02-Aug-2023 12:00 AM
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आप न पछाणो कै? गप्पूजी ! आपणा गप्पूजी। गप्पूजी भाई साब। भर्यो - भर्यो डील, दरम्यानो कद, गोळ मूंडो। दाढ़ी रोज बणावै छै। छोटी, चतराई सूँ छँटी मूँछ्याँ। पूरा अरज का पायचा हाळो ढीलो, धोळो पजामो अर धोळोई कमीज।
भाया की लाराँ रहै छै। खास छै आजकाल वाँका। डावा हाथ ई समझो। एक पग भी नं धरै भायो, याँ सूँ पूछ्याँ बिना।
परधान जी का भाई छै - पिताजी याँका। बीचला छै - आपणा गप्पू जी। बडा रम्मूजी, अर छोटा सीतल जी। पण वाँकी न चालै अतनी, जितनी याँकी चालै छै। अबरकै आपणा वार्ड सूँ ई तो लड्या छा - चुणाव ! ऐन टैम पे बज्जी न पलटती तो जीत्या- जिताया छा। काँई तोल छी, कै आपणा ई लोग दगो दे देगा। म्हाँनै तो पहली ई क्ह दी छी- ‘भाई साब !’ ये, ‘पाळ्या गंडक ई पीण्डी पकड़ैगा’।
म्हीना में पंदरा दिन तो जैपर ई रहै छा........वा तो आजकाल चासणी थोड़ी बैठ न री, नं तो ! केई दफा तो मूँ खुद ग्यो छूँ। लेराँ याँकी। ठेठ विधानसभा ताईं। कोई को तबादलो होवै, चाहे कोई को - काँई को बी ओडर होवै। लाराँ लेर ई आवै छा। चाहे कितनाई दिन पड्यो रहणी पड़ै व्हाँ। वाँ- खोड़्या बैनजी को तबादलो म्हाँनेई तो करायो छो। गाडी कर’ र ग्या छा।
प्रेस करया होया कमीज- पजामा, एडवान्स पड़्या रहै छा अटैची में। बस ! उठाई अर चालबा कोई काम रहै छो। ठहरै छा तो भाया का बंगळा पै ई। और लोग भी आता-जाता रहै छा - आपणा इलाका का। भाया की आडी सूँ फुल ओडर छै - कोई भी आवै भल्याँई, चाय-पाणी, नास्तो, खाणो - कोई भी चीज की कमी कोईनै। और दूसरा सौक, खुद का खुद करो। एक पीेसो बी खरच नँ होबा दे छा गप्पूजी, म्हाँको तो। रहबा, ठहरबा सूँ ले’ र खाबा-पीबा तकाद का सन्दा इन्तजाम एडवान्स में ई होया रहै छा ! आगै सूँ आगै।
सबसूँ पछाण छै गप्पूजी की व्हां। मारवाड़ आडी तकाद का नेता जाणै छै गप्पूजी के ताईं, भाया की वजह सूं।
या सड़क बण री छै नै। ईंको ठेको आपणा गप्पूजी को ई छै, यूँ मानल्यो। उस्याँ ठेको तो और को छै। बाहिरै को छै ठेकेदार। भाया को मिलबा वाळो ई छै। कोई तो क्है छै पाटनरी छै। क्रेसर में भी बताई, पाटनरी तो। कांईं बी होवै, ऊसूं आपणै काईं लेणो-देणो। भाया ने ऊसूं क्है र यो काम गप्पूजी के ताईं दिवा द्यो। अब नावं भल्यांई ऊ ठेकादार को होवै, पण करै सब पप्पूजी ई छै। बिल बणवाबा सूं लेर- कमीशन, पेमेंट ताईं। अबार सड़क को काम चाल रयो छै। लेपा होरया छै। रोलर फिर रया छै - डम्मर ढुळ रयो छै। गिट्टयां बिछ री छै। तो ये सन्दा काम यूँई थोड़ी होरया छै। गिट्टी अर ‘सट्टी’ के बिना सड़क बण सके छै कै। जाणो छो आपतो। कोई बी होवै - सबसूं सैटिंग रखाण्णी पड़ै छै। नेतागिरी को काम नेतागिरी सूं होवै छै अर सट्ट्यां को काम सट्ट्यां सूं। सब काम, बिसवास सूं चाले छै। पूरा डिपाटमेंट में सिक्को छै आपणा गप्पूजी को। अर जे और कोई बात हो जावै, तो फेर भायो रयो न ! कह राखी छै भाया ने भी। जीं को ज्यो दस्तूर बणै छै, ऊ बखत पै पूगणी चाहिजे। अर जे फेर कोई बात होवै, तो मसूं क्हो। सबसूं बणार चालै छै गप्पूजी। टैम-टैम पै सबकी खातिरदारी होवै छै। कोई कसर नं रहै। जस्या देव उसी पाती। म्हांसूं कोई बात छानी थोड़ी छै। म्हानै खुलाया छै केई दफा, डाक बंगलाँ का कमरा। देखो ! दुनिया में काम तो अस्यांई चालै छै सबका। आज आप म्हाँकै काम आ रया छो, तो क्हाल आपकै बी काम पड़ सकै है। चालो, सांची छै क कोईनै? असी टैम पै गप्पूजी, पाछै नं हटै। भल्यांई दूसरी पार्टी को आदमी होवै। जे बखत पे आडो आयो, ऊंकी लारां, रात की बारहा बज्यां बी त्यार रहै छै - गप्पूजी। हाँको पाड़बा की देर छै। सब समझ जावै छै। या बी नं पूछे, कै कहां चालणो छै। थाणा में होवै चाहै तहसील में। जदी तो लड़का ज्यान दे छै पप्पू जी पै। अर पप्पूजी भाया पै।
भायो ! कांई छै भायो ! जे पप्पूजी नं होवै तो। छै जे तो पप्पूजी ई छै।
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हूंकारो
कोई ज्यादा पुराणी बात कोईनै। बाळपणा की छै। म्हां, कोई बडा - बूढा सूं कहाणी सुणाबा की कहता, अर ऊंकै नं सुणाणी होती तो ऊ पहली तो या कह ‘र टाळतो के दिन में कहाणी सुणाबा सूं पावणो गेलो भूल जावैगो। अर जे म्हां, ईसूं भी नं मानता, टच्ची करता, तो वे म्हांकै ताईं एक कहणावत कह’र टरकावै छा। वा कहणावत म्हारै ताईं आज भी याद छै;
कहाणी कहरै काचरा
हूंकारा दे रै बहरा
आंधा ने चोर पकड़्यो
दौड़ जे’ र लूल्या
अब ईं बात को, ईं कहणावत को म्यानो तो, समझणा लोग अर देबा वाळा ई देगा - कै ईं बात को काईं मतलब होयो? कस्यां तो काचरो कहाणी कहैगो,? कस्यां बहरो सुणैगो? कस्यां आंधो चोर कै तांईं पकड़ैगो अर कस्यां लूल्यो भागैगो?
मूं और और की नं जाणूं, पण हूंकारा क लेखै कहबो चाहूँ छूं - हूंकारा में केई गुर रहै छै। कै कोई हूंकारो, कसी तक सूं दे रयो छै?
हूंकारो, और ठाम पे - चाव्है जाणै नं चाव्है, पण कहाणी में तो चाव्हैई चाव्है छै। कहै छै न कै - ‘फौज मं नंगारो अर बात में हूंकारो ज़रूरी छै’।
हूंकारो केई तरह को होवै छै - हूंकारो, कोरो हामळ भरबो ई नं होवै। सवाल बी पूछे छै केई बार हूंकारो - ‘हूं?’ ‘जे कांईं होयो?’ ‘कांईं क्ही?’
लम्बो हूंकारो, कै छोटो हूंकारो। रोबा - ठणकबा को हूंकारो। केई बेर नटबा बरजबा को हूंकारो। आप तो न मानो पण हूंकारो - बरजै छै, नटै छै - ‘ऊं हूं’। ‘नं सुणी के?’
अस्या हूंकारा में दकाल अर धस्यांक बी रहे छै - ‘आऊं कै? ...अर नं सुणी तो?- काईं न काईं बज्योग होबा की धमकी।
मानल्यो कोई बडो गाँव क कस्बो होवै। ऊ गाँव की सकड़ी गळी में कोई नुयो लड़को फर्राटा सूं फटफटी निकाळ कै ले जावै, एक ओझाका की नाईं। निकळबा वाळा की पछाण बी पूछ’ र करणी पड़े - ‘कुण छै यो?’
जवाब मिलै - ‘फलाणा को छै।’
जाण्यां बार पाछै, जे हूंकारो निकळै, ऊंकी मत पूछो। साठ सूं ऊपर की उम्मर को तजरबो समझो ऊंमैं। चलाबा वाळा का बाप की पछाण। ऊंका बाप - दादां की पछाण। घर, परवार, खानदान की कहाण्यां। आगे-पाछै की खोट-कसर। अर चलाबा वाळा का लक्खण, माजणा। काईं बी, अर सब कुछ, दोन्यू हो सकै छै। जे बाप मूंजी होवै अर बेटो उडा रयो होवै, तो केई कहैणावतां - आपरती आप, ई हूंकारा में समा जावै छै। जस्यां- ‘घर में तो घट्टयां ई कोई नं अर पीसबा का ठेका लेल्या।’
अर कै ‘मरदां का दिवाळा मसाणां में चुकै छै।’ ‘उड़बा द्यो फटकार।’ ‘अर निमट जावैगा कोई दिन !’-
या तो एक बानगी छै- असणका हूंकारा का अस्तर में और बी केई मायना छिप्या हो सकै छै।
हूँकारो तो हूँकारो - हूंकी और बी जबरी होवे छै। कलकारी अर हूंकी तो आच्छ्या, आच्छ्यांन कै ताईं पगत्या डँका दे छै। हां जे नंऽऽ ! तो। यूंई छै कै हूंकी? पीण्ड्यां कांप ज्या छै, धूजणी छूटज्या छै, एकला- दोकला मनख के तो, जे रात-बिरात, अँधेरी उजाळी, रात में, क्हीं न क्हीं, असी उसी ठाम कै नीड़ै-गोडै, हूंकी सुणल्यै तो।
अब आप बी सोच रया होवैगा - क्हां की बात ने क्हां लेग्या। आपकी बात बी साँची छै - आपणो कांई छै, कै आपण, अक्कल की मारी बोझ्यां मरां छां। कोई बी बात होवै, ऊंको मरम समझबा की कोसिस नं करां, बस तरक की कुल्हाड्यां ले’ र ऊँकै पाछै पड़ जावां छां। ऊंका छोडा - छोल न्हांकां छां। केई बार आपण फूंतरां की नाईं बातां करां छां। भुस का तुणकल्या सरीखी। ज्यादा ज़ोर मारो तो, कांदो छोलबा सरीखी, कै करमकल्ला का पत्ता उधेड़बो। मरम की बात क्हां पकड़ जाणां छाँ।
हूंकारो तो यूँ समझो- के मरम की जड़ में बैठ्यो छै। हूंकारो फूँतरो कोईनै। यो गुर छै। जींकै म्हैलाडी गुठली छै। बात को बीज।
अब अतनी समझ, अतनी थरता अर धीरपाई होवै तो हूंकारो को मरम समझ में आवै।
यूं ई थोड़ी छै - हूंकारो। कोरी नाड़ हिलाबो सूं कोईनै होवै हूंकारो।
हूंकारो भरबा सूं पहली सोचणी- विचारणी चाहिजै।
अर जे कोई हूंकारो भर रयो होवै कोई, तो ऊंको मरम समझणी चाहिजै।
‘हूँ।’
‘काँई हूं?’
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उडबाद्यो फटकार
मत परवाह करो, क़ै, कोई कांई क्हैगो। उडबा द्यो झंडी - उडबाद्यो फटकार।
कुण कुण की, अर कांईं - कांईं क्हां। थांई बोलो, कांईं कांईं को करां बखाण।
सबने ‘छीला’ कर राख्या छै। सबने बणा राख्या छै सैलाण।
सूण्डा, गेला, चरणोटां नं छोडी। अर कस्या मसाण?
जीत रया छै वैई चुणाव में। हो री छै वांकी ई - जै जै कार।
जे जीम रया छै - लाडू - बाटी, कत्त - बाफला, वैई क्ह रया छै - उडबा द्यो फटकार।
मस्टरोलां पै मस्टरोलां। भरगी मस्ट्रोलां केई, तो भी हाल अधूरा पड़्या होया छै, केई काम।
नपती होगी, एम.बी. भरगी, बिल बणग्यो, भुगतान होग्यो, कमीसन बंटग्यो।
काम अधूरो पीऽसा पूरा।
लिख रया, पढ रया, गिणती कर रया। आँख्यां ई आँख्यां में सैन चला रया।
हिसाब मिला कर आपसरी में कह रया गिणतकार - सब ठीक छै - उडबा द्यो फटकार।
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और नं तो कांईं ?
छायो जस्यो आयो नं। छड़काव लगा’ र कढ़ग्यो।
मन चाह्यो हो जावै, तो फेर कहणी ई कांईं बात !
मन चाह्यो न होवै, तो बी... बात तो रहे छै, .... पण वा बात नं रहै।
असाढ सूं ... आस बंधै छै। मनख ई नं, करसा, पाँख - पखेरू, चिड़ी- चुड़कला, जीव-जनावर सभी आस करै छै। पाणी सूं ई तो प्राण छै सबका। पाणी बिना कांईं छै। जदी तो क्ही छै- ‘बिन पानी सब सून।’
आसाढ कढ़ग्यो। बावण्यां तो होगी, जस्या-तस्यां। सावण बी सूखोई कढ्यो मानो। थोड़ा- घणा छांटक - छर्डा सूं कांईं होवै छै। मूण्डो धुपबो ई मानो। धरती थोड़ैई धापी छै। धापबो छोड़, धरती गाळ पाणी बी नं बरस्यो। तूण- तुणकल्या होग्या मानल्यो जीव जनावरां के लेखै, पण खाळ-नाळ, नंदियां, कुवा- बावड्यां में पाणी कहां छै? हेण्डपम्प बोलग्या। ज्याँकै बोरिंगां छै वांसूं पूछो देखाँ - कितनी क देर चालैछै। अबरकै तो सावण सूखो ई कढ़्यो, मानो। अर कुदरत देखो, केई ठौरां बाढाँ आ री छै। नंद्दी-नाळा, उफण रया छै। जीव जनावर, रुंखड़ा - बैहता नं देख्या क टीवी में। केई घर ढसड़ग्या। पुळ पै पाणी आजावे तो बी लोग-जणी नं डटै। अर फेर? बहे छै न,! जद मोटरां कारां का ई थाक न लाग रया तो फटफट्यां रुकै छै कै?
हां जे, याई होरी छै। कोई ठाम पै तो अतनो बरस रयो छै क बाढां आरी छै अर कोई जगह छै जै तरस रया छै लोग। पुराणा जमाना ने याद करे छै - कस्यो पाणी बरसै छो !
अब आपण तो सहर में रहां छां - जाणै। खेती-बाड़ी बी कोईनै- आपणै। नळां में पाणी आई रयो छै। कूलर-पंखा बी चाल’ रया छै। फेर?
फेर? आपणै क्हीं में चाह रही छै बरखा? आपण क्यूं हो रया छां अतना अधीर, अतना उतावळा, अतना आकळ-बाकळ?
वा कहणावत क्है छै न - क पखेरु जूण छै - आपणी।
अबार, मोर कै - पपैया के, क्ही में च्हावै छै पाणी? आखै साल तो नं कुरळावे वै बी, पण चौमासा में बोलै छै क नं बोलै? बस या ई बात छै। मनख को अर पाणी को, धरती - पाणी ज्यूं नातो छै। अर यो आज को कोईनै, सृस्टी सुरु होई तदसूं छै। या तस, या प्यास, बरखा की कोईनै - पाणी की कोईनै। मनख के भीतर बैठ्या पृथवी तत्व की पुकार छै - धरती को हेलो छै। पाणी कै लेखै - जळ के लेखै, जळ तत्व के लेखै। पांख-पखेरू, या मनख, नं कुरळावै, भीतर बैठी पृथवी कुरळावै छै।
ये सब गूढ बातां छै। पण आजकल कुण तो करै छै असी बातां - अर कुण सुणै-समझै छै यां बातां ने। क्हाल, विनोदजी सूं फ़ोन पे बातां हो री छी, वै कह रया छा - ‘आपण ई सृष्टि का गरभ में पैंसठ बरस का भ्रूण छाँ। हाल आपणो तो जलम होबो ई बाकी छै - जगती को जादू देखबा, जाणबा को नम्बर तो ऊंकै बार पाछै छै।
असाढ़, सावण यूंई कढग्या। भादवो लागग्यो। परस्यूँ छी राखी।
बादळा आवै छै। छावै छै। बरसै कोइनै। बाळ चालै छै, अर कढ जावै छै। बरसै नं। तावड़ो कढ़्यावै छै। कस्यो भ्यावनो लागै छै।
कोरोनो नाळो फैल रयो छै। विकराल बण’ र। दो दिन सूं लोक डाउन छै। सड़क्यां सूनी छै। मनख जायो नं दीखै। मनख छोड़, कोई मोटर, कार, फटफटी, स्कूटर - कांईं बी कोइनै। कुण सूं बोलां? कुण सूं बतळावां? क्हां जावां? कै तो टीवी - अर कै मोबाइल। यांने बी क्हां ताईं देखाँ?
मनख तो मनख होवै छै। मनख्यां की तलब मोबाईल सूं मिटै छै कै? मनख्यां सूं मिल्यां बिना मन मानै छै कै?
पण कहां सूं लावां मनख? क्हां जावां मनख हेरबा?
बाहिरै कढबा तकाद की तो मनाही छै।
उस्यांबी देखो तो अब क्हां मिलैगा मनख? बच्या क्हां छै अब मनखं? अर क्हां बच्यो छै अब मनखपणो?
सब एक-मेक हो रयो छै- धरम-राजनीति। स्वास्थ- परमारथ। कोई की मत क्हो।
अर क्हो बी तो कांईं क्हो? क्हबा में ई नं आवै। कुण की क्हो?
यांकी क्हो तो वांका-बुरा, अर वांकी क्हो तो यांका।
भला कोई बी कोईनै। सब परताळ’र, देख म्हैल्या छै।
अब तो रामजी को ई भरोसो छै। रामजी करे जेई होवैगो।
रामजी का मंदर को भूमि पूजन छै - आज। ऊं मैं भी राजनीति घुस री छै।
साधू संत तकाद तरफड़रया छै। मान सनमान के लेखै।
भाई राजनीति वाळां की तो मत क्हो। वै तो टैम सर, बखतमुजब बोलै छै। वांकै तो बोटां को स्वास्थ छै। वै तो कोई का सगा कोई नं। बस स्वारथ का सगा छै।
पण थां तो संत छो ! महातमा छो !! थां क्यूं राजनीति कै पाछै लाग रया छो
या राजनीति तो अब असी भख-लेणी होगी कै सबकै ताईं बठ्ळाद्या ईंनैं
बुद्धिजीवी होवै, चाहे साहित्यकार, चाहे कलाकार। सन्दा जाणै - राजनीति की बाणी ई बोलै छै।
कुणसूं कांईं क्हां ?। कुण पै बिसवास करां। सबका हेत बंधरया छै, आमा- सामा।
समझ बूझ’र छानो रहबो ई पाँती आवै छै। बळ्ळाओ - बाहरां पाड़ो, तो बी कुण सुणै छै। ज्यादा करो, तो या सुण्णी पड़ै छै - भुसरयो छै ! - भुसबा द् यो !! भुसभुसा’र आपरतो आप, छानो हो जावैगो।
हां जे या ई छै। और नं तो कांईं?
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जंजीरा पे जंजीरो
आज अणतचौदस छै। सराधां की तथ्यां भेळी होगी। लॉक डाउन लाग रयो छै।
और साल तो, बडो उच्छब होवै छो- अणतचौदस को - जुलूस कढै छो। हजारां की तादाद में गणेशजी की मूरत्यां खमावै छा जळ में। नंदी - तळाव में। पण अबरकै?
कोरोना की मारी सब बंद छै। पाबंदी छै।
तेजाजी की दस्सैं को मेळो? अर डोळ जातरा का ब्याण? - क्हां कढ्या?
किसोर सागर तळाव की पाळ पै तड़का सूं ई पुलिस तैनात होगी। घूमबा आबा वाळां की की गाड्यां बेई बी नट रया छा। क्हां लगाबा दे रया छा?
अक्या-दुक्या लोग घर में थरपी गणेश जी की मूरत ले’र आया, वांकी बी भीड़ न लागबा दी। सोसल डिस्टेसिंग रखाणी। जद जा’र खमाबा द्या गणेशजी, सिपायाँ ने।
कोटा में ज्यो हर बार जुलूस कढै छै - अणतचौदस को। ऊंकी सुरत आवै छै। चितराम सो उघड़्यावै छै- आँख्यां कै आगे।
ऊंको बखाण? कोई ने मांड्यो छै कै? मांड्यो होवै स्यात। तोल कोईनै।
गजब को, ज़ोरदार जुलूस कढै छै। झांक्यां- अखाड़ा, कसरत, लाठी, बन्नैठी, तलवार अर पटाबाजी का केई, तरह-तरह का करतब!
दपहर पहली - गुमानपुरा’ मल्टीपरपज स्कूल का मैदान सूं सुरू होवै छै जुलूस - जे सूरजपोळ दरवाजै होकर, अन्दर कैथूनीपोळ थाणा कै सामै सूं, लाल बुरज, सब्जी मंडी, पुराणी धानमंडी, रामपुरा, आर्यसमाज रोड, हिन्दू धरमसाळा होतो होयो, जयपुर गोल्डन कै पास सूं, किसोर सागर तळाव की पाळ पै आवै छै। बारादरी के गोडै रात का पाछला पहर तांईं खमावै छा गणेशजी की मूरत्यां। पण अऽऽस का साल असी कोई धूम-धाम कोईनै। सब पे पाबन्दी छै।
सब टैम-टैम की बातां छै। बखत का हीरा मोती क्हावै छै।
लोग-बाग़ क्ह छै - अर या बात साँची बी छै - कै पहल्यां अतनी धूम-धाम क्हां होवै छी अणतचौदस की यहाँ - आपणी हाड़ौती में। जुलूस वग़ैरा बी क्हां कढै छा अस्या। कोटा में गोदावरी धाम का बाबा गोपीनाथ जी, कै एक मराठी डाक्टर को नांव ले छै लोग। ये अपणा माथा पे धरकै गणेशजी की मूरत, दो च्यार जणां की लार खमायावै छा। ये तो अबार दस बीस, ज्यादा समझो तो तीस-चाळीस बरस सूं होबा लागी छै अतनी धूम-धाम।
कोटा की तो म्हानै ज्यादा तोल कोइनै पण अणता (अन्ता) की तो क्ह सकां छां। म्हांका गाँव अणता को नांव ‘अणतो’ ई - अणतनाराण (अनन्तनारायण) का नांव सूं पड्यो छै। म्हां जीं पाड़ा में रहां छाँ ऊ पाड़ा में ई छै अणतनाराण को मंदर। पण, नं तो म्हांका गाँव में, न म्हांका पाड़ा में। अणतचौदस को, अस्यो कोई बड़ो उच्छब नं होवै छो।
अणतनाराण का मंदर तांई ई महदूद रहै छो यो उच्छब। थोड़ा घणा संस्कारी, करमकांडी बामणां का घरां में ज़रूर पूजा-अनुष्ठान होवै छा। म्हांका बाबा करमकांडी छा। सूत को गंठ्यां वाळो पीळो अनन्त- सूत्र, भुजा पै बांधै छा। या याद छै।
पण चतरा चौथ (गणेश चतुर्थी) को परब खूब धूम-धाम सूं मनायो जावै छो।
‘चतरा चौथ’ ई क्ह छा, जद गणेश चतुर्थी सूं।
चतरा में, सुभ अर चातरूक - मतलब बुद्धिमान दोन्यूं का भाव छा !
बाळक, घर-घर डंडा जोड़बा जावै छा। यूं समझो आखा गाँव में हर घर के आगै जा’र - डंडा बजा-बजा’र, गोळ-गोळ, फिर-फिर’र गावै छा - जंजीरा को गीत। जंजीरा पे जंजीरो। खासतौर सूं ऊ घर के बाहिरै-जीं घर में नुयो, छोटो बाळक होतो। घर का लोग बी ऊ नुया बाळक कै ताईं नुया कपड़ा ओढा-पहरा ‘र ‘चतरो’ बणावै छा।
गीत पूरो होबा पै, या बीच में ई, घर की धर्याणी कांईं न कांईं - मिठाई, परसाद - (ज्यादातर तो लाडू ई होवै छा - मोतीचूर का) अर कै आना-दो आना पीसा बाळकां का हाथ पै म्हैलती।
बाळक परसाद, कै पीसा ले’र, आगला बारणा पै जंजीरा जोड़बा लाग जाता।
डंडा जोड़ता होयां, गोळ-गोळ घूम’र जो गीत गावै छा-ऊ गीत कुण ने रच्यो छै? अर ऊंको अरथ काईं छै? या तद बी तोल नं छी, आज बी कोइनै।
पण ऊ गीत-हाल तांईं सुरत में छै। बिसर नं जाऊं ईं लेखै यहां सिमरूं छूं;
जंजीरा को गीत।
जंजीरा पै जंजीरो
जंजीरा पै नो सौ फूल
झाड़-झूड़ लेग्या हुजूर
हुजूरां को बडो तळाव
जी में बैठ्या केसोराव
केसोराव जी की बडी-बडी छत्र्यां
एक छत्री मं भूत बिराजै
दूसरी छत्री में रामजी बिराजे
चालो रामजी दरसण चालां
दरसण चाल बिजोरै चालां
बिजौरा की लाम्बी डोर
जा’ पड़ी समंदर में डोर
समन्दर-समन्दर कौड़ी पाई
कोड़ी का हमने घास लिया
घास की हमने गऊ चराई
गऊ ने दीना दुद्धा..
दुद्धा की हमने खीर पकाई
ताती-ताती हमने खाई
सेळी- बासी मोर चुगाई
मोर ने दीना पंखा
पंखा लेकर गुरुजी को दीना
गुरुजी ने दीनी बिद्या
बिद्या हमारे पेट में
घोड़ा दौडे रेत में....//
अब नं तो चतरा चौथ की असी धूम-धाम होवै - नं डंडा जोड़बा जावै, कोई-घर-घर।
नं डंडाँ, जंजीरां की खट-खट् सुणाई दे। नं वांकै बीचै मंदरो-मंदरो चालतो ऊ जंजीरा का गीत को स्वर।
अबतो चतरा चौथ सूं ले’र अणतचौदस तांईं गणेशजी बिठाणबा अर वांकी मूरत खमाबा को ई चलण ज्यादा होग्यो। ठाम-ठाम पै गणपति की, नीजू कै सामलाती मूर्त्यां, थरपबा अर झांक्यां बणाबा कै पाछै मंसा कै मनोरथ कांईं छै, ?
ईसूं आपणै ज्यादा मतलब, लेणों-देणो कोइनै।
खूब थरपो गणेश, खूब सजाओ झांक्यां, खूब निकाळो जुलूस-ज़ोर सूं, धूम-धाम सूं।
पण.....पण आपणी ! आपणी वा चतरा चौथ। ऊंको कांईं होयो? कठी गुमगी वा।
कठी ग्या वै डंडा, जंजीरा। अर जंजीरा को गीत-जंजीरा पे जंजीरो...।
ऊ तो बिसर ई जावैगो जाणै !!
रीतो रुँख बंबूळ को
देसी बूंळ्या पे पीळा फूल खिल रया छै। पण, वन-उपवन, बाग़-बगीचां में रमबा वाळा, प्रकृति अर सिणगार (श्रृंगार) का कवियां की नज़र, ईं सूळ-धसूळ वाळा रूंख पे क्हां जावै छै?
तड़कै, बाग़ में सूं बावड़ती बेराँ, सड़क किनारे, एक लैण में खिल रया पुराणा बूंळ्या का बिरखाँ पे नज़र पड़ी। अपणी बोली-बाणी, राजस्थानी (हाड़ौती) का कवि दुर्गादान सिंह जी का एक गीत की चितार हो आई- ‘रीतो रुँख बंबूळ को’।
आपण, दुनिया जहान का साहित्य, साहित्यकारां, कवियां-लिखारां ने तो जाणां-बखाणां छां, पण आपणै आस-पास, नीड़ै-गोडै का, आपणी बोली-बाणी का कवियां-लेखकां पे, क्हां चित धरां छां। वां पे तो आपणी नज़र ई नं जावै। आपण वांने गिणां ई कोइनै। जोग-बज्योग सूं, अपणा खुद का बळ, पुरसारथ सूं जे वै नामी-मसहूर हो जावै तो, उल्टा वांकै तांईं जणाबा को जस लेबा की कोसिस करां छां।
राजस्थानी (हाडौती) का चावा-ठावा, लाडला कवि-गीतकार, कविवर दुर्गादान सिंह जी गौड़ की कविता कै तांईं, जमारा भर का लोग-जणी तो जाणै, सराहवै छै, पण जे साहित्य का पंडत-प्रोफेसर नाम धरावै छै, वांनै कदी बी ईं लोक कवि की कविता, अर ऊंकी कविता का संसार के तांईं जाणबा-समझबा की कोसिस नं करी।
नांव लेबा गिणाबा सूं कांईं फायदो, बिना काम मन मैलौ होवैगो।
पांच दशक सूं बी ज्यादा अरसा सूं राजस्थानी में कविता करबा वाळा कवि दुर्गादान सिंह जी का गीतां की पहली पोथी सन् 2013 में छपी- ‘पाणी में चांद घुळै छै।’ या वांका एक गीत की सरै लैण (शीर्श पंक्ति) छै - जीमैं वे गीत की नायिका का रूप को बखाण करतां होयां क्ह छै - क नायिका इतनी रूपाळी छै जाणै- ‘पाणी में चांद घुळग्यो होवै। इतनी ही नं, वे नायिका की चाल के लेखै क्ह छै क ऊंकी चाल असी छै जाणै-थाळी में मूंग ढुळै छै। अतनी सुन्दर, अतनी अनुपम उपमा, औठै क्हां छै?
दुर्गादान सिंह जी के तांईं कवि सम्मेलनां में अमूमन श्रृंगार रस का कवि का नांव सूं जणायो जावै छै। या बात बी साँची छै कै वांका ज्यादातर गीत-नायिका प्रधान छै। या बी सही छै कै वां में रूप अर सिणगार दोन्यूं छै। पण वांका सिणगार गीतां में लोक संस्कृति अर जिन्दगानी की अबखायां का जे तत्व छै वांकी कत्तई अणदेखी करी गी छै। वांका केई गीत अस्या छै ज्यां में लोक संस्कृति का उजाळा की अनूठी ज्योत जगमगै छै। ज्यांई वे सुरीला गळा सूं गा कर जन-मन ने मोह ले छै।
यहां म्हां जीं गीत की चरचा करैंगा ऊ वांका प्रकृति पे लिख्या होया गीतां में सूं एक छै। यूं तो दुर्गादान सिंह जी ने आम्बा, नीम, बड़ पे बी गीत लिख्या छै पण आपण आम, नीम की नं - बूंळ्या की बात करैंगा।
गीत सुरु होवै छै -
‘कोई ठुकरावै, कोई मान करे
तो भी सगत्याँ ई दान करे
‘सगत्यां’ राजस्थानी को सबद छै जींको न्याळी-न्याळी बखत पे न्याळो-न्याळो अरथ छै। जस्याँ लड़ाई, अणबोलो होयां पाछै - बिना मनुहार’ सगत्यांई, बोलबा लाग जाबो। बिना नूंतै, बिना बुलायां कहीं’ ‘सगत्यां’ चल्यो जाबो। बिना मान-मनुहार, बिना मांग्यां, बिना दरकार कोई चीज देबो। बूंळ्या को रूंख कह रयो छै - कोई ठुकरावै छै, कोई मान करै छै, तो भी सगत्यां ई दान करूं छूं- ‘अपणा बासंत्यां फूल को।’
गीत को मुखड़ो छै;
कोई ठुकरावै कोई मान करे,
तो भी सगत्याँई दान करे
अपणा बासंत्यां फूल को।
म्हूं रीतो रूँख बंबूळ को।।
रीतो, यानी रीतपराको, खाली, रिक्त - बेमतलब रूँख। गीत की सुरुआत में बूँळ्यो जाणै अपणो परिचै दे छै, पिछाण करावै छै।
‘उगियो अरियाळै, गरियाळै’
‘कुण सेवै म्हनै कुण पाळे
कुण घर असी कुंवारी छै जे
जळ भर झारी गंगाजळ डालै
रुत नं रीझै म्हारै पळस्ये
पुरवा बैठ न डेरा घालै
‘बस थोड़ो सो अहसान म्हंपै छै धूळ को ।।1।।
यूंही, अठी-उठी। अळी-गळी, गेला-गरियाळा, में। असी-उसी, अणजाणी ठाम पे कहीं बी उग्याऊं छूं। कोई म्हारी परवा नं करै - कुण सेवा करै, पाळै-पोसै।
आपणी लोक संस्कृति में कुंवारी लड़कियां कै तांईं आछ्यो बर मिलै, ईं लेखै केई बरत कराया जावै छै। वां में एक, पेड़ में जळ सींचबो बी छै। जस्यां - रोजीना, नित एक लोठ्यो जळ पीपळी में चढाबो। पण बूंळ्या का पेड़ में जळ चढाबा सूं कोई मनोरथ पूरो हो जातो होवै, अस्यो कोई विधान कोईनै। तो फेर कोई बी क्यूं, एक लोठ्यो पाणी बी बूंळ्या के अरपण करैगो ? म्हारे पळस्ये, द्वारै, दरवाजे कोई रुत नं रीझै। म्हारी देहळी पे कोई पुरवाई नं आवै - नं रुकै। डेरा नं डालै। तो फेर ? बस थोड़ो सो अहसान अगर जे छै, तो ऊ धूळ को छै। बस वाही म्हारो मेरा अभिसेक करै छै।
कहीं भी अणचाह्या उग जाबा वाळा बूंळ्या के तांईं कोई पाळै-पोसै नं। कोई लोठ्यो भर पाणी नं पटकै, कोई रुत, कोई बाळ (हवा) ऊंपै कोई उपकार नं करै। थोड़ो घणौ मान अहसान जे बी समझो, तो ऊ बस धूळ को छै।
या सीधी सपाट सी लागबा वाळी बात भी कितनी गहरी अर मरम भरी छै। लोक सूं लिया होया साधनां, उपदानां सूं एक लोक कवि-अपणी कविता के तांईं कितनी प्रवहमान अर अरथवान बणा सकै छै या कविता अस्या कौशल को बेहतरीन नमूनो छै।
कवि को काम कोरा गरियाळा सूं नं चालै - ऊ अरियाळो-गरियाळो, वापरै छै। सेवै को अरथ यहाँ सेवा कोइनै - मादा पक्षी जस्यां अंडा सेवै छै। यो सेवा अर देखभाळ सूं ज्यादा गहरो भाव छै। कुण सेवै? कुण पाळै? एक पेड़ के म्हैलाडी की ईं मासूम चाहन्या के तांईं उजागर करबा की पार, लोक भासा में ई पड़ सकै छै। अस्या मरम का भाव अर भासा को गुजर एक सिद्ध लोक कवि ही कर सकै छै।
कवि जद बूंळ्या की मारफत यो सवाल करै छै कै कुण घर असी कुंवारी छै जे एक लोठ्यो या झारी भर जळ पटकैगी? तो ईं कै बरक्स पढ्या लिख्या- लोगां का, अभिजात्य दलित विमर्श, कितना ऊथळा अर भूंठा लागै छै।
कवि, कुंवारी का बरत, अनुष्ठान, जळ की झारी अर गंगाजळ को सगपण कर के, ईं सवाल के तांईं करुणा का आंगणा में ला ऊभो करै छै। ऊ अस्यो ई दोगलो ब्यौवार रुत अर पुरवाई को बी गिणावै छै। अहसान मानबा के लेखै कवि धूळ को उपादान काम में ले छै।
कितना, सटीक, कितना सांचा, अर कितना खरा, भरोसा लायक अर औपमान। ‘बस थोड़ो सो अहसान म्हंपै छै धूळ को।’
तीन बन्द छै ईं गीत में, दूसरो बन्द यूं छै;
रूप मिल्यो होतो तो
रुतईं छळ लेतो, ठग लेतो
म्हारे बी जोबन घूमर खातो
परकम्मा देतो
पण या बात विधि सूं
मूंडो खोल कस्यां मूं कहैतो
ऊभो सोच मनाऊं छूं ईं भूल को ।।2।।
कुदरत ने रूप दियो होतो तो रुत के तांईं छळ लेतो। ठग लेतो। म्हारे ओळ्यूं-दोळ्यूं बी रूपाळी, मोट्यारां - परकम्मा देती। पण या बात विधना सूं- म्हूं खुद म्हारा मूंडा सूं कस्यां कहतो? अब ऊभो-ऊभो ईं बात को ई सोच, अफ़सोस करूं छूं।
रूप, रुत के तांईं छळ ले छै, ठग, ले छै। यो दरसन, जीवन का अध्यात्म की झांई छै-अर वा बी नुया जमाना का लोकभासा का कवि की कविता में। रूप को भरम, जोबन के तांईं ठग ले छै अर जोबन ईंकै परकम्मा देबा लाग जावै छै। हालांकि बूंळ के पास कुदरती रंग छै- हरयो, पीळो पण ऊ नुया जमाना का चलण मुजब नकली, बणावटी, सजावटी रूप की परख पे खरो नं उतरै। अमलतास, गुलमोहर, आम, पीपळ सरीखा रूंखां के मुकाबलै-खैंजड़ा, धौंकड़ा, खैंर बूंळ्यां ने कुण पूछै छै? पण लोक को कवि यहां अपणी कविता का नायक का स्वाभिमान की रक्षा करै छै। ऊ भल्यांई आखी उम्मर ईं बात को अफ़सोस मना ले छै पण मूंडो खोल’र बिधना सूं रूप को दान नं मांगै। ऊ दीनता को सिकार कोईनै। जंगळ का बूंळ्यां के म्हैलाडी की स्वाभिमान की चेतना की चिणगारी के तांईं कवि पछाणै छै। पछाणै ई नं ऊंकी रक्षा बी करै छै। यो स्वाभिमान कोरो आदर्शवादी अभिमान हो’र रह जातो जे हकीकत को अफ़सोस ईं में सामिल नं होतो। आदर्श अर यथार्थ की असी डांडामेड़ी वाकई कवि का कोसल को कमाल छै।
कविता अपूरण अर अधूरी रह जाती, जे अगला बन्द में, कवि ईं द्वंद को समाधान नं करतो। कोरो नकली अर काल्पनिक आदर्शवाद रह जातो। बात की गहराई का सैलाण नं उघड़ता जे कवि नं अरथातो :
आंबो यूं प्यारो
के ऊँकै मूँडै बसै मिठास
पीपल में यूं गिणै लोग
के देवतां को वास
थांई बोलो फेरूं -
कुण बैठेगो म्हांकै पास
जद कांटो छै इतिहास म्हांका मूळ को ।।3।।
आंबो सबकै तांईं ईं लेखै प्यारो लागै छै कै ऊं को मूंडो मीठो छै - ऊं का मूंडा पे मधुरता को वास छै।
अर पीपळ? पीपळ का पेड़ में तो सब मानै ई छै के देवतां को वास छै। खुद भगवान ने क्ही छै।
तो वांकै गौडे जाबा की, वांकै तांई चाह्बा की पसन्द करबा की उजागर वजह छै।
पण सवाल तो म्हांको छै, म्हां जस्यां को छै। कुण आवैगो, कुण बैठैगो - म्हांकै नीड़ै, म्हांकै गोडै, म्हांकै पास - ज्यांका इतिहास का मूळ में ई कांटो छै।
लोक भासा, लोक संस्कृति का, श्रृंगार का, कवि रूप में, जाण्या अर सुण्या जाबा वाळो, जण-जण को चावो कवि - अपणी कविता का अन्तस में - पाखण्ड पे प्रहार करबा की इतनी शक्ति, अन्तर्वेदना की इतनी अर असी करुणा, लियां बैठ्यो छै - ईं बात की परतीती कविता का मरम तांईं जायां बिना नं हो सकै।
जो मीठो छै, मीठो बोलै छै, आपणा मन मुजब बोलै छै, ठकुर सुहाती करै छै - ऊ तो सबनै भावै छै, सबनै प्यारो लागै छै, सबकै आसै आवै छै।
ज्यांकी लार ऊंची-ऊंची, देवतां की, पूजा की बातां, कहाण्यां जुड़ी हुई छै - वांको मान सनमान तो यां थरपनां सूं निचंत छै, बच रयो छै, सुरक्षित छै।
पण सवाल यो छै के ज्यो दीन छै, दूबळो छै, अछूत छै - जींकै तांईं, पास आबा, नीड़ै बैठबा को बी हक हासिल कोईनै, वे हमेसा ईं - दुबांत, भेद-भाव को सिकार रहैगा?
ज्यांका इतिहास का मूळ में काँटो छै।
कांईं छै यो काँटो? यो दारिद्रय, दुर्दिन, दुरावस्था, ज्यांकी जूण में सदा कुणस छै, अजक छै - सदा सर्वदा, बारहमासी अकाळ छै।
वांका, मन में बैठी, बसी - मान-सम्मान, स्वाभिमान की चेतना की चिणगारी, जे कोई लोक भासा का लोक कवि की कविता में, कविता का मूळ तत्व करुणा अर लोक का सौन्दर्योपमानां के साथ मौजूद होवै तो कांईं आपण के तांईं ऊंका वारणा नं लेणी चाहिजै?
यो एकई कोईनै, दुर्गादान जी का केई गीत छै -जे पढ़ती बेरां मोहै छै अर सुणती बेरां जाणै कीलै छै - अर जे आपण, यां गीतां की अन्तरचेतना, अन्तरवेदना की अनुभूति करां तो -चमत्कृत करै छै।