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असाध्य को साधने की एक कोशिश: असाध्य वीणा - शंकरानंद
Shankaranand
India
10-Aug-2020 12:00 AM
17842
कविता में ‘असाध्य वीणा’ की याद जब आती है तो असाध्य को साधने की एक कोशिश के रूप में ज्यादा आती है। हमारा समय जितना जटिल है,उससे उबरने के तरीके भी उसी जैसे हों,ये जरूरी है। पर जहां दर्प है,वहीं हार है। जो स्वयं को कलावंत मानता है उसकी सारी कलाएं धरी की धरी रह जाती हैं। वे उसके काम नहीं आती। वह भरी सभा में लज्जित;अगर उसमें थोड़ी भी लज्जा बची हो तोद्ध होता है। यह हार दरअसल उसकी अयोग्यता से उपजी है और अयोग्य वह अपने को मानने को तैयार नहीं है। समस्या यहीं से शुरू हो जाती है। यह कविता बताती है कि अपने अहं का त्याग किए बिना सफलता असंभव है। दर्प को अंततः टूटना ही होता है।
असाध्य वीणा के केन्द्र में ही आस्था है। विश्वास है पर एकदम क्षीण। कोशिश करने जैसा। यहां वह आत्मविश्वास नहीं है जो विजेता की भाषा और भंगिमा में ही दिख जाती है। यह अज्ञान से उपजे अंधकार के एकदम विपरीत है। इसीलिए प्रियंवद का आना ही राजा को उम्मीद से भर देता है। उसे पता है कि प्रियंवद केशकंबली ही असाध्य वीणा को साध सकता है। इसलिए साध सकता है कि वह सच्चा साधक है। वह शासन और सत्तातंत्र से दूर है। यही कारण है कि उसमें कलावंतों जितना दर्प नहीं है। वह ताकत के मद में चूर नहीं है। वह तो गेह गुफा में रहता है जिसके लिए राजसी ठाट बाट और सुख सुविधा धूल समान है। उसके लिए इनका कोई मोल नहीं। यही उसे विशिष्ट बनाता है। राजा को उसके आने से ही आभास हो जाता है कि अब उसके ’जीवन की साध पूरी होगी।’
अज्ञेय ने इस कविता में दोनों पक्ष को सामने रखा है। एक पक्ष जो दरबार और दरबारी संस्कृति का है और दूसरा जो अकेला प्रियंवद है। यह एक तरह से हमारे समय और समाज का ही चित्रण है। सत्ता जहां विरोधी को अकेला करने की साजिश दिन रात करती है। यह समय जो कि अकूत ताकत और हिंसा से भरा है। ये राजसी वैभव जहां की संस्कृति ही दूषित है। यहां सब कुछ पहुँच और चाटुकारिता पर निर्भर है। सत्य और निष्ठा पर विश्वास करने वालों के लिए उस दरबार में कोई जगह नहीं। वहां वही भरे हैं जो ज्ञानी और गुणी हैं। एकदम कलावंत। उनकी भाषा में शासन की भाषा बोलती है। जबकि कला के लिए यह एकदम विरोधी स्थिति है। जहां ताकत होगी वहां कला नहीं होगी। कला और ताकत एक दूसरे के दुश्मन हैं। यही कारण है कि वीणा को बजाने की कोशिश सब करते हैं पर वह बजती किसी से नहीं। राजा भी इस सच को देख रहा है’मेरे हार गए सब जाने माने कलावंत/सब की विद्या हो गई अकारथ,दर्प चूर/कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।‘ पर वह कुछ कर नहीं सकता। उसे भी ऐसे दरबारियों की आदत सी हो गई है। उसे वैसी ही भीड़ चाहिए जो उसका गुण गाए। उसकी तारीफ में कसीदे गढ़े। पर इस राजा में इतनी चेतना बची है कि वह वीणा के संगीत को सुनने की इच्छा भी रखता है। यह इच्छा संगीत के प्रति राजसी इच्छा संस्कृति से कुछ भिन्न है। प्रियंवद केशकंबली का आना इसी इच्छा को फलीभूत होते देखना है। उसे पता है कि‘वीणा बोलेगी अवश्य,पर तभी/जब इसे सच्चा-स्वरसिद्ध गोद में लेगा।‘ उसके भीतर भी ईष्र्या,महत्वाकांक्षा,द्वेष,चाटुता भरा हुआ है जो शासन का अनिवार्य अंग बन गया हैं। पर उसमें मनुष्यता और करुणा का स्रोत अभी सूखा नहीं है। यही कारण है कि संगीत को सुनने के बाद ये सभी ‘पुराने लुगड़े से झर गए‘ और वह वैसे ही निखर गया जैसे तपने के बाद सोना निखर जाता है।
यह कविता मिथक के कारण एक ऐसा वातावरण तैयार करती है जो रोचक है। यह अपने आख्यान में चकित कर देती है। यह चकित करना अपने परिवेश में बांधने जैसा है। यहां कोई जादू नहीं है जो भ्रमित कर दे। जिस असाध्य वीणा को बजाना कठिन है वह बनी भी ‘अति प्राचीन किरीट-तरू’ से है। वह किरीट तरू जिसके कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे। जिसके कंधों पर बादल सोते थे। जिसकी जड़ पाताल-लोक तक थीं। उसी किरीट-तरू से वज्रकीर्ति ने इसे गढ़ा है। जो किरीट-तरू विशाल है। उसके भीतर अथाह संगीत है। इसे वही बजा सकता है जो ‘सच्चा-स्वरसिद्ध‘ हो। स्वरसिद्ध वही होगा जिसे सृजन की पहचान होगी। वह पहचान प्रियंवद को है। जब प्रियंवद के आगे वह वीणा रखी जाती है तो सभी की उत्सुक आंखे उसे देखने लगती हैं। पर प्रियंवद को इससे फर्क नहीं पड़ता। कोई अतिरिक्त दबाव उसे स्वीकार नहीं है। वह उन सबके होने को भी एक झटके में उनकी अनुपस्थिति में बदल देता है। वह जानता है कि इस क्षण सिर्फ वह है और उसके सामने एक असाध्य वीणा। यही कारण है कि वीणा के साथ उसका व्यवहार एकदम अलग है।
दूसरे होते तो हाथ में आते उसके तार छेड़ देते। क्या पता बजा देने पर कोई पुरस्कार मिल जाए। कोई जागीर दे दी जाए। पर प्रियंवद!वह अपने कंबल खोलकर धरती पर बिछाता है। उस पर वीणा को रख अपनी पलक मूंदता है और उसे प्रणाम करता है। वह ‘अस्पर्श छुअन‘ से उसके तार छूता है। वह अपने को एक शिष्य मानता है। जो अब भी सीख रहा है। उसके भीतर इसके लिए जिज्ञासा भी है। वह अपने को कलावंत भी नहीं मानता। इसीलिए राजा से साफ-साफ कह देता है कि-कलावंत हूं नहीं, शिष्य, साधक हूं/जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी‘। उसके लिए वज्रकीर्ति, किरीट-तरू के साथ वीणा का ध्यान-मात्र गद्गद् और विह्वल कर देने वाला है। उसे पता है कि यह मात्र वीणा नहीं है। इसमें प्रकृति का वह मधुर संगीत बसा है जिसका राग जीवन राग को उदात्त बना देता है। वह वीणा को बजाता नहीं है। उसके तारों पर माथा टेक देता है। और सभा देखती रह जाती है। सभा चकित है कि प्रियंवद सो रहा है। पर वह नहीं जानती कि ‘मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा‘। वह इस तरह स्वयं अपने को शोध रहा था। वह अपने को उसी किरीट-तरू को सौंप देता है। वह अपने को वीणा की गोद में बैठा मोद भरा बालक मानता है-ओ तरू तात!संभाल मुझे/मेरी किलक पुलक में डूब जाए/मैं सुनूं,गुनूं/विस्मय से भर आंकें/तेरे अनुभव का एक-एक अन्तस्वर/गा तूःतेरी लय पर मेरी सांसें/भरें पुरें,रीतें,विश्रांति पाएं।‘ इसी से अंधियारे अंतस में आलोक जग सकता है। प्रियंवद ये भली भांति जानता है।
वीणा के असाध्य को वही साध सकता है जो किरीट-तरू तक पहुंच जाए। उसमें छुपे असंख्य स्वर को सुने। जहां बदली के कौंधने की आवाज है। वर्षा बूंदों की पट पट है। जहां घनी रात में महुए का चुपचाप टपकना है। पक्षी का चैंकना है। शावक की चिहुंक है। जहां झरनों का संगीत है। ढोलक की थाप है। गड़ड़िए की बांसुरी का संगीत जिसमें छिपा है। असंख्य कोमल तरल आवाज से भरा है वह किरीट-तरू जिससे वह वीणा वज्रकीर्ति ने गढ़ी है। प्रियंवद उस परिवेश से भी परिचित है। इसी लिए वह संगीत उसके स्मरण में है। वह उस जमीन से जुड़ा हुआ है। उसी में वह जीता है। गुफा में रहता है। तो वह जानता है कि वीणा को साधने के लिए उस किरीट-तरू के तार को झंकृत करना जरूरी है। वही वह करता है। जिस कारण स्वर-शिशु किलक उठते हैं और सहसा वीणा झनझना जाती है। उस संगीत का प्रभाव ऐसा है कि उसमें ‘डूब गए सब एक साथ/सब अलग अलग एकाकी पार तिरे। उसमें डूबते सब एक साथ हैं पर पार उतरने में भिन्नता है।
उसका संगीत भी उसी किरीट-तरू जितना वैभवपूर्ण है। उतनी ही विविधता से भरा। राजा अलग सुनता है। रानी अलग सुनती है। प्रजाजन अलग सुनते हैं। जाकी रही भावना जैसी की तरह। किसी को बटुली में बहुत दिनों के बाद अन्न की आवाज सुनाई पड़ती है। किसी को नयी वधू की पायल ध्वनी। किसी को शिशु की किलकारी उसमें मिलती है किसी को जाल में फंसी मछली की तड़प। उसी में युद्ध का ढ़ोल है। प्रलय का डमरू-नाद भी। किसी को उसी में जल के छुल-छुल का संगीत सुनाई पड़ता है। यह संगीत दरअसल उसी साधना का परिणाम है जिसके लिए प्रियंवद ‘गुफा-गेह‘ में रहता है। जिसके लिए उसने हर उस लोभ-लाभ का त्याग किया जो नए समय का अनिवार्य चलन है। जिसके बिना जीना बेमानी लगता है। पर उस जीने से असाध्य को साधने की कला नहीं आएगी। सब वैभव होगा पर जो रचनात्मकता होगी वो खत्म हो जाएगी। इसके लिए उस लाभ का त्याग करना पड़ेगा जो सत्तातंत्र के द्वारा दिया जाता है। अपना गुलाम बनाने के लिए।
डॅा रामस्वरूप चतुर्वेदी ने ‘असाध्य वीणा’ को भी ‘अंधेरे में‘ की तरह रचना शक्ति की खोज का आख्यान कहा है। इस पूरी कविता में जो तैयारी है वह उसी रचना शक्ति की खोज के इर्द गिर्द है। यहां‘संगीतकार की सृजन-प्रक्रिया अनुभूति के तईं अपने को समर्पित करने में है।‘ शंभुनाथ कहते हैं कि ‘अज्ञेय असाध्य वीणा में आधुनिकीकरण के बरक्स संगीत को एक रूपक बना देते हैं। वह संगीत से आधुनिक जीवन का एक ऐसा यूटोपियन संसार रचते हैं जिसमें अहं,कटुता,द्वेष,हिंसा,खुदगर्जी और यांत्रिकता नहीं है। परमानंद श्रीवास्तव भी मानते हैं कि ‘प्रियंवद के लिए वीणा बजाने की प्रक्रिया में अहं का विलयन अनिवार्य है। सच्चाई भी यही है कि ‘अपने को भूल कर ही प्रियंवद को स्वर-सिद्धि मिली।‘ यह स्वर सिद्धि ही है जो संगीत को इतना पवित्र बना देती है कि उसमें मन के मैल धुल जाएं। राजा अपनी ईष्र्या त्याग देता है। रानी के लिए उसके आभूषण जो चमक दमक से परिपूर्ण हैं वे भी अंधकार के कण में बदल जाते हैं। उसके प्रति पहले सा मोह नहीं रहता। यानी जो ‘अन्तःकरण का आयतन‘ है वह भी विस्तृत हो जाता है। एक रचना वही तो करती है। वह मनुष्य के भीतर की मनुष्यता पर जमे राख को एक झटके में हटा देती है। यह हटना ही उसकी उपलब्धि है।
अज्ञेय की असाध्य वीणा की प्रासंगिकता इसी में है कि यह भीड़ से अलग अपनी रचना शक्ति को तमाम तरह के खतरों से बचाने के लिए प्रेरित करती है। ‘मुर्दा शांति‘ से भरा हुआ सृजन कूड़े के समान है अगर उसमें जीवन का संगीत नहीं। उसकी ध्वनी नहीं। साहित्य वह है जो विविधता से भरा हो खुले आसमान जितना बड़ा। तभी उसमें वे सारी आवाजें समा सकती हैं। जो दबी हुई हैं। जिन्हें आसानी से नहीं सुना जा सकता। दूर रहकर उसे महसूस नहीं किया जा सकता। इसके लिए उसी प्रकार पास जाना पड़ता है जैसे प्रियंवद वीणा के पास पहुंचता है। असाध्य को साधने की यही प्रक्रिया इस कविता को महत्वपूर्ण बनाती है और यादगार भी।
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