखी गयी हैं। जो भी हो, श्रीमद्भागवत पर अब तक ज्ञात टीकाओं में यह वोपदेवकृत टीका प्राचीनतम कही जा सकती है।
यद्यपि नाभाजी की भक्तमाल में वोपदेव को श्री रामानुजाचार्य की परम्परा में रखा गया है, परमहंसप्रिया का उपलब्ध्ा अंश, कैवल्यदीपिका, और मुक्ताफल, तीनों ही अद्वैत-परक हैं। सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पर उपलब्ध्ा प्राचीनतम और सर्वाध्ािक समादृत टीका श्रीध्ार स्वामी की भावार्थदीपिका है, वह भी अद्वैत-परक है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि श्रीमद्भागवत का अध्ययन और भक्ति का शास्त्रीय पल्लवन सबसे पहले अद्वैत-सम्प्रदाय के आचार्यों द्वारा हुआ तथा वैष्णव आचार्यों द्वारा किये गये विश्लेषण परवर्ती हैं।
मुक्ताफल की रचना श्रीमद्भागवत से एक पद्यसंकलन के रूप में की गयी है जिसे विविध्ा प्रकरणों में अपने वर्गीकरण के समर्थनार्थ व्यवस्थित किया गया है। इसमें भक्ति के भेदों की गणना करते समय सबसे पहले भक्ति के दो भेद किये गये हैं, ‘विहिता’, और ‘अ-विहिता’। यह समझना कठिन है कि शाण्डिल्य भक्ति-सूत्रों की टीका भक्तिचन्द्रिका का जो संस्करण सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय से प्रकाशित हुआ है, उसकी भूमिका में यह क्यों बताया गया है कि मुक्ताफल में वोपदेव ने भक्ति का यह द्विविध्ा विभाजन ‘विहिता’ और ‘निषिद्धा’ के शीर्षकों में किया है। ‘अ-विहित’ का अर्थ ‘निषिद्ध’ नहीं है। वोपदेव का यह वर्गीकरण इस आध्ाार पर नहीं है कि अ-विहिता भक्ति शास्त्रीय दृष्टि से निषिद्ध है, न ही यह वर्गीकरण सामाजिक मर्यादा को ध्यान में रखकर किया गया है। ‘अ-विहिता भक्ति’ के अन्तर्गत (1) गोपियों की कामजा अ-विहिता भक्ति (2) शिशुपाल की द्वेषजा अ-विहिता भक्ति और (3) कंस की भयजा अ-विहिता भक्ति के साथ ही वृष्णियों और युध्ािष्ठिर आदि की (4) स्नेहजा अ-विहिता भक्ति का भी परिगणन है जिसके नाते हम यह मान सकते हैं कि काम, द्वेष, भय और स्नेह के किसी विध्ाि के अध्ाीन न होने के नाते इन्हें विहिता भक्ति से बाहर रखा गया है।
‘अ-विहिता भक्ति’ का यह विवेचन श्रीमद्भागवत के सातवें स्कन्ध्ा के प्रथम अध्याय में वर्णित नारद-युध्ािष्ठिर संवाद के आध्ाार पर है। उसमें एक जगह तो ये ही चार - काम, वैर, भय, और स्नेह- गिने गये हैं किन्तु एक जगह इन चार के अतिरिक्त ‘सम्बन्ध्ा’ की भी गणना है जिससे यह भ्रम होता है कि कुल पाँच प्रकार हैं। कैवल्यदीपिका में इस पर विचार किया गया है और कहा गया है कि ‘सम्बन्ध्ा’ तथा ‘स्नेह’ में परस्पर विशेष्य-विशेषण का ग्रहण है अन्यथा दुर्योध्ान का कृष्ण से स्नेह-रहित सम्बन्ध्ा उसी कोटि में आ जायेगा जिस कोटि में युध्ािष्ठिर का कृष्ण से स्नेह-सहित सम्बन्ध्ा है और दोनों ही भक्त हो जायेंगे। इस प्रकार ‘सम्बन्ध्ा’ और ‘स्नेह’ को अलग-अलग न गिनकर ‘स्नेह-युक्त सम्बन्ध्ा’ के रूप में एकत्र ही पढ़ना चाहिए। तब ‘अ-विहिता भक्ति’ का यह चातुर्विध्य सिद्ध हो जाता है।
‘कामजा भक्ति’ में ‘काम’ का अर्थ है परपुरुष में जारबुद्धि। इसका उदय अनूढा और भगवदतिरिक्त पति की ऊढा, दोनों ही में हो सकता है। कैवल्यदीपिका में इस प्रश्न पर भी विचार किया गया है कि गोपियों को तो भगवान् का सन्निकर्ष प्राप्त था, अतः उनमें कामजा भक्ति का होना सम्भव है किन्तु वर्तमान समय में किसी भी स्त्री को भगवान् का सन्निकर्ष प्राप्त नहीं है, अतः भगवान के प्रति इस कामजा भक्ति का उपदेश निरर्थक ही है। उन्होंने इसका समाध्ाान प्रस्तुत किया है और कहा है कि वर्तमान समय में भी विष्णु के प्रति काम जागृत हो सकता है और यह उपदेश व्यर्थ नहीं है। यह तर्क अ-विहिता भक्ति के सभी प्रकारों पर लागू होता है। इस प्रकार वर्तमान समय में भी यदि किसी का द्वेष भगवान के प्रति है, या वह उनसे डरता है, तो वह उनकी अ-विहिता भक्ति ही कर रहा है। हाँ, यह भाव दृढ़ होना चाहिए, वेन की तरह नहीं जो अध्ाार्मिक था किन्तु भगवान में जिसका द्वेष दृढ़ नहीं था। इस प्रकार जो भी भक्त कान्ता-भाव से भगवान की भक्ति करते हैं, या उन्हें अपनी सन्तान मानकर उनके बालरूप पर अपना वात्सल्य उँड़ेलते हैं, वे सभी इस अ-विहित भक्तिमार्ग पर चलते हैं।
‘विहिता’, अर्थात् ‘विध्ाि के अध्ाीन’ भक्ति के दो प्रकार हैंः (5) शुद्धा विहिता भक्ति, और ‘मिश्रा विहिता भक्ति’। इसके बाद ‘मिश्रा’ के तीन भेद हैं, (6) ज्ञानमिश्रा विहिता भक्ति (जिसे ‘निर्गुणा भक्ति’ भी कहा गया है), ‘कर्मज्ञानमिश्रा विहिता भक्ति’, और ‘कर्ममिश्रा विहिता भक्ति’। इसमें ‘कर्मज्ञानमिश्रा’ के तीन भेद हैं, (7) उत्तमा कर्मज्ञानमिश्रा, (8) मध्यमा कर्मज्ञानमिश्रा, और (9) अध्ामा कर्नज्ञानमिश्रा। फिर ‘कर्ममिश्रा’ के तीन भेद हैं, ‘सात्विकी कर्ममिश्रा’, ‘राजसिकी कर्ममिश्रा’, और ‘तामसिकी कर्ममिश्रा’। ‘सात्विकी कर्ममिश्रा’ के तीन भेद हैं, (10) कर्मक्षयार्था सात्विकी, (11) विष्णुप्रीत्यर्था सात्त्विकी, और (12) विध्ािसिद्धार्था सात्विकी। ‘राजसिकी कर्ममिश्रा’ के भी तीन भेद हैं, (13) विषयार्था राजसिकी, (14) यशोऽर्था राजसिकी, और (15) ऐश्वर्यार्था राजसिकी। ‘तामसिकी कर्ममिश्रा’ के भी तीन भेद हैं, (16) हिंसार्था तामसिकी, (17) दम्भार्था तामसिकी, और (18) मात्सर्यार्था तामसिकी। इस प्रकार भक्ति के ये अठारह भेद बनते हैं। यह सारा विभाजन भक्ति के कायिक-मानसिक-वाचिक त्रैविध्य को स्वीकार करते हुए ही किया गया है।
इन विहिता भक्तियों के अध्ािकारी भी बताये गये हैं। वीतरागों के लिए ‘ज्ञानमिश्रा’, कामना-युक्त लोगों के लिए ‘कर्ममिश्रा’, मिष्काम कर्म करने वाले गृहस्थों और नैष्ठिक ब्रह्मचारियों के लिए ‘कर्मज्ञानमिश्रा’ विहित हैं। ‘शुद्धा भक्ति’, जिसमें भक्ति का कोई हेतु नहीं होता, के सभी अध्ािकारी हैं, चित्तशुद्धि के बाद सभी की भक्ति शुद्ध होती है। ‘सात्त्विकी’ आदि भेद भक्त की प्रकृति के अनुसार होते हैं। इस भेद-गणना से प्रकट है कि मनुष्य की उदात्त मनोवृत्तियों के साथ ही उसकी कुत्सित मनोवृत्तियों को भी भक्ति की अर्हता के लिए स्थान दिया गया है।
इसके अतिरिक्त मुक्ताफल में भक्ति के उन्नीस वर्ग भी बताये गये हैं। यह वर्गगणना भी कायिक-मानसिक-वाचिक त्रैविध्य के अध्ाीन है। ये वर्ग अपने अंगों के सहित वर्णित हैं और इनका नामकरण इन अंगों की संख्या के आध्ाार पर किया गया है। इस प्रकार छब्बीस अंगों वाले वर्ग का नाम ‘षड्विंशति-वर्ग’, दस अंगों वाले वर्ग का नाम ‘दश-वर्ग’ आदि है।
इनमें नौ अंगों वाले नव-वर्ग ने परवर्ती समय में ‘नवध्ाा भक्ति’ के नाम से केन्द्रीय महत्व प्राप्त किया। यह नववर्ग श्रीमद्भागवत (7-5-23) के प्रह्लाद-वाक्य के आध्ाार पर है जिसमें भक्ति के नौ अंग इस प्रकार गिनाये गये हैंः (1) श्रवण, (2) कीर्तन, (3) स्मरण, (4) पादसेवन, (5) अर्चन, (6) वन्दन, (7) दास्य, (8) सख्य, और (9) आत्मनिवेदन। मुक्ताफल में इस ‘नवध्ाा भक्ति’ को कोई केन्द्रीयता नहीं प्राप्त है किन्तु श्रवण-कीर्तन-स्मरण का एक त्रि-वर्ग अलग से है जिसके अंगों पर स्वतन्त्र अध्यायों में विस्तृत चर्चा है।
मुक्ताफल में भक्ति-रस का उल्लेख है और कैवल्यदीपिका में अभिनवगुप्त जैसे आचार्यों से असहमति प्रकट करते हुए, जिन्होंने भक्ति को रस नहीं माना था, भक्ति का रसत्व भी स्थापित किया गया है, किन्तु उसे अलग से नहीं गिना गया है अपितु यह कहा गया है कि भक्त सभी रसों का आस्वाद भक्ति-रस के माध्यम से ही करते हैं। इस प्रकार नौ रसों के आस्वादन-भेद से नौ प्रकार के भक्त होते हैं। इन रसों की गणना करते समय प्रारम्भ हास्य रस से किया गया है। कैवल्यदीपिका ने यह प्रश्न उठाया है कि रसों में सर्वप्रध्ाान श्ाृंगार रस से गणना क्यों नहीं प्रारम्भ की गयी और इसका उत्तर यह दिया है कि इस कैवल्यपरक शास्त्र में श्ाृंगार को प्रध्ाान स्थान देना ठीक नहीं है इसलिए किसी भी अन्य रस से गिनना उचित था तो हास्य से ही प्रारम्भ कर दिया गया है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि किसी सामाजिक मर्यादा के अध्ाीन ऐसा किया गया है, आखिर भगवान पर हँसना भी अनुचित ही है और इस प्रकार हास्य-भक्ति भी ‘अ-विहिता’ ही है। हास्य रस का आस्वाद करने वाले भक्त के उदाहरण के रूप में गोपियों को रखा गया है जिनमें से कुछ श्ाृंगार रस की भी आस्वादक हैं। इसी प्रकार मुचुकुन्द जैसे अन्य कई भक्तों को भी एक से अध्ािक रस के आस्वादक के रूप में गिना गया है।
3 जीव गोस्वामी
चैतन्य-सम्प्रदाय में सभी वैष्णव-सिद्धान्तों का परिपाक माना जा सकता है। इसके प्रमुख सिद्धान्त-कार जीव गोस्वामी के भक्तिसन्दर्भ ग्रन्थ में भक्ति का कायिक-मानसिक-वाचिक त्रैविध्य स्वीकार करते हुए नवध्ाा भक्ति को केन्द्रीयता दी गयी है। ‘भक्ति’ का अर्थ ‘सेवा’ करते हुए उसका तात्पर्य ‘भगवदनुगति’, अर्थात् ‘भगवान का अनुकूल अनुशीलन’ लिया गया है और इस प्रकार द्वेष-जा तथा भय-जा भक्तियों को भक्ति के अन्तर्गत नहीं गिना गया है। सेवा अर्थ लेने के नाते अद्वैतियों की ‘अहंग्रह उपासना’, अर्थात् उपासक द्वारा अपने को उपास्य से अभिन्न मानते हुए ‘मैं ही ब्रह्म हूँ’ यह समझना भी भक्ति के क्षेत्र से बाहर हो जाता है।
भक्ति के विभाजन में एक नवीन त्रिक का प्रतिपादन किया गया है और भक्ति का त्रैविध्य आरोपसिद्धा-संगसिद्धा-स्वरूपसिद्धा के त्रिक से बताया गया है। ‘आरोपसिद्धा भक्ति’ वह है जिसमें स्वरूपतः भक्ति नहीं होती किन्तु कर्मों को भगवदर्पित करने से उनमें भक्तित्व होता है और इस प्रकार भगवान में यह भक्ति आरोपित होती है। ‘संगसिद्धा भक्ति’ पुनः स्वरूपतः भक्ति नहीं है, किन्तु इसमें ज्ञान और कर्म को भक्ति का अंग मानते हुए उनमें भक्तित्व का स्थापन किया जाता है। ‘स्वरूपसिद्धा भक्ति’ वह है जिसमें बिना किसी व्यवध्ाान के सारी कायिक-मानसिक-वाचिक चेष्टाएँ विष्णु-सम्बन्ध्ािनी होती हैं; इस प्रकार नवध्ाा भक्ति को स्वरूपसिद्धा बताया गया है। यह त्रैविध्य ‘अ-कैतवा’ और ‘स-कैतवा’ के भेद से द्विविध्ा होता है। यदि केवल भक्ति की ही फलरूप में कामना हो तो वह ‘अ-कैतवा’ अर्थात् छलरहित कहलाती है, यदि किसी अन्य ध्ार्म, अर्थ, काम, मोक्ष में से किसी एक या एक से अध्ािक की भी फलरूप में कामना हो तो वह ‘स-कैतवा’ अर्थात् छलयुक्त कहलाती है। अ-कैतवा भक्ति का नाम ‘अ-किंचना’ भी है।
‘आरोपसिद्धा भक्ति’ का तात्पर्य भगवान में कर्मों का अर्पण है किन्तु यह भगवत्प्रीणन-कर्मफलार्पण के द्वैविध्य में व्यवहृत होता है। इस कर्मफलार्पण के तीन हेतु हैं, कामना, नैष्कम्र्य तथा भक्तिमात्र।
इसके बाद ‘संगसिद्धा भक्ति’ तीन प्रकार की हैः ‘कर्ममिश्रा’, ‘ज्ञानमिश्रा’, और ‘कर्मज्ञानमिश्रा’। यहाँ ‘कर्म’ का अर्थ ‘वेदोक्त ध्ार्म’, अर्थात् यज्ञ आदि है। इसमें ‘स-कामा’, ‘कैवल्य-कामा’, और ‘भक्तिमात्र-कामा’ का त्रैविध्य है। स-कामा भक्ति प्रायः कर्ममिश्रा ही होती है। ‘कैवल्य-कामा भक्ति’ कहीं कर्मज्ञानमिश्रा और कहीं ज्ञानमिश्रा होती है। भक्तिमात्रकामा भक्ति भी कहीं कर्ममिश्रा, कहीं कर्मज्ञानमिश्रा और कहीं ज्ञानमिश्रा होती है।
स्वरूपसिद्धा भक्ति, जो बिना किसी व्यवध्ाान के होती है, भक्त के संकल्प के अनुसार उपचारतः स-कामा अथवा कैवल्य-कामा के नाम से जानी जाती है। इनमें से स-कामा के दो भेद हैं, राजसिकी जिसमें ऐश्वर्य आदि की कामना है और तामसिकी, जिसमें हिंसा अथवा दम्भ आदि की प्रेरणा है। कैवल्य-कामा केवल सात्विकी होती है। यह कैवल्य-कामा भक्ति भी स-गुणा भक्ति के भीतर ही गिनी गयी है।
स्वरूपसिद्धा भक्ति का तीसरा प्रकार भक्तिमात्र-कामा नाम का है जो सर्वश्रेष्ठ है। इसे ‘निर्गुणा’ भी कहा जाता है किन्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि यह अद्वैतियों का निर्गुण नहीं है - अनेक विशिष्टाद्वैती वेदान्तों की तरह ही यहाँ यह माना जाता है कि भगवान में ‘भग’-संज्ञक ऐश्वर्यादिक छह गुण सर्वदा विद्यमान होते हैं जिन्हें ‘कल्याण-गुण’ कहा जाता है - ‘निर्गुण’ का तात्पर्य है ‘प्राकृत गुणों से रहित’। इस भक्ति को ‘अकिंचना’ भी कहते हैं।
इस अन्तिम और सर्वश्रेष्ठ प्रकार के अन्तर्गत ‘वैध्ाी’ और ‘रागानुगा’ नाम से दो भेद किये गये हैं जो मुक्ताफल में दी गयी ‘विहिता’ और ‘अ-विहिता’ के क्रमशः नामान्तर हैं। शास्त्रोक्त विध्ाि से पूजा, व्रत आदि का अनुष्ठान वैध्ाी भक्ति है। इसके तीन अंग गिनाये गये हैं, भगवान की शरण में जाना, जिसका एक नाम ‘अनन्यगति’ भी है, साध्ाु जनों की सेवा तथा श्रवण कीर्तन आदि अंगों वाली नवध्ाा भक्ति का सम्पादन।
इस नवध्ाा भक्ति का ही विस्तार वैध्ाी भक्ति के अन्तर्गत हुआ है। श्रवण, कीर्तन, स्मरण के भेद नाम, रूप, गुण, कथा, लीला जैसे शीर्षकों में किये गये हैं। इस प्रकार नाम-श्रवण, नाम-कीर्तन, नाम-स्मरण आदि भेद बनते हैं। पादसेवन में ही तीर्थ-यात्रा आदि की गणना की गयी है। अर्चन के अन्तर्गत विस्तारपूर्वक यह बताया गया है कि क्यों विष्णु की ही पूजा करनी चाहिए, शिव आदि की नहीं। एकादशी, जन्माष्टमी आदि का उल्लेख भी इसी के अन्तर्गत है। इनका विध्ाान बड़े विस्तार से हैः उदाहरणार्थ यह बताया गया है कि एकादशी में निराहार रहने का तात्पर्य यह है कि भगवान का प्रसाद भी न ग्रहण किया जाए। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि हितहरिवंशजी के राध्ाावल्लभीय सम्प्रदाय में एकादशी के दिन भी प्रसाद-ग्रहण का विध्ाान है। वन्दन में नमस्कार का सविस्तार वर्णन है। दास्य की श्रेष्ठता प्रतिपादित की गयी है और सख्य को समझाते हुए कहा गया है कि इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भक्त भगवान के समकक्ष हो गया, सख्य का अर्थ केवल भगवान की हितकामिता है। आत्मनिवेदन शरीर के निवेदन तथा शरीरान्तर्गत जीव के निवेदन के भेद से द्विविध्ा कहा गया है। आत्मनिवेदन को इस प्रकार समझाया गया हैः जैसे गाय बेंच देने के बाद उसकी देखरेख की जि़म्मेदारी क्रेता की होती है, विक्रेता की नहीं, वैसे ही आत्मनिवेदन के बाद भक्त के शरीरादि की जि़म्मेदारी भगवान की होती है, भक्त की नहीं।
इस नवध्ाा भक्ति में वैध्ाी का विस्तार है किन्तु इस भक्ति में प्रेम अन्तर्भुक्त नहीं है। यह भक्ति साध्ानरूपा है जिससे भगवत्प्रेम साध्य है। दूसरी ओर, रागानुगा भक्ति में रुचि का प्राध्ाान्य है, विध्ाि का नहीं, अतः वह अध्ािक महत्वशाली है। ‘राग’ की परिभाषा दी गयी हैः विषयी में विषय से संसर्ग की अतिशय तीव्र इच्छा वाले प्रेम का नाम ‘राग’ है, जैसे (विषयी) आँख का (विषय) सौन्दर्य में होता है। उदाहरणों में विषय के रूप में आत्मा परब्रह्म और विषयी के रूप में महर्षि सनक का भी संकलन है जिससे अद्वैतियों की अभेदभावना का भी रागानुगा भक्ति में अन्तर्भाव हो जाता है। अन्य उदाहरणों में बताया गया है कि भगवान (विषयी) नन्द के (विषय) पुत्र रूप में, (विषयी) प्रद्युम्न के (विषय) पिता रूप में, (विषयी) श्रीदामा के (विषय) सखा रूप में, किसी (विषयी) के (विषय) भ्राता रूप में, किसी (विषयी) के (विषय) मातुलेय रूप में, इत्यादि विभिन्न प्रकारों से राग के विषय के रूप में उपस्थित होते हैं। रागानुगा भक्ति में भी रुचि-प्रेरित श्रवण-कीर्तन-स्मरण आदि से परिगणित नवध्ाा भक्ति का अनुष्ठान होता है, उस नवध्ाा भक्ति को ‘रागात्मिका भक्ति’ कहते हैं। यह अपने चरित्र में वैध्ाी नवध्ाा से भिन्न है जो विध्ािप्रेरित होती है।
रागानुगा अर्थात् अ-विहिता भक्ति में कामजा, भयजा और द्वेषजा भक्तियों की भी गणना है और सामान्यतः काम, भय, द्वेष को दोष माना जाता है अतः इन पर विस्तृत विचार किया गया है। कामजा भक्ति का एक सम्भावित उदाहरण, जहाँ विषयी भगवान शिव हैं और विषय मोहिनी अवतार में भगवान विष्णु, इस आध्ाार पर अस्वीकृत हुआ है कि वह विष्णु की माया का प्रभाव था। पिंगला वेश्या के उदाहरण पर बात करते हुए यह कहा गया है कि उसका ‘मैं लक्ष्मी की तरह नारायण से रमण करूँगी’ का संकल्प मानसिक रमण का था और इस प्रकार वह सिद्धप्रेयसी नहीं थी, अतः उसने किसी औद्धत्य- अर्थात् आलिंगन, चुम्बन आदि का सम्पादन विष्णुप्रतिमा में नहीं किया है। यह कहा गया है कि इस मार्ग में मानसिक भाव की ही मुख्यता है और पितृ-भाव से उपासना करने वालों को भी इसी प्रकार औद्धत्य से बचना चाहिए तथा नन्द या दशरथ में अभेद-बुद्धि नहीं रखनी चाहिए।
पूतना की जिघांसा और शिशुपाल के द्वेष को श्रीकृष्ण-सम्बन्ध्ा के नाते दोषमुक्त बताया गया है किन्तु अनुकरणीय नहीं माना गया है। कुब्जा और गोपियों के प्रेयसीत्व की तुलना की गयी है तथा यह कहा गया है कि कुब्जा में स्वसुख का भाव था जबकि गोपियों में कृष्णसुख का, अतः कुब्जा का भाव गोपियों के भाव की अपेक्षा तो हेय है किन्तु स्वरूपतः कुब्जा-भाव पापावह नहीं है, जैसे सूर्य के सामने दीपक हेय है किन्तु हैं दोनों प्रकाश ही। गोपियों की कृष्ण के प्रति जारबुद्धि का समाध्ाान यह कहकर किया गया है कि अन्तर्यामी रूप से हृदय में विराजमान होने के नाते सबके वास्तविक पति कृष्ण ही हैं। भगवान में कामुकत्व के आरोप का निराकरण यह कहकर किया गया है कि उनकी लीला है और इसके लिए ब्रह्मसूत्र 2-1-33 (लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्) का सहारा लिया गया है। जय-विजय नामक द्वारपालों - जिन्होंने हिरण्यकशिपु-हिरण्याक्ष और रावण-कुम्भकर्ण के रूप में जन्म लेकर भगवान से युद्ध किया था - के उदाहरण को ‘युद्ध-लीला’ कहकर समाध्ाान किया गया है।
इस प्रकार जीव गोस्वामीजी ने अपने प्रतिपादन में यह प्रयास किया है कि भक्ति के कुछ पौराणिक उदाहरणों में मर्यादा का जो उल्लंघन प्रतीत होता है उसे ‘राग’ के अभिध्ाान के अन्तर्गत कुछ समाध्ाानों के अध्ाीन दोषरहित सिद्ध किया जाये। ये समाध्ाान वस्तुतः इन उदाहरणों की लोकोत्तरता ही सिद्ध करते हैं और गोस्वामीजी ने वर्तमान-कालिक भक्तों के लिए इनका अनुकरण वर्जित ही किया है। अद्वैत को अस्वीकार करते हुए भी उनके प्रतिपाद्यों को समेट लेने की चेष्टा में कुछ उलझाव भी आ गया है जिसको सुलझाने के लिए एक लम्बी दार्शनिक चर्चा आवश्यक है। कुछ उलझाव ‘राग’ के भीतर ‘द्वेष’ जैसे भावों को समेटने की कोशिश के नाते भी हैं। मुक्ताफल से तुलना करने पर यह दिखता है कि वोपदेव के वर्गीकरण को नये ढंग से सजाया गया है और वोपदेव के ‘नव-वर्ग’ - नवध्ाा भक्ति को ही केन्द्रीयता दी गयी है। इस प्रकार वोपदेव का ‘एकादश-वर्ग’, जिसका उदाहरण श्रीमद्भागवत (9-4-18, 19, 20) में वर्णित अम्बरीष का भक्ति-व्यापार है, भक्ति सन्दर्भ में वैध्ाी नवध्ाा भक्ति के ‘आत्मनिवेदन’ में संकलित किया गया है। यह भी उल्लेखनीय है कि कैवल्यदीपिका ने दुर्योध्ान को भगवान में स्नेह के अभाव के नाते भक्तों की सूची से बाहर रखा था किन्तु भक्तिसन्दर्भ में गरुडपुराण के प्रामाण्य से उसे शिशुपाल के समकक्ष रखते हुए शामिल किया गया है।
4 नारायणतीर्थ
भक्ति-विषयक कई सूत्रग्रन्थ हैं जिनमें से शाण्डिल्यसूत्र पर नारायणतीर्थ की टीका भक्तिचन्द्रिका है। इस टीका में भक्ति के अनेक पक्षों पर विचार किया गया है। नारायणतीर्थ का समय सत्रहवीं सदी ईसवी में माना जाता है। ये अद्वैत-सम्प्रदाय के अनुयायी सन्यासी थे और मध्ाुसूदन सरस्वतीजी की शिष्य-परम्परा में थे। अद्वैती होने के नाते इनके लिए भक्ति का प्रतिपादन आसान नहीं था क्योंकि जैसा इन्होंने स्वयं ही लिखा है, कई अद्वैती यह मानते हैं कि भक्ति तभी सम्भव है जब उपास्य और उपासक में भेद हो और इस प्रकार द्वैत की अनिवार्यता होगी। नारायणतीर्थ ने भक्तिचन्द्रिका में बड़े संरम्भ से द्वैत का अ-स्वीकार किया है और साथ ही भक्ति को न केवल स्वीकार किया है अपितु ज्ञान से उसको श्रेष्ठ भी बताया है जो अद्वैत की स्वीकृत मान्यता से समंजस नहीं दिखता।
सा परानुरक्तिरीश्वरे (शाण्डिल्यसूत्र 1-1-2) में भक्ति को ‘ईश्वर में परा अनुरक्ति’ के रूप में परिभाषित किया गया है। इस ‘अनु-राग’ के अन्तर्गत आये ‘अनु’ को नारायणतीर्थ ने ‘पश्चात्’ के अर्थ में लिया है। इस प्रकार भगवान के गुण आदि सुनकर यह राग उत्पन्न होता है जिसे भक्ति कहते हैं। इसके नाते स्वभावतः भक्ति ‘रागात्मिका’ ही रह जाती है किन्तु नारायणतीर्थ ने ‘वैध्ाी भक्ति’ को भी ‘गौणी’ कहकर स्थान दिया है और कहा है कि इसको ‘भक्ति’ उसी प्रकार कहते हैं जैसे ‘हल’ को ‘जीवन’ कहते हैं। इस प्रकार ‘वैध्ाी भक्ति’ साध्ान रह जाती है, साध्य नहीं होती। ‘राग’ को द्वेषप्रतिपक्षभावाद्रसशब्दाच्च रागः (शाण्डिल्यसूत्र 1-1-6) में ‘द्वेष का प्रतिपक्षी’ बताते हुए ‘रस’ से जोड़ा गया है। अतः नारायणतीर्थ ने शिशुपाल की ‘द्वेषजा’ भक्ति को स्थान नहीं दिया है। उनकी ‘अ-विहिता’ भक्ति में कंस की ‘भय-जा’ भक्ति का भी स्थान नहीं है। ‘अ-विहिता’ के अन्तर्गत उन्होंने केवल ‘काम-जा’ और ‘सम्बन्ध्ा-जा’ को स्थान दिया है।
श्रवण-कीर्तन-स्मरण वाली ‘नवध्ाा भक्ति’ नारायणतीर्थ के लिए भी केन्द्रीय महत्व की है और उन्होंने भक्तिः प्रमेया श्रुतिभिः (शाण्डिल्यसूत्र 1-2-9) की टीका लिखते समय इसी विभाजन में से प्रत्येक के उदाहरण वेदमन्त्रों से दिये हैं। इस नवध्ाा भक्ति को उन्होंने आगे चलकर ‘विहिता’ और ‘अ-विहिता’, दोनों में जगह दी है जिसके अन्तर्गत अ-विहिता भक्ति के अन्तर्गत की नवध्ाा को उन्होंने कैवल्य प्राप्त कराने वाली कहकर छोड़ दिया है किन्तु विहिता भक्ति के अन्तर्गत की नवध्ाा भक्ति के स्वतन्त्र उदाहरण दिये हैं। एक सवाल उन्होंने यह भी किया है कि क्या इस नवध्ाा भक्ति का समुच्चय करना आवश्यक होगा या उनमें से प्रत्येक का अनुष्ठान स्वतन्त्र रूप से भी किया जा सकता है और यह उत्तर दिया है कि समुच्चय आवश्यक नहीं है। वोपदेव का ‘एकादश-वर्ग’, जिसका उदाहरण श्रीमद्भागवत (9-4-18, 19, 20) में वर्णित अम्बरीष का भक्ति-व्यापार है, और जिसे जीव गोस्वामी में भक्ति-सन्दर्भ में वैध्ाी नवध्ाा भक्ति के ‘आत्मनिवेदन’ में संकलित किया है, नारायणतीर्थ ने नवध्ाा भक्ति के समुच्चय के उदाहरण के रूप में रखा है।
नवध्ाा भक्ति में नारायणतीर्थ ने विहिता के तीन भेद किये हैंः कर्ममिश्रा (जिसके अध्ािकारी गृहस्थाश्रमी हैं), कर्मज्ञानमिश्रा (जिसके अध्ािकारी वानप्रस्थाश्रमी हैं), और ज्ञानमात्रमिश्रा (जिसके अध्ािकारी संन्यासश्रमी हैं)। फिर कर्ममिश्रा को सात्विकी, राजसी और तामसी के त्रैविध्य में बाँटा है। सात्विकी का फिर एक त्रैविध्य ‘पापनाशार्था’, ‘भगवत्प्तीत्यर्था’, और ‘विध्ािसिद्धार्था’ के वर्गीकरण से बताया गया है और इस त्रैविध्य को ‘दास्य-भाव’ के अन्तर्गत रखा गया है। राजसी भक्ति भी त्रिविध्ा हैः ‘विषयार्था’, ‘यशोऽर्था’, और ‘ऐश्वर्यार्था’। तामसी भी त्रिविध्ा हैः ‘हिंसार्था’, ‘दम्भार्था’ और ‘मात्स्र्यार्था’। राजसी और तामसी अपने त्रैविध्यों सहित ‘अर्चन-भक्ति’ में अन्तर्भूत बतायी गयी हैं। कर्मज्ञानमिश्रा भी त्रिविध्ा हैः ‘उत्तमा’ जो ‘आत्मनिवेदन’ के अन्तर्गत है, ‘मध्यमा’, जो ‘दास्य’ के अन्तर्गत है, और ‘प्राकृता’, जो ‘अर्चन’ के अन्तर्गत है। अ-विहिता के ‘काम-जा’ (जो गोपियों की थी), और ‘सम्बन्ध्ा-जा’ (जो नन्द आदि की थी), के साथ इस प्रकार भक्ति के कुल चैदह भेद इन्होंने गिनाये हैं। इस वर्गीकरण पर वोपदेव का प्रभाव स्पष्ट है किन्तु इन्होंने एक तो संख्या अठारह से घटाकर चैदह कर दी है, दूसरे नवध्ाा भक्ति के भीतर विहिता के प्रकारों को समायोजित करने की भी चेष्टा की है।
नारायणतीर्थ ने भक्ति को रस माना है और व्यभिचारी-भाव आदि के उदाहरण भी दिये हैं। उन्होंने अथातो भक्ति-जिज्ञासा (शाण्डिल्यसूत्र 1-1-1) में आये ‘जिज्ञासा’ शब्द के आध्ाार पर ही यह घोषित किया है कि ‘मीमांसा’ की जगह ‘जिज्ञासा’ का प्रयोग यह बताता है कि भक्ति एक पुरुषार्थ है (तात्पर्य यह कि जिस प्रकार पूर्व-मीमांसा का प्रथम सूत्र अथातो ध्ार्म-जिज्ञासा पूर्व-मीमांसा को ध्ार्म-पुरुषार्थ की सिद्धि का शास्त्र सूचित करता है और उत्तर-मीमांसा का प्रथम सूत्र अथातो ब्रह्म-जिज्ञासा उत्तर-मीमांसा को मोक्ष-पुरुषार्थ की सिद्धि का शास्त्र सूचित करता है, उसी प्रकार यह प्रथम सूत्र अथातो भक्ति-जिज्ञासा इस भक्ति-सूत्र को भक्ति-पुरुषार्थ का शास्त्र सूचित करता है)।
नारायणतीर्थ पर शाण्डिल्यसूत्र के स्वप्नेश्वर-कृत भाष्य का बहुत प्रभाव पड़ा है। इसके साथ ही, उन्होंने और भी बहुत-कुछ समेटने की चेष्टा की है। अद्वैत के दृढ़ पोषक होते हुए भी, भक्ति के बारे में अद्वैतेतर सम्प्रदायों के आचार्यों के योगदान को अद्वैत-मत के भीतर सादर समंजस करने का उनका प्रयास रहा है। इस सिलसिले में उन्होंने कुछ ऐसी बातें भी कही हैं जो अद्वैत के भीतर नयी मानी जा सकती हैं- उदाहरण के लिए उनका कहना है कि नीरूप ब्रह्म का भी सत्यज्ञानात्मक ‘अ-प्राकृत’ रूप होता है। यह कथन वैष्णव सम्प्रदायों द्वारा प्रचलित त्रैगुण्य को ‘प्राकृत’ गुण कहने और भगवान के ‘कल्याण-गुणों’ से नित्ययुक्त होने के सिद्धान्त के समकक्ष है। उन्होंने अद्वैत-सिद्धान्त के भीतर प्रचलित कुछ मान्यताओं के समान्तर भक्ति-सिद्धान्त के भीतर भी कुछ उद्भावनाएँ की हैं- उदाहरण के लिए (योगवासिष्ठ में वर्णित और) अद्वैत-मत के भीतर स्वीकृत ज्ञान की सात भूमिकाओं के समान्तर भक्ति की नौ भूमिकाएँ उन्होंने बनायी हैं। प्रेमा भक्ति को बारह प्रकार का बताते हुए फिर उसके ‘उप्त’ से लेकर ‘सन्तृप्त’ तक पन्द्रह भेद किये हैं और इस अन्तिम कोटि को अद्वैतियों का ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञान बताया है। इस जैसे अनेक स्थलों पर कहीं ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग का एक ही प्राप्तव्य लगता है और कहीं भिन्न।
5 निष्कर्ष
भक्ति पर विपुल शास्त्रीय सामग्री उपलब्ध्ा है और ऊपर दिया गया वर्णन बहुत सीमित है। किन्तु इससे भक्ति की भेदगणना का यथेष्ट संकेत मिल जाता है। भक्ति का शास्त्रीय व्यवस्थापन करने में मुख्यतः तीन समानान्तर विचार एक साथ कार्यरत रहे हैं। पहला है अद्वैत-सम्प्रदाय के उस दृढ़ सिद्धान्त का प्रतिरोध्ा जिसके अन्तर्गत ब्रह्म को निर्गुण मानते हुए एकमात्र ब्रह्मात्मैक्यज्ञान को ही मनुष्य का चरम पुरुषार्थ माना गया। इसके अध्ाीन कर्म को केवल सम्यक आचरण और फल का तिरस्कार करते हुए भगवदर्पित करना ज्ञान-प्राप्ति के साध्ान के रूप में निरूपित किया गया जिसके नाते उपनिषदों में वर्णित उपासनाओं को भी कर्म के अन्तर्गत रखते हुए आराध्ाना को सगुण ब्रह्म की सीमाओं तक सीमित करके, उसे भी साध्ान-मात्र माना गया। यह मार्ग नितान्त तत्व-परक था और इसमें साध्ाारण मनुष्य की पैठ दो कारणों से नहीं थीः पहला यह कि इसके लिए बहुत उच्चस्तरीय बौद्धिक परिपक्वता की आवश्यकता थी और दूसरा यह कि इसमें वेदाध्ययन की अनिवार्यता थी जो समाज के कुछ ही वर्गों तक सीमित था। पुराणों ने सर्वसुलभ शास्त्र के रूप में अपने को उपलब्ध्ा कराया और मनुष्य तथा ईश्वर के बीच शरणागति का मार्ग प्रतिपादित किया जो व्यावहारिक रूप से सरल लगता था। यही भक्ति का मार्ग था - जिस पर चलने के लिए बौद्धिक ऊर्जा या प्रत्यक्तत्वचिन्ता की नहीं, केवल एक भावविह्नल हृदय की आवश्यकता थी और जो किसी भी कोटि के आराध्ाक को आराध्य तक पहुँचने और उसकी कृपा का पात्र होने की छूट देता था।
किन्तु अद्वैत की बौद्धिक कसावट के प्रति आकर्षण से पूरा छुटकारा सम्भव नहीं था और इसलिए हम भक्ति को सर्वोच्च स्थान देने वाले जीव गोस्वामी और नारायणतीर्त द्वारा भी सावध्ाानीपूर्वक भक्ति के क्रिया होने का निषेध्ा करते हुए देखते हैं ताकि अद्वैतियों द्वारा भक्ति का कर्म में अन्तर्भाव करने का निरास क्या जा सके। इसीलिए हम भक्ति के शास्त्रीय व्यवस्थापन में कार्यरत दूसरे विचार-वर्गीकरण का उत्साह में ज्ञान-मिश्रा और कर्म-ज्ञान-मिश्रा भक्तियों को जगह पाते देखते हैं। यह बात सच है कि भक्ति-मार्ग में सभी के अध्ािकार को बहुत स्पष्ट रूप से घोषित किया गया है किन्तु सैद्धान्तिक आध्ाार इसका भी अद्वैत में ही है जिसने जाति, लिंग और शास्त्र-पाण्डित्य आदि को उपाध्ाि मानते हुए उन्हें पारमार्थिक महत्व से वंचित रखा।
भक्ति के शास्त्रीय व्यवस्थापन में तीसरा और सर्वाध्ािक प्रबल-विचार उसकी रसात्मकता का प्रतिपादन रहा है। लोक-मर्यादा का अतिक्रमण करती हुई गोपियों की कृष्ण-रति ने लौकिक श्ाृंगार के उदात्तीकरण की सीढि़यों से औपनिषद निर्गुण ब्रह्म के आनन्दात्मक और रसात्मकत्व तक पहुँच बनायी और भक्ति को रस के रूप में स्थापित करते हुए ब्रह्मानन्द को काव्यानन्द के सहोदरत्व तक न सीमित रखते हुए इन दोनों में सायुज्य स्थापित किया। साहित्यशास्त्रियों ने कुछ तकनीकी तर्कों के आध्ाार पर भक्ति को भाव ही माना था, रस नहीं, किन्तु भक्ति के शास्त्रीय व्यवस्थापन में इसे न्यूनता मानते हुए इसका बलपूर्वक निराकरण किया गया और भक्ति का रस तक ‘उच्चीकरण’ किया गया। भक्ति को एक ओर ज्ञान के तत्वविवेचनात्मक गाम्भीर्य से पूरित करने और दूसरी ओर रस के माध्ाुर्य से प्लावित करने के युगपत् प्रयास ने भक्ति-सिद्धान्त का ऐसा शास्त्रीय स्वरूप खड़ा किया जिसमें अद्वैत और अद्वैतेतर सम्प्रदायों की विभाजन रेखाएँ ध्ाँुध्ाली पड़ गयीं तथा सम्प्रदाय-रक्षा के लिए परस्पर शास्त्रार्थ का कोलाहल देवार्चन की व्यावहारिक घण्टाध्वनि से दब गया।

टिप्पणियाँ और सन्दर्भ
पण् हेमाद्रि की कैवल्यदीपिका टीका के साथ वोपदेव-कृत मुक्ताफल। पण्डित ईश्वरचन्द्र शास्त्री और पण्डित हरिदास विद्यावागीश द्वारा सम्पादित तथा ब्ंसबनजजं व्तपमदजंस ैमतपमे द्वारा 1920 में प्रकाशित।
पपण् जीव गोस्वामी कृत भक्तिसन्दर्भ। श्री हरिदास शास्त्री द्वारा सम्पादित और गदाध्ारगौरहरि प्रेस मथुरा से 1985 में प्रकाशित।
पपपण् भक्तिचन्द्रिका। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा 1998 में प्रकाशित तृतीय संस्करण। इसमें स्वप्नेश्वर का भाष्य, नारदकृत भक्तिसूत्र, भक्तिमीमांसा नामक एक प्राचीन भक्तिसूत्र तथा एक उत्तरकालीन भक्तिसूत्र और पौराणिक विवरण भी संकलित हैं।

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