आसमाँ की आस में कुछ पैबन्द नक्षत्र वंशी महेश्वरी
22-Mar-2023 12:00 AM 1531

आसमाँ की आस में कुछ पैबन्द नक्षत्र

वर्षों से
आज भी वर्षों की तरह
बीत रहे वर्ष,
वही चेहरा वही छवि वही दशा
घर कुछ और बूढ़े हो गये
कुछ और झुक गये हैं
पहले की तरह पहले भी नहीं रहा।

आसमाँ की आस में कुछ पैबन्द नक्षत्र
हरियाली की काया में छिपी
सूखती कुम्हलाती झुलसती पत्तियाँ
आत्मा के सन्नाटे में
गिरती हैं ख़ामोश।

धरती के आर-पार प्रतीक्षा की तलाश
सुबह-शाम धुँधली निगाहों में
बस्तियों के उजाड़ लिये
तिनके भरे धुँधलाते दृश्य तैरते हैं
काल्पनिक उम्मीद की मौसमी हवाएँ
बिना ख़ुशियों की ख़ुशियाँ लिये
अख़बार और क़िताब की तरह
फड़फड़ाती रहती है
हर समय।


आकाश में आकाश का टूटा अनन्त

उम्मीद की आँखों में
सम्भावना किरकिराती हुई
अवसाद का रास्ता बनाती है
मुश्किलें ठिकाने बदलती रहती हैं
चेहरों की सीढ़ियों से उतरकर
ठिठककर खड़ी रहती है उदासी
चुपचाप स्थगित होते जीवन में
खण्डित होती शुरुआत
कविता की बनती दीवार की तरह गिर जाती है।

शब्दों की भीतरी बुनावट में
मकड़ी जाले बुनती है
तार-तार होते रेशों में
बिखरी हवाओं के घर हिचकोले खाते हैं
कहीं नहीं दिखायी देता वैसा कहीं
जैसा कभी होता था कहीं
बची रह गयी हैं बस सूखी छवि
धरती का निर्जन स्वप्न
जल में घुलता जल
अग्नि में अग्नि का ठण्डापन
आकाश में आकाश का टूटा अनन्त
हवा में हवा का बिछोह।
धूप अँधेरे की दस्तक है

सुदूर पहाड़ों से उतरती धूप
धूप में अदृश्य छाँव मुस्कुराती
बन्द आँगन की सीलन में तमतमाती
घनी झाड़ियों में उलझती-सुलझती
जब अपने घर लौटने लगती है
धीरे-धीरे उसमें बसी छाँव
अँधेरा बन जाती है
डूब जाते हैं मनुष्यों के घर
डूबने लगती है धरती का पोर-पोर
धूप अँधेरे की दस्तक है।

इन्हीं अँधेरों में असंख्य अँधेरों की जीवन कथाएँ
पढ़ने के पहले ही विसर्जित हो जाती हैं
अँधेरा इतिहास रचता है
इतिहास अँधेरा घुप्प हो जाता है।

सुदूर
पहाड़ों से उतरती धूप
पहाड़ों के होने में बसी रहती है
जैसे अँधेरा बसा रहता है अँधेरे में
जैसे अँधेरे में हाथ नहीं उसका होना दिखायी देता है
जैसे अँधेरे में अँधेरी आँखों से इतिहास पढ़ना
वैसे ही जैसे होने में सम्भव है होना।


भूलना याद की प्रतिच्छाया है

भूलना
याद की प्रतिच्छाया है
अपने में सहेजी चीज़ें भी
भूल जाती हैं अपने में
याद दिलाती है याद
भूल को बचाने।

कमी नहीं है किसी चीज़ की
रखकर भूलकर खोकर
खोजती हैं चीज़ें
वे नहीं जानती
धड़कते समय की धड़कनों में
कितने लोगों की साँसों में अतिरिक्त रिक्त नहीं है
आ जाता है लौट-लौटकर बार-बार
वही झलक पलक झपकती छोटी-छोटी चीज़ें

भूल की याद में
चीज़ों के नक्षत्रों से भरा
चीज़ों का आकाश।


जो बचा वह कहाँ बचा

जो बचा वह कहाँ बचा
बचाने की पराजित कोशिश में
टूटकर बिखरते तारों की
धुँधली-सी चमक
पसरे अँधेरे में खो जाती है।

निश्चित से निश्चिंत होकर कहाँ होगा वह सब
कहाँ होगी वह जगह
जहाँ छिपकर बैठा एकान्त-अँधेरा
दोपहर की धूप के स्पर्श लिये
बार-बार
तरह-तरह की होती विदा में शामिल होता है
वैसे ही जैसे
लिखते समय
तेज़ी से आते विचार में फँस जाते हैं शब्द
फँसे शब्द फँसे रहते हैं
पंक्तियों की आँखों में
जीर्ण-शीर्ण अर्थ जगमगाता रहता है
अँधेरे के घर।


दुनिया नहीं दुनिया का आभास

कभी-कभी जाना चाहता हूँ
घर से दूर इतनी दूर कि पास की तरह लगे
भटकाव बदलाव की मीमांसा में
आवाजाही करता उड़ना चाहता हूँ
ग़ुस्सैल हवाओं के साथ
हो जाना चाहता हूँ बवण्डर
नदी पहाड़ वनस्पति के पार
एक अलग दुनिया में
जहाँ दुनिया नहीं दुनिया का आभास हो।

कभी-कभी जाना चाहता हूँ
विकट के साथ
विकट धरती की सैर के लिए
विकट में चकित होकर
सम्भावना के विनाश में
मरी आवाज़ों के मरे उत्सवों में
रहते सहते सह में लोगों के बीच
बिखरते कँपकँपाते सकपकाते कराहते
स्वरों की दहशती प्रतिध्वनियों में
मनुष्यों की उखड़ी साँसों में
आँखों में
जल की बंजर लकीरों में
फीके पड़ते स्वप्नों के हिमपात में।

कभी-कभी जाना चाहता हूँ
हँसी के उजले मैदानों में
हँसते खेलते दौड़ते गाते बच्चों के आर-पार ठहर कर देखना चाहता हूँ
पीपल के गिरते कोमल पत्तों में छिपे रहस्यों में
हाथों की धार लिये
आखि़र वह कौन है शायद वही
शायद क्लान्त साँसों का दिवंगत।

कभी-कभी जाना चाहता हूँ
जय-घोष में
सीखना चाहता हूँ जय के तिलस्म
कैसे बाँझ हो जाती है
जय में लिथड़ी आवाज़ें
कैसे पराजित हो जाता है जयकार जुलूस
जाना चाहता हूँ
सूखी मिट्टी की सतह के ऊपर बिछी
सूखी परतों के भीतर मुरझाई नमी का सूखापन
पानी में रहकर मिट्टी
पानी में सूख रही है।


छूट चुकी चीज़ों के स्पर्श में

छूट चुकी चीज़ों के
स्पर्श में
फूलों की पंखुड़ियाँ होती है
छूट चुकी आवाज़ों में
प्रतिध्वनि गूँजती है
छूट चुके शब्दों में शब्दार्थ
शब्दावली की जिल्द में खो जाते हैं
छूट चुके समय में
शून्य की वर्णमाला गाढ़ी हो जाती है
छूट चुकी स्मृति में
बची रहती है वसुन्धरा।

बची रहती है जैसे
बीज से भरी धरती
अंकुरित होती है
गेहूँ की बाली
दूव की शिराओं में बहता है हरापन
घर की धमनियों में बहती है छाया
दीवारों के अन्तःकरण में बस जाती है
हथेलियों की छाप।

छूट चुके समय में
स्मृतियों का आकाश
तारों की आतिश में
जगमग होता
क्षितिज के अन्तस में जगमगाता है
धरती का घुप्प अँधेरा।


अन्तिम अन्तिम नहीं है

अन्तिम इच्छा
अन्तिम नहीं है
ख़ाली होती जगह में
ख़ालीपन भर जाता है
अन्तिम कुछ नहीं होता
प्रतीक्षा के घाव नहीं भर पाते
बार-बार आते हैं
आ जाते हैं सहसा प्रत्याशित में अप्रत्याशित।

कुछ नहीं बदलने से बेहतर है कुछ बदले
लिखने की कोशिश
अन्ततः लिखना ही होती है
कोशिश और लिखना दोनों अन्तिम नहीं होते
आते विचारों से पृथक हो जाते हैं लिखित विचार
धूल खाती क़िताबों को झटकारता समय
धूल-धूसरित हो जाता है।

चारों ओर होती हैं चारों ओर से घिरी परछाईं
जल में डूबी होती है जल की छपछप
जल के विलीन स्वर
अन्तस में भर जाते हैं चुपचाप।

अदृश्य अद्भुत होता
अँधेरे के ओझल मार्ग में
सरसराती हवा की साँय-साँय में
झिलमिलाती प्रभा बिछुड़ जाती है
बचा रहता है
अपने में अपना अन्तिम
अन्तिम नहीं है।

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