भीतर के अँधेरे की कलात्मक माँग मिथलेश शरण चौबे
29-Dec-2019 12:00 AM 3552
भले ही ज़्यादातर निजी जि़न्दगी की आँच से ही किसी का लेखन उर्जस्वित हो; साहित्य पढ़कर, लेखक के बारे में बहुधा बहुत मामूली बातें ही पता चलती हैं। उन बातों पर साहित्यिक (?) समाज की आरोपित व्याख्याएँ अकसर हावी रहती हैं जिनमें सरलीकृत छिछले आक्षेप का आनन्द ज़्यादा प्रकट होता है, कुछ प्रेरणीय किस्म के मुमुक्षु भाव की घोर अवहेलना ही हमें मिल पाती है।
लेखक अपने लेखन से ही जो दे रहा है, वही इतना भी क्या कम है। अपनी साहित्यिक अभिव्यक्तियों के बीच बहुत सारा प्रकट करते लेखक के बारे में हमें और क्या जानने की दरकार रहती है। यह जानना क्या किसी लेखकीय उपक्रम के उस रहस्य को उजागर कर सकता है जहाँ से हम कुछ सीखना यदि चाहते हैं तो एक पूर्ण-अपूर्ण सबक पा सकें जोकि सायास रूप से लेखक का अभीष्ट नहीं ही होगा।
हिन्दी में एक असाहित्यिक किस्म की रवायत ने अपनी प्रमुख जगह बना ही ली हैः कुछ लेखकों को सर्वकालिक महान घोषित कर हर उल्लेखजन्य-अनुल्लेखजन्य जगहों पर उन्हीं को उद्धृत करना और दूसरा कुछ लेखकों के नामोल्लेख से भी पूरी तरह बचना। ऐसा लेखकों को पूरी तरह पढ़ने-समझने के बाद करना सम्भव नहीं हो सकता, अर्थात् नहीं पढ़े गए के निषेध का प्रायोजित-सा बर्ताव इस दूसरी कोटि को निर्मित करता है। कथाकार कृष्ण बलदेव वैद इस दूसरी कोटि के असंदिग्ध वासी हैं।
‘प्रवास और प्रवास’ वैद साहब से समास सम्पादक की हुई वार्ता की कि़ताब है। संवाद विधा बहुधा जिस अल्पता की गिरफ़्त में हाँफ़ती, बनावटी प्रश्नों के तयशुदा उत्तरों में फँसती तथा अवदान-पुरस्कार-विवाद की त्रयी के प्रलोभन में उलझती रहती है, उससे कुछ सहज ही जानने-सीखने लायक हासिल कर पाने की उम्मीद व्यर्थ ही रह जाती है। अपवाद भी हैं, हमें ऐसे ही अपवादों की उम्मीद करना चाहिए।
हमें इस उम्मीद के लालच में भी ज़रूर पड़ना चाहिए कि किसी लेखक द्वारा बताए उसके जीवन वाकयों से कुछ ऐसा मिल सकता है जो जीवन कर्म के बीच से हमें उठाकर सृजनात्मक कर्म की ओर उन्मुख कर सके। जहाँ अपनी दुनिया में टहलते हुए अन्यों की दुनिया से आपसदारी की प्रक्रिया का निपट सच भी हम निस्संगता से अनुभव कर सकें।
घटित के बीहड़ से अघटित की उर्वरता का स्वप्न जिन कल्पनाओं के नैरन्तर्य से लेखन में मूर्त हो पाता है, सिफऱ् लेखन को पढ़कर उस पाश्र्व में छुपे अविलीन सच को महसूस करना संभव नहीं लगता। यदि लेखन से इतर बताये गये सच के प्रति हम शंकित हों तो! हमें असंदिग्ध से बचना चाहिए, संदिग्ध की गरिमा पर भी यकीन करते हुए।
अनेक मूर्धन्य लेखकों से, विस्तृत रूप में नहीं हो सके संवाद से यह कल्पना की जा सकती है कि वे खुद अपने बारे में तफ़तीस से बता रहे होते तो हम उनकी निजी दुनिया से सघन रूप से जुड़ सकते थे। हो सकता है वह जुड़ाव हमारे सृजनात्मक होने के कुछ बन्द दरवाज़े खोल पाता।
इस वक़्त यह जानना और भी ज़रूरी है। तुरन्ताक्रान्त लेखकीय दौर में जबकि सोशल मीडिया में रचनाओं के औपचारिक प्रशंसकों से मुग्ध लेखकों की भीड़ में निरन्तर इज़ाफा हो रहा है; लेखकीय उपक्रम का अत्यन्त सरलीकरण हुआ है। आसन्न लोकप्रिय मसलों पर रपटाक्रान्त रचनाओं के बहुल उत्सर्जन के दौर में, रचना प्रक्रिया की जिस कदर अवमानना हो रही है, लेखकीय-कर्म को सामान्यीकृत किया जा रहा है; लेखन प्रेरक स्थितियों के साथ लेखकीय नैतिकता के युग्म की अनिवार्यता को समझना न केवल ज़रूरी है बल्कि साहित्य पर भरोसा करने की एकमात्र प्रविधि है।
बचपन सीखने और आवेग की सम्भावना की सबसे निर्मल अवस्था होती है। इस संवाद में वैद साहब ने अपने बचपन के दौर को, अपने स्कूली दिनों को अपने लेखक बन सकने के अर्थ में कृतज्ञतापूर्वक याद किया है। डिंगा (‘वैद साहब 1947 में भारत के विभाजन के बाद डिंगा, जो पाकिस्तान में आ गया था, से दिल्ली आ गए’) के हाकिम सिंह हाईस्कूल का माहौल, हेडमास्टर नरोत्तम सिंह जौहर का सहयोग उनकी स्मृति में है। लाहौर के डी.ए.वी. काॅलेज की वेदपाठ की कक्षा का तो उन्होंने अपने लेखक होने की सम्भवता में अनिवार्य वरदान ही माना है।
वैद साहब हिन्दी के विभाजन पीडि़त लेखकों में शुमार हैं लेकिन उसकी विभीषिका के उथले वृत्तान्तों के बखान से विलग उनके लेखन में जैसा कि इस संवाद में वे बताते हैं कि निर्वासन की पीड़ा एक रिश्ते की मानिंद ताउम्र चिपकी रही। इस रिश्ते को निर्मल वर्मा के शब्द ज़्यादा सघनता से चरितार्थ कर करते हैंः ‘कुछ रिश्तों से हम कभी बाहर नहीं निकल सकते, निकलने की कोशिश करें तो निकलने की कोशिश में मांस के लौथड़े बाहर आ जाएँगे, खून में टिपटिपाते।’ खुद वैद साहब इस तरह याद करते हैंः ‘विभाजन के विस्फोटक विस्थापन ने उस पर मुहर लगाकर मुझे हमेशा के लिए स्थायी तौर पर क्षत-विक्षत कर दिया और स्थायी जलावतन बना दिया। मैं बसा-रसा कभी भी नहीं, कहीं भी नहीं।’
लेखक बनने के दौर में एक लेखक अनेक लेखकों को पढ़ता है। कुछ उसे अत्यन्त आकर्षित करते हैं, उनसे वह लेखकीय तड़प हासिल करता है। कुछ लेखक उसे लेखन के औचित्य और नैतिक प्रश्नों का आलोक देते हैं। कुछ लेखक मित्र व कलाकार मित्रों का साहचर्य साहित्य और कलाओं के प्रति आश्वस्तिपरक आस्था का भाव उत्पन्न कराते हैं। वैद साहब इस दृष्टि से हिन्दी के उदार ‘कृतज्ञता ज्ञापक’ लेखक हैं जिनकी कृतज्ञता का दायरा समय व भाषा, वय तथा स्थान के विस्तारों को नापता है। इकबाल, डिकेंस, हार्डी, लाॅरेंस के लेखन को पसन्द करने वाले वैद साहब ने काफ़्का, कामू, सापर, दोस्तोएवस्की, चेखव, तुर्गनेव, गोर्की, जेम्स ज्वाॅयस, प्रूस्त, वर्जीनिया वुल्फ, हेनरी जेम्स, फ़ाॅस्टर, अज्ञेय, जैनेन्द्र, रेणु, हजारी प्रसाद आदि को पढ़ना अपने लेखन की निर्मिति के लिए अवदान स्वरूप माना है। उन्होंने भीष्म साहनी, रामकुमार, निर्मल वर्मा, श्रीपत राय, नीरद चैधरी, मोहन राकेश, श्रीकान्त वर्मा, अशोक सेक्सरिया, कृष्णा सोबती, प्रयाग शुक्ल, मनोहर श्याम जोशी, कमलेश्वर, महेन्द्र भल्ला, सुरेश अवस्थी, प्रभाकर माचवे, विद्यानिवास मिश्र, नेमिचन्द्र जैन, अशोक वाजपेयी तथा समास सम्पादक से अपने साहचर्य को भी याद किया है। इनसे हुई मुलाकातें, कलाओं व राजनीति पर संवाद, अपने लेखन पर प्रतिक्रियाएँ, व्यक्तित्त्व पर बेबाक राय को वैद साहब अपने लिए अत्यन्त मूल्यवान बताते हैं। चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन तथा दार्शनिक दयाकृष्ण से मैत्री व साहचर्य वैद साहब की स्मृति में सबसे सघनता से उपस्थित हैं।
सेमुएल बेकेट, जेम्स ज्वाॅयस, हेनरी जेम्स के लेखन को पढ़ना तो वैद साहब ने अपने उपन्यासों की निर्मिति के लिए अपरिहार्य कारण ही माना है। हार्वर्ड, पाॅट्सडैम, बोस्टन, काॅलेज स्टेशन जैसी जगहों में प्रवास और अध्यापन की नौकरी के दौरान कुछ विदेशी शख्सियतों से अपने सम्पर्कों की याद भी वैद साहब की जीवन चर्या में घुली हुई है, इनमें आई ए रिचड्र्स, डोना लुइजा कुमारस्वामी, हक्सले प्रमुख हैं।
प्रश्नकर्ता के प्रश्न वैद साहब की आलोचकीय मुद्रा से भी रूबरू कराते हैं। अज्ञेय के आरम्भिक दोनों उपन्यासों से ज़्यादा सशक्त और महत्त्वपूर्ण उन्होंने ‘अपने-अपने अजनबी’ को माना है, हालाँकि ऐसा मानने की कोई विस्तृत व्याख्या नहीं की है। ‘आलोचना की आलोचना का संगीत’ की ओर ध्यानाकृष्ट कराते हुए उन्होंने हिन्दी आलोचना में अपने अनलिखे उपक्रम को शीर्षकों से व्यक्त कर अपना अफ़सोस प्रकट किया है। एक लेखक लिखित मूर्त से अलिखित अमूर्त को भी याद कर लेखकीय आकांक्षा और किसी विधा विशेष को लेकर अपने मापदण्ड भी प्रकट कर सकता है, यह जानना दिलचस्प है।
संगीत, चित्रकारी और सिनेमा की दुनिया से गहरे सम्बद्ध रहते हुए वैद साहब ने अपने लेखन और अध्यापन में सर्वथा अनूठी युक्तियों को साकार किया है। चार दशक तक अध्यापनरत रहे वैद साहब ने भारतीय उच्च शिक्षा की जकड़बंदियों और हार्वर्ड जैसे संस्थानों के खुलेपन पर विचार किया है। भारत में साहित्य शिक्षा की खराब हालत पर प्रश्नकर्ता की चिंता के विलोम स्वरूप वैद साहब के, चंडीगढ़ के अँग्रेज़ी विभाग में ट्यूटोरियल ग्रुप, पाॅट्सडेम में एक महीने की स्टारलेक राइटिंग वर्कशाॅप जैसे प्रयोग साहित्य शिक्षण के लिए बेहतर रहे।
भारतीय विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसर और विद्यार्थियों के बीच व्यवहार की अनुलंघ्य दूरी, श्रेष्ठता बोध व दैन्य का आरोपण जिस कदर हावी रहता है; वह ज्ञान के, सीखने-समझने के मार्ग को अवरुद्ध ही रखता है। हार्वर्ड और पाॅट्सडेम में खुलापन, अध्यापकों की उदारता और उच्च शैक्षिक आकांक्षा का सम्मान कुछ स्थिर दृश्यों की तरह वैद साहब की स्मृति में है। प्रोफ़ेसर डग्लस बुश, आर्चीबाल्ड मेक्लीश, आई ए रिचड्र्स की दी हुई सीख, पारिवारिक चिन्ता के समाधान स्वरूप की गई फ़ेलोशिप की अनुशंसा, सच में अत्यंत मानवीय और भारतीय शैक्षिक संसार के लिए नज़ीर की तरह हो सकती हैं।
वैद साहब 1981 का अपना भारत भ्रमण भी याद करते हैं। इस दौरान वे बहुधा लेखकों-कलाकारों के घरों में ही ठहरे और उनसे साहित्य व कलाओं पर संवाद के साथ ही उन जगहों के बारे में विस्तार से जाना। बदरीविशाल पित्ती-हैदराबाद, अयप्पा पणिक्कर दृत्रिवेंद्रम, जयन्त महापात्र-कटक, नवनीता देवसेन कोलकाता से हुई उनकी मुलाकतें उनके लिए दीर्घजीवी साबित हुई। वे भारत भवन, भोपाल को अपने जीवन का सुन्दरतम अनुभव मानते हैं। वहाँ ‘अन्तरभारती’ को उन्होंने राइटिंग वर्कशाॅप की तरह ही बाधाविहीन रखा।
साहित्य की दुनिया के अलावा कुछ ज़रूरी मसलों पर भी वैद साहब का सुचिंतित और बेबाक विचार इस संवाद में मिलता है। भारतीयता का प्रश्न, वैद साहब जैसे विस्थापन पीडि़त और विदेश में अध्यापनरत-निवासरत लेखक के समक्ष, हमारी नज़र में किंचित असुविधाजनक लग सकता है, उनके लिए यह ऐसा एकदम नहीं है। भारतीयता को भ्रमित करते हठधर्मी सरलीकरण के बरअक्स वे बताते हैं- ‘भारतीयता को हिन्दुत्व का पर्याय मैंने कभी नहीं माना, न अपने मन में, न अपने लेखन में। जब तक अन्य अनेक धर्मों के अनुयायियों को, और खास तौर पर मुसलमानों को, भारतीयता की अवधारणा बनाते समय हम भूलते रहेंगे तब तक वह अवधारणा दूषित ही रहेगी।’
वैद साहब ने लेखकीय उपक्रम, लेखन का समय, लेखन में प्रयोग, प्रयोग का औचित्य, भाषा का चयन, लेखन का प्रयोजन आदि पर सूक्ष्मता से विचार किया है। वे स्वयं को पथ की खोज करने वाला लेखक बताते हैं। उनकी दृष्टि में प्रयोग का कारण ‘अपने समय व स्थान के लेखकों के काम से गहरा असन्तोष’ है। उनका लेखन ‘भीतर के अँधेरे की कलात्मक माँग’ है। अंग्रेज़ी भाषा और साहित्य के अध्येता और विदेश में अध्यापनरत रहने के बावजूद ‘किसी भी भारतीय भाषा में लिखने को एक भारतीय लेखक का नैतिक धर्म’ उनकी ताउम्र कायम रही नैतिक जि़द है। हम अनुमान लगा सकते हैं कि उन्हें अंग्रेज़ी में लिखने के तरक्की उन्मुख प्रलोभन मिले होंगे। वैद साहब द्वारा अपने उपन्यासों को अनुपन्यास कहा जाना, आत्महंता जैसा लग सकता है लेकिन इसी स्थिति में उन्होंने अपने उपन्यासों को औपन्यासिक विस्तार से विभूषित किया है।
संवाद की इस कि़ताब के अन्त में संवादी का वैद साहब के लेखन पर एक निबन्ध ‘भाषा का नृत्य’ शामिल है। इस निबन्ध में उनके लेखन की विलक्षणताओं की वजहों और विलक्षण के औचित्य पर सुचिंतित विचार किया गया है, मसलन वैद साहब के लेखन में प्रयोग पर- ‘वे वैसे गद्य नहीं लिखते जैसे हिन्दी में पिछले कुछ दशकों में ज़्यादातर लिखा जाता रहा है। वे उस तरह गद्य लिखते हैं जैसा भारत में शताब्दियों से संगीत गया जाता रहा है, चित्रकला होती रही है, नाचा जाता रहा है।’
लेखकीय जीवन के तुरन्त बाद लेखन में प्रवेश का यह एक ऐसा दरवाज़ा हो सकता है, जिसमें से होकर लेखक को उसके अपने लेखन-प्रत्ययों के साथ जाना जा सके।
लेखक के अप्रकट सूक्ष्म को प्रकट स्थूल तक लाने की संवाद-युक्ति इस किताब में पूछे प्रश्नों से अनेक बार झलकती है।
इस विस्तृत संवाद को पढ़कर कुछ प्रश्न उभरते हैंः वैद साहब के मित्र और हिन्दी के दो बड़े लेखक निर्मल वर्मा और कृष्णा सोबती का पाठक और प्रभावित वर्ग वैद साहब से ज़्यादा बड़ा लगता है, इन दोनों पर आलोचकीय उद्यम भी वैद साहब से ज़्यादा है। हिन्दी के पाठक वर्ग और आलोचकीय उद्यम की इस अनदेखी पर क्या लेखक ने कभी विचार किया। युवा लेखकों के लिए जीवन व लेखन के संघर्ष और प्रयोग, जिनसे प्रवाह में अपने पथ की खोज में निकला जा सके तो इस संवाद में मिल पायेगा लेकिन एक सयाने लेखक से कोई प्रत्यक्ष पुकार नहीं मिल पाती। यह वैद साहब की अपनी निजता है लेकिन किसी संवाद को पढ़ने के हमारे अपने प्रलोभन भी होते हैं।
अपनी भाषा में सर्वथा प्रयोग उन्मुख गद्यकार की जीवंत स्मृतियों को जानने के लिए तो यह किताब पढ़ी ही जा सकती है, इसे लम्बे और लगभग स्थायी प्रवासी लेखक की अपने देश, अपनी स्मृतियों, अपनी भाषा के प्रति निश्छल आतुर ललक को जानने के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए।
प्रवास और प्रवास ( कृष्ण बलदेव वैद से उदयन वाजपेयी का संवाद )
रज़ा पुस्तक माला, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली
प्रकाशन वर्ष - 2018, कीमत-199 रुपये
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