भ्रमरगीतसार में औचित्य विचार मिथलेश शरण चौबे
02-Aug-2023 12:00 AM 1279

जिन्हें हम पुराना कहते हैं, उनमें नये की दीप्ति छुपी रहती है। वह बहुत प्रकट रूप से नहीं मिलती, उसे खोजना पड़ता है, वह जैसे ही दिखना शुरू होती है फिर उसकी भव्यता अपरम्पार प्रतीत होती है। विडम्बना है कि बहुधा यह दीप्ति हमसे अलक्षित रह जाती है। नये की चकाचौंध और सब कुछ अपने समय में मौज़ूद द्वारा व्याख्यायित हो सकने के दम्भ की वजह से हम उस ‘दीप्ति’ से वंचित रह जाते हैं, अन्ततः जिसकी रोशनी से हमारी समझ के अँधेरे कोने अभिशाप से मुक्त हो सकते थे और जिसके ताप में हम उन चीज़ों को पिघलते महसूस कर सकते थे, जो व्यापक को सीमित से ढँकने का काम कर रही होती हैं। साहित्य और कलाएँ किसी एक समय को नहीं रचतीं, भले ही उनमें स्पष्टतः एक निश्चित समय का सम्बोधन हो। उनमें हर अलग समय को समझने व व्याख्यायित करने के सूत्र मिल सकते हैं। कभी-कभी यह उपक्रम समग्रता से होता दिखायी पड़ता है अन्यथा कुछ सन्दर्भों में तो यह होता ही है। साहित्य के ऐसे उपक्रम को हम अपनी पुरानी रचित श्रेष्ठ कृतियों में पा सकते हैं।
साहित्यिक कृति की श्रेष्ठता का यह भी एक पक्ष है कि वह हमें कितने विस्तृत समय से संवाद करने की गुंजाइश दे रही है क्योंकि किसी एक समय में सीमित कर देना तो साहित्य का गुण हो ही नहीं सकता। इस प्रक्रिया में यदि कुछ मुश्किल होती है तो वह कृति और समय के सन्दर्भों की भिन्नता ही है, पर यह कोई ख़ास मुश्किल नहीं। साहित्य अन्ततः हमें औचित्य और अनौचित्य का विवेक देता है, जिसे छीनने के समुचित ‘प्रबन्ध’ समय के पास होते हैं। समय जिसे छीनता है, साहित्य वही तो देने की कोशिश करता है। इसी एक स्थिति पर आकर हम किसी भी समय की कृति के देय को अपने समय के प्रबन्ध के बरक्स देखने की कोशिश कर सकते हैं। इस अर्थ में हर समय का साहित्य सर्वकालिक है और हरेक समय साहित्यिक चेष्टा के विरुद्ध ‘प्रबन्ध’ है।
भ्रमरगीतसार में सूर दो लीलाएँ करते हैं : एक स्मृति की और दूसरी कल्पना की। कृष्ण भी दो लीलाएँ करते हैं, एक गोपियों को उद्धव से निर्गुण का औचित्यहीन उपदेश जिसके साथ दूसरी लीला, गोपियों से उद्धव को सगुण के उत्कट तर्क रूप में मिलती है। उद्धव सिर्फ़ औपचारिक सन्देश वाहक ही नहीं हैं बल्कि ‘ज्ञान’ की विज्ञता के बोध से भरे, उसी रास्ते पर चलने के स्वतःस्फूर्त उपदेश भाव में मग्न हैं। कृष्ण के कहने पर वे ब्रज जाते हैं।
सूर ने भ्रमरगीतसार में सारा वृत्तान्त सौन्दर्य के पक्ष से वर्णित किया है। कृष्ण का सौन्दर्य, राधा और गोपियों का जो अब विरह में मलिन पड़ गया है, प्रकृति का, वह भी कृष्ण वियोग में वैसी उत्साही नहीं रही। यह सौन्दर्य दरअसल औचित्य का सौन्दर्य है। सब कुछ औचित्यपूर्ण हो रहा है ब्रज में, इसीलिये वह सुन्दर है। औचित्यपूर्ण अर्थात् उचित अनुचित के विचार से युक्त। जो हो रहा है, उसमें उचित और अनुचित का विवेक शामिल है। अब कृष्ण किसी प्रयोजन से मथुरा चले गये और लौटकर नहीं आये, वे जानते हैं कि वहाँ के औचित्य में उनकी क्या भूमिका है, इसीलिए वे उद्धव को भेजते हैं कि अब औचित्य का पुनर्निर्धारण हो सके। इसमें देर नहीं होना चाहिए, इसीलिये कृष्ण व्यग्र हैं -
‘उद्धव ! बेगि ही ब्रज जाहु।
सुरति सँदेस सुनाय मेटो बल्लभिन को दाहु।।’ (पद संख्या 8, पृष्ठ 63)
कृष्ण के होने के जो अर्थ हैं उनकी अनुपस्थिति में किन्हीं अन्य अर्थों को विन्यस्त कर ही इस औचित्य के तर्क को पूरा किया जा सकता है। इसीलिये ‘ज्ञान’ का तर्क औचित्य के पुनर्निर्धारण के लिए है। कृष्ण के होने का अर्थ तो अब स्मृति में है अतः अनुपस्थिति के सापेक्ष दुख है, विलाप है।
कृष्ण भले ही उद्धव और गोपियों के साथ सगुण-निर्गुण की लीला कर रहे हों लेकिन यह अनौचित्यपूर्ण है इसीलिये कारगर नहीं हो पाती। कृष्ण तो जानते ही होंगे, उद्धव को भ्रान्ति हो जाती है-
‘उद्धव मन अभिलाष बढ़ायो।
जदुपति जोग जानि जिय साँचो नयन अकास चढ़ायो।।
नारिन पै मोको पठवत हौ कहत सिखावन जोग।
मन ही मन अब करत प्रसंसा है मिथ्या सुख-भोग।’ (पद संख्या 11 , पृष्ठ 64)
लेकिन ब्रज में गोपियों से मिलकर, कृष्ण के प्रति उनके अनन्य प्रेम और सख्य भाव के प्रति अपार आस्था को पाकर न केवल उद्धव का ‘ज्ञान-गरब’ दूर होता है बल्कि उन्हें लगता है कि ‘उपदेसन आयो हुतो मोहिं भयो उपदेस।’ बावजूद इसके उन्हें औचित्य का पुनर्निर्धारण करना है, इसलिए आगे वे रिक्ति के विलोम के अपने तर्क को स्थापित करने में ही निमग्न रहते हैं। भ्रमरगीतसार में आगे फिर यही कथा है : उद्धव योग-ज्ञान के तर्कों से निराकार को जानने का आग्रह करते हैं और गोपियाँ उपस्थिति की स्मृतियों के उत्कट बखान से खुद के लिए उद्धव के बताये मार्ग को निरर्थक साबित करती हैं। अपेक्षाकृत लम्बे और कुछ दुहराव के साथ दोनों ही पक्ष अपने सत्य के लिए संवाद करते हैं। दोनों ही संवाद के दौरान अडिग रहते हैं, हालाँकि उद्धव के संशय आद्यन्त मिलते हैं। गोपियाँ अपनी विह्वल दशा को उद्धव प्रस्तावित मार्ग के समतुल्य ही बताकर उलाहने में ही सही एक तरह से अभेद को प्रकट करती हैं-
‘हम, अलि, गोकुलनाथ अराध्यो।
मन बच क्रम हरि सों धरि पतिब्रत प्रेमयोग-तप साध्यो।
मातु-पिता हित-प्रीति निगम-पथ तजि दुख-सुख-भ्रम नाख्यो।
मानअपमान परम परितोषा अस्थिर थिर मन राख्यो।।
सकुचासन, कुलसाल परस करि, जगतबद्य करि वंदन। (पद संख्या 78, पृष्ठ 85)
× × × × ×
सहज समाधि बिसारी बपु करी, निरख निमेख न लागत।
परम ज्योति प्रति अंग-माधुरी धरत यहै निसि जागत।
त्रिकुटी संग भ्रूभंग, तराटक नैन नैन लगि लागे।
हँसन प्रकास, सुमुख कुंडल मिलि चन्द्र सूर अनुरागे द्यद्य (वही)
सूरदास तो स्पष्टतः करते ही हैं-
‘रूप रेख गुन जाती जुगत बिनु, निराधार मन चक्रित धावै।
सब विधि सुगम विचारही ताते, सूर सगुण लीलापद गावै।।’
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भ्रमरगीतसार में एक औचित्य विचार मिलता है, जिससे हम अपने समय पर भी बात कर सकते हैं। हमारे समय में वैचारिक संघर्ष जिस क्रूर और कट्टरपन का पर्याय बन चुका है, उसे देखकर ‘अक्रूर’ भी लजा जाएँगे! राज्य अपनी तरह से काम करता है और उसके ऊपर काबिज शक्तियाँ अपने हितों के संधान के लिए किसी भी अतिचार से परहेज नहीं करते। जानबूझकर अनेक तरह की भ्रान्तियाँ और कुतर्क फैलाये जाते हैं, जिनका लक्ष्य घुमा फिराकर सत्ता की श्रेष्ठता के कुन्द विचार को मजबूती से प्रसारित करना है। इन सबके बीच समाज की स्थिति होती है। सारे सही गलत के शक्तिशाली प्रवाह में उसे अपने विवेक को बचाये रखना होता है। उसका मन बुनियादी चरित्र के रूप में ‘कई’ नहीं हो सकता- ‘ऊधो, मन न भये दस बीस’। वह प्रेम और आस्था की दीवार पर टिका होता है, बालू की भीत पर नहीं। सत्ताओं द्वारा सरलीकरण से उसे किनारे नहीं लगाया जा सकता। उसके भ्रम भले ही उसके साथ यही छल करें। भ्रमरगीतसार में ब्रज का समाज इस अर्थ में अत्यन्त सजग, विचारवान और तार्किक है। कृष्ण के अनेक सम्बोधन पूरे ब्रज समाज के प्रति हैं, गोपियाँ भी ब्रज समाज को शामिल कर ही उद्धव के समक्ष निर्गुण को नकारती हैं। इस कृति के समाज के विवेक को अलक्षित कर कोई पाठ कैसे सम्भव हो सकता है? ब्रज समाज के प्रतिनिधित्व को प्रकट करती अनेक पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं :
- कोउ ब्रज बाँचत नाहिंन पाती
- याकी सीख सुनै ब्रज को, रे?
- बहुरो ब्रज यह बात न चाली
- ऊधो ब्रज की दसा बिचारो
- ऊधो ब्रज में पैठ करी
- ऊधोजी ! देखे हौ ब्रज जात
- ये बातें कहि-कहि या दुख में ब्रज के लोग हँसाये
- या ब्रज के ब्यौहार जीते हैं सब हरि सौं कहियो
- ऊधो यहि ब्रज बिरह बढ़यो
- जदपि ब्रज अनाथ करि छाड़यो तदपि बार एक चित करि रहियो
- ब्रज जन चातक प्यास मरत हैं, स्वाति बूँद बरसाओ
- अब तुम चले ज्ञान-विष ब्रज दै हरन जु प्रान हमारे
- नाहिंन कोउ ब्रज में या सुनि है कोटि जतन उपदेसन
- जोग सँदेसो ब्रज में लावत
- कहँ लौं कहिए ब्रज की बात
- सूर सकल ब्रज षटदरसी, हौं बारहखड़ी पढ़ाऊ
- ऊधो ! मोहि ब्रज बिसरत नाहिं
इनसे ज़ाहिर होता है कि भ्रमरगीतसार में ब्रज समाज की महत्त्वपूर्ण उपस्थिति है। कृष्ण भी समूचे ब्रज को भुला नहीं सकते, उद्धव भी ब्रज की दशा से अन्ततः व्यथित होते हैं और गोपियाँ भी सिर्फ़ अपनी निजी विरह वेदना तक ही सीमित नहीं हैं, वे पूरे ब्रज समाज की व्यथा का प्रतिनिधिक स्वर हैं। दरअसल ब्रज का समाज अपने औचित्य के प्रति अत्यन्त सजग और चिन्तातुर है। उसे अपने औचित्य का बोध है इसीलिये वहाँ की युवतियों को भी पारम्परिक रूप से उसका बोध हो सका है। गोपियाँ अधिकारपूर्वक पूरे ब्रज के प्रतिनिधि के दायित्त्व का निर्वाह कर उद्धव से मुख़ातिब होती हैं। उनके तर्क ब्रज के विवेकवान समाज की पुष्टि करते हैं। निर्गुण को तर्क सहित ख़ारिज कर देना इसी का साक्ष्य है।
सत्ताएँ तो मानती ही हैं, समाज जब यह मान लेता है कि सत्ताओं का विचार ही श्रेष्ठ है, उनसे अलग हमारा कोई विचार नहीं हो सकता; तब संवाद की सम्भावनाएँ लगभग ख़त्म हो जाती हैं और सत्ताओं की जवाबदेही समाज के प्रति नहीं रह जाती। सत्ताओं को अनिवार्य रूप से यह समझना चाहिए कि उसके पास जो विचार है, वह समाज से ही उत्पन्न है और समाजों में विचारों का बाहुल्य है, वह उनमें से किसी एक के आधार पर क्रियाशील है। समाज के विचारों से संवाद तो हो सकता है, उसे ख़ारिज नहीं किया जा सकता है। साथ ही समाज को सत्ताओं के सम्मुख हमेशा अपनी वैचारिक दृढ़ता के साथ पेश आना चाहिए। पिछले कुछ वर्षों में संवाद की सम्भावना को नष्ट किया गया है। कोई दूसरा विचार समाज में सक्रिय कैसे रह सकता है जबकि सत्ता का उससे अलग विचार है, यह सरलीकृत अहमन्यता तमाम तरह से क्रियाशील होती दिखायी देती है।
भ्रमरगीतसार में दो विपरीत विचारों के अपने-अपने पक्ष में सूक्ष्म, बहुल और मानवीय तर्कों की लम्बी श्रृंखला है। दोनों में श्रेष्ठी भाव भी है, अपने सत्य को मान लेने का आग्रह भी। दूसरे की खामियों पर प्रहार है और उस पर कायम रहने की अडिगता का उपहास भी। इस समूची संवाद प्रक्रिया में विचारों को मानने वालों के प्रति निरादर नहीं है। उनकी मौजूदा स्थिति पर अफ़सोस है लेकिन उनकी वैयक्तिक हैसियत की अवहेलना नहीं है। इस कृति में मौजूद वैचारिक संघर्ष से हम आज के वैचारिक संघर्ष के लिए कुछ मूल्यवान और अपरिहार्य भाव पा सकते हैं।
यह कृति बहुलता को रचती और पोषती है। विचारों की बहुलता तो केन्द्रीय रूप में है ही, साथ ही प्रकृति की, मनुष्यों की, स्वभाव की, अनुभूतियों की, स्मृतियों की, कल्पना की, राग-रागनियों की, तर्कों की-कुतर्कों की, अलंकरणों की, सगुण-निर्गुण की, प्रेम और विरह की, निराशा और जीवटता आदि की अर्थमय अनेकता यहाँ दृष्टव्य है। कृति के इस मूल विचार से हमारा समय निरन्तर विपन्न होता जा रहा है। यह कृति ‘बहुलता के पुनर्वास’ के प्रति ध्यानाकृष्ट कराती है।
यह सांस्कृतिक रूप से भी समृद्ध है। इस कृति में संगीत और चित्रमयता, नाट्य और लोकतत्त्व आदि की अर्थसमृद्ध उपस्थिति इसकी संरचना को सघन बनाती है। इस अर्थ में आज हमारी अधिकांश कविता शाब्दिक विन्यास पर ज़्यादा निर्भर लगती है। कविता को समृद्ध करने वाले अन्य तत्त्वों का निरन्तर विरल होना हमारी आज की कविता को प्रश्नांकित करता है।
कल्पना और स्मृति इस कृति के सबसे उर्वर पक्ष हैं। स्मृति की भव्यता से ही वे तर्क सम्भव हो सके जो ‘हम अजान मति भोरी’ गोपियों द्वारा उक्त हैं। स्मृति में ही प्रेम की वे स्थितियाँ मौज़ूद हैं, जो इतने बड़े प्रतिवाद की शक्ति देती हैं- ‘हरि स्रमजल अन्तरतनुभीजे ता लालच न धुआवति सारी’। सूर ने कल्पनाएँ भी अद्भुत की हैं, जैसे कृष्ण को कोसती हुई गोपियाँ राम को ज़्यादा अच्छा बताने लगती हैं-
‘हरि सों भलो सो पति सीता को।
बन बन खोजत फिरे बन्धु-संग किया सिन्धु बीता को।।
रावन मारयो, लंका जारी, मुख देख्यो भीता को।
दूत हाथ उन्हें लिखि न पठायो निगम-ज्ञान गीता को।। (पद संख्या 83, पृष्ठ 87)
दुर्भाग्यपूर्ण रूप से हमारी बहुसंख्यक कविता कल्पना और स्मृति से दूर होती जा रही है और उसमें यथार्थ को ही अधिकांश सृजनात्मक प्रत्यय मानने का भाव बढ़ा है। यह कृति ‘कल्पना और स्मृति के पुनर्वास’ का आग्रह करती है। प्रतिकूल को थोपने का विचार यह कृति सिरे से ख़ारिज करती है-

‘आम को काटि बबूर लगावत, चन्दन को कुरवार।
सूर स्याम कैसे निबहैगी अन्धधुंध सरकार।’ (पद संख्या 353, पृष्ठ 159)
हमारे समय में यह दुश्चेष्टा बलपूर्वक फैलती दिख रही है। सार्वजनिक जीवन से सौहार्द और सौजन्य जैसे भावों के विरुद्ध मनगढ़ंत किस्सों, तर्कहीन कल्पित व्याख्याओं से इकहरा दृष्टिकोण थोपा जा रहा है। धर्म पोषित विचार की श्रेष्ठता के दम्भ से यह सब पोषित है और सत्ताएँ इसकी संचालक हैं। यह कृति ऐसे निबाह को प्रश्नांकित करती है, उसके प्रति संशय पैदा करती है।
दार्शनिक नवज्योति सिंह कहते हैं : ‘किसी कलाकार में यदि कोई विशिष्टता है तो वह औचित्य चिन्तन से बनती है। औचित्य चिन्तन के अधीन ही कला के सारे प्रयोग चलते हैं। औचित्य कला का गर्व है और यह समाज बने, उसका कारण है। औचित्य विचार से सामाजिक बनता है, सामाजिक अर्थात श्रोता, दृष्टा जो साथ-साथ उठता-बैठता है। बिना औचित्य के साधारणीकरण सम्भव नहीं।’
जो औचित्य विचार सूरदास के भ्रमरगीतसार में हमें मिलता है, उससे हमारे समय का विश्लेषण ज़्यादा निपटता से किया जा सकता है। हमारी बहुलतापूर्ण जीवन पद्धति और जीवन विचार को इकहरेपन ने दबावपूर्वक प्रभावित करना चाहा है। इस तरह कि संवाद की कोई सम्भावना भी नहीं बनती। यह थोपा जा रहा इकहरापन अनौचित्यपूर्ण है। यह किसी रिक्ति को भरने की यथासम्भव कोशिश न होकर भरेपूरेपन को उथला साबित करने की कुचेष्टा ही है। कृष्ण के द्वारा भेजे गए दूत के बतौर तो उद्धव का सम्मान है, लेकिन उनके विचार से नितान्त असहमति है और जो मुखरता से प्रकट है। हमारे समय में यह मुखर प्रतिरोध अत्यल्प बचा है। हमारे समाज को उचित अनुचित का विचार यह कृति देती है।

(पदों के उद्धरण भ्रमरगीतसार, सम्पादक- रामचन्द्र शुक्ल, लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद, संस्करण 2018 से लिये गये हैं।)

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