अपने क़दमों के पास प्रवासिनी महाकुद ओड़िया से अनुवाद - कुलजीत
22-Mar-2023 12:00 AM 1536

अपने क़दमों के पास

किसी के ख़िलाफ़ कोई शिकायत नहीं
न भाग्य के न भविष्य के
न ईश्वर न अपदेवता
न पुरुष के
हाँ, कभी फिसल गयी हो तो अपनी बेवकूफ़ी से

चाँद और तारों के साथ जब
बातें होती हैं आधी रात को
रात के सामने समर्पण में
विलीन हो जाता है
तुम्हारी निष्ठुर अनुभूतियों का जीवन

नारी मुक्ति के मोर्चे पर तुम कभी नहीं गयी
किसी माँग के समर्थन में
साहस की चरम सीमा पर पहुँच
हाथों में तख्तियाँ उठा कर नारे नहीं लगाए
मंगलसूत्र, सिन्दूर, चूड़ी, गहने, साड़ी
पायल, नेलपॉलिश आदि के प्रति आसक्ति
नहीं रही तुम्हारी
वह सब जो स्त्रियों को अति प्रिय है

पर तुम्हारा अन्तरंग
तुम्हारे लहू और आँसुओं की कविता
तुम्हारी अनुभूतियाँ
तुम्हारे तकिये और दो पलकों के आँसूओं के साथ
उतना ही जड़ित है
जितना दुःख तुम्हारे चेहरे पर झलकता है

तुम अपनी कविता में ही साफ़ नज़र आती हो
साफ़ नज़र आती हो अपनी कविता में ही
तुम साफ़ होती हो अपने निर्णयों में
किसी के खि़लाफ़ तुम्हें कुछ कहना नहीं होता
तुम एक ऐसी सत्ता हो जो
शामिल नहीं होती किसी मोर्चे में
न किसी के वध में
न सुहाग में, न सुहाग रात में
बस शोक भरा जीवन लिए
आश्विन के हरसिंगार की तरह
झरती रहती हो
अपने ही क़दमों के आसपास


कुछ अक्षर

कुछ अक्षर उसे
इतने अन्तरंग, इतने निजी
और इतने निकट क्यों महसूस होते हैं ?

कुछ अक्षर उसे
आँसुओं में क्यों डुबो देते हैं

और कुछ दूसरे
उसके आँसू पोंछ लेते हैं
वे आँसू कहाँ चले जाते हैं
उसे पता ही नहीं चलता

हो सकता है वे आँसू उस जैसी
और अनगिनत औरतों की आँखों के हों
जिनके आगे कोई राह नहीं होती
जो उसी की तरह आवेग प्रवण
स्वप्न प्रवण, जीवन प्रवण
और होती हैं भग्न प्रवण भी
जिन्हें अपनी भूलों के लिए
उसी की तरह
बार-बार पछताना पड़ता है

आज तक वह, शायद
उन्हीं की बात करती आयी है
क्योंकि उसकी अपनी अनुभूति भी
उनसे कुछ कम नहीं

 

न जाने कैसे

न जाने कैसे
उसके पास बचा था
कुछ साहस
किसी दुस्साहसिक यात्रा के लिए

थोड़ा विश्वास भी था
अविश्वसनीय प्रेम के लिए
कुछ कविताएँ थीं
अपने में, क़िताबों की अलमारी में
पुस्तकों की दुकान में, पुस्तकालय में
कैन्टीन में, प्रेमी की नज़र में
माँ की रंगोली में, चिता में
बगीचे, फूल और बारिश में
कोहरे से घिरे
छिपते दिपते रास्ते पर
मन्दिर के प्रांगण में
देवता की मोहन मूर्ति में

नहीं जानती कैसे
बेहिसाब भीड़ के बावजूद
कुछ अकेलापन
बचा रह गया था उसके पास
उदासीनता भी थी कुछ
और चहुँ ओर के कोहराम में
जीवित थी थोड़ी नीरवता

यह सब था, इसीलिए
इतनी निस्संगता के बीच भी
वह जी पा रही है
सफलता और विफलता का
एक जीवन
बेमिसाल !


शीर्ष पर

वे सब पुरुष है
उनमें से एक मेरा पिता
एक भाई एक पति कोई प्रेमी
दूसरों से खून के रिश्ते
और कुछ विश्वस्त स्नेहिल मित्र

सच है कि पिता भी पुरुष ही होते हैं
पर वे ईश्वर की तरह होते हैं
पुरुष भाई होते हैं तो
सुरक्षा कवच बन जाते हैं
किन्तु मुझसे पति के बारे में
न पूछें तो बेहतर
पति जब अपदेवता हो जाता है
उसका छुपा पुरुषत्व कई कई रूपों में
सामने आने लगता है
तब तुम उसके लिए
बस एक खिलौना रह जाती हो
जिसे खेलने, बजाने से ऊब कर
अन्ततः तोड़ दिया जाता है
मुरझाए फूल की सूखी पंखुड़ियों-सा
झरता है प्रेम
तुम्हारे जीवन के सबसे असहाय
हाहाकार भरे जर्जर पलों में

नहीं, पुरुष के खिलाफ मुझे कुछ नहीं कहना
न हाथों में तख़्तियाँ लिए उसके विरोध में
किसी जुलूस में शामिल होना है
पर उसकी अमानवीयता से दूर रहना चाहती हूँ
उसकी ज़िद के सामने झुकने से इंकार करती हूँ

जिस दिन उस अन्तरंग
चेहरे को पहचान नहीं पायी
जो जीवन के ‘डार्क रूम’ से निकल गया था बाहर
उस दिन खुशी के पलों के सारे निगेटिव
जल कर राख हो गये

जिसके प्रेम में मैं हर युग में
रही मुग्ध विमुग्ध मन्त्रमुग्ध
वह परम पुरुष
जिसे समर्पित मेरी शेष आयु
जिसे मैं अपनी आत्मा से चाहती हूँ
पर सोचती हूँ
यह आत्मा स्त्री है या पुरुष ?

आत्मा स्त्री या पुरुष नहीं होती
पर यह कैसा विरोधाभास
मैं पुरुष आत्मा से प्रेम करती हूँ

अपनी कविता में महाकाव्य में
बार-बार जी उठना चाहती हूँ
काव्य के ऐश्वर्य, सौन्दर्य के शिखर पर
आवेग के अक्षरों में
जीना चाहती हूँ अपना मनचाहा जीवन

चेतना विवेक के शीर्ष पर
मैं चाहती हूँ
अर्धनारीश्वर का रमणीय जीवन

पुरुष के अहंकार से दूर
एक सार्थक काव्यात्मक जीवन
अस्वस्थ समय में एक स्वस्थ जीवन

फिर एक बार दोहराती हूँ
पुरुष के विरुद्ध मुझे कुछ नहीं कहना
पर हाँ, उसकी निष्ठुरता का प्रतिवाद
करना होगा हर तरह से
मेरी कविता के छलछलाते जीवन के बाहर

 

शेष हो रही कविता

क़लम से सूखती जा रही कविता
आत्मा में सूख रही कविता
उँगली की नोंक में यन्त्रणा
नीरवता में, धीरे-धीरे सूख रही कविता

जबकि एक समय
कोई न था पास
पर कविता सदैव रहती थी, छिपी हुई
आँखों के सामने खड़ी होती, न दिखती हुई
जब नींद न होती आँखों में
कविता उतर आती पलकों से

रक्त-सी लाल-भी कविता
नीरव विद्रोह-सी लाल-भी कविता
रति-सी रक्तिम-भी कविता
पेड़ की चोटी पर सूर्योदय-सी लाल-भी कविता
मासिक ऋतु जैसी लाल भी कविता

इतना लाल था यह सब
कि एक सिन्दूरी रक्त-राग लिए
सारी धरती पर फूट रही थी कविता
उसके जीवन के एक मौसम में
इतने इतने गुलमोहर के फूल खिल गये थे
कि दूसरा कोई रंग नहीं रहा उसकी यादों में

अब तक याद रही कविता ही
अब तक साथ रही कविता
प्रथम पाप की पवित्रता की तरह
गुलमोहर के लाल फूल खिल गये थे
कविता की देह पर

आज कविता की हर क़िताब से निचुड़ गयी हैं कविताएँ
ये अक्षर विहीन क़िताबें किसकी हैं?

 

नीरवता में कविता

पेड़ की फुनगी पर पड़ती
सूरज की किरणों में
कविता जा रही थी अपनी राह
एक स्त्री की नीरव दृष्टि
अचानक पड़ गयी निरायास
कुछ कविताएँ उतर आयीं चुपचाप

कविता अपने रास्ते जा रही थी
कोहरे और ठण्डी हवाओं की परवाह किये बिना
खिड़की खोलते समय
कुछ कविताएँ आ गयी अन्दर
पूछे बिना

अपनी राह जा रही थी कविता
स्कूल जाते बच्चों के कोलाहल में
देखते वक़्त छत से झुक कर
कुछ कविताएँ चली आयी नीरवता का रूप धर कर

कविता चली जा रही थी अपने रास्ते
फूलों की सुगन्ध से निकल
कुछ कविताएँ
आ गयी स्त्री के पास
उसकी खुशी के वास्ते

कविता उड़ रही थी
मेघों में घुमड़ती, आकाश की ओर
स्त्री ने ऊपर को देखा तो
नीरवता में कुछ और कविताएँ
बरसती हुई आयीं
उसके लहराते आँचल की ओर

अपने रास्ते कविता जा रही थी
स्त्री के अकेलेपन को और अकेला करती

पीड़ा के किसी नये उद्गम की नीरवता में
पीड़ा के साथ
बहती आ गयी कविता

कविता अपनी राह चली जा रही थी
अपनी सूक्ष्म संवेदना से पहचान
स्त्री ने इस बार
फैला दीं दोनों बाँहें
उन बाँहों के नीरव विस्तार में
निःशब्द समा गयी बाकी कविता।

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