21-Oct-2020 12:00 AM
2023
मकां है कब्र जिसे लोग खुद बनाते हैं
मैं अपने घर में हूँ या मज़ार में हूँ।
मुनीर नियाज़ी
... जो घर फूँके आपनो चले हमारे साथ।
कबीर
1.
ईरानी फि़ल्मकार माजिद मजीदी की फि़ल्म ‘बादलों के परे’ उनकी भारत में बनायी अकेली फि़ल्म है।’ फि़ल्म के भाई-बहिन ग़रीब हैं। किशोर भाई नशीली दवाओं को महानगर में एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाकर पैसे कमाता है। बहिन उसी शहर में एक ध्ाोबी की सहायक है जो उसका यौन शोषण भी करता है। कुछ ऐसा होता है कि निर्दोष बहन को जेल जाना पड़ता है। भाई उसे छुड़ा नहीं पाता। इस बीच उसका काम भी छूट जाता है। वह तरह-तरह के काम करता है और अपनी बहिन के तैयार किये मकान में रहता है। बहिन को जेल में एक कै़दी मिलती है जिसका जेल में ही जन्मा बच्चा उसके साथ रहता है। उस बच्चे का अपनी क़ैदी माँ के अलावा कोई नहीं है। बहिन की उस बच्चे से क़रीबी हो जाती है। वह उसके साथ खेलती है और जेल में होते निरन्तर अपमान को सहते हुए दिन गुज़ारती है। एक दिन बच्चे की माँ जेल में ही मर जाती है। बच्चा बहिन के साथ अकेला रह जाता है। इस बीच जेल के बैरक में एक चूहा आने लगता है। वह चूहा भी बहिन और बच्चे से हिल-मिल जाता है।
इस दरमियान बहिन के मकान में अकेला रहता भाई देखता है, उसके घर के नीचे बैठा एक प्रवासी तमिल परिवार बारिश में भीग रहा है। उनके पास रहने जगह नहीं है। भाई उन्हें कुछ दिनों
’ किसी भी अपेक्षाकृत बेहतर फि़ल्म की तरह यह फि़ल्म भी केवल कहानी नहीं है। मैं जो कहने जा रहा हूँ, वह फि़ल्म के कुछ दृश्य हैं और फि़ल्म का मेरा मन पर पड़ा प्रभाव है जिन्हें मैं कुछ वाक्यों में लिख रहा हूँ।
के लिए आसरा देने अपने मकान में ले आता है। तमिल परिवार के सभी सदस्य अपनी ही भाषा बोलते हैं। सिर्फ़ एक युवा लड़की अंग्रेज़ी बोल लेती है। उसी के सहारे भाई से संवाद हो पाता है। भाई यह चाहता है कि तमिल परिवार उसका घर छोड़कर चले जायें पर उसका उनसे लगाव भी हो गया है।
माजिद मजीदी की इस फि़ल्म में ‘अन्तरिम घरों’ का प्रस्ताव है। फि़ल्म के चरित्रों के पास कोई भी स्थायी घर नहीं है। बहिन, कै़दी का बच्चा और चूहा जेल में और भाई अनजान तमिल परिवार के साथ अन्तरिम घर बनाते हैं, अन्तरिम या भंगुर घर ! ये घर किन्हीं सुपरिभाषित रिश्तों के आध्ाार पर नहीं बने हैं, ये संयोग के जाये हैं। पर ये हैं घर ही। बिना किसी आश्वासन के, बिना किसी रस्मो-रिवाज़ के इन दोनों जगहों पर ‘बादलों के परे’ में घर बनते हैं। ये आध्ाुनिक उजड़े हुए लोगों के संक्षिप्त आत्मीय अवकाश हैं, संक्षिप्त और वध्य जिनमें सान्निद्ध और सुरक्षा का कोई सुदीर्घ आश्वासन नहीं है। क्या पश्चिमी आध्ाुनिकता हम एशियायी लोगों को हमारे स्थायी घरों से उठाकर ऐसे संक्षिप्त, अन्तरिम घरों में ले आयी है?
2.
श्रीकान्त वर्मा की कहानी ‘घर’ में मजीदी की फि़ल्म की तरह ही बेदरो-दीवार के घर की कल्पना है। एक ग़रीब परिवार आख्याता के घर के आहाते में रुकता है। परिवार में स्त्री-पुरुष और उनका छोटा बच्चा है। वे बारिश से बचने आख्याता के घर के बरामदे में आ टिके हैं। वे कुछ ही देर में (आख्याता के) घर के बाहर घर बना लेते हैं जिसके स्थायित्व की सम्भावना शून्य है, जिसे बारिश के रुकते ही सिमट जाना है।
श्रीकान्त जी के रचना-पुरुष (जिसमें उनके काव्य-पुरुष और कथा-पुरुष शामिल हैं) की शायद सबसे गहरी चाह घर की है। वह केवल उसकी नहीं, आध्ाुनिक मनुष्य मात्र की चाह है, क्योंकि यही वह सुरक्षित, साहचर्यपूर्ण अवकाश (स्पेस) रहा है जिसमें मनुष्य लम्बे समय तक रहता आया था और जिसकी लगभग असम्भाव्यता का बोध्ा भी आध्ाुनिक मनुष्य के साथ छाया की तरह चलता है। पिछले क़रीब 500 साल की पश्चिमी प्रभुत्व और उसके तहत आध्ाुनिक राष्ट्र राज्य के बनने की प्रक्रिया में, विशेषकर तथाकथित औद्योगिक क्रान्ति के बाद निरन्तर घर का क्षय हुआ है, घर टूटे हैं पर घर की चाह नहीं। वह अक्षुण्ण है। जैसे पशु-पक्षी स्वभावतः घोंसला बनाते हैं, मनुष्य सान्निद्ध बनाता है। यहीं से घर की चाहना उत्पन्न होती है। यह चाहना जितनी सांस्कृतिक है उतनी ही नैसर्गिक भी है।
कहाँ है तुम्हारा घर ? अपना देश खोकर कई देश लाँघ
पहाड़ से उतरती हुई
चिडि़या का झुण्ड
यह पूछता हुआ ऊपर-ऊपर
गुज़र जाता हैः कहाँ है तुम्हारा घर ?
दफ़्तर में, होटल में, समाचार-पत्र में,
सिनेमा में,
स्त्री के साथ एक खाट में ?
नावें कई यात्रियों को
उतारकर
वेश्याओं की तरह
थकी पड़ी हैं घाट में।
(बुख़ार में कविता)
बीसवीं शती के मूधर््ान्य और विवादास्पद दार्शनिक मार्टिन हाइडेगर ने आध्ाुनिक मनुष्य के अस्तित्वगत ‘बेघरपन’ की बात कही थी। पर यह बात याद रखने की है कि आध्ाुनिक मनुष्य भले ही बेघर हो गया हो, या होता जा रहा हो, उसे घर पाने की उम्मीद भले न हो, उसे पाने की चाह उसके भीतर निरन्तर आन्दोलित होती है। शायद वह चेतना के किसी गहरे स्तर पर काँपती रहती है। यही उसकी सबसे गहन त्रासदी है। इसी चाहना की खातिर वह युद्ध करता है, उपनिवेश बनाता है, समाज को अलग-अलग तरह से तोड़ने का प्रयत्न करता है, साम्प्रदायिकता का ज़हर घोलता है पर उसकी विडम्बना यह है कि इन सारे उपक्रमों से उसका बेघरपन बढ़ता ही है, क्योंकि इन रास्तों से केवल नकली घर ही बन सकते हैं। इन घरों से निराश वह फिर वही सब करने में जोशोखरोश से दोबारा जुट जाता है और अध्ािक बेघर होता जाता है। पिछले दो-तीन सौ वर्षों की अनवरत हिंसा का शायद यही कारण रहा हैः घर की असम्भव्यता और घर की चाहना का साथ होना। श्रीकान्त जी ने लिखा है-
सम्भव नहीं है
कविता में वह सब कह पाना
जो घटा है
बीसवीं शताब्दी में मनुष्य के साथ !
काँपते हैं हाथ !
(युद्ध नायक)
3.
हिंसा होती रहती है, घर बन नहीं पाता। घर की चाह गहराती रहती है।
मैं अब घर जाना चाहता हूँ
मैं जंगलों
पहाड़ों में
खो जाना चाहता हूँ
मैं महुए के
वन में
एक कण्डे-सा
सुलगना, गुँगुवाना,
ध्ाुँध्ाुवाना
चाहता हूँ।
(घर-ध्ााम)
घर जाने की यह चाह श्रीकान्त जी के अपने पैतृक नगर से महानगर जाने पर उत्पन्न नहीं हुई थी। उनके काव्य-पुरुष ने इसके बहुत पहले से ही अपने को बेघर महसूस करना शुरू कर दिया था।
मैं बिना पंखुरी, बिन टहनी का गन्ध्ा फूल
(मैं बिन टहनी का गन्ध्ा फूल)
मुझमें नहीं था-
था हाड़-हाड़ में बहता पुरखों का अन्ध्ाकार।
पुरखों का अन्ध्ाकार, प्रतिभा का क्षय
और प्रियजन के पाप को पाप न
कह सकने का
पाप लिये
अपने ही आस-पास घिरे हुए
जीवित रहने के कष्ट के तारों से
बिन्ध्ा-बिन्ध्ाकर तार-तार।
(क्या था वह?)
कालिदास ! मैं भटक गया हूँ,
मोती के कमलों पर बैठी
अलका का पथ भूल गया हूँ।
...
मुझे क्षमा करना कवि मेरे !
तब से अब तक भटक रहा हूँ।
(भटका मेघ)
वह केवल बेघर नहीं हुआ है, वह अपने छूट गये घर को भी लौट नहीं सकता।
मुझे क्षमा करना कवि मेरे !
मैं अब अलका जा न सकूँगा।
(भटका मेघ)
घर, प्रेम, माँ-बाप, कविताएँ, एक-एककर छूटते हैं
सब,
दाँव पर लगा हूँ खुद मैं,
दौड़ रहा हूँ हरेक इच्छा के बिल्कुल क़रीब से
फेंकता हुआ
अपने जबड़ों से फेन।
(विजेता)
4.
श्रीकान्त जी की कविता के काव्य-पुरुष का पारम्परिक बसाव छूट गया है। नये के विषय में उसे कुछ पता नहीं। उसे यह सहज अन्तज्र्ञान है कि लौटना सम्भव नहीं सो वह लौट नहीं सकता। छूटा हुआ घर वापस नहीं मिलता, कुछ और मिल जाता है।
तलाश किसकी है
कौन मिलता है
(हेर-फेर)
उसे यह नहीं पता कि घर की उसकी चाहना कहाँ पूरी होगी, वह घर उसे कहाँ मिलेगा जो उसकी चेतना की गहरायी में ध्ाड़कता रहता है, जिसकी परछाईं हर ओर पड़ती है।
क्या वह घर पूरी तरह यान्त्रिक हो चुके महानगर में सम्भव है ? उस शासकों से भरे नगर में जहाँ समूचा दिन मानो अपने-आप नहीं बीतता। पर यूँ महसूस होता है जैसे उसे प्रहर-दर-प्रहर किसी काग़ज़ पर टंकित किया जा रहा हो। मानो उस नगर का दिन नैसर्गिक न हो, शासकीय आदेश हो।
एक अदृश्य टाइपराइटर पर साफ़, सुथरे
काग़ज़-सा
चढ़ता हुआ दिन,
तेज़ी से छपते मकान,
घर, मनुष्य
और पूँछ हिला
गली से बाहर आता
कोई कुत्ता।
एक टाइपराइटर पृथ्वी पर
रोज़-रोज़
छापता है
दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता।
कहीं पर एक पेड़
अकस्मात छप
करता है सारा दिन
स्याही में
न घुलने का तप।
कहीं पर एक स्त्री
अकस्मात उभर
करती है प्रार्थना
हे ईश्वर ! हे ईश्वर !
ढले मत उमर।
बस के अड्डे पर
एक चाय की दुकान
दिन-भर बुदबुदाती है
‘टूटी हुई बेंच पर
बैठा है
उल्लू का पट्ठा
पहलवान।’
जलाशय पर अचानक छप जाता है
मछुए का जाल
चरकट के कोठे से
उतरती है ध्ाूप
और चढ़ता है
दलाल।
एक चिड़चिड़ा बूढ़ा थका क्लर्क ऊबकर छपे हुए शहर को
छोड़ चला जाता है।
(दिनचर्या)
कविता की अन्तिम दो पंक्तियों पर ध्यान देने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ ‘चिड़चिड़ा बूढ़ा थका क्लर्क’ सूर्य है जो मानो आकाश के दफ़्तर में इस महानगर को टंकित कर रहा था और शाम होते ही खुद उससे ऊबकर चला गया है।
कहाँ इस थके हुए क्लर्क के हाथों टंकित थका-माँदा महानगर और कहाँ जगन्नाथ के हाथों निर्मित वह संसार जिसे आध्ाुनिक मनुष्य ने खो दिया है। अगर हम पुरी के जगन्नाथ की मूर्तियाँ देखें, हम उनकी दो बड़ी-बड़ी आँखों पर ध्यान देने से नहीं बच सकते। आखिर पुरी के जगन्नाथ की इतनी बड़ी आँखें क्यों हैं? पौराणिक कल्पना में जगन्नाथ (जैसा कि उनके नाम से ही ध्वनित है) जगत के बनाने वाले हैं। जब वे जगत को बना चुकने के बाद उसकी ओर देखते हैं, उनकी आँखें अपने इस सृजन से फटी की फटी रह जाती हैं। वे अपने ही बनाये जगत पर चमत्कृत होते हैं इसीलिए उनकी आँखें विस्फारित हैं। वे श्रीकान्त जी की कविता के थके हुए क्लर्क से बिल्कुल विपरीत हैं। क्या थके हुए क्लर्क द्वारा टंकित नगर में घर पाया जा सकता है ?
5.
श्रीकान्त जी के काव्य-पुरुष को यह भले ही न पता हो कि उसका घर कैसा होगा, पर यह पता है कि वह कैसा ‘नहीं’ हो।
हे ईश्वर ! सहा नहीं जाता है मुझसे अब
औरों की सुविध्ाा से
जीने का ढंग।
सही नहीं जाती है मुझसे
कानाफूसी, मूर्खता,
सिनेमाघर, लड़कियाँ,
ख़ुशामद
और
गर्द !
...
हे ईश्वर ! मुझसे बरदाश्त नहीं होगा
यह मनीप्लान्ट।
सहन नहीं होगा
यह
गमले का कैक्टस
पिकनिक के
चुटकुले
आॅफि़स का ब्यौरा
और
देशभक्त कवियों की
कविताएँ।
(प्रेस वक्तव्य)
समूची बीसवीं शती आध्ाुनिक मनुष्य के लिए तरह-तरह के घर के प्रस्ताव लाती रही है। इनमें सबसे बड़ा और सफल (पर अन्ततः विफल) प्रस्ताव विचारध्ााराओं का रहा है। चाहे माक्र्सवाद का प्रस्तावित कम्युनिस्ट राज्य का स्वर्गलोक हो या राष्ट्रवाद का सपाट संसार, इन दोनों ही तरह की विचारध्ााराओं में अन्तर्निहित आश्वासन का रूप एक ही हैः सान्निद्धपूर्ण और सुरक्षित जीवन का आश्वासन। इन्हें ध्यान से देखें तो हम पायेंगे कि ये बेघर आध्ाुनिक मनुष्य के लिए आवास योजनाएँ हैं। इनमें आश्वासित समाज के मूल तत्व भी ठीक वही हैं जो घर के होते रहे हैंः सान्निद्ध और सुरक्षा। विचारध्ााराओं के इन आश्वासनों के अन्तर्गत ये आवास ऐसे समाज में बनेंगे जो स्वयं लयबद्ध और आदर्श होगा। ज़ाहिर है जहाँ प्रश्नांकन करने वालों पर सुन्दर आवासों से सुसज्जित लयबद्ध समाज को तोड़ने का आरोप लगेगा। उन पर घर तोड़ने का आरोप लगेगा और ‘सुध्ाारने’ की ख़ातिर उन्हें दण्डित किया जायेगा। कल का हिटलर अपनी आवास योजना को अक्षुण्ण रखने गैस चैम्बर में जीवित मनुष्यों को ज़हर दे देगा, स्टालीन अपनी स्वर्ग-तुल्य आवास योजना को सुरक्षित रखने उस पर प्रश्न पूछते नागरिकों को गुलाग द्वीप समूहों में भेज देगा जहाँ वे ध्ाीरे-ध्ाीरे मर जायेंगे।
आज का चीन और भारत क्या ऐसी ही आवास योजनाएँ प्रस्तावित नहीं कर रहा। यह सारा कुछ स्थायित्व, सान्निद्ध और सुरक्षा के नाम पर ही हुआ था और हो रहा है? ये वही आवास योजनाएँ हैं जिनसे घर की मरीचिका की ओर भागता आध्ाुनिक बेघर मनुष्य पिछली पूरी शताब्दी तक निरन्तर छला जाता रहा है और इस शती में छला जा रहा है।
श्रीकान्त जी के काव्य-पुरुष को ये प्रस्ताव स्वीकार नहीं, उसे दूसरों के शर्तों पर छला जाना मंजूर नहीं, फिर वे दूसरे कितनी ही विराट योजना के प्रस्तावक क्यों न हों ः
कुछ लोग मूर्तियाँ बनाकर
फिर
बेचेंगे क्रान्ति की (अथवा
षड़यन्त्र की)
कुछ और लोग
सारा समय
क़समें खाएँगे
लोकतन्त्र की।
मुझसे नहीं होगा !
जो मुझसे
नहीं हुआ वह मेरा
संसार नहीं।
(समाध्ाि लेख)
इस स्थिति में आकर लोकतन्त्र का आश्वासन भी उसे सन्तुष्ट नहीं कर पाता। यहाँ हमें श्रीकान्त जी के काव्य-पुरुष की दूर-दृष्टि का कायल होना होगा। उसने कुछ शताब्दियों पहले से प्रचलित संसदीय लोकतान्त्रिक (और साम्यवादी) व्यवस्थाओं में ‘वास्तविक लोकतन्त्र’ की असम्भाव्यता को तभी देख लिया था जब कम-से-कम एशिया में उसके गीत गाये जा रहे थे। इसके बहुत पहले अलावा गाँध्ाी के, एशिया और यूरोप के अध्ािकांश विचारक, लेखक उसे ही मनुष्य की अन्तिम (फाइनल) व्यवस्था मान रहे थे। लेकिन स्थितियाँ इसके विपरीत होती गयीं। 2019 में समाजशास्त्रियों के अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में प्रसिद्ध समाजशास्त्री शाॅन रोज़नबर्ग ने अपना आलेख पढ़ा। इसमें उन्होंने समकालीन राजनैतिक स्थिति का विश्लेषण किया। उसके पढ़े जाने के बाद समाजशास्त्रियों ने हड़कम्प मच गयी। उस आलेख का शीर्षक थाः डेमोक्रेसी हेज़ एण्डेड (लोकतन्त्र खत्म हो चुका है)। इस निबन्ध्ा में रोज़नबर्ग ने यह दर्शाने की कोशिश की है कि लोकतन्त्र का वह रूप जो आध्ाुनिक कार्पोरेट विश्वव्यवस्था में चल रहा है, वह दरअसल लोकतन्त्र के खोल में लोकतन्त्र का अभाव है। (यह विचारणीय है कि कार्पोरेट पूँजीवाद में लोकमत और आर्थिक नीति के बीच पूरा अलगाव हो जाता है और इसीलिए लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं की हैसियत सीमित क्षेत्र में खेले जाने वाले एक खेल से अध्ािक नहीं बचती।) वह काव्य-पुरुष इसमें सहयोग करने से कतराता है ः
मर्दुमशुमारी के पहले ही मुझे कूचकर जाना है हरेक कूचे से
सबकी मतदान पेटियों में
कम होगा एक-एक वोट
मुझको मंजूर नहीं किसी की शर्त।
(जलसाघर)
6.
श्रीकान्त जी के एकमात्र उपन्यास ‘दूसरी बार’ का कथा-पुरुष घर बनाने का प्रयास करता है। वह अपनी बिछुड़ी प्रेमिका को सब कुछ देने की ख़्वाहिश साथ लिये दोबारा मिलता है। पर जल्द ही उनकी आपसी कडुवाहट वापस लौट आती है, उनकी इस दूसरी बार की मुलाकात का अन्त आपसी घृणा में होता है, ऐसी घृणा में जो साहित्य में बहुत कम लक्षित होती है। संयोग से इस अर्थ में ‘दूसरी बार’ हिन्दी बल्कि विश्व साहित्य का अपूर्व उपन्यास है। यह विशुद्ध घृणा नामक भाव का विस्तार है, उसकी बढ़त है। जिस हिन्दी उपन्यास की नींव प्रेमचन्द जी ने आदर्शमूलक यथार्थवाद पर रखी थी, उसकी छाया आज तक के उपन्यासों पर निरन्तर पड़ती रही है और उन्हें मनुष्य के वीभत्स्य यथार्थ से निरन्तर मुँह फेर लेने पर बाध्य करती रही है। श्रीकान्त वर्मा की इस कृति ने इस स्थिति को पूरी तरह मोड़ दिया है। यह उपन्यास पूरा का पूरा घृणा के ध्ाागों से बुना गया है। फ्राँसीसी उपन्यासकार मार्सेल प्रूस्त के लम्बे उपन्यास का पहला हिस्सा ‘स्वान्स वे’ जिस तरह ईष्र्या की दास्तान है, लगभग उसी तरह ‘दूसरी बार’ घृणा का दीर्घ प्रलाप है। घर बनाने की आकांक्षा के घृणा में अन्तरित होने का पीड़ामय आख्यान।
7.
इन सब कृतियों से गुज़रते हुए दिखता है कि कृति दर कृति श्रीकान्त वर्मा के रचना-पुरुष की घर की तलाश जारी रहती है पर घर है कि लगातार दिखकर ग़ायब हो जाता है और यह रचना-पुरुष बेघर रहा आता है।
लो वह दिखायी पड़ा मगध्ा (घर)
लो वह अदृश्य ---
कल ही तो मगध्ा (घर) मैंने
छोड़ा था
कल ही तो कहा था
मगध्ावासियों ने (घरवालों ने)
मगध्ा (घर) मत छोड़ो
मैंने दिया था वचन
सूर्योदय के पहले
लौट आऊँगा
...
अब न मगध्ा (घर) है
न मगध्ा (घर)
मगध्ा
(मगध्ा)
वह घर की चाह लिये बार-बार भटकता है और लगातार बेघर बना रहता है। कविता की इबारतें उसकी बेघर भटकन की छूटन भर हैं जिसमें उसके सब-कुछ खो चुकने कथा दर्ज है ः
मूर्खो ! देश को खोकर ही
मैंने प्राप्त की थी
यह कविता
जो किसी की भी हो सकती है
जिसके जीवन में
वह वक़्त आ गया हो
जब कुछ भी नहीं हो उसके पास
खोने को।
जो न उम्मीद करता हो
न अपने से छल
जो न करता हो प्रश्न
न ढूँढता हो हल।
(बुख़ार में कविता)
श्रीकान्त जी के काव्य-पुरुष की यात्रा किसी मंजिल पर समाप्त हुई या नहीं, कहना कठिन है और शायद नहीं भी। हमें कवि के जीवन के अन्त की ख़बर है, उसके काव्य-पुरुष के जीवन की नहीं। पर इतना अवश्य पता है कि उसकी कथा, दुर्भाग्य से, परिकथा के जैसे चलती नहीं है। उसमें बाध्ाा पार कर लक्ष्य प्राप्त होता नहीं दीखता। अपनी यात्रा को मंजिल तक ले जाने के कैसे भी नक्शे या उनकी उम्मीद उसके पास नहीं है। वह तमाम उम्र बिना नक्शों के यात्रा करता रहा है। पर वह नक्शा कहीं होगा ज़रूरः
मित्रो,
तीसरा रास्ता भी
है-
मगर वह
मगध्ा,
अवन्ती
कोसल
या
विदर्भ
होकर नहीं
जाता।
(तीसरा रास्ता)
‘तीसरे रास्ते’ की महीन-सी उम्मीद इस कविता में उभर आयी है पर यह गड्डमड्ड ‘जिग्साॅ’ पहेली के उन टुकड़ों के एक दिन आपस में जुड़ जाने की उम्मीद ही है जो अपने बेमेल आकारों के कारण जुड़ ही नहीं सकते। यह नाउम्मीदी तक पहुँचने की उम्मीद से अध्ािक कुछ नहीं है।
8.
अन्त में यह कह दूँ कि मैं उत्तर भारत के ऐसे केवल दो लेखकों को जानता हूँ, जिनके रचना-पुरुषों ने आध्ाुनिक विभीषिका (जिसमें कम्युनिस्ट विभीषिका शामिल है) की सम्भावना को बिना किसी उम्मीद या ईश्वर की सान्त्वना के अपने जीवन में चरितार्थ किया और उसकी पीड़ा को पूरी शिद्दत से भोगा। इस अर्थ में ये दोनों लेखक सच्चे आध्ाुनिक सेक्युलर लेखक हैंः उर्दू के सादात हसन ‘मण्टो’ और हिन्दी के श्रीकान्त वर्मा। इन दोनों के ही रचना-पुरुषों को-
छोड़
दिया गया है
मुझे अनन्त काल तक
भटकने
के लिए
इस प्रलाप में
(जलसाघर)