02-Aug-2023 12:00 AM
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जब नग्नजीत ने परलोक पर विजय प्राप्त कर ली, ब्रह्मा ने उससे कहा, ‘मैं मृतक को उसी देह में पृथ्वी पर वापस नहीं भेज सकता। तुम उसका चित्र बनाओ, मैं उसमें प्राण फूँक दूँगा।’ नग्नजीत इस तरह अपने राज्य में असमय मरे हुए हुए बच्चे को चित्र में जीवित करके पृथ्वी पर लौट आया।
ये कविताएँ भी उसे शब्दों में दोबारा जीवित करने का प्रयास हैं। - उदयन वाजपेयी,
- वह शीर्षक कविता-संग्रह की भूमिका; ‘उसे’ शब्द पर ज़ोर मेरा
बावजूद इसके कि इस वक्तव्य को एक संग्रह-विशेष की भूमिका के तौर पर इस्तेमाल किया गया है, इसे (विशेष रूप से इसके अन्तिम वाक्य को) एकाधिक अर्थों में, उदयन वाजपेयी की लगभग सम्पूर्ण कविताओं के उपसंहार की तरह पढ़ा जा सकता है : उदयन वाजपेयी की कविताएँ उसे शब्दों में दोबारा जीवित करने का प्रयास हैं। ऊपरी तौर पर नितान्त सीधा-सादा-सा लगता यह वाक्य, वस्तुतः उदयन की कविताओं की कुछ ख़ास क़िस्म की ‘इकॉनॉमीज़’ के सन्दर्भ में अत्यन्त अर्थगर्भी है। उसमें स्पष्ट सुनायी देता निजता या वैयक्तिकता का स्वर; मृत्यु, मृतक और कविता का सम्बन्ध - ये वे तमाम चीज़ें हैं जो उदयन की कविता का विशिष्ट हस्ताक्षर गढ़ती हैं।
हम सबसे पहले इसके निजी या वैयक्तिक स्वर पर ध्यान दें। हमारे मन में स्वाभाविक ही यह सवाल पैदा हो सकता है कि यह कौन है जो कविता के बारे में इतने आत्मविश्वास और अधिकार-भाव के साथ बोल रहा है। ऐसा अधिकार-भाव और आत्मविश्वास जो न कवि को सुलभ होता है, न पाठक को। वह, सम्भवतः, तत्सम्बन्धी अनुभव के भोक्ता को ही सुलभ हो सकता है। यह कविता के भीतर से आता हुआ, किसी काव्य-नायक या काव्य-प्रसूत स्वत्व का स्वर नहीं है। वक्तव्य के नीचे, यद्यपि, ‘उदयन वाजपेयी’ के हस्ताक्षर हैं, लेकिन हम जानते हैं कि कविता के गतिशील और विचलनकारी क्षेत्र में आने वाला कोई भी व्यक्तिवाचक नाम निश्चित, स्थिर, निर्धार्य नहीं होता।
यह अकारण नहीं है कि प्रायः यह परामर्श दिया जाता है कि हमें, कविता के सन्दर्भ में, उसके रचयिता की बजाय स्वयं उसकी कविता को सुनना चाहिए। इस परामर्श में, वस्तुतः कविता द्वारा रचे गये, या कविता से उभरते स्वत्व को विश्वसनीय मानने का आग्रह निहित है, जिसकी इयत्ता को उस व्यक्ति से स्वतन्त्र माना जाता है जिसका वजूद कविता से पहले होता है और कविता के बाद भी बना रहता है, जिसके औपचारिक हस्ताक्षर उसकी कविता पर होते हैं, और जिसके नाम से उसकी कविता का प्रचार-प्रसार होता है। इस परामर्श का मूल्य इस धारणा में निहित है कि इस व्यक्ति के ध्येय और काव्य-प्रसूत स्वत्व के ध्येय के बीच न सिर्फ़ अनिवार्यतः कोई अनुरूपता नहीं होती, बल्कि दोनों ध्येयों के बीच विरोधाभास और अन्तर्विरोध तक हो सकता है, या कम-से-कम, वे एक ‘प्ले’ के रिश्ते में तो हो ही सकते हैं।
इस धारणा को पारम्परिक काव्यशास्त्र से भी बल मिलता है, जहाँ यह कहा गया है कि ‘अपने जीवन में मनुष्य बहुतेरे भावों का अनुभव करता है...। ये अनुभव तो नष्ट हो जाते हैं परन्तु मनुष्य के हृदय में उनका संस्कार सदा के लिए अमिट हो जाता है, अर्थात वासना रूप में वे सब भाव मानवों के हृदय में सर्वदा बसने लगते हैं। वे ही वासना रूप से मानव-हृदयों में बसने वाले भाव रति, शोक आदि नामों से स्थायी भाव कहलाते हैं। जब वे स्थायी भाव... सत्य तथा विज्ञानरूप होने से स्वतः प्रकाशमान आत्मानन्द के साथ अनुभूत होते हैं, तब वे (स्थायी भाव) ही ‘रस’ संज्ञा को प्राप्त करते हैं।... लेकिन उन स्थायी भावों को आत्मानन्द का साथ तब तक प्राप्त नहीं हो सकता, न उनके साथ उनका अनुभव तब तक किया जा सकता है, जब तक आनन्दस्वरूप आत्मा के ऊपर जो अज्ञान का आवरण छाया रहता है, वह हट नहीं जाय, अतः उस आवरण को हटाने के लिए एक अलौकिक व्यापार (क्रिया) की सृष्टि की जाती है, जिसका नाम है, ‘भावकत्व’। ‘उस अज्ञानावरण’ के हट जाने पर ‘अनुभवकर्ता’ की ‘अल्पज्ञता’ ‘नष्ट हो जाती है’ अर्थात मनुष्य के ‘जीवधर्म लुप्त हो जाते हैं और परमात्म-धर्म-सर्वज्ञत्व आदि जागरित हो जाते हैं’। ‘तब सहृदयता तथा काव्यार्थ के पुनः-पुनः अनुसन्धानरूप भावना के प्रभाव से, लौकिक तथा असाधारण (अ-साधारण) शकुन्तलात्व, दुष्यन्तात्व आदि धर्म उनमें से निकल जाते हैं और कान्तात्व आदि अलौकिक तथा साधारण धर्म उनमें आ जाते हैं।’ तब मूल अनुभव के कारण और कार्य, क्रमशः अनुभाव और विभाव आदि, रस के कारकों में साधारणीकृत होकर स्थायी भाव को रस में बदल देते हैं। (उपर्युक्त विवेचन यद्यपि कविता के सन्दर्भ में किया गया है, लेकिन यही बात किसी भी ‘साहित्यिक’ कृति के बारे में कही जा सकती है।)
इस विवेचन में मनुष्य की वे दो अवस्थाएँ स्पष्ट हैं जिनमें से एक को हम उसकी भोक्ता (लौकिक और अ-साधारण) अवस्था और दूसरी को सहृदयावस्था (अलौकिक और साधारण अवस्था) कह सकते हैं। इस दूसरी अवस्था में ही मनुष्य कविता या रस का अनुभव करता है। यहाँ यह स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है कि केवल काव्य-रसिक या कविता का पाठक ही नहीं बल्कि, उससे पहले स्वयं कवि भी अनुभवकर्ता या सहृदय की इस अवस्था को प्राप्त कर चुका होता है। पाठक से पहले कवि भी उस ‘भावकत्व’ या ‘साधारणीकृति’ नामक व्यापार से गुज़र चुका होता है जिसमें उसके भोगने के बाद नष्ट हो चुके और तब संस्काररूप या वासनारूप में अमिट हो चुके अनुभव स्थायी भावों और रस में बदलते हैं। इस प्रकार, भावकत्व व्यापार जिस तरह भाव को रस में या अनुभव को काव्य में बदलता है, उसी तरह वह उन भावों/अनुभवों के भोक्ता को सहृदय/कवि (सृष्टा) में बदलता है।
लेकिन, शायद वह ‘बदलता’ नहीं है, कुछ और करता है। यह कहने के बाद कि ‘अपने जीवन में मनुष्य बहुतेरे भावों का अनुभव करता है...’, जब यह कहा जाता है कि ‘ये अनुभव तो नष्ट हो जाते हैं परन्तु मनुष्य के हृदय में उनका संस्कार सदा के लिए अमिट हो जाता है, अर्थात वासना रूप में वे सब भाव मानवों के हृदय में सर्वदा बसने लगते हैं’, तब क्या इसमें कविरूप में भोक्ता और सृष्टा के एक ऐसे श्लिष्ट स्वत्व की ओर संकेत नहीं है जिसका भोक्ता स्वत्व सृष्टा स्वत्व का अमिट संस्कार बनकर उसमें लुप्त हो जाता है- भोक्ता स्वत्व वासनारूप में सृष्टा स्वत्व में हमेशा के लिए बस जाता है? या, शायद यूँ कहना बेहतर होगा कि भोक्ता स्वत्व की मृत्यु के बाद, उसके संस्कार को, उसे वासना रूप में धारण करके ही सृष्टा स्वत्व अस्तित्व में आता है; दूसरे शब्दों में, सृष्टा स्वत्व, भोक्ता स्वत्व की मृत्यु की पूर्वापेक्षा करता है।
ऊपरी तौर पर, हम जब कविता पढ़ते हैं, तब इस दूसरे, सृष्टा स्वत्व, से ही हमारा सम्बन्ध बनता है, उस भोक्ता स्वत्व से नहीं जिसने कविता में साधारणीकृत हो चुके अपने या किसी अन्य के अनुभवों को निजी तौर पर भोगा होता है। तभी हम उसकी कविता को ‘कविता’ की तरह पढ़ रहे होते हैं, उसकी आत्मकथा या जीवनी की तरह नहीं। हमारा तादात्म्य भोक्ता स्वत्व द्वारा भोगे गये अनुभवों से नहीं, बल्कि इन अनुभवों के उस साधारणीकृत रूप (स्थायी भावों) से होता है जिसे ‘भोगने का स्वाँग’ सृष्टा स्वत्व या उसके किसी प्रतिरूप द्वारा किया जा रहा होता है। (हालाँकि इस कथन में सरलीकरण का भरपूर जोखि़म है, क्योंकि हम यहाँ इस प्रश्न को अनुत्तरित छोड़ दे रहे हैं कि क्या आत्मकथा या जीवनी में भी तत्सम्बन्धी अनुभव साधारणीकृत नहीं होते। अगर नहीं होते, तो इन विधाओं को साहित्य की कोटि में कैसे रखा जा सकता है? बहरहाल) इस रूपान्तरण के नाते ही यह होता है कि कविता के भीतर, मसलन, जो शोक होता है, वह हमारे शोक का कारण बनने के क्षण में ही आनन्द का कारण भी बन पाता है; हम काव्य-नायक के शोक के साथ तदात्म होते हुए भी न केवल उसकी भाँति शोकग्रस्त नहीं होते, बल्कि आनन्द की अवस्था में होते हैं। इसीलिए कविता में व्यंजित शोक हमें उस कविता से विरत करने की बजाय उसके प्रति बार-बार आकर्षित करता है।
हमने कहा ‘ऊपरी तौर पर’, क्योंकि, जैसाकि काव्यशास्त्र कहता है, भोक्ता स्वत्व पूरी तरह निःशेष नहीं हो जाता; मनुष्य द्वारा जीवन में भोगे गये विभिन्न अनुभवों के नष्ट हो जाने के बाद भी उनका संस्कार मनुष्य में हमेशा के लिए अमिट हो जाता है, और वे भाव उसके हृदय में वासना रूप में हमेशा के लिए बस जाते हैं। क्या इसमें यह विवक्षित नहीं है कि भोगे गये भावों का संस्कार स्थायी भावों में हमेशा के लिए अमिट हो जाता है, वे स्थायी भावों में वासनारूप में हमेशा के लिए बस जाते हैं? और इसी तर्क से यह कि क्या भोक्ता स्वत्व भी अपनी मृत्यु के बाद, संस्कार या वासनारूप में, ‘ट्रैस’ या प्रेत के रूप में, सृष्टा स्वत्व के भीतर स्पन्दित नहीं बना रहता? क्या चित्र के भीतर, इन्हीं रूपों में, वह व्यक्ति मौजूद नहीं होता जिसका वह चित्र होता है? या कृति के भीतर जीवन? इनमें से कोई भी मृत्यु शुद्ध या परम मृत्यु नहीं होती, निर्वाण नहीं होती; वह जीवन से दूषित बनी रहती है : ‘थोड़ी-सी मृत्यु हर बार/ बची रह जाती है मरने के बाद भी’ (उदयन वाजपेयी, ‘तुम संग’ 2, पागल गणितज्ञ की कविताएँ); ‘मृत्यु मरने के बाद भी अक्षुण्ण बनी रहती है’ (वही, ‘वह’ 31, वह)। और अगर ये सब अपनी-अपनी जगह मौजूद होते हैं तो क्या वे, अपने संस्कार रूप में, वासना रूप में, ‘ट्रैस’ के रूप में, प्रेत के रूप में, उन जगहों - स्थायी भावों, सृष्टा-स्वत्व, चित्र या कृति को ‘हॉण्ट’ नहीं करते होंगे? आखि़र, संस्कार या वासनाएँ निष्क्रिय नहीं होतीं।
इस अर्थ में, कोई भी कृति, शायद, विशुद्ध कृति नहीं होती; वह कृति-पूर्व जीवन के संस्कार, वासना या ट्रैस से, आत्मकथा या जीवनी से, दूषित होती है; कृति-पूर्व जीवन का प्रेत उसे ‘हॉण्ट’ करता रहता है। फ़र्क़ सिर्फ़ यह होता है कि सामान्यतः यह सारी प्रक्रिया पृष्ठभूमि में जारी रहती है; हमारे सामने सिर्फ़ कृति होती है- परिष्कृत उत्पाद या उदात्तीकृत रचना के रूप में। रस और सृष्टा-स्वत्व ही अग्रभूमि पर (फ़ोरग्राउण्ड में) होने के नाते हमारे अनुभव के विषय बनते हैं, भोक्ता स्वत्व और उसके द्वारा भोगे गये अनुभव पृष्ठभूमि में बने रहते हैं।
ठीक इसी नुक़्ते पर, उदयन की कविता के सन्दर्भ में, उक्त विवेचन प्रासंगिक है। जिस वक्तव्य के साथ हमने इस निबन्ध की शुरुआत की थी, उसकी व्यक्तिवाचकता निश्चय ही असन्दिग्ध है। लेकिन, अगर यह व्यक्तिवाचकता इस वक्तव्य तक ही सीमित होती, तो इसे इतना महत्त्व देने की कोई वजह न होती। वक्तव्य की प्रासंगिकता है ही इस बात में कि, जैसाकि मैंने आरम्भ में कहा है, इसे उदयन की समस्त कविताओं के उपसंहार की तरह बरता जा सकता है। यह व्यक्तिवाचकता इन कविताओं में इतनी मुखर है कि अकारण नहीं होगा अगर किसी को ये कविताएँ व्यक्तिगत (पर्सनल) प्रतीत हों, जैसेकि वे निर्मल वर्मा को हुई थीं, जब उन्होंने कहा था कि ‘...शायद हिन्दी कविता में पहली बार व्यक्तिगत स्मृतियों को एक सुनियोजित शैली में चित्रित करने का यह अद्भुत प्रयास है...’ (केवल कुछ वाक्य के अन्तिम कव्हर पर अंकित विज्ञप्ति। ज़ोर मेरा)।
लेकिन, क्या ये कविताएँ वास्तव में शुद्ध रूप से व्यक्तिगत हैं - उस कथन के बावजूद जिसके साथ हमने इस निबन्ध की शुरुआत की है, जिसमें निश्चय ही न सिर्फ़ काव्य-प्रसूत स्वत्व की बजाय कविता से इतर (अ-साधारण) स्वत्व का स्वर सुनायी देता प्रतीत होता है, बल्कि उद्धरण की अन्तिम पंक्ति में जिस व्यक्ति (‘उसे’) की ओर संकेत किया गया है, वह व्यक्ति भी अ-साधारण प्रतीत होता है और उसके साथ इस काव्येतर अ-साधारण स्वत्व का सम्बन्ध भी व्यक्तिगत (अ-साधारण) प्रतीत होता है? अगर हम इन कविताओं को ‘कविता’ की तरह पढ़ते आये हैं, तब क्या उनके साथ ‘व्यक्तिगत’ जैसा विशेषण लगाने का कोई औचित्य बनता है? क्या ‘व्यक्तिगत कविता’ जैसे पद में वदतोव्याघात नहीं हैं? अगर अनुभव का साधारणीकरण कविता की बुनियादी शर्त है, तब क्या ‘व्यक्तिगत कविता’ कहना ‘अ-साधारण साधारण’ कहने के बराबर नहीं होगा?
आधुनिक हिन्दी की शायद ही कोई कविता होगी जिसके सन्दर्भ में ये सवाल इतनी उत्कटता के साथ उभरते होंगे, जैसे वे उदयन की कविता के सन्दर्भ में उभरते हैं। क्यों? क्योंकि ये कविताएँ भाव को उसके दोहरेपन में, उसके अ-साधारण और साधारणीकृत रूपों में, अयस्क और परिशोधित रूपों में, अनुदात्त और उदात्तीकृत रूपों में, अनुभव का विषय बनाने का दुष्कर जोखि़म उठाती हैं। वे व्यक्तिगत लगती हैं तो इसलिए नहीं कि उनमें भोगे गये ‘लौकिक’, ‘असाधारण’ अनुभव ‘भावकत्व’ व्यापार की उस प्रक्रिया से नहीं गुज़रते जो उन्हें क्रमशः स्थायी भावों, रस और कविता में रूपान्तरित कर देती है, बल्कि इसलिए कि वे एक ऐसी ‘इकॉनॉमी’ साधती हैं, जहाँ यह लौकिक या असाधारण उसके अलौकिक और साधारण प्रतिरूप के साथ श्लिष्ट होकर उसे निरन्तर आक्रान्त (‘हॉण्ट’) करता रहता है- एक ऐसी ‘इकॉनॉमी’ जिसमें उक्त पृष्ठभूमि भी अग्रभूमि का हिस्सा बनी रहती है, या जिसमें उक्त दोनों का श्लेष है, जैसेकि इसी तर्क से उनमें अनुदात्त और उदात्त का, भोक्ता स्वत्व और सृष्टा स्वत्व का, भोगे हुए अनुभव या भाव और स्थायी भाव का श्लेष है। इनमें से प्रत्येक युग्म का प्रत्येक पद एक-दूसरे में इस क़दर अन्तर्व्याप्त है कि उन्हें एक-दूसरे से अलग करके देखना मुमकिन नहीं है। माँ, पिता, नानी, नाना, बाबा, ‘वह’ आदि रिश्ते, इनके इर्दगिर्द घटित होती घटनाएँ, और इन घटनाओं से विकीरित होते अनुभव, अपनी जातिवाचकता, निर्वैयक्तिकता, साधारणता (जेनरैलिटी) के क्षण में ही उतने ही व्यक्तिवाचक, वैयक्तिक और अ-साधारण हैं। वे हम सबके रिश्ते, सबके जीवन की घटनाएँ, सबके अनुभव होने के क्षण में ही एक व्यक्ति-विशेष के रिश्ते, घटनाएँ, अनुभव भी हैं। इन कविताओं की अनन्यता (सिंग्युलैरिटी) इन श्लेषों के अग्रभूमि पर लाये जाने में है। प्रश्न, दरअसल, इन कविताओं के व्यक्तिगत होने या न होने का उतना नहीं है, जितना वह इस बात का है कि ये कविताएँ इस संघटना-मात्र पर केन्द्रित हैं; यह संघटना इन कविताओं की मूलभूत विषय-वस्तु है। मानो, यह कविता का संकल्प है कि उसे एक ऐसे परिप्रेक्ष्य में पढ़ा जाए जहाँ यह फ़ैसला करना असम्भव हो कि हमारा तादात्म्य भोक्ता स्वत्व से हो रहा है या सृष्टा स्वत्व से। इसीलिए, जिस श्लेष और अन्तर्व्याप्ति का ज़िक्र हम कर रहे हैं, वे कविताओं के अनायास प्रभाव (अनइण्टेण्डेड इफ़ैक्ट्स) नहीं हैं, बल्कि वे उनका संकल्प हैं; उनमें निहित नैतिक दृष्टि और सौन्दर्य-दृष्टि के अंग। इसीलिए उनकी अभिभूत कर लेने वाली ऐन्द्रियता और संवेग के नीचे कहीं गहरे में एक क़िस्म की अधिकाव्यात्मकता (मैटा-पोएटिसिटी) स्पन्दित है। वह निरन्तर अपनी ओर मुड़कर देखती हुई कविता है, जिसका पाठ हमें भी निरन्तर अपनी ओर मुड़कर देखने को प्रेरित करता है। उसके पाठ से मिलने वाले अनुभव में शोक और आनन्द दोनों का श्लेष है। इसीलिए, इन्हें पढ़ते हुए हम भी एक श्लेष में पुनराविष्कृत होते हैं: भोक्ता और पाठक के श्लेष में। इन्हें पढ़ते हुए हमारा भोक्ता स्वत्व हमारे पाठक स्वत्व में विलीन नहीं हो जाता, वह अपने ‘ट्रेस’ में, मानों एक प्रेत के रूप में, हमारे पाठक स्वत्व को ‘हॉण्ट’ करता रहता है। जब हम इन्हें ‘व्यक्तिगत स्मृतियों को’ ‘चित्रित करने’ का ‘प्रयास’ कहते हैं, तब हम किसी-न-किसी रूप में उन ‘व्यक्तिगत स्मृतियों’ में, महज एक पाठक के रूप में नहीं, बल्कि व्यक्ति रूप में भी, साझा कर रहे होते हैं। इस तरह, एक क़िस्म के प्रतिकाव्यात्मक संवेग से आविष्ट, ये कविताएँ कविता के व्यामोह को रन्ध्रिल, वेध्य बनाती हैं। वे हमें, कविता के भीतर, कविता से बाहर धकेलती हैं; हमें, हमारी आत्मविस्मृति के चरम क्षणों में, हमारा व्यक्ति वापस लौटाती हैं।
लेकिन यह व्यक्ति-कविता के भीतर कविता से बाहर धकेला गया यह व्यक्ति-अक्षत नहीं होता। वह अपनी आत्मा पर मर चुकने के अनुभव की खरोंच लिये होता है। वह मृत्यु से श्लिष्ट जीवन होता है।
कविता की सृजन-प्रक्रिया से प्रसूत इन मौतों का उन मौतों से क्या सम्बन्ध है जिनसे ये कविताएँ आक्रान्त प्रतीत होती हैं? हम इन मौतों पर ग़ौर करें जिनके हवाले ‘कुछ वाक्य’ शृँखला की कविताओं के लगभग एकमात्र सन्दर्भ हैं :
देखो, देखो दीवार की मरी छिपकली ज़िन्दा हो दौड़ने लगी है।
XXX
अपनी मौत के पूरे बारह साल बाद वे उस मकान में आये थे जो नष्ट हो चुका था।
XXX
उनके मरने से पहले वे पारदर्शी नहीं थे।
XXX
हमारे कुटुम्ब के मृतक वहीं रहते हैं।
XXX
मैं सुनता था एक बेवक़्त मरे आदमी की पाँव की थापें।
XXX
आज मुझे मालूम है वे एक हफ़्ते बाद मरने वाले थे।
XXX
वे मरने से पहले सिगरेट पीना चाहते हैं।
XXX
वह (मौत) भोपाल स्टेशन पर सिगरेट फूँकती उनकी प्रतीक्षा कर रही है।
XXX
आँगन का हरसिंगार सफ़ेद फूलों से पिता के शव को पूरी तरह ढँक देता है।
XXX
मरने से पहले वे एक-दूसरे के काम आते थे।
XXX
उन्हें डर है, वे उन्हें मार न डालें।
XXX
वे मौत से पहले ही दोबारा पैदा होना चाहते थे।
XXX
वृद्ध कहते हैं ‘मेरी माँ के शव को चलाकर घर से बाहर लाया गया था’।
XXX
नानी के शव पर फूल चढ़ाता है नाना का शव। पिता के शव को दूर खड़ा देखता है माँ का शव।
XXX
वह उन्हें उनकी मौत की तारीख़ बताता है जिसे वे पुश्तैनी पहचान की तरह काठ की अलमारी में छुपाकर रख लेते हैं।
XXX
नानी उसी अस्पताल में जाकर मरी जहाँ नाना मरने वाले थे।
XXX
वह वे सारे संकेत-चिह्न पिता के शरीर पर छोड़ता जा रहा है जिन्हें जोड़कर मौत एक गुप्तचर की तरह उनके जीवन का रहस्य जान ले।
XXX
पास के शहर से पिता के शव को लाती गाड़ी रात के अँधेरे में सूखे पत्तों-सी सरसराती है।
XXX
पूजा की किरचों पर सँभलकर पाँव रखती मौत आँगन पार कर रही है।
XXX
नाना अपने घर से ही माँ को मरता हुआ देखते हैं।
XXX
पिता न जाने कब घूमने निकल गये होते और मरने का नाट्य करते।
XXX
पिता के न होने के शरीर में मेरा प्रवेश हो रहा है।
XXX
मृत्युशैया की किनार पर बैठे पिता को माँ चाय पिलाती है।
XXX
‘जाओ जाकर उसकी लाश उठा लाओ’, पिता नौकर पर चीख़ते हैं।
XXX
गुलमुहर की छाँव पर सिर रखे/एक बूढ़ा रात आये स्वप्न से/धागे निकालकर चुपचाप बुन रहा है/सालों पहले मरी अपनी पत्नी का रुग्ण चेहरा।
XXX
सड़क किनारे बाबा की अर्थी तैयार हो रही है।
XXX
पिता एक पराये शहर के अस्पताल में मर रहे हैं।
XXX
अब सिर्फ़ मौत का आना बाकी है, जिसकी सब डॉक्टर मानकर प्रतीक्षा कर रहे हैं।
XXX
...उन्हें अपनी मृत्यु जाती दिखायी देती है...।
XXX
मरने के ठीक पहले माँ की साँस की डोर छाती के भीतर बुरी तरह उलझ गयी है।
XXX
उसकी साड़ी पिता की मौत पर धीरे-धीरे फैल रही है।
XXX
बरसों अपने जीवन पर फिसलने के बाद नाना नानी की मौत के सामने जा खड़े हुए हैं।
उद्धरणों का यह अतिरेक उस तथ्य की विपुलता के विषम अनुपात में नहीं है, जिसे ये उद्धरण ज़ाहिर तौर पर रेखांकित करते हैं। हिन्दी के लगभग मृत्यु-भीरु, मृत्यु-द्वेष या मृत्यु के प्रति प्रमाद से ग्रस्त, जीवन-लिप्सु वातावरण में यह अतिरेक कुछ ज़्यादा ही अतिरंजित होकर उभरता है। और यह, दरअसल, अपने अतिरेक के बावजूद, बहुत कम है, क्योंकि ये महज वे वाक्य/वाक्यांश हैं जिनमें यह तथ्य अपनी अभिधा में व्यक्त है। अन्यथा, वह कविताओं की आँख से लहू की भाँति टपक रहा है। ये मृत्यु से अनुप्राणित और मृत्यु को अनुप्राणित करती कविताएँ हैं। जीवन, यहाँ अपने न्यूनतम में उतना ही है, जितने से वह मृत्यु की परिरेखाओं को उभारने में मदद कर सके।
लेकिन हमारा प्रश्न दूसरा था : कविता की सृजन-प्रक्रिया से प्रसूत इन मौतों का उन मौतों से क्या सम्बन्ध है, जिनसे ये कविताएँ आक्रान्त प्रतीत होती हैं? क्या यह सृजन के मूलभूत क्षणों में हुई तत्सम्बन्धी मौतों का मानसिक अभिघात (ट्रॉमा) नहीं है, जो इन कविताओं को निरन्तर मृत्यु की ओर धकेलता है? लेकिन, कविताएँ इस प्रश्न की ऐकान्तिकता का प्रतिरोध करती हैं; वे इसके प्रतिरूप प्रश्न के समावेश के इसरार के साथ, उसे इस विपरीत दिशा में धकेलती हैं : क्या यह अनुभव के किन्हीं मूलभूत क्षणों में हुई किसी असाधारण मृत्यु विशेष का मानसिक अभिघात नहीं है, जो इन कविताओं की सृजन-प्रक्रिया के गर्भ में मृत्यु का बीज बो देता है? ये दोनों तरह की मौतें अपने परस्पर संक्रमण और परस्पर व्याप्ति से इन दोनों प्रश्नों को एक-दूसरे से अविनाभाव जोड़ देती हैं।
नग्नजीत, इस तरह अपने राज्य में, मानो असमय मरी मृत्यु को जिलाकर पृथ्वी पर लौटता है।
वास्तव में, अगर ये कविताएँ किसी को जीवित करती हैं, तो वह निश्चय ही मृत्यु है। मृतक नहीं, मृत्यु। वह उन शब्दों की वि-देह में जीवित होती है, जो स्वयं भी मृत्यु से चिह्नित हैं, बशर्ते कि हम यह स्वीकार करें कि भाषा, यथार्थ की मृत्यु के अभिघात से उत्प्रेरित, यथार्थ की पुनर्यात्रा (रिविज़िटिंग) है। ऐसी पुनर्यात्रा जिसमें भाषा मृत यथार्थ को उसकी प्रतिकृतियों में, संकेतों में, उपलब्ध करती है। क्योंकि इन प्रतिकृतियों के बिना भाषा का अपना जीवन असम्भव है। प्रवंचना यह है कि जिस अभिघात और जिजीविषा से उत्प्रेरित होकर वह यह पुनर्यात्रा करती है, वह उसी के कृत्य का परिणाम है, क्योंकि यथार्थ की यह मृत्यु स्वयं भाषा के हाथों हुई होती है। इस अर्थ में वह शिकारी भी है और शिकार भी। उसमें दोनों का श्लेष है। जब ‘कुछ वाक्य’ की एक कविता यह कहती है कि ‘भाषा डमरू की तरह बजती है-शून्य-शून्य, शून्य-शून्य’, तो क्या उसमें इसी प्रवंचना की ओर संकेत नहीं है? क्योंकि भाषा की यह ‘ध्वनि’ -यह शून्य ध्वनि-जिस घटना की प्रतिक्रिया है उसमें ‘नानी के शव पर’ जो ‘फूल चढ़ाता है’, वह ‘नाना का शव’ है, जिसमें जो ‘पिता के शव को दूर खड़ा देखता है’ वह ‘माँ का शव’ है। ‘कुछ वाक्य’ की कविताओं में भाषा की यही स्थिति है : भाषा का अपने ही अर्थों को निगल लेना और फिर इन अर्थों की प्रतिकृतियों में अपने जीवित होने का स्वांग रचना।
‘कुछ वाक्य’ की कविताओं में शव मृत्यु से अनुप्राणित हैं। ये कविताएँ मृत्यु को जिलाती हैं और फिर मृत्यु सारे मृतकों में, अतीत हो चुकी सारी घटनाओं में, उनके आसपास के सारे वातावरण में, प्राण फूँक देती है। जिसका अर्थ यह नहीं कि वह उन्हें जीवित कर देती है- नहीं, वह उन्हें सिर्फ़ सक्रिय कर देती है; मृतक, मृतक बने रहते हुए ही जीवन जीने लगते हैं, घटनाएँ अपने अतीत-भाव के साथ वर्तमान में घटित होने लगती हैं; मृतक अपनी मृत्यु से उठकर थोड़ी देर जीवितों के साथ रहकर वापस अपनी मृत्यु में रहने चले जाते हैं; वे वर्षों बाद अपने मकान में इस तरह वापस लौट आते हैं जैसे वे कभी मरे ही नहीं थे; वे वहीं मकान के एक कमरे में रहते हैं; सीढ़ियों पर उनके पैरों की थापें सुनायी देती हैं। इन कविताओं के किरदार जीवन और मृत्यु की सीमारेखा पर या उनके परस्पर संक्रमण-बिन्दु पर गोचर होते हैं। अभाव सद्यःप्रसूत नहीं है बल्कि स्थायी है; हमेशा ही पहले से मौजूद। क्षति की अपूर्णीयता इस बात में है कि कोई और चीज़ उसे पूरा नहीं करती, कर नहीं सकती; क्षति स्वयं ही एक अक्षत अक्षर में रूपान्तरित होकर उसकी वजह से ख़ाली हुई जगह को भरती है। इसी अर्थ में ये कविताएँ व्यतीत का स्मरण नहीं हैं, संस्मरण नहीं हैं, बल्कि अभाव का भाव की प्रतिकृति (‘चित्र’), अर्थात, शब्द में, पुनरावतार हैं - उस शब्द में जो, जैसाकि हमने ऊपर संकेत किया, खुद भी अभाव से चिह्नित होता है। ऐसा पुनर्जन्म जिसमें अपने पूर्व-जन्म की, अपने स्मृति होने की स्मृति बनी हुई है। इसीलिए वे सारे लोग, सारे सम्बन्ध, जिन्हें व्यतीत हुआ मान लिया जा सकता है, और वे जिन्हें जीवित मान लिया जा सकता है, यहाँ अपने-अपने देशकाल के साथ जीवन और मृत्यु की सीमारेखा या उनके परस्पर संक्रमण-बिन्दु पर स्थित एक साझा देशकाल में मौजूद हैं, अपनी स्वतन्त्रता में एक-दूसरे से आबद्ध।
‘कुछ वाक्य’ की कविताओं का वातावरण, मानो मृत्यु के नैसर्गिक आवास (हैबिटाट) जैसा प्रतीत होता है। इस नैसर्गिक आवास की रचना सिर्फ़ मृत्यु, मृतकों और मरण आदि के अन्तहीन सन्दर्भों से नहीं होती, वह उस वातावरण से भी होती है जिसमें एक ख़ास क़िस्म की अवतलता (कान्कैविटी) हैः विषाद, विषण्णता, अवसाद, भुतैलेपन से अभिभूत वातावरण। प्रायः, दिन का अवसान हो चुका है; उजली रात का सुनसान है। एक तरह का पारभासी प्रकाश, जिसमें सब कुछ छायारूप दीखता है। नवजात मृत्यु से विकीरित होते प्रकाश से उत्पन्न यह पारभासिकता ‘कुछ वाक्य’ शृँखला में अत्यन्त प्रभावी है। एक ऐसी निद्रा, जिसमें सोये हुए होने का अहसास, निद्रा के साथ उसकी छाया की तरह जुड़ा हुआ है। या ऐसा स्वप्न जिसमें स्वप्न देख रहे होने का अहसास स्वप्न की छाया की तरह उसके साथ जुड़ा हुआ है। या, अन्ततः एक ऐसी जागृति जिसकी रचना इन सारी छायाओं से मिलकर होती है। जीवन इन कविताओं में मृत्यु द्वारा देखा गया स्वप्न है - स्वप्न की समूची भंगुरता के साथ; उसमें कभी भी टूट सकने की आसन्नता निरन्तर बनी हुई है।
ऐसा कुछ भी नहीं है जो कभी था और अब नहीं है-जो कभी था वह अपनी अतीतपरकता के साथ अब भी है। वह मृत्यूपरान्त नहीं बल्कि अमर्त्य जीवन जीते हुए मृतकों की दुनिया है; और यह देशकाल अतीत, वर्तमान और भविष्य के तीनों आयामों की समकालिकता और सन्निधान से निर्मित है। यह ध्यान देने की बात है कि मृत्यु से आप्लावित होने के बावजूद ‘कुछ वाक्य’ की कविताओं में मृत्यु शोक में फलित नहीं है - हम पाठकों के सन्दर्भ में ही नहीं, बल्कि कविता के अन्तवर्ती स्वत्व या काव्यनायक के सन्दर्भ में भी। वह, मानो होने का ही एक काउण्टर प्वाइण्ट है। इसीलिए ये कविताएँ करुणा नहीं जगातीं; वे शोकगीत नहीं हैं। इसकी बजाय उनमें एक ऐसी स्पेस उभरती है, जो अपनी अतीन्द्रियता में, यद्यपि, विस्मय की पूर्वापेक्षा जगाती है, लेकिन उस स्पेस का विन्यास इतने संयत, प्रशान्त, निरुद्विग्न, तटस्थ ढंग से किया गया है जैसे वह सहज, सांसारिक, ऐन्द्रिय स्पेस हो। विस्मय यह चीज़ जगाती है - स्पेस की अतीन्द्रियता नहीं, बल्कि उसके विन्यास का यह प्रसादिक गुण। यह संयम, प्रशान्ति, निरुद्विग्नता, तटस्थता, यह प्रासादिकता मानो उस वातावरण की मैत्री में हैं, जिसे हमने मृत्यु का नैसर्गिक आवास कहा है।
जब यह कहा जाता है कि ‘...थोड़ी-सी मृत्यु हर बार/बची रह जाती है मरने के बाद भी’, और ‘मृत्यु मरने के बाद भी अक्षुण्ण बनी रहती है’, तो इसमें यह संकेत निहित है कि जीवन मृत्यु-रूपी महावाक्य का, उसमें बार-बार प्रगट होता अल्प विराम है। सामान्य तौर पर, हर आख्यान में, बल्कि भाषा-मात्र में, एक तरह की आकस्मिकता (अब्रप्ट्नेस) होती है, लेकिन, ‘कुछ वाक्य’ शृँखला की कविताओं में जीवन के प्रति यह दृष्टिकोण मृत्यु को एक ऐसे आख्यान के रूप में प्रस्तुत करता है जो, हमेशा ही, शुरू होने के पहले शुरू हो चुका होता है और, हमेशा ही, समाप्त हो चुकने के बाद भी जारी रहता है। इस अर्थ में हर आख्यान एक उपाख्यान (एपिसोड) है; आख्यान की वृहत किन्तु अदृश्य शृँखला का अंग। ये कविताएँ आख्यान/भाषा की इस आकस्मिकता को दृश्यमान बनाती हैं, उसे रेखांकित करती हैं। उनके सारे आख्यानों में यह आत्मचेतना हैः आरम्भ और अन्त के अपने आभासी (प्रति-)कूलों के बीच प्रवाहित हो रहे होने की आत्मचेतना। या, आरम्भ और अन्त के प्रतिलोम चिह्नों के बीच महज एक उद्धरण होने की आत्मचेतना। यह आत्मचेतना उन्हें एक ऐसी अतिक्रामी स्पेस में ले जाती है, जिसमें उनकी आख्यानात्मकता विलीन हो जाती है। इस तरह इन आख्यानों का होना उनके न-होने के साथ श्लिष्ट होने में ही गोचर होता है। और चूँकि ये कविताएँ इन श्लिष्ट आख्यानों में निबद्ध हैं, उनकी गोचरता का भी यही रूप है। यूँ अपने भीतर मृत्यु को जीवित कर ये कविताएँ अपने भाव को अपने अभाव से प्रतिध्वनित करती हैं। या, यूँ कहना, शायद, ज़्यादा सही होगा कि वे भाव और अभाव के श्लेष में ध्वनित होती हैं।
मृत्यु का जीवन, उसकी जिजीविषा, ‘कुछ वाक्य’ की कविताओं में इतनी प्रबल है कि वह उनकी देहमुद्राओं, चेष्टाओं, भावभंगिमाओं में संक्रमित है। हम उसे, मानो, कविताओं के अनुभाव से पहचान सकते हैं। ऊपर हमने आख्यान का ज़िक्र किया है। एक क़िस्म की आख्यानात्मकता उनमें ज़ाहिर-सी है। उनमें स्थितियाँ हैं, चरित्र हैं, घटनाएँ हैं। लेकिन यह आख्यानात्मकता उनके आख्यान होने में नहीं, बल्कि आख्यान के आसन्न होने में, उसके निलम्बन में प्रतीत होती है। उसके हमेशा-ही-फ़िलहाल अभाव में, जैसाकि हमने ऊपर संकेत किया। लेकिन शायद यह मात्र प्रतीति है। वस्तुस्थिति इससे भिन्न है। किसी निरूपणात्मक (रिप्रेजे़ण्टेशनल) या यथार्थवादी चित्र (जोकि तथाकथित मूर्त या अमूर्त कैसा भी चित्र हो सकता है) की रचना में जो भूमिका दैशिक परिप्रेक्ष्य (spatial perspective) अनिवार्यतः निभाता है, सामान्य आख्यान में वैसी ही भूमिका कालिक परिप्रेक्ष्य की होती है। यह परिप्रेक्ष्य ही आख्यान को समय में अवस्थित करता है, उसे अन्दर से बाँधे रखता है, उसे एक तरह की ‘इम्यूनिटी’ प्रदान करता है, उसमें गहराई का आयाम पैदा करता है। ‘कुछ वाक्य’ की कविताओं में मृत्यु आख्यान को ठीक इसी बिन्दु पर संक्रमित करती है। वह उसके कालिक परिप्रेक्ष्य को निष्क्रिय कर देती है। इस परिप्रेक्ष्य के निष्प्रभावी होते ही सारा आख्यान ढह जाता है; अपने ही मलबे में बदल जाता है; कुछ वाक्यों में बिखर जाता है। इन कविताओं के वाक्य आख्यान के ऐसे ही अवशेष हैं। उनकी आर्थी विच्छिन्नता भाषा की खण्डित मनस्क बड़बड़ाहट के रूप में सामने आती है। मानो, भाषा अपनी निर्दोष आदिम अवस्था की ओर, अपनी जड़ों की ओर, शब्द और अर्थ की अद्वैतावस्था की ओर लौट रही हो। पश्यन्ति से संक्रमित वैखरी। यह कविताओं की खण्डित स्मृतियों, खण्डित स्वप्नों, खण्डित निद्रा, खण्डित जागृति आदि के ही प्रभाव हैं, जो इनकी संरचना की खण्डित मनस्कता के रूप में उभरते हैं:
मरने के ठीक पहले माँ की साँस की डोर छाती के भीतर बुरी तरह उलझ गयी है। उसे सुलझाने की जगह मैं उसका हाथ पकड़ लेता हूँ। रसोईघर के फहराते प्रकाश में, मैं आग के सामने बैठा हूँ। माँ चूल्हे में फूलती रोटी को ताक रही है। सुदूर गहराते आकाश-मार्ग पर पिता के छूटे हुए पद-चिह्नों की तरह नक्षत्र दिखायी देना शुरू हो जाते हैं। माथे की झुर्रियों में फँसे हाथों से नाना नींद की ओर सरक रहे हैं।
अँधेरी छत पर खड़ी नानी पूरी ताकत से चीख़ती है : लो-लो, वह चल दी
- ‘साँस’
या
नाना अपने बूढ़े दोस्तों के साथ ताश के पत्ते टेबिल पर जमा रहे हैं। अँधेरे कमरे में सभी के सिर धीरे-धीरे हिलते हैं। बाबा कहते हैं कि उनका लड़का बेजोड़ होशियार था। माँ नानी की चोटी बनाती है। छत पर लुढ़कते चन्द्रमा की पीली आँच में शरद पूर्णिमा का दूध पिघलता है। कश्मीर का एक ज्योतिषी पिता का दोस्त है। वह उन्हें उनकी मौत की तारीख़ बताता है, जिसे वे पुश्तैनी पहचान की तरह काठ की अलमारी में छुपाकर रख लेते हैं। सूर्य डूब चुका है।
पिता घर के दरवाज़े पर खड़े हैं। सफ़ेद कपड़े के नीचे बाबा आँखें बन्द करते हैं।
- ‘बूढ़े दोस्त’
एक छोटी-सी दूरी के बाद इन वाक्यों का आपस में प्रायः कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता, या ज़्यादा-से-ज़्यादा भंगुर या विचलनशील सम्बन्ध ही बना रहता है। अन्यथा, वे एक-दूसरे के बरक्स अपने में स्वायत्त हैं। वे आपस में मिलकर कोई सुसंगत, बोधगम्य क़िस्सा या बयान नहीं गढ़ते। या ऐसा आख्यान जिसमें काल का अभाव या उसकी अल्पता उसे लम्बवत की बजाय बहुदिशात्मक रूप लेता क्षैतिज विन्यास प्रदान करती है।
मृत्यु या संहार अन्ततः उस चीज़ के संहार का रूप ले लेता है, जिसे कविता कहा जाता है। हमारे सामने एक काग़ज़ होता है, परस्पर असम्बद्ध, स्वायत्त वाक्यों से भरा हुआ, और हम सहसा उन वाक्यों और शब्दों के भीतर स्पन्दित, उन्हें आविष्ट करती एक रिक्ति को अनुभव करते हैं- कविता की सम्भावना से गर्भित, मानो एक आसन्न प्रसवा रिक्ति।
‘कुछ वाक्य’ की कविताओं की बिम्बधर्मिता उनके आन्तरिक बिम्बों (जो यूँ अपने में अत्यन्त ऐन्द्रिय हैं) से उतनी नहीं, जितनी पूरी कविता के एक अतीन्द्रिय बिम्ब के रूप में उभरने से गोचर होती है। इस बिम्ब की रचना वाक्यों की आर्थी विच्छिन्नता और उनकी आरेखीय (ग्रैफ़िक) समग्रता के श्लेष से होती है, जिससे कविता एक चाक्षुष आयाम ले लेती है; वह चित्र में बदल जाती है - ऐसा चित्र जिसमें परिप्रेक्ष्य का अभाव उसे मिनिएचर जैसी शक्ल प्रदान करता है।
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वह अपने सौन्दर्य का भार कन्धे पर उठाये आकाशगंगा पार कर रही है। मैं उसका स्पर्श सँभाले अपने होंठों पर उस शब्द का इन्तज़ार करता हूँ जहाँ सुस्ताने वह दो क्षण रुकी थी। यहाँ रखी थी उसने अपनी काया, यहाँ अपनी आकाँक्षाएँ। मैं जागता हूँ। वह अपने नाम पर बैठी है। मुझे जागता देख वह मुस्कराती है। मैं हड़बड़ाकर उसकी ओर देखता हूँ।
वह धीरे-धीरे उठती है और अपने नाम में समा जाती है।
- ‘वह अपने सौन्दर्य का भार’
वह अदृश्य में निःशब्द टहल रही है। मैं अपने नीरव आवास में उसके वस्त्रों की शान्त सरसराहट सुनता हूँ। रात के सन्नाटे में धुँधले नीले पुल पर एक कार सरकती है जिससे लगातार झरता पीला आलोक पुल के फ़र्श पर चुपचाप बिछता चला जाता है। अपने अन्तिम अभिसार को निरन्तर टालती है शयनकक्ष को जाती अवसन्न गतयौवना। आकाश से टूटा चमकीला नक्षत्र आकाश में ही लटकता है। वह चौंककर मुड़ती है। उसके खुले केश अन्धकार के पारदर्शी फ़र्श पर मोतियों की तरह इधर-उधर बिखर जाते हैं।
मैं उसे देखता हूँ। वह मुझे देखती है। हवा बहती है।
- ‘वह अदृश्य में निःशब्द’
श्ये ‘वह’ शृँखला की कविताएँ हैं - ‘कुछ वाक्य’ शृँखला के लगभग समानान्तर लिखी जाती रही और किसी हद तक उसका प्रतिरूप, जुड़वाँ, यमक रचती शृँखला। भोक्ता स्वत्व और सृष्टा स्वत्व, या भोगे हुए अनुभव और स्थायी भाव के जिस श्लेष को हमने ‘कुछ वाक्य’ शृँखला के सन्दर्भ में लक्ष्य किया है, लगभग वही श्लेष, अदृश्य रूप में, इन दोनों शृँखलाओं में है - इस संशोधन के साथ कि यदि सब कुछ के बावजूद ‘कुछ वाक्य’ की कविताओं का ग्राफ़ एक अधिक निर्वैयक्तिक, उदात्तीकृत, सृष्टा स्वत्व की ओर झुका हुआ है, तो ‘वह’ शृँखला की कविताओं का ग्राफ़, सब कुछ के बावजूद, अपेक्षाकृत वैयक्तिक, अ-साधारण भोक्ता स्वत्व की ओर झुका हुआ है। और यहाँ एकबार फिर यह याद रखना ज़रूरी है कि यह असाधारणत्व या भोक्ता स्वत्व का प्रभाव भाव के अनुदात्तीकृत रह जाने का परिणाम नहीं है। वह इस ख़ास इकॉनॉमी के साथ रचा गया है। अस्तु, यह अकारण नहीं कि यहाँ ‘वह’ के अभाव के सांघातक दबाव को झेलते ‘मैं’ का स्वर बहुत मुखर है। यह ‘कुछ वाक्य’ से भिन्न स्थिति है, जहाँ अधिकांश बयान अन्य पुरुष में किया गया है, और जहाँ अन्य का, मृत्यु या मृतकों का, स्वर अधिक मुखर है। किन्तु, जैसाकि मैंने ऊपर कहा है, इन दोनों शृँखलाओं में यमक और उनका अदृश्य श्लेष है, इसलिए दोनों शृँखलाओं की कविताएँ एकसाथ पठनीय हैं। अवश्य पठनीय। मानों दोनों के बीच का अन्तराल किसी दुर्घटनावश उनके एक-दूसरे से अलग हो जाने के नाते पैदा हुआ है। इसीलिए वह अन्तराल अपने एकत्व की आद्य स्मृति से आविष्ट है। विमोहक अन्तराल।
मृत्यु दोनों शृँखलाओं में उभयनिष्ठ है, दोनों ही शृँखलाओं की कविताएँ, वागीश शुक्ल की अवधारणा के सहारे कहें तो, ‘मृत्यु का सामना करने की विधि’ हैं, लेकिन जहाँ ‘कुछ वाक्य’ में यह सामना मृत्यु के अनिवार्य स्वीकार से किया गया है, वहीं ‘वह’ शृँखला में यह सामना मृत्यु द्वारा छोड़े गये उन हाशियों, या उसके उन अल्पविरामों की ओट लेकर किया गया है, जिन्हें ‘जीवन’ के नाम से जाना जाता है। ‘कुछ वाक्य’ शृँखला में मृत्यु का अभिघात अन्य की क्षति और उस क्षति को झेलते आत्म के परिताप में फलित है, वहीं ‘वह’ शृँखला की कविताओं में वह अभिघात आत्म-क्षति को झेलते स्वत्व के परिताप में फलित है। जिसे इन कविताओं में ‘वह’ कहकर सम्बोधित किया गया है, वह दरअसल अन्य नहीं है, आत्म का ही हिस्सा है। इसलिए परिताप का विषय ‘उसकी’ क्षति नहीं है, बल्कि वह उस अद्वैत का भंग होना है, जो आत्म और अन्य के द्वैताभास के रूप में व्यापता है। यह आत्मक्षति ही इन कविताओं में शोक और विलाप का कारण है और, ज़्याँ लुक नैन्सी के पद के सहारे कहें तो, रहित के सहित होने (‘बीइंग विद द विदाउट’) में फलित होती है। ‘वह’ काव्य-नायक के ‘अभाव में वास करती है’; ‘वह न होने के अन्तरिक्ष में (उसके) स्पर्श को’ खोजती है; ‘वह होने को इस तरह बुनने के बाद कि वह उसे विराम दे सके, न होने को इस तरह’ बुनती ‘है कि वह एक बार फिर हो सके’; काव्य-नायक ‘और उसके बीच’ काव्य-नायक का ‘होना’ ‘घने बादल-सा फैला है’; उसके और काव्य-नायक के बीच झीनी वर्षा-सा उसका न होना बरसता है’; ‘वह’ काव्य-नायक को उसके ‘न होने की दूरी से ताकती है, और काव्य-नायक उसे उसके हो सकने की क़रीबी से’ ताकता है; काव्य-नायक और उसके बीच ऋतुओं के आरपार फैला’ ‘अन्तराल रह-रहकर सिहरता है’।
मानो मृत्यु का, उसके अभिघात का, तूफ़ान अभी-अभी थम चुका है, तब भी उसका अवशेष उस समीर में बचा हुआ है, जो हल्का-हल्का बह रहा है, जिसमें आकाँक्षा की लौ झिलमिलाती है (‘उसकी काया’ ‘इच्छा के रेशों से बुनी’ हुई है)। यह ‘वह’ शृँखला की कविताओं का वातावरण है। मृत्यु के समीर में झिलमिलाती आकाँक्षा की लौ। इस समीर की इकॉनॉमी कुछ ऐसी है कि उससे न सिर्फ़ उस लौ के बुझने का कोई ख़तरा नहीं है, बल्कि वही है, जो लौ में विमोहक झिलमिलाहट पैदा करती है। यह आखि़री सूत्र है, जिसके सहारे वह आत्मविच्छेद के नतीजे में पैदा हुए उस द्वैत को पाटना चाहता है, यह जानते हुए भी कि यह एक हताश कोशिश है। इस भोले विश्वास की वजह से नहीं कि ‘मेरे और उसके बीच मेरा बच जाना सिहर रहा है जिसे पार करना वह नहीं चाहती’, बल्कि शायद इसलिए कि मृत्यु उस अन्तराल को अदृश्य भले कर दे, उसे पाट नहीं सकती, वह उस द्वैत का इलाज नहीं है। कम-से-कम उस हद तक तो नहीं ही है जिस हद तक आकाँक्षा उसका इलाज प्रतीत होती है। क्योंकि उसमें कम-से-कम द्वैत का पीड़ादायी बोध है, अद्वैत की कामना है।
बहरहाल, यह झिलमिलाहट कायनात के विचित्र रूपाकारों के साजोसामान की मदद से उस मंच का विधान करती है, जिस पर आकाँक्षा का नाटक घटित होना है : ‘रात ही में समूची बीत जाने से ठीक पहले एक क्षण दरवाज़े पर ठिठक जाती है, किसी भी तरह भीतर आने को आतुर, सृष्टि’; अन्धकार सोख लेता है कामनाओं से उनकी पारदर्शिता’; द्वार तक आकर कँपकँपाती है/पवन, ठिठक जाता है, प्रभात’; ‘ठहर जाता है हवा में बारिश का/कलरव, विंहसती है आकाश की नीलिमा में/एक पारदर्शी शून्यता, किताब के पन्नों में/फड़फड़ाती है गुपचुप यह कहाँ से आये पक्षी की श्वेत आकृति’; ‘टेबिल के पास की खुली खिड़की से दो चमकीली आँखों में पीले चन्द्रमा को ताकती एक बिल्ली बीत जाती है’; ‘पृथ्वी के ऊपर एकान्त भटकते कोहरे पर चुपचाप जमने लगता है पारदर्शी प्रभात’; ‘तीजा की रात बीत चुकी है/शिव पार्वती की देह पर धीरे-धीरे चलते हैं’; ‘एक कुर्सी पर पीली धूप गिर रही है जिसके ऊपर रात का अधखाया चन्द्रमा लटक रहा है’; ‘गुसलखाने का नल एक महीन जाल बुन रहा है : टप टप टप टप’; ‘एक वृद्ध एक पुलिया से उठकर दूसरी पर बैठ जाते हैं’; ‘एक बिल्ली दोनों ओर देखने के बाद धीरे-धीरे सड़क पार करती है’; ‘अपने आगे रेत की तरह फैले अन्धकार पर चलकर अन्धा सड़क पार करता है/अस्पताल के कमरे में मरते पिता की बग़ल में खड़ी एक नवयौवना अपनी माँ के सिर पर पल्ला डाल उसका सुहाग बचाने की कोशिश करती है’; ‘नीरव गलियों पर टिमटिमाता है चन्द्रमा’; ‘नाव के पाल में छूटी रह गयी तितली के पंख पर शाम का आखि़री कतरा अटका है’; ‘रात की चादर को चोंच में दबाये सफ़ेद पक्षी हर ओर बिखर रहे हैं’।
‘कुछ वाक्य’ की जुड़वा इस शृँखला के वातावारण की शक्ल ‘कुछ वाक्य’ के वातावरण से कुछ-कुछ मिलती-जुलती होने के बावजूद तात्त्विक रूप से उससे भिन्न है। उसमें उत्तलता है। बिम्बों में परिपूर्णता, आलंकारिकता, और जहाँ-तहाँ किंचित् नक़्क़ाशी है। ‘कुछ वाक्य’ की पारभासकता के बरक्स उनमें आकाँक्षा की झिलमिलाहट से विकीरित उजास की वजह से चीज़ें अधिक उभरी हुई, अधिक स्पष्ट हैं। उनमें पारदर्शिता का, लगभग ‘ऑब्सेशन’ की हद तक उठा हुआ आग्रह हैः पारदर्शी हाथ, पारदर्शी त्वचा, पारदर्शी फ़र्श, पारदर्शी कामनाएँ, पारदर्शी शून्यता, पैरों के पारदर्शी निशान, पारदर्शी प्रभात, पारदर्शी वसन्त, पारदर्शी चाहना। विषाद, विषण्णता, अवसाद, भुतैलेपन के बरक्स इन कविताओं के वातावरण की रचना इन चीज़ों से होती है : सुकुमार अँगुलियाँ, महीन स्पर्श, शृँगार के बारीक़ तार, सौन्दर्य का भार, गुलमुहर की तरह सुलगता चेहरा, वस्त्रों की शान्त सरसराहट, अभिसार, मोतियों की तरह बिखरे केश, कँपकँपाता पवन, डोलती हवा, झीनी वर्षा, पीला चन्द्रमा, पीला आलोक, भाप की तरह उठता मौन, हवा में फूलता आँचल, माथे की बिन्दी, चन्द्रमा से झरती सफ़ेद धूल, चाँदनी के रेशे, स्पर्शाभा, झीना दरवाज़ा, ब्रह्माण्ड के चमकीले टुकड़े, हल्के गुलाबी नक्षत्र, हल्के पीले एकान्त की छाया, सरोवर में लहरों-सा तैरता प्रेम, कस्तूरी की गन्ध, ठहरा हुआ प्रभात, प्रार्थना, बारिश का कलरव, आकाश के बारीक़ रेशों में झरझर झरती सुकुमार नीलिमा, नीरव गलियों पर टिमटिमाता चन्द्रमा, चक्के की तरह लुढ़काया जाता चन्द्रमा, धूप खाये वृक्ष की हरीतिमा, बर्फ़ की नदी की तरह ठहरी रात, समुद्र किनारे की भुरभुरी रेत, सीपियाँ, शंख और घोंघे, फूल की ओस बूँद में छाया-सा उतरना, सरोवर, तितली के पंख पर शाम का आखि़री कतरा, सरोवर की लहरें, नदी का शान्त जल, उज्ज्वल जलधारा, सुनहली मछलियाँ, अभी-अभी फूटी कोंपलें, खिलखिल हँसी के नक्षत्र, उल्काओं की तरह आकाशगंगा में बिखर जाते हँसी के कण, सिसकियों के धागे, आकाशगंगा का निर्मल जल, घास पर गिरती ओस, धरती के नीचे रेंगते कीड़े, चिड़ियों की चुप्पी, कान के पर्दों पर थपकियाँ, चमकीली पीली धूप, कोहरे का थका घोड़ा, फूलों में प्रवेश कर ओस के कणों में बदलते भाप के रेशे...। एक क़िस्म का लालित्य, माधुर्य, सुकुमारता, दुलार...
क्या ये सारी चीज़ें, इनसे निर्मित वातावरण को एक काम्य और स्पृहणीय वातावरण में नहीं बदल देतीं? एक ऐसा वातावरण जो, मृत्यु के बावजूद, शोक की बजाय रति का उद्दीपक है? शोक का (वियोग-)रति में यह रूपान्तरण उसी आत्मक्षति या आत्मविच्छेद से उत्प्रेरित आत्मोपलब्धि की फ़न्तासियों से सम्भव होता है, जिसका ज़िक्र मैंने ऊपर किया है। यही वे फ़न्तासियाँ हैं - आकाँक्षा की झिलमिल से प्रदीप्त - जिनमें अनस्तित्व का सा-हि-त्य क्लाइडिकोपिक रूपाकारों में बनता-मिटता रहता है; भाव और अभाव की, उपस्थिति और अनुपस्थिति की, प्रकटन और विलोपन की, आगमन और निर्गम की मरीचिका में रूपायित होता रहता है। ‘वह’ लगभग एक हॉण्टिंग उपस्थिति (या अनुपस्थिति) है। कभी वह धीरे-धीरे चलती हवा में डोलती, दो क्षणों के बीच के गलियारे को अपनी सुकुमार अँगुलियों से टटोलती, प्रियजनों के बीच भटकती दिखायी देती है; कभी आती है और अँधेरी रात में एक ख़ाली देह के वे सारे द्वार खटखटाती है जो भीतर से बन्द हैं; कभी वह रात में शृँगार करने आईना खोजती-खोजती उसके सामने खड़ी हो जाती है; कभी दृश्य में विन्यस्त वृक्षों से उनकी परछाइयों-सी नीचे उतरती है; कभी अपनी ही छाया में खड़ी दिखायी देती है; कभी वह पास में फुसफुसाती है, कभी कहीं बहुत दूर से पुकारती है; कभी आकाशगंगा में बहते-बहते उसके स्वप्न के किनारे आ लगती है; कभी वह उसे किसी अज्ञात खिड़की से देख रही होती है; कभी अपने सौन्दर्य का भार कन्धे पर उठाये आकाशगंगा पार करती दिखती है; कभी कहीं न दिखते हुए भी हर जगह दिखने-दिखने को होती है; कभी वह जाकर भी नहीं जा रही होती, और आकर भी नहीं आ रही होती; वह फिर-फिर आती है, फिर-फिर जाती है; कभी अपने बच्चों को देख अपना न होना भूल जाती है; कभी चुपचाप बिस्तर से उठती है और जगत को अपने सोते बच्चों-सा छोड़ एक झीने दरवाज़े से दबे पाँव चली जाती है; कभी अपने एकान्त को अपने बच्चों के चेहरे पर डूबता-उतराता छोड़ अन्तरिक्ष में नक्षत्रों की तरह बिखर जाती है; कभी धीरे-धीरे उठती है और अपने नाम में समा जाती है; कभी सुगन्ध और धुएँ में तिरोहित हो जाती है; कभी चन्द्रमा से लगातार झरती सफ़ेद धूल में ढँकती चली जाती है; कभी अपनी उड़ान में प्रवेश करते पक्षी की तरह अपनी मृत्यु में प्रवेश करती है...। होने-न-होने की सन्निधि, या अभाव के भावन में आकार लेने की प्रक्रिया में भाव और अभाव की मरीचिका, मुबहम, या सन्ध्या में चरितार्थ होता अनुभव। इनमें न होने का परिताप, उसकी हिंसक वेदना भी है और होने की मारक विडम्बना भी है। यही अनुभव इस कविता को प्रेम-कविता बनाता है, जिसमें प्रेम और कविता के बीच द्वैत की वैसी ही मर्मान्तक पीड़ा और अद्वैत की वैसी ही उत्कट आकाँक्षा है जैसी वे कविता के काव्य-नायक में हैं। वे प्रेम-कविता की असम्भाव्यता की हताशा के अहसास में भीगी प्रेम-कविता होने की आकाँक्षा में प्रेम कविताएँ हैं।
और हम अपने मूल प्रस्ताव की ओर लौटें, तो क्या ‘कुछ वाक्य’ और ‘वह’ के बीच भी कुछ-कुछ वैसा ही सम्बन्ध नहीं है? क्या आत्मक्षति को अन्य की क्षति के रूपक में रचती ‘वह’ शृँखला की कविताएँ वस्तुतः ‘कुछ वाक्य’ की प्रति-ध्वन्यात्मक पुनर्रचनाएँ नहीं हैं? मृत्यु की उभयनिष्ठता के बावजूद जहाँ ‘कुछ वाक्य’ में मृतक अपना ही एक अतिक्रामीलोक रचते हुए उसमें मृतकों के रूप में लौटते, जीवन जीते हैं, वहीं ‘वह’ शृँखला में मृतक आकाँक्षा के क्लाइडिस्कोप (जोकि हमारा मृत्यु-लोक है) में लौटकर बार-बार जीती और मरती है। इस विशेष अर्थ में, अगर दोनों शृँखलाओं को साथ-साथ रखकर पढ़ा जाए तो क्या वे भी साहित्य के क्लाइडिस्कोप में कविता के निरन्तर संहार और सृष्टि की लीला के रूप में नहीं उभरतीं? हम ध्यान दें कि जहाँ ‘कुछ वाक्य’ में मृत्यु आख्यान से उसके परिप्रेक्ष्य का आहरण कर उसे असम्बद्ध वाक्यों के मलबे में बदल देती है, वहीं ‘वह’ शृँखला में आकाँक्षा मानो स्वयं परिप्रेक्ष्य की भूमिका निभाती हुई आख्यान की काल-अवलम्बित निर्मिति को बहाल करती है।
मृत्यु और आकाँक्षा या ‘कुछ वाक्य’ और ‘वह’, एक दूसरे के शवों पर फूल चढ़ाते हैं, एक दूसरे के शवों को दूर खड़ा देखते हैं।
इस तरह, मृत्यु और आकाँक्षा के संवेगों को एक-दूसरे की सन्निधि में रखकर, कविता में और कविता के, संहार और सृष्टि के खेल को सामने लाना, और इस खेल को लय-ताल में निबद्ध करते भाषा के डमरू-नाद ‘शून्य-शून्य, शून्य-शून्य’ को श्रव्य बनाना ही इन कविताओं का मर्म है।