20-Jun-2021 12:00 AM
1982
क़रीब अस्सी वर्ष पहले की बात है एक चार बरस की बच्ची अपने विद्वान पिता के साथ रेलगाड़ी में सफ़र कर रही थी। उन दिनों रेलगाडि़यों में बोलियों के कई कवि अपनी कविताएँ प्रकाशित कर खुद बेचा करते थे। कई बार बोलियों की ये पुस्तकें कुछ दूसरे लोग भी बेचते थे। यह ठीक से पता नहीं है कि उस चार साल की बच्ची ने बैंसवाड़ी में लिखी कवि चन्द्रभूषण की कविता पुस्तक पिता से कहकर स्वयं कवि से ख़रीदी थी या किसी अन्य से। यह पुस्तक उसके पास रखी रही आयी। उन दिनों ये कविताएँ बैंसवाड़ी बोलने वाले इलाक़ों में सम्भवतः काफ़ी प्रचलित थी। उस बच्ची को भी ये कविताएँ याद हो गयी और अब अस्सी साल बीत जाने के बाद भी उसे ये कविताएँ कण्ठस्थ हैं। यह बच्ची कामायनी अपने पिता सागर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के पहले अध्यक्ष आनन्द मोहन वाजपेयी की बेटी हैं। ‘समास’ का सौभाग्य है कि उन्होंने वर्षों से संजो कर रखी कवि चन्द्रभूषण की कृति ‘बौछार की कविताएँ’ की एक कविता और उसकी खड़ी बोली में टीका हमें उपलब्ध्ा करायी है।
बात ना हमते जाति कहो।।
जब पचपन के घरघाट भयेन,
तब देखुआ आये बड़े-बड़े।
हम सादी ते इनकार कीन,
सबका लउटारा खड़े-खड़े।।
संपति सरगौ माँ राह करै,
कुछु देखुबा घूमि-घूमि आये।
अपनी लड़किन के ब्याहे का,
दस पाँच जने हैं मुहुँ बाये।।
पर सबते ज्यादा लल्लबाइ,
मे शिवसहाँय अचरजपुर के।
उइ साथ सिपारिसि लइ आये,
दुइ-चारि जने सीपतपुर के।।
सुखदीन दुबे चिथरू चउबे,
तिरबेदी आये ध्ाुन्नर जी।
कुंजी पण्डित निरघिन पाँड़े,
बड़कये अवस्थी खुन्नर जी।।
संकर उपरहितौ बोलि परे,
तुम्हरे तौ तनिकौ ज्ञान नहिन।
यह संपति को बैपरी भला,
तुम्हरे याकौ सन्तान नहिन।।
स्वाछन का जर ते छोलि छोलि,
देहीं के रवावाँ झारि दीन।
भउँहन की क्वारै साफ भई,
मूडे़ मा पालिस कारि कीन।।
देहीं माँ उपटनु लगवावा,
फिरि कीन पलस्तर साबुन का।
अब चमक दमक माँ मातु कीन,
हम छैल चिकनियाँ बाबुन का।।
दीदन माँ काजरु वँगबाबा,
माथे माँ टिकुवा कार कार।
देही माँ जामा डाटि लीन,
मूड़े माँ पगिया कै बहार।।
फिरि गरे म कण्ठा हिलगावा,
जंजीर लटकि आई छाती।
मानौ अरहरि की टटिया माँ,
लटका है ताला गुजराती।।
सब कीन्हों रसम सही।
बात ना हमते जात कही।।
जब सँझलउखे पहुँची बरात,
कुछु जन आये हमरे नेरे।
तब अकिल न ठीक रही।
बात ना हमते जात कही।।
बइसाखी मुसकी छाँडि़-छाँडि़,
बतलाय लागि अस बहुतेरे।।
दुलहा की दुलहा का बाबा,
जेहिं मूड़े मौरु ध्ारावा है।
यहु करै बियाहु हियाँ कइसे,
मरघट का पाहुनु आबा है।।
ओंठे पर याकौ म्वाछ नहिंन,
यहिं सफाचट्टु करवावा है।
बसि जाना दुसरी दुलहिन कै,
यहु तेरहीं कइकै आवा है।।
पीनस चढि़ अइसे सोहि रहे,
मानो मिलिगा कैदी हेरान।
कैध्ाों बिरवा के थलकुर ते,
यहु झाँकत है खूसटु पुरान।।
बसि यही तना अपमान भरी,
कानन माँ परीं बहुत बोली।
जो हमरे जी माँ च्वाट किहिन;
जइसे बन्दूकन की गोली।।
अब जियरा मा जिरजिरी बढ़ी,
वहि संकर पण्डित के ऊपर।
जो बहु बिध्ाि ते समुझाय बुझै,
लइ आवा अइसि बिपति हम पर।।
की जइसि न जात सही।
बात ना हमते जात कही।।
जब पहरु छा घरी राति बीति,
तब भँवरिन कै बारी आई।
सब कामु रतउँध्ािन नासि दीन,
दीदन आगे ध्ाुँध्ाुरी छाई।।
पण्डितवैं बात बनाय कहा,
हमरी कइती तदतूरु यहै।
भँवरिन माँ बर के साथ साथ,
नेगी दुइ एकु जरूर रहै।।
उपरहितैं अँगदर कामु कीन,
वहिं दुइ नेगिन का ठढि़यावा।
जिन हमका पकरि डखउरा ते,
फिरि सातौ भँवरी घुमवावा।।
सतई भँवरी माँ पावँ म्वार,
परिगा बेदी के गड़वा माँ।
जरि गयेन जोर ते उचकि परेन,
अध्ापवा अइस भा तरवा माँ।।
हम बका झिका कहि दीन अरे,
ई नेगी हैं बिन आँखिन के।
बसि यतना कहतै हमरे मुहुँ-
कुछु घुसिगे पखना पाँखिन के।।
हम हरबराय कै थूकि दीन,
उइ अखना पखना रहैं जौन।
सब गिरिगे नेगिन के ऊपर,
ई करें उतउँध्ाी चहै जौन।।
नेगी बोले यह बात कइसि,
तुम हमरे ऊपर थूकि दिहेव।
हम कहा कि बदला लीन अबै,
तरवा हमार तुम फूँकि दिहेव।।
ई बिध्ाि ते लाज रही।
बात ना हमते जात कही।
जब परा कल्यावा सँभलउखे,
तब फिरि विपदा भारी आई।
छत्तीसा लइगा चउकै मुलु,
पायँन ते पाटा छिछुवाई।।
भगवान कीन पाटा मिलिगा,
मुलु खम्भा माँ भा मुडु, भट्ट।
बटिया सोहराय अड़उखे माँ,
पाटा माँ बइठेन भट्ट पट्ट।।
पर मुँहु देवाल तन कइ बइठेन,
बिन दीदन सोना माटी है।
तब परसनहारी बोलि परी,
बच्चा पाछे तन टाठी है।।
हम कहाकि हमरेव आँखी हैं।
चहुँ अलँग निगाहै फेरि रहेन।
है बड़ी सफेदि पोताई यह,
सो हम देवाल तन हेरि रहेन।।
बसि ई बिध्ाि कइकै बतबनाव,
टाठी कोध्ाी समुहाय गयेन।
बिन दाँतन चाबी कौरु ककस,
सब पानी घूँटि नँघाय रहेन।।
जब दूध्ाु बिलारीं अध्ाियावा,
तब परसन हारी हाँकि कहिसि।
मरि गइली नठिया गाड़ी यह,
ऊपर कै साढ़ी चाँटि लिहिसि।।
हम कहा बकौना, जानि बूझि,
ना हम यहिका दुरियावा है।
घरहू माँ सदा बिलारिन का,
नित साथै दूध्ाु पियावा है।।
ऊपर ते ऊपर चुपरु कीन,
भीतर ते जियरा जिरजिरान।
जब जाना साढ़ी नहीं रही,
तब तौ सूखे आध्ो परान।।
पर परसनहारीं टाठी माँ,
जब हाथे ते पूरी डारा।
हम जाना आई फिरि बिलारि,
मूड़े माँ पाटा दइ मारा।।
सीमेंट उखरिगै मूड़े कै,
तब रसोइँदारिनि रोई है।
सब भेदु रतउँध्ािन का खुलिगा,
चालाकी सारी खोई है।।
ना कच्ची हँडि़या बार बार,
कोहू ते चढ़ै चढ़ायेते।
अध्ा भूखे भागेन समझि गयेन,
ना बनिहै बात बनायेते।।
अब बिगरी रही सही।
बात ना हमते जात कही।।
बुढ़ऊ का ब्याह
बात कुछ ऐसी है कि हमसे कही नहीं जाती।
जब हम पचपन की उम्र को पार कर चुके, हमारी शादी को बड़े-बड़े रिश्ते आये। हमने शादी से इनकार कर दिया और सबको खड़े-खड़े लौटा दिया। लेकिन सम्पत्ति स्वर्ग में भी राह बना देती है कुछ रिश्ते बार-बार पलट-पलट कर आये। अपनी-अपनी लड़कियों के ब्याह के लिए पाँच-दस लोग तो बिलकुल मुँह बाये खड़े हैं। पर सबसे ज्यादा इच्छुक अचरजपुर के शिवसहाय थे। वे अपने साथ सीपतपुर के दो-चार लोगों को सिफ़ारिश के लिए साथ में लाये थे। सुखदीन दुबे, चिथरू चैबे, त्रिवेदी जी, ध्ाुन्नर, कंुजी, पण्डित निरध्ािन पाण्डे, बड़े अवस्थी जी, खुन्नर जी सभी ने सिफारिश की। शंकर पुरोहित भी बोले ‘तुम्हें तो ज़रा भी ज्ञान नहीं है। तुम्हारे कोई सन्तान नहीं है तो इस सम्पत्ति का उपभोग कौन करेगा।
मूँछों को जड़ से छील-छील कर पूरे शरीर के रोंए साफ़ कर लिये। माहौल को ठीक कराया, सिर के बालों को काला किया। शरीर में उपटन लगवाया फिर साबुन लगाया। अब चमक दमक में हमने छैल छबीले नव जवानों को भी मात किया। आँखों में काजल लगवाया। माथे पर काला टीका शादी के लिए जो जामा पहना जाना है उसे पहना, सिर पर पगड़ी सजा ली। फिर गले में हार लटका लिया, जंजीर ऐसी लटक आयी छाती में जैसे अरहर के सूखे खड़े पेड़ों पर सुन्दर गुजराती ताला लटका हो। इस प्रकार सब रस्मे पूरी कीं। जब शाम के समय बारात पहुँची, कुछ लोग हमारे पास आये तब हमारी अकल कुछ गड़बड़ा गयी। क्या कहें कुछ बताते नहीं बनता।
बैसाखी मुस्कान के साथ कुछ लोग आपस में बातें करने लगे, यह दूल्हा है कि दूल्हे का बाप है जो सिर पर मौर (सेहरा) बाँध्ाकर आ गया है।
ये यहाँ ब्याह करने कैसे आ गया यह तो मरघट का मेहमान लग रहा है। ओठों पर एक भी मूँछ नहीं है। इसने मूँछें साफ करायी है। लगता हैं जैसे अपनी दूसरी पत्नी की तेरहवीं करके आया है। पालकी में चढ़कर ऐसे शोभायमान हो रहा है जैसे गुमा हुआ कैदी मिल गया हो। या फिर किसी पेड़ की ओट से यह पुराना खूसट झाँक रहा है। बस इसी तरह की अपमानजनक बातें कानों में पड़ी जिनने हमारे मन पर बन्दूक की गोलियों जैसी चोट की। अब मन में उस शंकर पण्डित पर बड़ी गु़स्सा आया जिसने बहुत प्रकार से समझा-बुझा कर ऐसी विपत्ति मुझ पर डाल दी जैसी कि हमसे कही नहीं जाती। अब छह घड़ी रात बीती तब भाँवर पड़ने की बारी आयी।
रतौंध्ाी के कारण रात में आँखों के आगे अँध्ोरा छा गया। सारा काम रतौंध्ाी ने बिगाड़ दिया। तब पुरोहित ने बात बनाते हुए कहा कि हमारे यहाँ भाँवर पड़ते समय वर के साथ एक दो नेगी भी रहते हैं। पुरोहित ने यह बहुत बड़ा काम किया। उसने दो नेगी खड़े करवा दिये। उन्होंने मेरे हाथ पकड़ कर सातों भाँवर पड़वा दीं। सातवीं भाँवर में मेरा पाँव अग्नि वेदी में पड़ गया। हम जल गये और ज़ोर से उचक पड़े। पैर के तलवे में छाला पड़ गया। हमने बक झक कह दिया, ये नेगी बिना आँखों के है। इतना कहने के लिए मुँह खोला तो मुँह में कुछ पंखियाँ ध्ाुस गयीं। हमने हड़बड़ा कर थूक दिया तो वे सब पंखियाँ-वंखियाँ उन नेगियों के ऊपर गिर पड़ीं, ये रतौंध्ाी जो न कराये सो थोड़ा। नेगी बोले, ‘ये क्या किया तुमने हम पर थूक दिया। हमने कहा, ‘तुमने हमारा तलवा जला दिया, हमने उसका बदला ले लिया।’ इस प्रकार हमारी जान बची। शाम के समय कुँअर कलेवा का समय आया तो फिर विपदा आयी। नाऊ मुझे चैके में ले गया तो पैरों टटोल टटोल कर पाटा तो भगवान की कृपा से मिल गया पर खम्भे में सिर भट्ट से टकरा गया। सिर का गूम सहलाते हुए आड़ लेकर पाटे पर बैठ गये झट-पट। पर मुँह दीवाल की तरफ कर बैठे। बिना आँखों के तो सोना भी माटी है। तब भोजन परोसने वाली बोली, ‘बेटा थाली तुम्हारे पीछे की ओर है। हमने कहा, हाँ हमारे भी आँखें हैं। हम चारों तरफ निगाहें फेर कर देख रहे हैं, कितनी सफ़ेद पुताई है। ऐसे बात बना कर हमने थाली की ओर मुँह कर लिया। बिना दाँत के कौर चबाते कैसे, तो पानी के सहारे गुटक गुटक खा रहे हैं। जब बिल्ली आध्ाा दूध्ा पी लिया तब परसने वाली ने बिल्ली को भगाया और कहा इस मरी बिल्ली ने ऊपर की सारी मलाई चाट ली। हमने कहा, नहीं बिल्ली को कुछ मत कहो, हमने जानबूझकर इसे नहीं भगाया। अपने घर में हम बिल्लियों को हमेशा साथ में दूध्ा पिलाते हैं। ऊपर से हमने लीपा-पोती की पर भीतर से बड़ा गु़स्सा आया। यह जानकर कि दूध्ा की मलाई नहीं रही आध्ो प्राण सूख गये। पर परसने वाली थाली में पूड़ी डालने लगी तब हमें लगा कि फिर से बिलली आ गयी और पाटी सिर पर दे मारा। बेचारी परसने वाली की खोपड़ी पर भारी चोट लगी तो वह रोई। अब रतौंध्ाी का सारा भेद खुल गया। सारी चालाकी ध्ारी रह गयी।
कच्ची हंडिया बार बार कोई नहीं चढ़ा सकता।
आध्ाा पेट खाये भूखे भागे, समझ गये कि बनाने से बात नहीं बनेगी।