असंभव और अलक्षित का वृत्‍तांत | शब्‍दों के एकांत से आती स्‍मृति की प्रतिध्‍वनियां - ओम निश्‍चल
07-Jul-2020 12:00 AM 1434
कहते हैं कोई भी नया कवि पुरखे कवियों की कोख से जन्‍म लेता है। वह कवि परंपरा का वाहक, संवर्धक, रूढ़ियों का भंजक और नई परंपराओं का प्रस्‍तावक होता है। अनेक युवा कवियों की कविताओं से गुजरना हुआ है, उनकी अलभ्‍य कवि-कल्‍पनाओं के प्रांगण में शब्‍दों पदों को किलकत कान्‍ह घुटुरुवन आवत के आह्लादक क्षणों में पग धरते देखा है और अक्सर चकित होकर अपार काव्‍यसंसार में कवि-प्रजापति की निर्मितियों को निहारने, गुनने और सुनने का अवसर मिला है। पर कुछ दिनों के बाद कोई न कोई कवि फिर ऐसा आता है कि वह साधारण से लगते मार्ग का अनुसरण न कर कविता को भी अपनी चिति में ऐसे धारण करता है जैसे वह उसकी अर्थसंकुल संवेदना को धारण करने का कोई अनन्‍य माध्‍यम हो। सुशोभित शक्‍तावत की हाल ही में कुछ कविताओं(मैं बनूंगा गुलमोहर--संग्रह) से गुजरना हुआ जो प्रेम और श्रृंगार के धूप दीप नैवेद्य से सुगंधित लगीं। उन कविताओं की गहन एकांतिक अनुभूतियों के बरक्‍स हाल ही आए 'मलयगिरि का प्रेत' की कविताएं सुशोभित के अत्‍यंत गुंफित और प्रस्‍फुटित कवि-चित्‍त की गवाही देती हैं। अक्‍सर उनकी कविताओं को देख पढ कर हममें एक विस्‍फारित किस्‍म की मुद्रा जागती है और हम कल्‍पनाओं के विरचित प्रांतर में अभिभूत हो उठते हैं।
 

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सुशोभित जैसे विद्या-व्‍यसनी, कला-व्‍यसनी, गीत-संगीत-फिल्‍म, भाषा-व्‍यसनी कवि के यहां हर चीज एक नए ढंग से कवि के अनुभव - लोक का हिस्‍सा बनती है। इस कवि को पढते हुए लगता है यह कवि उस जन-अरण्‍य से आया है जहां अभी मनुष्‍यजाति की आदिम चेतना सांस ले रही है, जहां जीवन की मौलिकताएं अभेद्य हैं, जहां वह अजबलि का साक्षी होता है , बलिपशु के कातर करुण क्रंदन का साक्षी होता है, जिस परिदृश्‍य में जाम्‍बुल वन की कन्‍या, सिंघाडों के तालाब वाला गांव, कृष्‍ण वट, मोरपंखों के बिम्‍ब और ग्रीष्‍म की चित्रलिपियां उसकी राह देखती हैं, जहां पिता की गर्भवती प्रेमिका की याद घनीभूत होकर कवि- मस्‍तिष्‍क पर हावी हो उठती है। एक दूसरा परिदृश्‍य इन कविताओं में कला संगीत नाट्य के रसमय संसार से जुड़ता है जिसमें कलाओं में रमने का अभ्‍यस्‍त कवि-चित्‍त अपने होने में इन कलाओं की संगति को महसूस करता है जैसे वह चिरऋणी होकर इनके प्रति आभार जताने के लिए पैदा हुआ है।
 
कला, संगीत, शब्‍द और अर्थमयता की सरणियों में अनेकार्थ लक्षित करने वाला यह कवि कभी कभार लौकिक दुनिया में लौटता है जहां बेटे की सिंघाड़े सरीखी श्‍वेत धवल दंतुरित मुस्‍कान भोर के स्‍वप्‍न तक गूंजती रहती है। एक पके कटहल का गिरना भी उसके लिए कुतूहलमय हो उठता है। उसका गिरना जैसे किसी गंधमादन का अवतरण हो, वह मुखर्जी मोशाय की गांगुलीबाड़ी को रसमय कर देता है, इस धप्‍प से गिरने का संगीत जितना रसोद्भावक है उससे कम रसाप्‍लावित कवि की संवेदना नहीं होती। वह तो जैसे इस गिरने को उत्‍सवता की तरह दर्ज करता है। वह रस के इस वानस्‍पतिक वैभव को जिन शब्‍दों में सहेजता है वह कवि के सरोकारों का उत्‍कीर्णन भी है। देखें कवि कटहल के इस भाव-विभाव को किस कवि-विवेक से ग्रहण करता है --
 
विनय सीखना हो
तो सीखो फलों से लदे
दबे झुके गाछ से
धैर्य धरा से
व्‍याप्‍ति मुखर्जी मोशाय के
यशस्‍वी आम्रकुंज से।
और सीखना हो संतोष
तो सीखो कटहल के फल से
जो अपने में इतना संपूर्ण
इतना निमग्‍न और
इतना आत्‍मविभोर! (मलयगिरि का प्रेत, पृष्‍ठ42)

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'मलयगिरि का प्रेत' का प्रकाशन रज़ा फाउंडेशन एवं वाणी प्रकाशन के सहकार से संभव हुआ है।
 
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