23-Mar-2022 12:00 AM
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जिन विभिé विक्षेपों से शिव की रचना हुई है, उनमें से गंगावतरण में आकार लेता उनका विक्षेप, पृथ्वी पर गंगा के अवतरण की घटना (जोकि इस आख्यान के परिप्रेक्ष्य में पृथ्वी पर अन्य के अवतरण की घटना है) से अविनाभाव सम्बन्घ रखता हैः न इस विक्षेप के बिना गंगा का अवतरण सम्भव है, न गंगा के अवतरण के बिना वह विक्ष्ेाप सम्भव है, जो शिव में तब तक अव्यक्त रहे अन्य की सिद्धि है।
पहले, ज़रा इस शब्दावली पर ग़ौर करें ः
मृगया, मृग, वाष्प, कामिनी, वेणि, पारिजात, श्वेत, हतयौवना, वसुन्घरा, व्योम, गगन मण्डल, गणिका, समीर, समिघा, अश्व, अश्वारोही, अश्वारूढ़, शय्या, रथ, अरण्य, विद्युल्लता, व्याघ, मन्द हास, निष्पर्ण तरुवर, आचमन, भित्ति, भिक्षा, त्रिविक्रम, रुद्राक्ष, खड़ाऊँ, स्वेद-कण, इष्ट देवता, नयन, अनावृत्त, सुमन, मेनका, यज्ञ, उच्चैश्रवस, क्लान्त, महागिरि, महामत्स्य, रिपु, ऊध्र्वगामी, प्रत्यंचा, चन्द्रिका, रेणु, शर, शरविद्ध देह, प्रक्षेप, मीनाक्षी, स्फटिक, श्वान, यामिनी, सरिता, कंकण, मदिरा, गरुड़, मलय गिरि, नाद, कपार, अस्खलित, आशीष, अग्निशिखा, परानिवृत्ति, संवत्सर, अन्तःपुर, राजकुमार, निरुक्त, आखेट, शिखा, तर्पण, डाह, केश, गात्र, स्वर्ण-मुद्रा, गाछ, काठ, वलय, स्तुतिपाठ, मन्त्रोच्चार, हवनकुण्ड, घुँघराले अयाल, जंघा, भुजाएँ, अंगवस्त्र, कण्ठहार, वक्र दृष्टि, रण-क्षेत्र, रक्तरंजित वस्त्र, मणिबन्घ, कुल, गोत्र, शीत स्पर्श, निशा, उन्मत्त गज, गवाक्ष, प्रदक्षिणा, रति, रति-संकेत, देह गन्घ, उष्ण अश्रुबिन्द, नेत्र, आद्रता, नभ, स्थावर, मुखाकृतियाँ, मंगलाचरण, लास्य, मोहिनी, निर्लिप्तदेह, आकाशगंगा, मुहूर्त, आयुष्य, योजनगन्घा, मन्वन्तर, प्रदक्षिणा, ऊध्र्वमूल, प्रमाद, गर्भगृह, ग्रहयोग, कस्तूरी, संयुक्ता, तुलसीदल, सन्घिप्रकाश, गोरज, मोरपंख, चक्रव्यूह, कुण्डल, अभिमन्त्रित, उत्तरीय, वृश्चिक दंश, तिमिर, नभ, देवप्रिया, मणि, विवस्त्र देह, देहमण्डल, स्वर्गारोहण, सिंगारदान, नभशायी, कुलदेवी, चिदाकाश, मत्स्यांगना, उच्छ्वास, स्वर्णांकित, अन्तःपुर, दीपमाला, स्वप्नपाश, करुणानिघान, कृपानिघान, निश्चेतना, रक्तवर्णी, तृणदल, रत्नजडि़त शस्त्र, वृष्टि, मद्यपात्र, अभय मुद्रा, शंख, चक्र, पù, निर्माल्य, चरणामृत, चन्दन, कुमकुम, कलश, आम्रकुंज, उद्गीथ, हवनकुण्ड, पुरोहित, इन्द्रासन, विरहिणी, त्रिलोक, मंगल स्पर्श, कंकाल...
कहाँ हैं हम? किस देशकाल में? किन्हीं इतिहासों में? किसी पौराणिक या मिथकीय देश-काल में? कौन हैं हम? उस देशकाल के बाशिन्दे, दर्शक@श्रोता@पाठक?
क्या शिरीष की कविता की यह शब्दावली हमें, इन तमाम अर्थों में ‘डिसओरिएण्ट’ नहीं करती? हमारे अन्तर्बाह्य अवस्थिति-बोघ, दिशाबोघ को घुँघलाती, विचलित नहीं करती? यह अकारण नहीं कि इन कविताओं में ‘भटकाव’ के अभिप्राय प्रचुर मात्रा में हैंः ‘दिग्भ्रमित मेघ; ‘घना मेघ@ निर्जन पथ पर’; ‘सुर-ताल से भटका हृदय’; ‘घाट से दूर@गहरी घारा तक बह आया@माटी का दिया’; ‘दिग्भ्रमित अश्वारोही’; ‘मन...अपना-अपना@प्रलय खोजते@भटक जाता है’; ‘आखेट पर अकेला राजकुमार@पथ भटकना चाहता है अब’; ‘...समय@ घूसर मटमैले कटे-फटे@ काग़ज़ों की तरह@उड़ता फिरता हवा में’; ‘सूर्य की एक किरण@केदार के किसी सुर को खोजती@भटकती है पृथ्वी पर’; ‘एक पदचाप@परिचय के द्वार से उस तरफ़@मँडराती है’; ‘देवलोक की दिग्भ्रमित स्मृति’; ‘इतना भ्रम फैलता है@दसों दिशाओं में@कि एक पात्र@अपरिचित गली में@ढँूढता फिरता है अपना घर’...।
भटकाव के ये अभिप्राय कविता की काया पर उभर आये उस ‘डिसओरिएण्टेशन’ के महज़ संलक्षण (सिण्ड्रोम), या अनुभाव हैं, जो इस कविता में आद्यन्त और गहरे व्याप्त है। और यह ‘डिसओरिएण्टेशन’ सिर्फ़ स्थलपरक ही नहीं कालिक भी हैः एक समय का, सहसा, किसी दूसरे समय से सामना। इस दृष्टि से ‘उच्चैःश्रवस’ कविता विशेष रूप से दृष्टव्य है, जिसमें उच्चैःश्रवस और महामत्स्य के द्विविभाजन में रूपायित पौराणिक समय का एकल स्वत्व भटककर खुद को एक रेगिस्तानी पोखर से व्यंजित पार्थिव समय (‘अब मन होता है’) में पाता है। लेकिन यह सिर्फ़ उस पौराणिक समय का ही ‘डिसओरिएण्टेशन’ नहीं है, बल्कि दोनों समयों (‘कल्प’ और ‘मन’) का यह परस्पर सामना उस तीसरे समय की रचना करता है जिसमें ये दोनों समय ‘डिसओरिएण्टेड’ हैं, जिनका निरूपण करता ‘दिग्भ्रमित अश्वारोही’ ‘दिशाएँ गिनता है@अदृश्य पर्वतों से मार्ग पूछता है’।
यूँ देखा जाए तो यह सम्भवतः कविता-मात्र का ही एक फलन या प्रभाव है। यद्यपि हम उस काव्यशास्त्र से परिचित हैं, और ज़्यादातर उससे आक्रान्त प्रतीत होते हैं जो यह दावा करता है कि कविता हमें हमारे देश-काल से आबद्ध करती है, हमें हमारी अन्तर्बाह्य अवस्थिति का बोघ कराती है। सिफऱ् यह काव्यशास्त्र ही नहीं, बल्कि ‘कविता’ के नाम पर ऐसी विपुल भाषिक संरचनाएँ भी हैं जो इस काव्यशास्त्र से परिचालित और उसकी पुष्टि करती प्रतीत होती हैं। लेकिन वस्तुस्थिति क्या इसके ठीक विपरीत नहीं है? क्या कविता, अपने श्रेष्ठतम क्षणों में, हमें एसी स्थिति में - जैटलैग की-सी ऐसी स्थिति मेें - नहीं ले जाती जहाँ हम अपना पूर्व-अर्जित और पूर्वानुमेय दिशा-ज्ञान, समय और स्थिति का अपना रूढ़ बोघ खो देते हैं? जहाँ हम बेख़ुदी की-सी अवस्था में पहुँच जाते हैं? जहाँ अनुभूति और तर्क-बुद्धि, यथार्थ और कल्पना, सुषुप्ति, स्वप्न और जागृति, संवेदन और संज्ञापन, जैविक और अजैविक, मनुष्य और मनुष्येतर के बीच की विभाजक रेखाएँ घुँघला जाती हैं? जहाँ हम सारे दिशा-सूचक संकेतों को (स्वयं कविता के भीतर मौजूद ऐसे संकेतों को) संशय की दृष्टि से देखने लगते हैं? कविता सृष्टि की मूलभूत ‘अराजकता’ को ढँकते व्यवस्था के, सभ्यता और संस्कृति के, आवरण को रन्घ्रिल@पारदर्शी बनाकर हमें उस ‘अराजकता’ में झाँकने, उसके स्पन्दनों को अनुभव करने की गुंजाइश देती है। वह हमें गुमराह करती है; भटकाती, प्रसंग-च्युत करती, अप्रासंगिक बनाती, अप्रासंगिक की ओर ले जाती है। वह हमें ‘वैकुण्ठ’ के ऐश्वर्य, सुरक्षा, आश्वासन और उम्मीद के लोक से विस्थापित कर ‘कैलाश’ के बीहड़ में छोड़ देती है। वह हमें उस रसायन का स्वाद चखाती है जो आह्लाद और मृत्यु के आसवों से मिलकर बनता है। इस अर्थ में वह हमेशा ही ‘व्यवस्था-विरोघी’ होती है (और ‘व्यवस्था’ शब्द के सिर्फ़ राजनैतिक अर्थ में ही नहीं)।
हालाँकि कविता के ये श्रेष्ठतम क्षण, हर समय और भाषा में बहुत दुर्लभ होते हैं। ज़्यादातर कविता के मामले में, यह सिर्फ़ ‘डिसओरिएण्ट’ होने का ही अनुभव होता है, अगर होता है तो; हम भटका हुआ महसूस करने के बावजूद अपनी दुनिया में ही भटका हुआ महसूस करते हैं, जिससे स्वयं वह कविता हमारी दुनिया के ठोस संकेतों के माध्यम से हमें जोड़े रखती है। और इसीलिए आश्वस्ति और उम्मीद का एक तत्त्व हमारे उस अनुभव को सन्तुलित करता रहता है - आश्वस्ति यह कि हम अन्ततः अपने ही देश-काल में हैं, और उम्मीद यह कि हमारा भटकाव दरअसल एक युक्ति है - हमें हमारे देशकाल में मानव-स्थिति का, उसमें हमारी वास्तविक अवस्थिति का बोघ कराने की। और कविता अन्त में इस आश्वस्ति और उम्मीद की पुष्टि करती है, जो उसमें हमारे विश्वास का एक स्रोत होती है। क्योंकि हम जानते हैं कि हमें गुमराह करती प्रतीत होने के बावजूद यह कविता स्वयं गुमराह नहीं है।
शिरीष की कविता उपर्युक्त तमाम अर्थों में तो हमें ‘डिसओरिएण्ट’ करती ही है, वह एक क़दम आगे जाती हैः वह हमें हमारी दुनिया से भटकाकर एक सर्वथा अजनबी देश-काल में भटकने के लिए छोड़ देती है - अनाश्वस्त और नाउम्मीद। उसमें हमारी रोज़मर्रा दुनिया के संकेत लगभग नहीं हैं; जो संकेत उसमें हैं, वे हमें, हमारी उद्विग्नता को बढ़ाते इस अहसास की ओर ले जाते हैं कि कविता सिर्फ़ हमें ही ‘डिसओरिएण्ट’ नहीं कर रही है, वह स्वयं भी ‘डिसओरिएण्टेड’ है, और भटकाव उसके लिए कोई युक्ति या साघन नहीं, बल्कि गन्तव्य है। मसलन, कविता से पहले हम इस शब्दावली को ही लें जिसे हमने ऊपर उद्धृत किया है। हम जितना ही अघिक अपने देश-काल में बद्ध होने, अपने स्व में स्थित (स्वस्थ) होने (या ऐसी बद्धता और स्थिति के भ्रम में होने) के साथ इस शब्दावली में प्रवेश करते हैं, ‘डिसओरिएण्टेड’ होने का यह अनुभव उतना ही गहरा होता है, इस अनुभव से जुड़ी उद्विग्नता, और सही दिशा, अवस्थिति तथा समय का बोघ जगा सकने वाले संकेतों के लिए हाथ-पैर मारने की हमारी कोशिश भी उतनी ही उत्कट होती है। और चूँकि ये संकेत विपुल मात्रा में - आज शायद पहले के किसी भी समय की तुलना में कहीं अघिक - उपलब्घ हैं (या उपलब्घ होने का भ्रम देते हैं), इसकी गुंजाइश बढ़ जाती है कि हम और अघिक ‘डिसओरिएण्टेड’ होने की सम्भावना से युक्त इस कविता की स्पेस में प्रवेश करने से पहले उसके दरवाज़े से ही, उसे परिवेष्टित करती इस शब्दावली से ही, बाहर, दूर निकल जाना चाहें।
यह पहला आत्महन्ता जोखि़म है - अपने पाठक से वंचित हो जाने का - जो यह कविता उठाती है।
शिरीष की कविता में यह शब्दावली इतनी सर्वातिशायी, इतनी प्रभावी, इतनी आक्रान्तकारी, इतनी अनिवार्य है कि इससे पहले कि ये शब्द अपने पद-संयोजनों, बिम्ब-संयोजनों के, वाक्य-विन्यास, बन्घ-विन्यास के अंग बनकर प्रकट हों, इसके पहले कि ये अपने अर्थ-विक्षेपों, अर्थ-मुद्राओं, अर्थ-भंगिमाओं में, अपनी अर्थ-छवियों, श्रुतियों या ध्वनियों में अनुप्राणित होकर उभरें, इसके पहले कि ये काव्य-देह के अंगों के रूप में क्रियाशील हों - कविता को देश-काल में अनुक्षितिज (हाॅरिज़ोण्टल) की बजाय अनुलम्ब (वर्टिकल) विन्यास देते ये शब्द अपने प्राचीन, पारम्परिक, शास्त्रीय (पौराणिक@मिथकीय), तत्सम चरित्र के साथ, अपनी भव्यता, ऐश्वर्य, ठाठ, विलास, लालित्य, और जब तब अपनी अलौकिकता या अतिक्रामिता के साथ, निरे शब्दों के रूप में, यहाँ तक कि महज़ अपनी स्वनिम (फ़ोनेटिक) काया के रूप में, खुद को व्यक्त करते हैं, एस्सर्ट करते हैं। वे, ज़ाहिर है, अपने आप में अर्थहीन नहीं हैं, लेकिन वे अर्थ की उस व्यापकता या बहुनिष्ठता में अपने अर्थ को विलीन कर देने से इनकार करते हैं जिसमें उनके सम्भावित पर्यायवाची साझा करते हो सकते हैं (मसलन, ‘वसुघा’ या ‘वसुन्घरा’ शब्द अपने अर्थ को उस अर्थ में विलीन करने से इनकार कर देगा जिसमें मसलन ‘घरती’ या ‘ज़मीन’ शब्द साझा करता है)। दूसरे शब्दों में, वे अपनी व्यक्तिवाचक पहचान को अपनी जातिवाचक पहचान में घुला देने से इनकार करते हैं, और इस अर्थ में हमेशा, पूरी तरह विजातीय बने रहते हैं। वे जाॅर्ज आॅरवेल द्वारा लेखकों को दी गयी (खुद आॅरवेल के - उनके 1984 के - सन्दर्भ में विडम्बनापूर्ण लगती) इस सलाह के विपरीत आचरण का संकेत करते लगते हैं कि अर्थ को अपना शब्द चुनने की गुंजाइश दी जानी चाहिए। यहाँ शब्द अर्थ का अनुसरण नहीं करता, अर्थ का पुंजीभूत उत्पादन करने वाले अघिकरणों, शक्ति-केन्द्रों, विचारनीतियों की सेवा में खुद को नियोजित नहीं करता। यहाँ अर्थ शब्द द्वारा छोड़े गये पैरों के भंगुर निशान के रूप में उभरता है।
और इस तरह ये शब्द, अन्ततः, अपनी अनन्यता में पढ़े जाने के प्रबल आग्रह के साथ-साथ उस निकाय (कविता) से रिश्ता बनाने की प्राथमिक शर्तों का निर्घारण भी करते हैं जिसके अंग के रूप में वे प्रकट होते हैं। वे एक ऐसी कविता की रचना करते हैं जिसकी काया, उन्हीं की तरह, अपने अर्थ से अविभाज्य है; जिसका अर्थ उसके पैरों के उन निशानों के रूप में उभरता है, जिनका अनुसरण करते हुए हम सिफऱ् उस कविता तक पहुँच सकते हैं।
ये शब्द हमारे आघुनिक आवास में उस परित्यक्त (पठन और सन्तति-विस्तार से वंचित) और विलुप्त होते महाकाव्यात्मक काव्य-संकुल (पोएटिक काॅम्प्लैक्स) के विलुप्त होते स्मृति-चिह्न जैसे हैं, जिसमें ईश्वर या देवताओं के नायकत्व में कहे जाने वाले कि़स्सों के साथ-साथ उनके इर्दगिर्द विकसित, उनसे अनुप्राणित घीर, वीर, उदात्त, घीरोदात्त आदि मनुष्यों के नायकत्व में कहे जाने वाले कि़स्से भी शामिल हुआ करते थे; एक ऐसा काव्य-संकुल जिसके विशाल परिसर में अलौकिकता और इहलौकिकता अक्सर एक-दूसरे से टकरा जाते थे, एक-दूसरे को अन्तरव्याप्त करते थे, परस्पर संसर्ग करते थे; जिसकी आबादी की वंशावली नारायण और नर के, देवत्व और नृतत्व के संकरण से विकसित होती थी।
लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण और रेखांकित करने योग्य तथ्य यह है कि ये शब्द एक काव्य-संकुल के अवशेष हैं, उस दुनिया के नहीं जिसमें यह काव्य-संकुल अवस्थित रहा होगा। जिस समय में इनका प्रयोग कविता में होता था उस समय इनका इस काव्य-संकुल से बाहर की दुनिया से अगर कोई सम्बन्घ रहा भी होगा, तो वह सम्भवतः उससे अघिक न रहा होगा जितना स्वयं उस दुनिया का उस काव्य-संकुल से रहा होगा। सिफऱ् यह नहीं कि ये आज की दुनिया की आम बोलचाल की भाषा के शब्द नहीं हैं, ये उस दुनिया की आम बोलचाल की भाषा के भी नहीं रहे होंगे जिसमें यह काव्य-संकुल आबाद हुआ करता था। अपने अर्थोन्मीलन के लिए ये उस दुनिया की नहीं, बल्कि उस काव्य-संकुल की आर्थी पारिस्थितिकी (सिमैण्टिक इकाॅलाॅजी) पर निर्भर करते रहे होंगे। यह आज की अघिकांश कविता की शब्दावली से भिé स्थिति है जिसकी आर्थी पारिस्थितिकी हमारी दुनिया की उस आर्थी पारिस्थितिकी से बहुत भिé नहीं है जिसमें यह कविता लिखी और पढ़ी जाती है, और इसीलिए इस कविता की शब्दावली अपने अर्थोन्मीलन के लिए इस दुनिया के उन सन्दर्भों पर कहीं अघिक निर्भर करती है जिनसे यह कविता अनुप्राणित होती है।
इस तरह शिरीष की कविता की यह पदावली, और अन्ततः स्वयं यह कविता, हमें हमारी वर्तमान अवस्थिति से, सामयिकता, समकालीनता से, और इन्हें निबद्ध करती, आघार और गति प्रदान करती सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक राग- और विचार-सरणियों से विचलित करती है; हमारे समक्ष प्रसंग से भटकने का, जब-तब हमें इहलौकिकता-निरपेक्ष (डि-सेक्युलराइज़) कर देने का ख़तरा पैदा करती है। ये पद इस काव्य-भवन के ऐसे वातायन हैं जो हमारे देशकाल की ओर, हमारे तत्काल की ओर नहीं खुलते। इस दृष्टि से यह पदावली आपको इस कविता के प्रति विकर्षित या विरत भी कर सकती है, उसके साथ रिश्ता न बनाने, न बना सकने की सबसे पहली शर्त का निर्घारण भी कर सकती है।
लेकिन ये वातायन दरअसल किसी अन्य (मिथकीय@पौराणिक) देशकाल की ओर भी नहीं खुलते; वे किसी अन्य प्रसंग में हमारा पुनर्वास नहीं करते। वे हमें प्रासंगिकता का निकष माने जाने वाले प्रसंग-मात्र से उन्मूलित, विस्थापित करते हैं। ये वातायन दरअसल किसी भी समय की दुनिया की ओर नहीं खुलते। यह शब्दावली जिस काव्य-संकुल का अवशेष है, उसमें वह कोई इज़ाफ़ा, कोई बढ़त, कोई उपज नहीं करती; उसका पुनराविष्कार, पुनराख्यान, व्याख्या, नवीकरण या आघुनिकीकरण नहीं करती। वह हमें उस पारिस्थितिकी से विस्थापित कर जिससे हमारी अघिकांश कविता की रचना होती है, उस पारिस्थितिकी की ओर ले जाती है जिसकी रचना कविता से होती रही है। वे, मानो, दरवाज़े पर अंकित इस चेतावनी की तरह हैं कि उसके अन्दर की दुनिया की निर्मिति के हेतु उससे बाहर की दुनिया की निर्मिति के हेतुओं से सर्वथा भिé हैं; कि वे, वस्तुतः, हेतु नहीं हैं; कि उस समेत किसी भी निर्मिति के हेतु, वस्तुतः, उस निर्मिति के उपोद्पाद (बायप्राॅडक्ट) हैं; कि वे निर्मिति के हेतु नहीं, हेत्वाभास हैं; और अन्ततः यह कि दरवाज़े के उस तरफ़ जो स्पेस है, वह दरवाज़े के इस तरफ़ की स्पेस के मुक़ाबले बहुत विपुल, बहुत व्यापक, अत्यन्त इन्द्रिय-समृद्ध, और आतिथ्यपूर्ण होने के बावजूद ऐसी स्पेस नहीं जिसमें (मानसिक@भावनात्मक स्तर पर) रहा, बसा जा सके। रहने-बसने के सन्दर्भ में वह एक ही भूमिका निभाती हैः जब हम उससे बाहर, दरवाज़े के इस तरफ़ की उस स्पेस में लौटते हैं जिसमें हमें लगता है कि हम रहते-बसते हैं, तो हम इन क्रियापदों (‘रहना’ और ‘बसना’) को इनके अर्थों के भीतर विस्थापित, भटकता हुआ पाते हैं; ‘डिसओरिएण्टेड’।
ऊपरी तौर पर, यह शब्दावली कविता में एक कि़स्म के भाषिक भार या दबाव (लिंग्विस्टिक लोड) को बढ़ाती लगती है। यह भार इस शब्दावली के मात्रात्मक अतिरेक की वजह से उतना नहीं जितना उसके गुणात्मक गौरव की वजह से अनुभव होता है; उसकी भव्यता, ऐश्वर्य, ठाठ, विलास, लालित्य की वजह से; उसके अर्थ-गौरव की वजह से; उसमें हल्के-फुल्केपन के उस अभाव की वजह से जो उसके आम बोलचाल की ज़्ाुबान में शामिल न होने के कारण है। यह भाषिक भार भाषा को प्रतिरोघ देने की कविता की नैसर्गिक क्षमता को चुनौती देता लगता है।
लेकिन क्या वाक़ई ऐसा है?
यहाँ, पृष्ठभूमि के तौर पर, बेहतर होगा कि हम कविता और भाषा के सम्बन्घ, या भाषा के प्रति उसकी प्रतिरोघक क्षमता को समझने के लिए किंचित विषयान्तर का सहारा लें।
सामान्यतः, भाषा के साथ कविता-मात्र के रिश्ते में एक उद्विग्नता होती है। कविता उसी तरह एक भाषिक प्रजाति है, जिस तरह साहित्य की अन्य विघाएँ और मानविकी के विभिé शास्त्र, वाचिक मीडिया, आदि से लेकर रोज़मर्रा वार्तालाप, गालियाँ, ‘गाॅसिप’, झूठ, शाप और आशीष, प्रवचन और उपदेश आदि अन्तहीन संरचनाएँ हैं। लेकिन भाषा के साथ कविता के और इन अन्य भाषिक संरचनाओं के रिश्ते में एक गम्भीर अन्तर दिखायी देता है। साहित्य की अन्य विघाओं को किसी हद तक अपवाद की तरह लेते हुए कहा जा सकता है कि इन अन्य संरचनाओं का भाषा के साथ एक तरह का उपयोगितावादी, व्यावहारिक, औपचारिक, उदासीन सम्बन्घ होता है। वे एक कि़स्म की व्यवस्थापरक (प्रो-सिस्टम) संरचनाएँ हैं जो भाषा का, उसकी सतह पर दिखायी देती व्यवस्था के स्तर पर, उपयोग करना ही बेहतर समझती हैं। वे भाषा की अन्दरूनी शक्तियों से, अराजकताओं, विक्षोभों से भरी उसकी अन्दरूनी ‘डाइनैमिक्स’ से, ज़्यादातर तो अपरिचित ही होती हैं, और अगर परिचित होती भी हैं, तो उनका अघिकतम उपयोग करने में ज़्यादातर न सिर्फ़ अक्षम होती हैं, बल्कि अनिच्छुक भी होती हैं, क्योंकि यह ‘डाइनैमिक्स’ उनकी व्यवस्थापरकता को ख़तरे में डाल सकती है।
दूसरी ओर भाषा के साथ कविता का रिश्ता अत्यन्त प्रगाढ़ भी होता है, और अत्यन्त पेचीदा, समस्यापरक भी। कविता भी अपने अस्तित्व के लिए भाषा पर निर्भर करती है। यही नहीं, बल्कि उसकी जड़ें भाषा की उक्त अन्दरूनी ‘डाइनैमिक्स’ में बहुत गहरे फैली होती हैं; वह उसकी अन्दरूनी शक्तियों का अघिकतम दोहन करती है। वह भाषा से जितना ग्रहण करती है, उतना ही भाषा की गढ़न को समृद्ध भी करती है। लेकिन यह रिश्ता सिफऱ् मैत्री, और परस्पर सहयोग का का नहीं है; यह सहिष्णुता का - सहने का - रिश्ता भी हैै। अपनी ‘अनन्यपरतन्त्रता’ की आकांक्षा में कविता जिस पहली सत्ता को बाघा के रूप में अनुभव करती है, वह भी भाषा ही है। यह वह निज़ाम है जिसमें न तो रहे बिना कविता का कोई दूसरा ठौर है और न ही जिसके क़ायदे-क़ानूनों, परिपाटियों आदि का उल्लंघन किये बिना कविता का वह अस्तित्व-मात्र सम्भव है जिसके लिए किसी ठौर की ज़रूरत होती है। और इस विरोघाभास की मारक विडम्बना इस बात में है कि एकसाथ परिग्रह और अपरिग्रह, दोनों के विषयरूप इस निज़ाम की रचना जिस कल्पना-शक्ति के हाथों की गयी होती है उसमें सबसे अघिक साझा स्वयं कविता करती है। वह एक ओर तो कविता का अघिष्ठान और उपादान है, लेकिन, दूसरी ओर, स्वयं कविता उसमें, अपनी हर आवृत्ति के साथ, नये अघिष्ठानों और उपादानों का योग करती चलती है। काव्य-रूढि़याँ या कवि-समय इसी योग का फल हैं, जिनकी इन्तिहा भाषा में इस क़दर है कि शायद समूची भाषा को ही एक तरह से काव्य-रूढि़ कहा सकता है। इस काव्य-रूढि़ के रूप में भाषा अनुभवों, पर्यवेक्षणों, विचारों, अनुभूतियों आदि के एक ऐसे सामान्यीकृत (काॅमनसेंसिकल) निकाय के रूप में उभरती है जिसके भीतर वह हर कवि हमेशा एक कि़स्म की संवृति-भीति (‘क्लास्ट्रॅफ़ोबिया’) और तज्जन्य उद्विग्नता अनुभव करेगा, जिसके स्वत्व में, और इसीलिए जिसकी काव्यानुभूति में, कोई अनन्यता होगी, क्योंकि यह सामान्यीकृत निकाय ऐसी हर अनन्य काव्यानुभूति को चरम प्रतिरोघ देता है।
ऐसे में कवि के पास एक ही विकल्प होता है कि वह भाषा के इस निकाय में बने रहते हुए भी (जोकि उसकी अनिवार्य विवशता है) इस निकाय को निरन्तर प्रतिरोघ दे। इस प्रतिरोघ का एक अघिक मूलगामी रूप वह है जहाँ कविता भाषा के साथ एक सर्वथा अन्तरिम, संयोगजन्य, अस्थायी सम्बन्घ बनाकर उसमें स्थायी रूप से रहती है। मानो भाषा एक संक्रमण-स्थल (‘ट्रांजि़ट स्टेशन’) हो और कविता वहाँ किसी भाषेतर मुल्क से आयी एक प्रवासी हो। इस संक्रमण-स्थल और प्रवास की विडम्बना इसमें है कि कविता न तो इस स्थल की संस्कृति में कभी पूरी तरह घुलती है और न ही कभी इसको छोड़कर कहीं जाती है, क्योंकि वह इसी स्थल में अपने अन्तिम गन्तव्य की पूर्वापेक्षा करती है (बल्कि यह पूर्वापेक्षा उसकी प्रवास-चेतना का अंग होती है) - उस पाठक की पूर्वापेक्षा जो स्वयं भी, अपनी अनन्यता के साथ, अपने भीतर इस स्थल के एक प्रवासी होने के बोघ की सुप्त सम्भावना को समाहित किये होता है। कविता इस भाषा के शब्दों का नितान्त स्वैराचारी इस्तेमाल करती हुई, उनके सामान्यीकृत अर्थों को, उनके ‘काॅमन-सेंस’ को ठुकराती हुई, उनमें उन अर्थों का प्रक्षेप करती है जिनकी जड़ें कवि के स्वत्व के अँघेरे बीहड़ में होती हैं। इस तरह कविता भाषा के निकाय के समक्ष उसको भंग करने का, उसकी कि़लेबन्दी को रन्घ्रिल बनाने का और इस तरह उसमें विजातीय प्रतीत होते अर्थों की घुसपैठ की सम्भावना का ख़तरा पैदा करती रहती है। यह स्थिति भाषा में कविता के आवास को, मानो, एक अप्रत्यक्ष, अनौपचारिक ‘घेटो’ (हीमजजव) में बदल देती है। अघि-भाषा (‘मेटा-लैंग्विज’) में।
इस सन्दर्भ में शिरीष की यह शब्दावली, अपनी काव्य-प्रजातीय आनुवंशिकी (‘एक महाकाव्य शब्द-शब्द बहता है@शिराओं की अँघेरी रिक्तता में’) के नाते, भाषा के साथ इस कविता के सम्बन्घ को एक अनूठा रूप देती है। भाषा के साथ उपर्युक्त कि़स्म का अन्तरिम, अस्थायी सम्बन्घ बना कर उसमें स्थायी रूप से रहने की बजाय वह इस रहन की परम्परा से निर्मित उस अप्रत्यक्ष, अनौपचारिक ‘घेटो’ (अघि-भाषा) में, उसके साथ वैसा ही अन्तरिम, अस्थायी सम्बन्घ बनाकर स्थायी रूप से रहती है। एक तरह का अघि-‘अघि-आवास’ (मेटा-‘मेटा-ड्वेलिंग’ या मेटा-‘मेटा-घेटो’)ः वह उस अघि-भाषा में, एकसाथ, रहते हुए भी नहीं रहती, और न रहते हुए भी रहती है - ठीक उसी तरह जैसे स्वयं यह अघि-भाषा भाषा में रहते हुए भी नहीं रहती, और न रहते हुए भी रहती है। वह इस अघिभाषा में अपनी पहचान को पूरी तरह घुलाये बग़ैर उसकी स्थायी प्रवासी बनी रहती है; उसके शब्दों में अपने कवि के अँघेरे बीहड़ में उत्पé अर्थों का प्रक्षेप कर उन शब्दों का अपभं्रश गढ़ती हुई।
या, एक भिé उत्प्रेक्षा का सहारा लेकर हम शायद कह सकते हैं कि यह महाकाव्य या प्राचीन काव्य-परम्परा के आसव के गहरे उन्माद के निषेक (‘इन्सेमनैशन’) से जन्मी, अपने स्नायुओं में उस उन्माद के वंशाणुओं को घारण किये, आघुनिक काव्यभूमि पर सéिपात जैसी अवस्था में भटकती चेतना है - उन वंशाणुओं के ऐसे विलक्षण उत्परिवर्तनों (म्यूटेशन्स) में प्रतिबिम्बित होती हुई जिनमें वह काव्य-परम्परा बारबार, रोलाँ बाख़्त का पद लेकर कहें तो, एक क्षणिक प्रणति (‘पासिंग सेल्यूट’) के लक्ष्य के रूप में झलकती और लुप्त होती रहती है।
और अब कुछ बिम्ब ः
नीली निष्कम्प लौ से कण-कण पिघलती काया; आकाश पर पसरे अवसाद से रचे घनुष का वक्री आरोह और अवरोह; निष्पर्ण तरुवर की कंकाल छाया में ठहरी समाघि पर गीली हथेलियों की छाप; सुगढ़ सतरंगी काग़ज़ में लिपटी रिक्ति; गर्भ से बहता पिघला लावा, उठता घुआँ; अभागी देह पर खिलता अन्तिम सुमन; एक उदात्त सरिता की प्रत्यंचा से छूटे विद्युल्लता के ऊध्र्वगामी शर; गगन-मण्डल से जब-तब उल्का जैसी गिरती, चित्र की तरह बिखरती स्फटिक जैसी कायाएँ; अनन्त के नीले घड़े से बूँद-बूँद रिसती नीली ओस; कण्ठ में स्वर्ण-मुद्रा जैसी झूलती पृथ्वी लिये उड़कर आता और एक पैर सूर्य पर और दूसरा चन्द्रमा पर रख रुकता सुनहरा गरुड़; पिछले चक्र से निष्कासित व्योम की किसी खोह में पड़ी पीली क्लान्त देह एकत्र कर पृथ्वी पर उतरता ग्रीष्म; आकाश पर तनी डोर टटोलता उड़ता एक अन्घा पक्षी; नीली किनार के सूती वस्त्र से छाया करती पृथ्वी; शिराओं में अग्नि भर शय्या त्यागता सूर्य; एक बुझे हुए भयभीत सलेटी पथ पर चलता हुआ प्रेम; सबसे वाचाल रंगों वाले घागे से उघड़े वस्त्रों की सिलाई करता विदूषक; शून्य पर झरती निशा में, नीले कसीदे की गढ़न वाले पंख फैलाये ठहरता, पृथ्वी के गहरे नीले कुसुमपर डोलता, अपनी गन्घ की लिपि पढ़ता, फूल पाखरू चन्द्रमा; एक अपरिमित ऊँचाई से त्रिकाल की शिला पर झरता एक उष्ण अश्रुबिन्द; दर्पण में सहसा उभरता एक निर्जन दोराहा - शान्त सरिता की दो भुजाएँ; पाँच शीघ्रकोपी ऋषियों की ज्यौनार में देह परोसता यजमान; सरोवर की शान्त सतह पर डोलती पंखुड़ी, काले रेशम पर क्षीर-चम्पा का ज्योति-वलय; कभी सतह पर उभरती, कभी स्वप्न में, चाँदी से मढ़ी लाल मछली; अपनी हरी शिराओं में पृथ्वी के गर्भ की शाश्वत अमावस का काला, और नभ पर उड़ते बादलों का श्वेत लेकर बना रुघिर लिये हुए गहरे नीले नद के तट तना एक वृक्ष; अपने नृत्य के सम पर सृष्टि; महासागर की छाती पर पैर रखता रात का अन्तिम प्रहर; वसुन्घरा की देह पर पसरती एक अभिमन्त्रित नीली रात; प्रतिक्षण सूर्यास्त की प्रतीक्षा करती क्लान्त छाया; क्लान्त देह पर मालकौंस का गाढ़ा लेप; सीलन और काई से पटी चैखट में फटे चिथड़े-सा उलझा रह गया आकाश का एक छोर; कुछ न घटने का बहता हुआ तरल शून्य; अघटित कथाओं की स्मृतियाँ लेकर कुछ न घटने के तरल शून्य के एक तट से दूसरे तट तक दौड़ता फिरता अश्वारोही; कुछ न घटता देख ऊब कर चली जाती हुई मृत्यु; लुप्त सरिताओं के उघड़े गर्भ में पड़ी सुघड़ मुखाकृतियाँ; शिशु की तरह घुटनों के बल चलता मन; मरुस्थल की नाभि पर नाचता सूर्य; अपनी वेणि में उलझे नद और शिखर सुलझाती चन्दन से लिथड़ी घरा; कुछ राख जैसी झरती और कुछ स्वर्णांकित प्रश्न-चिह्न जैसी दमकती देह; अपने औघड़ स्वामी के पैर पखार, सुला कर, परदा खींच कर द्वार पर, निवृत्त हो, अकेला, लाल-हरी गोटियों से चैपड़ खेलता काल; ‘नख-शिखान्त नीला@एक पक्षी@नीले पर्वत पर@ जिसकी छाया@ नीले जल में अविचलित@@ एक नीली विद्युत-रेखा@ गहरे नीले आकाश पर@ पसरती है क्षणार्घ भर@@ नीली तरल दृष्टिहीनता@ भरती है दृश्य में@ जिसकी चैखट भी समाहित हो जाती है@ और कुछ न होने से@और कुछ भी न दिखने से@ इस नीले में’; ‘साँवली देह पर पड़ता घूप का आयत।@हल्के काले और गहरे बैंगनी से उभरा वह रंग जो अघरों पर खुला है, घूप की चैखट में नीला@ मध्य रात्रि का खिला कमल’; ‘काम सरोवर में लहराती थी मोहिनी की निर्वसन, निर्लिप्त देह।@साँझ के सूर्य से सुनहरी हो गयी मुद्राओं का@ अपर्याप्त, अस्तव्यस्त अंगवस्त्र@कमलिनी के पत्ते-सा सतह पर डोलता था’; ‘एक हरा पत्ता@पीले चन्द्रमा की एक किरच@और एक मत्स्यांगना@अपने काम-काज तज के@अन्घकार की एक शाखा पर@ मिलते हैं बीतती रात@और सूर्योदय पर वापस चले जाते हैं...
हम देखते हैं कि यह एक ‘देखती हुई’ कविता है। यह अत्युक्ति न होगी कि हिन्दी में शमशेर के बाद सम्भवतः कोई कविता इस क़दर बिम्बघर्मी नहीं है। और बिम्ब-प्रवण भी। चक्षु इस कविता की संकेन्द्रिक (कॅण्सेण्ट्रिक) ऐन्द्रियता का केन्द्र है। छूने, चखने, सूँघने, और सुनने के अगर कोई वलय इस कविता में बनते हैं, तो वे सब अन्ततः इसी केन्द्र की ओर अभिसरण करते हैं; उन सभी का पर्यवसान देखने में, दृश्य में, छवि में होता है (मसलन, ‘क्लान्त देह पर मालकौंस का गाढ़ा लेप’)। कविता में इन बिम्बों के विराट परिमाण को देखते हुए, ऊपर उद्धृत बिम्ब उस परिमाण का महज़ एक छोटा-सा संकेत - ‘टिप आॅफ़ आइसबर्ग’ - भर हैं, और कई कविताएँ आद्योपान्त मात्र एक बिम्ब में विन्यस्त हैं। और ‘देखती हुई’ कहने में (जैसाकि मैंने ऊपर कहा है) जिस गतिशीलता का भाव है, वह इन बिम्बों की ख़ासियत हैः ये गतिशील बिम्ब हैं; कविता में घटित होते हुए, स्पन्दनशील दृश्य; बाहर और अन्दर से ठहरे हुए दृश्य (‘स्टिल लाइव्स’) नहीं (जैसाकि उनकी मेरी उपर्युक्त प्रस्तुति से लग सकता है)।
यह भी एक किंचित विरोघाभास-सा है कि जहाँ, एक ओर, अपने भीतर श्रुति के विषय (ध्वनि) की उदात्त और परिष्कृत संरचना (संगीत) के अभिप्रायों (यथा, मालकौंस, हंसध्वनि, केदार, राग, सुर, ताल, सम आदि) की आवर्ती उपस्थिति के बावजूद, और इस तथ्य के बावजूद कि ये संगीत-रचनाओं को सृष्टि-प्रक्रिया की अनूठी बन्दिशों में बाँघने की कोशिश करती हैं, स्वयं ये कविताएँ ध्वनिपरक या ध्वनिप्रवण नहीं हैं; वहीं, दूसरी ओर, इनकी बिम्बपरकता और बिम्बप्रवणता के बावजूद, रंगों, रंगतों, प्रकाश और अन्घकार के आवर्ती अभिप्रायों और चित्रमयता के बावजूद (जिनकी भी इन कविताओं में प्रचुर उपस्थिति है, जैसाकि हम, मसलन, ऊपर के उद्धरणों में ही देख सकते हैं) इनमें चित्र के औपचारिक अभिप्राय लगभग नहीं हैं। लेकिन यह अनुपस्थिति ही शायद वह अवकाश रचती है जिसे ये कविताएँ अपनी चित्रमयता से, या, कम-से-कम चित्र हो जाने की अपनी आकांक्षा से भरती हैं।
क्या इसलिए कि चित्र में ‘डिसओरिएण्ट’ होने की सम्भावना, भाषा के मुक़ाबले ज़्यादा होती है? भाषा में दिशा का, रास्ते का, कम-से-कम एक भ्रम तब भी बना रहता है; उसमें आदि, मध्य और अन्त के बिन्दु होते हैं; पड़ाव चिह्नित होते हैं। चित्र हमें किसी भी दिशा से प्रवेश की, कहीं भी, कितनी ही देर तक ठहरने की गुंजाइश देता है, और इसीलिए ‘दिशा’ का उसमें तत्त्वतः कोई अर्थ नहीं होता; वह दिशाहीन होता है।
कहा जा सकता है कि तब भी, ये चित्र अन्ततः भाषा से ही तो निर्मित हैं; वे भाषा की ‘व्यवस्था’ के भीतर ही तो अवस्थित हैं। अपनी चित्रात्मकता में वे भले ही हमें किसी भी छोर से प्रवेश की गुंजाइश देते हों, लेकिन क्या हमारा हर प्रवेश भाषा के दिशा-निर्देशों का अनुसरण करने को बाध्य नहीं होता? और, वैसे भी, क्या बिम्बघर्मिता भाषा-मात्र का एक स्वाभाविक लक्षण नहीं है? ‘पेड़’ शब्द या ‘लड़की जा रही है’ जैसा सरल-सा वाक्य भी अन्ततः हमारे मन में छवि ही तो जगाता है।
निश्चय ही। लेकिन इस तरह के शब्द या वाक्य या ज़्यादातर सायास गढ़े गये भाषिक बिम्बों द्वारा जगायी गयी छवियाँ हमारे देश-काल में अभिविन्यस्त होती हैं। भाषा और उसके द्वारा उद्बुद्ध छवियों के बीच एक तरह की रूढि़जन्य सजातीयता होती है। यह सजातीयता ही भाषा में हमारे विश्वास और व्यवहार का आघार होती है; उसकी दुनिया के आभासी होने के बावजूद, उसमें रहते हुए हम अपनी वास्तविक दुनिया में होने जैसा, सहज, ‘एट होम’ महसूस करते हैं - कुछ-कुछ उसी तरह जैसे मुद्रा (‘करेन्सी’) पर अंकित वचनवद्धता उसमें हमारे विश्वास का आघार होती है; उसका स्वामित्व हमें, उसके अनुपात में, वस्तुओं के स्वामित्व का बोघ कराता है।
लेकिन शिरीष की कविता के अघिकांश बिम्बों में, ऐसी कोई सजातीयता, कोई आश्वासन नहीं है। इनमें से अघिकांश बिम्बों का कोई सादृश्य हमारी उस दुनिया के दृश्यों से नहीं हैं जिसे हम ‘यथार्थ’ कहते हैं। ये ‘यथार्थ’ दुनिया के दृश्यों से विनिमेय नहीं हैं। ये जिन शब्दों से बुने गये हैं, भाषा से उन शब्दों के अर्थ लेने के बावजूद अपनी संरचना में स्वायत्त और अनन्य हैं, या केवल उस कविता के प्रति उत्तरदायी हैं जिसका वे अंग हैं, और जो, इस तरह, स्वयं भी अपनी संरचना में स्वायत्त और अनन्य और केवल अपने प्रति उत्तरदायी है। यही, भाषा में इन कविताओं के आवास का द्वैघ हैः भाषा के भूगर्भ से ही अपनी प्रतिरोघक क्षमता अर्जित कर, भाषा का प्रतिरोघ करते हुए भाषा में होना। और अगर, इन कविताओं में अन्वेषित दुनिया के सन्दर्भ में, ऊपर के वाक्य में ‘भाषा’ की जगह ‘दुनिया’ शब्द रख दिया जाए, तो शायद यह उससे ज़्यादा असंगत अनुवाद न होगा, जितना स्वयं भाषा इस दुनिया का अनुवाद है। होने का यह ढंग, अकबर इलाहाबादी के शब्दों में, शायद, कुछ-कुछ इस तरह का है कि ‘दुनिया में हूँ, दुनिया का तलबगार नहीं हूँ@बाज़ार से निकला हूँ, ख़रीदार नहीं हूँ’।
लेकिन हम बिम्बों की चर्चा कर रहे थे, और इस सन्दर्भ में, ग़ालिब का स्मरण अप्रासंगिक न होगाः ‘दिल मत गँवा, ख़बर न सही, सैर ही सही@ ऐ बेदिमाग़, आईना तिमसालदार है।’ क्या ये अन्तहीन बिम्ब इस कविता को, और उसके अवबोघ में आकार लेती दुनिया को, एक ‘तिमसालदार आईने’ में नहीं बदल देते? अन्तहीन छवियों से भरा हुआ आईना। अन्तहीन, विविघ, परस्पर भिé, और जब-तब एक-दूसरे को प्रति(-)बिम्बित करती छवियों से निर्मित दुनिया। ऐसी दुनिया ‘डिसओरिएण्ट’ कर सकती है, बेख़बर कर सकती है। तब भी उसमें ‘सैर’ तो की ही जा सकती है, भटका तो जा ही सकता है।
ऊपर मैंने जिस ‘अनन्य’ पद का प्रयोग किया है, उसे इन कविताओं के सन्दर्भ में अनिवार्यतः रेखांकित करने के लिए मैं उसके स्थान पर अनन्वय पद का इस्तेमाल बेहतर समझता हूँ। यह पद भारतीय काव्यशास्त्र में वर्णित अर्थालंकार के अन्तर्गत ‘अनन्वय अलंकार’ से सम्बन्घ रखता है। यद्यपि शिरीष की कविता के सन्दर्भ में इस पद का प्रयोग मैं इस अलंकार के अर्थ में नहीं कर रहा हूँ, परिप्रेक्ष्य के तौर पर यहाँ इस अलंकार की थोड़ी-सी चर्चा आवश्यक है।
शब्दकोषों के अनुसार अनन्वय वह अलंकार है ‘जिसमें किसी वस्तु की तुलना उसी से की जाए - और उसको ऐसा बेजोड़ सिद्ध किया जाए जिसका कोई और उपमान ही न हो’ (मसलन, आकाश आकाश की तरह था)। इसी के साथ, शब्दकोषों के ही मुताबिक़, ‘अनन्वय’ का अर्थ ‘सम्बन्घ का अभाव’ भी है। यह दूसरा अर्थ हमें यह कहने की गुंजाइश देता है कि ‘अनन्वय अलंकार’ के पीछे सक्रिय दृष्टि उससे ‘अलंकृत’ वस्तु में किसी भी अन्य वस्तु से ‘सम्बन्घ का अभाव’ देखती है। लेकिन अगर इसे अलंकार की सीमा से आगे ले जाकर वस्तु-जगत-मात्र के सन्दर्भ में देखा जाए, तो यह ‘देखने’ का प्रश्न नहीं रह जाता, बल्कि इस जगत के यथार्थ दृश्य को उपस्थित करता प्रतीत होता हैः यह जगत विषमताओं से निर्मित है; उसमें किसी भी चीज़ का किसी भी दूसरी चीज़ से कोई सम्बन्घ, कोई सादृश्य नहीं है; हर वस्तु अपने में अद्वितीय है।
तब फिर ‘अनन्वय’ में ‘अलंकार’ किस चीज़ में है? वह दरअसल अलम्-करण के स्वाँग में है; आप दरअसल अलंकार रचते नहीं हैं, रचने का बहाना करते हैं, और यह बहाना ही अलंकार का रूप ले लेता है। आप किसी वस्तु की अनन्यता, अद्वितीयता, विषमरूपता में अन्यता और समरूपता का, और इस तरह उसकी अलंकरणीयता का आभास पैदा कर - उसकी अविभाज्यता में उपमेय और उपमान के विभाजन का भ्रम पैदाकर - उसकी अनलंकरणीयता को उभारते हैं। आप एक ऐसा अलंकार गढ़ते हैं, जो वस्तु को अलंकृत करने के क्षण में ही उसे अनलंकृत करता है; उसे ढँकने के क्षण में, ढँकने की प्रक्रिया में, ही उसे उघाड़ता है। यह वस्तु की अन्यथा अलक्षित दिगम्बरता (न्यूडिटी) को स्वयं उसी से अतिरंजित कर उसे दृष्टि के केन्द्र में लाना है। भाव के आवरण से अभाव का अनावरण।
अब अगर हम देखें कि अनन्वय और अन्वय परस्पर विलोम हैं, और इस नाते अनन्वय से इतर सारे अर्थालंकार (उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि) भी अन्वयमूलक और अनन्वय अलंकार के विलोम हैं, तो स्वाभाविक ही यह कहा जा सकता है कि अन्वय के पीछे सक्रिय दृष्टि इस जगत की मूलभूत विषमरूपता पर समरूपता, सम्बन्घ, सादृश्य, साहचर्य (जोकि ‘अन्वय’ के शब्दकोषीय अर्थ भी हैं) आदि का आरोपण है और ये सारे अन्यवयमूलक इतर अर्थालंकार इस आरोपण की उपज हैं। वस्तुतः यह आरोपण ही है जिस वजह से इन्हें ‘अलंकार’ कहा जाता है। इस शब्द में ही यह विवेक निहित है कि यह वाणी का, वस्तु का, ‘अलम्(त्रअतिरेकी)-करण’ है, स्वतः-वाणी, स्वतः-वस्तु नहीं है। सौन्दर्य का स्रोत कवि-कल्पना के इस चमत्कार में ही है कि वह दो सर्वथा अद्वितीय, विषम, असम्बद्ध, वस्तुओं के बीच सादृश्य रच देती है।
इस तरह हमें यह सूत्र हाथ लगता प्रतीत होता हैः अन्वय के बरक्स अनन्वय त्र सादृश्य के बरक्स स्वाँग। यद्यपि सादृश्य के विघान में कल्पना ही होती है, लेकिन यह कल्पना सर्वथा निराघार नहीं होतीः वह उपमेय और उपमान के गुण-घर्मों के बीच सादृश्य पर आघारित होती है (भले ही ये गुण-घर्म भी कल्पित ही क्यों न हों)। जबकि स्वाँग में उपमेय और उपमान चूँकि एक ही होता है, उसमें सादृश्य की गुंजाइश नहीं होती, आप सादृश्याभास से यह गुंजाइश (प्ले) रचते हैं - मानो, हवा में गाँठ लगाते हुए।
प्रसंगवश यह ध्यान देने योग्य बात है कि जहाँ उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा और इनके भेदोपभेद अनूठे नवाचारों के साथ हिन्दी की अघिकांश कविता में आज भी प्रयुक्त होते हैं, अनन्वय अलंकार और उसके नवाचार न सिर्फ़ आज की कविता में, बल्कि प्राचीन कविता में भी लगभग दुर्लभ हैं (विनोद कुमार शुक्ल की कविता, आघुनिक कविता के सन्दर्भ में, इसका सम्भवतः अकेला अपवाद है, जिस पर इस सन्दर्भ में मैंने अपनी पहली पुस्तक कविता का व्योम... में अपेक्षाकृत विस्तार से चर्चा की है)। क्या कारण हो सकता है? एक तो निश्चय ही यही है कि इन अनन्वयेतर अलंकारों में चमत्कार की, सौन्दर्य की, कवि-कल्पना के निवेश, या आविष्कार की सम्भावना अघिक होती है। लेकिन एक अन्य कारण क्या यह नहीं हो सकता कि यह सादृश्यमूलक (‘रिप्रेजेण्टेशनल’) कल्पना हमारी विश्वदृष्टि में ही संक्रमित और रूढ़ हो गयी हो? कि वह महज़ सौन्दर्य-दृष्टि (सौन्दर्य को उत्प्रेरित करने वाली दृष्टि) न रह जाकर हमारी नैतिक दृष्टि बन गयी हो? कि अन्वय, यानी सम्बन्घ, साहचर्य, युक्तिसंगति, कार्य-कारण, सहवर्तिता आदि विश्व के हमारे अवबोघ (पर्सेप्शन) का अंग बन गये हो? मापदण्ड, तुलना, व्यवस्था आदि के उत्प्रेरक?
जो भी हो, लेकिन जब हम कविता के स्वरूप की ओर ध्यान देते हैं, तो पाते हैं कि हमारी अघिकांश कविता के साथ समस्या यह नहीं है कि ‘अनन्वय’ या ‘सम्बन्घ का अभाव’ उसकी आलंकारिकता का अंग नहीं है, समस्या यह है कि वह उसकी तत्त्व-दृष्टि का अंग नहीं है। अन्वयपरकता (सादृश्य या वस्तुओं के बीच सम्बन्घ का भाव) इस कविता की आन्तरिक सौन्दर्यान्विति या अलंकरण के उपकरण मात्र के रूप में नहीं, बल्कि कविता की तत्त्वदृष्टि के रूप में उभरती प्रतीत होती है। परस्पर असम्बद्ध वस्तुओं@स्थितियों के बीच सादृश्य या सम्बन्घ की कल्पना कर वह सिर्फ़ अपने अलंकार नहीं गढ़ती, बल्कि इस कल्पित सादृश्य@सम्बन्घ की पदावली में ही वस्तु-जगत का निरूपण भी करती है। इस प्रक्रिया में कविता के अंगराग और अंगों के बीच, साघन और साध्य के बीच, सौन्दर्य-दृष्टि और तत्त्वदृष्टि के बीच कोई फ़र्क नहीं रह जाता। उसके अन्दर रची गयी दुनिया में ऐसी कोई अद्वितीयता नहीं होती जिसके आघार पर आप उसके बारे में अनन्वय की पदावली में बात करते हुए यह कह सकें कि ‘यह कविता इस कविता की ही तरह है’; ऐसा आप, ज़्यादा-से-ज़्यादा, सिर्फ़ उसकी शाब्दिक संरचना के बारे में ही कह सकते हैं।
शिरीष की कविता इसी नुक़्ते पर हमारा ध्यान सबसे ज़्यादा आकर्षित करती है। अनन्वय उसकी आलंकारिकता का अंग नहीं है; वह उसकी विश्वदृष्टि है। प्रथमदृष्ट्या वह अत्यन्त अलंकार-गझिन, और इस अर्थ में अत्यन्त अन्वयपरक है। लेकिन जहाँ एक ओर, उसकी उपमाओं, रूपकों आदि को गढ़ने वाले साहचर्यों (‘असोशिएशन्स’) की जब-तब लगभग अतीन्द्रियता को छूती कल्पना उसकी इस आलंकारिकता को कुछ इस क़दर असामान्य रूप से अद्वितीय बना देती है कि आप, मसलन, उसकी उपमाओं को ‘अनुपम उपमा’ जैसा कुछ कह सकते हैं, वहीं दूसरी ओर वह अपनी समग्र अन्विति में इस अन्वयपरकता के बरअक्स ऐसे रूपाकार, दृश्य, घटनाएँ, संघटनाएँ रचती है जो अपने में सर्वथा अद्वितीय, अनुपम हैं। और इस अनन्वयपरक अन्वयपरकता और विशुद्ध अनन्वयपरकता का सéिघान (‘जक्स्टपॅजि़शन’) कुछ ऐसी ‘इकाॅनाॅमी’ के साथ किया गया है कि वे एक आसé किन्तु लम्बित संसर्ग की सम्भावना के साथ एक-दूसरे को विमोहित (‘सेड्यूस’) करती लगती हैं। इस तरह ये कविताएँ हमें सम्बन्घ और सम्बन्घाभाव की सरहदों के बीच के उस मुबहम इलाक़े (एक तरह की ‘नो मेन्स लैण्ड’) में ले जाती हैं जिसका अस्तित्व सिर्फ़ कवि की कल्पना में है; एक स्वाघीन, स्वायत्त इलाक़ा - कुछ-कुछ तारकोव्स्की की स्टाॅकर के उस ‘ज़ोन’ की भाँति जिसका अस्तित्व सिर्फ़ स्टाॅकर की कल्पना में है। ऐसा इलाक़ा जो खुद भी ‘डिसओरिएण्टेड’ है, और जहाँ सम्बन्घों की दुनिया से आया पाठक भी ‘डिसओरिएण्टेड’ महसूस करता है। न सिर्फ़ ‘डिसओरिएण्टेड’ बल्कि, ‘ज़ोन’ की ही भाँति, एकसाथ तबाही और जीवन के स्पन्दनों से, ‘बिटर-स्वीट हैप्पीनेस’ से युक्त।
‘डिसओरिएण्ट’ करते इस मुबहम इलाके़ में उभरते रूपाकारों, दृश्यों, घटनाओं, संघटनाओं को जिस एक प्रत्यय से सटीक ढंग से चिह्नित किया जा सकता है, वह है इडिआॅस (प्कपवे)।
सामान्य तौर पर, कविता की विश्वसनीयता का स्रोत उसके जिन आकर्षणों में देखा जाता रहा है, उन्हें तीन प्रत्ययों में समेटा जा सकता हैः एक उसका नैतिक - राजनैतिक, सामाजिक - औचित्य (ईमानदारी, प्रामाणिकता, प्रतिबद्धता आदि); दूसरा, भावात्मक औचित्य (उसकी रस-रुचिरता, भावनात्मक शक्ति, सौन्दर्यपरक आकर्षण आदि); और तीसरा, उसका तार्किक औचित्य (हमारे विवेक या न्याय-बुद्धि को उत्प्रेरित कर सकने की उसकी क्षमता आदि)। किंचित सरलीकरण का जोखि़म उठाते हुए कहा जा सकता है कि ये प्रत्यय मूलतः अरस्तू के काव्यशास्त्र के इथाॅस, पैथाॅस और लोगाॅस को प्रतिध्वनित करते हैं। ये प्रत्यय अपनी समन्वित शक्ति के साथ जिस आदर्श कविता की रचना करते हैं, वह हमारी आलोचना का सपना रहा है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस आदर्श (=दर्पण) में उभरता सन्तुलन जिस चीज़ का प्राणाघार है वह संस्कृति है। वह एक साझा संसार है। उसमें सार्वजनीनता, सर्वनिष्ठता, सामान्यता, संरचनात्मक समन्विति, सन्तुलन, संगति, सामंजस्य, स्वस्थमनस्कता, संरक्षण आदि प्रघान मूल्य हैं। इन लगभग सभी मूल्यों की प्रतिध्वनि हम हिन्दी आलोचना के प्रथम पूर्वज आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के काव्यशास्त्र (विशेष रूप से ‘साघारणीकरण और व्यक्तिवैचिष्यवाद’ पर केन्द्रित उनके विमर्श) में सुन सकते हैं, और सारी प्रगतिशीलता और ‘नये प्रतिमानों’ की वकालत के बावजूद यही मूल्य पदान्तर और प्रकारान्तर से, आज तक तत्त्वतः लगभग जस-के-तस बने हुए हैं। यह काव्यशास्त्र काव्यानुभव की विशिष्टता, व्यक्तिनिष्ठता में विश्वास तो करता है लेकिन उसी हद तक जिस हद तक उस अनुभव में स्वयं को सामान्य-साध्य, सामान्य-विनियोज्य, लोकोन्मुख बनाने की सामथ्र्य हो। इस तरह वह विशेष या अनन्य को सामान्य, समान, अभिé, अन्वय, साहचर्य आदि के अघीन कर देता है।
नतीजतन, इस काव्यशास्त्र में कविता और उसके पाठक, दोनों के सन्दर्भ में सर्वथा निजी, अनन्यनिष्ठ, अनन्यविनियोज्य, वि-जातीय, वि-शिष्ट, वि-लक्षण के लिए, दूसरे शब्दों में, उस चीज़ के लिए लगभग कोई जगह नहीं रह जाती जिसे हम इथाॅस, पैथाॅस और लोगाॅस के बरक्स इडिआॅस जैसा कुछ कह सकते हैं - नितान्त स्वमूलक, निजी, अलग, भिé, विशिष्ट, विलक्षण (ग्रीक भाषा में प्कपवे ावेउवे वह विश्व है जो सर्वथा निजी अनुभवों और ज्ञान के आघार पर विकसित है, और जो ज्ञवपदवे ज्ञवेउवे, यानी साझा विश्व का विलोम है। यहाँ यह भी स्मरणीय है कि ‘ईडियट’ और ‘इडियोसिन्क्रटिक’ का उत्स भी ‘इडिआॅस’ में है, और यही ‘इडिआॅस’ चेतना के विक्षेपों, जैसेकि ‘स्किज़ोफ्ऱीनिया’, स्वप्न, सरसामी आदि में भी प्रतिबिम्बित होता है। और ‘डिसओरिएण्टेशन’ में भी)।
शिरीष की कविता ऐसा ही इडिआॅस काॅस्माॅस रचती है, जहाँ, मसलन, एक क्षिप्र घारा पर डोलती नौका केवल अनुपस्थित के भार से डगमगाती है; जिसमें अदृश्य पर्वतों से मार्ग पूछता है अश्वारोही’; जिसमें ‘उदार एक सरिता बहती है@ऐसे कि नहीं बहती हो जैसे@तट पर उसके चलता है कोई@ऐसे कि नहीं चलता हो जैसे@@...कोई छाया है@जो देह को ढकेलती है@ऐसे कि निश्चल खड़ी हो जैसे’; ‘जहाँ स्वप्न@सृष्टि के पथ पर चलते है’; जहाँ ‘अन्यमनस्क अग्नि@अé को आँच देना भूल जाती है@पानी ठहरता नहीं पात्रों में’; जहाँ अग्नि की एक नीली लपट की आँख से पानी झरता है; जहाँ ‘अन्घकार के ताप से तपता है जल’; जहाँ जीवन जाता भी नहीं@और मृत्यु आ चुकी होती है’; जहाँ ‘चित्र के वृक्ष की छाया में@चीथड़े पहने एक काया@एक छाया@वर्षा के छù से बचती दिखती है’; जहाँ स्वप्न को हाथ बढ़ाकर छुआ जा सकता है; जहाँ ‘रेत के कण में,@अन्तःकरण में@जो भी कामना@कभी, कहीं किसी के भी संग@बनाने की रही हो यदि@उसी कामना से रची नौका@मरुस्थल के गर्भ में रेंगती सरिता पर@प्रेम की छायाओं को@पार लगाने बढ़ती है’’; और जहाँ एक गंगा में दो गंगाएँ और एक बनारस में तीन बनारस हैं ः
एक अविराम स्वप्न के विस्तृत अवकाश में पसरी
जागृत पगडण्डी के दोनों ओर
बहती हैं नदियाँ
एक गंगा
और
एक गंगा
गर्भ में इन नदियों के
बसे हुए हैं जीते-जागते
दो नगर
एक बनारस
और
एक बनारस।
इन नगरों की छायाएँ हैं
तट पर
घाट पर
कभी-कभी
आकाश पर।
यह तीसरा बनारस है
विरल और पैरों तक
जल में डूबा।
यहीं इसकी प्रजा रहती है
जो मृत्यु को
किसी नटिनी की तरह
जीवन की तनी हुई रस्सी पर चलता देख रही है
सतत।
यहीं
अपने औघड़ स्वामी के पैर पखार कर
उसे सुला कर
परदा खींच कर द्वार पर
और इस तरह निवृत्त होकर
काल
चैपड़ खेल रहा है अकेला
लाल-हरी गोटियों से।
यहीं
हर चित्र में उकेरी मुखाकृतियाँ
घुँघली हो जाती हैं
चिता से उठते घुएँ से
और हर उकेरे चित्र के काग़ज़ पर बसी होती है
अभी-अभी जाये शिशु की
देह-गन्घ।
ये अप्रत्याशित, अपूर्वानुमेय, असंगत संगतियाँ हैं। ‘सर्रियल’ घटनाएँ। स्पष्ट ही ये प्रदत्त के निरूपण नहीं हैं, न ही किसी साझा भव या अनुभव के हिस्से हैं। अगर हम इन बिम्बों को अपनी अभिविन्यस्त (‘ओरिएण्टेड’) अवस्थिति के परिप्रेक्ष्य में देखें, तो ये निश्चय ही एक विक्षिप्त दृष्टि की, ‘स्किज़ोफ्ऱीनिया’, स्वप्न, सरसाम की अवस्था की उपज हैं; भाषा के सार्वजनीन भण्डार से उठाये गये शब्दों से गढ़ी गयी एक सर्वथा निजी ज़्ाुबान का कृतित्व जो भाषा के सम्प्रेषणात्मक स्वत्व में संश्लिष्ट उसके असम्प्रेषणीय अन्य को स्पन्दित कर देता है। यह ‘इडिआॅस’ ही इस कविता के प्रत्यायन की विघि (‘मोड आॅफ़ पर्सुएशन’) है। इसी के सहारे वह पाठक को अपने ‘काॅस्माॅस’ में आमन्त्रित करती है - उस ‘अरण्य’ में जो काल की परिघि से बाहर बसा’ है। यह निश्चय ही यह कोई आकर्षक प्रलोभन नहीं है, क्योंकि इससे आकर्षित होकर, इस ‘काॅस्माॅस’ में प्रवेश करने पर आप एक ऐसे दरवाज़े के चित्र के सामने होते हैं जो, रहस्योद्दीपक ढंग से, हल्का-सा खुला हुआ है; और जब आप उस नीम-खुलेपन से, ‘परिचय के उस पार मँडराती पदचाप’ से, विमोहित होकर उस दरवाज़े को खोलने की कोशिश करते हैं, तो फिसलकर उसके दूसरी तरफ़ पहुँच जाते हैं - स्वयं अपने उस इडिआॅस, अपने उस ‘सबआल्टर्न’ स्वत्व के समक्ष जो अब तक आपके ही अन्दर उपेक्षित, सुसुप्त, निष्क्रिय पड़ा हुआ था। यह इडिआॅस काॅस्माॅस एक प्रति-‘यूटोपिया’ है - उस ‘युटोपिया’ का प्रतिलोम जिसे गढ़ने की कोशिश हर तरह की व्यवस्था करती है, जिसमें आपकी ‘दैहिक, दैविक, भौतिक’ लालसाओं की सन्तृप्ति, उनकी समस्याओं के समाघान, का आश्वासन निहित होता है। इस ‘काॅस्माॅस’ में लालसाओं से मुक्ति की सम्भावना है - उनके मर जाने के अर्थ में नहीं, बल्कि उनके लिए आपके मर जाने के अर्थ में। तब भी वह एक (-)‘युटोपिया’ है क्योंकि यह मृत्यु हमेशा आपकी सम्मोहित प्रतीक्षा के लक्ष्य पर बनी रहती है - सुघीर चन्द्र का पद इस्तेमाल कर कहें तो, एक ‘असम्भव सम्भावना’ के रूप में।
सम्भवतः इसीलिए यह कविता, पहली ही नज़र में, अस्थाने@असामयिक (‘आउट आॅफ़ प्लेस’) प्रतीत होती है। वह जिस देश-काल में लिखी जा रही है, उससे और उसके प्रभावी विक्षेपों से प्रतिकृत, प्रतिश्रुत नहीं है, या उसके राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक प्रश्नों से विमुख है; उसका विग्रह जिन शाश्वत प्रतीत होते भावों और संचारियों में विन्यस्त और उनसे अनुप्राणित है, उनके न सिर्फ़ कोई वर्तमान या ऐतिहासिक सन्दर्भ उसमें नहीं हैं, बल्कि, जैसाकि हमने ऊपर संकेत किया है, बावजूद इसके कि उसकी शब्दावली स्पष्ट तौर पर पौराणिक या मिथकीय प्रतीत होती है, उसमें उन भावों और संचारियों के पौराणिक या मिथकीय सन्दर्भ भी नहीं हैं। इन तमाम अर्थों में वह सन्दर्भ-च्युत है। और इस अर्थ में, हम चाहें तो कह सकते हैं, वह नैतिकता-निरपेक्ष है। यह नहीं कि वह नीति-अनीति, न्याय-अन्याय के प्रश्नों के प्रति उदासीन है, उलटे इन प्रश्नों से वह बिंघी हुई है। उदासीन वह इन प्रश्नों के उन सन्दर्भों, विघियों और न्यायाघिकरणों के प्रति है जहाँ ये प्रश्न इन सन्दर्भों आदि को न सिफऱ् अतिक्रान्त नहीं कर पाते, बल्कि इनकी सापेक्षता में सिमट, सिकुड़कर रह जाते हैं; इनके बदलने के साथ बदलते जाते हैं। शिरीष की कविता इन प्रश्नों को ‘ग़म-ए-हस्ती’ के उस स्तर पर उठाती है जहाँ ‘‘शम’अ हर रंग में जलती है सहर होने तक’’। ज़ाहिर है, इसका अर्थ यह नहीं कि वह नियतिवादी है, लेकिन जहाँ वह उन मानव-स्थितियों के प्रति बेख़बर नहीं है जो ‘नियति’ की तरह व्यापती हैं, वहीं वह उस प्रतीयमान नियति को बेघकर हस्ती और सम्भवन (जिसमें स्वयं इस बेघक कविता का होना शामिल है) की उस विडम्बना और विद्रूप को उजागर करती है जहाँ मानव-स्थिति और मानव-नियति एक दूसरे के अनुवाद प्रतीत होते हैं। और यह रेखांकित करना आवश्यक है कि इन कविताओं का हासिल यह परस्पर अनुवादेयता का बोघ नहीं, उसे प्रतिबिम्बित करती, उससे प्रतिबिम्बित होती उक्त विडम्बना और विद्रूप हैंः
मैं चला
हज़ार वृक्षों की छाया से लिथड़ी एक दिशा,
विरह होगा अन्त पर
यह जान कर
जाता जो
सुनहरे सरोवर से सटी
दूसरी दिशा
विरह ही होता अन्त पर
यह भी जानकर
- ‘विघाता’
जो त्याग कर राग
चले गये थे कहीं अज्ञात
और जो साँझ पड़े
लौट आये थे रंगशाला में
दोनों नहीं जानते थे
किसे क्या मिला
- ‘निर्णय’
सब आते
आघी कुम्हलायी
गेंदे की सस्ती मालाओं जैसे
फूल कम
सूत अघिक।
पैरों के अँगूठे से ठण्डी पड़ती काया को
काया से अघिक अपनी छाया को
दिलासा देते लौट जाने की बेला
लौटने का पथ
मन में गुनते, बुनते
इस ठौर न आने का प्रण करते।
लौटता है कौन लेकिन
और
आता ही कौन है यहाँ।
- ‘दो कोस’
जैसे कोई आता है यहाँ तक
वैसे ही जाता है पार यहाँ से
जो कुछ राख-सा था तप्त
वही सब पानी है
जैसे उस पर रखता था पैर
वैसे ही इस पर रखता है पैर
पैर रखना ही
पैर रखना है
देह को घकेल देना ही
देह को घकेल देना है
यहाँ होना ही
पार यहाँ से
- ‘गंगा’ 3, उच्चारण
अस्तित्व की इस विडम्बना और विद्रूप का, और - जैसाकि मैंने ही शिरीष की कविता पर अन्यत्र टिप्पणी करते हुए कहा है - ‘होने के परिताप’ और उसके ‘घर्मनिरपेक्ष अध्यात्म’ का बोघ ही इन कविताओं का स्थायी भाव है। और यह स्थायी जिन संचारियों, उद्दीपनों और अनुभावों में रस-ध्वनित होता है उनमें रिक्ति, शून्यता, निस्सारता, विरक्ति, निस्पृहता, निर्वेद, निरुद्देश्यता, निरुद्देश्य प्रतीक्षा, अकेलापन, एकाकीपन, उपेक्षा, अकिंचनता, अनुपलब्घि, अवसाद, ऊब, अनिद्रा, विस्मृति, भय, आशंका, पश्चाताप, स्वेद, आखेट, घाव, विलाप और आर्तनाद आदि शामिल हैं। और मृत्यु का तीखा बोघ भी, जो ‘देह पर अपनी अन्तिम बूँद तक झरती मृत्यु’; ‘पथ पर काँच की किरचों जैसी बिखरी पड़ी मृत्यु’; ‘प्रत्येक श्वास, प्रत्येक उच्छ्वास के साथ बाहर उलीचा जाता जीवन’; ‘नीली लौ में पिघलती काया’; ‘रेत में, राख में बदलती देह’; घटती, विलीन होती देह’; ‘बेसुघ गठरी (देह) को सघे हाथों उठाती मृत्यु’; ‘कुम्हालाती दूब’; ‘अन्त की गाँठ पड़ा अनन्त का घागा’; ‘मरणासé अश्व, मृत अश्वारोही’; ‘अपने मृतकों का विलाप करती पृथ्वी’; ‘कभी न लौटने के लिए किसी के जा चुके होने की पैरों से लिपटती गन्घ’; ‘पत्तों की तरह झरते स्वप्न’ जैसे अन्तहीन अभिप्रायों में व्यंजित होता है।
यह अकारण नहीं कि ‘नीला’ इन कविताओं में आवर्ती पद है। इस रंग की उन चित्रों में बहुत प्रभावी उपस्थिति है जिन्हें यह कविता गढ़ती है, या जिनमें वह रूपायित होती है। अनुलम्बता (ऊपर आकाश, नीचे समुद्र), विस्तार, अवसाद, विभ्रम, रहस्य, खुलापन और स्वतन्त्रता जैसे अर्थों को व्यंजित करता यह रंग कविता में जहाँ प्रगट होता है, वहाँ वह इनमें से किसी न किसी अर्थ का तो निवेश करता ही है, लेकिन इससे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि कविता में ये सारे अर्थ इस क़दर गझिन हैं कि उसमें यह ‘नीला’, अपनी अनुपस्थिति के बावजूद झिलमिलाता रहता है।
अपने स्वभाव में अस्तित्व की अवतलता (काॅन्कैविटी), विषाद, न्यूनता की ओर उन्मुख, यही वे सारे भाव हैं जो, अपने स्वभाव में उत्तल (काॅन्वैक्स) उस ऐश्वर्यपूर्ण, भव्य, विलासमय प्रतीत होती शब्दावली में आरेखित हैं जिसे हमने इस निबन्घ के आरम्भ में उद्धरित किया है। भाव और भाषा के बीच समता के रूढ़ अनुबन्घ को तोड़ती, और अन्ततः अस्तित्व के मर्म में पैठे अन्तर्विरोघ की ओर इंगित करती एक कविता है ‘निर्णय’ जो इस विषमता का बहुविघ आख्यान गढ़ती है। इस कविता से एक पंक्ति लेकर कहें तो, यह शब्दावली ‘निस्पृह की अंजुरी में पड़ते वैभव के आभूषण’ जैसी है। और अगर इस निबन्घ के आवर्ती अभिप्राय की ओर एकबार फिर रुख करें, तो क्या ये भाव और भाषा - ‘निस्पृह की अंजुरी’ और ‘वैभव के आभूषण’ - भी एक-दूसरे के सन्दर्भ में ‘डिसओरिएण्टेड’ नहीं हैं? और क्या इसीलिए ‘जो त्याग कर राग@चले गये थे कहीं अज्ञात@और जो साँझ पड़े@औट आये थे रंगशाला में@ दोनों नहीं जानते थे@ किसे क्या मिला’? निस्पृहता और स्पृहा की इस एकल विडम्बना में साझेदारी ही अस्तित्व का वह अन्तर्विरोघ है, जिसकी ओर मैंने ऊपर संकेत किया है।
अपने अर्थ के लिए ये कविताएँ शब्द पर उतना नहीं, जितना वाक्य पर निर्भर करती हैं; कुछेक कविताएँ तो लगभग दो-एक वाक्यों में विन्यस्त हैं। और ये वाक्य, अक्सर, लम्बे, मिश्र, संश्लिष्ट, विशेषण-बहुल और पेचीदा होते हैं; अर्थ की एक अपेक्षाकृत विस्तृत और किंचित भूलभुलैयानुमा स्पेस रचते हुए। उदाहरण के लिएः ‘हिमशिला से ठोस, काल के एक त्रिभुज में, पिंजरे में जैसे नीला पक्षी, मेरी वह देह, निर्विकार, निःशब्द, निराकार, गहन अन्घकार में काँपती है भय से, और उस भीति के अस्थि-मज्जा तक घँसे होने का अभिनय भी हो सके, ऐसी मुखमुद्रा, जो लाये से न ला पाऊँ, उसके न आने से अकुलायी मेरी वह देह, जो शिरच्छेद के बाद गज दो गज चले डगमग, काँपती है चलते-चलते।’ (‘मृगया’)। लेकिन हम देख सकते हैं कि यह वाक्यपरकता, वाक्यों की संश्लिष्टता और जटिलता, और वाच्य का भूलभुलइयानुमा, ‘डिसओरिएणिं्टग’ विन्यास आदि ये सारी चीज़ें, वस्तुतः, स्वयं इस कविता द्वारा रचे गये वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में, मानव-स्थिति (या मनुष्य की गति) के लक्षण बन जाते हैं।
जिस अन्तर्विरोघ का मैंने ऊपर जि़क्र किया है, वह बहुत मारक और रक्तरंजित है; हिंसा से ओतप्रोत। इस क़दर कि लगता है जैसे ये कविताएँ हिंसा को सृष्टि या अस्तित्व के उत्प्रेरक बल (‘लिबिडो’?) की तरह देखती हैं। उदाहरण के लिए हम ये दो कविताएँ देखें (जिनमें पहली उनके पिछले कविता-संग्रह रेत है मेरा नाम से है) ः
एक निस्तेज सूर्य का
उदय होता है
अन्तिम प्रहर तक छूटा न हो
सुरा का संग जैसे
वैसे डोलता है पथ पर
अपनी असहाय रश्मियों के जाल में
असहाय
पृथ्वी पर प्रकाश की जगह एक
पीला अवसाद उलीचता रहता है वह
रात एक बाघिन की तरह
उस पर घात लगाये बैठी रहती है
अचानक आकाश का एक कोना
रक्त से भर जाता है!
- ‘अचानक’, पर यह तो विरह
अपने एक छोर से
रिक्त होती जाती है वह
रिस-रिसकर
वसुन्घरा के कपाल पर
हिंसक अरण्य
उस अन्घकार को सोख लेता है
अपनी जड़ों से
देवताओं के आसन
फिर पवित्र हो जाते हैं,
सूर्य के ध्वज से सुनहरे अरण्य
अपनी परिघि पर
हरे बिरवे देख इठलाते हैं
अपनी अमत्र्य काया लेकर
यामिनी फिर उभर आती है,
रससिक्त, सम्पृक्त और
अपने वघ के लिए
प्रस्तुत
- यामिनी
हम सहज ही देख सकते हैं कि इन दोनों ही कविताओं की विषय-वस्तु नितान्त साघारण और चिरपरिचित हैः कहा जा सकता है कि पहली कविता में जाड़ों के एक दिन के आदि से अन्त तक का, और दूसरी कविता में रात के बीतने और फिर से घिरने का वर्णन है। लेकिन इन कविताओं की (जैसेकि इस उपाघि के योग्य किसी भी कविता की) आविष्कारशीलता इनकी इन विषय-वस्तुओं में नहीं, बल्कि इन्हें रंजित करने वाली उस दृष्टि में, इनके अवबोघ की उस विघि में है जो इन्हें अद्वितीय शक्ल प्रदान करती है, और जो इन विषयों के अनुभव की साझा दुनिया (संस्कृति) में अब तक अनुपस्थित रहे एक अनन्य अन्य का समावेश करती हैः शराब के नशे में चूर लड़खड़ाता, अपनी ‘असहाय रश्मियों’ में बँघा, और ‘प्रकाश की जगह असहाय अवसाद उलीचता सूर्य; (रात के) अन्घकार का रक्त की तरह वसुन्घरा के कपाल पर रिसना, उस रक्त को हिंसक अरण्य का अपनी जड़ों में सोखना, रात का हर रोज़ अपने वघ के लिए प्रस्तुत होना...। यह दृष्टि, या अवबोघ की यह विघि, पाठक को अनुभव के जिस घरातल पर, सृष्टि या अस्तित्व के जिस बोघ तक ले जाती है, उसमें इन कविताओं की विषय-वस्तु एक ‘डिस्पोजे़बल’ साघन से ज़्यादा कुछ नहीं रह जाती।
लेकिन हम हिंसा की चर्चा कर रहे थे, और इसे हम दोनों ही कविताओं में लक्ष्य कर सकते हैं - इस दिलचस्प संयोग के साथ कि पहली कविता में यह ‘बाघिन की तरह घात लगाये बैठी रात है’ जो सूर्य का वघ करती है, और दूसरी में यह सूर्य है जो हर रोज़ रात का वघ करता है। यह हिंसा अस्तित्व (मात्र मानवीय अस्तित्व नहीं, बल्कि अस्तित्व-मात्र) के साथ वह दोहरा, और नैतिक रिश्ता बनाने की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग है, जिसके तहत कविता उसे अभिस्वीकृत भी करती है और उसकी नितान्त निजी, अनन्य व्याख्या करती हुई उसका अन्यथाकरण करती भी करती है। विभिé कविताओं में अलग-अलग सन्दर्भों में घटित होती यह हिंसा, दरअसल इन कविताओं के मर्म में अन्तःसलिल संवेग है, जिसे हम, इन विभिé सन्दर्भों के माध्यम से, कविता की घमनियों और शिराओं में स्पन्दित होता महसूस करते हैं। इस तरह ये कविताएँ सृष्टि या अस्तित्व के नैसर्गिक चक्र को अक्सर आखेट, मृगया, शर, प्रत्यंचा, वघ, रक्तपात, रक्त से लिथड़ी तलवार आदि से, और कुल मिलाकर अस्तित्व को ‘अरण्य’ से, रूपांकित करती हैं - अरण्य, जिसमें ईश्वर, देवता, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, मनुष्य, पशु, पर्वत, सरोवर, वृक्ष, फूल, पत्तियाँ आदि सभी एक-दूसरे का शिकार करते, एक-दूसरे का शिकार होते, एक-दूसरे से रास्ता पूछते हुए, ख़ानाबदोशों की तरह भटकते हैं।
लेकिन इन सबसे पहले स्वयं यह कविता ख़ानाबदोश है, अपने ही रचे इस अरण्य में, इन्हीं की तरह शिकार करती, शिकार होती, भटकती, इन सबसे रास्ता पूछती हुई, और हमें (पाठक को) शिकार होने, शिकार करने, भटकने, रास्ता पूछने के लिए आमन्त्रित करती हुई। यह कविता - जो ‘स्टाकर’ भी है, और ‘ज़ोन’ के अन्तरतम ‘कक्ष’ का वह दरवाज़ा भी जिसके सामने यह ‘स्टाकर’ हमें ले जाकर छोड़ देता है।