भारतीय उपन्यास की अवधारणा’ वागीश शुक्ल
04-Sep-2018 08:18 PM 11284

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जिले अँगरेज़ी में दवअमस कहते हैं उसके लिए (बांग्ला और फिर वहाँ से) हिन्दी में ‘उपन्यास’ शब्द कैसे प्रचलित हो गया इसकी तह में जाने की कोई कोशिश किये बिना मैं ‘उपन्यास’ शब्द के एक प्राचीन शास्त्रीय प्रयोग की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ और प्रस्तुत विषय से इस ‘बादरायण सम्बन्ध’ को उपस्थापित करने के लिए प्रारम्भ में ही क्षमा माँग लेता हूँ।
बादरायण (= व्यास) की कृति ब्रह्मसूत्र वेदान्त-विद्या का मूल ग्रन्थ है। इसके शांकर भाष्य पर भामती टीका लिखने वाले वाचस्पति मिश्र ने ‘ब्राह्मेण जैमिनिरुपन्यासादिभ्यः’ (4-4-5) पर लिखते हुए कहा हैः ‘उपन्यास उद्देशो ज्ञातस्य (= ज्ञात का कथन ही ‘उपन्यास’ है।)’ इसी के आगे उन्होंने जोड़ा हैः ‘अज्ञातज्ञापनम् विधिः (= अज्ञात का ज्ञान कराना ‘विधि’ है।)’। ‘विधि’ में ‘ऐसा करना चाहिए’ का निर्देश और ‘ऐसा करने का ऐसा फल होगा’ की फलश्रुति, ये दोनों प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निबद्ध होते हैं। ‘उपन्यास’ और ‘विधि’ के साथ एक शब्द और जुड़ा हुआ है, ‘व्यपदेश’ः जब किसी बात के प्रतिपादन हेतु कुछ कहने की आवश्यकता न समझी जाय और उसे एक सिद्ध सत्य की तरह कहा जाय तब ऐसे कथन को ‘व्यपदेश’ कहते हैं।1
‘उपन्यास’ शब्द के इस विनियोग को देखते हुए मुझे लगता है कि प्राचीन भारतीय साहित्य की अवधारणा ही ‘उपन्यास’ पर टिकी थी। आखिर जब नाट्य को लोक का ‘अनुकीर्तन’ कहा गया, कीर्तन नहीं, तो इसका क्या तात्पर्य हो सकता है ? जो पहले से कीर्तित है उसी त्रैलोक्य का अनुकीर्तन नाट्य है। इसी अर्थ में, ज्ञात का उद्देश्य होने के नाते, ‘उपन्यास’ होने के नाते, कोई रचना साहित्य में परिगणित होती है। लेकिन इधर कुछ अरसे से रचनाओं की लालसा ‘विधि’ बनने की हो चली है, लेखक सोचते हैं कि समाज एक जुलूस है और वे मशाल थामे आगे चल रहे हैं ताकि उसे राह दिखा सकें।

’ स्वर्गीय श्री अमृतलाल नागर को स्मरण करने के लिए नवम्बर 2017 में रज़ा फाउण्डेशन द्वारा भोपाल में आयोजित एक कार्यक्रम में प्रस्तुत करने के लिए लिखा गया।

इसे समझ कर आगे बढ़ना चाहिए। जिसे ‘धर्म’ कहते हैं वह विधि और निषेध की एक संहिता का नाम है। इस संहिता के आधार पर ही संसार चलता है। ऐसी किसी संहिता के अभाव में कर्मचर्या यादृच्छिक होगी और संसार की कोई गतिविधि सम्भव नहीं रहेगी। उदाहरण के लिए सूर्य का धर्म है एक निश्चित समय पर उगना और एक निश्चित समय पर अस्त होना। ऐसे अनेक नियमों पर जीवन निर्भर है। इन ईश्वरीय नियमों के अनुकरण पर ही मनुष्यों ने अपने सामाजिक रहन-सहन की संहिताएँ बनायी हैं। साहित्य इन सभी संहिताओं के अनुशासन के बाहर है। उसमें सत्यवान् की पत्नी यमराज से अपने पति को छुड़ा ला सकती है और रघु की पत्नी एक फूलमाला की चोट से मर सकती है। किसी स्त्री की साड़ी इतनी बढ़ सकती है कि दस हज़ार हाथियों का बल रखने वाला उसे खींच न सके और किसी स्त्री का नीवीबन्ध उसके प्रबल कामावेग के नाते अपने आप खुल सकता है। किन्तु यह साहित्य का अपना संसार है, व्यावहारिक जीवन के लिए विधि-निर्माण साहित्य का काम नहीं है। दूसरे शब्दों में, वह धर्म का प्रतिकल्प ;त्र ंदजप.ेजतनबजद्ध रच सकता है, विकल्प ;त्र ंसपजमत.ेजतनबजद्ध नहीं रच सकता।
‘प्रतिकल्प’ कहने से मेरा आशय यह है कि ज्ञप्ति की पहुँच के भीतर बाह्य करणों (= इन्द्रियों) और अन्तःकरण से जानने योग्य जो कुछ है उसमें से चुनते हुए एक संकल्प उभरता है जिससे एक ब्रह्माण्ड अपनी ब्राह्माण्डिकी ;त्र बवेउवसवहलद्ध के साथ मूर्तिमान् होता है। किन्तु जैसा कि योगवासिष्ठ ने स्पष्ट कहा है, यदि एक ब्राह्माण्डिकी का धर्म यह बताता है कि राम ने रावण को मारा तो दूसरी ब्राह्माण्डिकी का धर्म यह बता सकता है कि रावण ने राम को मारा।2 ये ब्राह्माण्डिकियाँ एक-दूसरे का विकल्प नहीं हैं, एक ही रामावतार के भीतर इन दो में से किसी एक घटना का चुनाव नहीं कर सकते- पूरा रामावतार ही शुरू से शुरू होगा।
मैं एक उदाहरण देता हूँ। एक कविप्रसिद्धि है कि हंस मोती खाते हैं। जब हम कहते हैं, ‘की हंसा मोती चुगैं, की लंघन मरि जाँय’ तो हम इस कविप्रसिद्धि को शब्दशः यथार्थ न मानते हुए भी इसका एक विधि-वाक्य की तरह इस्तेमाल करते हैं, यह एक राजनीतिक घोषणा हो सकती है कि हमें सम्मान के साथ ही, अपनी कुछ शर्तों को मनवा लेने के बाद ही जीवित रहना चाहिए और इन शर्तों को मनवाने के लिए आवश्यक संघर्ष करना चाहिए। किन्तु योगवासिष्ठ इस कविप्रसिद्धि को यों इस्तेमाल करता है कि एक ही चीज़ कभी हंस कभी मोती के रूप में दीखती है।3 केवल यह प्रतीत होता है कि हंस मोती निगल (या उगल) रहा है। इस प्रकार यह उक्ति ‘चुगने’ का सारा अर्थनिर्धारण प्रारम्भ से करते हुए एक नयी दुनिया हमारे सामने ले आती है जिसमें स्वयं को चुगना सम्भव है। यह ‘उपन्यास’ है क्योंकि यह प्रति-कल्प है जिसका ‘ज्ञान’ कवि को अपनी प्रतिभा, काव्य-नैपुण्य, लोक और शास्त्र का निरीक्षण, जैसी तमाम चीज़ों के भरोसे होता है। इसी को कवि द्वारा एक अलग ही काव्य-जगत् का निर्माण कहते हैं। कोई भी दुनिया बसेगी तो उसमें विधि होगी ही, किन्तु अन्तर यह है कि कवि एक दुनिया बसाता है जबकि समाजशास्त्री बसी हुई दुनिया का धर्म बदलता है। ‘उपन्यास’ और ‘विधि’ के बीच के इस फ़र्क को नज़रन्दाज़ करने के नाते हमारा भरोसा ‘क्रान्तियों’ और ‘परिवर्तनों’ पर जा टिकता है और एक अविश्वसनीय भोलेपन के साथ हम साहित्य पर इन क्रान्तियों की बौद्धिक ज़िम्मेदारी डाल देते हैं। ‘विधि’ होने के इस दावे ने हमारे अपने साहित्य में इस समय अत्यन्त दर्पोद्धत और सर्वग्रासी रूप धारण कर लिया है किन्तु पश्चिमी साहित्य में इसके इस ‘उत्परिवर्तन ;त्र उनजंजपवदद्ध’ का प्रारम्भ बहुत पहले से हो गया था और उपन्यास इस उत्परिवर्तित साहित्य की ही एक देर-आयद प्रजाति के रूप में अवतरित हुआ।
इस उत्परिवर्तन ने सर्वप्रथम तो मनुष्य के अध्यात्म को उसकी सामाजिक-राजनीतिक दैनन्दिनी का अनुवाद करते हुए ईश्वर तथा उसके आदेश तक अपचित किया जिससे उस अध्यात्म का स्वरूप एक आचार-संहिता तक सीमित रह गया, फिर उस संहिता की कमान एक दण्डनायक के हाथ सौंपी। सर्वव्यापी समय उत्परिवर्तित होकर रैखिक इतिहास में बदल गया जिसने अध्यात्म से उत्परिवर्तित इस आचार-संहिता के प्रादुर्भाव को एक प्रस्थान-बिन्दु मानते हुए उसके पूर्व के कालखण्ड को अज्ञान का कालखण्ड घोषित किया। इस प्रकार ज्ञान एक परिभाषा के अधीन हो गया और समय का यह उत्परिवर्तन इतिहास के नये अभिधान के अनुसार एक शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हुआ जिसने इस प्रस्थान-बिन्दु से परिगणित प्राचीन को जीर्ण के रूप में नवपरिभाषित करते हुए इस प्रस्थानबिन्दु से आगे की उपस्थितियों में ही सम्पूर्ण अभ्युदय और निःश्रेयस की रोपाई की।
उपन्यास ;त्रदवअमस द्ध का प्रादुर्भाव इतिहास के इस प्रादुर्भाव के प्रस्फुटनों में से एक है।

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इस सर्वविदित तथ्य को पुनः स्मरण कर लें कि जिस साहित्य-विधा को हम ‘उपन्यास’ के नाम से आज पुकारते हैं वह पश्चिम से ली गयी है। इस प्रकार ‘भारतीय उपन्यास’ अपने आप में एक विरोधाभाष है। अपनी सीमाओं के चलते मेरे सामने ‘भारतीय उपन्यास’ के नाम पर हिन्दी उपन्यास ही है किन्तु सुनी-सुनायी कुल यही है कि जिन बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय से बांग्ला उपन्यास का प्रारम्भ माना जाता है वे वाल्टर स्काट के उपन्यासों को अपना आदर्श मानते थे और अपना पहला उपन्यास त्।श्र।डव्भ्।छश्ै ॅप्थ्म् उन्होंने अँगरेज़ी में ही लिखा था जिसका यथेष्ट स्वागत न होने पर ही वे बांग्ला में उपन्यास लिखने की ओर प्रवृत्त हुए। उधर मलयालम साहित्य का पहला उपन्यास इन्दुलेखा लिखने वाले चाण्डू मेनन की आत्मस्वीकृति है कि यह उपन्यास बेंजामिन डिज़रायली4 के उपन्यास भ्म्छत्प्म्ज्ज्। ज्म्डच्स्म् रू । स्व्टम् ैज्व्त्ल् के अनुवाद के रूप में परिकल्पित था किन्तु विदेशी संस्कृति को मलयालम में उतार पाना सम्भव न होने के नाते उन्होंने मौलिक उपन्यास ही उसी तर्ज़ में बना डाला। प्रेमचन्द जी ने भी अपने उपन्यासों का आदर्श अँगरेज़ी के उपन्यासों को ही माना था और अपने प्लाट अँगरेज़ी में ही बनाते थे। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि अँगरेज़ी शासन और शिक्षा की बदौलत जिस प्रकार की आधुनिकता के प्रभाव में हम आये, उसी के तहत ‘उपन्यास’ भी हमने अपनाया। इस आधार पर यह कहना उचित ही जान पड़ता है कि ‘भारतीय उपन्यास’ अपने-आप में एक विरोधाभास है। किस हद तक हम इसे एक ‘विरोधाभास’ मात्र मान सकते हैं, यह उन प्रश्नों में से एक है जिनपर हमें विचार करना चाहिए।
यहाँ से प्रारम्भ कर सकते हैं कि निर्मल जी ने अपने एक महत्वपूर्ण निबन्ध संस्कृति, समय और भारतीय उपन्यास’ में कहा हैः
ताज्जुब की बात यह है कि हमने अपने कथ्यात्मक (कथात्मक ?) गद्य के लिए ‘उपन्यास’-जैसी विधा को चुना जो नितान्त भिन्न सांस्कृतिक अनुभव-क्षेत्र में पनपी और विकसित हुई थी; यह कुछ ऐसा था कि हम एक ऐसे बने-बनाये मकान में रहने लगें जो दूसरों ने अपनी ज़रूरतों, संस्कारों, स्मृतियों- एक शब्द में कहें तो अपनी ‘जलवायु’ के अनुसार बनाया था। हम न केवल उसमें रहने लगे, बल्कि कभी उसमें अपने अनुकूल परिवर्तन करने की ज़रूरत भी महसूस न की। प्रेमचन्द से लेकर अधुनातन उपन्यासकार ने कभी ‘उपन्यास’ की विधा पर शंका प्रकट नहीं की, अपने अनुभव के सन्दर्भ में उसका पुनर्पनरीक्षण तो दूर की बात थी। बरसों से हमने जिस विधा को ‘सामाजिक यथार्थ’ के विश्लेषण का सबसे महत्वपूर्ण औज़ार माना, कभी उस औज़ार की सक्षमता की जाँच-पड़ताल करने की ज़रूरत का सामना नहीं किया। (शब्द और स्मृति)
निर्मल जी ने उस ‘संस्कृति’ की एक विशेषता बतायी है जिसमें यूरोपीय उपन्यास का विकास हुआ। उन्होंने इस निबन्ध में कहा है कि ‘यदि उपन्यास की विधा अन्य विधाओं की अपेक्षा अधिक नयी है तो इसलिए कि पहले कभी ‘समय’ ने इतने प्रत्यक्ष और प्रमुख ढंग से मनुष्य के जीवन में दखल नहीं दिया था।’, इस ‘समय’ को उन्होंने ीवतप्रवदजंस बताया है और फिर कहा है:
जिस विधा में मनुष्य और उसकी नियति के बीच सम्बन्ध जोड़ा गया वह ‘कहानी’ बहुत पुरानी नहीं है।... शायद ही कोई विधा इतने भयानक और नंगे ढंग से समय-सापेक्ष, वर्ग-सापेक्ष रही हो जितनी उपन्यास की विधा थी। वह एक आईना थी जिसमें पहली बार बूज़्र्वा संस्कृति ने अपने दर्पपूर्ण गौरव और घिनौनी विकृति, दोनों को एक साथ देखा था।... बूज़्र्वा व्यक्ति की अपने प्रति यह (इस?) उम्मीद और निराशा, विश्वास और सन्देह के अजीब मिश्रण से ही उस आत्मघाती द्विविधा का जन्म हुआ था जो फ़्लावेअर से काफ़्का तक के उपन्यासों में चली आती है। (शब्द और स्मृति)
निर्मल जी ने इस अंश में लगभग स्पष्ट कह दिया है कि उपन्यास की विधा का सम्बन्ध समय के उस रैखिक रूपंकरण से है जिसने एक ऐसे समाज को अवतरित किया जो ‘वर्ग’ के विचार का आकृति-ग्रहण था और इन वर्गों में से एक - बूज़्र्वा वर्ग- की अभिव्यक्ति के रूप में उपन्यास प्रस्तुत हुआ है। इस बात को समझने के लिए हमें यूरोपीय समाज में ‘बूज़्र्वा ;त्र इवनतहमवपेद्ध’ के उदय की ओर भी ध्यान देना पड़ेगा। हिन्दी में हम इसकी जगह ‘मध्य वर्ग’ का इस्तेमाल करते हैं किन्तु इस अनुवाद के लिए हमारी सामाजिकी में समर्थन नहीं है- अच्छा होगा यदि हम इस मूल फ्ऱाँसीसी शब्द का ही व्यवहार करें ताकि सन्दर्भ से हम विचलित न हों।
यह शब्द उस वर्ग के पुरुष सदस्य को बताता है जिसे ‘बूज़्र्वाज़ी ;त्र इवनतहमवपेपमद्ध’ कहते हैं (स्त्री सदस्य इवनतहमवपेम कहलाती है)। इस वर्ग को यूरोपीय सन्दर्भ में ‘नोबिलिटी’ के सापेक्ष देखना चाहिए। इस ‘नोबिलिटी’ के सदस्यों को हिन्दी में हम ‘सामन्त’ शब्द से बताते हैं किन्तु इसकी अपेक्षा इस वर्ग को ‘नोबिलिटी’ ही कहना ठीक है। इस ‘नोबिलिटी’ को जल, जंगल, ज़मीन और इन पर बसे हुए जन के जीवन पर असीमित अधिकार प्राप्त थे- राजा इसी वर्ग का सर्वोच्च सदस्य होता था। यह व्यवस्था वंशानुगत थी और उच्चावच इससे निर्धारित होता था कि कौन अपनी वंशावली को कितने पीछे से ला सकता है। सेना के उच्चाधिकारी ‘नोबिलिटी’ से ही हुआ करते थे और अन्य उच्च राजकीय पदों पर भी इस नोबिलिटी के परिवारों का अधिकार होता था;
नोबिलिटी का सारा वंशानुगत वैभव परिवार के बड़े लड़के को मिलता था और छोटे भाइयों के लिए यद्यपि कुछ गुज़ारे की जायदाद की व्यवस्था रहती थी, उनमें से अनेक चर्च में उच्च पदों पर हो जाते थे जिसके पास जायदादों का अलग ज़खीरा था। यह वर्ग ‘क्लर्जी ;त्र बसमतहलद्ध’ कहलाता था और यद्यपि इसे हिन्दी में ‘पुरोहित-वर्ग’ कह दिया जाता है, इस भ्रामक नाम की अपेक्षा हम ‘क्लर्जी’ शब्द का ही इस्तेमाल करेंगे। इस प्रकार धर्मसत्ता और राजसत्ता के उच्च पदों पर इन्हीं परिवारों के लोग होते थे किन्तु चूँकि चर्च की सर्वोच्च सत्ता पोप के पास थी और राज्य की सर्वोच्च सत्ता राजा के पास, इसलिए इनके बीच के खटमिट्ठे सम्बन्धों का असर क्लर्जी और नोबिलिटी के आपसी सम्बन्धों पर भी पड़ सकता था।
नोबिलिटी का प्रादुर्भाव तो युरोप के उन दिनों में हुआ था जब केवल शक्ति के आधार पर छोटे-छोटे सैन्य-बलों का नेतृत्व करने वाले अधिपतियों ने अपने-अपने दबदबे के इलाक़ों में अपना प्रभुत्व कायम किया था किन्तु समय के साथ केन्द्रीय राज्य-सत्ताएँ उभरने और हावी होने लगीं तथा राजाओं ने अपने अधीनस्थ नोबुलों के अधिकार कम करने प्रारम्भ कर दिये। लड़ाइयों का चरित्र भी बदल गया और युद्ध अब राजाओं के बीच होने लगे जिनमें नोबुलों की भूमिका आज्ञाकारी सेनापतियों की रह गयी। स्थानीय प्रशासन में केन्द्र का दखल बढ़ता गया और सत्रहवीं सदी आते-आते नोबिलिटी के पास राजाज्ञापालन के अतिरिक्त कोई ज़िम्मेदारी न बची। नोबिलिटी के लोग अपनी ज़मींदारियाँ छोड़कर राजधानियों में ही बसने लगे। इनके हाथ से प्रशासन छिन चुका था किन्तु सुविधाभोग के बहुत से अधिकार इनके पास बचे हुए थे। उदाहरण के लिए शिकार का एकाधिकार इनके पास था और फलतः किसान अपनी फसल बरबाद करने वाले जानवरों को मार नहीं सकता था। ऐसे अनेक कारणों से किसान खेती छोड़ रहे थे और पारम्परिक कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था का चरित्र बदल रहा था।
नोबिलिटी (और क्लर्जी भी) बेहिसाब आमदनी, बेहिसाब खर्च और बेहिसाब क़र्ज़ से परिभाषित थी। हिसाब रखना एक घटिया काम माना जाता था- कहानी है कि लुई पन्द्रहवें ने जब अपने एक नोबुल से कहा कि ‘मैंने सुना है आप पर बहुत क़र्ज़ हो गया है’ तो उनका उत्तर था, ‘महाराज, मुझे अपने गुमाश्ते से पूछना पड़ेगा।’ कुल मिलाकर यह वर्ग अपने ऐश्वर्य का उपभोग करने के लिए दूसरों पर निर्भर था। कृषिकर्मियों से कर उगाहने के लिए इनके गुमाश्ते ;त्र ंितउमतेद्ध होते थे जो इन्हें आधा-अधूरा भुगतान करते थे और इस प्रकार सारी नोचखसोट तथा अनगिनत अमानुषिक अत्याचारों के बाद भी नोबिलिटी का वर्ग आर्थिक रूप से बहुत सशक्त न था। अर्थव्यवस्था का संचालन व्यापारियों, वकीलों, कारख़ानेदारों, साहूकारों आदि के हाथ में था जो प्रायः इस नोबिलिटी को उधार भी दिया करते थे। यही वर्ग ‘बूज़्र्वाजी’ था जिसके पास शक्ति तो थी किन्तु सम्मान न था।
‘बूज़्र्वाजी’ का शाब्दिक तात्पर्य है ‘नगर-वासी’। राजसत्ता का उदय मुख्यतः एक केन्द्रीकरण की प्रक्रिया थी। राजकीय सत्ता का सर्वाधिक प्रकट प्रतीक राजा का शरीर और उसके प्रत्यक्ष आचरण थे। उसका सोना-जागना, नहाना-खाना, उठना-बैठना, सबकुछ सार्वजनिक था, प्रेम से लेकर आखेट तक बिना गवाहों के नहीं सम्भव थे जैसे मन्दिरों की अष्टयाम दिनचर्या का निर्वाह पुजारियों के बिना सम्भव नहीं है। हाथ धुलाना, कुल्ला कराना, जूता पहनाना सबके कार्यवाहक नियत थे, कुर्ते की दाहिनी बाँह कौन पकड़ेगा और बायीं कौन, यह नोबुलों के कुलीनता-क्रम पर आधारित था। राजा एक अभिनेता था जो सर्वदा मंच पर उपस्थित था जिसे अपना पसीना पोंछने के लिए भी सार्वजनिक निरीक्षण में उत्तीर्ण होना था। यह उसकी भूमिका थी जिसके निर्वाह हेतु सहायक अभिनेताओं के रूप में उसकी नोबिलिटी और मंच के रूप में उसका दरबार था। राजधानी इस नाटक का विशाल सभागार थी और ऐसा होने के कारण ही वह एक परीलोक भी थी जिसका रहन-सहन अनुकरणीय था। बोली-बानी में उतार-चढ़ाव के आदर्श पेरिस के थे, कपड़ों में सिलाई-कटाई का आड़ा-तिरछा होना पेरिस के अनुकरण पर ही तय होता था और यदि वह नवीनतम ढर्रे का नहीं होता था तो स्वयं सम्राट लुई चैदहवें के द्वारा इशारे से यह बता दिया जाता था। लड़कियों, लड़कों, बुजूर्गों, सभी के लिए चारित्रिक अभिलक्षणों के साथ-साथ ये पारिधानिक अभिलक्षण भी शर्म और गर्व के नये आधार बन गये थे।
नाटक को जीवन में उतारती हुई इस नवीन संस्कृति में ही बूज़्र्वा वर्ग का उदय होता है। राजसत्ता के केन्द्रीकरण ने राजधानी को जन्म दिया, राजधानी ने नगरीकरण का महत्व बढ़ाया, नगरीकरण ने ‘बूज़्र्वा = नगरवासी’ का महत्व बढ़ाया। एक पुरानी गढ़ी के आसपास बसी हुई बस्ती गढ़ी के मालिक से सीधे सम्पर्क में होती थी, अब इससे आगे बढ़कर नगरपालिका और उसके अफ़सरों का अस्तित्व सामने आया, पानी की निकासी, सड़कों की सफ़ाई, कचहरी, जेल, दवाख़ाना, सबके लिए संस्थाएँ बनीं, आकार में फैलती गयीं और अपने संचालन के लिए नोबिलिटी तथा राजा के सीधे नियन्त्रण से बाहर होती गयीं। साहित्य, कला, शिक्षा, चिन्तन सभी का विस्तार हुआ। इन सभी कार्यों को करने वालों का विशेषीकरण हुआ और बढ़ई से लेकर वकील तक, दर्ज़ी से लेकर कवि तक, स्थानीय व्यक्तियों के रूप में अपनी पहचान बदलकर राष्ट्रीय स्तर पर एक वर्ग के सदस्य के रूप में जाने जाने लगे जिनका प्रतिधित्व उनके नवपरिभाषित वर्गीय हितों की रक्षा के लिए राजधानी के स्तर पर होना आवश्यक हुआ।
ये ही लोग ‘बुज़्र्वा’ थे। बहुत सी और चीज़ों के अलावा पढ़ाई-लिखाई भी इनके जिम्मे थी। नोबिलिटी प्रायः निरक्षर होती थी और शिक्षा की आवश्यकता पारम्परिक रूप से केवल क्लर्जी के लिए मानी जाती थी जिसे बाइबिल पढ़ने और उसपर प्रवचन करने का एकाधिकार था। किन्तु मुक़दमों के काग़ज़ सम्भालना, जेलख़ानों और अस्पतालों के निवासियों की गिनती रखना, राजकीय कोष का घाटा-नफ़ा समझना, नाटक और कविता लिखना, लम्बी समुद्रयात्रा करना, देश-विदेश की जानकारी इकट्ठा करना, व्यापार करना, यह सब बिना शिक्षा के सम्भव नहीं था और इस कारण से एक शक्ति उन लोगों के पास भी एकत्र हो रही थी जो न नोबिलिटी से आते थे न क्लर्जी से। समय के साथ सत्ता का नियन्त्रण तलवार और धर्मोपदेश की पकड़ से फिसल कर अर्थ-प्रबन्ध और स्वायत्त तर्कणा के हाथों में जा रहा था- दूसरे शब्दों में बूज़्र्वा वर्ग अपनी उपस्थिति को दस्तक से दखल तक ले जाने को उत्सुक था।
‘परिवर्तनकामिता’ के इस उदय ने अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पुराने आजमाये हुए नुस्खे ही चुने। ‘परिवर्तनकारिता’ की शर्त है वर्तमान तथा निकट अतीत का अस्वीकार और एक सुदूरस्थ स्वर्णिम अतीत का पुनर्निर्माण जिसकी पुनःप्राप्ति ही इस ‘परिवर्तन’ का लक्ष्य होती है। उदाहरण के लिए सभी सामी धर्म यह बताते हें कि समकालीन मनुष्य अपने वास्तविक पथ से ‘विचलित’ हो गया है और नवीनतम ईश्वरदूत द्वारा प्राप्त ईश्वरसन्देश में ही उस शाश्वत राह की मौजूदगी है जिसपर चलना वर्तमान नेतृत्व की मूर्खता और दुष्टता के चलते बन्द हो चुका है। इस प्रविधि से समय-समय पर बहुत से काम लिये गये हैं जिनमें से एक उदाहरण प्राचीन यूनानी-रोमन सभ्यता का पुनर्निर्माण करके ईसाई युरोप को उसका उत्तराधिकारी बनाना भी है। ठीक इसी तर्ज़ पर ‘नोबुल सैवेज’ की ओर वापसी की उम्मीद लिये तत्कालीन राजतन्त्र, कुलीनतन्त्र और धर्मतन्त्र से पीछा छुड़ाने का उद्धोष करती हुई फ्ऱाँसीसी क्रान्ति का रक्ताभिषिक्त आगमन हुआ जो इतिहास में बूज़्र्वा आकांक्षाओं की चरम उपलब्धि के रूप में दर्ज है। किन्तु इन आकांक्षाओं और आदर्शों के कभी लालसा कभी हताशा से बुने हुए परिधान बहुत पहले से उपलब्ध होने लगे थे।
बूज़्र्वा उपस्थिति के इस अतिरेकी उदाहरण - फ्ऱाँसीसी राज्यक्रान्ति- में ही उस उपस्थिति की लालसाओं और हताशाओं के प्रकट और अतिरेकी उदाहरण उपलब्ध हैं। मैं एक ही देता हूँ। अगस्त 1789 में फ्रांस की असेम्बली ने मनुष्य और नागरिकों के अधिकारों की घोषणा ;त्र क्मबसंतंजपवद व िजीम त्पहीजे व िडंद ंदक जीम ब्पजप्रमदद्ध शीर्षक एक प्रस्ताव पास किया जो आज भी लगभग सभी लोकतान्त्रिक देशों के संविधानों और अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार घोषणा-पत्रों का आधार-पत्र है। इसमें स्त्रियों को समान अधिकार नहीं दिये गये थे- उदाहरण के लिए मतदान का अधिकार केवल पुरुषों को था। एक स्त्री नाटक-लेखक ओलेंप द गूज़ ;त्रव्सलउचम कम ळवनहमेद्ध ने इसकी प्रतिक्रिया में स्त्री और स्त्री-नागरिकों के अधिकारों की घोषणा ;त्र क्मसंतंजपवद व िजीम त्पहीजे व िॅवउंद ंदक जीम थ्मउंसम ब्पजप्रमदद्ध 1791 में लिखा जिसमें स्त्रियों को भी सम्पूर्ण समता देने की बात थी। प्रसिद्ध वाक्य ‘स्त्रियों को फाँसी के तख़्ते पर चढ़ने का अधिकार है तो उन्हें वक्ता-मंच पर भी चढ़ने का अधिकार होना चाहिए’ इसी का हिस्सा था। किन्तु इस दस्तावेज की तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया गया, स्त्रियों के सारे चर्चा-स्थल बन्द कर दिये गये और ओलेंप द गूज़ को इस अपराध के लिए गिलोटिन के नीचे प्राणदण्ड दिया गया कि उन्होंने राजा और रानी को प्राणदण्ड देने का विरोध किया था।
उपन्यास उन तमाम परिधानों में से एक है जिनमें मानव-जाति की ऐसी तमाम सारी लालसाएँ और हताशाएँ अभिव्यक्त होती रहीं। ज़ाहिर है कि यह अभिव्यक्ति तारीख़ी तौर पर फ्रांसीसी क्रान्ति के पहले से शुरू थी और बदलते फै़शन के साथ अभी तक चालू है। किन्तु यह कहना ऐसा ही है जैसा यह कहना कि बूज़्र्वा वर्ग फ्रांसीसी राज्यक्रान्ति के पहले अस्तित्व में आ चुका था और अभी भी वर्तमान है।
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निर्मल जी ने अपने लेख का समापन करते हुए भविष्य के भारतीय उपन्यास के लिए कुछ दिशा-निर्देश भी दिये हैं। वे कहते हैं:
... हम पुनः उस बिन्दु पर लौट आते हैं जहाँ से हर विधा का सृजनात्मक पूर्ण परीक्षण शुरू होता है। यह एक जोखिमपूर्ण एडवेंचर है क्योंकि एक ऐसा क्षण आता है जब अनुभव और विधा के बीच अन्तर्विरोध किसी सुविधाजनक समझौते से नहीं सुलझाया जा सकता। उपन्यास के क्षेत्र में यह जोखिम और भी बढ़ जाता है क्योंकि वह इतिहास और कविता के बीच एक ऐसे स्थल की खोज है जहाँ तर्कशील आत्मसजग चेतना विचारों और विश्वासों के द्वारा नहीं, बल्कि स्मृति और सांस्कृतिक अनुभवों में साँस लेती है। कविता की तरह वह भाषा और बिम्बों में उतनी ही डूबी है जितनी डूबने के बाद बाहर समय में अपने अनुभवों को परिभाषित करने को आतुर।
एक आधुनिक भारतीय लेखक के लिए यह जोखिम और भी अधिक विकट है। उपन्यास- जैसी विधा के लिए उसे एक पश्चिमी लेखक की ही तरह आत्मसजग और तर्कशील होना होगा किन्तु इस विधा की सीमाओं पर उसे एक निर्वैयक्तिक, गै़र-ऐतिहासिक ‘मिथक-सम्पन्न अँधेरी’ स्मृतियों को उजागर करना होगा, उन्हें उजागर करने के लिए खुद इस ‘अँधेरे’ में डूबना होगा। यह समूचा कार्यकलाप, यह एडवेंचर, किसी आलोचनात्मक बौद्धिक योजना द्वारा नहीं, शुद्ध कल्पनात्मक अनुभवों के बीच होगा। फ़ाॅर्म का निर्माण नहीं, सृजन होता है। इसी ‘कल्पनाशीलता’ के आधार पर तोल्स्तोय ‘रूसी समाज का दर्पण’ बने थे, अपने ऐतिहासिक, बौद्धिक ज्ञान के नाते नहीं।
इतिहास और मिथक, समय और स्मृति- इन दो उजले-अँधेरे छोरों के बीच भारतीय उपन्यास जिस ज़मीन को समेटेगा, उसके लिए जिस ‘फ़ाॅर्म’ को ढूँढ़ना होगा, वहाँ उस ज़मीन पर भारतीय लेखक न शुद्ध रूप से दर्शक रहेगा- एक विदेशी उपन्यासकार की तरह- न पूर्ण रूप से भोक्ता, एक औसत भारतीय की तरह। वह न तो इस अर्थ में एक अलगावग्रस्त ;त्र ंसपमदंजमकद्ध बूज़्र्वा बन पाया है जो अपने अलग आत्मसजग वैयक्तिकत्व के बाहर अपने अतीत, स्मृतियों और संस्कारों से अलग रह सके, न इन संस्कारों और स्मृतियों से इतना अविच्छिन्न रूप से जुड़ा है कि बाहर के अलगाव, अपने दो सौ वर्षों के यूरोपीय अनुभव से अर्जित आत्मचेतना की उपेक्षा कर सके। वह बाहर भी है भीतर भी, वैयक्तिक है तो निर्वैयक्तिक भी, समय से आक्रान्त है तो इतिहास का अतिक्रमण करने का मिथक-बोध भी उसमें है। इन दोनों पार्टों के बीच अन्तद्र्वन्द्व और इतिहास की इस जातीय विडम्बना का दबाव हम जितनी तीव्रता से महसूस कर पायेंगे, उतना ही हमारा यह एडवेंचर प्रामाणिक और अर्थपूर्ण हो सकेगा।
हिन्दी के सबसे सफल उपन्यासकार प्रेमचन्द जी ने निर्मल जी के इस लेख के आधी सदी पूर्व उपन्यास शीर्षक से एक लेख लिखा था जिसकी कई स्थापनाएँ आज ‘प्रेमचन्द की परम्परा’ से बाहर हैं। उदाहरण के लिएः
साहित्य का सबसे ऊँचा आदर्श वह है जबकि उसकी रचना केवल कला की पूर्ति के लिए की जाये। ।तज वित ।तजश्े ेंाम के सिद्धान्त पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती।... जब साहित्य की रचना किसी सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक मत के प्रचार के लिए की जाती है तो वह अपने ऊँचे पद से गिर जाती है, इसमें कोई सन्देह नहीं। लेकिन आजकल परिस्थितियाँ इतनी तीव्रगति से बदल रही हैं, इतने नये-नये विचार पैदा हो रहे हैं कि शायद कोई लेखक अब साहित्य के आदर्श को ध्यान में रख ही नहीं सकता। यह बहुत मुश्किल है कि ।नजीवत पर इन परिस्थितियों का असर न पड़े, वह उनसे आन्दोलित न हो। यही कारण है कि आजकल भारत में ही नहीं, योरोप के बहुत बड़े विद्वान भी अपनी रचनाओं द्वारा किसी न किसी वाद का प्रचार कर रहे हैं।... ।तज वित ।तजश्े ेंाम का समय वह होता है जब देश सम्पन्न और सुखी हो।...
हिन्दी उपन्यास का बहुलांश अभी तक प्रेमचन्द जी के इस उद्धरण के कुछ वाक्यों से ही अपनी सैद्धान्तिकी बनाता रहा है- इसमें जिस ‘परिस्थितियों का असर’ की बात कही गयी है उसी ने अब सार्वभौमिकता ग्रहण कर ली है। जैसा कि इस उद्धरण से स्पष्ट है, स्वयं प्रेमचन्द जी भी जिस ।तज वित ।तजश्े ेंाम के प्रति अपनी प्रतिबद्धता घोषित करते हैं, उसके कार्यान्वयन के लिए इन्हीं ‘परिस्थितियों’ में बदलाव की चाहत रखते हैं और इस प्रकार अन्ततः साहित्य को पूरी तरह उसी ‘समय’ के अधीन रखते हैं जिसे सम्भवतः उसकी प्रत्यक्ष-दृश्यता के नाते ही निर्मल जी ने ‘उजाले’ का अभिधान दिया है। वैसे यह भी कुछ दिलचस्पी का सामान जुटाता है कि जिन तोल्स्तोय को निर्मल जी ने ‘(शुद्ध) कल्पनाशीलता’ से सम्पन्न होने के नाते बड़ा लेखक माना है उन्हें प्रेमचन्द जी ने इस लेख में ‘मत-प्रचारक’ की हैसियत बख्शी है।
निर्मल जी पर लौटते हुए, मेरी समझ में बहुत पैनी नज़र और सटीक शब्दयोजना के बावजूद, उन्होंने कुछ सरलीकरणों से काम लिया है। उनका वैचारिक लेखन कई बार ऐसे निष्कर्षों की एक श्रंृखला के रूप में प्रत्यक्ष होता है जिनके पीछे के तर्क और प्रमाण ओट में रहते हैं। फलतः उनके पक्ष का उपस्थापन और प्रस्फुटीकरण भी प्रायः उसी व्यक्ति की ज़िम्मेदारी होती है जो उनकी बात पर विचार करना चाहता है। अस्तु, यूरोपीय साहित्य के बारे में उन्हें मुझसे बहुत अधिक जानकारी है यह स्वीकार करने के बावजूद मुझे यह मानने में संकोच है कि यूरोपीय लेखक की नज़र से वह ‘अँधेरा’ ओझल रहा है जिसे निर्मल जी ने ‘मिथक’ कहा है। दरअसल स्वयं निर्मल जी ने इस तरह के दोटूक विभाजन के भरोसे ‘यूरोपीय’ और ‘भारतीय’ की मुहरें बनाने-लगाने से परहेज़ किया है जब वे तोल्स्तोय को उसी ‘(शुद्ध) कल्पनाशीलता’ से सम्पन्न बताते हैं जिसकी आशंसा वे भारतीय लेखक के लिए करते हैं।
मेरी समझ में यूरोपीय लेखक ने भी उत्कृष्ट साहित्य तभी रचा है जब उसने इतिहास की बेड़ियों में जकड़े अपने पैरों को मिथक की अँधेरी तलहटियों में उतारने का जोखिम मोल लिया है। जैसा मैंने ऊपर इशारे में कहा है, इतिहास वस्तुतः धर्म की गै़र-पेगन परिकल्पना के महा-ख्यान ;त्र ळतंदक छंततंजपअमद्ध का नाम है और हम बार-बार यूरोपीय चित्रकारों मूर्तिशिल्पियों लेखकों को अपनी अभिव्यक्ति के मुहावरे तलाशने के लिए ईसाइयत का महा-ख्यान फलाँगते हुए देखते हैं।
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जिस ‘ग़ैर-पेगन’ शब्द का मैंने ऊपर प्रयोग किया उसके दोनों शब्दखण्ड सटीक ढंग से भारत के बाहर की भाषाओं से आयातित हैं। इस सर्वविदित तथ्य का स्मरण करते हुए कि ‘पेगन’ शब्द का प्रयोग ईसाई धर्माचार्यों द्वारा प्राचीन रोमन धर्म के लिए किया गया था, मैं यह कहना चाहता हूँ कि जिसे हम आज ‘सनातन हिन्दू धर्म’, ‘वैदिक धर्म’, या ‘ब्राह्मणवादी धर्म’ कहते हैं, वह मेरे विचार में प्राचीन पेगन चेतना का लगभग एकमात्र जीवित उदाहरण है किन्तु मैं ‘गै़र-पेगन’ में इस्लाम के आगमन के पूर्व के धर्मविश्वासों का भी संकलन करता हूँ। ‘गै़र-पेगन’ की जगह ‘गै़र-इब्राहीमी’ भी कहा जा सकता है और एक ताज़ातरीन शब्द त्र ैचतपजपजनंस ठनज दवज त्मसपहपवने गढ़ कर भी इसे समझने की कोशिश की गयी है। इसे ‘हिन्दू’ कहना मेरे नज़दीक सबसे सटीक था किन्तु इधर बुद्धिपरजीवियों’ के नाते समकालीन चर्चा में ‘हिन्दू’ एक गै़र-पेगन स्वरूप इख़्तियार कर रहा है अतः मैं ‘पेगन’ ही कहूँगा।
निर्मल जी जब ‘समय’ के बर-अक़्स ‘स्मृति’ रखते हैं तो मेरी समझ में वे बात सही कह रहे हैं किन्तु शब्द ग़लत चुन रहे हैं। मैं उनके इस द्वन्द्व में क्रमशः ‘गै़र-पेगन’ और ‘पेगन’ रखना चाहता हूँ। जिस योरोपीय साहित्य से हमारा परिचय है वह ‘गै़र-पेगन’ है किन्तु वह अपनी इस सीमा से अपरिचित नहीं और उसने गै़र-पेगन चेतना द्वारा नष्ट की गयी यूनानी-रोमन ‘संस्कृति’ को फिर से रचने और उसे अपना पूर्वज मानने की भरपूर कोशिक की है।
भारत में उसका समान्तर सोचने के समय हमें कुछ बातें पर ध्यान देना होगा। पहली बात तो यही है कि ‘संस्कृति’ शब्द एक ग़ैर-पेगन अवधारणा अर्थात् बनसजनतम को बताता है और जैसा कि निर्मल जी ने इसी निबन्ध में कहा है, यदि हम किसी भारतीय को यह बताते हैं कि तुलसीदास उसकी ‘संस्कृति’ के अंग हैं, तो उसके लिए यह एक अटपटी बात होगी। दूसरी बात इसी को कुछ हेरफेर के साथ कहती है: वह यह है कि हमें अपना अतीत ‘बनाना’ नहीं है, वह हमारे आस-पास एक नैरन्तर्य में जिया जा रहा है। उसे ‘स्मरण’ करने की ज़रूरत नहीं है, उससे परहेज़ न किया जाय सिर्फ़ इतना सीखने की ज़रूरत है। इसी अर्थ में ‘माॅडर्निटी’ हमारे लिए प्रासंगिक हो सकती है- पानी में बुलबुले और लहर की तरह न कि दूध से दही की तरह, विवर्त की तरह, न कि परिणाम की तरह, एक साज-सँवार की हैसियत में न कि व्यवहार में आमूल अप्रत्यावर्तनीयता के हठ का आरोपण करती हुई। जिस उलट-पुलट का आह्नान उसकी आमद की धमक ने पश्चिम में किया है, वह हमारे यहाँ किसी स्फूर्ति का संचार करने में अक्षम है क्योंकि उसकी सारी ऊर्जा किसी भीतरी खलबली का परिणाम न होकर एक अलग से लगाये गये उपकरण की बदौलत है।

’ यह शब्द मैंने हिन्दी कथा-लेखक नीलाक्षी सिंह की एक टिप्पणी से लिया।

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निर्मल जी ने अपने लेख में गोदान पर बात की है और कहा है:
यह एक सृजनात्मक चुनौती थी जब प्रेमचन्द रूसी उपन्यासकारों की तरह उन्नीसवीं सदी के ‘परम्परागत’ औपन्यासिक ढाँचे को छोड़कर या उसे परिवर्तित करके एक ऐसी कथ्यात्मक, नैरेटिव विधा का अन्वेषण करते जो होरी की नियति और मर्यादा, उसकी हताशा और नैतिकता के अनुकूल अपना निजी ‘कलात्मक स्पेस’ निर्धारित कर सकती। यह इसलिए भी ज़रूरी था क्योंकि घटनाओं के प्रति होरी का सम्बन्ध वैसा द्वन्द्वात्मक समय-अनुशासित नहीं है जैसा पश्चिम के उपन्यास-पात्रों का सामान्यतः होता है। जब हम पहली बार उपन्यास में होरी को देखते हैं तो हमें एक झलक में उसकी अन्तिम नियति का आभास मिल जाता है। एक एपिक-पात्र की तरह उसकी नियति एक वाक्य, एक संकेत, एक उड़ती हुई प्रतिक्रिया में अन्तर्निहित है।
‘एपिक’ और ‘उपन्यास’ का परस्पर सम्बन्ध पश्चिम में हीगल द्वारा जोड़ा गया माना जाता है जिस पर आगे चलकर जार्ज लूकाच ने उपन्यास का अपना सिद्धान्त विकसित किया। जिसे निर्मल जी ‘एपिक-पात्र’ कह रहे हैं वह मेरी समझ में प्राचीन ग्रीक ट्रैजेडी का हीरो है जिसका अन्त घटनाओं से नहीं निर्धारित होता अपितु जिसकी निर्धारित नियति के रूपंकरण के लिए घटनाएँ उतरती हैं। ट्रैजेडी से उपन्यास तक पहुँचने की राह नीत्शे द्वारा खोजी मानी जाती है और सम्भव है कि निर्मल जी के मन में दोनों बातें रही हों, या इन दोनों रास्तों को वे मिलाकर देखते हों। यह एक विचारोत्तेजक सूत्र है जिसका पकड़ते-छोड़ते हम आधुनिक भारतीय जीवन में उन सर्वनिष्ठ संकेतों की तलाश कर सकते हैं जो शायद हमें विश्व-साहित्य के कालजयी अवतारों तक ले जाने के लिए पुल का काम कर सकते हैं और हम देख सकते हैं कि इतिहास के पदार्पण के पहले का समाज लेखिनी, तूलिका, शब्द और अभिनय से अपना क्या सम्बन्ध स्थापित करता था।
इस पड़ताल की गुंजाइश यहाँ नहीं। मैं केवल एक शब्द ‘एपिक-पात्र’ को सतह पर पकड़ता हूँ। मैं ‘एपिक’ को ‘महाकाव्य’ के अर्थ में पढ़ना-समझना चाहूँगा और याद करना चाहूँगा कि (बताया जाता है कि) जार्ज लूकाच ने कहा था कि उपन्यास उस संसार का महाकाव्य है जिसे ईश्वर ने छोड़ दिया है। मुझे यह वाक्य पसन्द आया और मैं इसमें के ‘महाकाव्य’ और ‘ईश्वर’ को अपने ढंग से समझना चाहूँगा। तब ज़ाहिर है कि ‘महाकाव्य’ कहने से हमारे मन में रामायण जैसे ग्रन्थ उभरेंगे और ‘ईश्वर’ कहने से (विद्यारण्य स्वामी के शब्द इस्तेमाल करते हुए) माया रूपी कामधेनु के दो बछड़ों- जीव और ईश्वर- में से एक का बोध होगा। तब ‘ईश्वर से परित्यक्त संसार’ में मार्मिक असहायता की जगह विश्वास का भरोसा दिखेगा और उपन्यास का अवतरण खाई में नहीं, पुष्करिणी में होगा।
यहाँ से सोचते हुए मुझे उदयन वाजपेयी का यह सुझाव अच्छा लगा कि हमें शायद ‘भारतीय उपन्यास’ को ‘महाकाव्य’ के भारतीय सन्दर्भ में समझने की कोशिश करनी चाहिए। उन्होंने यह बात कामायनी के सन्दर्भ में कही थी और शायद हमारा शुरुआती सवाल यही होना चाहिए कि क्या जब हम कामायनी या साकेत या प्रियप्रवास को ‘महाकाव्य’ कहते हैं तो हमारे मन में कालिदास का रघुवंश या तुलसीदास का रामचरितमानस रहता है, या रहना चाहिए ? इसका उत्तर यही हो सकता है कि इन आधुनिक महाकाव्यों के लेखकों के मन में तो निश्चय ही ये प्राचीन महाकाव्य थे किन्तु वस्तुतः ये आधुनिक काव्य ‘छन्दोबद्ध उपन्यास’ हैं।

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हम कुछ बातें यहाँ याद कर लें। ‘उपन्यास’ पश्चिम में भी ‘नया’ ही है और मोटे तौर पर डान क़ीहोती ;त्र क्वद फनपगवजमद्ध से इसका प्रारम्भ माना जाता है जो 1605-1615 में छपा। यह ‘छपा’ मेरी समझ में महत्वपूर्ण है और गद्य-रचना में अभिवृद्धि का बहुत कुछ श्रेय प्रिन्टिंग की प्रौद्योगिकी को है जिसने पन्द्रहवीं सदी में उपलब्ध होने के बाद यूरोप में सूचना और सर्जना के क्षेत्र में कुछ वैसी ही क्रान्ति ला दी जैसी हम आज सोशल मीडिया और ब्लाग-लेखन के चलते देख रहे हैं।
गद्य में लिखा जाना ‘उपन्यास’ का एक अभिलक्षण था। छन्दोबद्ध रचना को स्मरण में सुरक्षित रखने में सुविधा होती है इसलिए छन्दोबद्ध रचना ऐतिहासिक क्रम में सर्वत्र पहले रही है और गद्य भी अधिकांशतः वही लिखा गया है जो या तो काव्य की कुछ आलंकारिकता समेटने का आकांक्षी हो या फिर शास्त्र-सम्बद्ध तर्कणा की सुरक्षा हेतु स्वतन्त्र महत्व रखता हो। भारत में बहुत सारी शास्त्र-रचना भी छन्दोबद्ध ही की गयी है। बहरहाल, बहुत ऊहापोह के बिना भी यह मानना कठिन नहीं होना चाहिए कि चर्मपट्ट पर उकेरे गये साहित्य की अपेक्षा प्रिन्टिंग प्रेस में काग़ज़ पर छापा गया साहित्य व्यापक वितरण के लिए सस्ता और सुविधाजनक था जिसने धर्माचायों और राजपुरुषों से आगे भी सामान्य जन तक लिखित शब्द को पहुँचाने में बड़ी मदद की। ‘बूज़्र्वा’ के उदय से इस मुद्रण-प्रौद्योगिकी का घनिष्ठ सहयोग और सहकार रहा है।
‘उपन्यास’ इसी समय की उपज है। विचारों के प्रचार-प्रसार पर बहुत सारे एकाधिकार टूटे क्योंकि पुस्तकों की प्रतियाँ बड़ी संख्या में बन पाना सम्भव हुआ। बाइबिल की प्रतियों के उपलब्ध हो जाने के नाते उसे पादरियों के अतिरिक्त भी लोग पढ़ने लगे और उस माहौल की वापसी बहुत कठिन हो गयी जिसमें बाइबिल घर के भीतर रखना और उसे खुद पढ़ना प्रतिबन्धित था। गद्य के प्रसार में बड़ी बाधा उसकी रक्षणीयता की कठिनाई है, इसे भी मुद्रण-प्रौद्योगिकी ने कम किया। मोटे तौर पर यह अवसरों का विस्तार था जैसे आज इन्टरनेट ने अवसरों का विस्तार किया है।

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‘महाकाव्य’ और ‘उपन्यास’ में अन्तर सिर्फ़ इतने तक तो सीमित नहीं हो सकता कि ‘महाकाव्य’ छन्दोबद्ध है और ‘उपन्यास’ गद्य में लिखा जाता है। ‘छन्दोबद्ध उपन्यास’ भी होते ही हैं। निर्मल जी ने उपन्यास को ‘इतिहास और कविता के बीच के स्थल की खोज’ कहा है। उन्होंने ‘इतिहास’ और ‘कविता’ के बीच का जो फ़र्क बताया है, उसे शब्द की अर्थवाचन का संकोच करने वाली तथ्यात्मक एकवाचिता और उस अर्थवाचन के विस्तार को सहेजने वाली सम्भावनात्मक बहुवाचिता के बीच का फ़र्क कहा जा सकता है। मेरी समझ में यह पड़ताल भी ज़रूरी है कि यह फ़र्क किस हद तक एक वास्तविकता है और किस हद तक एक भ्रम, किन्तु यहाँ मैं इस पड़ताल को मुल्तवी करता हूँ और यह पूछता हूँ कि ‘छन्दोबद्ध उपन्यास’ से हमारी क्या मुराद हो सकती है ?
हमें पुनः पश्चिम की ओर मुड़ना चाहिए और पुश्किन के म्नहमदम व्दमहपद को सामने रखना चाहिए जो छन्दोबद्ध उपन्यासों का प्रतिदर्श है। यह एक ही छन्द में लिखा गया है जिसे ‘पुश्किन साॅनेट’ कहते हैं, फ़िलहाल कालिदास का मेघदूत सामने रख लेते हैं जो एक ही छन्द-मन्दाक्रान्ता- में लिखा गया है। तब देखा जा सकता है कि म्नहमदम व्दमहपद में कहानी कहने का अभीष्ट है और मेघदूत में काव्यसौन्दर्य के उद्भावन का अभीष्ट। मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि यों तो कृति को कविता होने और कहानी होने के प्रति दोहरी वफ़ादारी निभानी पड़ेगी चाहे वह छन्दोबद्ध उपन्यास हो चाहे ‘कथा’, किन्तु जब कथा वाचन प्रमुख अभीष्ट होगा तब ‘छन्दोबद्ध उपन्यास’ होगा और जब काव्यसौन्दर्य का सम्प्रेषण प्रमुख अभीष्ट होगा तब ‘कथासूत्रित काव्य’। हमारे यहाँ के ‘कथा’ और ‘महाकाव्य’ जैसे वर्गीकरणों पर शब्दशः निर्भर रहने से काम न चलेगा क्योंकि एक महत्वपूर्ण महाकाव्य नैषधीय-चरित के रचयिता श्रीहर्ष अपनी कृति को ‘कथा’ कहते हैं। शायद हम पुराणों को ‘छन्दोबद्ध कथा’ कह सकें। यहीं मैं यह भी कह देना चाहता हूँ कि नाबोकोव ने जब म्नहमदम व्दमहपद का रूसी से अँगरेज़ी में अनुवाद किया है तो छन्द हटा दिया है और इस अनुवाद को मूल के ‘फूल’ के बर-अक़्स ‘काँटा’ कहा है जिसका अर्थ यह भी लिया जा सकता है कि इस अनुवाद में ‘इतिहास’ तो बचा किन्तु ‘कविता’ ग़ायब हो गयी। ज़ाहिर है कि नाबोकोव के इस विनम्र कथन को उनके अनुवाद का वास्तविक साहित्यिक मूल्यांकन नहीं माना जाना चाहिए किन्तु वह एक दूसरी बात है।
इसमें से एक सिद्धान्त का भी उद्धार किया जा सकता है- यदि उपन्यास इतिहास और कविता का सम्मिश्र है तो उसमें से कविता का अनुवाद नहीं हो सकता किन्तु इतिहास का हो सकता है। तब यह कह सकते हैं कि उपन्यास में से जिस अंश का अनुवाद हो सकता है वह ‘फाॅर्म’ है जिसे हम सीधे अपना सकते हैं और जिस अंश का अनुवाद नहीं हो सकता उसे हमें स्वयं ही मुहैया कराना पड़ेगा- वह अंश ही भारतीयता है और तब हम ‘भारतीय उपन्यास’ को सम्मुख कर पायेंगे। यह कहते हुए मैं इस बात को भुला नहीं रहा हूँ कि ‘फाॅर्म’ को सिर्फ़ एक खोल की तरह अपनाना साहित्य चिन्तकों के मत के विरुद्ध है और निर्मल जी के निबन्ध में मुख्य आक्षेप यही है कि हमने ‘फाॅर्म’ को कोई चुनौती नहीं दी। मेरा प्रस्ताव यह है कि हमें ‘फाॅर्म’ को चुनौती देने की ज़रूरत ही नहीं है।
निर्मल जी ने ‘कविता’ को ‘भाषा और बिम्बों में डूबने’ से और ‘इतिहास’ को ‘बाहर समय में अपने अनुभवों को परिभाषित करने’ से समीकृत किया है। इससे कुछ भ्रम फैल सकता है। मैं एक उदाहरण सामने रखकर बात करता हूँ। नैषधीयचरित में नल की बरात का जो विवरण श्रीहर्ष ने दिया है वह उनके अपने समय की बरात का ही है- रस्मरिवाज़ से लेकर हँसी-ठिठोली तक बारहवीं सदी के भारत से हैं न कि कृतयुग से। इस प्रकार वे ‘समकालीन’ हैं किन्तु ये ही ‘समकालीन’ श्रीहर्ष जब यह बताना चाहते हैं कि नल के राज्य में कलियुग अपने लिए ठौर कैसे ढूँढ रहा है तो जिन याज्ञिक प्रक्रियाओं का उल्लेख करते हैं वे सब ज्ञात इतिहास में केवल पुस्तकस्थ हैं और प्रायः कलिवज्र्य हैं। ‘समय’ की यह अवधारणा एक अप्रत्यावर्तनीय गति से चलते ‘इतिहास’ की अवधारणा से संगत नहीं है।
हमें शायद साहित्य के संसार में ‘समय’ को एक ऐसे कक्ष के रूप में सोचना पड़ेगा जिसमें ‘भूत’, ‘वर्तमान’, और ‘भविष्य’ दरवाज़ों के नाम हैं- हम अपनी सुविधा और आवश्यकता के अनुसार किसी भी दरवाजे़ से आ जा सकें, हमें यहाँ तक स्वतन्त्रता हो कि हम भविष्य में साँस खींचें और उसे भूत में छोड़ें। यही समय- न कि इतिहास- साहित्य की सर्जना के लिए समीचीन है।

टिप्पणियाँ और सन्दर्भ
1. यद्यपि मेरे वर्तमान प्रयोजन के लिए इससे अधिक गहराई में जाना आवश्यक नहीं है, मैं समझता हूँ कि आचार्यों ने जिन उदाहरणों के द्वारा इन शब्दों का आशय स्पष्ट किया है उनपर एक नज़र डाल लेना हितकर ही होगा। छान्दोग्योपनिषत/ (8-7-1) का अंश है: ‘य आत्मापहतपाप्मा विज़रो विमृत्युर्विशोको विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः सोऽन्वेष्टव्यः स विजिज्ञासितव्यः... (= यह आत्मा पापहीन है जहा और मृत्यु से रहित है, क्षुधा और पिपासा इसमें नहीं हैं, यह ‘सत्यकाम’ है अर्थात/ इसकी सारी कामनाएँ पूर्ण होती हैं, यह ‘सत्यसंकल्प’ है अर्थात् इसके सभी संकल्प सिद्ध होते हैं; इसे खोजना चाहिए, इसे जानना चाहिए)’। इसमें से ‘इसे खोजना चाहिए, इसे जानना चाहिए’ तो ‘विधि’ है क्योंकि वह करणीय बताता है और शेष अंश ‘उपन्यास’ है क्योंकि वह (सगुण) ब्रह्म के उन गुणों का निर्देश करता है जिनकी जानकारी अन्य श्रुतिवाक्यों से हमें है। इसी के साथ यह जानने की बात है कि जब इस (सगुण) ब्रह्म को ‘सर्वज्ञ’, ‘सर्वेश्वर’ आदि कहते हैं, तब वह ‘व्यपदेश’ है, अर्थात् उसका प्रतिपादन करने की आवश्यकता नहीं, वह लोकव्यवहार में स्वीकृत है, लोग उस (सगुण) ब्रह्म को ऐसा मानते ही हैं।
दूर भटक जाने का कुछ डर लिए हुए भी मैं यह जोड़ना उपयोगी मानता हूँ कि ब्रह्मसूत्र में यहाँ जो चर्चा चल रही है वह यह है कि मुक्ति के बाद जब जीव ब्रह्म में लीन होता है तो वह किस ब्रह्म में लीन होता है, सगुण ब्रह्म में जिसमें पापहीनता जैसे गुण हैं या निर्गुण ब्रह्म में जो केवल चेतना मात्र है और जिसमें कोई गुणधर्म नहीं होता। श्रुतिवाक्य ब्रह्म को सगुण भी बताते हैं और निर्गुण भी, अतः प्रश्न का औचित्य है। चर्चा के अधीन सूत्र में आचार्य जैमिनि का मत बताया गया है जिसके अनुसार मुक्त पुरुष सगुण ब्रह्म में लीन होता है। अगले सूत्र में सूत्रकार बादरायण ने आचार्य औडुलोमि का मत उद्धृत किया है जिसके अनुसार मुक्त पुरुष का लय निर्गुण ब्रह्म में होता है। उससे अगले सूत्र में सूत्रकार ने अपना मत प्रकट किया है जिसके अनुसार दोनों आचार्य सच कह रहे हैं। भगवत्पाद ने इस अन्तिम मत का व्याख्यान यह किया है कि एक ही ब्रह्म व्यवहारतः सगुण और परमार्थतः निर्गुण है और इस प्रकार आचार्य जैमिनि तथा आचार्य औडुलोमि के मतों में वास्तविक विरोध नहीं है, दोनों आचार्य एक ही बात कह रहे हैं, केवल उनके शब्द अलग हैं। इस व्याख्यान से हिन्दी आलोचना में अतिशय प्रतिष्ठा-प्राप्त ‘सगुण बनाम निर्गुण’ के मुक़दमे के विषय में भगवत्पाद का पक्ष समझने में भी सहायता मिलती है।
2. क्वचिदल्पेन रामेण हतरावणराक्षसम्।। रक्षसा रावणेनैव क्वचिद्विहतराघवम्।
योगवासिष्ठ (निर्वाण-प्रकरण, उत्तरार्ध, 86-45, 46-46)
3. सस्मिजगत्प्रस्फुरति दृष्टमौक्तिकहंसवत्। यश्चेदम् यश्च नैवेदम् देवः सदसदात्मकः।।
योगवासिष्ठ (उत्पत्ति-प्रकरण, 9-51)
4. ठमदरंउपद क्पेतंमसप ;1804.1881द्ध जो दो बार इंग्लैण्ड के प्रधान मन्त्री भी रहे।
नाबोकोव का वक्तव्य जिस कविता में है वह पूरी नीचे दी जा रही है:

On Translating Eugene Onegin

by

Vladimir Nabokov

1

What is Translarion ? On a platter

A poet's pale and glaring head,

A parrot's screech, amomkey's chatter,

And profanation of the dead.

The parasites you were so hard on

Are pardoned if I have your pardon,

O, Pushkin, for my stratagem,

I traveled down your secret stem,

And reached the root, and fed upon it;

Then, in a language newly learned,

I grew another stalk and turned

Your stanza patterned on a sonnet,

Into my honest roadside prose––

All thorn, but cousin to your rose.

2

Reflected words can only shiver

Like elongated lights that twist

in the black mirror of a river

Between the city and the mist.

Elusive Pushkin! Persevering,

I still pick up Tatiana's earring,

Still travel with your sullen rake.

I find another man's mistake,

I analyze alliterations

That grace your feasts and havnt the great

Fourth stanza of your Canto Eight.

This is my task–– a poet's patience

And scholastic passion blent :

Dove-droppings on your monument.

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