बाॅदलेयर की कविताएँ चयन एवं अनुवादः सुरेश सलिल
26-Oct-2020 12:00 AM 5047

बाॅदलेयर की कविता में दिलचस्पी जब पैदा हुई, बाज़ार में अंग्रेज़ी अनुवाद में उपलब्ध्ा उनका एक पतला-सा संकलन खरीदा था जो दशकों मेरे पास रहा, उसमें से दो कविताएँ ‘साम्यताएँ’ (कॅरेस्पांडेंसेज़) और ‘एक इकारस का रुदनगान’ अनुदित कर पाया था कि मित्रों की कृपा से किताब हाथ-बेहाथ हो गयी। सन् 2010 में मित्रों की ही कृपा से बाॅदलेयर की कविताओं का एक संस्करण हाथ आया, पेंगुइन क्लासिक्स सीरीज़ में प्रकाशित ‘सिलेक्टेड पोयम्स’। कैरोल क्लार्क द्वारा सम्पादित इस द्विभाषी संस्करण में मूल फ्रेंच कविताओं के साथ उनके प्रोज़ ट्रान्सलेशन किये गये हैं। उपरोल्लिखित दो कविताओं के अतिरिक्त, यहाँ प्रस्तुत सभी कविताएँ उसी की सहायता से अनुवाद की गयी हैं। कविताओं का अर्थ समझने में गद्य-मसौदों से मदद ली गयी है और काव्य-विन्यास मूल के अनुरूप रखा गया है।
बाॅदलेयर का पूरा नाम चाल्र्स पियेर बाॅदलेयर था। 1821 में पेरिस (पागी) में जन्में, वे अपने माँ-बाप के एकमात्र पुत्र थे। वे जब छह साल के थे, उनके पिता का निध्ान हो गया और उसके एक साल बाद उनकी माँ ने कर्नल आॅपी से दूसरा विवाह कर लिया। बाद के वर्षों में बाॅदलेयर में अपने सौतेले पिता के प्रति घोर घृणा और उपेक्षा का भाव लक्ष्य किया गया।
पढ़ाई-लिखाई के लिए बाॅदलेयर को लाइसी लुई-ले-ग्रां में भर्ती कराया गया। वहाँ राष्ट्रीय लैटिन काव्य प्रतियोगिता में उन्हें दूसरा स्थान प्राप्त हुआ। तब भी दो साल बाद ही, अनुशासनहीनता का आरोप लगाकर उन्हें वहाँ से निकाल दिया गया। कुछ दिनों वे एक लाॅ स्कूल में भी पढ़े, किन्तु उस दौरान उनके रहन-सहन और बात-व्यवहार में बोईमियन प्रवृत्तियाँ ग़ौर की जाने लगीं, जिनसे उनका पीछा छुड़ाने के लिए उनके सौतेले बाप ने उन्हें हिन्द महासागर के एक लम्बे समुद्री अभियान पर भेज दिया। लेकिन जो फ़ानी दुनिया में अमर कहाने आते हैं@ वे कब माया-मोह में फँसकर अपना समय गवाँते हैं!... लिहाज़ा बाॅदलेयर, उस अभियान को अध्ाूरा छोड़कर, मुट्ठी-भर कविताओं के साथ, पेरिस वापस लौट आये। उसके बाद, जीवन के अन्तिम दौर में की गयी दुर्भाग्यपूर्ण बेल्जियम-यात्रा के सिवा, वे कभी किसी विदेश-यात्रा पर नहीं गये।
पेरिस वापस लौटकर, वयस्क होते ही वे, 1842 में इले-सें लुई के एक फ़्लैट में चले गये और खुद को पेरिस के कला-जगत में पूरी तरह रमा दिया। उस दौरान की, कलाकृतियाँ आदि खरीदने की, उनकी ‘फि़जूलख़र्ची’ देखकर माँ-बाप चैंके कि अपनी मितव्ययिता से जो पूँजी इसके जीवन-यापन के लिए हमने जोड़ी है, उसे जल्दी ही यह फँूक-ताप डालेगा। लिहाज़ा उस पूँजी पर नियन्त्रण के लिए उन्होंने एंसेल नाम का एक वकील नियुक्त कर दिया। वकील साहब यद्यपि अच्छे स्वभाव के थे और बाॅदलेयर के प्रति सहानुभूतिशील भी, लेकिन उनसे भी बाॅदलेयर की कभी नहीं पटी।
उसके बाद बाॅदलेयर आर्थिक रूप से कभी निश्चित नहीं रह पाये। हरदम लेखन-प्रकाशन- वक्तृताओं के जरिये ध्ानार्जन की चिन्ताओं से ग्रस्त रहे और कजऱ् का बोझ उन पर बढ़ता गया। 1866 में वे बेल्जियम की साहित्यिक यात्रा पर गये और वहाँ उन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। पहले दिल का दौरा पड़ा, फिर आंशिक पक्षाघात और अन्त में पूरी तरह शरीर सुन्न। वहाँ से वापस लाकर उन्हें पेरिस के एक यतीमी अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहाँ 1867 के अगस्त महीने में उनका निध्ान हो गया। विडम्बना देखिए कि जब बाॅदलेयर ने अन्तिम साँस ली, पेरिस भयंकर बारिश की गिरफ़्त में था (अगस्त में आमतौर से पेरिस बरसात से सराबोर रहता है), लिहाजा कलाकार मातीस, कवि वर्लेन आदि चार-पाँच लोग ही उनकी अन्त्येष्टि में शामिल हो पाये। उसी ज़माने में कभी ग़ालिब ने कहा होगा- ‘पडि़ए गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार@और गर मर जाइए तो नौहारख्वाँ कोई न हो।’
बाॅदलेयर के जीवनकाल में उनका सिर्फ़ एक कविता संग्रह प्रकाशित हुआ, ‘ले फ़्लुर दुआ’ (दि फ़्लावर्स आॅफ़ इविल- अनिष्ट के पुष्प’ः 1857)। उस पर फ्राँस की अदालत में मुक़दमा चला और छह कविताओं को अश्लील बताकर प्रतिबन्ध्ाित कर दिया गया। (पेरिस और फ्राँस में उन दिनों अश्लीलता के बड़े दिलचस्प पैमाने थे, जिन्हें एक स्वतन्त्र लेख में ही विस्तार से व्याख्यायित किया जा सकता है।) वे कविताएँ फ्राँस में 1943 तक प्रतिबन्ध्ाित रहीं। उन प्रतिबन्ध्ाित कविताओं को बाॅदलेयर ने अपने प्रवासकाल में बेल्जियम से प्रकाशित कराया। उनमें से एक (‘निपट उन्मत्त एक औरत के प्रति’) इस प्रस्तुति में शामिल है।
बाॅदलेयर की कविता में अन्तर्वस्तु के स्तर पर पेरिस के भद्रलोक समाज, संस्कृति, लालसा, उपभोगतावाद और सड़क पर मानवजीवन के अभाव, उपेक्षा और वेदना के तीखे और मार्मिक चित्र भावक की संवेदना को झकझोरते हैं। अपने सच्चे अर्थों में बाॅदलेयर विश्व कविता में आध्ाुनिकता के महान अग्रदूत थे। अमरीका में ह्विटमैन को यदि अपने जीवनकाल में सिर्फ़ एक उल्लेख्य प्रशंसक इअर्सन मिला तो फ्राँस में बाॅदलेयर को भी एक ही उल्लेख्य प्रशंसक विक्तोर ह्यूगो मिला। बाॅदलेयर के निध्ान के बाद भी फ्राँस का भद्रलोक साहित्य-समाज अरसे तक उनके प्रति उदार नहीं हो सका। बाॅदलेयर की कलेक्टेड राइटिंग्स का पहला खण्ड (कविता खण्ड) जब प्रकाशित हुआ और उसकी प्रति उस समय के फ्रेंच साहित्य के एक महाध्ाीश को भेजी गयी तो वह ऐसे बिदका जैसे बिच्छू को देखकर कोई बिदके। उसने उसे कचरापेटी में फेंक दिया। आज उन महाध्ाीश का नाम कोई नहीं जानता और बाॅदलेयर, बकौल टी.एस.इलियट, दुनिया की कविता में आध्ाुनिकता के जन्मदाता हैं।
बाॅदलेयर ने फ्राँसीसी में कला समीक्षा, साहित्य समीक्षा की भी आध्ाारशिला रखी और प्रभूत गद्य लेखन किया। उन्होंने एडगर एलेन पो की कहानियाँ भी फ्राँसीसी में अनूदित कीं। विक्तोर ह्यूगो के बाद, निर्विवाद रूप से, बाॅदलेयर फ्राँसीसी साहित्य के पहले महान व्यक्तित्व हैं।
इस प्रस्तुति में, बाॅदलेयर के निध्ान के बाद पहली बार प्रकाशित उनकी कुछेक गद्य कविताओं के अनुवाद भी दिये गये हैं। यहाँ जो कविताएँ शीर्षक विहीन हैं, वे अपने मूलरूप में भी शीर्षक विहीन हैं।
बाॅदलेयर की इन कविताओं के अनुवाद का प्रकारान्तर से, उत्प्रेरण वरिष्ठ कवि-सुहृद श्री अशोक वाजपेयी से मिला। उनके प्रति हार्दिक आभार।
अनुवादक

दिनान्त

नीरस और ध्ाुँध्ाली रोशनी में वह
दौड़ती है, नाचती है और तड़पती है बेवजह-
जि़न्दगी बेहया और तीखी।
और इस तरह, जैसे ही क्षितिज पर
उभरती है विषयासक्त रात
सब कुछ का शमन करती- भूख का भी
कवि कहता है स्वयं सेः ‘अन्त में !
मेरी आत्मा, मेरी रीढ़ की भाँति, उत्कट भाव से
निवेदन करती है विश्राम के लिए
अन्त्येष्टि के सपनों-भरे हृदय से
मैं लेट जाऊँगा पिठबला
लपेट लूँगा खुद को तुम्हारे पर्दों में,
ओ स्फूर्तिप्रद अन्ध्ाकार !’


ख़ून का चश्मा

कभी कभी मैं अनुभव करता हूँ- मेरा खून लहर-लहर बह रहा
लयबद्ध सिसकियाँ भरता- जैसे कोई चश्मा
साफ़ साफ़ सुन सकता हूँ उसे-
लम्बी छलाँग भरता कलकल ध्वनि
किन्तु व्यर्थ है देह को छूना - ज़ख़्म ढूँढ पाने को।

शहर से गुज़रता हुआ, मानो किसी सटी हुई रंगभूमि में
बढ़ता है फ़र्श के पत्थरों को
छोटी छोटी टिपरियों में तब्दील करता
हरेक जीव की प्यास बुझाता
चराचर को लाल रंगता हुआ

कहता रहा हूँ प्रायः उग्र-उतावली अंगूरी शराबों से
दिन भर को जड़ीभूत कर दें भव-त्रास को
जो मुझे खाये जा रहा
अंगूरी आँखों में और अध्ािक स्पष्टता
कानों में और अध्ािक तीक्ष्णता लाती है

मैंने चाही सब कुछ बिसरा देने वाली नींद, पे्रम में
प्रेम किन्तु फ़कत बिछावन सुइयों का
ताकि पेश कर सके
पीने को कुछ उन निष्ठुर बालाओं को।


अपराह्न गान

तुम्हारी कुटिल भृकुटियाँ
यद्यपि तुम्हें देती हैं अनूठा रूपरंग
जो किसी फ़रिश्ते का नहीं,
मनमोहनी आँखों वाली जादूगरनी !

तुम्हारी आराध्ाना करता हूँ मैं
ओ मेरी चंचल, मेरी बेमिसाल उमंग
अपनी आराध्य प्रतिमा के प्रति
किसी पुजारी की निष्ठा के साथ

बंजर और जंगल देते हैं अपने इत्र
तुम्हारे बंडैल बालों को
तुम्हारे सिर पर बुझौवल और रहस्य के काँटे

तुम्हारी देह के आसपास तैरती है ख़ुश्बू
जैसे किसी ध्ाूपदानी के चारों ओर
सन्ध्या-सरीखी मोहिनी डालती हो तुम
ताती, मायाविनी अप्सरे !

आह ! वशीकरण-अभिमन्त्रित घुट्टियाँ
नहीं कर सकतीं समता तुम्हारी अलस मोहिनी की
और तुम अवगत हो उन प्रेमल स्पर्शों से
मुर्दे को जो जीवन दे देते हैं

तुम्हारे नितम्ब प्रेम-निमग्न हैं
तुम्हारी पीठ और वक्षों के साथ
और तुम उत्तेजित करती हो बिछौनों को
अपनी ऊब-भरी ठवनों से

यदा कदा शान्त करने अपना मायावी आवेश
एक संगीन भंगिमा के साथ
ढँक लेती हो तुम मुझे
दंशनों और चुम्बनों में

टूक टूक करती हो तुम मुझे
ओ निगूढ़ सुन्दरते, एक छलना हँसी से
फिर लिटा देती हो हृदय पर मेरे
चन्द्रमा जैसी सौम्य - कोमल अपनी दृष्टि

मखमल से सज्जित तुम्हारी पादुकाओं और
रेशम से सौम्य तुम्हारे पाँवों तले
बिछा देता हूँ मैं अपना अभेद आनन्द
प्रतिभा अपनी, अपनी नियति

मेरी आत्मा तुम्हारे द्वारा उपचारित
तुम्हारे द्वारा रौशन और रंजित !
और स्फोट आवेग का अनिर्वार
मनहूस साइबेरिया में मेरे !

 

पूर्व-जीवन

लम्बी अवध्ाि तक रहा मैं विस्तीर्ण ड्योढि़यों के नीचे
रंजित करते थे जिन्हें सागरीय सूर्य शताध्ािक रोशनियों से,
विशाल खम्भे जिनके ऊँचे और ठाठदार
सन्ध्या समय उन्हें बॅसाल्ट गुफ़ाओं की सी शक्ल दे देते थे

घुमड़ती गरजती ठठाती लहरें
प्रतिबिम्बित करतीं छवियाँ आसमानों की,
विपुल संगीत के अपने सारे सशक्त तार
एक तरह की भव्य और गूढ़ शैली में
मेरी आँखों में झलकते सूर्यास्त के रंगों से मिला देतीं

वहीं रहा मैं प्रशान्त इच्छाओं के मध्य...
वहीं रहा मैं प्रशान्त इच्छाओं के मध्य घिरा हुआ
नीले आसमानों, लहरों, झलमल रोशनियों और
नग्नप्राय दासों से, ख़ुश्बुओं से तरबतर

ताड़ और नारियल के पत्रों से
जिन्होंने मुझे पंखा झला, और
जिनकी एकमात्र सार-सँभाल थी-
उस उदास गोपन को अनावरित करना
प्रेमविह्वल रखा मुझे जिसने।


निपट उन्मत्त एक औरत के प्रति’

तुम्हारी मेध्ाा, तुम्हारी चेष्टाएँ, तुम्हारी छवि
इतनी सुन्दर जैसे कोई सुन्दर भूदृश्य,
हँसी वैसे ही थिरकती है तुम्हारे चेहरे पर
जैसे निर्मल आकाश में शीतल समीर

छुआ जिसे तुमने गुज़रते हुए पास से
चैंध्ािया गया वह बदमिज़ाज आदमी
तुम्हारी द्युतिमान ध्ाज से-
फूटती हुई तुम्हारी बाँहों से, कन्ध्ाों से

आकर्षक रंग, जिनसे छितराती हो तुम
अपनी साज-सज्जा, रोंपते हैं
कवियों के मानस में - फूलों के
किसी गाथागान का बिम्ब

सनक भरी वे पोशाकें प्रतीक हैं
तुम्हारी विविध्ावर्णी आत्मा के,
उन्मत्ते, उत्तेजित हूँ मैं तुम्हें लेकर
नफ़रत करता हूँ मैं तुम्हें उतनी ही जितना प्रेम।

कभी कभार किसी रंगारंग बाग़ में
घसीटता हुआ अपनी तन्द्रा को साथ
अनुभव किया है, मानो वह सब व्यंग्य हो
सूर्यालय मेरा वक्ष फाड़ता-उध्ोड़ता

और बहार ने, सब्ज़ पत्तियों ने
इतनी अवमानना की मेरे हृदय की
कि मैंने एक फूल को सज़ा दी
प्रकृति की इस निपट ठिठाई की।

लिहाज़ा, मैं चाहूँगा कि किसी रात
चाहत का क्षण जब ठकठकाये

’ यह उन कविताओं में से एक है, जिन्हें कवि की प्रथम (और प्रतिनिध्ाि) काव्यकृति ‘अनिष्ट के पुष्प’ (स्म थ्समनते क्न डंस) के प्रथम प्रकाशन काल में ही फ्राँस की न्यायपालिका ने प्रतिबन्ध्ाित कर दिया था। उनका प्रकाशन एक स्वतन्त्र पुस्तिका के रूप में बेल्जियम में हुआ था। सम्भवतः समूची 19वीं सदी में वे कविताएँ फ्राँस में प्रतिबन्ध्ाित रहीं।

किसी कायर की तरह बेआवाज़ रेंगता
पहुँचूँ मैं तुम्हारे हुस्न के ख़ज़ाने तक

दण्डित करने तुम्हारी रुचिर देह को वहाँ
मुक्कों से थुरने तुम्हारा मूक-विवश वक्ष,
और तुम्हारी चकित-विस्मित कटि में
करने एक ज़ख़्म बड़ा और खोखला

और, ओ अकुलाहट से भर देनेवाली मध्ाुरिमे,
इन अध्ािक सुन्दर अध्ािक चकित-
कर देने वाले नये होंठों से
अपना विष तुममें उँडेलने।


बिल्ली

आ मेरी प्यारी बिल्ली,
यहाँ - मेरे प्रेमातुर हृदय पर!
पंखों से पकड़ कस कर
मुझे अपनी सुन्दर आँखों में मग्न होने दे-
ध्ाातु और गोभेद के उनके मिश्रण से

मेरी अँगुलियाँ जब सहलाती हैं आहिस्ते-आहिस्ते
तेरा सिर, तेरी लचीली पीठ
और मदमस्त होते हैं हाथ मेरे
तेरी विद्युत देह की छुअन से

देखता हूँ अपने मानस चक्षुओं में अपनी सहचरी को,
उसकी दीठि तेरी जैसी, आनन्दमयी ओ!
तेरी ही जैसी गूढ़ और ठण्डी
किसी ब्लेड की तरह काटती-चीरती हुई

और पैरों से सिर तक उसके चतुर हावभाव
एक ख़तरनाक ख़ुश्बू का बहाव
चारों ओर भूरे शरीर के उसके।


रूप-चित्र

रोग और मृत्यु ने राख-राख कर दी
वह सारी आग जो हमारे लिए ध्ाध्ाकी

वे बड़ी-बड़ी आँखें, बहुत उत्सुक-बहुत कोमल
वह मुख जहाँ मेरा हृदय डूबा,
वे चुम्बन, किसी मरहम जैसे असरदार
वे भावावेग, सूर्य किरणों से अध्ािक उत्कट,
क्या भला बचा उनका?

भयानक है यह, ओ मेरी आत्मा!
कुछ भी नहीं, एक चित्रालेख के सिवा;
तीन खडि़या रंगों में, बहुत बहुत फीका-

जो मेरी तरह मरता हुआ निर्जन में
और जिसे, काल-वह वीभत्स बूढ़ा
पोछता है नित्य अपने कठिन-रूक्ष डैने से...

जीवन और कला के ओ दुष्ट छलछाती
मार नहीं पाओगे स्मृति में मेरी कमी, उसे
मेरा विलास थी जो मेरा प्रभामण्डल थी!


शोक का कीमिया

सोत्साह प्रज्ज्वलित करता है तुम्हें एक व्यक्ति
अपर अपना सारा शोक तुममें रख देता है, ओ प्रकृति!
पहले को कहते हैं ‘जीवन और दीप्ति’
अपर को कहते हैं ‘दफ़्न, याने अन्त्येष्टि’

अज्ञात हर्मीस1, तू मेरा सहाय्य रहा
भय से भी मरता रहा मुझे सर्वदा
तू मुझे बनाता है मीदास2 के जैसा
कोई भी कीमियागर दुखी-व्यथित नहीं वैसा

तेरी ही कृपा से बदलता हूँ मैं स्वर्ण को अयस् में
बदलता हूँ तेरी ही कृपा से, स्वर्ग को नरक में

बादलों के कफ़न में खोज निकालता हूँ एक परमप्रिय शव
आकाशीय पुलिनों पर बनाता हूँ एक विशाल शवाध्ाान


दुर्भाग्य

इतना भारी बोझा उठाने के लिए
किसी व्यक्ति को, सिसिफस,’ तुम्हारे जैसा साहस चाहिए
हम यद्यपि करते हैं काम अच्छे हृदय से,
कला दीर्घरूपा है, समय भागता हुआ तीव्र गति से
1ण् यूनानी देवता हर्मीस त्रिस्मीगिस्तुस, जिसे कीमिया का आविष्कारक माना जाता है। अपने मूलरूप में यह मिस्र का देवता ‘थोथ’ है, जिसका रूपान्तरण यूनानियों ने अपने वहाँ हर्मीस के रूप में किया।
2ण् यूनानी पौराणिकी के अनुसार, फ्रीगिया का राजा, जिसे यूनानी देवता ‘बाखुक्ष’ से वरदान मिला था कि वह जिस को छुएगा वह सोने में बदल जाएगी।
’ यूनानी पौराणिकी का एक चरित्र, जो निरर्थक जीवन जीने के लिए अभिशप्त था। उसे मृत्युलोक (नरक) में एक विशाल पाषाणपिण्ड को ढोकर पहाड़ की चोटी पर ले जाना और फिर नीचे लुढ़का देना होता था। यह क्रम अनवरत जारी रखने का उसे दण्ड मिला हुआ था।

प्रसिद्ध लोगों की समाध्ाियों से दूर
एक एकाकी समाध्ाि क्षेत्र की ओर
हृदय मेरा, किसी बेआवाज़ ढोल जैसा
जाता हुआ - अन्त्येष्टि राग की ताल देता

अनेक रत्न पड़े हें सोये
अँध्ोरी विस्मरणशीलता में खोये
दूर- गैंतियों से, साहुल सूत्रों से दूर

अनेक पुष्प अनिच्छापूर्वक
खोते हुए अपनी महक
किसी रहस्य जैसी मध्ाुर -
गहरे एकान्तों में।


एक इकारस’ का रुदनगान

प्रभुदित और प्रसन्न वदन हैं
गणिकाओं के प्रेमी;
पर मेघालिंगन से हैं
मेरी बाँहें क्षत-विक्षत

आभारी हूँ नभ की नील गहनताओं में दीप्ति
अतुलनीय नक्षत्रों का मैं-
देख पा रहे सूर्यों की स्मृतियाँ भर ही
मेरे नेत्र निमज्जित
’ दुःसाहस का प्रतीक इकारस, यूनानी द्वीप-राज्य क्रीत के सम्राट मिनोस के राज्य शिल्पी दाइदलस का पुत्र था। दाइदलस ने दुनिया की प्रथम मूल भुलइया ‘लेबिरिंथोस’ बनायी थी। किन्तु किसी कारण असन्तुष्ट होकर मिनोस ने पिता-पुत्र दोनों को जीवनभर को कैदखाने में डाल दिया। दाइदलस ने कारागार से निकल भागने के लिए मोम के पंख बनाये। उसने इकारस को सतर्क भी किया कि इन पंखों के सहारे वह अध्ािक ऊँचाई तक न जाये, किन्तु इकारस उड़ता हुआ सौरमण्डल तक चला गया और जलकर राख हो गया।

व्यर्थ चाहना की थी मैंने
अन्तरिक्ष के केन्द्र छोर के अन्वेषण की;
किस आग्नेय दृष्टि से, मेरे
पंख टूटते-से लगते हैं- नहीं जानता

ज्वाला में सौन्दर्य-राग की जलकर भस्म हुआ है
अपने को उस नरककुण्ड में देने का गौरव-पद
पा न सकूँगा- जो मेरी समाध्ाि कहकर
जाना जाएगा।


सहृदय घृणा

उस भयानक क्रुद्ध आसमान से,
तुम्हारी नियति जैसे प्रताडि़त
कौन से विचार अवतरित होते हैं
तुम्हारी छूँछी आत्मा में?
उत्तर दो, अविश्वासी!

अत्यन्त लोभ से खींच ले जाया गया
गूढ़ और अनिश्चय की ओर मैं,
लैटिन-स्वर्ग से निर्वासित ओविद’ की भाँति
बिसूरूँगा नहीं मैं।

सागर तटों की भाँति विदीर्ण आसमानों
तुममें मेरा गर्व स्वयं का अवलोकन करता है
’ वर्जिल के बाद रोम का महानतम कवि ओविद (ज. 43 ई.पू.) रोम के भद्रलोक में पला-बढ़ा था और अपनी श्रांगारिक कविताओं के लिए अत्यन्त लोकप्रिय था। किन्तु किसी अज्ञान-अस्पष्ट कारण से रूष्ट होकर सम्राट आॅगुस्तुस सीज़र ने, 50 वर्ष की उम्र में उसे एक वीरान द्वीप में निर्वासित कर दिया। वहाँ उसने ‘मेटामार्फोसिस’ और ‘कास्ती’ नाम के दो अमर काव्यों की रचना की। वहीं 60 वर्ष की उम्र में परिवार, देश-समाज से दूर उसकी मृत्यु हुई।

तुम्हारे विस्तीर्ण शोक-विषण्ण बादल
मेरे स्वप्नों के शववाहन हैं
और तुम्हारी प्रकाशकिरणें नरक का प्रतिबिम्ब हैं
जहाँ मेरा हृदय घर जैसा अनुभव करता है।


हंस1

पेरिस बदल रहा है! किन्तु कोई हलचल नहीं मेरी उदासी में!
नये प्रासाद, मंच-मचान, ब्लाॅक, पुराने आबाद इलाके-
सब कुछ मेरे लिए एक प्रतीक कथा
और मेरी प्रिय यादें शिलाखण्डों से भारी।

लिहाज़ा, यहाँ उसी लूव्र2 के सम्मुख
तंग करता है मुझे एक बिम्ब ः
मुझे अपने महान हंस का ख्याल आता है
उसकी विक्षिप्त चेष्टाएँ; किसी निर्वासित जैसा
हास्यास्पद और भव्य, व्यथित एक अविरल आकांक्षा से;

और फिर तुम्हारा, अन्द्रोयाके3
छूट गिरी एक बलिष्ठ पति की बांहों से,
अब एक बदनसीब गायगोरूः वंचक पीरस की गेरइयाँ में बँध्ाी,
मूच्र्छित-झुकी हुई एक खाली क़ब्र की बग़ल में,
हेक्टर की विध्ावा, आह्! ... और ब्याहता हेलेनस की।

1. ‘ताब्ला पारीसियाँ’ काव्य श्ाृंखला में इसी शीर्षकवाली कविता का दूसरा अंश
2. पेरिस का विश्वविख्यात कला संग्रहालय
3. त्रोय युद्ध में त्रोय पक्ष के महान योद्धा हेक्टर की पत्नी।
युद्ध में हेक्टर के बध्ा के उपरान्त वह अकिलीस के पुत्र पीरस के हिस्से आयी, उससे एक पुत्र की माँ बनी। एक अन्य वृत्तान्त के अनुसार, पीरस के निध्ान के बाद वह हेलेनस के साथ ब्याही गयी थी।

ख्याल आता है उस नीग्रो औरत का
छीजी और क्षयग्रस्त, खूँदती हुई कीचड़
और फटी-फटी आँखों खोजती हुई
गुम होते नारियल के दरख़्त गर्वित अफ्रीका के
कोहरे की विशाल दीवार के पीछे;

उस किसी का, जो खो चुका वह जिसे
वापस नहीं लाया जा सकता दोबारा कभी भी,
और उनका, जिन्हें पीने को हैं फ़क़्त आँसू
उनका जो किसी समय मादा भेडि़ये की तरह
व्यथा और उदासी मुँह में ले लेते हैं;
दुबले यतीमों का, जो फूलों की तरह मुर्झा रहे।

और उस बयाबाँ में जहाँ मेरी आत्मा भटभटाती है खोई हुई
एक पुरानी याद अपना बिगुल बजाती है पूरी आवाज़ में!
मैं जहाजि़यों की बाबत सोचता हूँ, किसी द्वीप में खोये,
क़ैदियों की बाबत, जहाजियों की बाबत...
और दूसरे बहुतों के बाबत भी...


साम्यताएँ ’

प्रकृति एक मन्दिर है, जिसके जीवित खम्भे
भरमे शब्दों को उगने का यदा-कदा अवसर देते हैं
मानव उसे पार करता है संकेतारण्यों से होकर
जो अपनी भीतर की आँखों से उस पर चैकस रहते हैं

जैसे कहीं दूर से आकर किसी निगूढ़ गहन संगति में;
जिसका विस्तार रात्रि-सा, स्पष्टता-सा;
’ अंग्रेज़ी अनुवाद में शीर्षक ‘कॅरेस्पांडेंसेज़’; इसे फ्राँसीसी प्रतीकवादी कविता का प्रस्थान बिन्दु माना जाता है।

गहरी अनुगूँजें मिलती हैं,
उसी भाँति अनुकूलित रहते गन्ध्ाराग, स्वर, वर्ण परस्पर।
ऐसे भी हैं गन्ध्ाराग, जो निर्मल हैं शिशु-देह सरीखे
शहनाई से मृदुल, हरित शाद्वल प्रान्तर से,
और दूसरे विकृत-प्रदूषित, विजयोन्मत्त, समृद्धि से लसे,
अम्बर, मृगमद, अगरू और लोबान-सरीखी
गणनातीत वस्तुओं के विसरण के स्वामी
आत्मिक-सांज्ञिक समाध्ाियों की महिमा गाते।


प्रेम और कपाल
(एक पुराना उत्कीर्णन)

मन्मथ’ बैठा है
मानवता के कपाल पर,
और इस सिंहासन पर आसीन पालकी
अपने विवेकहीन हास्य के साथ
मुदित मन
चारों ओर फूँक रहा बुलबुले,
उड़ते हैं हवा में जो इस तरह
मानो ईश्वर के सुदूर सिरे के लोकों में
पहुँच कर ही फूटेंगे

चमकदार-सुकुमार भूमण्डल
पूरी ताक़त से उड़ान भरता है,
फटता है, उगल देता है अपनी आत्मा
किसी सुनहरे सपने जैसी नाजुक
’ युनानी पौराणिकी के ‘क्यूपिड’ के लिए। वह अफ्रोदिती (वीनस) का बेटा था और प्रायः उसको चित्रण शिशु रूप में माँ की गोद में हुआ है। उस उम्र में भी इतना शरीर कि एक बार अपना बाण माँ के ही वक्ष में चुभो दिया। बख्शा उसने स्वयं को भी नहीं, और इस तरह ‘साहके’ के साथ उसका नाम जुड़ा।

सुनायी देती है मुझे, हरेक बुलबुले पर,
कपाल की गिड़गिड़ाहट
और पीड़ायुक्त क्रन्दन ः
‘कब विराम लेगा यह बर्बर-बेहूदा अहेर ?’...

‘हत्यारे पिशाच, तेरी यह क्रूर छवि
छितरा रही जो यहाँ-वहाँ-
मेरी मेध्ाा है, मेरा रूध्ािर है
और मेरी देह है।’


अजनबी

‘तुम सबसे बढ़कर किसे प्यार करते हो, अबूझ आदमी,
पिता को, कि माँ को, कि भाई या बहन को ?’
‘मेरा कोई पिता नहीं, कोई माँ नहीं, बहन या भाई नहीं।’
‘दोस्त ?’
‘अब तुम एक ऐसा लफ़्ज बरत रहे हो, जिसका मतलब
आज दिन तक मुझे पता नहीं।’
‘तुम्हारा मुल्क ?’
‘नहीं जानता वो किस अक्षांश में है।’
‘हुस्न ?’
‘मैं बेशक उसे प्यार करता, बशर्ते वह कोई देवी होता और मृत्यु से परे होता।’
‘सोना ?’
‘उससे मुझे वैसी ही नफ़रत है, जैसी तुम्हें ईश्वर से।’
‘तब किसे प्यार करते हो तुम, अबूझ अजनबी ?’
‘मैं बादलों को प्यार करता हूँ... गुज़रते हुए बादलों को-
व्वो!... वहाँ!... उन हैरतअंगेज़ बादलों को।’

 


कुत्ता और इत्र की शीशी

‘अच्छे कुत्ते, सुन्दर कुत्ते, प्यारे पप्पी,
आओ, ज़रा, सूँघो तो ख़ुश्बू इस अतर की!
बेहतरीन अतर ये मैं लाया जहाँ से
वो है सबसे अच्छी दूकान शहर की।’

आता है कुत्ता, हिलाता हुआ पूँछ
जो मेरे ख़्याल में, इन नामुराद प्राणियों में
हँसी और मुस्कुराहट मुहैया करानेवाली एक ही निशानी है।
आता है कुत्ता और अपना गीला नथुना
शीशी के खुले मुँह के पास ले जाता है
और ख़ौफ़ से भरकर - बिदक कर
भौंकता है मुझ पर
उलाहना-सा देता हुआ।

‘बदकि़स्मत कुत्ते, अगर मैंने तेरे आगे
विष्ठा का एक ढेर पेश किया होता
तो तूने उसे मगन-मन सूँघा होता, और शायद...
खाया भी होता...
‘लिहाज़ा, ओ मेरी अभागी जि़न्दगी के नालायक़ सँगाती,
तू भी बमपुलिस जैसा ही निकला
जिसे कभी कोई नहीं पेश करता लज़ीज़ ख़ुश्बुएँ,
पेश करता है चुनिन्दा बदबुएँ।’

 


नस्लदार

वो भोंडी है, हालाँकि मजे़दार।

वक़्त ने और इश्क ने अपने पंजों से उसे नघोचा है और बेरहमी के साथ सिखाया है कि जवानी और ताज़गी के दौरान हरेक पल और हरेक चुम्बन की क़ीमत क्या होती है।
सचमुच भोंडी है वो, एक चींटी, एक मकड़ी, मजऱ्ी हो तो कंकाल भी कह लो, मगर वो ख़ुराके-इश्क़ भी है, लफ़्जे- महारत, एक जादू। कुल मिलाकर जज़्बे से भरपूर।
वक़्त ने उसकी हरकतों के तालमेल को- जि़न्दादिल तालमेल को-तोड़ा नहीं है, न ही उसकी हड्डियों की बनावट की नाक़ाबिले-बयान नज़ाकत को। इश्क़ ने बच्चे की किलकारी-जैसी उसकी मिठास को दूषित नहीं किया है, और वक़्त हल्का और बारीक़ नहीं कर पाया है उसके अयाल के देशों को, जिनसे वो जिस्मानी ख़ुश्बुओं में ध्ाूप से नहाये, प्रेमल और आनन्ददायी, दक्षिणी फ्रांस के, शहरों की सारी हैवानी मर्दानगी टपकाती है।
वक़्त और इश्क़ ने बेकार ही ध्ाँसाये उसमें अपने दाँत, वे उसके ध्ाूँध्ाले किन्तु शाश्वत बाल्यवक्ष की मोहिनी को कम करने के सिवा उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।
छीजी हुई शायद, मगर ऊबी और थकी नहीं। अब भी जोश से भरपूर। किसी को भी उन नस्लदार घोड़ों की बाबत सोचने को मजबूर कर दे, जो छकड़ा गाड़ी या ख़स्ताहाल इक्के में नध्ो होते हुए भी पारखी की नज़र से बच नहीं पाते।
याने कि बेहद शाइस्ता और जिस्मानी तलब से भरपूर! वो इस तरह इश्क़ करती है, जैसे कोई शरदऋतु में करता है। आप सोचेंगे शीतकाल की आहट उसके दिल में एक नयी आग दहका रही है और उसकी नज़ाकत की जी-बरदारी क़तई और रत्ती-भर थकी हुई नहीं।


भीड़

भीड़ से सराबोर होने का उपहार सभी के हिस्से नहीं आता। भीड़ का आनन्दोपभोग करना एक कला है, और सिर्फ़ वहीं व्यक्ति मानव प्रजाति का उपयोग, जोशे-जवानी के साथ, थिरकने-रँगरलियाँ मनाने में कर सकता है किसी परी ने जिसके कान में मन्त्र फूँका हो, जब वह पालने में थाः छद्मवेशों और मुखौटों में रुचि, घर से सख़्त नफ़रत, और आवारगी का नशा।
भीड़ भड़क्का, एकान्तः एक जैसे, परस्पर अदला बदली करते शब्द सक्रिय और उर्वर कवि के लिए। वह व्यक्ति, जो अपने एकान्त को आबद्ध नहीं कर सकता, किसी हंगामा-ख़ेज़ भीड़ में न एकाकी हो पायेगा, न इसमें सक्षम ही होगा।
कवि इच्छानुसार अपने आप में रहने और कोई अन्य होने के अतुलनीय विशेषाध्ािकार का आनन्द लेता है। एक शरीर की तलाश करती हुई भटकती आत्माओं की भाँति, इच्छानुसार किसी के भी या हर किसी के व्यक्तित्व में प्रविष्ट हो सकता है। सिर्फ़ उसी के लिए सब कुछ उद्घाटित है। यदि कुछ जगहें उसे अगम्य प्रतीत होती हैं; इसलिए कि उसकी दृष्टि में, वे दर्शनीय नहीं।
निस्संग, सहृदय पादचारी इस सर्वव्यापी अन्तरंगता से एक विलक्षण उत्तेजन प्राप्त करता है। वह, जो सहज भाव से स्वयं को भीड़ के अनुकूल बना सकता है, विह्वल कर देने वाले सुखों से अवगत है, और अहंमन्य व्यक्ति, किसी सन्दूक की भाँति बन्द रहता है, और मोलस्क की भाँति भीतर से भीतर करवटें बदलता रहनेवाला कातिल आदमी उनसे सदा वंचित रहेगा।... वह अपने स्वयं के हित सादी वृत्तियाँ, सारी ख़ुशियाँ और सारी कमबख़्ती, जो परिस्थितियाँ उसके सामने पेश करती हैं, अंगीकार करता है।
लोग जिसे प्रेम कहकर पुकारते हैं; बड़ी छोटी चीज़ है, बहुत ही सीमित, बहुत ही क्षीण और मन्द - इस अनिर्वचनीय व्यभिचार, आत्मा की इस अनिर्वचनीय वेश्यावृत्ति की तुलना में, जो स्वयमेव वार देती है पूरी तरहः कविता, प्रेम, अप्रत्याशित रूप से, गुज़र रहे अजनबी पर।
दुनिया के सौभाग्यशाली लोगों को, यदा-कदा, यह दिखाना अच्छा है ( भले महज़ पल-भर को, उनके जड़ अहंकार का पानी उतारने के लिए) कि खुशियाँ हैं, उनकी खुशियों से श्रेष्ठतर, विपुल और विलक्षण। ध्ारती के छोरों पर निर्वासित- उपनिवेश कायम करने वाले लोगों को हाँकने वाले मिशनरी-पुरोहित निस्संदेह इनमें से कुछ निगूढ़ उत्तेजनाओं से अवगत हैं, और विपुल कुल (जो उनकी प्रतिभा ने स्वयं के लिए सृजा है) के अंक में अवस्थित हैं, कभी-कभार हँसते होंगे उन पर जो उनके अशान्त भाग्य और इतनी शुद्धता वाले उनके जीवन पर तरस खाते हैं।


कलाकार का पाप-स्वीकार

शरद के दिनों का समापन। कितने बेध्ाक हैं ये! ओह्, वेदना के बिन्दु तक खुले हुए! चूँकि वहाँ कुछ रुचिर अनुभूतियाँ हैं, जिनकी अस्पष्टता तीव्रता को बाध्ाित नहीं करती- और असीम से बढ़कर कोई तीक्ष्ण बिन्दु नहीं।
कितना आह्लादक है आकाश और सागर की विशालता में अपलक दृष्टि को विसर्जित कर देना! एकान्त, निस्तब्ध्ाता, अतुलनीय निर्मलता उस नीले की! एक नन्हा पाल थरथराता हुआ क्षितिज पर, उसकी लघुता में, और उसके एकाकीपन में मेरे असाध्य अस्तित्व की एक छवि, तरंगों की विरसलय - सोचती हुई ये सादी चीजे़ं मुझमें से गुज़र कर, या मैं सोचता हुआ उनमें से गुज़र कर (क्योंकि स्वप्नों के फैलाव में ‘स्व’ अविलम्ब खो गया); वे सोचती हुई मैं दुहराता हुआ, किन्तु सुरीले अन्दाज़ में, और एक तरह की चित्रकारिक शैली में- निपुण संकेतों के बिना, हेत्वानुमानों के बिना, निष्कर्षों के बिना।
एक ही बात; ये विचार मुझमें से आयें, या वस्तुओं में से उभरें, शीघ्र ही उत्कट हो जाते हैं। प्रबल वासना सिरजती है एक रुग्ण अनुभूति, और रचनात्मक वेदना। मेरी रगें, बेहद तनी हुई, उत्पन्न करती हैं अब मात्र कर्णभेदी और सृजनात्मक कम्पन।
और अब आसमान की गहनता मुझे भय से भरती है, उसकी सुस्पष्टता मुझमें गुस्सा जगाती है। संवेदनहीन सागर, अपरिवर्तित दृश्यलोक मुझमें विद्रोह जगाते हैं...।
ओह्, क्या निरन्तर खटना होगा, या निरन्तर पलायन करता रहेगा रमणीय? प्रकृति, निर्दय छलने, सदाविजयी प्रतिद्वन्द्वी, अकेला छोड़ दे मुझे! बन्द कर दे मेरी इच्छाओं को, मेरे गर्व को लुभाना। सुन्दर का अध्ययन एक अनुयुद्ध है, जिसमें कलाकार पराजय से पहले याचना करता है।


बाग़ी

गुस्से से आगबबूला एक फ़रिश्ता
यक् ब यक् प्रकट होता है किसी उक़ाब जैसा,
झपट कर पकड़ता है बाल नास्तिक के
मुट्ठी में कसकर, और झकझोरता हुआ
कहता है, ‘जानना होगा तुम्हें नियम-कानून!
(मैं तुम्हारी भलाई सोचनेवाला फ़रिश्ता हूँ, कान खोलकर सुन लो!)

‘गाँठ बाँध्ा लो, कि तुम्हें ग़रीबों, पापियों, अपंगों और
मन्दमति लोगों के साथ, बिना किसी हीले-हवाले के,
प्यार से- मोहब्बत से पेश आना है,
ताकि प्रभु यीशु जब प्रकट हों
अपने परोपकार, दयाभाव और प्रेम का प्रतीक गलीचा उनके स्वागत में तुम बिछा सको!
यही है प्रेम और मोहब्बत! तुम्हारा हृदय पूरी तरह
पत्थर हो जाए; इससे पहले ही प्रभु की महिमा में
लौ लगाओ! वही सच्चा सुख है, जिसकी खुशियाँ टिकाऊ हैं।’

और फ़रिश्ता, स्वाभाविक ही, अपने सबसे प्रियपात्र को
ताड़ना देता हुआ, पापी को बज्र- जैसे मुक्कों से यातना देता है, किन्तु-
गुस्ताख़ बाग़ी का हरदम एक ही जवाबः ‘नहीं, मैं नहीं।’


ऽऽ
मेरी सहचरी ‘सोसाइटी स्टार’ नहीं,
वह आवारागर्द, वह अगर टिमटिमाती-झिलमिलाती है
तो मेरी आत्मा से प्रतिबिम्बित रोशनी की वजह से।
नक़ली और बनावटी दुनिया की आँखों में अदृश्य उसकी सुन्दरता
सिर्फ़ मेरे उदास दिल में पुष्पित होती है।

जूते ख़रीदने के लिए उसने अपनी आत्मा बेच दी;
ऊपर वाला हँसेगा, अगर मैं इस बदनाम चीज़ के साथ
होते हुए भी पाखण्ड करूँ और ऊँचे उसूलों का ढोंग भरूँ
जबकि मैं अपनी बुद्धि को बेचता हूँ और लेखक बनना चाहता हूँ।

सबसे बुरी बात यह है कि वह विग पहनती है,
उसकी बदरंग घाँटी पर से सारे खूबसूरत काले बाल उड़ चुके हैं
मगर उसके माथे पर- किसी कोढ़ी के माथे से भी ज़्यादा भोंडे
और बदशक्ल उसके माथे पर प्यार-भरे चुम्बनों की बारिश थमी नहीं।

वो भेंगी है, और किसी फ़रिश्ते की बरौनियों से भी बड़ी काली बरौनियों से
घिरी, उसकी विलक्षण दृष्टि का प्रभाव ऐसा हे, ख़ासकर मेरे
लिए, कि वे सारी आँखें, जिनके लिए लोग खुद को कोसते रहते
हैं, उसकी काले दायरों से घिरी, यहूदियों-जैसी आँखों की बराबरी नहीं कर सकतीं।

वो महज़ बीस की है, पहले से ही गिरी हुई उसकी छातियाँ
दोनों ओर तूँबी जैसी लटकती,
तब भी, हर रात खुद को उसके जिस्म पर घसीटता-रगड़ता,
किसी दुध्ामुुहें बच्चे की तरह उन्हें चिचोड़ता और काटता हूँ।

और हालाँकि अक्सर ताँबे का एक सिक्का तक नहीं होता उसके पास
कि वो जिस्म की मालिश करा सके, कन्ध्ो चमकमा सके,
मैं ख़ामोशी के साथ सहलाता हूँ उसे आहिस्ते-आहिस्ते
मैग्दालन’ के जलते पाँवों से बढ़कर उत्ताप के साथ।

कि़स्मत की मारी बेचारी! खुशी और संतोष से ऊबचूब,
फूहड़ हिचकियों से फूले-सिकुड़े उसका सीना,
तो उसकी उखड़ी साँस की खड़खड़ाहट से मैं बता सकता हूँ
कि इसने यतीमों के किसी अस्तपाल की रोटियाँ तोड़ी हैं अक्सर।

उसकी फटी-फटी परेशान हाल आँखें बेरहम रातों के दौरान,
महसूस करती हैं कि बिस्तर के बग़ल की ख़ाली जगह में
दो आँखें और नज़र आ रहीं,
हर आने वाले के लिए बार-बार अपना दिल खोलते रहने से
डरी हुई रहती है अँध्ोरे में, सोचती रहती है भूतों के बारे में।

अगर कहीं दिख जाये, ऊटपटाँग-बेढंगे कपड़ों में
गिरती-पड़ती हुई किसी वीरान-उजाड़ गली के मोड़ पर

’ बाइबिल (न्यू टेस्टामेंट) में एक प्रसंग के अनुसार इस पतिता का उद्गार ईसामसीह ने किया था।

किसी ज़ख़्मी कबूतर की तरह सिर-आँखें डाले, और
नंगे पाँवों गन्दी नालियों में से घिसटते;

गालियाँ और लानतें मत थूकने लगियेगा जनाबेआली
उस बेचारी के रँगे पुते चेहरे पर, भूखकुमारी ने जिसे
जाड़े की एक शाम खुले आम
अपना घाँघरा उठा देने को मजबूर कर दिया था।

वह जिप्सी औरत सब कुछ है मेरी
मेरी दौलत, मेरी माणिक-मोती, मेरी रानी, मेरी बेग़म।
वही है जिसने मुझे अपने कुल फ़त्हयाल आगोश में भरकर
बसैयाँ लीं, और अपनी बाँहों की दरमियानी गर्मजोशी से मेरे दिल की परवरिश की।


उपसंहार

(1)
दिल से सन्तुष्ट, मैं एक ऊँची इमारत के अन्दर गया, जहाँ
से कोई शहर के समूचे फैलाव का नज़ारा कर सकता है-
यतीमों के अस्पताल, चकले, वैतरणी, नरक, कै़दखाने वगै़रह-वगै़रह।

जहाँ हरेक जुल्म अत्याचार एक फूल की तरह पुरबहार होता है,
तुझे पता है, ओ शैतान, मेरी सारी मुसीबतों के हिमायती,
कि मैं वहाँ यूँ ही टसुवे बहाने नहीं गया था,
बल्कि किसी बूढ़ी रखैल से लसे किसी बूढ़े लम्पट की तरह
जिस्मखोरी के तल तक पैठ कर लुत्फ़ लेना चाहता था, जिसकी
नारकीय माया मुझे फिर जवान कर देने में कतई चूक नहीं करती।

चाहे तुम अभी सोई हुई हो भोर की भारी-गहरी परतों में
लिपटी, तुम्हारी साँस रुँध्ाी हुई हो, या सोने के बारीक तारों
के बेलबूटों वाली साँझी ओढ़नी ओढ़े थिरक रही हो,

मैं तुझे प्यार करता हूँ बदनाम राजध्ाानी! तवायफ़ो, डाकुओ,
इस तरह तुम भी अक्सर खुशियाँ पेश करते हो, जो आम
और गँवार लोग नहीं समझ सकते।

(2)
फ़रिश्तो, सोने और जवाहरात से लदेफदे, ओ तुम!
गवाह बनो, कि मैंने अपना फ़र्क एक निपुण अत्तार
और एक पवित्र आत्मा की भाँति निभाया
हरेक चीज़ में से उसका सारतत्व निकाला,
तुमने (ओ पेरिस) मुझे अपना कीचड़ दिया और मैंने उसे सोना बनाया।

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