23-Mar-2022 12:00 AM
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मानवीय इतिहास में ऐसी कोई भी सभ्यता ढूँढ पाना असम्भव है जिसमें किसी-न-किसी तरह के विवाद न रहे हों। किसी-न-किसी तरह की समस्याएँ न रही हों। आधुनिक मनीषा का यह प्रयास अवश्य रहा है कि वह एक ऐसी सभ्यता की रचना करे जिसमें न विवाद हो और न समस्याएँ। तमाम आधुनिक विचारधारात्मक उपक्रम इसी दिशा में होते रहे हैं। कम-से-कम बीसवीं शताब्दी का इतिहास इस बात का प्रमाण है कि ऐसी किसी सभ्यता की निर्मिति असम्भव है जिसमें विवाद या समस्याएँ न रहें। इसे हम इस तरह भी कह सकते हैं कि जब भी कोई मानवीय समुदाय बनेगा, उसके विभिन्न सदस्यों के स्वभावों के अलग होने के कारण विवाद उत्पन्न होकर ही रहेंगे। स्वभाव-वैविध्य मानवीय अस्तित्व का बल्कि जैविक अस्तित्व का एक ऐसा सच है जिसे किसी भी आदर्श के सहारे नष्ट नहीं किया जा सकता। अगर मनुष्य समाज है या कि कोई सभ्यता है तो उसमें विवाद होकर रहेंगे। लेकिन किसी भी सभ्यता की पहचान उन रास्तों से होती है, उन पद्धतियों से जिनके सहारे वह सभ्यता अपने विवादों को सुलझाने का प्रयास करती है। दूसरे शब्दों में किसी भी सभ्यता की पहचान उसके भीतर सक्रिय उन पद्धतियों से हुआ करती है जिनके सहारे वह अपने विवादों को सुलझाती है। चूँकि ये विवाद लगातार सामने आते रहते हैं इसलिए इन्हें लगातार सुलझाते रहना पड़ता है। ऐसी कोई स्थिति कभी किसी सभ्यता के जीवन में आयी ही नहीं है, जहाँ उसके सारे विवाद हमेशा के लिए सुलझ गये हों। अगर कोई व्यक्ति यह समझता है कि ऐसा हो सकता है, वह या तो निरा अज्ञानी है और या पाखण्डी। यह सिर्फ़ भारत की बाज़ारू फि़ल्मों के अन्त में हुआ करता है जहाँ नायक अन्तिम रूप से अपने खलनायक को परास्त कर देता है। सभ्यता के जीवन में न कोई पूरा नायक होता है, न खलनायक। हर व्यक्ति में इन दोनों के ही तत्व विद्यमान होते हैं। इसीलिए विवादों को सुलझाने का कोई सीधा सरल रास्ता नहीं हुआ करता। पर तब भी हर सभ्यता में विवादों को सुलझाने के तरीकों के समुच्चय का एक विशिष्ट स्वभाव हुआ करता है। इस स्वभाव से ही किसी भी सभ्यता के स्वरूप का पता चलता है। ऐसी कई सभ्यताएँ रही हैं जिनमें विवादों को दबाकर ही उन्हें हल किया जाता है। इन सभ्यताओं में विवादों को विवाद मानने के स्थान पर अपवाद मान लिया जाता है और इसलिए उसे सुलझाने का कोई गहरा उपाय नहीं किया जाता। चीन के कुछ प्रान्तों में अल्पसंख्यकों की समस्या की यही स्थिति है। उसे सुलझाने के स्थान पर चीनी राज्यसत्ता उसे दबाने में लगी है। लेकिन यह दबाव बहुत दिनों तक सफल रहने वाला नहीं है। जब भी विवादों को इस तरह दबाया जाता है, वह किसी दूसरे रूप में प्रकट हो जाता है। आधुनिक यूरोप ने विवादों को सुलझाने के प्रश्न पर बहुत विचार किया है। लेकिन आधुनिकता से पहले तक यूरोप ने विवादों को जिस हिंसक ढंग से सुलझाया जाता रहा था, वह आज इस सारे विचार-विमर्श के बाद भी यूरोपीय मानस पर छाया हुआ है। यूरोप आज भी अपने सभी नहीं तो अनेक विवाद या तो कानूनी हिंसा और या किसी और तरह की हिंसा के सहारे सुलझाने का प्रयास करता है। यह संयोग नहीं है कि बीसवीं शताब्दी के चैथे और पाँचवें दशकों में जर्मनी के शासक हिटलर ने अपने देश में यहूदी विवाद को सुलझाने का उपाय समूची यहूदी प्रजाति को नष्ट करने में देखा था। आज हम सब जानते हैं कि उससे जर्मनी को कितना अधिक नुकसान हुआ था। जब भी एक समाज में एक समुदाय दूसरे समुदाय पर हिंसा करता है, वह पूरा समाज लांछित होता है और इस लांछना के फलस्वरूप उस समाज के नागरिकों में अप्रत्याशित मानसिक विकृतियाँ पैदा होती हैं जो नित-नयी समस्या उठाती रहती हैं।
भारतीय सभ्यता में अपने भीतर उठते विवादों को सुलझाने के क्या रास्ते रहे हैं? क्या हम इस हज़ारों सम्प्रदायों वाली सभ्यता में हिंसक मार्गों से अपने विवाद सुलझाते रहे हैं? क्या कभी भी इस सभ्यता के किसी भी समुदाय ने विवाद के चलते किसी भी दूसरे समुदाय को नेस्तनाबूद करने का प्रयास किया है? इन सभी सवालों का जवाब है, नहीं। भारतीय सभ्यता ने अपने भीतर के अन्यान्य विवादों को संवाद के सहारे सुलझाने का प्रयत्न किया है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण भारत का भक्तिकाल है। यह सच है कि भक्ति का भाव और अवधारणा बहुत पुरानी है। पर यह भी सच है कि इस विचार और भावना का प्रयोग भारतीयों ने अपनी सभ्यता के एक बड़े विवाद को सुलझाने में भी किया था। भक्तिकाल के कवियों ने मानवीय अस्तित्व के एक ऐसे स्तर का अवगाहन अपनी कविताओं, गीतों, नृत्यों आदि में किया, जहाँ से सभी धर्मावलम्बियों को आत्मीय ढंग से सम्बोधित और प्रबुद्ध किया जा सके। उनके सृजनात्मक कर्म में मानवीय अस्तित्व के एक ऐसे स्तर की पहचान उभरकर सामने आयी, जिसमें सभी साझा कर सकते थे। जिस स्तर के सन्दर्भ में अलग-अलग धर्म दृष्टियों का कोई महत्व नहीं था। मानो हर साधना या धार्मिक परम्परा मानवीय अस्तित्व के उसी स्तर को प्रकाशित करने का प्रयास हो। इस रास्ते भक्तिकाल ने भारतीय सभ्यता की समावेशी परम्परा का पुनराविष्कार किया था। इसी रास्ते का एक और संस्करण गाँधी ने बीसवीं शताब्दी में औपनिवेशिक दासता के दौर में खोजा था। महात्मा गाँधी इसीलिए लगभग सभी भारतीयों को स्वतन्त्रता आन्दोलन में शामिल करने में सफल हुए थे क्योंकि उनका अंग्रेज़ों से विवाद को सुलझाने का रास्ता ऐसा था, जिसकी पहचान हर भारतीय के मन में पहले से थी। इसके चलते उन्होंने न सिर्फ़ अंग्रेज़ों से भारत को मुक्ति दिलायी बल्कि भारत में उपस्थित तमाम तरह के धार्मिक और साम्प्रदायिक विवादों को सुलझाने का रास्ता भी प्रशस्त किया। हम आज छिप-छिप कर गाँधी को कितना भी लांछित करते रहें लेकिन भारत के साम्प्रदायिक विवादों को सुलझाने का मार्ग हमें उन्हीं के दिखाये उपायों में ही मिलेगा। अगर हम पश्चिम की नकल में हिंसा के सहारे अपने विवादों को सुलझाने के प्रयास में पड़े, हमें एक ऐसी कठिन स्थिति में फँस जायेंगे, जहाँ से इस सभ्यता का बाहर निकलना असम्भव होगा।
भोपाल,
23 मार्च, 2022
उदयन वाजपेयी
भारत की पेगन चेतना