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असहमति में उठा एक हाथ - मिथलेश शरण चौबे
मिथलेश शरण चौबे
India
13-Aug-2020 12:00 AM
12029
जीवन-चरित केवल अपने ही समय में नहीं जीता, इस जीने के दौरान अपने विचारों और चर्या से अपना एक प्रति-समय या समानान्तर-समय भी रचता है
जो उसके पश्चात् भी चिरकाल तक जीवित रहता है |
यह समानान्तर-समय इतना दृढ़ और विशाल हो सकता है कि उसकी अपेक्षा प्रतिक्षण बीतता भौतिक समय अ-यथार्थ लगे |
कुमारजीव काव्य के प्राक्कथन में
कुँवर नारायण
बाईस बरस की उम्र में अज्ञेय सम्पादित ‘प्रतीक’ में सहायक सम्पादक बने तथा दूसरा सप्तक के कवियों में से एक रहे रघुवीर सहाय हिन्दी कविता और पत्रकारिता दोनों के क्षेत्र में प्रतिमान स्थापित करने वाली शख्सियत हैं | उनकी कविताओं पर तो निरन्तर विचार हुआ है लेकिन जीवन और रचनाकर्म को साथ लेकर, कुछ संस्मरणों तक ही वे सीमित रहे हैं | जीवन और रचनाकर्म की क्रमिकता का सन्धान एक बड़े अदृश्य को साकार कर सकता है | नए लेखकों के लिए अपने लेखक-पुरखों के जीवन को जानना दिलचस्प अनुभव तो हो ही सकता है, इससे आगे उन्हें लेखकीय नैतिकता, पारिवारिक जीवन, सार्वजनिक भूमिका, रचनात्मकता की छटपटाहट, बाह्य दबाव से सने जीवन के द्वन्द्वों के बीच से गुज़रते, एक लेखक की आस्था व प्राथमिकताओं के वे कौने दिखलाई पड़ सकते हैं जिनसे अपने लिए आश्वस्ति या नए प्रतिमानों को गढ़ने का उन्नत भाव मिल सके | हिन्दी कवि और पत्रकार
विष्णु नागर
द्वारा लिखित रघुवीर सहाय की जीवनी
असहमति में उठा एक हाथ
इस अर्थ में एक उल्लेखनीय क़िताब है | जीवनीलेखन एक कठिन अध्यवसाय है, साहित्य की अन्य विधाओं से विलग इसमें कठिनाई इस बात की होती है कि जिसे आप बिलकुल नहीं जानते उसके बारे में तो लिखा जाना असम्भव ही है, लेकिन जिसे नज़दीक से देखा-जाना है व एक हद तक निकटता भी रही है, उसके मोह में पड़ने की आसानी इस कर्म के लिए चुनौती है |
इस जीवनी में लेखक ने रघुवीर सहाय के जीवन के अनेक ज्ञात-अज्ञात, सूक्ष्म-स्थूल प्रसंगों को तफ़्तीश से पेश किया है | लखनऊ में रहते हुए रघुवीर सहाय ने किशोर वय से ही लिखना शुरू किया था | महात्मा गाँधी की हत्या के बाद उन्होंने ‘महाप्रयाण’ शीर्षक कविता लिखी जिसकी उनके पिता ने भी तारीफ़ की | पिता ने भरोसा करते हुए पूर्ण स्वायत्तता दी | लखनऊ का उन दिनों का जीवन यादगार और ताउम्र अपनापन देने वाला रहा | जीवन का अधिकतम समय दिल्ली में बिताने के बावजूद एक स्थायी परदेसीपन का भाव दिल्ली में मिलता रहा | प्रतीक में काम करते हुए सम्पादक अज्ञेय ने काफ़ी हद तक स्वायत्तता दी | दूरदर्शन और आकाशवाणी में भी काम किया | जनसत्ता में छह बरस तक निरन्तर स्तम्भ लिखा | धर्मयुग में ‘दिल्ली की डायरी’ के अन्तर्गत नियमित लिखा | एक जगह काम करते हुए अन्य जगहों पर प्रकाशन तथा अपने सम्पादन में ही खुद को प्रकाशित न करने की दृष्टि की वजह से सत्यप्रिय मित्र, सुन्दरलाल, रसिकलाल पाठक जैसे छद्म नामों से लिखा | जीवकोपार्जन के लिए अनुवाद किया जो रुचि और साहित्य समृद्धि की जिजीविषा के चलते, चलता ही रहा | दिनमान में अज्ञेय के सम्पादक काल में सहायक रहे फिर लम्बे समय सम्पादक रहते हुए दिनमान की प्रतिष्ठा में निरन्तर वृद्धि के लिए चिन्तित और प्रयत्नशील रहे | कुछ समय कल्पना में काम करते हुए हैदराबाद में रहे | षड्यन्त्र के तहत दिनमान से बाहर हुए, इस घटना ने उनपर स्थायी आघात पहुँचाया, फिर कुछ समय नवभारत टाइम्स में काम किया | बाईस बरस की उम्र में शुरू की पत्रकारिता में जीवन के अन्तिम समय तक रचे बसे रहे | इस पूरे दौर में उनकी कविताओं ने उन्हें अपार प्रतिष्ठा दिलाई और हिन्दी कविता को अलहदा मुहावरा दिया |
दरअसल रघुवीर सहाय साहित्य और पत्रकारिता के अनन्य सम्बन्ध के प्रति आस्थावान रहे हैं | उन्होंने फ़र्कों के बावजूद दोनों की मानवीय आस्था पर अगाध भरोसा किया है | पत्रकारिता को सृजनात्मक लेखन से कम महत्त्वपूर्ण नहीं मानते हुए दोनों की कसौटी ‘आदमी को बेहतर इनसान बनाने की कोशिश’ माना है | अज्ञेय के बाद हिन्दी में वे दूसरे ऐसे साहित्यिक हैं जिन्होंने पत्रकारिता को अपनाकर उसे गरिमा प्रदान की | उनकी काव्य भाषा में इसीलिए ऐसे कुछ शब्द लगातार मिलते हैं जो हिन्दी कविता में निषिद्ध थे |
रघुवीर सहाय ने कविता को लिखित रूप से बाहर निकालने का उद्यम भी किया | कविता संग्रह के बजाए वे कविता और गद्यांशों के केसेट की कल्पना करते थे जिसका कारगर उपक्रम भी उन्होंने नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा के अन्तर्गत किया था | कविता की सांगीतिक ध्वनियों को लेकर वे सचेष्ट व आश्वस्त रहे हैं | फिल्मों से उनका जुड़ाव कुमार शहानी की ‘मायादर्पण’ के एक गीत ‘बरसे घन सारी रात’ लिखने से आगे तक विस्तारित होकर फ़िल्म समीक्षा तक पहुँचता है, फ़िल्म समीक्षाएँ उन्होंने खुद तो लिखीं हीं, दिनमान के लिए अनेक लोगों से लिखवायीं भी | कविता की रंगमंचीय प्रस्तुति में वे दर्शक-श्रोता की कल्पना को बचाने के लिए दृश्यों के ज्यादा उपयोग को ठीक नहीं मानते थे |
साहित्य और पत्रकारिता में नया करने के प्रबल आग्रही रघुवीर जी समूचे जीवन में नयी सम्भावनाओं के कल्पक रहे हैं | जैसा है, उससे भिन्न और बेहतर के लिए कुछ सार्वजनिक उपक्रम घटित हो सकें, तभी कुछ कारगर हो सकेगा : ‘कितना अच्छा हो कि हममें से कुछ लोग आधुनिक भारतीय जीवन में नए संस्कारों की कल्पना करें और उत्सव का रूप देकर उनका महत्त्व बढ़ाएँ |’
इस जीवनी में रघुवीर सहाय के मित्रों कुँवर नारायण, मनोहर श्याम जोशी, कृष्ण नारायण कक्कड़ सहित अन्य सहचरों सुरेश शर्मा, कुबेरदत्त, अशोक वाजपेयी, बनवारी, मंगलेश डबराल, कृष्ण कुमार आदि की स्मृतियों-संस्मरणों के हवाले बहुत सी ऐसे बातें प्रकट हो सकीं हैं जो न केवल रघुवीर सहाय के व्यक्तित्त्व के अलक्षित आयामों को उद्घाटित कर सकीं हैं बल्कि उनके इन मित्रों व सहचरों की उपस्थिति व सम्बन्धों को भी उजागर करती हैं |
जीवनी लेखक से निरपेक्ष भाव की उम्मीद की जाती है, हालाँकि किसी सहचर से यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए | प्रशंसनीय और प्रश्नीय के द्वंद्व के बीच किसी के जीवन को अनावृत करना सहचरों के लिए आसान नहीं हो सकता | यहाँ लेखक, रघुवीर सहाय के प्रति आस्था की टेक से विचलित नहीं हो पाता, बल्कि उसका नैरन्तर्य क्रमशः बढ़त लेता है | एक उदारहण गाँधी और लोहिया को लेकर रघुवीर सहाय के अवलोकन का है | रघुवीर सहाय बाद के वर्षों में लोहिया से अत्यन्त प्रभावित रहे | उनका यह प्रभाव आसक्ति की हद तक रहा है | इस बात में कोई हैरानी नहीं लेकिन गाँधी के बरअक्स लोहिया को और फिर जयप्रकाश को अवलोकित करते हुए रघुवीर जी के कुछ उद्धरण बगैर तथ्यों-घटनाओं-वजहों की तफ़्तीश के, निर्णय का उतावलापन ही प्रकट करते हैं | किसी की महानता का बखान, दूसरे के कमतर होने की टेक पर कितना सटीक हो सकेगा ? पश्चवर्ती के होने से पूर्ववर्ती की पूर्णता का तर्क कोई परिपक्व तर्क नहीं लगता | क्या हम यह कह सकते हैं कि मुक्तिबोध हुए इसलिए निराला और उसके पहले कबीर पूर्णता पाते हैं ? हालाँकि विष्णु नागर ने इसे रघुवीर सहाय का लोहिया अनुराग ही माना है | इस प्रसंग के अलावा आपातकाल में रघुवीर सहाय की भूमिका को लेकर, जोकि विरोधी तो कतई नहीं थी, जीवनी लेखक का रक्षात्मक दृष्टिकोण आस्था का ही कारण है | ये प्रश्न केवल जीवनी लेखक के सन्दर्भ के लिए हैं | हिन्दी के एक बड़े कवि, जिसने कविता की प्रचलित रीतियों से भिन्न, अखबार की भाषा के लहजे में अर्थबहुल कविता सम्भव की ; स्तरहीनता और भक्तिभाव में संलग्न आज की पत्रकारिता से विलग पत्रकारिता जैसे साहित्य से कमतर करार दिए गए संस्थान को साहित्य के समतुल्य प्रतिष्ठा प्रदान की, पूरे जीवन अपने कर्म को उच्च नैतिक स्तर तक ले जाने की कवायद की, अनेक नए लेखक सम्भव किये, उन्हें लिखने के साहस और विश्वास से संस्कारित किया, अपने लेखन की भाषा के साथ ही सभी भारतीय भाषाओं की पैरवी की, सरल लगती भाषा में कविता लिखने के बावजूद सरल भाषा को ख़तरनाक बताकर कठिन भाषा का आग्रह किया, मित्रों से लेकर सहकर्मियों और अपरिचितों तक का अपार सम्मान कर निजी के अतिक्रमण से सर्वथा उन्हें मुक्त रखा, ऐसे लेखक के जीवन के इन प्रसंगों को पढ़कर हम अपने जीवन कर्म और रचना कर्म में इज़ाफ़े की कल्पना और उसकी चरितार्थता देख सकते हैं |इस अर्थ में यह जीवनी ज़रूर पढ़ना चाहिए |
असहमति में उठा एक हाथ ( रघुवीर सहाय की जीवनी )
विष्णु नागर
रज़ा पुस्तकमाला, राजकमल प्रकाशन नयी दिल्ली
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