23-Mar-2022 12:00 AM
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‘खा ली क्या’
‘क्या खा ली क्या?’
‘नींद की गोली’
‘बाप रे, तुम भी न - खा तो ली। दिखायी नहीं दिया क्या,’ अरुण चैध्ारी ने गम्भीर स्वर और थोड़े ग़ुस्से में अभिलाषा को उत्तर दिया।
‘पूछ ही तो रही हूँ। इसमें इतना ग़ुस्सा करने की कौन-सी बात है। जाओ अब सो जाओ। मुझे थोड़ा पढ़ना है, मैं थोड़ी देर बाद सोऊँगी।’
अरुण चैध्ारी अपने सोने के कमरे में चले गये। वहीं उनकी पत्नी सो रही थी। वह भी नींद की गोलियों पर टिके हैं। अरुण चैध्ारी के आने के साथ ही बिछौने पर पसरा पड़ा सन्नाटा चटख गया। पत्नी के बिखरे बालों पर हाथ फेरकर वे भी पत्नी के पास सो गये। बिछौने पर दोनों को इन्तज़ार है अब एक रासायनिक नींद का। अरुण चैध्ारी की बेटी अभिलाषा चैध्ारी अभी स्कूल में ही पढ़ रही है। इस बार वह ग्यारहवीं जमात में गयी है, कला शाखा में। कक्षाएँ अभी शुरू नहीं हुई हैं। अपनी पढ़ाई की मेज़ पर वह किताबों को ऐसे ही उलट-पलट रही है। कोई-कोई किताब उसे उत्तेजित करती है और वह सोचती है - ओह, इतनी कठिन हो गयी है पढ़ाई। इस बार मेरा क्या हाल होगा। कल से ठीक से पढ़ना शुरू करना होगा। इसी बीच उसे याद आया उसे कुछ सोचना था। लेकिन क्या सोचना था यह उसे याद नहीं आ रहा था। किताबों को फिर से मेज़ पर सजाकर वह सोचने लगी, उसे क्या सोचना था। काफ़ी देर बाद उसे वह बात याद आ गयी जो वह सोचना चाहती थी। बात यह थी कि - वह इन दिनों सो नहीं पा रही है। उसकी नींद पहले अच्छी थी। लेकिन पिछले दसेक दिनों से बिल्कुल नींद नहीं आ रही। बिछौने पर लेटने के बाद बस करवटें बदलती रहती है। शायद अकेली सोती है इसलिए। पहले जब माँ के साथ सोती थी तब बिल्कुल स्थिर पड़े रहना पड़ता था। करवट बदलते ही माँ की नींद टूट जाती थी। लेकिन अब यह दिक्कत नहीं है। नींद नहीं आने की बात अब तक उसने माता-पिता को नहीं बतायी है।
कहीं मुझे भी तो माँ-पिताजी की तरह इनसोम्निया नहीं हो गया? जीन क्रोमोसोम या अन्य किसी कारण से? आजकल ये रातें असहनीय हो गई हैं। पता नहीं कहाँ से इस नींद न आने वाली बीमारी ने घेर लिया है। माँ को तो बताते ही सारे घर को चिन्ता में डाल देगी - फिर चाचा लोग पूछेंगे, मामा-मामी पूछेंगे, कहेंगे - यह खाओ, वह खाओ। यह करो, वह करो। इससे तो अच्छा है न ही बताना। सबकुछ ठीक हो जाएगा ध्ाीरे-ध्ाीरे। इतना अध्ािक सोचने से कहीं और कोई बीमारी न पकड़ ले।
अपनी इन्हीं बातों पर विचार करते हुए उसने शयन कक्ष के आईने में एक बार अपने आप को देखा। और जहाँ तक सम्भव था यह सोचने की कोशिश की कि मैं सुन्दर हूँ, लेकिन ऐसा कर नहीं पायी। वह कभी भी अपने आप को लेकर सन्तुष्ट नहीं हुई। उसने अपने घुटने देखे - काले हैं। पहना हुआ टाॅप आध्ाा ऊपर उठाकर पेट देखा - काला है, बिल्कुल देखने लायक नहीं। उसके होठों पर एक टेढ़ी मुस्कान आ गयी। मन में आया - सुन्दर होकर क्या करना है, मुझे किसी से प्यार-व्यार तो करना नहीं है! न ही कोई लड़का मुझसे प्यार करने वाला है! इसलिए सुन्दर होकर क्या करना है? माँ तो मुझे सुन्दर कहती ही है, फिर मुझे क्या ज़रूरत है दूसरों की परवाह करने की। लेकिन कभी-कभी मेरा भी मन करता है...उँह, मन करने से क्या होता है, हर कोई तो लम्बा-चैड़ा, गोरा नहीं हो सकता, ठिगने और काले लोग भी तो रहेंगे दुनिया में!
यह सब सोचते-सोचते वह छोटे प्यारे-से बिछौने पर सो गयी। वह शायद रोयी थी...उसे शायद किसी की ज़रूरत थी...यह नींद न आने की बात वह शायद किसी को बताना चाहती थी। किसे बताएगी, किसी को तो बताना ही होगा! कौन सुनेगा उसकी बातें? वह न जाने ऐसा ही कितना कुछ सोचती रही और अपनी आँखें मूँद ली। वह सिफऱ् सोने का नाटक कर रही थी।
अभिलाषा - वैसे तो छोटी लड़की ही है। दूसरों से थोड़ी अलग है या वह अपने आपको दूसरों से थोड़ा अलग समझती है। जैसे उसे कम उम्र लड़के-लड़कियों के बीच चलने वाली प्रेम-प्रीति की भाषा अच्छी नहीं लगती। आज तक वह अपनी उम्र के किसी लड़के के प्रति आकर्षित नहीं हुई। वह प्रेम करना नहीं चाहती। उसे चाहिए बस एक ऐसा लड़का, जो उसकी हर चीज़ में मदद करे। जब वह रोये तो वह उसे सान्तवना दे। जब वह कोई सवाल पूछे तो वह एक अलग तरह से जवाब दे। और क्या चाहिए उसे? क्या चाहिए? उसका तकिया भींग गया, क्या वह रो रही है?
अभिलाषा के पास के कमरे में उसके माता-पिता सो रहे हैं - अपनी बनावटी नींद में बेहाल। दरअसल अभिलाषा के पूरे परिवार को ही इनसोम्निया है। सभी के पास नींद की गोलियों की एक पत्ता रहती ही है। केवल अभिलाषा को इनसोम्निया नहीं है। हालाँकि यह बीमारी होने की उसकी उम्र भी नहीं हुई है। घर के सभी सदस्य उसकी नींद को लेकर सतर्क रहते हैं।
वह रो भी नहीं सकती, हँसने का भी उसका मन नहीं है। ...ओह अभिलाषा- अभिलाषा - क्यों तुम इस तरह मेरा हाथ सूखा देती हो, क्यों तुम मुझे विषाद की उन ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं में ले जाती हो? - वह अपने ही साथ बात करती है।
अन्ततः वह भी उस जाल में फँस गयी, जिसमें बहुत सारे लोग फँस चुके हैं। इस जाल से निकलने का उसके पास कोई उपाय नहीं है। एक पक्षी की तरह वह अपनी मनमजऱ्ी से उड़ना चाहती थी। वह अपनी एक दूसरी पहचान को खोजना चाहती थी। जैसे एक चिडि़या चावल के दानों के लोभ में पड़कर जाल में फँस जाती है, क्या वह भी वैसे ही कभी किसी के जाल में फँस जाना चाहती है? वह जिस जाल में पड़ना चाहती थी, क्या वह प्रेम का जाल है? क्या इसी जाल में पड़कर उसकी नींद उड़ गयी है?
वह बिस्तर से उठती है। अपने बालों को बाँध्ाकर पर्स हाथ में लेकर वह घर से बाहर निकल जाती है। आज छुट्टी का दिन है, रविवार है। ध्ाूल से सना एक साइनबोर्ड जिस पर लिखा है - शर्मा मेडिकल। यह दवा की दुकान रात भर खुली रहती है। दुकान में रात भर बैठे रहने वाले आदमी को भी शायद इनसोम्निया है। वह नींद की गोलियों का एक पत्ता खरीदती है। घर लौटती है। माँ को कुछ नहीं कहा। नींद की गोली कैसे खानी चाहिए और इसके साइड एफेक्ट क्या है, उसने अपने सेलफोन पर देख लिये हैं और इसके बाद वह अपने प्रिय लेखक की कहानियों की किताब पढ़ने में खो जाती है।
नहीं, वह उस लड़के के प्रेम तो पड़ी ही नहीं - फिर क्यों उसे नींद नहीं आ रही? वह कैसे उस लड़के से प्यार कर सकती है? उसके साथ वह हँस-हँसकर बातें करती थी, लेकिन यह बात करने वाला क्या उसका वह लड़का है जो उसे उसकी प्रत्येक बात का अलग तरह का उत्तर देगा और उसके साथ घुल-मिलकर बातें करेगा? जिसके साथ वह हँस पायी थी, क्या उसने उसे ध्ाोखा नहीं दिया था?
तभी उसने देखा एक छाया उसकी ओर बढ़ रही है और ध्ाीरे-ध्ाीरे वह उसके पास आकर रुक गयी। उसने देखा - वह अंशुमान है।
‘ओह, अभिलाषा तुम क्यों मुझे इतना गम्भीर बना देती हो, मुझे दुख है कि तुम अकेली हो, किन्तु मुझे भी निस्संग तुमने ही बनाया है अभिलाषा।’
‘यह ठीक है कि हम आपस में बातें करते हैं, लेकिन मैं तुम्हारे अन्दर छुपे किसी और को खोजती हूँ। देखो, मैं चली जाऊँगी। आजकल एक तरह का डर ही लगता है, लोगों से मिलने पर दुख बढ़ जाते हैं। मैं चली जाऊँगी।’ यह कहकर अभिलाषा सचमुच अंशुमान के पास से उठकर चली गयी।
अंशुमान ताकता रहा पीछे से - ध्ाीरे-ध्ाीरे जाती हुई उस छाया को। इस छाया का नाम है अभिलाषा। वह सोचने लगा उस छाया के बारे में, गहराई में डूबकर।
आजकल उसे कोई भी अच्छा नहीं लगता, लेकिन वह चाहती थी किसी को प्यार करना। निश्चय ही चाहती थी। मैं भी चाहता हूँ अभिलाषा - लेकिन कोई भी तो नहीं है। ठीक है कि सभी के साथ बातें करता हूँ, लेकिन बातें करने के बाद मैं अपने आपको पाता हूँ बिल्कुल निस्संग। और तब सिफऱ् तुम्हीं रहती हो, पता नहीं क्यों, देखो न अभिलाषा, मेरी आलमारी में अनगिनत नींद की गोलियाँ हैं, लेकिन मैं भी बनावटी नींद लेना नहीं चाहता। ओह, अभिलाषा हम कितने अकेले हैं। वैसे मुझे तुम निस्संग नहीं लगती, तुम्हारे जंग लगे हाथ, जंग लगी आँखों की भी भारी कीमत है, तुम इतनी पोस्ट माॅडर्न हो - फिर भी क्यों तुम अपने आपको अकेली समझती हो। मेरे सूखे हाथ को और सूखा बनाने आयी हो तुम, मुझे अच्छा लग रहा है। तुम्हारे हाथों का जंग मुझे दे दो तो भी मुझे बुरा नहीं लगेगा।
दरवाज़े पर किसी ने खटखटाया है। इतनी मीठी है यह खटखटाने की आवाज़। दरवाज़ा खोलकर जिसे अंशुमान ने देखा वह थी जंग लगी लड़की - अभिलाषा। उसके प्यारे काले रंग की पोशाक में उसका सौन्दर्य और भी खिल उठा था। इसका मतलब है उसे पता ही नहीं चला था कि उसके पीछे-पीछे वह छाया भी चली आयी थी।
दरअसल वह और अभिलाषा स्कूल में एक साथ पढ़े थे। उनका सम्पर्क अकेलों की तरह था। जब वे बातें करते थे - दोनों एक-दूसरे को आसमान उपहार देते थे और बाद में फिर तनहा हो जाते थे।
‘अरे अभिलाषा, तुम लौट आयी? मैंने सोचा था तुम घर पहुँच गयी होगी। आओ, आओ।’
‘तुम्हारे साथ दो-चार बातें करने के लिए फिर से लौट आयी।’
‘अच्छा किया, क्या पीओगी - चाय या काॅफ़ी?’
‘कुछ नहीं पीऊँगी, चलो सिफऱ् बातें करते हैं। मैं असल बात पर आती हूँ, तुम्हें डिस्टर्ब नहीं करना चाहती, समझे। मैं सिर्फ़ तुमसे एक छोटा-सी मदद चाहती हूँ। दरअसल आजकल मुझे नींद नहीं आती। इतना फ्रस्ट्रेशन है कि कल फार्मेसी से नींद की गोलियाँ ले आयी। बताओ न क्या करूँ? तुम तो जानते हो हमारे घर में सभी को इनसोम्निया है। मुझे यह बीमारी नहीं थी, लेकिन अब पिछले पन्द्रह दिनों से मुझे भी यह बीमारी लग गयी है। माँ-पिताजी को बताऊँ तो वे लोग सारी दुनिया को बताते फिरेंगे और फिर मुझे अस्पताल भी भेज देंगे। इसीलिए तुम्हारे पास आयी हूँ। पता है मैं तुम्हारे सिवा और किसी को यह बात नहीं बता सकती - कौन समझेगा। क्या पता कौन क्या सोचेगा।...’
‘इस इनसोम्निया के भी कितने ही रंग हैं। इसने मुझे प्रेम में ध्ाकेल दिया था बिना मेरे जाने, तुम भी प्रेम में पड़ चुकी हो जैसा लगता है। मैं भी किसी को खोजता फिरता हूँ और अन्त में मेरे हाथ से हाथ मिलाती है नींद और मैं बिस्तर पर पड़ा रहता हूँ और ध्ाीरे-ध्ाीरे इनसोम्निया के ग्रास में चला जाता हूँ। मैं तुम्हारे साथ ही हूँ चिन्ता मत करो।’
‘ठीक है, मैं समझ गयी, तुम क्या कहना चाहते हो, आज चलती हूँ, कभी हमारे घर आना। आना, ठीक से बात करेंगे। तुम्हारा हाथ सूखा है, मेरा हाथ भी सूख गया है, चलती हूँ, बाय..’
अभिलाषा तुरन्त वहाँ से निकल गयी। कारण वह प्रेम की बातों को आगे नहीं बढ़ाना चाहती थी। जब वह दरवाज़े से पार हो रही थी कि उसे पीछे से देखते हुए अंशुमान ने सोचा - तुम कितनी सब जैसी हो अभिलाषा।
नहीं सो पाने वाले दो प्राणियों की थकान से जैसे पृथ्वी भी दिन भर थकी रही, इसके बाद शाम आयी और शाम के आते ही दुश्चिन्ताओं का जन्म होता है - अंशुमान, अभिलाषा, अभिलाषा के माता-पिता, शायद पृथ्वी के कितने ही लोगों के मन में। आलमारी खोलकर वह देखता है वहाँ सैकड़ों नींद की गोलियाँ भरी हैं। जो उसे इतना दुख देती हैं, इतना दुख देती हैं। इसके बाद वह बिस्तर पर पड़े अजस्र विषाद और नीरवता के साथ सोने का प्रयास करता है। नहीं, उसे नींद नहीं आएगी। वह मुँह ही मुँह में बड़बड़ाता है, उठता है और अभिलाषा को फ़ोन मिलाता है। अब तक चाँद की रोशनी कम हो चुकी है।
‘अभिलाषा, मैं अंशुमान बोल रहा हूँ। मैंने कितना सोचा तुम्हें बताऊँ या न बताऊँ, लेकिन तुम्हारी छटफटाहट देखकर मुझसे रहा नहीं जाता, तुम और मैं, हम दोनों ही इनसोमनिक हैं और हमारा इनसोम्निया का एक ही साझा आसमान है। मैं यह नहीं कहता कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ, लेकिन तुमने प्यार से भी ऊँची जो निस्सगंता-नीरवता पाल रखी है, उसे मैं प्यार करता हूँ। तुम्हारे प्रश्नों का दूसरी तरह का उत्तर देने के लिए भी मैं तैयार हूँ। मेरे लिए तुम्हीं इनसोम्निया हो, जिस इनसोम्निया को मैं प्यार करता हूँ, जिस इनसोम्निया को मैं हमेशा अपने साथ लिए घूमूँगा। और तुम भी इस इनसोम्निया को प्यार करना सीख लो - अभिलाषा, आफ्टर आॅल हम दोनों उस एक ही जाल में बन्दी हैं। तुम्हारी तरह मैं भी इस जाल से बाहर निकल सकता। नींद की गोलियाँ मत खाना, बनावटी नींद से इनसोम्निया बहुत सुन्दर है...बहुत सुन्दर है अभिलाषा। तुम जैसे ज़ंग लगी सुन्दर लड़की हो, इनसोम्निया भी ज़ंग लगी सुन्दर नींद है, समझी।’