24-Oct-2020 12:00 AM
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‘भक्ति’ पर चल रही इस चर्चा के अन्तर्गत प्रथम लेख में भास्कर राय का नाम उनके द्वारा समर्थित ‘परिणाम-वाद’ के उल्लेख के साथ आ चुका है; उस प्रसंग पर कुछ विस्तार से आगे भी बात करनी पड़ेगी, यहाँ उनके द्वारा ‘भक्ति’ पर कही गयी दो-एक बातों की ओर ध्यान आकृष्ट करना अभीष्ट है, जो सामान्यतया ‘भक्ति’ पर किये जाने वाले पुनरीक्षणों में अनुपस्थित रहती हैं।
1 ‘भक्ति’ = ‘लक्षणा’
ललिता-सहस्रनाम पर अपनी व्याख्या में ‘भक्ति-गम्या’ (= भक्ति से जानी जा सकने वाली) नाम पर चर्चा करते हुए भास्कर राय ने ‘भक्ति’ का वह अर्थ तो लिया ही है जो प्रचलित है और जिस पर हम बात कर रहे हैं किन्तु उन्होंने ‘भक्ति’ का एक अर्थ ‘लक्षणा’ भी लिया है और इस प्रकार भक्ति-विचार की मुख्य ध्ाारा से एक सुरंग के रास्ते एक ऐसे प्रवाह में पहुँच गये हैं जो पड़ोस का भले हो, अपनी तरंगायति में अलग है।
‘लक्षणा’ एक शब्द-शक्ति का नाम है। ‘भक्ति-गम्या’ नाम पर चर्चा करते हुए भास्कर राय ने जब ‘भक्ति’ का अर्थ ‘लक्षणा’ लिया है तब उन्होंने इस अर्थ की वैध्ाता के लिए प्रमाण के रूप में महर्षि जैमिनि के मीमांसा-सूत्र से एक सूत्र उद्धृत किया है जिसमें ‘भक्ति’ का प्रयोग ‘लक्षणा’ के लिए किया गया है और एक स्व-रचित स्तोत्र से एक श्लोक भी उद्धृत किया जिसमें यही किया गया है। इन दो प्रमाणों के अतिरिक्त हम एक और प्रमाण की ओर ध्यान दे सकते हैं। भारतीय काव्यशास्त्र में थोड़ी-बहुत रुचि रखने वालों के लिए ध्वन्यालोक और उसके रचयिता आनन्दवधर््ान का नाम अपरिचित नहीं है जो काव्य-शास्त्र में ध्वनि-सिद्धान्त के प्रतिष्ठापक के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होंने भी अपने ग्रन्थ का प्रारम्भ करते हुए (काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति ... वाले श्लोक में) ‘लक्षणा’ के लिए ‘भक्ति’ का ही प्रयोग किया है। कुल मिलाकर यह कि ‘भक्ति’ का एक अर्थ ‘लक्षणा’ भी प्राचीन काल से चला आ रहा है और ‘भक्ति से जानी जाने वाली परा-देवता’ का अर्थ ‘लक्षणा’ नाम की शब्द-शक्ति के द्वारा जानी जा सकने वाली ‘परा-देवता’ भी है।
1.1 महावाक्य का अर्थ
‘लक्षणा से जानी जाने वाली परा-देवता’ कहने का तात्पर्य यह है कि ‘तत्वमसि (वह ब्रह्म तुम ही हो)’ जैसे महावाक्यों का जो ब्रह्म और जीव की एकता स्थापित करने वाला अर्थ हम समझते हैं, वह जिस शब्द-शक्ति के द्वारा समझा जाता है, उसका नाम ‘लक्षणा’ है; यह ज्ञान ही ब्रह्म कहलाता है और इस प्रकार वह परा-देवता ब्रह्म ही है।
यह शांकर अद्वैत का साम्प्रदायिक सिद्धान्त है। इसकी प्रक्रिया इस प्रकार हैः महावाक्य का सीध्ाा-सीध्ाा अर्थ असंगत है क्योंकि ‘तत् (= वह)’ का अर्थ ‘ब्रह्म’ है जो नित्य है और ‘त्वम् (= तुम)’ का अर्थ ‘जीव’ है जो अ-नित्य है, इन दोनों की एकता हो ही नहीं सकती। तब हम इसका अर्थ कैसे निकालते हैं? वैसे ही जैसे हम जिस सूट पहने हुए देवदत्त से दिन के समय दफ़्तर में मिले थे, उसे कुर्ता-पायजामा पहने हुए शाम के समय बाज़ार में देखकर पहचान लेते हैं कि ‘यह वही देवदत्त है’, अर्थात् हम ‘दफ़्तर में’, ‘दिन के समय’, ‘सूट पहने हुए’ जैसी विशेषताओं का ‘उस देवदत्त’ में से परित्याग करते हैं और ‘बाज़ार में’, ‘शाम के समय’, ‘कुर्ता-पायजामा पहने हुए’ जैसी विशेषताओं का ‘इस देवदत्त’ में से; इसके बाद जो बचता है वह केवल देवदत्त है जिसका ज्ञान हमें पहले हुआ था और अब पुनः हुआ है। इसी प्रकार ‘तत् (= वह)’ का वाच्य अर्थ ‘माया-विशिष्ट ब्रह्म-चैतन्य’, अर्थात् ‘ईश्वर’ है जो संसार का कर्ता आदि है और ‘त्वम् (= तुम)’ का वाच्य अर्थ ‘अन्तःकरण-विशिष्ट ब्रह्म-चैतन्य’ अर्थात् ‘जीव’ है जो संसारी है; इन दोनों में से क्रमशः ‘माया-विशिष्ट’ और ‘अन्तःकरण-विशिष्ट’ निकाल देने पर दोनों का लक्ष्यार्थ ‘ब्रह्म-चैतन्य’1 है, उसी के ऐक्य को प्रतिपादित किया गया है। इस ‘पहचान’ या ‘पुनः ज्ञान’ को ‘प्रत्यभिज्ञा’ कहते हैं (जिस पर काश्मीर शैव दर्शन ने भी शांकर अद्वैत के पड़ोस में अपना सिद्धान्त-सौध्ा खड़ा किया है)।
1.1.1 टिप्पन
पहली नज़र में यह व्याख्या तुरन्त विश्वसनीय लगती है किन्तु इस पर कुछ आपत्तियाँ की गयी हैं और उनके समाध्ाान भी प्रस्तुत किये गये हैं। हम यहाँ उनके विस्तार में नहीं जायेंगे; आपत्तियों में से केवल एक, और उस आपत्ति के अनेक समाध्ाानों में से केवल एक, को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर देते हैं ताकि उन शास्त्रार्थ-चर्चाओं के स्वरूप की कुछ झलक मिल सके जिनके आध्ाार पर कलह-प्रिय आध्ाुनिक विद्वानों द्वारा यह कहा जाता है कि सनातन हिन्दू विश्वास में अनेक ‘विभाजन थे।
आपत्ति यह है कि यदि हम दोनों से लक्ष्यार्थ ‘ब्रह्म-चैतन्य’ लेते हैं तो जिस वाक्य की प्राप्ति होती है वह है ‘ब्रह्म-चैतन्य ब्रह्म-चैतन्य है’, जो ‘घड़ा घड़ा है’ जैसे वाक्य की तरह ही सूचना-हीन है। समाध्ाान यह है कि ‘तत् (= वह)’ का लक्ष्यार्थ ‘मायोपहित ब्रह्म-चैतन्य’ है और ‘त्वम् (= तुम)’ का लक्ष्यार्थ ‘अन्तःकरणोपहित ब्रह्म-चैतन्य’ है, इन दोनों के परस्पर भिन्न होने के नाते लक्ष्यार्थ ‘घड़ा घड़ा है’ जैसे वाक्य की तरह सूचना-हीन नहीं रह गया। अब ‘मायोपहित ब्रह्म-चैतन्य’ और ‘अन्तःकरणोपहित ब्रह्म-चैतन्य’ परमार्थतः केवल ‘ब्रह्म-चैतन्य’ को बताते हैं अतः परमार्थ यह निकलता है कि ब्रह्म-चैतन्य एक ही है; यही प्रतिपादित करना था।
1. ‘ब्रह्म-चैतन्य’ से तात्पर्य ‘ब्रह्म’ का ही है, ‘चैतन्य’ केवल इसलिए जोड़ते हैं कि यह स्पष्ट रहे कि ब्रह्म चेतन है, जड़ नहीं।
समाध्ाान को ठीक-ठीक समझने के लिए हमें उन पारिभाषिक शब्दों पर ध्यान देना होगा जो अभी-अभी प्रयोग में आये हैं। ‘करण’ का अर्थ है ‘इन्द्रिय’ और इस प्रकार ‘अन्तःकरण’ का अर्थ है भीतरी इन्द्रियाँ। ये सामान्यतः चार मानी जाती हैंः (1) मन, जो संकल्प-विकल्प करता है, (2) बुद्धि, जो निश्चय करती है, (3) चित्त, जो चिन्तन करता है, और (4) अहंकार, जो ‘मैं’ का भाव जगाता है। (इनके अतिरिक्त बाहरी इन्द्रियाँ दस है; इनके अन्तर्गत आँख, कान जैसी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और हाथ, पाँव जैसी पाँच कर्मेन्द्रियाँ आती हैं; इस प्रकार कुल मिलाकर चैदह इन्द्रियाँ होती हैं।)
इस चर्चा के भीतर प्रथम लेख में कहा गया था कि ‘उपाध्ाि’ और ‘विशेषण’ में अन्तर की आवश्यकता आगे पड़ेगी। वह आवश्यकता अब आ पड़ी है। प्रथम लेख में एक उदाहरण द्वारा इस अन्तर को स्पष्ट किया गया थाः जब हम कहते हैं कि ‘नीली कमीज़ वाला दिखायी पड़ा’ तो ‘नीली कमीज़’ विशेषण है क्योंकि ‘नीली कमीज़’ दिखायी पड़ने में शामिल है जबकि ‘नीली कमीज़ वाला बोला’ में ‘नीली कमीज़’ उपाध्ाि है क्योंकि ‘नीली कमीज़’ बोलने में शामिल नहीं है। इस प्रकार जिस समय हम ‘माया-विशिष्ट ब्रह्म-चैतन्य’ के रूप में ईश्वर को बताते हैं उस समय हमारा तात्पर्य उस ईश्वर से है जो संसार का कर्ता आदि है क्योंकि सृष्टि आदि में शुद्ध, अर्थात् सत्त्व-गुण प्रध्ाान, माया शामिल है जबकि जिस समय हम ‘मायोपहित (= माया की उपाध्ाि से युक्त) ब्रह्म-चैतन्य’ के रूप में ईश्वर को बताते हैं उस समय हमारा तात्पर्य उस ईश्वर से है जो माया में वैसे ही प्रतिबिम्बित है जैसे सूर्य जल में प्रतिबिम्बित है, अर्थात् जिस प्रकार सूर्य जल में प्रतिबिम्बित होकर भी उससे असम्पृक्त रहता है और जल सूखने पर प्रतिबिम्ब का विलोपन सूर्य में हो जाता है, उसी प्रकार यह मायोपहित ब्रह्म-चैतन्य माया से असम्पृक्त है और माया की समाप्ति पर उसका विलोपन ब्रह्म-चैतन्य में हो जाता है। ठीक ऐसा ही ‘माया’ की जगह ‘अन्तःकरण’ रखने से होता हैः जीव जब ‘अन्तःकरण-विशिट ब्रह्म-चैतन्य’ है तब वह अन्तःकरण की काम-क्रोध्ा आदि वृत्तियों से प्रभावित होने वाला संसारी है और अपने को कर्ता, भोक्ता आदि समझता है, और जब वह ‘अन्तःकरणोपहित ब्रह्म-चैतन्य’ है तब वह अन्तःकरण में प्रतिबिम्बित है जो अशुद्ध, अर्थात् रजोगुण तथा तमोगुण प्रध्ाान, माया का परिणाम है; अब यह मानने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं है कि यद्यपि सूर्य का निर्मल जल में प्रतिबिम्ब, और मलिन जल में प्रतिबिम्ब भिन्न हैं क्योंकि उनकी उपाध्ाियाँ (निर्मल जल और मलिन जल) भिन्न हैं, परमार्थतः सूर्य एक ही है। ठीक इसी प्रकार न केवल ‘तत् (= वह)’ का वाच्यार्थ ‘माया-विशिष्ट ब्रह्म-चैतन्य’ और ‘त्वम् (= तुम)’ का वाच्यार्थ ‘अन्तःकरण विशिष्ट ब्रह्म-चैतन्य’ परस्पर भिन्न हैं, अपितु उनके लक्ष्यार्थ ‘मायोपहित ब्रह्म-चैतन्य’ तथा ‘अन्तःकरणोपहित ब्रह्म-चैतन्य’ भी परस्पर भिन्न हैं क्योंकि उनकी उपाध्ाियाँ (माया और अन्तःकरण) भिन्न हैं; परमार्थतः ब्रह्म-चैतन्य एक ही है और यही इस महावाक्य का अर्थ है।
1.2 शक्यार्थ और लक्ष्यार्थ
आगे बढ़ने के लिए कुछ पारिभाषिक शब्दावली सहायक होगी। यह शब्दावली और आगे आ रहा संक्षिप्त विवेचन अद्वैत-वाद के ग्रन्थों के अनुसार हैं; साहित्य-शास्त्र में उपलब्ध्ा प्रासंगिक चर्चा की शब्दावली कुछ भिन्न है।
शब्द की जिस शक्ति से अर्थ का बोध्ा होता है (और जिसे हमने ऊपर ‘शब्द-शक्ति’ कहा है) उसे ‘वृत्ति’ कहते हैं और जो वृत्ति शब्द का ‘सीध्ाा-सादा’ प्रथम उपस्थित अर्थ बताती है उसे ‘शक्ति’ कहते हैं (इसी को ‘अभिध्ाा’ भी कहते हैं); यह ‘सीध्ाा-सादा’ अर्थ ‘शक्यार्थ’ कहलाता है (इसी को ‘वाच्यार्थ’ भी कहते हैं)।
‘लक्ष्यार्थ’ वहाँ उपस्थित होता है जहाँ शक्यार्थ में अनुपपत्ति हो; उदाहरण के लिए ‘गंगायां घोषः (= गाँव गंगा में है)’ में शक्यार्थ अनुपपन्न है क्योंकि गंगा का शक्यार्थ गंगा-प्रवाह है जिसमें गाँव नहीं बस सकता। अतः हमें ‘शक्य का सम्बन्ध्ाी अर्थ’ लेना होगा जो यहाँ उपपन्न हो। यह ‘शक्यार्थ का सम्बन्ध्ाी अर्थ’ वक्ता के तात्पर्य से निधर््ाारित होता है। गंगा-प्रवाह के सम्बन्ध्ाी अर्थ ‘मछली’ आदि भी हैं जो यहाँ पर उपपन्न नहीं है। यहाँ पर वक्ता का तात्पर्य ‘गंगा के किनारे’ से है जो उपपन्न है। यह अर्थ ‘गंगा’ शब्द की (अभिध्ाा) शक्ति से प्राप्त नहीं हुआ और इसलिए ‘शक्य’ नहीं है किन्तु वह शक्य अर्थ अपने से सम्बन्ध्ाित ‘गंगा-तीर’ को लक्षित करता है अतः यह ‘गंगा-तीर’ अर्थ ‘लक्ष्य’ है और शब्द की जिस वृत्ति द्वारा यह प्राप्त हुआ वह ‘लक्षणा’ कहलायेगी।
यहाँ ‘गंगा’ का शक्यार्थ ‘गंगा-प्रवाह’ छोड़ दिया गया है इसलिए यहाँ ‘जहत्-लक्षणा’ है। जब कहा जाय कि ‘काकेभ्यो दध्ाि रक्ष्यताम् (= कौओं से दही को बचाना)’ तो ‘कौआ’ का शक्यार्थ तो केवल ‘कौआ’ ही है किन्तु लक्ष्यार्थ ‘कौआ, बिल्ली आदि’ है; इस लक्ष्यार्थ में ‘कोआ’ का शक्यार्थ छोड़ा नहीं गया अतः यहाँ ‘अ-जहत्-लक्षणा’ है। जब हम ‘तत् त्वम् असि’ का अर्थ यह करते हैं कि ‘वह तुम ही हो’, तब हम ‘वह’ के शक्यार्थ ‘मायोपाध्ािक माया-विशिष्ट ब्रह्म-चैतन्य’ में से ‘माया-विशिष्ट’ छोड़ रहे हैं और ‘मायोपध्ािक ब्रह्म-चैतन्य’ नहीं छोड़ रहे हैं। इसी प्रकार ‘तुम’ के शक्यार्थ ‘अन्तःकरणोपाध्ािक अन्तःकरण-विशिष्ट ब्रह्म-चैतन्य’ में से हम ‘अन्तःकरण-विशिष्ट’ छोड़ रहे हैं किन्तु ‘अन्तःकरणोपाध्ािक ब्रह्म-चैतन्य’ नहीं छोड़ रहे हैं। इस प्रकार शक्यार्थों में से कुछ छोड़ते और कुछ न छोड़ते हुए इस महावाक्य का लक्ष्यार्थ ‘मायोपाध्ािक ब्रह्म-चैतन्य और अन्तःकरणोपाध्ािक ब्रह्म-चैतन्य परमार्थतः एक ही हैं’ प्राप्त होता है, अतः महावाक्य का लक्ष्यार्थ ‘जहत्-अजहत्-लक्षणा’ द्वारा प्राप्त होता है।
1.2.1 टिप्पन
शब्द की वह कौन सी ताकत है जो हमें अर्थ का बोध्ा कराती है, इसका बहुत विस्तृत विचार हमारे आचार्यों ने किया है और उसके विस्तार में जाने के लिए एक बृहदाकार ग्रन्थ की ही आवश्यकता पड़ेगी। हिन्दीभाषी जिज्ञासुओं को कुछ सन्तोष आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी की पुस्तक लक्षणा और उसका हिन्दी साहित्य में प्रसार से हो सकता है जो काशी नागरी प्रचारिणी सभा से छपी थी। दुर्भाग्यवश इस पुस्तक को छपे हुए पचास वर्ष से ऊपर हो गये हैं और समुचित प्रसार के अभाव के नाते यह अब दुर्लभ हो चली है। नमूने के तौर पर एकाध्ा ऊहापोह नीचे दिये जा रहे हैं।
‘गंगा में गाँव है’ कहने का क्या अर्थ है! वक्ता का तात्पर्य इतना ही तो नहीं है कि ‘गाँव गंगा के किनारे बसा हुआ है’, वह वस्तुतः यह बताना चाहता है कि ‘यह गाँव रहने के लिए एक पवित्र स्थान है’; यह तात्पर्य कैसे निकलेगा? साहित्य-शास्त्री यह कहते हैं कि एक वृत्ति से अनेक अर्थ नहीं निकलते- शक्यार्थ इतना ही है कि ‘गंगा में गाँव है’, इसके आगे ‘गाँव गंगा के किनारे है’ का अर्थ लक्षणा-वृत्ति से निकलता है जो इतना बताकर विरत हो जाती है, और इसके आगे ‘यह गाँव एक पवित्र स्थान है’ का अर्थ ‘व्यंग्य अर्थ’ है जो एक तीसरी ही वृत्ति से निकलेगा जिसे ‘व्यंजना’ कहते हैं। भारतीय साहित्य-शास्त्र’ में ध्वनि-सिद्धान्त ने कुछ आचार्यों की असहमति के बावजूद अपना वर्चस्व बनाये रखा है और फलतः यह मान्यता लगभग सर्वस्वीकृत-सी है कि काव्यार्थ के लिए व्यंजना अनिवार्य है। नैयायिक इस वृत्ति को नहीं स्वीकार करते और वैयाकरणों में नागेश भट्ट को छोड़कर प्रायः सबने इस वृत्ति का अस्वीकार ही किया है। अद्वैत-सिद्धान्त में इसके स्वीकार या अस्वीकार का आग्रह नहीं है।
यहाँ शक्यार्थ की ‘अनुपपत्ति’ पर भी विचार करना चाहिए। मान लीजिए कोई नौजवान किसी ऐसे व्यक्ति के यहाँ भोजन करने जा रहा है जो उसके पिता का शत्रु है और पिता रुष्ट होकर अपने उस नौजवान बेटे से कहता है, ‘ठीक है, ज़हर खा ले’ तो यहाँ पर शक्यार्थ में वैसी अनुपपत्ति नहीं है जैसी ‘गंगा में गाँव है’ में थी क्योंकि गंगा में गाँव होना असम्भव है जबकि विष का खाना असम्भव नहीं है; दूसरे शब्दों में, ‘गंगा में गाँव है’ में ‘अन्वयानुपपत्ति’ थी जो ‘ज़हर खा ले’ में नहीं है; यहाँ पिता का तात्पर्य है, ‘उसके यहाँ भोजन मत कर’। इस प्रकार शक्यार्थ की अनुपपत्ति वक्त के तात्पर्य से निधर््ाारित होती है, और हमें ‘तात्पर्यानुपपत्ति’ के आध्ाार पर ही लक्ष्यार्थ की ओर बढ़ना चाहिए। यह ‘तात्पर्यानुपपत्ति’ ‘गंगा में गाँव है’ वाले वाक्य में भी है ही। कई आचार्य तात्पर्यानुपपत्ति को आवश्यक मानते हैं, कुछ अन्य आचार्य यह कहते हैं कि अन्वयानुपपत्ति पर्याप्त है।
‘द्वि-रेफ’ शब्द पर बहुत विचार हुआ है। इसका शक्यार्थ है ‘वह शब्द जिसमें दो र-कार हों’ किन्तु यद्यपि ‘शर्करा’ में भी दो र-कार हैं, ‘द्वि-रेफ’ कहने से ‘भ्रमर’ ही समझा जाता है। कुछ लोग यहाँ ‘रूढ़-लक्षणा’ मानते हैं, कुछ अन्य यह कहते हैं कि इसे ही शक्यार्थ मान लेना चाहिए, कुछ अन्य का कहना है कि समास होने पर भी एक नवीन अर्थ निकल आता है। जैसा पहले ही कहा गया है, सभी तर्को को समेटने के लिए एक पूरा ग्रन्थ ही चाहिए।
1.3 ‘लक्ष्यार्था, लक्षणागम्या’
इस प्रकार भास्कर राय के अनुसार ‘भक्ति-गम्या’ का अर्थ हुआ ‘लक्षणा-गम्या’, वह परा देवता जो भक्ति से अर्थात् लक्षणा से जानी जाती है। इसके समर्थन में उन्होंने ललिताम्बात्रिशती से ‘लक्ष्यार्था, लक्षणागम्या’ उद्धृत किया है, अर्थात् उनका यह कहना है कि इस ग्रन्थ में दिये गये देवी के तीन सौ नामों में से दो नाम ‘लक्ष्यार्था’ तथा ‘लक्षणागम्या’ हैं जो उनके कथन के प्रमाण के रूप में माने जा सकते है।
‘भक्ति = लक्षणा’ के समीकरण को ‘भक्ति-सिद्धान्त = अद्वैत-सिद्धान्त’ के समीकरण में बदलने का यह प्रयास चमत्कारी है और इसकी तार्किकता सुसंगत है किन्तु जिज्ञासु एक बात से चैंक सकता है- ललिताम्बात्रिशती पर भगवत्पाद का एक भाष्य उपलब्ध्ा है और उसमें ‘लक्षणागम्या’ को ‘लक्षणा-गम्या = लक्षणा से जानी जाने वाली’ नहीं, अपितु ‘लक्षणा-अगम्या = लक्षणा से न जानी जा सकने वाली’ के रूप में समझा गया है। यह तत्काल बताना आवश्यक है कि इससे यह न समझना चाहिए कि भगवत्पाद को यह सिद्धान्त स्वीकार नहीं था कि महावाक्य का अर्थ जहत्-अजहत्-लक्षणा से प्राप्त होता है क्योंकि यहीं पर उन्होंने यह भी कहा है कि वेदान्त-मत में इसे स्वीकार करना अनिवार्य है। इसके ठीक पहले के नाम ‘लक्ष्यार्था’ का अर्थ भगवत्पाद ने अपने भाष्य में यही किया है कि देवी महावाक्य का अर्थ है जो जहत्-अजहत्-लक्षणा से प्राप्त होता है। इस प्रकार भगवत्पाद ब्रह्म-चैतन्य को ‘लक्षणा से गम्य’ और ‘लक्षणा से अ-गम्य’ दोनों ही कह रहे हैं और यह एक अ-समंजस की स्थिति है जिससे उबरना ‘भक्ति’ को समझने में भी सहायक होगा।
ब्रह्म को लक्षणा से कैसे जाना जा सकता है इसे अभी तक की चर्चा में स्पष्ट किया जा चुका है, अब यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि यह क्यों कहा जाता है कि ब्रह्म को लक्षणा से नहीं समझा जा सकता। भगवत्पाद ने इसे स्पष्ट करते हुए यह कहा है कि ब्रह्मज्ञान नित्य है और इसलिए लक्षणा (या अन्य किसी भी शब्द-वृत्ति) से जन्य नहीं है। इसी बात को दूसरी तरह से समझाते हुए उन्होंने कहा है कि ब्रह्म स्वयम्प्रकाश है और किसी से प्रकाश्य नहीं है इसलिए उसे लक्षणा से गो-चर (= नज़र में आया हुआ) नहीं कह सकते। यह तर्क तो मन में बैठता है किन्तु फिर ‘लक्ष्यार्था’ का स्वीकार कैसे संगत होगा?
इसको समझने की कोशिश में हम आश्चर्यवत् ... (भगवद्गीता 2-29) पर मध्ाुसूदन सरस्वती जी की टीका के महामहोपाध्याय हरिहरकृपालु द्विवेदी द्वारा किये गये हिन्दी अनुवाद (जो स्वयम् एक विस्तृत व्याख्या के रूप में है) का सहारा ले सकते हैं।2 प्रासंगिक चर्चा यह हैः ब्रह्म को ‘असंग’ कहा गया है अतः उसमें कोई सम्बन्ध्ा नहीं हो सकता और इसलिए वह किसी शब्द का वाच्य (= शक्य) नहीं है क्योंकि किसी भी शब्द के वाच्य में कोई न कोई ध्ार्म (जाति, गुण आदि) अवश्य रहता है और ब्रह्म सभी ध्ार्मों से रहित है। जब शक्यार्थ ही नहीं है तो लक्ष्यार्थ कैसे होगा जो शक्यार्थ का सम्बन्ध्ाी है? फिर भी (सर्वज्ञत्वादि विशेषताओं से) विशिष्ट ‘तत्’ और (अल्पज्ञत्वादि विशेषताओं से) विशिष्ट ‘त्वम्’ का ब्रह्म में काल्पनिक सम्बन्ध्ा मानकर जहत्-अजहत्-लक्षणा द्वारा ब्रह्म-ज्ञान होता है, यह आश्चर्य है। अब प्रश्न यह है कि यदि ब्रह्म को ‘असंग’ कहा गया है जिसके नाते वह शक्यार्थ नहीं है तो फिर लक्ष्यार्थ भी वह नहीं हो सकता। इस आपत्ति को स्वीकार किया गया है और इसका समाध्ाान यह कहकर भी नहीं कर सकते कि ‘तात्पर्य’ से इस वाक्य का अर्थबोध्ा होगा क्योंकि जब किसी भी वृत्ति का संसर्ग ब्रह्म में नहीं है तो महावाक्य से ब्रह्मज्ञान कैसे होता है यह समझने के लिए अभिध्ाा, लक्षणा, व्यंजना, तात्पर्य आदि वृत्तियों की छानबीन का कोई उपयोग नहीं है।
2. इस श्लोक के तात्पर्य पर मैंने एक लेख लिखा था जो सदानीरा पत्रिका में प्रकाशित है।
इसलिए मध्ाुसूदन सरस्वती जी ने सुरेश्वराचार्य जी के मत को प्रमाण माना है और उनके बृहदारण्यकभाष्य-वार्तिक से कुछ श्लोक उद्धृत किये हैं। इस मत का सारांश यह हैः महावाक्य से ब्रह्म-ज्ञान वैसे ही होता है जैसे सोया हुआ देवदत्त ‘देवदत्त, उठ’ सुनकर उठ जाता है। ज़ाहिर है कि जब देवदत्त सोया हुआ है तो वह इस उद्बोध्ान-वाक्य का शक्यार्थ, लक्ष्यार्थ आदि नहीं समझता, फिर भी जाग जाता है। ब्रह्म-ज्ञान की तुलनीयता ‘गो’ का अर्थ ‘गाय-पने की विशेषता वाला प्राणी’ जानने से नहीं है, उसकी तुलना सोये हुए व्यक्ति के जागने से है।
इस प्रकार शब्द में अर्थ बताने की शक्ति वस्तुतः अ-चिन्त्य है, अभिध्ाा, लक्षणा आदि वृत्तियों के बिना भी बोध्ा हो जाता है।
परा देवता को ‘लक्षणा-अगम्या’ इसी अर्थ में कहा जायेगा। अब यह प्रश्न स्वाभाविक है कि फिर परा देवता को ‘लक्षणा-गम्या’ कैसे कह सकते हैं? इसका एक ही समाध्ाान हैः मध्यमाध्ािकारी के लिए परा देवता के ‘लक्षणा-गम्या’ होने का उपदेश किया जाता है और उत्तमाध्ािकारी के लिए उसी परा देवता के ‘लक्षणा-अगम्या’ होने का। यहाँ यह स्मरण करना चाहिए कि जिसके लिए निर्गुण ब्रह्म की अवध्ाारणा तत्काल ग्राह्य है उसे ‘उत्तमाध्ािकारी’ इस चर्चा के प्रथम लेख में कहा गया था कि जिनके लिए निर्विशेष (= निर्गुण) ब्रह्म का उपदेश तत्काल ग्राह्य नहीं है उनके लिए पहले स-विशेष (= स-गुण) ब्रह्म का उपदेश किया जाता है; ये ही मध्यमाध्ािकारी हैं। निर्गुण ब्रह्म का जिसे तत्काल उपदेश किया जा सकता है, वह उत्तमाध्ािकारी है। इसी नाते लक्षणा-गम्या परा देता को ऊपर ‘मायोपाध्ािक ब्रह्म-चैतन्य’ कहा गया था, ‘शुद्ध ब्रह्म-चैतन्य’ नहीं। यह सुसंगत है क्योंकि शब्दार्थ-सम्बन्ध्ा बताने वाली अभिध्ाा, लक्षणा आदि वृत्तियाँ अन्तःकरण का परिणाम हैं और फलतः जहाँ तक वृत्ति पहुँच सकती है वहाँ तक ब्रह्म-चैतन्य अ-शुद्ध ही रहेगा क्योंकि उसकी अ-संगता खण्डित होगी।
अद्वैत का वास्तविक उपदेश परा देवता के ‘लक्षणा-अगम्या’ होने का ही है, परा देवता के ‘लक्षणा-गम्या’ होने का उपदेश उनके लिए है जो निर्विशेष ब्रह्म की अवध्ाारणा कर पाने में तत्काल सक्षम नहीं हैं। ‘भक्ति = लक्षणा’ कहने से और इस प्रकार ‘भक्ति-गम्या =लक्षणा-गम्या’ स्वीकार करने पर प्रकारान्तर से यह स्थापना पुनः पुष्ट होती है कि भक्ति से सविशेष ब्रह्म की ही प्राप्ति हो सकती है, अर्थात् भक्ति से मोक्ष-लाभ परम्परया होता है, साक्षात् नहीं। अद्वैत की इस मान्यता की ओर इस चर्चा में पहले भी संकेत किया गया हैः भक्ति, अर्थात् उपासना (मानसिक) कर्म है और भक्त इस कर्म से अपना मन शुद्ध करके ज्ञान का अध्ािकारी बन सकता है, ज्ञानी नहीं बन पायेगा।
2 भक्ति = उपासना ?
इस चर्चा का प्रारम्भ हमने ‘भक्ति’ और ‘उपासना’ को समानार्थी मानकर किया था किन्तु भक्ति-मीमांसा के स्वतन्त्र शास्त्र की स्वीकार्यता ने इन दोनों में भेद करना आवश्यक कर दिया। नित्याषोडशिकार्णव पर अपनी लिखी टीका सेतुबन्ध्ा में भास्कर राय ने एवमेषा महाविद्या... (1-125) का व्याख्यान करते हुए इस विषय में यह लिखा है ः
...सा चोपासना मानसक्रियाविशेषरूपा। जीवमुख्यप्राणलिंगान्नेति चेन्नोपासात्रैविध्यादाश्रितत्वादिह तत्योगात् इति ब्रह्मसूत्रादौ तथाव्याख्यादर्शनात्। देवताविषयकोऽनुराग एवोपासनेति केचित्। तत्र भक्तिमानुपासीतेत्यादिविध्ाौ भक्तेरुपासनातो भेदेन निर्देशानुपपत्तेः। अनुरागस्यैव भक्तिपदवाच्यत्वात्। अथातो भक्तिजिज्ञासा, सा परानुरक्तिरीश्वरे इति शाण्डिल्यसूत्रात्। तस्मादनुरागव्यावृत्ता क्रियैवोपासना। सा च द्विविध्ाा-तन्त्रजपरूपा, तद्यन्त्रपूजा च। जप मानसे चेति ध्ाातुपास्मृत्या जपस्य मानसक्रियारूपत्वावगमात्। पूजाया अपि ध्यानादिरूपायास्तथात्वात्। उपचारसमर्पणरूपाया अपि न ममेत्याकारकमानससंकल्पैकरूपत्वात्।...
(जैसा कि जीवमुख्यप्राणलिंगान्नेति चेन्नोपासात्रैविध्यादाश्रितत्वादिह तत्योगात् (ब्रह्मसूत्र 1-1-31) के भगवत्पादकृत भाष्य में बताया गया है, यह ‘उपासना’ एक विशेष मानसी क्रिया ही है। कुछ लोग कहते हैं कि देवता-विषयक अनुराग ही उपासना है। यह स्वीकार्य नहीं है, ‘भक्ति-मान् ही उपासना करे’ जैसे विध्ाि-वाक्यों में ‘उपासना’ और ‘भक्ति’ के निर्देश पृथक् किये गये हैं। ‘भक्ति’ पद से ‘अनुराग’ ही वाच्य होता है, जैसा कि अथातो भक्तिजिज्ञासा, सा परानुरक्तिरीश्वरे (शाण्डिल्य-भक्ति-सूत्र 1-1-1, 2) से प्रमाणित है। इसलिए उपासना की क्रिया को अनुराग से अलग ही समझना चाहिए। उपासना की यह क्रिया दो प्रकार की होती है, एक तो देवी के मन्त्र के जप रूप में और दूसरी देवी के यन्त्र की पूजा के रूप में।
‘जप’ तो अपनी व्युत्पत्ति के अनुसार ही मानसिक क्रिया है। ‘पूजा’ में ध्यान लगाना पड़ता है जो मानसिक क्रिया है। और जो उपासना ध्ाूप, दीप, नैवेद्य आदि द्रव्य-समर्पण से की जाती है, वह भी अन्ततः ‘यह उस देव के लिए है, मेरे लिए नहीं’ का संकल्प लिये जाने के नाते मानसिक क्रिया ही है।)
यह ध्यान रखना चाहिए कि यह नहीं कहा जा रहा है कि बिना भक्ति के देवोपासना की जानी चाहिए, यह कहा जा रहा है कि ‘उपासना’ बिना ‘भक्ति’ के नहीं की जानी चाहिए; ‘भक्ति’ को ‘अनुराग’ का वाचक मानने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि आराध्य में प्रेम के बिना जप, ध्यान, ध्ाूप-दीप-नैवद्य आदि का समर्पण निरर्थक है। इस सिलसिले में एक उदाहरण यह दिया जाता है कि जैसे एक भृत्य का अनुराग उसकी पत्नी में होता है और वह बिना अनुराग के केवल अर्थ-लोभ से अपने स्वामी की सेवा कर सकता है, उसी प्रकार उपासना बिना भक्ति के हो सकती है किन्तु ऐसा होना नहीं चाहिए। यह स्पष्ट है कि मन्तव्य वही है जो ‘मन न रंगाये, रंगाये जोगी कपड़ा’ का मन्तव्य है। चूँकि भास्कर राय का समय अठारहवीं सदी है इसलिए पौर्वापर्य के अनन्य अन्वेषक आध्ाुनिक समालोचक यह कह सकते हैं कि यह बात उन्होंने मध्यकालीन भक्ति-साहित्य से ली किन्तु वस्तुतः भारतीय मन में यह हमेशा असन्दिग्ध्ा रहा है। उदाहरण के लिए योगवासिष्ठ (निर्वाण-प्रकरण, पूर्वाधर््ा, 34-50) में आया हैः पूजासु पूजकसुपूजनपूज्यरूपम् किचिंन्नकिचिंदिव चित्तपदैकमूर्तिः (= पूजा में पूजक, पूज्य और पूजन यह सब कुछ भी नहीं है, केवल मनःकल्पना मात्र हैं; अर्थात् मन ही प्रध्ाान है)।
शाण्डिल्यभक्तिसूत्र के जिन सूत्रों का हवाला भास्कर राय ने दिया है उनकी भक्तिचन्द्रिका व्याख्या यह कहती है कि ‘अनु-राग’ में ‘अनु’ का तात्पर्य है ‘भगवान् का गुणानुवाद सुनने के अनन्तर’, अर्थात् जैसे लोक में किसी की प्रशंसा सुनकर उसके प्रति प्रेम उत्पन्न होता है उसी प्रकार ईश्वर की प्रशंसा सुनकर ही ईश्वर के प्रति प्रेम उत्पन्न होता है; यही अनु-राग भक्ति है। इस कथन की तुलना अद्वैत की इस साम्प्रदायिक मान्यता से करनी चाहिए कि महावाक्य के श्रवण के बाद (मनन, और फिर निदिध्यासन के अनन्तर) ब्रह्म-ज्ञान होता है।
‘राग’ अपने विलोम ‘द्वेष’ की ही तरह अन्तःकरण की एक प्रवृत्ति है, ‘काम’, ‘क्रोध्ा’, ‘लोभ’ आदि भी अन्तःकरण की प्रवृत्तियाँ हैं। इस चर्चा के अन्तर्गत प्रकाशित द्वितीय लेख अनेकध्ाा भक्ति में हम देख चुके हैं कि अन्तःकरण की इन प्रवृत्तियों में ही भक्ति का मूल खोजा गया है। सिद्धान्त के स्तर पर ‘भक्ति’ की इस परिभाषा को आत्मसात् करने में अद्वैत-वादियों को कोई कठिनाई नहीं है। बृहदारण्यकोपनिषद् (4-5-6) में याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को उपदेश देते हुए कहा है कि जो कुछ संसार में प्रिय होता है, अपने लिए ही प्रिय होता है; तात्पर्य यह कि मनुष्य को संसार में अगर किसी से परा अनुरक्ति है तो वह स्वयं से ही है और इस प्रकार उसका ईश्वर उससे भिन्न नहीं है। इसी प्रकार ‘नवध्ाा भक्ति’ जैसे भक्ति के बाह्यांगों को भी अद्वैत के भीतर समेट लिया गया हैः उदाहरण के लिए प्राचीन उपपुराणों में से अतिप्रसिद्ध सूत-संहिता3 के यज्ञवैभव-खण्ड नामक चतुर्थ खण्ड के आठवें अध्याय के प्रारम्भ में ऊँ नमः शिवाय मन्त्र की व्याख्या दी हुई है जिसके अन्तर्गत (श्लोक-संख्या 9 से 12 तक में) बताया गया है कि ‘शिव’ शब्द सत्यज्ञानात्मक परब्रह्म का ‘असम्पृक्ति’ से वाचक है (जिसका तात्पर्य यह है कि यह अर्थ लक्षणा से प्राप्त होता है, अभिध्ाा से नहीं) और ‘नमः’ शब्द से ‘प्रव्हता’ सूचित होती है (जिसका तात्पर्य यह है कि ब्रह्म और जीव का अभेदसम्बन्ध्ा है)।
किन्तु व्यवहार के स्तर पर अन्तःकरण ही जीव को ईश्वर से अलग करता है और यह पार्थक्य भी भक्ति के व्यावहारिक अस्तित्व की अनिवार्य प्रतिज्ञा है। मध्ाुसूदन सरस्वती जी ने भक्ति का शास्त्रीय ढाँचा तैयार करने वाले अपने ग्रन्थ भक्ति-रसायन में लिखा ही हैः
द्वैतम् मोहाय बोध्ाात्प्राक्, जाते बोध्ो मनीषया
भक्तर्थम् कल्पितम् द्वैतम्, अद्वैतादपि सुन्दरम्।।
(ज्ञान होने से पहले द्वैत मोह का कारण होता है, जब बुद्धि द्वारा ज्ञान हो जाता है (और इस
प्रकार द्वैत का मिथ्यात्व स्पष्ट होकर यह समझ में आ जाता है कि एकमात्र अद्वैत ही सत्य है) तब भक्ति के लिए कल्पित द्वैत का सौन्दर्य अद्वैत से भी अध्ािक है।)
3. यह शैव उपपुराण अद्वैत के बीजग्रन्थों में से एक माना जाता है और कहा जाता है कि भगवत्पाद ने इसे अठारह बार पढ़ने के बाद ही ब्रह्मसूत्र पर अपना भाष्य लिखा था।
सूत्र में इस अनुरक्ति के पहले ‘परा’ विशेषण भी लगा हुआ है और टीकाकर ने कहा है कि इसका तात्पर्य यह है कि कभी भी ‘अलम्-बुद्धि’ नहीं होती, अर्थात् कभी भी पर्याप्तता का बोध्ा नहीं होता, मन नहीं भरता। इस ‘परानुरक्ति’ को समझाने वाला एक पद्य भी उन्होंने प्रमाण के रूप में उद्धृत किया हैः
काम्याप्तौ न विवर्तते, मम पुनः स्यादेध्ाते किन्तु तत्
संयोगेऽपि वियोगलालनमितौ विश्लेषभीत्या मुहुः
मोषो यस्य न दोषतोऽपि रसताम् नीतो विभावादिभिः
भावः कोऽपि पराऽनुरक्तिरिति ताम् भक्तिम् जगौ सूत्रकृत्।।
(सूत्रकार ने ‘परा अनुरक्ति’ को ‘भक्ति’ बताया है। इसका तात्पर्य यह है कि काम्य की प्राप्ति होने पर भी यह दूर नहीं होती अपितु ‘यह काम्य मुझे फिर मिले’ की चाहत बढ़ती ही जाती है, साथ ही उस काम्य से संयोग के समय भी बिछुड़ने के भय से वियोग के दुलार की ही नापजोख चलती रहती है। यह परा अनुरक्ति प्रिय के अपराध्ाों के नाते भी समाप्त नहीं होती। यह परा अनुरक्ति विभाव आदि के द्वारा रसत्व को प्राप्त होती है (और उस रस का नाम ‘भक्ति-रस’ है)।
यह चैतन्य महाप्रभु के अचिन्त्यभेदाभेदवाद का साम्प्रदायिक सिद्धान्त है और वहाँ इस भाव के लिए ‘प्रेम-वैचित्र्य’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। इस व्याख्या से स्पष्ट है कि ‘काम’ का जो सामान्यतः दोष माना जाता है, अर्थात् उसकी यह विशेषता कि वह भोग से शान्त नहीं होता अपितु उसी प्रकार बढ़ता है जिस प्रकार हवन-सामाग्री डालने पर आग बढ़ती है, वही इस ‘भक्ति’ नाम से जानी जाने वाली ‘परा अनुरक्ति’ का अभिलक्षण है। कुल मिलाकर यही निष्कर्ष निकलता है कि जो आसक्ति लौकिक प्रियपात्र के प्रति होने पर निन्दनीय मानी जाती है वही ईश्वर के प्रति होने पर वन्दनीय हो जाती है। इसका आशय यह है कि लौकिक प्रेम में अन्तःकरण की प्रवृत्तियों का विषय कोई मनुष्य होता है जब कि इसके विपरीत ‘भक्ति’ में अन्तःकरण की प्रवृत्तियों का विषय ईश्वर है और इस प्रकार भक्ति ‘अ-लौकिक प्रेम’ है।
हमें उस फलक की पड़ताल करनी होगी जिसे अपनी कठोर वैचारिकता की कसावट को बिना शिथिल किये ही अद्वैत के आचार्यों ने इतना लचीला बनाया कि उसमें याज्ञिक उपासना से लेकर भावाविष्ट देवरति तक का समाहार हो सका। इस कड़ी के आगे आने वाले लेखों में हम इसपर एकाग्र रहेंगे।