अव्दैत का विस्तार और संसार ध्रुव शुक्ल
04-Sep-2018 04:16 PM 4210

कभी विकल होकर कहने का मन होता है कि अव्दैत की धारणा कुछ विरले ज्ञानियों की ज़िद है और संसार को देखकर लगता है कि वह व्दैत में ही जीने की जिद बांधो हुए है।
कोई उत्प्रेरक जरूर है जिसके कारण इतना बड़ा जीवन व्यापार चल रहा है पर विरले ज्ञानियों की नजर में इस उत्प्रेरक पर संसार की छाया तक नहीं पड़ती। संसार तो ऐसी देह भर है जो इस उत्प्रेरक से विच्छिन्न होकर पृथ्वी पर आ गिरी है। अब जो भी इस देह का कार्य है उसका कारण भी यही देह है, वह अपनी जिम्मेदारी किसी अजन्में स्रष्टा पर नहीं डाल सकती। अपने जरा-मरण के लिए वह खुद ही जिम्मेदार है।
अश्वघोष-कृत -- बुध्दचरित का पाठ करता हूँ और सामना करता हूँ कि सचमुच में वह क्या है जिसका होना जरा-मरण का कारण है और बुध्द उत्तर देते हैं कि जन्म से जरा-मरण की उत्पत्ति होती है और जन्म कर्मभव से होता है क्योंकि प्रवृत्ति कर्म से ही होती है, किसी स्रष्टा से नहीं। कर्मभव का कारण उस काम नामक उपादान में है जो तृष्णा के कारण सक्रिय हो उठता है और तृष्णा का कारण वेदना है। वेदना का कारण स्पर्श है -- वस्तु, इंद्रिय और मन का संयोग - जिससे वेदना पैदा होती है। फिर बुद्ध स्पर्श का कारण खोजते हुए अनुभव करते हैं कि देह-मन-नेत्र-नासिका और जीभ ही स्पर्श का कारण हैं और बुध्द इन्हें आयतन कहते हैं। अब आयतनों का भी कोई कारण जरूर होगा और वे पाते हैं कि नाम-रूप ही आयतनों का कारण हैं। तब फिर नाम-रूप का भी तो कोई कारण होगा और वे अपनी संज्ञा और चेतना में ही उसे पा लेते है और अनुभव करते हैं कि संज्ञा और चेतना नाम-रूप का सहारा पाकर ही पैदा होती है, दोनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं।
अब इसे ऐसे समझा जाये कि संज्ञा और चेतना से नाम-रूप का उदय होता है, नाम-रूप से आयतन पैदा होते हैं, आयतनों से स्पर्श का उदय होता है, स्पर्श से वेदना, वेदना से तृष्णा, तृष्णा से काम नामक उपादान और इस उपादान से कर्मभव उत्पन्न होता है फिर कर्मभव से ही जन्म होता है और जन्म ही जरा-मरण का कारण है।
बुध्द ने गहराई से जाना कि धारणा से संसार उत्पन्न होता है और उनने निश्चय किया कि जन्म-विनाश से जरा-मरण का निरोध होता है, भव-विनाश से जन्म नष्ट होता है और उपादान के निरोध से भव बन्द हो जाता है। तृष्णा के निरोध से उपादान का निरोध होता है और स्पर्श का नाश होने से वेदना पैदा ही नहीं होती- छह आयतनों का अस्तित्व न होने से स्पर्श का नाश होता है। उसी तरह नाम-रूप का सम्यक् निरोध होने पर छह आयतन भी नष्ट हो जाते हैं और फिर संज्ञा-चेतना के निरोध से नाम-रूप का निरोध होता है। बुध्द ने जाना कि अविद्या के अभाव से ही देह पर पड़ती जरा-मरण की छाया खो जाती है- अविद्या याने जो भ्रम से उत्पन्न हो।
आदि शंकराचार्य-कृत -- विवेक चूड़ामणि को शिरोधार्य करते हुए पाता हूँ कि वे ब्रह्म को सत्य और जगत को मिथ्या अनुभव करते हुए देह की ही गहराई से पड़ताल करते हुए यही नतीजा निकालते हैं कि त्वचा, मांस, रक्त, स्नायु, मेद, मज्जा और अस्थियों का समूह हमारी देह, एक भोगायतन से ज्यादा कुछ नहीं। यह स्थूल देह जन्म-जरा और मरण की सीमा में बंधी हुई है और इस सीमा के बाहर कोई पग नहीं बढ़ा सकती। इसको मिली पाँच ज्ञानेंद्रियाँ-- आँख, नाक, कान, त्वचा-जीभ और पाँच कर्मेंद्रियाँ-- हाथ, पाँव, वाक् आदि अनेक कर्मों की ओर ही आकर्षित हुआ करती हैं। अपनी वृत्तियों से मन, बुध्दि, अहंकार और चित्त इस देह में अन्तःकरण कहे जाते हैं, जहाँ संकल्प-विकल्प, पदार्थ का निश्चय, अहम्-भाव की प्रतीति और चिन्ता का कारोबार चलता रहता है। यह कारोबार प्राणों के आरोह-अवरोह पर आधारित है। यह देह जन्म लेते ही पाँच विषयों- रूप-रस-गंध-स्पर्श और शब्द से आकर्षित होती है और उन्हीं से बंध जाती है। शंकराचार्य इसे स्वाभाविक अनात्म-बंधन कहते हैं। इस बंधन के कारण ही यह देह जन्म-मरण-व्याधि और जरा से पैदा होने वाले दुखों का भार उठाती रहती है। गुरूवर अपनी ब्रह्म-जिज्ञासा की भूमि पर श्रमण प्रतीति को परखते जान पड़ते हैं।
जिससे यह देह जन्म लेती है, शंकराचार्य की दृष्टि में वह अजन्मा है और उसे यह देह अपने आत्मभाव में उठकर पहचान सकती है पर बुध्द जन्म को ही इस देह का कारण मानते हैं। वे भले ही आत्म-सत्ता से दूर खड़े दिखायी देते हों पर अपने ज्ञान स्वरूप साक्षी आत्मभाव से ही इस प्रतीति तक पहुँचे होंगे कि जन्म ही कारण है। स्वयं शंकराचार्य भी अजन्मे जगत-कारण को अपने आत्मभाव से ही पहचान पाते हैं और उस गहराई की थाह ले पाते हैं, जहाँ निरवयव, निष्क्रिय, शान्त, निर्मल और निरंजन में बन्धन और मुक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती-- वे अनुभव करते हैं कि परमार्थतः न तो कोई निरोध या विनाश है, न उत्पत्ति है और न बंधन है। न कोई साधक है, न कोई मुक्ति की इच्छा करने वाला है और न मुक्त है - होना न होना देह का गुण है, सर्वात्म का नहीं।
गुरू आदिनाथ ने परमार्थ तत्व की यही परिभाषा की -
न शून्य रूपं न विशून्य रूपं / न शुध्द रूपं न विशुध्द रूपं
रूपं विरूपं न भवामि किंचिद् / स्वरूप रूपं परमार्थ तत्वम् ।
श्रीमद्भगवद्गीता के वचनों में रमता हूँ और खयाल आता है कि श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच रचा गया यह सम्वाद युध्दभूमि में सम्भव नहीं । अर्जुन अपने भाइयों के त्रासद वनवास, द्रौपदी का अपमान और लाक्षागृह की आग की स्मृतियों में डूबकर ही तो युध्दक्षेत्र तक पहुँचा । ऐसी दशा में उसका क्षत्रिय स्वभाव उसे युध्द से पलायन की ओर कैसे मोड़ सकता है । मुझे तो यही लगता है कि यह सम्वाद बुध्द को सम्बोधित होकर मानव जाति के प्रति कहा गया है । अगर मान लें कि गीता बुध्द से पहले कही गयी तो क्या बुध्द कर्म का प्रतिवाद कर रहे हैं । मुझे तो वे उसी के आसपास बैठे मालूम पड़ते हैं ।
जीवन और मृत्यु के बीच की जगह में मनुष्य के पुरुषार्थ और पराक्रम की कथा दो क्षत्रिय चरित नायकों को केन्द्र में रखकर रची जाती रही है,जहाँ राम मानव होकर ब्रह्म-स्वरूप हैं और श्रीकृष्ण ब्रह्म-स्वरूप होकर मानव हैं - इसीलिए राम मर्यादा पुरुषोत्तम और कृष्ण लीला पुरुषोत्तम की तरह पहचाने जाते हैं । मर्यादा में सांसारिक लगाव के साथ और लीला में संसार से उदासीनता के साथ पुरुषार्थ और पराक्रम को साधने की कला है । पर बुध्द ऐसे क्षत्रिय हैं जो पुरुषार्थ और पराक्रम के बीच मानव प्रतीति में ठहर जाते हैं । वे तप और भोग की अतियों का निषेध करके मध्यमार्ग ही खोजते रहे हैं ।
वे किसी को चुनौती नहीं देते, आपने आपको ही अपने लिए चुनौती मानते हें इस चुनौती का सामना करने के लिए बुध्द आठ मार्ग बतलाते हैं - पहला है सम्यक् दृष्टि-जगत दुख से भरा है अतः देह, वाणी और मन से आपसी प्रेम के साथ तृष्णा का क्षय किया जा सके । दूसरा है सम्यक् मैत्री - केवल अपनी सत्ता फैलाने के बजाय दूसरों के सुख-संतोष में वृध्दि की जा सके । तीसरा है - सम्यक् वाचा - जीवन की नैसर्गिक अभिव्यक्ति को भंग करने वाली असत् वाणी से बचा जा सके । चैथा है सम्यक् कर्मान्त - प्राणघात, चोरी और व्यभिचार आदि कर्मों से काया को बचाया जा सके। पाँचवाँ है - सम्यक् आजीव - अपनी आजीविका प्राणीमात्र का हित-साधन करते हुए चलायी जा सके । छठवाँ है - सम्यक् व्यायाम - विचारों को कुमति के मानसिक धरातल से सुमति की भूमि पर सुगठित किया जा सके । सातवाँ है -सम्यक् स्मृति - देह की वेदना और चित्त का निरन्तर अवलोकन करते हुए स्थिर बुध्दि प्राप्त की जा सके । आठवाँ है - सम्यक् समाधि -- देह, अन्तःकरण और बाह्य पदार्थों के बीच पैदा होने वाली मनोवृत्तियों की एकाग्र चित्त से पहचान की जा सके ।
बुध्द कर्म-विनाश से जन्म को ही नष्ट कर देना चाहते हैं - वे अपने होने को ही नहीं,अपने न होने को भी महाशून्य में विलीन कर देना चाहते हैं । पर गीता कर्म और अकर्म की दो अतियों के बीच निष्काम कर्म को साधने की कला को प्रतिष्ठित करती है । गीता के भाष्यकार शंकराचार्य भी ज्ञानवान सन्यासी को कर्म से दूरी बनाये रखने की सलाह देते हैं, तभी तो वे प्रच्छन्न बौध्द ठहरा दिए गये हैं पर गीता सन्यासी को कर्म से विच्छिन्न नहीं मानती । कृष्ण कहते हैं कि भली प्रकार ज्ञान में अवस्थित सन्यासी किसी को कर्म से विचलित न करे क्योंकि जिसकी जैसी भावना है वह अपनी प्रकृति के त्रिगुणात्क न्याय - सत्व-रज-तमो गुणों - से बँधकर ही कर्म करता हुआ देखा जाता है ।
श्रीकृष्ण इस संसार में चार प्रकार के भक्तों की कोटियाँ बनाते हुए कहते हैं कि - एक वे हैं जो सांसारिक पदार्थों की कामना से भजते हैं, दूसरे वे हैं जो मात्र संकट निवारण के लिए भजते हैं,तीसरे वे हैं जो यथार्थ रूप से जानने की इच्छा से भजते हैं और चैथे वे हैं जो ज्ञान में स्थिर होकर जीवन मुक्त हो जाने की चेष्टा करते हें । वे यह तो कहते हैं कि ज्ञानी सर्वश्रेष्ठ हैं पर उन्हें यह अधिकार नहीं कि वे इन अर्थार्थी, आर्त्त और जिज्ञासुओं को ज्ञान की दुहाई देकर कर्म से विचलित करें । अनुभव में आता है कि श्रीकृष्ण हमसे कह रहे हैं कि संसार का तत्वतः ज्ञान होने पर भी कर्म की गति को नहीं रोका जा सकता क्योंकि यह देह जन्मजात और स्वभावतः कर्म से बँधी हुई है ।
रह-रहकर यह प्रश्न उठता है कि अगर कर्म की गति को नहीं रोका जा सकता तो जन्म की गति भी नहीं रुकेगी । आर्त, अर्थार्थी और जिज्ञासुओं की तरह ज्ञानी भी संसार में बार-बार जन्म लेते देखे जाते हैं - बुध्द और बुध्दू जहाँ एक साथ पैदा हों उसी को संसार कहते हैं । हर जन्म में बुध्द संसार में आकर अपने आपको संसार से ऊपर उठाने की चेष्टा करते रहते हैं, स्वार्थ को पृथ्वी पर झराकर परमार्थ में अपनी देह त्यागते हैं और संसार उनकी प्रतिमा स्थापित करके अपनी देह को संभालता रहता है - प्रतिमा संसार से कुछ नहीं कहती, संसार ही प्रतिमा से कुछ कहता रहता है । प्रतिमा कुछ नहीं करती, संसार ही कुछ करता रहता है ।
कहते हैं कि जब बुध्द को मृत्यु उठाने आयी तो वे उसके आने से पहले ही जा चुके थे और मृत्यु उनकी देहरी से खाली हाथ लौट गयी । जीते-जी सांसारिक मृत्यु को अकेला करके समष्टि में उठ जाने की कला ही अव्दैत है और मृत्यु को गले लगाकर जीते रहने से ही जीवन और मृत्यु का व्दैत उपजता होगा। कबीर भी चेताते हैं कि सौ-सौ बार मरने से तो अच्छा है कि संसार में रहते हुए एक बार मरने की प्रतीति से गुजर जाइये तो संसार जीते-जी छूट जायेगा ।
संसार को समझने के लिए गीता में उध्र्वमूल और अधोशाखा वाले संसार रूप वृक्ष की कल्पना की गयी है जो सत्व-रज और तमोगुण रूप जल के सींचा जा रहा है और जिसकी योनि रूप शाखाओं से रूप-रस-गंध-स्पर्श और शब्द रूप कोंपलें फूट रही हैं। पीपल जैसे उस वृक्ष से अहंता, ममता और वासना रूप जड़ें निकलकर सब लोकों में फैली हुई हैं । इस दृढ़ मूल वाले वृक्ष को वैराग्य की कुल्हाड़ी से काट डालना चाहिए । शंकराचार्य कहते हैं संसार रूपी वृक्ष का बीज अज्ञान है,देहात्म बुध्दि उसका अंकुर है, राग पत्ते हैं, कर्म जल है, शरीर तना है, प्राण शाखाएँ हैं, इंद्रियाँ उपशाखाएँ हैं, विषय पुष्प हैं और कई प्रकार के कर्मों से पैदा हुआ दुख ही फल है, जीवरूपी पक्षी ही इसका भोक्ता है ।
भक्तिकाल के कृष्ण भक्तों और कवियों ने संसार वृक्ष को उलटकर अधोमूल-उध्र्वशाखा के रूप में पृथ्वी पर रोप दिया और वह कदम्ब वृक्ष, जिसकी कलियाँ बादलों की गरज से खिल उठती हैं और उसके फूलों से सुगंध लेकर हवा बहती है । लीला पुरुषोत्तम कदम्ब की शाखाओं पर झूला झूलते हैं और उसकी छाया में बाँसुरी के स्वर छेड़कर पूरे देहगाँव को रिझाते हैं । इस कदम्ब के तने से प्रेम लताएँ लिपटी रहती हैं। भक्तों और कवियों ने उल्टे लटके उध्र्वमूल वृक्ष की जड़ें पृथ्वी पर जमा दीं, जिसे विराग की कुल्हाड़ी से काटने की मनाही है, उसे तो राग के जल से सींचने का प्रस्ताव किया गया है । उसे निर्ममता की आँच से बचाकर ममता की ठंडी हवा दुलारती है । किरण-धोनुएँ गगनमण्डल से उतरकर कदम्ब की छाया में बिलम जाती हैं।
कोई पन्द्रह बरस पहले लोक-आख्यान पर विचार करते हुए मेरी यह अनुभूति गहरी होती गयी कि लोक अनंत भी है और आँगन भी हे । वह अनन्त को आँगन में उतार लेता है और अपने घर की रुचिर अँगनाई से ही अनंत की यात्रा करता है । लोक में ही यह शक्ति है कि वह आवाहन न जानते हुए भी सब देवताओं को एक छोटा-सा चैक पूरकर उसमें प्रतिष्ठित कर सकता है । ऊपर से देखने पर लगता है कि लोक मोहग्रस्त है,हमेशा अपने दुखड़े रोता रहता है पर वह निष्ठुर भी है । वह समय की नदी में अपने देवताओं और उनसे जुड़े दुखों को रोज बहाया करता है । अगर बहाता नहीं तो लोक कबका मर चुका होता।
लोक श्रीकृष्ण की आवाज सुनता है, वे कह रहे हैं कि सारे जीवन को एक व्यापक ऋतुकाल घेरे हुए है । वृष्टि-चक्र के रूप में यह ऋतुकाल बार-बार पृथ्वी पर लौट आता है । देवता और कोई नहीं, यह वृष्टि-चक्र ही है । इस वृष्टि-चक्र की उन्नति करो और इससे पोषण प्राप्त करो - यही यज्ञ है जिसके व्दारा पृथ्वी की योनि में बीज-वपन होता है और धरती सबके उपकार के योग्य बनी रहती है ।
ज्ञान के अनेक मार्ग हैं पर लोक कभी सीधो उन पर नहीं चलता । वह तो सब मार्गों को मिलाकर अपनी पगडण्डी रच लेता है और ज्ञानियों की अवमानना किये बिना किसी एक तत्व की प्रधानता में भरोसा करते हुए अपनी जीवन प्रणाली गढ़ लेता है । लोक को भी दुख और तृष्णा से निवृत्ति चाहिए, उसे भी तो सुख-दुख से परे परमसुख की चाह बनी रहती है । पर वह कर्म से नहीं घबराता । लोक की कर्म से जन्मजात पहचान है,वह उसे छोड़ ही नहीं सकता । वह भली प्रकार जानता है कि जीवन कर्म की खेती है, जो बोया जायेगा वही काटा जायेगा । लोक भी ज्ञानियों की तरह खूब जानता है कि संसार गुण-अवगुण से सना हुआ है इसीलिए लोक ने गोबर से गुड़ बनाने की कला भी विकसित कर ली - जो त्याज्य है उसकी खाद बनाकर और उसी में कर्म के बीज बोकर प्रकाश में उठते रहने की विधि को ही लोककला कहना चाहिए। ज्ञान के बचे रहने का एक ही उपाय है कि उसकी लोककला जीवित रहे ।
महाकवि तुलसीदास सारे शास्त्रों, ग्रंथों और अनेक मतों को मथकर कहते हैं कि सबका भवसागर गुण-अवगुण से सना हुआ है, सब उसी में हिलुरते व्दैत से पैदा होते रहते हैं - माया-ब्रह्म, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य, साधु-असाधु, दानव-देवता, सुसंग-कुसंग, सुधा-सुरा, जलज-जौंक, अमृत-विष, सुखदुख, दिन-रात, काशी-मगध, जीवन-मृत्यु सब इसी सृष्टि में हैं । यह सृष्टि गुण-दोषों से सनी हुई एक सम्पूर्ण इकाई है और यह पूरी की पूरी सबकी देह में समायी हुई है । इसका कोई उत्प्रेरक जरूर है, एक केटेलिटिक एजेण्ट, जिसके बिना यह चल नहीं सकती - वह नहीं दीखता पर यह सृष्टि दीखती है । अनादि जड़-चेतन प्रकृति से उपजती रहती सृष्टि अनित्य होते हुए भी नित्य दिखायी पड़ती है, इसके होने से इंकार करना कठिन जान पड़ता है और इस सृष्टि के आगे किसी का हठ भी तो काम नहीं करता । यह किसी के मिटाने और मेंटने से नहीं मिटती । बस, विवेकपूर्वक इसका परिहार करके ही इसमें जिया जा सकता है । लोक में ही यह परिहार करने की शक्ति है । लोक जानता है कि वह जड़-चेतन की लोकव्यापी पार्टनरशिप का हिस्सा है और उसे अपना वास्तविक ऋण देवों, ज्ञानियों और अपने पितरों का ही चुकाना है, लोक किसी और उधारी को नहीं जानता । लोक अपनी स्मृति को ताजा बनाये रखने के लिए अपने गीतों में अपने इस ज्ञान को रोज गा लेता है ।
कभी मन-ही-मन सत्य को परिभाषित करने की चेष्टा करता हूँ और अनुभव करता हूँ कि अस्तित्व की योग्यता ही सत्य है और इसमें मिथ्या कुछ नहीं । यह देह ही सत्य की प्रयोगशाला है । जिज्ञासा होती है कि आखिर त्यागपूर्वक भोगने का मतलब क्या है तो कपिल मुनि की याद आती है और अनुभव होता है कि जीवन-उद्योग में अपरा और परा प्रकृति की कोई अनादि पार्टनरशिप है - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुध्दि और अहंकार तो अपरा प्रकृति कहलाते हैं जिनसे यह देह निर्मित होती है और जीवरूप परा प्रकृति से चलायी जाती है । जिन पाँच तत्वों - क्षिति-जल-पावक-गगन-समीर से यह देह रची जाती है उन्हीं से कामनाओं को बढ़ाने वाले विषय पैदा होते हैं - पृथ्वी से गंध, जल से रस, अग्नि से रूप, वायु से स्पर्श और आकाश से शब्द उत्पन्न होकर देह को कामना के प्रति उत्सुक करते हैं । मन के संकल्प-विकल्प, बुध्दि के निश्चय-अनिश्चय से घिरी देह जीव रूप से अपने भोक्ता होने का अनुभव करती है और अपने भोक्तापन से ही लगाव हो जाने के कारण यह देह अक्सर भूल जाती है कि वह खुद अपनी सम्मति से सिर्फ अपना ही नहीं, सबका धारण-पोषण करने वाली है । वह अपने साक्षीभाव से अपनी ही नहीं, सबकी गवाही दे सकती है और भरोसा दिला सकती है कि सब उसी जैसे हैं - अपने इस आत्मभाव से विभोर देह ही संसार को त्यागपूर्वक भोगने में समर्थ होती है और अपनी जरूरत का पोषण लेकर बाकी सबके लिए छोड़ देती है । वह संचय-विमुख होकर निर्भय हो जाती है और इसे ही त्यागपूर्वक भोगना कहा जा सकता है ।
अनादि प्रकृति कितने सारे जीवनरूपों की रचना करती है और अनुभव होता है कि कोई अनादि चैतन्य सब रूपों में बसा हुआ है । संसार के सभी प्राणी अपनी-अपनी संततियों को उनकी प्रकृति के अनुरूप पालने-पोलने में लगे रहते हैं । वे अपनी संतानों को संसार का सामना करने योग्य बनाया करते हैं । जीवन एक रणक्षेत्र है, युध्द का चक्रव्यूह भीतर ही भीतर प्रतिपल बदलता रहता है । पता नहीं कब किससे और अपने आपसे ही सामना हो जाये । यह रणक्षेत्र देह ही है जिसके परिणाम बाहर प्रतिफलित होते रहते हैं । अनुभव में आता है कि हमारी प्रकृति किसी बोधमय नित्यता में डूबी हुई है । हमें उसी की गहराई में डूबा साधकर अपने आपको देखने की कला भी सिखायी गयी है - कर्म की कुशलता ही वह कला है और जिसे योग कहा जाता है । यह योग ही परम चैतन्य और संसार की दूरी को पाटने में समर्थ है।
लगता है कि मनुष्य के काम्य कर्मों का बोझ सहते-सहते पृथ्वी थक रही है, वह बार-बार करवटें बदल रही है, जल आपे से बाहर है, आसमान में छिद्र बढ़ते जा रहे हैं और हवा कभी बड़ी देर तक चुप होकर डरा देती है जैसे संसार की बची-खुची साँसों के बारे में सोच रही हो । मन पर ठहरी सभ्यता ने जो विश्व बाजार रचा है उसमें अकेली छोड़ दी गयी ललचायी-सी यह देह अपने आत्मभाव से विच्छिन्न होकर अपनी प्रकृति में ही लिथड़ी दिखायी देती है । कामनाओं का बाजार गर्म है । कामी, क्रोधी और लालची धर्म के डेरे सजा रहे हैं । ऐसा कोई सूरमा अब ढूँढे नहीं मिलता जो जाति-वर्ण और कुल को खोकर संसार का सच्चा सौदा करे सकें।
गांधी जी सच्चे स्वराज्य को प्रतिफलित करने के लिए पूरे संसार से अपने आत्मबल को ऊँचा उठाये रखने की माँग करते रहे जिस पर कोई हमला नहीं किया जा सकता । इस देह में वह ऐसा अवध्य साक्षी है जिसे किसी भी कीमत पर गुलाम नहीं बनाया जा सकता । आज राज्य और बाजार इस देह के अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोषों को वध्य पाकर लोकतन्त्र और व्यापक जीवन को लोभ और लालच से भरते जा रहे हैं - यह देह अन्न से ही उत्पन्न होती है, उसी से जीती है और उसके बिना उसे नष्ट होने की चिंता तो लगी ही रहती है । इसके प्राण अन्नमय कोष से तृप्त होकर ही सभी काम्य कर्मों में भटकते रहते हैं और रूप-रस-गंध-स्पर्श और शब्द की विषय-वासना से प्रज्ज्वलित मन उन पर छाया किए रहता है और इसी मन में यह सम्भावना भी छिपी हुई है कि वह वासनाओं को जलाकर खाक कर दे और आत्मभाव को प्राप्त हो जाये । पर वासना-लिप्त मन पर ठहरी यूरोपीय सभ्यता का पृथ्वी पर फैलता बाजार मन को आत्मभाव में कभी उठने नहीं देगा । इस बाजार ने धर्म और राजनीति को भी अपने चंगुल में फाँस लिया है ।
सबसे बड़ा खतरा यही है कि आत्मवान देहों के अभाव में संसार दिनों-दिन साधनहीन होता चला जायेगा । अब आँत चिन्तक ही हमारे समय के चरित नायक होंगे और आत्म चिन्तक ढूँढे नहीं मिलेंगे । हमारे दो इतिहासों - रामायण और महाभारत में धर्म और राजनीति से यह उम्मीद की गयी कि वे तात्विक रूप से अव्दैत और व्यवहारिक रूप से संसार के व्दैत के बीच कोई सेतु बाँध सकें और उसे बाँधने के अनेक प्रबल प्रयत्न भी बीती सदियों में होते रहे हैं पर इक्कीसवीं सदी के देश-काल में इस सम्भावना को भी नष्ट किया जा रहा । इस सम्भावना को नष्ट करने में खुद धर्म और राजनीति ही बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं और जो पुल बन रहा है वह संसार को सिर्फ बाजार की तरफ लिए चला जा रहा है, ब्रह्म जिज्ञासा की तरफ नहीं ।
अब महर्षि पतंजलि ब्राण्ड हो गये हैं, उनके नाम पर हेण्ड-वाश बिकता है और चित्त-वाश की चिन्ता किसी को नहीं । अब सद्गुरु वे कहलाते हैं जो ध्यान-धारणा-समाधि की कोचिंग क्लास चलाकर धन कमाते हैं, योग के विस्तार को हेल्थ केयर में रिड्यूस करके बाजार में बेचते हैं, आर्ट आफ लिविंग का धन्धा करते हैं । अब बाजार के मेनेजमेंट गुरु श्रीमद्भगवद्गीता के टीकाकार हो गये हैं जन्म-निरोध के भौतिक उपाय खोजकर उन्हें अय्याशी का साधन बना लिया गया है । राजनेता विष्णु के अवतार कहे जाने लगे हैं और उनके व्दारा किराये पर उठा लिए गये लोग हनुमान कहलाते हैं । रामराज्य की हकीकत से दूर राज्यकत्र्ता इस समझ से कोसों दूर दिखायी दे रहे हैं कि जहाँ दैहिक, दैविक और भौतिक ताप नहीं व्यापते, जहाँ जीवन में हर्ष और प्रेम प्रकट होता है, शोक का अभाव रहता है, कोई किसी से बैर नहीं करता, कोई दीन नहीं होता और विषमता चली जाती है उसे ही तो रामराज्य कहा जाता है । जीतो - यह शब्द केवल मन के जीतने के लिए ही सुनायी पड़ता है और राज्य में अनीति की बात पर भय भुलाकर बेखटके टोकने की छूट होती है ।
रामायण मनुष्य देह को ही अयोध्या मानती है और आत्मबल ही उसका गौरव और शक्ति है - अयोध्या माने जिस पर कोई आक्रमण न किया जा सके । पर आश्चर्य कि राज्य ही मानवी देह के मन को फुसलाकर उस पर आक्रमण के नये-नये बहाने खोज रहा है और इतना ही नहीं, वह बहुराष्ट्रीय बाजारू शक्तियों को देश की समूची देह पर आक्रमण करने के लिए न्यौता भी दे रहा है । भय होता है कि कहीं हम जाने-अनजाने एक बार फिर गुलामी की पुनर्रचना तो नहीं कर रहे ।
अव्दैत के शान्त विस्तार में अपने आत्मभाव से निरन्तर विच्छिन्न होता जाता अशान्त संसार अकाल मृत्यु की ओर जाता दिखायी दे रहा है । पर निराश होने से तो कुछ न होगा, विपत्ति बढ़ती ही जायेगी । अमंगल और अशुभ के समाचारों से प्रतिदिन भरते जाते संसार में पूर्वजों के सुझाये रास्ते अब भी मौजूद हैं क्योंकि वे हमारी देह से ही निकलते हैं और उनके अवरोधों को हम ही हटा सकते हैं । जो दुनिया हमें मिली है वह मनवांछित फल देने वाली कामधोनु जैसी है । हम उसे अपनी सात्विक श्रृध्दा से ही पाल-पोस सकते हैं । महाकवि तुलसीदास ज्ञान-भक्ति निरूपण करते हुए हमें समझाते हैं कि हमें अपनी देह के संयम और आचरण से, संग्रह और त्याग के विवेक से ही सृष्टि के जीवन उद्योग के बीच इस कामधोनु को अपने निर्मल मन से अपने ही विश्वास के बरतन में दुहना होगा । उसके दूध को अपनी निष्काम आग पर ओंटकर अपने संतोष की हवा से ठण्डा करना होगा और अपने धीरज के जामन से जमाना होगा । फिर उसे अपनी ही प्रसन्नता की कमोरी में सृष्टि के तत्वविचार की मथानी से मथना होगा । इसी नवनीत से देह में जगमगा उठने वाली उस लौ की सम्भावना छिपी हुई है जिसके प्रकाश में अजन्मे स्रष्टा और जन्म के बीच की दूरी के कम होते जाने का अहसास होता है ।
समूची सृष्टि के त्रिगुणात्मक स्वभाव को जो जड अपरा और चेतन परा प्रकृति गढ़ती है उसके पोषण तत्व को विष्णु कहा जाता है - इस विष्णु में अग्नि और सोम बसे हुए हैं । यह विष्णु प्रकाश, पौरुष, तप, ज्ञान से ओतप्रोत होकर अग्नि रुप और सुषमा, सरसता, सौंदर्य, प्रेम में डूबकर सोम रूप कहलाने लगता है । ये अग्नि और सोम मिलकर ही सृष्टि में विष्णु को सगुण-साकार करते हैं । स्थूल रूप से अग्नि नर है और सोम नारी है और ये दोनों एक-दूसरे में रचे-बसे हैं । महाभारत अग्नि रूप और भागवत सोम रूप विष्णु की ही कथा है। ये कथाएँ हमसे हमारे ही काल-कर्म-गुण-ज्ञान और स्वभाव की गहरी पहचान करवाती हैं।
ये दोनों कथाएँ हमारी देह में बसे किसी अन्तर्यामी की पहचान को ही परमज्ञान मानती हैं - सृष्टि में कोई सर्वभूत एकता जरूर है जो देहों में बसे वैविध्य और विषमता को अस्वीकार किये बिना अपने आप में सबको समेटे हुए है । सृष्टि का प्राकृत स्वभाव तो विषमता ही है । कर्म, गुण और स्वभाव के भेद ही जैसे यथार्थ हों, इन्हें जड़-मूल से मिटाया नहीं जा सकता पर इनमें सामंजस्य जरूर बैठाया जा सकता है।
प्रत्येक मनुष्य में गुण, आकृति और कर्मभेद होने से विभूतिभेद प्रत्यक्ष दिखायी पड़ता है । इसी कारण संसार की अनेक राजनीतिक विचारधाराएँ कभी सफल नहीं हो पायीं क्योंकि मानवमात्र एक समान नहीं हैं और वे एक व्दैतमूलक-अभावग्रस्त-असहाय-पराघीन समता में कभी पाले-पोसे नहीं जा सकते । अव्दैत ऐसी सामंजस्यपूर्ण आत्म-समृध्दि की तरह प्रतीति में आता है जो हरेक मनुष्य को उसके आत्मबल के सहारे उसकी स्वाधीनता में कुछ इस तरह ऊँचा उठाती होगी जहाँ वह स्वयं अपनी प्रतीतियों से अपने पुरुषार्थ और पराक्रम की सही पहचान करके उन्हें सौंदर्य और प्रेम से भर सकता होगा । फिर उसे किसी ईश्वर और किसी के भी राज्य की जरूरत महसूस न होती होगी । वह खुद प्रकृति के बहुरंगी व्दैत में अपने आत्म का घर ढूँढ लेता होगा।
संसार में व्दैत एक पगडण्डी है जो अव्दैत की ओर चलना सिखा सकती है -- इस पगडण्डी के दोनों ओर खड़े बहुरूपी-बहुरंगी वृक्षों को देखकर लगता है कि इस संसार में उनसे बड़ा अव्दैत वेदान्ती कोई दूसरा नहीं । वृक्ष अपने आपको छोड़कर कहीं नहीं जाते । वे अपने छोटे-छोटे बीजों में अपनी जलवायु की पहचान छिपाये रहते हैं । वे उसे पहचाने बिना अंकुरित ही नहीं होते और हमेशा अपने आपको घूप की दिशा में ऊँचा उठाये रखते हैं । जिस स्थान पर उगते हैं वहीं उनके पत्तों की छाया फैली रहती है । फूल आते हैं,फल आते हैं पर वे हमेशा उन्हें अपनी छाया में झराते हैं । कोई टहनी अपने सूख जाने के दुख से बेपरवाह अपने आपको त्याग देती है ।
वृक्षों को देखकर लगता है कि उनसे बड़ा निष्काम कर्मयोगी दूसरा नहीं । जन्मजात नश्वरता के बोध से भरे अपेक्षाहीन वृक्षों से उनके कर्म अपने आप झरते रहते हैं और हर बार नयी कोंपलें फूट आती हैं क्योंकि वे प्रकाश में ऊँचा उठना नहीं भूलते । वृक्षों में अपने आपसे अजनबी होने की कोई विकलता प्रकट ही नहीं होती । उन्हें देखकर हमेशा लगता है कि वे तो अपने आपसे ही अनन्य हैं, उनके लिए कोई दूसरा नहीं है । ज्ञानियों के अनुभव में हमारी यह देह बिलकुल एक खेत जैसी है जिसकी निंदाई-गुड़ाई की जिम्मेदारी किसी और पर नहीं डाली जा सकती । इस देहरूपी खेत की मेंड़ को बाँधो रखने से ही अव्दैत के विस्तार में यह संसार चलने योग्य बना रह सकता है ।
शायद हम भी अनुभव कर रहे हों कि पृथ्वी पर फैलते जाते बाजारों की विषय-बयार हमारी देह को न जाने किस अंधोरे के क्षेत्र में हाँके लिए जा रही है और हम अपने से ही नहीं, एक-दूसरे से भी दूर होते जा रहे हैं। अपने आप पर संदेह होता है और कहने का मन होता है कि ईश्वर तो हमारा स्वार्थरहित सखा अब भी है पर हम उसके स्वार्थरहित सखा होने में असमर्थ दिखायी दे रहे हैं, शायद इसी कारण हमारे जीवन की लौ डगमगा रही है। जो लोग प्रकृति में ईश्वर का घर खोज पाते हैं उन पर ईश्वर का घर संभाले रखने की जिम्मेदारी आ जाती है पर जो लोग ऐसा नहीं कर पाते उन्हें ईश्वर उनकी प्रकृति के अनुरूप पालता-पोसता रहता है। उनके लिए बिना किसी मुआफी के इतनी कृपा काफी है...
अव्दैत के विस्तार को अनुभव करने वाले ज्ञानवानों ने संसार के होने से कभी इंकार नहीं किया है, उन्होंने तो बस अपनी प्रतीतियों को शब्द प्रदान करके सांसारिकता से कमलपत्रवत् ऊपर उठने की सलाह ही दी है- कमल के पत्ते पर जिस तरह जल की बूँद अपने अस्तित्व को खोये बिना रही आती है। ठीक वैसे ही संसार में रहा जा सकता है। गुण-अवगुण से सने हुए सांसारिक पंक में डूबी हुई अपनी अष्टधा अपरा प्रकृति को एक अष्टदल कमल पुष्प की तरह कुछ तो ऊपर उठाया ही जा सकता है।
इस अनंत सृष्टि के जन्म में ही मृत्यु बसी हुई है और हमारा जन्म हमारी मृत्यु का कारण तो बनता ही है, वह किसी और की मृत्यु का कारण भी बन सकता है। ये लुटती-पिटती पृथ्वी और इतनी मारकाट आखिर किसके कारण है। जन्म की जमीन में ममता के बीज गहराई तक दबे रहते हैं जिनके अंकुरण से मोह की शाखाएँ फूटने लगती हैं, लोभ के फल आने लगते हैं, स्वार्थ की छाया घनी होने लगती है। हम चाहें तो अपने इस देह-वृक्ष को परमार्थ की निर्ममता में निष्कामभाव से कुछ ऊँचा उठाये रखने का प्रयत्न तो कर ही सकते हैं। ऐसा करते हुए हम मृत्यु से फिर भी नहीं बचेंगे पर वह जब भी हमें उठायेगी तो हमारा कोई बोझ उस पर नहीं होगा, ठीक वैसे जैसे डाल से सहज ही टूटे हुए पत्ते को पवन उड़ा ले जाती है। इस तरह हम सृष्टि के इस जीवन उद्योग की खाद बनते रहेंगे और अव्दैत के विस्तार में हमारा संसार सबका काम चलाने के योग्य बना रहेगा।

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