भारत की खोज, प्राप्ति और व्याख्या का उपक्रम - योगेश प्रताप शेखर
26-Jul-2020 12:00 AM 1646
भारतीय सभ्यता संसार की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है | ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है कि जीवन के प्रति इस की यात्रा भी अत्यंत दिलचस्प होगी | भारत जैसे प्राचीन देशों का यह दायित्व हो जाता है कि वे वर्तमान जीवन की नित – नित नवीनता को आत्मसात करते हुए अपने पारंपरिक दाय को अपनी नई पीढ़ी तक कैसे पहुँचाते हैं | आज़ादी की लड़ाई के दौर में और स्वतंत्रता–प्राप्ति के बाद के कुछ वर्षों तक यह काम चलता रहा | आज़ादी की लड़ाई के हर महत्त्वपूर्ण नेता अपने हिसाब से भारत को खोजने की ईमानदार एवं सतत मेहनत करते हैं| यही स्थिति उस दौर के हर एक श्रेष्ठ साहित्यकार की भी है| यहाँ महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, रवींद्रनाथ ठाकुर,जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, राहुल सांकृत्यायन आदि को याद किया जा सकता है |पर बाद के समय में यह काम लगातार पीछे छूटता गया जिस का परिणाम यह हुआ कि या तो परंपरा के नाम पर उस के प्रति अंधश्रद्धामूलक पूजा भाव पैदा हुआ या विध्वंसक नकारवाद | इन दोनों ने सामान्य जनता को परंपरा के वास्तविक साक्षात्कार से वंचित कर दिया | परंपरा को ग्रहण करते हुए और उस का आदर करते हुए भी जो एक आलोचनात्मक संबंध उस के साथ बनता है, उस का अभाव भारतीय बौद्धिक जगत में बढ़ता गया | हालाँकि इस के कुछ सुखद अपवाद भी हर काल में सामने आते रहे पर यह ज़रूरत से बहुत कम साबित हुआ | यही कारण है कि आज भारतीय बौद्धिक जगत की नई पीढ़ी में प्राचीन से मध्यकालीन भारत और आधुनिक भारत की बेहिचक यात्रा करने वाले लोग न के बराबर दिखाई देते हैं | इस तरह के परिवेश के निर्माण में भारत में ज़ारी शिक्षा – पद्धति ने भी अपनी गहरी भूमिका निभाई है | क्या विडंबना है अपने को भारतीय संस्कृति का हितचिंतक कहने वाले राजनीतिक दल और संगठन अत्यंत बहुल रहे भारतीय अतीत की मनमानी दुर्व्याख्याएँ कर रहे हैं और उसी को भारतीय परंपरा एवं संस्कृति का असली रूप बता रहे हैं ! इन परिस्थितियों में रज़ा पुस्तकमाला के अंतर्गत भारतीय विद्या एवं विद्वता की एक विभूति मोतीलाल शास्त्री के पाँच व्याख्यानों का पुनर्प्रकाशन मन को तोष एवं प्रेरणा देता है |

 

     पं. मोतीलाल शास्त्री वेद के विशेषज्ञ थे | वे जयपुर के प्रसिद्ध वैदिक विद्वान मधुसूदन ओझा के शिष्य थे | इन से लगभग बीस वर्षों तक मोतीलाल शास्त्री ने वेद का अध्ययन किया और वैदिक साहित्य के आधारों को समझा | इस से उन की विशेषज्ञता को समझा जा सकता है | इन के कार्यों और इनकी  विद्वता के बारे में प्रसिद्ध विद्वान वासुदेवशरण अग्रवाल ने भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को बताया था | राजेंद्र प्रसाद ने राष्ट्रपति भवन में 1956 ई. में पं. मोतीलाल शास्त्री को वेद – विद्या पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया | पं. मोतीलाल शास्त्री ने 14 दिसंबर से 18 दिसंबर 1956 ई. के तक पाँच व्याख्यान राष्ट्रपति भवन में दिए | इन्हीं व्याख्यानों का  प्रकाशन ‘व्याख्यान – पंचक’ के रूप में हुआ | इसी आयोजन  के क्रम में ‘राजस्थान – वैदिक तत्त्वशोध संस्थान’ की  स्थापना हुई जिस के प्रथम संरक्षक राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद हुए  और मंत्री वासुदेवशरण अग्रवाल | 

 

     ‘व्याख्यान – पंचक’ में संकलित पाँच व्याख्यानों में सब से पहला व्याख्यान ‘सम्वत्सरमूला – अग्नीषोमविद्या’ पर है | इस का परिचय देते हुए भूमिका में वासुदेवशरण अग्रवाल ने लिखा है कि “पहले भाषण में सम्वत्सरमूला अग्नीषोमविद्या का स्वरूप बतलाया गया है | सम्वत्सर महाकाल का सापेक्ष रूप है | जितने समय में पृथिवी अपने क्रान्तिवृत्त पर एक बिन्दु से चलकर पुनः उस बिन्दु पर लौट आती है, उसी अवधि की संज्ञा सम्वत्सर है | सृष्टि की आयु और मानव की आयु सम्वत्सरात्मक गति पर ही निर्भर है | अग्नि ही सृष्टि का मूलभूत गतितत्त्व है | गत्यात्मक अग्नि का ही पूरक भाग आग्त्यात्मक सोम है | गति – अगति, अग्नि – सोम, प्राण – रयि, ये  सब समानार्थक द्वंद्व हैं | प्राणाग्नि को पिण्डरूप में परिणत कर देने वाला सोमतत्त्व ही रयि है | अग्नि – सोमात्मक सम्वत्सर की समस्त प्रक्रियाएँ तद्वत मानव जीवन में अभिव्यक्त हो रही हैं | समस्त भूत जगत् को इसीलिए अग्नीषोमात्मक कहा जाता है | वैदिक तत्त्वज्ञान में सम्वत्सर विद्या का अतिशय महत्त्व है |”  इस बात को स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि न केवल वासुदेवशरण अग्रवाल के उपर्युक्त उद्धरण में बल्कि संपूर्ण पाँचों व्याख्यानों में ऐसे कई शब्द या अवधारणाएँ आई हैं जो हमारी विचार – परिधि में आजकल नहीं आतीं | ऐसा इसलिए कि संपूर्ण भारतीय वाङ्मय में ज्ञान की हर पद्धति एवं क्षेत्र की अपनी पारिभाषिक शब्दावली है | इसीलिए कोई ‘मोक्ष’ की अवधारणा पर बात करता है तो कोई ‘कैवल्य’ या ‘निर्विकल्पक समाधि’ की | कोई ‘निर्वाण’ की चाहत में है तो कोई ‘खेचरी मुद्रा’ के सहारे ‘गगन गुफा से झरते रस’ को पीने के लिए तत्पर है | कोई काव्य का चरम ‘रस -ध्वनि’ को मानता है तो कोई ‘विशिष्ट पद रचना’ को ही मूल मानता है | किसी का यह कहना है कि शब्द से उस का अर्थ अनिवार्यत: लगा होता है तो कोई इस पर विचार कर रहा है कि अगर ऐसा है तो ‘तलवार’ शब्द बोलते ही जीभ कट क्यों न जाती है ? इस से यह भी पता चलता है कि हम अपनी जड़ों से कितनी दूर आ चुके हैं ! वैसे भी अतीत एक आईना ही है जिस में यह पता चलता है कि “हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी ?”  अतीत से यह भी पता चलता है कि हम ने कहाँ से यात्रा शुरू की थी ! ऊपर जो पारिभाषिक शब्दावली इस्तेमाल की गई है उस का संबंध सूर्य और पृथ्वी की गतियों से है |इस व्याख्यान में शास्त्री जी वेद के दार्शनिक स्वरूप का विवेचन करते हुए उसे लोक के उदाहरणों से स्पष्ट करते हैं | इस में उन की मूल स्थापना यह है कि ‘अग्नि’, ‘वायु’, ‘आदित्य’ और ‘सोम’ का समन्वय विश्व का मूल है और ये चारों वेद इन्हीं चारों से संबद्ध हैं | यहाँ ये चारों शब्द अभिधा के रूप में नहीं बल्कि अवधारणा के रूप में प्रयुक्त हैं | उन्होंने कहा है कि “निरूपित तात्त्विक वेदस्वरूप के आधार पर अब हमें इस निष्कर्ष पर पहुँच जाना पड़ा कि ऋक् – यजु – साम – अथर्व नाम के चारों तत्त्ववेद क्रमशः अग्नि – वायु – आदित्य – सोमात्मक हैं | इनमें आदि की अग्निविद्या ही ऋग्विद्या है, तत्प्रतिपादक शब्दात्मक वेदशास्त्र ही ऋग्वेद है | दूसरी वायुविद्या ही यजुर्विद्या है, तत्प्रतिपादक शास्त्र ही यजुर्वेद है | तीसरी आदित्यविद्या ही सामविद्या है, तत्प्रतिपादक शास्त्र ही सामवेद है एवं चौथी सोमविद्या ही अथर्वविद्या है, तत्प्रतिपादक शास्त्र ही अथर्ववेद है |”  आगे वे कहते हैं कि इन चारों वेदों को ले कर चार लोकों की कल्पना की गई है | इस विवेचन से यह मत दृढ़ होता है कि वेद का आधारभूत संबंध प्रकृति की विविधता और उस के स्वरूप की सहजता के स्वीकार से है |  

 

     दूसरे व्याख्यान का विषय ‘पञ्चपुण्डीरा – प्राजापत्यबल्शानुगता पञ्चपर्वात्मिका – विश्वविद्या’ है | ऐसी शब्दावली आज की पीढ़ी को इसे अरुचि से देखने पर शायद विवश कर सकती है लेकिन यदि ज्ञान का काम अलक्षित क्षेत्रों की खोज है तो ऐसी शब्दावली प्राचीन भारतीय वाङ्मय की बृहत्तर दुनिया में दाखिल होने का निमंत्रण भी देती है | इसे आसान भाषा (!) में समझाते हुए वासुदेवशरण अग्रवाल ने भूमिका में ही लिखा है कि “मनुष्य का शरीर विश्वनिर्माता प्रजापति के विश्व रूपी वृक्ष की एक शाखा या टहनी है | शाखा ही वैदिक भाषा में बल्शा कही जाती है | प्रत्येक प्राणी और पुरुष एक – एक प्रजापत्य बनता है | ... इस शाखा के दो रूप हैं | एक पिण्डगत, दूसरा ब्रह्माण्डगत | दोनों में पाँच पर्व या पोरियाँ हैं | पोरी को वैदिक भाषा में पुण्डीर कहते हैं | वृक्ष के तने से जो गुद्दा फूटकर बढ़ता है, उसे पाँच पर्व या जोड़ों की कल्पना की जाय, तो वैसी एक – एक शाखा प्रत्येक प्राणी का शरीर या विश्व है | शरीर में ये पाँच पोरियाँ कौन सी है ? इसका उत्तर यह है कि शरीर या इन्द्रियों वाला स्थूल संस्थान सबसे इधर की पोरी है | यही केवल दृश्य है | इसके भीतर मन, मन के भीतर बुद्धि, बुद्धि के आगे महान् और उससे भी आगे सबसे पहली पोरी अव्यक्त है | अव्यक्ता आत्मा, महान् आत्मा, विज्ञान आत्मा, प्रज्ञान आत्मा और भूत आत्मा, यही पाँच पोरियों वाली शाखा प्रत्येक प्राणी को मिली हुई है |” इसी प्रसंग में आगे ‘मनोता – विद्या’ की भी चर्चा आती है  यह मनोता – विद्या दरअसल उन  पाँच पर्वों के तीन – तीन भेद कल्पित किए गए हैं और फिर उन के भी तीन – तीन भेद | यह सब मन प्रधान है इसलिए इन्हें ‘मनोता’ कहते हैं |

 

     तीसरे व्याख्यान का संबंध मानव के स्वरूप से है | इस में भी मानव – मन पर विशेष ज़ोर है | आमतौर पर यह धारणा भी फैल गई है कि प्राचीन भारतीय वाङ्मय में रुचि लेना ‘पोंगापंथ’ की निशानी है | इस व्याख्यान में अत्यंत सुबोध भाषा में शास्त्री जी मनुष्य के जीवन से संबद्ध श्रद्धा, स्नेह, वात्सल्य, काम और रति की व्याख्या करते हैं | वे भारतीय स्त्री – पुरुष संबंध की भी विवेचना करते हैं | यह देख कर सुखद आश्चर्य होता है कि वे इस में काफी प्रगतिशील हैं | उन्होंने स्पष्ट कहा है कि “एवमेव पति भी पत्नी के प्रति श्रद्धा करता है | ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते’ सिद्धांत प्रसिद्ध ही है | यह स्मरण रहे कि आज यह वाक्य केवल आदर्श वाक्य ही रह गया है | प्रतारणा ही कर रहा है आज का मानव इस वाक्य से मानवी की | भारतीय मानव की जघन्य प्रतारणा के दुष्परिणाम स्वरूप ही आज आर्यनारी का अंत: बहि:स्वरूप सर्वथैव काल्वालीकृत है, शोचनीय है | कहने – सुनने मात्र के लिए नारी पूजनीया, तत्समर्थक वचनों की उच्च घोषणा | किन्तु व्यवहार में ठीक इसके विपरीत |”

 

     चौथे और पाँचवें व्याख्यान का संबंध अश्वत्थविद्या से है | इस के बारे में कल्पना यह है कि परात्पर ब्रह्म के रसमय होने और महामाया के कारण प्रजापति का रूप सामने आता है | अश्वत्थ इसी प्रजापति का रूप है | आगे कल्पना यह है कि जैसे घोड़ा तीन पैरों पर स्थिर खड़ा रहता है और उस का चौथा पैर हवा में थोड़ा हिलता रहता है उसी तरह से यह प्रजापति तीन पैरों परात्पर – अव्यय – अक्षर से स्थिर और चौथे पैर क्षर से अस्थिर है | मतलब यह कि यह पूरा विश्व हर क्षण परिवर्तनशील है | इसे महसूस करना ही और विवेचन से इस के तत्त्व तक पहुँचना ही  सर्वश्रेष्ठ विद्या है | इसीलिए सभी विद्याएँ अश्वत्थविद्या के गर्भ में अंतर्भुक्त मानी गई हैं | 

 

     इन व्याख्यानों को पढ़कर सब से ज़्यादा यह महसूस होता है कि जिस भारत की खोज को प्राचीन भारत तक ही सीमित न रह कर मध्यकालीन और आधुनिक भारत तक आना था वह भी केवल अंधश्रद्धा या नकार की शिकार हो गई | परंपरा हमें यों ही नहीं प्राप्त हो जाती उस का अर्जन करना पड़ता है | पं. मोतीलाल शास्त्री के ये व्याख्यान हमें इस की याद दिलाते हैं कि हमारा क्या रास्ता होना चाहिए था और हम किस राह चल रहे हैं ? भारत की स्थिति अभी ऐसी हो गई है कि बौद्धिक रूप से यह अपनी परंपरा, स्मृति, इतिहास और पहचान से कटा दिखाई देता है | ज़्यादातर इन सब की उत्तेजक व्याख्याएँ की  जा रही हैं ताकि जनता में एक उबाल रहे जिस से अपने क्षुद्र स्वार्थों को पूरा किया जा सके | पं. मोतीलाल शास्त्री के ये व्याख्यान हमें यह बताते हैं कि भारत के विचार की नींव क्या है ?

 

-योगेश प्रताप शेखर, सहायक प्राध्यापक, दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय
 
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