08-Sep-2020 12:00 AM
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बोर्हेस ने कहा था कि शब्द साझा स्मृतियों के संकेत होते हैं अज्ञेय को पढ़कर ये बात बरबस ही याद आ जाती है।
वे शब्दों को संकेतों की तरह इस्तेमाल करते थे।
हर संकेत से पाठक की कोई न कोई स्मृति जुड़ी रहती है और यदि कोई संकेत नया होए तो भी वह उसे इस तरह प्रस्तुत करते कि पाठक जल्द ही अपनी कोई कोई न स्मृति उस से जोड़ ही लेता है।
असाध्य वीणा जापान की एक प्राचीन कथा ष्टेमिंग ऑफ हार्पष् पर आधारित हैए परन्तु यह अज्ञेय की प्रतिभा ही है कि इस कथा को उन्होंने कुछ इस तरह कविता में मथा है कि यह कविता नितांत भारतीय प्रतीत होती है। पढ़ने के बाद बहुत देर तक ज़ुबां पर अपनी ही मिट्टी का स्वाद चस्पा रहता है।
तद्भव और तत्सम शब्दों की जुगलबंदी इस कविता में एकदम उपयुक्त लगती है।
असाध्य वीणा का पाठ करने में आनंद की एक अलग सी अनुभूति होती है।
ऐसा लगता है मानोए
अज्ञेय ने कविता के भीतर वीणा की धुन छुपा रखी है जिसे कविता पढ़ते हुए आप धीरे धीरे महसूस करते हैं
परन्तु जिस समय कविता में वीणा झनझना उठती है ठीक उसी समय से वह धुन आपके ह्रदय में बजने लगती है। कविता पढ़ने के बहुत देर बाद तक लगता है कि हमनें कोई कविता नहीं बल्कि एक मंझे हुए संगीतकार का बेहतरीन संगीत सुना है।
ष्असाध्य वीणाष् जो ऋषि वज्रकीर्ति द्वारा जीवन.पर्यन्त की गयी उनकी साधना की परम सिद्धि है।
जिसे उन्होंने अति प्राचीन किरीटी.तरु से गढा़ था
जिसकी जड़े पाताल लोक तक जाती थीं।
कानों में हिम.शिखर रहस्य कहा करते थे अपनेए
और कंधों पर बादल सोते थे ष्
राजा का विश्वास था कि वीणा असाध्य नहीं है।
वह अब तक सध नहीं पायी थी इसलिए अपने असाध्य होने पर चर्चित हो गयी थी।
राजा को भरोसा था कि
ष्केशकंबली प्रियवन्दष् उसे साध लेगाए जबकि कई कलावन्त प्रयास कर कर हार गए पर नहीं सधी किसी से भी वह वीणा।
ष्असाध्य वीणाष्
के सम्मुख आ ष्केशकंबली प्रियवन्दष् शंका से घिर आया था कि वह कैसे साध पायेगा इसे जिसे बड़े बड़े कलावन्त नहीं साध पाए।
इन पंक्तियों में उनकी शंका को साफ देखा जा सकता है।
ष्राजन! पर मैं तो
कलावन्त हूँ नहींए शिष्यए साधक हूँ..
जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।
वज्रकीर्ति!
प्राचीन किरीटी.तरु!
अभिमन्त्रित वीणा!
ध्यान.मात्र इनका तो गदगद कर देने वाला है।ष्
क्योंकि वीणा को साधना सिर्फ़ वीणा को साधना नहीं था वज्रकीर्ति की साधना के आगे नतमस्तक हो उसे आत्मसात करना था साथ ही उस किरीट तरु की स्मृतियों और अनुभूतियों को समझने का प्रायस करना थाए जो सम्पूर्ण समर्पण के बिना अपना अहंकार त्यागे सम्भव नहीं था।
अपनी गोद में लेते हुए भी उस वीणा को प्रियवन्द ने अपनी गोद में नहीं लिया अपितु स्वयं जा बैठे उस वीणा की गोद में उन्होंने वीणा को साधने का प्रायस नहीं किया स्वयं को साधने का जतन किया सम्पूर्ण समर्पण से।
और उनके समर्पण को इन पंक्तियों से समझा जा सकता है।
ष्मैं नहींए नहीं ! मैं कहीं नहीं !
ओ रे तरु ! ओ वन !
ओ स्वर.सँभार !
नाद.मय संसृति !
ओ रस.प्लावन !
मुझे क्षमा कर .. भूल अकिंचनता को मेरी ..
मुझे ओट दे .. ढँक ले .. छा ले ..
ओ शरण्य !
मेरे गूँगेपन को तेरे सोये स्वर.सागर का ज्वार डुबा ले !
आए मुझे भलाए
तू उतर बीन के तारों में
अपने से गा
अपने को गा ष्
जितने भी ज्ञानी कलाकार आये वे सब वीणा को साधने का प्रायस करते रहे इसलिये असफल रहे जबकि प्रियवन्द ने अपने भीतर झांका और वीणा की सहायता ले स्वयं को साधने का प्रायस करने लगा जिसमें अंततः उसे सफलता भी प्राप्त हुई।
इसमें यह संदेश भी छुपा हुआ है कि न जाने ऐसे कितने प्रश्न हैं जिनका उत्तर हम बाहर खोजते रहते हैं जबकि सारे जवाब हमारे भीतर ही होते हैं।
वीणा जब बजी तो सबने उसे अलग अलग सुना
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि जैसी हमारी मनोस्थिति होती है हम ठीक वैसे ही भावों को ग्रहण करते हैं।
कला वह समंदर है जिसके भीतर असंख्य मोती हैं अब यह गोताखोर के ऊपर है कि वह कितना गहरा उतर पाए और कौन कौन से मोती चुन लाये।
यह कविता इसलिए महत्वपूर्ण है कि जयशंकर प्रसाद की कामायनी के बाद पहली बार कोई बड़ी कविताए इतने बड़े फलक पर जाकर रचनात्मक अद्वैत की प्रतिष्ठा करती है। इस कविता के भीतर जब संगीत बजता हैए तो सब उसे अपनी.अपनी तरह से सुनते हैं। उसी तरह इस कविता को भी हम सब अपनी.अपनी तरह से पढ़ते हैं। इस तरह कविता और संगीत एक ही धरातल पर खड़े हो जाते हैं। एक युवा कवि की तरह मैं इसमें से कौन.सा संगीत सुनना चाहता हूंघ् वह यह कि कला अद्वैत में पलती है। साधक और साधना को एक होना पड़ता हैए संगीत और संगीतकार को एक हाेना पड़ता हैए रचना और रचनाकार को एक हाेना पड़ता हैण् मैं बड़े सिद्धांतों की बात किए बिना एक होने के इस भाव को अपने साथ रखना चाहता हूं। एक कवि के तौर पर मुझे अपनी कविता के साथ एक होना होगा। साधना के उस शिखर तक पहुंचना ही होगाण् क्या जीवन का सबसे बड़ा संघर्ष यही नहीं हैघ् हम सबका जीवन एक असाध्य वीणा हैए बजने से इंकार कर रही है। क्योंघ् क्योंकि हम अपनी वीणा से एक नहीं हो रहेए इसी जीवन को हम किसी पराए की तरह जी रहे हैं। जिन.जिन लोगों ने अपने जीवन के साथ एक होकर उसे जिया हैए देख लीजिएए उन सबके जीवन की वीणा सजी हैए उन सभी ने इस मनुष्य.जाति को अपने होने के सुंदर संगीत से गुंजायमान किया है। वीणा से एकाकार हो जाएँए जीवन से एकाकार हो जाएँए दोनों ही असाध्य नहीं रहेंगेए एक होना एक चमत्कार हैए जानिएगाए बेहद हैरतंगेज़ संगीत पैदा होगा।