भेड़िया होशंग गुल्शीरी उर्दू से अनुवाद : तरीकुलज़माँ
22-Mar-2023 12:00 AM 1393

गुरुवार की दोपहर को मुझे ख़बर मिली कि डॉक्टर लौट आया है और अब तक बीमार है। उसे कोई समस्या नहीं थी। अस्पताल के चौकीदार ने बताया था कि कल रात से अब तक वह निरन्तर सो रहा है और जबसे उठा है लगातार रो रहा है। वह नियमित रूप से बुधवार या गुरुवार को दोपहर के बाद अपनी पत्नी के साथ शहर चला जाता। इस बार भी वह अपनी पत्नी के साथ गया था। लेकिन जो ट्रक-ड्राईवर डॉक्टर को लेकर आया था उसने बताया- ‘गाड़ी में केवल डॉक्टर ही था।’ लगता था अत्यधिक ठण्ड से अकड़ गया है। वह डॉक्टर को कॉफी-हाऊस पहुँचाकर खुद आगे रवाना हो गया था। डॉक्टर की गाड़ी घाटी के संकरे रास्ते के बीच में मिली। पहले उन्होंने सोचा कि उसे गाड़ी के पीछे बाँधकर गाँव तक लाना होगा। इसी विचार के साथ वो अस्पताल की जीप साथ ले गए थे। लेकिन जब ड्राईवर गाड़ी में बैठा और कुछ लोगों ने धक्का लगाया वो वह चल पड़ी। ड्राईवर ने कहा- ‘यह भी केवल कल रात की ठण्ड के कारण है वरना गाड़ी में कोई खराबी नहीं।’ गाड़ी के बर्फ हटाने वाले वाइपर तक सही हालत में थे। इसलिए जिस समय डॉक्टर ने कहा- ‘अख़्तर? अख़्तर कहाँ है?’ तब तक किसी को उसकी पत्नी का ध्यान नहीं आया।
डॉक्टर की पत्नी छोटे क़द की और दुबली-पतली थी; इतनी दुबली-पतली और सहमी हुई मानो अभी निढाल होकर गिर पड़ेगी। वो दोनों अस्पताल की इमारत में बने दो कमरों में रहते थे। अस्पताल क़ब्रिस्तान के उस ओर है, अर्थात आबादी से एक मैदान की दूरी पर। उसकी पत्नी उन्नीस बरस से अधिक उम्र की नहीं थी। कभी-कभी वह अस्पताल की गैलरी में या खिड़की के शीशों के पीछे प्रकट होती। केवल जब धूप निकली होती, वह क़ब्रिस्तान के किनारे से निकलकर आती और गाँव का चक्कर लगाती। अक्सर उसके हाथ में कोई क़िताब होती या कभी-कभी मीठी गोलियाँ या चॉकलेट भी उसके सफ़ेद ब्लाउज़ की जेब या हैंडबैग में होते। उसे बच्चों से बहुत लगाव था। उन्हीं के लिए अक्सर वह मदरसे की ओर निकल आती। एक बार उसने प्रस्ताव रखा कि अगर वह चाहे तो एक क्लास उसके हवाले की जा सकती है; लेकिन उसने कहा कि उसके अन्दर बच्चों को डाँट-डपट करने का हौसला नहीं। सच यह है कि इससे पहले डॉक्टर ने भी यही प्रस्ताव रखा था, ताकि वह स्वयं को व्यस्त रख सके। कभी-कभार वह औरतों के साथ नहर के किनारे भी चली जाती।
जब पहली बर्फ पड़ी तब से वह ग़ायब हो गयी। औरतों ने उसे बुखारी के पास बैठे क़िताब पढ़ते या अपने लिए चाय बनाते देखा था। जब डॉक्टर मरीज़ों को देखने किसी दूसरे देहात में गया होता तो ड्राईवर की पत्नी या चौकीदार ख़ानम के पास रहते। शायद सबसे पहले ड्राईवर की पत्नी सिद्दीक़ा की समझ में आया। उसने औरतों से कहा- ‘पहले मैंने सोचा कि उसे अपने पति की चिन्ता है जो वह अचानक उठकर खिड़की के पास जाती है और पर्दे खोल देती है।’ वह खिड़की के पास खड़ी हो जाती और सफ़ेद और चमकीले रेगिस्तान को देखने लगती। सिद्दीक़ा का कहना था- ‘जब भेड़ियों के गुर्राने की आवाज़ आती है तो वह खिड़की के पास जा खड़ी होती है।’
ख़ैर, सर्दियों में जब बर्फ़ पड़ती तो भेड़िये आबादी की ओर आ जाते थे। हर साल इसी तरह होता था। कभी-कभी कोई कुत्ता, भेड़ बल्कि बच्चा भी गुम हो जाता, और बाद में गाँव वालों को टोली बनाकर जाना पड़ता ताकि कुत्ते का पट्टा, या बच्चे का जूता या कोई और निशान मिल सके। लेकिन सिद्दीक़ा भेड़िये की चमकीली आँखों को देख चुकी थी और यह भी देख चुकी थी कि डॉक्टर की पत्नी किस तरह हैरान होकर भेड़िये की आँखों को देखती रह जाती थी। एक बार तो उसे सिद्दीक़ा के खुद को पुकारने तक की आवाज़ सुनायी नहीं दी थी।
दूसरी तीसरी बर्फ़ पड़ने के बाद डॉक्टर के लिए आस-पास के इलाक़ों में मरीजों को देखने जाना सम्भव नहीं रहता। जब उसे लगता कि सप्ताह में चार या पाँच रातें उसे घर पर ही गुज़ारनी पड़ेंगी तो वह हमारी महफ़िलों में शामिल होने चला आता। हमारी महफ़िल महिलाओं के लिए नहीं थी, लेकिन, खैर, अगर डॉक्टर की पत्नी आती तो वह महिलाओं के पास जा सकती थी। मगर उसने कह दिया था- ‘मैं घर में ही रहूँगी’। किसी रात अगर महफ़िल डॉक्टर के घर पर जमती तो उसकी पत्नी बुखारी के क़रीब बैठी क़िताब पढ़ा करती या खिड़की से वीराने को देखा करती या क़ब्रिस्तान की ओर वाली खिड़की से शायद गाँव के उजालों को देखती रहती। एक रात शायद हमारे घर पर थे तभी डॉक्टर ने कहा- ‘आज मुझे ज़ल्दी जाना है।’ कुछ ऐसा था कि उसने सड़क पर एक बड़ा-सा भेड़िया देख लिया था।
मुर्तजवी ने कहा- ‘शायद कुत्ता हो।’
मगर मैंने स्वयं डॉक्टर से कहा- ‘इस ओर भेड़िये बहुत दिखायी देते हैं। सावधानी बरतनी चाहिए। और गाड़ी से बाहर तो बिल्कुल नहीं निकालना चाहिए।’
फिर शायद मेरी पत्नी ने कहा- ‘डॉक्टर साहब, आपकी ख़ानम कहाँ हैं? उसी घर में, क़ब्रिस्तान के पास?’
डॉक्टर बोला- ‘इसीलिए तो मुझे ज़ल्दी चले जाना चाहिए।’
फिर उसने बताया कि उसकी पत्नी बहुत निडर है। और बताया कि एक रात, मध्य-रात्रि को उसकी आँख खुली तो उसे खिड़की के पास एक कुर्सी पर बैठे देखा। जब डॉक्टर ने उसे आवाज़ दी तो पत्नी ने कहा- ‘पता नहीं क्यों यह भेड़िया हमेशा इस खिड़की के पास आ जाता है।’
डॉक्टर ने देखा कि वह भेड़िया खिड़की के जंगले के ठीक बाहर चाँद के धुँधले उजाले में बैठा था और थोड़ी-थोड़ी देर बाद चाँद की ओर मुँह करके गुर्रा रहा था।
खैर,
कौन सोच सकता था कि एक बड़े और अकेले भेड़िए का यूँ खिड़की के पास बैठना और चौंधियाना डॉक्टर के लिए एक समस्या बन जाएगी, बल्कि हम सबके लिए भी। एक रात वह हमारी महफ़िल में शामिल होने नहीं आया। पहले हमे लगा कि डॉक्टर की पत्नी बीमार हो गयी होगी या शायद डॉक्टर खुद, लेकिन अगले दिन उसकी बीवी खुद सरकारी गाड़ी में बैठकर मदरसे आयी और कहने लगी कि उसे बच्चों की कला की क्लास दे दी जाए तो वह मदद करने के लिए तैयार है।
वास्तव में छात्र इतने कम हो गए थे कि अब उसकी मदद की ज़रूरत नहीं रही थी। जब हम उन सबको एक क्लास में इकट्ठा कर लेते तो उनके लिए मास्टर मुर्तज़वी ही काफ़ी थे। मगर खैर, कला न मेरी अच्छी थी न मुर्तज़वी की। हमने उसके लिए बुधवार की सुबह का समय तय किया। फिर मैंने भेड़िए की बात छेड़ी और कहा कि उसे डरने की ज़रूरत नहीं, क्योंकि अगर दरवाज़ा खुला न छोड़ा जाए और बाहर न निकला जाए तो कोई खतरा नहीं। मैंने ये भी कहा कि अगर वो चाहें तो गाँव में मकान लेकर रह सकते हैं।
कहने लगी- ‘नहीं, शुक्रिया। कोई मुश्किल नहीं है।’
इसके बाद बताने लगी कि शुरू-शुरू में उसे डर लगता था, यानी एक रात जब उसने भेड़िये के गुर्राने की आवाज़ सुनी तो उसे लगा कि वह जंगला फलांगकर इस ओर आ गया है और जैसे खिड़की या दरवाज़े के बिल्कुल साथ लगा बैठा है। जब उसने बत्ती जलाई तो उसे जंगला फलांगते देखा और उसकी चमकती हुई आँखों को देखा। वह बोली- ‘उसकी आँखें बिल्कुल ऐसी थीं जैसे दो जलते हुए अंगारे।’ फिर कहने लगी- ‘मैं खुद भी नहीं जानती कि जिस समय मैं उसे देखती हूँ, उसकी आँखों को या उसके शान्तिपूर्ण भाव को, आपको पता है वह बिल्कुल शिकारी कुत्ते की तरह अपनी अगली टाँगों पर बैठा घण्टों हमारे कमरे की खिड़की पर निगाहें जमाये रहता है।’
मैंने पूछा- ‘तो फिर आखिर आप क्यों।।।?’
वह समझ गयी, बोली- ‘बताया तो है, मैं नहीं जानती क्यों। विश्वास कीजिये, जब मैं उसे देखती हूँ, विशेष रूप से उसकी आँखों को, तो मेरे लिए खिड़की के पास से हटना सम्भव ही नहीं रहता।’
फिर हम शायद भेड़ियों के बारे में बातें करने लगे और मैं उसे बताने लगा कि कभी जब भेड़िए भूखे हो जाते हैं तो गोला बनाकर बैठ जाते हैं और एक-दूसरे को आँखों में आँखें डालकर देखने लगते हैं, एक घण्टा, दो घण्टे, अर्थात उस समय तक जब तक कि उनमें से कोई एक दुर्बलता से विवश होकर गिर न पड़े। तब वो उस पर हमला करके उसे खा जाते हैं। फिर उन कुत्तों की चर्चा हुई जो कभी-कभार गुम हो जाते हैं और बाद में उनका पट्टा कहीं पड़ा मिलता है। डॉक्टर की ख़ानम ने भी बातें कीं। लगता था कि वह जैक लन्दन की क़िताबें पढ़ चुकी है। कहती थी, ‘अब मैं भेड़ियों को अच्छी तरह जान गयी हूँ।’
अगले सप्ताह जब वह आयी तो उसने बच्चों के लिए फूल या पत्ते की ड्राइंग बनायी थी। मैंने देखी नहीं केवल उसके बारे में सुना था।
एक शनिवार को मैंने बच्चों से सुना कि क़ब्रिस्तान में शिकंजा लगाया गया है। तीसरी घण्टी पर स्वयं एक बच्चे के साथ गया और देखा। बड़ा-सा शिकंजा था। डॉक्टर स्वयं शहर से खरीदकर लाया था और उसके अन्दर गोश्त का टुकड़ा रखा था। उस दिन तीसरी पहर को मेरी पत्नी ने बताया कि वह डॉक्टर की पत्नी से मिलने गयी थी। कहने लगी- ‘उसकी हालत अच्छी नहीं है।’ कहने लगी, डॉक्टर की पत्नी बता रही थी कि उसे डर है, उसके बच्चा नहीं होगा।
मेरी पत्नी ने उसे दिलासा दी थी। उनकी शादी को सालभर हुआ था। फिर मेरी पत्नी शिकंजे की बात करने लगी और उससे बोली- ‘आमतौर पर खाल यहीं उतार लेते हैं और फिर शहर ले जाते हैं।’ मेरी पत्नी ने बताया- ‘विश्वास करो, एक बार तो उसकी आँखें फैल गयीं और कँपकपी छा गयी। बोली- ‘सुनती हो? यह उसी की आवाज़ है।’ मैंने कहा- ‘ख़ानम, इस समय? दिन में?’
फिर जैसे डॉक्टर की पत्नी दौड़कर खिड़की के पास गयी। बाहर बर्फ़ पड़ रही थी। मेरी पत्नी ने बताया- ‘उसने पर्दे खोल दिये और खिड़की से लगकर खड़ी हो गयी। उसे ध्यान तक नहीं रहा कि कोई उससे मिलने आया हुआ है।’
अगली सुबह ड्राईवर और गाँव के कुछ लोग शिकंजे के पास गये। उसे किसी ने न छुआ था। सफ़र ने डॉक्टर से पूछा- ‘निश्चित रूप से वह रात में नहीं आया।’
डॉक्टर ने कहा- ‘नहीं। आया था। मैंने स्वयं उसकी आवाज़ सुनी थी।’
मुझसे उसने कहा- ‘यह औरत पागल होती जा रही है। रात को पलभर नहीं सोयी। सारी रात खिड़की के पास बैठी वीराने को ताकती रही। आधी रात को जब भेड़िये की आवाज़ से मेरी आँख खुली तो मैंने देखा कि वह दरवाज़े की कुण्डी खोलने का प्रयास कर रही है। मैंने चीखकर कहा- ‘क्या कर रही है, औरत?’
डॉक्टर ने बताया कि उसकी पत्नी के हाथ में फ़्लैशलाइट थी। वह भी जलती हुई। डॉक्टर का रंग उड़ा हुआ था और हाथ काँप रहे थे। हम दोनों साथ में शिकंजे के पास गये। वह सुरक्षित था। गोश्त का टुकड़ा भी ज्यों का त्यों रखा था। पैरों के निशान बताते थे कि भेड़िया शिकंजे के पास आया था, यहाँ तक कि उसके पास बैठा भी था। उसके बाद भेड़िये के पैरों के निशान सीधे अस्पताल की चारदीवारी के जंगले की ओर जाते थे। औरत का चेहरा मुझे खिड़की के पास दिखायी दिया। वह हमारी ही ओर देख रही थी। डॉक्टर बोला- ‘मेरी समझ में नहीं आता। तुम कम-से-कम कुछ तो उस औरत से कहो।’
औरत की आँखें फैली हुई थीं। उसकी पीली रंगत और भी पीली पड़ गयी थी। अपने काले बाल उसने इकट्ठे करके सीने पर डाल रखे थे। केवल आँखों में सुरमा लगा रखा था। काश वह अपने होंठों पर लाली या कोई चीज़ लगा लेती ताकि वो इतने सफ़ेद न नज़र आते। मैंने कहा- ‘मैंने कभी नहीं सुना कि भूखा भेड़िया गोश्त के पास से इस तरह निकल जाए।’
मैंने उसे भेड़िये के पैरों के निशानों के बारे में बताया। कहने लगी- ‘ड्राईवर कहता था कि वह भूखा नहीं था। मैं नहीं जानती। शायद बहुत होशियार है।’
अगले दिन ख़बर मिली कि शिकंजा खिंच गया है। लोग शिकंजे के घिसटने के निशान के साथ-साथ गये और उस तक पहुँच गए। अधमरा था। फावड़े के फल की दो तीन मार पड़ी तो ठण्डा हो गया। डॉक्टर ने उसे देखकर कहा- ‘अल्हम्दुलिल्लाह।’ मगर उसकी पत्नी ने सिद्दीक़ा से कहा- ‘सुबह सवेरे मैंने उसे जंगले के उस ओर बैठे देखा था। यह जो पकड़ा गया है, अवश्य ही कोई कुत्ता या गीदड़ या कुछ और होगा।’
शायद- असम्भव नहीं कि यही बातें उसने डॉक्टर से भी की हों, कि डॉक्टर को लाचार होकर पुलिस के पास जाना पड़ा। उसके बाद दो-एक रात पुलिस वाले डॉक्टर के घर में ठहरे। तीसरी रात थी, तभी हमें गोली चलने की आवाज़ सुनायी दी। अगले दिन पुलिसवाले और गाँव के कुछ लोग अस्पताल के ड्राईवर के साथ खून के निशानों के साथ-साथ चलते हुए आबादी के दूसरी ओर की पहाड़ी पर गये। पहाड़ी के पीछे घाटी में उन्हें भेड़िये के पैरों के निशान और अपनी जगह से हटी हुई बर्फ़ दिखायी दी। लेकिन उन्हें सफ़ेद हड्डी का टुकड़ा तक न मिला। ड्राईवर बोला- ‘विधर्मी कहीं के, उसकी हड्डियाँ तक खा गये।’
मुझे विश्वास नहीं हुआ। मैंने मास्टर सफ़र को भी बताया। सफ़र ने कहा- ‘ख़ानम ने भी जब सुना तो केवल मुस्कुरा दी। डॉक्टर ने स्वयं मुझसे जाकर उसे ख़बर देने को कहा था। ख़ानम बुख़ारी के पास बैठी कोई ड्राइंग बना रही थी। उसे दरवाज़ा खुलने की आवाज़ सुनायी नहीं दी। जब मुझे देखा तो काग़ज़ों को उलट दिया।’
ख़ानम की ड्राइंग में कुछ विशेष बात नहीं थी। केवल उसी भेड़िये के स्केच बनाये थे। काले पन्ने के बीच चमकती हुई दो लाल आँखें, बैठे हुए भेड़िये का काली क़लम से बनाया हुआ स्केच, और एक आकृति में भेड़िया मुँह उठाकर चाँद पर गुर्राता हुआ। भेड़िये की परछाईं अतिशयोक्ति की हद तक फैली हुई थी, इस तरह कि उसने सारे अस्पताल और क़ब्रिस्तान को छिपा लिया था। दो-एक स्केच भेड़िये की थूथनी के थे, जो अधिकतर कुत्ते की थूथनी मालूम पड़ती थी, विशेषतः उसके दाँत।
बुधवार की तीसरी पहर को डॉक्टर शहर चला गया। सिद्दीक़ा ने बताया कि उसकी पत्नी की तबियत खराब थी। डॉक्टर ने स्वयं उसे बताया था। मुझे विश्वास नहीं हुआ। मैंने स्वयं उसे बुधवार की सुबह देखा था। वह ठीक समय पर बच्चों को कला सिखाने पहुँची थी। उसने वैसी ही एक ड्राइंग ब्लैकबोर्ड पर बनायी थी। उसने मुझे स्वयं बताया था।
जब मैंने उससे पूछा- ‘आखिर भेड़िया क्यों?’ तो कहने लगी- ‘बहुत चाहती हूँ कि कुछ और बनाऊँ, मगर मुझसे बनता ही नहीं। जैसे ही चाक को बोर्ड पर रखती हूँ, अपने आप भेड़िये की ड्राइंग बनने लगती है।’
अफ़सोस कि बच्चों ने खेल की घण्टी में उस ड्राइंग को मिटा दिया। दोपहर के बाद जब मैंने उनमें से एक दो की ड्राइंग देखी तो सोचा कि शायद बच्चे उसे ठीक तरह न बना सकें। लेकिन बच्चों के बनाये हुए सारे स्केच ठीक शिकारी कुत्ते की तरह थे, कान लटके हुए और दुम पिछले हिस्से के पास लटकी हुई।
गुरुवार की दोपहर को जब ख़बर मिली कि डॉक्टर वापस आ गया है तो मैंने सोचा कि निश्चित तौर पर वह अपनी पत्नी को रात भर के लिए शहर में छोड़कर अपने काम के उद्देश्य से लौट आया है। मरीज कोई नहीं था, यानी आस-पास के गाँवों से कोई नहीं आया था। मगर, खैर, डॉक्टर अपने कर्त्तव्यों का पालन करने वाला आदमी है। बाद में जब वह अख़्तर की तलाश में निकला तो सब लोग डॉक्टर की गाड़ी और अस्पताल की जीप में सवार हो गये। पुलिस वाले भी गये मगर उन्हें कोई अता-पता नहीं मिला।
मगर डॉक्टर ने कोई बात नहीं की। जब उसे होश आता तो वह रोने लगता या एक-टक हम सबको बारी-बारी देखता रहता, और उसकी आँखें उसकी पत्नी की तरह फैली होतीं। लाचार होकर मैंने उसे जूस के दो-एक गिलास पिलाये ताकि वह बात कर सके। शायद ऐसा हो कि सबके सामने बात न करना चाहता हो। मेरे विचार में नहीं था कि उनका आपस में कोई झगड़ा हुआ होगा। मगर न जाने क्यों डॉक्टर लगातार यही कहता रहा- ‘विश्वास करो, मेरा इसमें कोई दोष नहीं था।’
मैंने अपनी पत्नी से, बल्कि सिद्दीक़ा और सफ़र से भी पूछा, किसी को भी याद नहीं था कि उन पति-पत्नी में से किसी ने कभी एक-दूसरे से ऊँची आवाज़ में बात भी की हो। मगर मैंने डॉक्टर से जाने को मना किया था। मैंने यह भी कहा था कि घाटी में बर्फ़ बहुत ज़्यादा है। शायद डॉक्टर ही की बात सही थी। पता नहीं। आखिरकार बोला- ‘उसकी तबियत ठीक नहीं। शायद यहाँ रहना सहन न कर सके। मगर ये सब ड्राइंग क्यों?
बाद में मैंने वे सारे स्केच देखे। उसने भेड़िये के पंजों की कई ड्राइंग्स बनायी थीं, एक-दो उसके लटके हुए कानों की भी। मैंने कहा- ‘शायद।।।’
डॉक्टर ठीक से बात नहीं कर पा रहा था। लेकिन मुझे आभास हुआ कि घाटी के बीच में बर्फ़ शायद बहुत अधिक थी, इतनी कि गाड़ी के शीशे ढक गये थे। तब डॉक्टर को पता चला कि बर्फ़ हटाने वाले वाइपर खराब हो गये हैं। बेबस होकर उसे गाड़ी रोकनी पड़ी। कहने लगा- ‘विश्वास करो, मैंने स्वयं देखा, अपनी आँखों से देखा कि वह सड़क के बीचों-बीच खड़ा है।’
अख़्तर ने कहा- ‘कुछ करो, यहाँ तो हम ठण्ड से अकड़ जाएँगे।’
डॉक्टर ने कहा- ‘तुम उसे नहीं देखतीं?’
डॉक्टर ने हाथ बाहर निकाला ताकि शीशे पर फेरकर बर्फ़ साफ करे, लेकिन जान गया कि इससे कुछ नहीं होगा। कहने लगा- ‘तुम जानती हो कि यहाँ से वापस भी नहीं लौट सकते।’
वह ठीक कहता था। उसके बाद गाड़ी का इंजन भी बन्द हो गया। जब अख़्तर ने फ़्लैशलाइट जलायी तो देखा कि भेड़िया बिल्कुल सड़क के किनारे बैठा है। बोली- ‘वही है, विश्वास करो बिल्कुल अहानिकारक है। शायद वास्तव में भेड़िया न हो, शिकारी कुत्ता या किसी और प्रकार का कुत्ता हो। बाहर जाकर देखो, शायद बर्फ़ हटा सको।’
डॉक्टर ने कहा- ‘बाहर जाकर? मगर तुम्हें यह नज़र नहीं आता?’
यह कहते हुए भी उसके दाँत बज रहे थे। रंग सफ़ेद पड़ गया था, बिल्कुल उसी तरह जैसे अख़्तर की रंगत खिड़की से लगकर वीराने को या कुत्ते को देखते हुए पीली पड़ जाती थी। अख़्तर ने कहा- ‘अगर मैं उसके सामने अपना हैंडबैग फेंक दूँ तो?’
डॉक्टर बोला- ‘उससे क्या लाभ होगा?’
बोली- ‘चमड़े का है। थोड़ी देर तक वह अपना सर इसमें डालेगा, और इतने में तुम इसे ठीक कर लोगे।’
हैंडबैग को बाहर फेंकने से पहले उसने डॉक्टर से कहा- ‘काश मैं अपना फ़र वाला कोट साथ लेकर आयी होती।’
डॉक्टर ने मुझसे कहा- ‘तुमने स्वयं ही तो बताया था कि दरवाज़ा नहीं खोलना चाहिए और न बाहर निकलना चाहिए?’
अख़्तर ने बैग बाहर फेंका तब भी डॉक्टर बाहर न निकला। बोला- ‘खुदा की क़सम, मैंने उसकी काली परछाईं को देखा। वह सड़क के किनारे बिल्कुल स्तब्ध बैठा था। न हिलता था और न गुर्राता था।’
फिर अख़्तर ने फ़्लैशलाइट जलाकर अपना बैग ढूँढना चाहा तो वह उसे नज़र नहीं आया। वह बोली- ‘अच्छा मैं खुद बाहर जाती हूँ।’
डॉक्टर ने कहा- ‘तुम्हें क्या पता?’ या शायद यह कि ‘तुमसे ठीक नहीं होगा।’ मगर उसे इतना याद था कि उसको ख़बर होने से पहले ही अख़्तर बाहर जा चुकी थी। डॉक्टर ने उसे नहीं देखा, अर्थात बर्फ़ ने उसे बाहर नहीं देखने दिया। उसने उसके चीखने की आवाज़ भी नहीं सुनी। फिर उसने डर के मारे गाड़ी का दरवाज़ा बन्द कर लिया, या शायद अख़्तर ने बन्द किया। यह उसने नहीं बताया।
शुक्रवार की सुबह हम गाँव वाले दोबारा निकले। डॉक्टर नहीं आया। वह आ नहीं सकता था। बर्फ़ अब भी पड़ रही थी। किसी को आशा नहीं थी कि कोई सुराग मिलेगा। हर तरफ सफ़ेदी छाई हुई थी। हमने हर उस जगह को जाकर देखा जो हमारे अनुमान में आयी। हमें केवल चमड़े का वह बैग मिल सका। रास्ते में मैनें सफ़र से पूछा तो उसने कहा- ‘वाइपर तो बिल्कुल ठीक हैं।’
मेरी समझ में कुछ नहीं आता। उसके बाद जब सिद्दीक़ा मुझे वो ड्राइंग्स दिखाने लायी तो मेरा दिमाग और उलझ गया। उन सारे स्केच के साथ ज़ल्दी में लिखा हुआ एक नोट था कि ‘अपने स्कूल के लिए।’
जाते समय उसने ये वस्तुएँ सिद्दीक़ा को दी थीं और कहा था कि अगर उसकी तबियत ठीक न हो सके या वह बुधवार को न आ सके तो ये ड्राइंग्स मुझे पहुँचा दे ताकि मैं इन्हें मॉडल बनाकर प्रयोग करूँ। मैं सिद्दीक़ा को नहीं बता सका, और न डॉक्टर को, कि आखिर साधारण कुत्तों की इन तस्वीरों में गाँव के बच्चों की क्या रुचि हो सकती है?

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